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सामाजिक विकास

परिचय

उत्तर बाल्यावस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारंभ कर देता है| जहाँ उसके सहपाठी, मित्र एवं अध्यापकों के साथ अन्तः क्रिया होती है| अतः वह इस अवस्था में अपने मित्रों के साथ रहना पसंद करता है| इनमें संघीय प्रवृत्तिअधिक प्रबल हो जाती है जिसके कारण इन बालकों में सामाजिक चेतना का विकास तीव्र गति से होने लगता है| बच्चे अपनी इच्छा के अनुरूप समूहों का निर्माण करते हैं| वस्तुतः इस अवस्था में बालक प्रायः टोलियों रहना पसंद करता है| इसी कारण इस अवस्था को ‘टोली की अवस्था’ कहते हैं|  हैटलिप (1983 ) का मानना है कि उत्तर बाल्यावस्था में बालकों का सामाजिक विकास इन टोलियों से होता है जिसमें रहकर बालक सामाजिक व्यवहार सीखता है| इस अवस्था में बालक का सामाजिक विकास तीव्र गति से होता है| परिणामस्वरूप पूर्व बाल्यावस्था का आत्मकेंद्रित, स्वार्थी बालक, उत्तर बाल्यावस्था में समवयस्कों की टोली का सुसमायोजित सदस्य बन जाता है| बालक के पारिवारिक वातावरण से समायोजन स्थापित करने में मिलने वाली सफलता उसके उत्तर बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करता है (बुहलर, 195२)

मित्र मण्डली या टोलियों

इस अवस्था की मित्र मण्डली अर्थात् लड़कों की एक साथ एवं लड़कियों की अलग टोलियाँ बन जाती हैं तथा बच्चे आपस में खेलना पसंद करते हैं| प्रारंम्भ में केवल तीन चार सदस्य ही टोली में होते हैं किन्तु खेल में रूचि बढ़ने से टोली में सदस्यों की संख्या अधिक हो जाती है| बेल तथा हॉल (1954) ने स्पष्ट किया है कि टोली का आकार इस बात पर निर्मर करता है कि कितने बालक उपलब्ध हैं तथा किन कामों को करने में उनकी रूचि है| यद्यपि  ये टोलियाँ खेल या आपसी सम्बन्ध विकसित करने के लिए बनती है तथापि लड़कों की टोलियाँ कभी-कभी आसामजिक व्यवहार (जैसे, लोगों को तंग करना, तबाकू खाना या नशा करना, जुआ खेलना या गन्दी बैठकें करना) को प्रदर्शित करती हैं| जबकि लड़कियाँ अपना अधिकांश समय खेल खेलने, अध्यापकों, माता-पिता तथा सहोदरों के सन्दर्भ में बातें करने में व्यतीत करती हैं | क्रेन (1955) ने यह सिद्ध किया है कि लड़कियों की अपेक्षा लड़के प्रौढ़ों की बंधी हुई मर्यदाओं  को तोड़ने का अधिक प्रयत्न करते हैं |

टोली का एक केंद्रीय स्थान होता है जहाँ उसके सभी सदस्य  एकत्रित होते हैं प्रायः यह स्थान बालकों के घरों से दूर होता है ताकि उनके माता-पिता उन्हें न देख सके जिससे उनके कार्यों में हस्तक्षेप न हों जिस समय  बालक के अंदर यौवनारम्भ  या वय: संधि शुरू होने लगता है (11-12वर्ष) उसी समय से बालक की टोली के काम से रूचि हट जारी है और वह टोली छोड़ देता है|

टोली का प्रभाव

बालक टोली का सदस्य बने रहने में आनन्द की अनुभूति करता है तथा वह समूह के अन्य सदस्यों के सुझावों के प्रति अत्यधिक होता है| वैलेलराप तथा हालवर्सन (1975)  के अनुसार बच्चे दूसरों से अपने समूह के क्रिया कलापों को गुप्त रखना चाहते हैं| टोली के सदस्य बनने के लिए जो निर्धारित मानक होते हैं, उन मानकों पर खरा उतरने के लिए बालक समूह के अनुरूप व्यवहार करना शुरू कर देता है| टोली का अनुसरण करते हुए स्वंय को एक व्यक्ति के रूप में देखते हैं तथा इसी को आधार मानकर अपने आत्मसम्प्रत्यय को विकसित करते हैं (लेविस, 1954) |

मित्र

उत्तर बाल्यावस्था को फ्रायड ने मनोलैंगिक विकास की अव्यक्त अवस्था कहा है जिसमें बालक तथा बालिकाएँ अपने-अपने समूह के साथ रहना (समलैंगी) पसंद करते हैं| इस अवस्था में लड़कियाँ लड़कों को ऊधमी समझती हैं, उनकी हुल्ल्हड़वाजी और अशिष्टता उन्हें असहनीय होती है तथा उनके उनका प्रायः विद्वेष रहता है| लड़कियों की लड़कों के प्रति अभिवृत्तियाँ लड़कों की अपेक्षा अधिक संवेगयुक्त होती हैं| इस अवस्था में बालक अपने मित्रों के चुनाव में कुछ महत्वपूर्ण बातों को अहमियत दता है| यथा –उसका मित्र उसके समान हो, जो उसकी रुचियों या आवश्यकताओं की पूर्ति हो, बालक का मित्र उसके पड़ोस या स्कूल का हो, हंसमुख हो, सहयोगी हो, खेल में साथ दे आदि| बाल्यावस्था के अंत तक जाते-जाते बालक ऐसे दोस्त बनाना अधिक पसंद करते हैं जो उसके पाने सामाजिक-आर्थिक वर्ग के, अपने धर्म तथा जाति के हो, (हैविंगघ्रस्ट, 1970) |

बालक जो किसी भी टोली का सदस्य नहीं है उसके साथ अन्य बच्चे अनुचित व्यवहार करते हैं| बालकों की या प्रवृत्ति प्रायः ग्यारहवें वर्ष के आस-पास अपनी पराकाष्ठ पर होती है (गेसेल,1956)| यदि कोई बालक किसी समूह का सदस्य बनना चाहता है तो टोली में स्वीकृति पाने के लिए उसी को पहल करनी पड़ती है| प्रारंभ में प्रायः उसे झिड़क दिया जाता है| यदि वह बार-बार टोली का सदस्य बनने का प्रयत्न  करता है और यदि वह टोली  के किसी एक बालक में अपने प्रति रूचि पैदा कर सकता है तो अन्ततः वह  टोली का सदस्य बन जाता है| (गेसेल,1956) का मानना है कि यद्यपि टोलियाँ सुगठित होती हैं तथापि टोली के बालक अपने दोस्तों से बोलना बंद कर देते हैं| इस अवस्था में बालक में होने वाली मित्रता अस्थायी होती है| बालक मामूली बात को लेकर दुश्मनी तथा मामूली परिचय को बढ़ाकर घनिष्ठ मित्रता में बदल देता है| बोनी (1954) के अनुसार लोकप्रिय बालक भी प्रायः दोस्त बदलते हैं| भिन्न-भिन्न आयु में मित्रता में होने वाला परिवर्तन 12.5 में प्रदर्शित है|

सामाजिक स्वीकृति

बालक यह जानता है कि उसका मित्र उसे पसंद करता है या नहीं| यदि बच्चा लोकप्रिय होगा तो वह टोली का सदस्य बन जाता है| परन्तु तीव्र बुद्धि वाले बालक स्वेच्छा से कभी-कभी एकाकी बन जाते हैं जो उसके समवयस्कों की अभिवृत्ति के विपरीत होता है|

ग्रांलुड (1955) ने अपने अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकाला कि जो बालक लोकप्रिय होते हैं वे हंसमुख होते हैं, स्वेच्छा से किसी कार्य में भाग लेते हैं, कम आक्रामक होते हैं, सहायतापरक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तथा कक्षा की आवश्यकताओं और प्रत्याशाओं के अधिक अनुरूप  होते हैं| वस्तुतः लोकप्रिय बालक सुसमायोजित होते हैं| तीव्र बुद्धि वाले बालकों को, औसत या निम्न बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा अधिक पसंद किया जाता है| इस आयु में सामाजिक स्वीकृति न मिलने पर बालक स्वयं को संतोषजनक ढंग से समायोजित नहीं कर पाते है|

नेतृत्व

पूर्व बाल्यावस्था में वही बालक नेता बनता है जो आक्रामक हो, लेकिन उत्तर बाल्यावस्था में टोली का नेता वह बनता है जो टोली का आर्दश प्रतिरूप होता है| टोली के नेता को विशेष  रूप से बुद्धि में, रूपरंग में, आत्मविश्वास, खेल एवं संवेगों की स्थिरता की दृष्टि से श्रेष्ठ होना चाहिए (बेल, 1954)| क्रेच, क्रचफील्ड तथा वैलेशी (196२) का अनुसार “किसी समूह या संगठन का नेता वह सदस्य होता है जो समूह के सदस्यों के व्यवहारों को अत्यधिक प्रभावित करता है तथा समूह के सदस्यों को परिभाषित करने तथा समूह की विचारधारा को निर्धारित करने में मुख्य भूमिका निभाता है| “बहिर्मुखता नेता की एक अहम विशेषताहोतीहै|

नेतृत्व का विकास

जब दो या दो से अधिक बालक एक साथ खेलते हैं तो उनमें जो शक्तिशाली होता है वह दूसरे को प्रभावित करके उसपर प्रभुत्व प्रदर्शित करना चाहता है| इस प्रकार बच्चों में नेतृत्व की उत्पत्ति इस तरह की घटनाओं से होती है जो उत्तर बाल्यावस्था में स्पष्ट दिखाई देती है| बालक समूह का नायक होता है तथा समूह के सदस्यों की उसमें पूरी आस्था होती है| इस अवस्था में नेतृत्व की उत्पत्ति तथा विकास पर व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक तथा अनेक आंतरिक (अभिप्रेरणा) कारकों का स्पष्ट प्रभाव  पड़ता है|

खेल

हरलाक ने उत्तर बाल्यावस्था को ‘खेल की आयु’ कहा है| इस अवस्था में बालक जहाँ खिलौनों में रूचि लेता है वहीँ वह विद्यालय के संगठित खेलों में भी सक्रिय रूचि लेना शुरू कर देता है| लड़के लड़कियों की अपेक्षा ऐसे खेल खेलना पसंद करते हैं जो श्रम साध्य हों| पार्क तथा वैलिन (1953) ने अध्ययनों से स्पष्ट किया है कि अधिकतर बालकों की खेल में रूचि बाल्यावस्था के बढ़ने के साथ घटती जाती है तथा उनके लिए जनसंचार अर्थात् सिनेमा, रेडियो आदि मनोरंजन के साधन अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं| उत्तर बाल्यावस्था में कुछ प्रमुख लोकप्रिय खेल उल्लिखित हैं

सृजनात्मक खेल

उत्तर बाल्यावस्था में बालकों को औजारों की मदद से वस्तुओं का निर्माण करने में (यथा-लकड़ी का प्रयोग कर कोई चीज बनाना) एक विशेष प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है| वे इस बात पर किंचित विचार नहीं करते कि उसका उपयोग क्या होगा| लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ सूक्ष्म रचनाएँ अधिक पसंद करती हैं, जैसे –बुनाई करना, रंगीन चित्र बनाना, मिट्टी की मूर्तियाँ बनाना आदि (गेसेल,1956) यद्यपि ऐसे कार्य करने में उन्हें आनन्द मिलता है तथापि बाल्यावस्था की समाप्ति के साथ-साथ इन  कार्यों  में रूचि घटने लगती है| उत्तर बाल्यावस्था में ‘गाना’एक प्रकार का रचनात्मक खेल है जिसमें संगीत की योग्यता रखने तथा न रखने वाले, दोनों ही इसका आनन्द लेते हैं|

प्रतियोगी एवं खुले मैदान में खेले जाने वाले खेल

विद्यालय जाने वाला बालक सीधे साधे पूर्व बाल्योचित खेल खेलता है| पीछे दौड़ने, आंख मिचौली, चोर-सिपाही आदि का खेल इस अवस्था में आम है| फिर भी, अब बालक बड़े बालकों के खेल जैसे हाँकी, क्रिकेट, फुटबाल आदि में उत्सुकता दिखाना प्रारंभ कर देता है| बालक की दिलचस्पी मात्र मनोरंजन तक ही सिमित नहीं रहती बल्कि वह स्वयं को कौशल तथा श्रेष्ठता प्राप्त करने में केन्द्रित कर लेता है|

जब बालक किसी टीम का सदस्य बनता है तो वह पहले की तरह व्यक्ति प्रधान खेल तो खेलता ही है साथ ही साथ टीम के अन्य सदस्यों से आगे बढ़ने की कोशिश भी करता है| इस अवस्था में बालक में प्रतियोगिता की भावना तीव्र होती है| गैरीसन (1983), न्युकाम्ब तथा हारटूप (1983) के अनुसार इस अवस्था के बालक एक दूसरे को पीछे करने का प्रयास करते हैं| बालक के समजिकीकरण में प्रतियोयिता वाले और खुले मैदान में खेले जाने वाले खेलों का बड़ा महत्व होता है| इन्हीं से वह सहयोग करना, दूसरों का साथ निभाना, नेता तथा अनुयायी की भूमिका आदि सीखता है| डूबाइस (1952) का मानना है कि “जब बालक खेलों में भाग नहीं लेते, तब प्रायः भविष्य में मुसीबतें उठानी पड़ती हैं, क्योंकि उन्हें जीतने पर नम्र बने रहना, हारने पर प्रसन्न होना, तथा किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शारीरिक क्लेश सहना सीखने का अवसर नहीं मिलता| ऐसे बालकों में समायोजन सम्बन्धी समस्याएं पाई जाती हैं|

मनोरंजन

यद्यपि बालक के सक्रिय जीवन में मनोंरंजन का कोई अवसर नहीं मिलता तथापि जब भी उसे खाली समय मिलता है तो उसका उपयोग वह अपना मनोंरजन करके करता है| इस अवस्था में बच्चों के लिए  मित्रता इतनी महत्वपूर्ण होती है कि वे अपने मित्रों के साथ मनोरंजन करना पसंद करते हैं तथापि उसे कभी-कभी अकेले भी संतोष करना पड़ता है| मनोंरजन के कुछ प्रकार हैं:

पढ़ना

इस अवस्था तक जाते-जाते बालक की काल्पनिक कहानियों (परियों की कहानी इत्यादि) रूचि समाप्त हो जाती है| इस अवस्था में वह सहासपूर्ण घटनाओं से सम्बन्धित किताबें पढ़ता है| बालक आम लोगों के लिए लिखी गयी वैज्ञानिक कहानियां पसंद करते हैं जबकि बालिकाएँ प्रकृति विषयक किताबें पढ़ती हैं (ब्रेकेनरीज, 1955)| इसके अतिरिक्त बालक पत्रिकाएँ तथा अखबार भी पढ़ना पसंद करते हैं| अखबार में बालक सबसे पहले कॉमिक्स के पृष्ट में दिलचस्पी लेते हैं| यह रूचि संवेगात्मक होती हैं तथा उनकी वास्तिविकता की ओर झुकाव होने के कारण वे वास्तविक व्यक्तियों को काल्पनिक परिस्थितियों में तथा कालपनिक व्यक्तियों को वास्तविक परिस्थितियों में चित्रित करते हैं| सेवेल (1956) ने या पुष्ट किया है कि छोटे बालकों को रोचक लगने वाले कॉमिक्स में पशु-पात्र अधिक होते हैं और बड़े बालकों को पसंद आने वाले कॉमिक्स में मानव पात्र प्रमुख रूप से होते हैं| विभिन्न विषयों की लोकप्रियता चित्र 12.6 में प्रदर्शित है|

लड़कों का आकर्षण उन कॉमिक्स की तरफ होता है जिनका विषय, घटना क्रम तथा कथा प्रवाह प्रधानता पुरुषोचित होता है और जो पुरुष के दृष्टिकोण से लिखे गए होते हैं जिसमें हिंसा का वर्णन होता है अथवा जिनका मुख्य विषय खेल-कूद से सम्बन्ध होता है| इसके विपरीत  लड़कियाँ स्त्री-पात्रों से सम्बंधित कॉमिक्स पढ़ना अधिक पसंद करती हैं (वटरवर्थ एवं थम्प्पसन, (1957) |

सिनेमा

नौ-दस वर्ष की आयु तक बच्चों को हास्य-व्यंग्य  सम्बन्धी चित्र सबसे अच्छे लगते हैं| इसके बाद बे सहास से सम्बंधित चित्र पसंद करते हैं| सिनेमा का प्रभावी अंशतः उसकी आयु तथा वृद्धि पर निर्भर होता है| बड़े बालकों की अपेक्षा छोटे बालकों पर और उच्च बुद्धि लब्धि वालों की अपेक्षा निम्न बुद्धि लब्धि के बालकों पर अधिक प्रभाव पड़ता है| वैन्डूरा (1973) ने यह सिद्ध किया है कि अत्यधिक मार-धाड़ की फिल्में देखने से बालक आक्रामक होता है|

रेडियो तथा टेलीविजन

यद्यपि बाल्यावस्था में बालक मनोरंजन के साधन के रूप पत्र पत्रिकाएँ, रेडियो तथा टेलीविजन दोनों का प्रयोग करता है| टेलीविजन में रेडियो और सिनेमा दोनों की अच्छी लगने वाली बातें सम्मिलित होती हैं इसलिए किशोरावस्था तक जाते-जाते बालक रेडियो  की अपेक्षा टेलीविजन देखना अधिक पसंद करते हैं| जिन बालकों को खेलों के अवसर सुलभ नहीं होते वे अपेक्षाकृत अधिक टेलीविजन देखते हैं| गेसेल (1956) ने स्पष्ट किया है कि दस वर्ष की आयु तक बालक रेडियो तथा टेलीविजन के कार्यक्रमों की अधिक आलोचना करने लगते हैं तथा यह आलोचनात्मक अभिवृत्ति आयु के साथ बढ़ती जाती है| आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक गंभीर प्रकार के प्रोग्राम यथा विज्ञान सम्बन्धी नाटक आदि पसंद करते हैं| लड़के विशेषतः खेल सम्बन्धी कार्यक्रमों में दिलचस्पी लेते हैं जबकि लड़कियाँ कल्पना प्रधान कार्यक्रमों में अधिक रूचि लेती हैं| काँसरली  (1957) ने प्रयोगों द्वारा यह प्रदर्शित किया है टेलीविजन देखने से बालक के खेलने का समय घटता है| विट्टी (1955) ने टेलीविजन के दुष्प्रभावों के इंगित करते हुए कहा है कि बालक के स्कूल के काम में पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण यह होता है कि वह अध्यापकों द्वारा दिए गए गृहकार्य पर गंभीरता से समय न देकर अपना अधिकांश समय टेलीविजन देखने में लगाता है जिससे एक तो वह अपने विषय में पिछड़ जाता है साथ ही साथ टेलीविजन देखने से आंख में दर्द, तंत्रिका तनाव, थकान व सांवेगिक उत्तेजना जैसी अनेक स्वास्थ्य समस्याएँ बालक विकसित कर लेता है|

 

स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान

अंतिम बार संशोधित : 12/3/2019



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