इस आवस्था के बालकों के संवेगों की अभिव्यक्ति अधिक नियंत्रित रूप में पायी जाती है| बड़े बालक अपने अप्रिय संवेगों को उग्र रूप से प्रदर्शित करके पानी नापसन्दी शीघ्र की जाहिर कर देते है| इसलिए बालक को अपने संवेगों को प्रकट करने से संयम सीखने की प्रबल अभिप्रेरणा मिलती है| घर के अन्दर अपने संवेगों पर नियंत्रण करने की इतनी प्रबल अभिप्रेरणा नहीं मिलती| इसलिए वहाँ वह अपने संवेगों को स्वाभाविक तरीके से प्रकट करता है|
उत्तर बाल्यावस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति लाक्षणिक रूप से सुखकर होती हैं| बालक खिलखिलाता या ठहाका मारकर हँसता है, ऐंठता है, फड़कता है या जमीन पर लोटता भी और सामान्य रूप से रुकी हुई स्वस्थ शक्ति को उन्मुक्त रूप से प्रकट करता है| प्रौढ़ मानकों की तुलना में अपरिपक्व होने पर भी ये संवेगात्मक अभिव्यक्तियाँ स्पष्ट करती हैं की बालक प्रसन्न है और अच्छा समायोजन कर रहा है| लेकिन इस आयु की संवेगशीलता केवल सुखकारी ही नहीं होती| क्रोध का उद्रेक भी अनेक बार होता है और बालक को आकुलता औए कुण्ठा का अनुभव भी होता है| लकड़ियाँ प्रायः रो पड़ती है या स्कूल पूर्व दिनों की तरह का क्रोधाद्रेक प्रदर्शित करती है, लड़के अपनी आकुलता प्रायः रूठकर और उदासीन बनकर प्रकट करते हैं जो बालक अपने सहपाठियों के मुकाबले में बहुत तेज या बहुत मंद होने के कारण अपने को बेमेल महसूस करते हैं, जिसको घर के लोग अधिक रोकटोक करने वाले होते हैं और जिसके माता-पिता जितना वह कर सकता है उससे अधिक प्रत्याशा करते हैं, अथवा जिसकी महत्वाकांक्षाएं इतनी अयथार्थ होती है कि उनका असफल होना अनिवार्य होता है, इन बच्चों के संवेगों के सुखकर से अधिक दुखकार होने की संभावना अधिक रहती है| जेरसिल्ड ने स्पष्ट करते हुए कहा कि बच्चे में दुखकार स्थिति होने से घर के अन्दर और बाहर बालक का समायोजन अच्छा नहीं हो पायेगा और उसकी अनिष्टकारी संवेगशीलता में वृद्धि होगी|
उत्तर बाल्यावस्था में पाये जाने वाले सामान्य संवेग सम्भवतः पूर्व बाल्यावस्था के ही होते हैं| फिर भी पूर्व बाल्यावस्था के संवेगों से उनका दो बातों में अतर होता है: (1) उद्दीप्त करने वाली परिस्थिति का प्रकार तथा (२) उनकी अभिव्यक्ति का रूप| ये परिवर्तन परिपक्वता के बजाय अनुभव विस्तृत हो जाता है, तब वह परिस्थितियों का भिन्न तरीके से अर्थ लगाता है अर्थात बालक के संवेगात्मक व्यवहार उम्र वृद्धि के साथ परिवर्तित हो जाते है| इसके फलस्वरूप वह उनके प्रति अलग तरह से अनुक्रिया करता है| इसके अलावा घर के बाहर के लोगों से सम्पर्क अधिक होने के कारण अनुभव बढ़ने से वह जान लेता है कि अलग-अलग लोग अलग-अलग संवेगात्मक अभिव्यक्तियों के बारे में क्या सोचते हैं| सामाजिक अनुमोदन पाने की इच्छा से वह संवेगात्मक अभिव्यक्ति के समाज द्वारा अनुमोदित तरीकों को सीखने की तथा अति अभिव्यक्ति को समाज द्वारा अनुमोदित तरीकों से रोकने की कोशिश करता है| उत्तर बाल्यावस्था के सामान्य संवेग प्रमुख रूप से है, जिज्ञासा, स्नेह, भय, हर्ष, ईर्ष्या, तथा क्रोध |
जिज्ञासा का तात्पर्य सम्प्रत्ययों को जानने की इच्छा से है| बच्चों में बड़ों की अपेक्षा जानने की इच्छा, अर्थात जिज्ञासा अधिक होती है क्योंकि बड़े बालक अपने दैनिक जीवन की सामान्य चीजों से पहले ही परिचित हो चुके होते हैं और इसलिए उसकी छानबीन के लिए कम ही चीजें बाकी रहती हैं, और अनुभव से सीख चूका होता है कि जिज्ञासा के कारण वह संकट में पड़ सकता है और इसलिए सबसे अच्छा जिज्ञासा को रोकना ही है| बचपन में जिस काम को न करने के लिए बच्चों को रोका जाता है उस काम के प्रति बच्चे बड़े होकर अधिक जिज्ञासा पूर्ण भाव रखते हैं जब उसका परिवेश विस्तृत होकर आस-पास पड़ोस के परिक्षेत्र से जुड़ता है तब उसकी जिज्ञासा और बढ़ जाती है और नई-नई तथा अपरिचित वस्तुओं को भी जानने के लिए प्रेरित होता है|
बड़ा बालक अपनी जिज्ञासा को बहुत कुछ उसी तरीके से प्रदर्शित करता है जिस तरीके से पूर्व बाल्यावस्था में वह घर की अन्य छोटी-बड़ी चीजों के प्रति करता था| वह रहस्यमय लगने वाली चीजों की बारीकी से जाँच करता है और बहुधा यह देखने के लिए कि वे किस तरह काम करती है उनके हिस्से अलग-अलग कर देता है| सीधी छानबीन के आलावा वह जो अपने अनुभव से जान चुका है उसमें वृद्धि करने के लिए असंख्य प्रश्न पूछता है, प्रश्न पूछना अपने माता-पिता तक ही सिमित नहीं रखता बल्कि वह शिक्षकों से, सम्बन्धियों से, जो कोई प्रौढ़ उसे मिलता है उससे, यहाँ तक कि अपने से बड़े बालकों से भी सवाल पूछकर अपनी जानकारी बढ़ाता है, और अंत में पुस्तकों से जानकारी ले सकता है और तीसरी कक्षा में पंहुचने तक वह अच्छी तरह पढ़ने उसके लिए उत्तरोतर महत्वपूर्ण होता जाता है|
बड़े बालक स्नेह का प्रदर्शन बहुत कम करते हैं| लड़के समझते हैं कि अब हम बड़े हो चुके हैं चूमने-चाटने तथा अंगुली पकड़कर सिखाने की जरुरत नहीं है तथा अगर लोग ऐसा व्यवहार उनके प्रति करते हैं तो बच्चे में झिझक उत्पन्न होती है| इसी तरीके का व्यवहार बालिकाओं में भी उत्पन्न होता है तथा बालिकाओं की अपेक्षा लड़के अधिक झिझकते हैं| इसलिए वे स्वयं भी दूसरों के प्रति स्नेह प्रदर्शन नहीं करते| किसी व्यक्ति से स्नेह प्रकट करने किए अपेक्षा किसी पालतू जानवर से स्नेह प्रकट करना वे कहीं अधिक पसंद करते हैं| फिर भी व्यक्तियों के प्रति उनका स्नेह प्रिय व्यक्ति के साथ सदैव रहने की इच्छा, उसकी सहायता के लिए कोई काम करने, हर संभव उपाय से उसकी मदद करने इत्यादि, परोक्ष रूप से प्रकट होता है| ऐसा अपने दोस्तों के प्रति बालक की प्रतिक्रियाओं में विशेष रूप से दिखाई देता है| वह प्रायः अपने दोस्तों के साथ बना रहना चाहता है| जब दोस्त दूर होता है तब वह टेलीविजन या पत्र व्यवहार से उससे घनिष्ठ सम्पर्क बनाये की कोशिश करता है| बोसार्ड (1953) ने बताया कि सहोदरों और माँ –बाप में बड़े बालक क प्रायः कोई ‘प्रिय’ होता है और प्रिय के लिए उसके परिवार के अन्य लोगों से जो “प्रिय’ नहीं है अधिक स्नेह होता है| जब कभी वह स्नेह प्रकट करता ही है तब स्नेह अप्रत्याशित समय में ‘उदगार’ की तरह होता है, (गेसेल एवं एमेस 1956)
छोटे बालकों की अपेक्षा बड़े बालकों में भय संवेग सामान्यतः कम होता है| बेल और हाल (1954) ने पुष्टि किया है कि कई वस्तुओं, परिस्थितियों, जानवरों और लोगो ने बड़े बालक शांत होकर देखते हैं, जबकि छोटे बालक उनसे बहुत डरते हैं| इस आयु में आग, अंधेरा बीमारी, डॉक्टर, शल्य चिकित्सा, कार से टकराने तथा कुत्ते के काटने का डर सबसे आम होता है| लड़कियाँ, लड़कों की अपेक्षा अधिक डरती है| ठोस चीजों से पैदा होने वाले डर तो उम्र के साथ घटते जाते हैं, लेकिन काल्पनिक, अलौकिक या दूरस्थ खतरों के, अंधेरा और अंधेर में रहने वाली काल्पनिक चीजों से पैदा होने वाले डर तो उम्र के साथ घटते जाते हैं| बड़े बालक “बदल जाने” उपहास का पात्र बनने या चिढ़ाए जाने, अपने काम में असफल होने से भी डरते हैं क्योंकि बड़ा बालक जानता है कि उसका भय प्रकट करना उसके दोस्त पसंद नहीं करते, इसलिए भय पैदा करने वाली परिस्तिथि से वह बचने की कोशिश करता है ताकि भयग्रस्त होने की हालत में दिखाई देने की अपमानजनक स्थिति से वह अपने को बचा सके| शर्म, जो सामाजिक परिस्तिथितियों में होने वाले भय एक रूप है, प्रायः इस तरह के अधीरता सूचक व्यवहार-वैचित्र्यों में प्रकट होता है, जैसे सिर को एक तरफ किये रहना, नाक, कान या कपड़े को खींचना या कभी एक पाँव पर कभी दूसरे पाँव पर टिके रहना, इन लक्षणों को जेरसिल्ड (1954) ने अध्ययनों से स्पष्ट किया|
काल्पनिक बातों से होने वाले भय या आकुलता इस आयु में दिखाई देने लगती है| बड़े बालकों को सबसे अधिक आकुलता पारिवारिक से या स्कूली समस्याओं से, व्यक्तिगत और सामाजिक समायोजन से सम्बन्धित समस्याओं से या स्वास्थ्य की समस्याओं से होती है| स्कूल के बाहर की आकुलताओं की अपेक्षा स्कूल-सम्बन्धी आकूलताएँ, अधिक सामान्य होती है| लड़कियों को लड़कों की अपेक्षा अधिक आकुलताएँ होती हैं, विशेष रूप से स्कूल और सुरक्षा के बारे में बालक के दोस्तों का उसकी आकुलताओं के संख्या और तीव्रता पर बहुत प्रभाव पड़ता हैं| उदाहरण के लिए, जब टोली में स्कूल के काम के बारे में बातचीत होती है तथा एक बालक कहता है कि उसे अध्यापक द्वारा चेतावनी दिया गया है अच्छे ढंग से पढ़ने के लिए अन्यथा वह फेल हो सकता है, इस डर से वह मन में पास होने या आगे फिर पढ़ाए जाने की आशंकाएं लिए “परीक्षा की तैयारी सम्बन्धी सोच विकसित करता है| “प्रटट (1945) ने स्पष्ट करते हुए कहा कि इस प्रकार का सामाजिक दबाव टोली के प्रत्येक बालक की आकुताओं को बढ़ा देता है|
व्यापक आकुलता जो कि “आसन्न या प्रत्याशित विपत्ति के सम्बन्ध में मन की एक कष्टदायक और बचैनी की अवस्था” होती है तथा जो किसी एक विशिष्ट आकुलता से अधिक सामान्य होती है| ब्रोइडा एवं थामसन (1954) का मानना है कि बालक प्रायः अपनी आकुलता का कारण नहीं जानता और यह भी नहीं समझता किह किसी बाहरी परिस्थिति के बजाय असुरक्षा की भावना से उत्पन्न होती है| अपने लोकप्रिय बच्चों को समवयस्कों द्वारा ‘अपना लेना’ अलोकप्रिय बालक के मन में आकुलता उत्पन्न करती हैं| सामान्यतः लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा ज्यादा आकुलतापूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करती हैं और आयुवृद्धि के साथ दबाव बढ़ने पर इसमें वृद्धि होती है| आकुलताशील बालक सीखने में अक्षम होता है, विशेष रूप से तब जब सीखने का काम मुश्किल होता है, जैसे पढ़ना और गणित के प्रश्न हल करना| वह इन संकार्यों को करने में सामान्य बच्चे आकुलताशील बालक की अपेक्षा कम गलतियाँ करते हैं और आकुलता के मिल में जो असुरक्षा की भावना होती है वह उसकी असंतोषजनक उपलब्धि के कारण बढ़ जाती है (मैककैन्डलेस , कास्टेंडा और पालेरमो, 1956)
जब बालक बड़े हो जाते हैं तब भी उन्हीं बातों से प्रायः उन्हें हर्ष होता है, जिनसे छुटपन में होता था| असंगत परिस्थितियों पर परिपाटी के उल्लंघन से, असंबद्धताओं को देखकर हल्की विपत्तियों से, अप्रत्याशित आवाजों को सुनकर अथवा किसी भी ऐसी बात से जो परिस्थिति में अनुपयुक्त लगती हैं उनका मुस्कुरा पड़ना या हंस पड़ना अवश्यंभावी होता है| जब वे अपने को शरीर से स्वस्थ महसूस करते हैं तब उनकी हँसी तीव्र हो जाती है| शब्दों को समझने की योग्यता के बढ़ने पर बालक क्लेष और मजाकों से छुटपन की अपेक्षा अधिक आनन्द लेता है| अब वह अपने ही संकटों पर हँसने के काविल जो जाता है| खास तौर से अपने दूसरों की नजर में ‘अच्छा खिलाड़ी’ सिद्ध करने के लिए वह ऐसा करता हो| ब्रेकनराइड्ज और विन्सेंट (1955) के अनुसार कोई भी ऐसी चीज जो उसमें दूसरों से श्रेष्ठ होने भावना पैदा करती हो, जैसे मजाक, निषिद्ध वस्तुएँ खाना, सिगरेट पीना, या नशा तो उसे बहुत ही आनन्द आता है|
हर्ष की अभिव्यक्तियाँ छोटे बालकों की अपेक्षा बड़े बालकों में कहीं अधिक संयत होती है| छोटे बालक हर्ष के लिए शारीरिक गतियों का ज्यादा प्रदर्शन करता है लेकिन बड़े बालक ऐसा प्रदर्शन न करके जोर से हंसने वाली प्रक्रिया पर विशेष प्रदर्शन करते हैं| ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि समवयस्क उन व्यवहारों को ‘शैशवोचित’ व्यवहार न कहें | लड़के विशेष रूप से हर्षित होने पर अपने साथियों की पीठ या सिर पर धौल जमा देते हैं, और लड़कियाँ अपने सहेली के इर्द-गिर्द बाहें डाल देती हैं|
बालक का सहोदरों से ईर्ष्या करना उत्तर बाल्यावस्था में भी बंद नहीं होता| बल्कि, कभी-कभी तो वह और भी तीव्र हो जाती है, क्योंकि बालक को लगता है कि जब वह घर से बाहर रहता है तब उसकी माँ का सारा प्यार उसके छोटे भाई को मिलता है और उस समय वह सहानुभूति न रखने वाले अजनबियों के बीच होता है| स्कूल जाने वाला बालक अगर घर में ईर्ष्यालु रहा है तो सहपाठियों से भी ईर्ष्या कर सकता है विशेष रूप से ऐसे सहपाठियों से जो लोकप्रिय हैं या पढ़ाई या खेल में आगे हैं| छोटे बालकों की तरह प्रौढ़ों के ध्यान का केंद्र बने हुए बालक पर आक्रमण करने के बजाय बड़ा बालक ईर्ष्या को सीधे तरीके से झगड़े के द्वारा, चुगलखोरी करके, हँसी उड़ाकर, चिढ़ाकर, सताकर, अपमानजनक टीका टिपण्णी करके या झगड़ा कराकर प्रकट करता है|
जेरसिल्ड (1954) के अनुसार बालक अपनी ईर्ष्या को व्यक्ति की उपेक्षा करके, व्यंगपूर्ण टीका टिपण्णी के द्वारा परोक्ष तरीके से भी प्रकट कर सकता है| गेसेल और एमेस (1956) के अनुसार बाल्यावस्था में वृद्धि के साथ ईर्ष्या की अभिव्यक्ति के परोक्ष तरीके बढ़ते जाते हैं और सीधे तरीके घटते जाते हैं|
उत्तर बाल्यावस्था में क्रोध को उकसाने वाली परिस्थिति पूर्व बाल्यावस्था अपेक्षा अधिक होती हैं क्योंकि बड़ा बालक स्वतंत्रता की तीव्र इच्छा रखता है| इसलिए स्वंतंत्रता प्राप्त करने के प्रयत्न में उसे छोटे बालक की अपेक्षा असफलता अधिक मिलती है| सामान्यतः बड़े बालक काम में बाधा उत्पन्न होने पर अत्यधिक क्रुद्ध हो जाते हैं तथा अगर उन्हें लगातार आलोचना मिले तथा उन्हें हीन बताया जाये, लम्बा उपदेश दिया जाए तो अत्यधिक क्रोधी हो जाते हैं| बालक बहुधा अपनी सामर्थ्य से अधिक महत्वाकांक्षी होता है और जब वह अपनी उपलब्धियों को लक्ष्य से कहीं नीचे देखता है तब वह क्रुद्ध हो जाता है| गेसेल और एमेस (1956) के अनुसार उत्तर बाल्यावस्था में क्रोध सबसे तीव्र संवेगों में से एक होता है| छोटे बालकों की तरह मचल कर बेकाबू हो जाने के बजाय बड़ा बालक अपने क्रोध की अभिव्यक्ति रूठने, नकारवृत्ति, बोलना छोड़ने, झगड़ालूपन, तुच्छ बातों को महत्व देने और बात-बात पर हर आदमी से उलझकर करता है| झगड़ा करने की, विशेष रूप से सहोदरों के साथ झगड़ने की प्रवृत्ति दसवें और बाहरवें वर्ष के बीच पराकाष्ठा पर पंहुच जाती है और उसके बाद घट जाती है| जब कोई बड़ी आयु का बालक अपने क्रोध को छोटे बालक के प्रति लाक्षणिक तरीके से प्रकट करता है तब वह प्रायः अन्य बालकों द्वारा नापसंद किया जाता है और टोली उसको आगे स्वीकार नहीं करती | वेलर ( 1953) के अनुसार बड़ी आयु के बालकों को क्रोध प्रकट करने का तरीका मुख्य रूप से सामाजिक दबावों के कारण बदल जाता है जेरसिल्ड (1956) के अनुसार बालक का फुर्तीला खेल जोकि संवेगों की अवरुद्ध शाक्ति का विरेचन कर देता है, और विकसित बुद्धि भी क्रोध की अभिव्यक्ति के तरीके को बदलने के लिए अंशतः उत्तरदायी होती है|
जब कोई अंतनोर्द अवरुद्ध हो जाता है तब बड़े बालक को कुण्ठा या निस्सहायता की भावना का अनुभव छोटे बालक की अपेक्षा अधिक होता है| अवरोध कभी उसके सामाजिक पर्यावरण में रहने वाले लग, जैसे माता-पिता या शिक्षक पैदा करते हैं, जो उसे अपनी इच्छाओं के अनुसार नहीं चलने देते, या उसकी ही अयथार्थ महत्वाकांक्षाओं के कारण पैदा होते हैं जिन्हें वह अपनी पहुँच के बाहर पाता है| कुछ बालक अवरोध के प्रति आक्रामक तरीके से प्रतिक्रिया करते हैं और गुस्सा दिलाने वाली वस्तु या व्यक्ति को ठोकर से हटा देते हैं जबकि अन्य बालक निष्क्रिय तरीके से प्रतिक्रिया करते हैं और अवरोध से हट जाते हैं| जुक (1956) के अनुसार मुक्त, प्रतिबंदहीन सामाजिक परिस्थितियों में, जिनमें कि प्रौढ़ों के शासन और अनुशासन का आभाव रहता है, आक्रामक प्रतिक्रियाएं अधिक बार और अधिक उग्र पायी जाती हैं|
बालक के सांवेगिक विकास को प्रायः वही कारक प्रभावित करते हैं जो सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं| इनमें से कुछ प्रमुख कारक है: माता-पिता के साथ शिशु की आसक्ति, माता-पिता की शिशु के प्रति अभिवृत्ति, पारिवारिक वातावरण, मित्रमंडली, खेल, जनसंचार माध्यम आदि| ( इन कारकों का विस्तृत वर्णन सामाजिक विकास के अंतर्गत किया गया है)
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 11/21/2019
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