व्यक्तित्व का स्वरुप विभिन्न आयु चरणों में भिन्न-भिन्न संरूपों में परिलक्षित होता है| व्यक्तित्व विकास का अनुक्रम में होता रहता है तथा विभिन्न चरणों में व्यक्तित्व के संरूप में भिन्नता दृष्टिगत होती है| शैवशावस्था में व्यक्तित्व की जो संरचना बनती है, पूर्व बाल्यावस्था में उसका विस्तार होता है| पूर्व बाल्यावस्था के आरम्भ से ही बच्चे के सम्बन्धों, परिस्थितियों तथा प्रत्यक्ष ज्ञान आदि में परिवर्तन आता है जो उसके व्यक्तित्व विकास में सहयोग प्रदान करता है| माता-पिता तथा अन्य लोग जो बालक के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, वे जैसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, उसका प्रभाव बच्चे के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है, साथ ही साथ उसका अहं सम्प्रत्यय भी वैसा ही विकसित होता है| फ्रैंक के मतानुसार स्वस्थ व्यक्तित्व का केंद्र ‘धनात्मक अंह सम्प्रत्यय’ होता है, जिसे बालक सहर्ष स्वीकार कर लेता है| बालक के जीवन में माँ की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है| अतः बालक के प्रति उसकी अभिवृत्ति, उसकी सोच, उसका व्यवहार बालक के व्यक्तित्व विकास को प्रभावित ही नहीं, बल्कि निर्धारित भी करता है| बालक के अंह सम्प्रत्यय के विकास में ‘परिवार में सहोदर के उपस्थिति, की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है, जो बच्चे को एक जिम्मेदार या गैरजिम्मेदार बालक के रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाते हैं|
विद्यालय में प्रवेश के दौरान ही बालक व्यक्तित्व संरूप को पहचाना जा सकता है| कुछ बालक दबंग प्रवृत्ति के होते हैं तो कुछ दब्बू, कुछ बच्चे क्रूर होते हैं, तो कुछ विन्रम| एकान्तप्रियता या सौहार्दपूर्णता भी बालक अपने प्रारंभिक विद्यालयीय जीवन में प्रदर्शित करता है| व्यक्तित्व के संरूप में लिंगगत अंतर भी दृष्टिगत होता है| बालक प्रायः झगड़ालू, निर्दयी, फुर्तीले, बहानेबाज होते है जबकि बालिकाएँ प्रायः आज्ञाकारी, स्नेहशील तथा उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करती है| बालक का किसी अन्य बालक से पहला सम्पर्क जैसा होगा (सुखद अथवा दुखद ), उसी के अनुसार बालक भविष्य में सामाजिक सम्पर्क स्थापित करेगा, जो व्यक्तित्व के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है|
प्रारंभिक बाल्यावस्था में व्यक्तित्व का जो संरूप बन जाता है उसके आधार पर भविष्य में बालक का व्यक्तित्व कैसा होगा? इसके बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है| व्यक्तित्व का रूप स्थायी तौर पर समान बना रहता है| यद्यपि प्रारम्भिक बाल्यावस्था में ही व्यक्तित्व में स्थायित्व परिलक्षित होने लगता है तथापि इस अवस्था में अभी बच्चे का व्यक्तित्व इतना परिपक्व नहीं हुआ रहता कि उसमें परवर्तन न किया जा सके| यह परिवर्तन बालक के व्यक्तित्व के संतुलन में कोई गड़बड़ी उत्पन्न नहीं करता |
इस अवस्था में व्यक्तित्व में परिवर्तन द्वारा यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि बच्चे में कोई ऐसी बातें न रहें जिनसे अवांछनीय अभिवृत्तियाँ सुदृढ़ हो जाएँ| बालकों में व्यक्तित्व के कुछ पहलू निश्चित ही बदलते है| इसका कारण कुछ परिपक्व होने में, कुछ अनुभव में, कुछ भौगोलिक परिवेश में तथा कुछ बालक कें अंदर रहने वाले कारक यथा- संवेगात्मक दबाव के साथ सम्बद्ध होते हैं| आत्मविश्वास और सहयोगपूर्ण व्यवहार के विकास का प्रशिक्षण व्यक्तित्व में परिवर्तन लाता हो, बशर्ते यह प्रशिक्षण उस सीमा से पहले दे दिया जाय जहाँ व्यक्तित्व के अवांछनीय लक्षणों को बदलना असम्भव हो जाए|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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