उत्तर बाल्यावस्था में विभिन्न प्रकार के खेलों का भी विकास होता है| ये खेल मुख्यता दो प्रकार के होते हैं- (1) रचनात्मक खेल-इसमें बालक विभिन्न यंत्रों (औजारों) था वस्तुओं की सहायता से अन्य वस्तुओं का निर्माण करता है| (जैसे-मिट्टी के खिलौने आदि) (२) प्रतियोगिता एवं खुले मैदान में खेले जाने वाले खेलों का विकास भी इसी अवस्था में होता है| बालकों में ‘मनोरंजन की आवश्यकता’ भी विकसित होती है| बच्चे में अध्ययन व्यवहार (पाठ्य-पुस्तक को पढ़ना, अख़बार, कॉमिक्स इत्यादि पढ़ना) इसी अवस्था में दिखाई देते हैं| मनोरंजन के अन्य साधनों जैसे-सिनेमा, रेडियो तथा टेलीविजन के प्रति झुकाव भी उत्तर बाल्यावस्था में अत्यधिक दृष्टिगत होता है|
सामाजिक विकास के साथ –साथ सांवेगिक विकास का प्रक्रम भी जारी रहता है| पूर्व बाल्यावस्था में विभिन्न संवेग जैसे,भय, ईर्ष्या, क्रोध, जिज्ञासा तथा हर्ष इत्यादि प्रकट होने लगते है|
बच्चों के संवेगात्मक विकास पर विभिन्न कारकों जैसे-पारिवारिक वातावरण, परिवार की संरचना, बालक का लिंग इत्यादि का प्रभाव पड़ता है| ये कारक बालकों के संवेगात्मक व्यवहारों के विकास में महती भूमिका निभाते हैं| क्रोध का संवेग छोटे बालकों में प्रायः दिखाई देता है| ये क्रोध छोटी-छोटी बातों जैसे खेलने तथा खाने की चीजों को न पाने से उत्पन्न होते हैं| बालक खतरे वाली परिस्थिति से डर जाते हैं| भय पूर्व बाल्यावस्था में सामान्य क्रियाओं के प्रति होता है जबकि उत्तर बाल्यावस्था में ये क्रियायें विशिष्ट परिस्थितियों के प्रति उत्पन्न होती हैं| इसी प्रकार पूर्व बाल्यावस्था में अन्य संवेग जैसे ईर्ष्या, जिज्ञासा, स्नेह, हर्ष इत्यादि सामान्य रूप से दृष्टिगत होते हैं|
उत्तर बाल्यावस्था में संवेग अत्यधिक तीव्र रूप में दृष्टिगत होते हैं| इस अवस्था में य संवेग लाक्षणिक रूप में दिखाई देते हैं| बालक ख़ुशी के समय ठहाका लगता है, क्रोध के समय चिल्लाता है तथा भय के समय रोता है| इस अवस्था के बालक अत्यधिक जिज्ञासा प्रकट करते हैं| इसी प्रकार स्नेह का भाव, भय का संवेग, हर्ष तथा ईर्ष्या के संवेग भी स्पष्ट रूप में परिलक्षित है| इस आयु में भय काल्पनिक न होकर यथार्थ उद्दीपकों के परि (शैक्षणिक समस्याओं क प्रति या स्वास्थ्य) उत्त्पन्न होते हैं| हर्ष का संवेग छोटे बालकों की अपेक्षा बड़े बालकों में अत्यधिक संयत रूप में होते हैं| ईर्ष्या का संवेग उत्तर बाल्यावस्था में परोक्ष रूप से विकसित होता जाता है| बालक जिस प्रकार बढ़ता है उसके अंदर ईर्ष्या का भाव भी बढ़ता जाता है| इसी प्रकार क्रोध के संवेग में बड़ा बालक छोटे बालकों की तरह बेकाबू होने के बजाय रूठना, नकारवृत्तिम बोलना छोड़ देना, झगड़ालूपन, तुच्छ बातों को महत्व देना तथा बात-बात पर झगड़ने की प्रवृत्तियाँ प्रकट करने लगता है|
सामाजिक तथा सांवेगिक विकास का सीधा सम्बन्ध बालक के व्यक्तित्व विकास के साथ अभिव्यक्त होता है| व्यक्तित्व के संरूप में दो प्रमुख घटकों ‘स्व’ तथा ‘शीलगुण’ का समावेश होता है| ‘स्व’ व्यक्तित्व का वह अंतरतम रूप है जो व्यक्ति विशेष के संज्ञान में ही होता है| ‘स्व’ दो प्रकार के होते हैं| ‘वास्तविक स्व’ तथा ‘आदर्शतम स्व’| वास्तविक ‘स्व’ व्यक्ति की विशेषताओं का परिचायक है जबकि आदर्शतम ‘स्व’ व्यक्ति के भविष्य के व्यक्तित्व सम्बन्धी आशय को व्यक्त करता है| शीलगुण से तात्पर्य व्यवहार की विशेषताओं से है| शीलगुणों के द्वारा ही व्यक्तित्व संरचित होता है|
व्यक्तित्व प्रतिमानों का विकास आनुवांशिकता तथा पर्यावरण की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है| बच्चों के प्रारंभिक ‘स्व’ के विकास में परिवार की महत्वपूर्ण भुमिकड़ा होती है| बच्चा जब विद्यालयीय परिवेश में कदम रखता है तो उसका सामाजिक दायरा बढ़ता है तथा वह अब अपने ‘स्व’ सम्प्रत्यय का विकास परिविम्बित मूल्यांकनों के आधार पर करने लगता है| जहाँ तक शीलगुण के विकास का प्रश्न है तो पूर्व बाल्यावस्था में बालक शीलगुणों को अनुकरण के माध्यम से सीखता है| अन्य लोगों की बच्चों से प्रत्याशाएं और उनके प्रति बच्चों का दृष्टिकोण भी शीलगुणों को विकसित करने में मदद करते हैं|
‘वैयक्तिकता’ शीलगुण का एक महत्वपूर्ण प्रकार है जिसमें शीलगुण की प्रकार्यात्मक भिन्नता दृष्टिगत होती है| ‘व्यक्तित्व में स्थिरता’ शीलगुण का दूसरा महत्वपूर्ण प्रकार है| यद्यपि प्रारम्भिक आयु में बालक के व्यक्तित्व में परिवर्तन दिखता है किन्तु उत्तर बाल्यावस्था में जब बालक का शीलगुण दृढ़ हो जाता है तो ‘व्यक्तित्व में स्थिरता’ आ जाती है|
व्यक्ति का ‘स्व’ तथा ‘शीलगुण’ दोनों मिलकर व्यक्तित्व में परिवर्तन लाते हैं| शीलगुणों के द्वारा व्यक्तित्व में गुणात्मक तथा मात्रात्मक परिवर्तन होते हैं| यह तथ्य पुष्ट है कि व्यक्तित्व में परिवर्तन वास्तविक रूप से होता है लेकिन यह परिवर्तन पूर्व बाल्यावस्था में अधिक होता है| वयस्कों में यह परिवर्तन नाम मात्र का होता है| व्यक्तित्व प्रतिमान में वास्तविक परिवर्तन का होना असम्भव है| व्यक्तित्व में परिवर्तन के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ हैं: शारीरिक परिवर्तन, पर्यावरणीय परिवर्तन, सामाजिक दबाव, सक्षमता में वृद्धि, भूमिका निर्वहन सम्बन्धी परिवर्तन तथा व्यावसायिक सहायता|
व्यक्तित्व विकास को कई कारक निर्धारित करते हैं| आनुवांशिक कारकों में शारीरिक संरचना, अन्तःस्रावी ग्रंथियों की भूमिका, बुद्धि, संवेग, आकर्षणता आदि महत्वपूर्ण हैं जो बच्चों के जन्म से जुडी विशेषताएं होती हैं| परिवेशीय कारकों में परिवार की भूमिका, विद्यालय की भूमिका, संस्कृति की भूमिका, सफलता तथा असफलता का प्रभाव, नाम का प्रभाव, सामाजिक स्वीकृति तथा प्रारंभिक सामाजिक अनुभव आदि प्रमुख हैं| आनुवांशिक तथा परिवेशीय कारक मिलकर व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया को सम्पन्न करते हैं|
व्यक्तित्व विकास की व्याख्या सर्वप्रथम फ्रायड (1956- 1939) ने मनोलैंगिक विकास के सिद्धांत के अंतर्गत किया जिसमें फ्रायड ने अवधियों के साथ पांच जिन अवस्थाओं का उल्लेख किया है वे हैं: मुखीय अवस्था, गुदीय अवस्था, लैंगिक अवस्था, अदृश्यावस्था तथा| इन समस्त अवस्थाओं की व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास पर जबरदस्त छाप पड़ती है| एरिक एरिक्सन ने व्यकित्व विकास के व्याख्या के लिए मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत प्रस्तुत किया| एरिक्सन व्यक्तित्व विकास को 8 चरणों में विभक्त करते हुए प्रत्येक चरण में उत्पन्न होने वाले संकटों को प्रमुख रूप से प्रस्तुत किया है कि बैन्डूरा (1963) ने अपने सामाजिक अधिगम सिद्धांत के अंतर्गत यह सिद्ध किया है कि व्यक्तित्व विकास में पर्यावरणीय कारकों की अहम भूमिका होती है| तत्पश्चात कार्ल रोजर्स (190२-1987) ने व्यक्तित्व विकास में स्व तथा अनुभूतियों की संगति को महत्वपूर्ण माना है|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 11/28/2019
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