केस 1 - अपराधिक जिम्मेदारी की उम्र से नीचे के बच्चे द्वारा किया गया अपराध
5 वर्ष के एक्स ने अपनी सहपाठी वाई पर पत्थर फेंका। चोट के कारण वाई की दृष्टि चली गई। पुलिस ने एक्स को भारतीय दंड संहिता की धारा 326 के अंतर्गत गिरफ्तार किया है जिसके अनुसार उसे हथियार द्वारा कठोर जख्म देने के अपराध में गिरफ्तार किया गया है।
- भारतीय दंड संहिता की धारा 82 के अंतर्गत अपराधिक जिम्मदारी की आयु 7 वर्ष है। इसलिए एक्स द्वारा किया गया कार्य अपराध नहीं है। पुलिस ने एक्स को गिरफ्तार करके गलती की।
- एक्स के माता पिता या अभिभावक द्वारा एक्स की जन्मतिथि से संबंधित सबूत फौरन सम्बन्धित पुलिस थाने में देने चाहिए। किसी कागजी दस्तावेज की अनुपस्थिति में पुलिस को फ़ौरन एक्स को चिकित्सकीय जाँच के लिए भेजना चाहिए ताकि उसकी आयु निर्धारित हो सके। जैसे ही यह पता चलता है की एक्स की आयु 7 वर्ष से कम है, पुलिस द्वारा एक्स को रखा करते हुए मामले को बंद कर देना चाहिए।
- यदि पुलिस मामले को बंद करने से इनकार कर देती है और मामले को बोर्ड के समक्ष पेश करती है तो माता - पिता या अभिभावक की और से मामले को बंद करने की अर्जी बोर्ड के समक्ष डाल देनी चाहिए इसके साथ कि एक्स की आयु 5 वर्ष है।
- यदि एक्स के माता-पिता या अभिभावक नहीं हैं तो उसे बाल कल्याण समिति के समक्ष देख रेख व सुरक्षा के जरूरतमंद बच्चे के रूप में पेश किया जाना चाहिए।
केस 2 – 11 वर्षों के बच्चे द्वारा किया गया अपराध
एम एक ग्यारह वर्ष का लड़का है जो एन के पास घरेलू कर्मचारी है। एन इस बात को इजाजत नहीं देता कि एम श्याम को बाहर निकले। बार-बार इस तरह मना किए जमे पर एम को गुस्सा आ जाता है और वह एक भारी लोहे के बर्तन से एन को मारता है। एन की मृत्यु चोट के कारण हो जाती है और एम के विरूद्ध आई पी सी की धारा 302 के अंतर्गत केस दर्ज हो जाता है।
- पुलिस द्वारा एम को गिरफ्तार किए जाने के 24 घंटे के भीतर उसे किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश करना है और उसके माता-पिता या अभिभावक या उसके पसंद के किसी भी भी व्यक्ति को उसकी गिरफ़्तारी के बारे में सूचना भी देनी है।
- बोर्ड द्वारा एम की आयु की जाँच करके इस नतीजे तक पहूँचना है कि एम 11 वर्ष का है।
- बचाव पक्ष यह आवेदन करेगा कि एम पूरी तरह से परिपक्व नहीं हुआ है इसलिए अपराध की सजा के योग्य नहीं है। उन्हें यह साबित करने के लिए गवाहों से पूछताछ करने की जरूरत पड़ेगी जिनमें माता-पिता, रिश्तेदार, शिक्षक और कोई भी ऐसा व्यक्ति शामिल है जिनके साथ एम लगातार संपर्क में है और विशेषज्ञ गवाहों जैसे बाल मनोवैज्ञानिकों की जरूरत भी पड़ेगी। आरोप पक्ष यह साबित करने की कोशिश करेगा कि एम जानता था कि वह क्या कर रहा है और इसके इस कार्य का परिणाम क्या होगा।
- बोर्ड इसके बाद यह तय करेगा कि एम् पर्याप्त परिपक्व हुआ है अपने कार्य के परिणाम को समझने के लिए या नहीं। यदि कार्य के परिणाम को समझने के लिए या नहीं। यदि जवाब न हुआ तो एम् उसके कार्यों के लिए माफ़ कर दिया जाएगा। यदि जवाब हाँ में है तो, एम को बोर्ड के समक्ष जाँच प्रक्रिया से अन्य कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों से अन्य कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों की तरह गुजरना होगा।
- बचाव पक्ष यह आवेदन जाँच से पहले या जाँच के दौरान कर सकता है।
केस 3 – पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया 15 वर्ष का बच्चा
पुलिस जेड को हत्या के अपराध के लिए गिरफ्तार करती है। जेड पुलिस को बताता है कि वह 15 वर्ष का है।
- पुलिस द्वारा प्राथमिक दर्ज करते हुए और गिरफ्तार के आदेश में जेड की आयु 15 वर्ष दर्ज करना अनिवार्य है।
- जेड को अपनी गिरफ़्तारी के 24 घंटे के भीतर बोर्ड के समक्ष पेश किया जाता किया जाता है।
- यदि बोर्ड को संदेह हो तो उसे किशोर न्याय अधिनियम 2000 कि धारा 49 के अनुसार जेड के आयु के कागजी दस्तावेज पेश करने की कोशीश की जानी चाहिए।
- कागजी दस्तावेज की अनुपस्थिति में जेड को चिकित्सकीय जाँच के लिए भेजा जाना चाहिए।
- चिकित्सकीय जाँच में तय आयु उम्र का पक्का सबूत नहीं होते, यह सिर्फ चिकित्सक की राय होती है और इसमें दोनों तरफ दो साल तक की गलती हो सकती है। जेड को संदेह का फायदा मिलना चाहिए।
- सीमांत के मामलों में चिकित्सकीय जाँच करने वाले चिकित्सकों किशोर के माता-पिता या रिश्तेदारों के बयान दर्ज किए जाने चाहिए।
- बोर्ड को जेड को आयु के संबंध में किसी नतीजे तक पहूँचना है। यदि 2 की आयु 18 वर्ष से कम पाई जाती है तो उसका मामला बोर्ड के समक्ष चलेगा। यदि जेड ने अपराध के दिन 18 वर्ष की आयु पार कर ली है तो उसका मामला आप अपराधिक न्यायालयों में भेज दिया जाएगा।
केस 4 – मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया 17 वर्ष का बच्चा
पुलिस बी को चोरी के आरोप में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करती है। बी मजिस्ट्रेट को बताता है कि वह 17 वर्ष का है।
- बी के मजिस्ट्रेट के यह बताने पर की उसकी आयु 17 वर्ष है। किशोर न्याय अधिनियम 2000 की धारा 7 के अनुसार मजिस्ट्रेट के लिए बी की आयु के संबंध में अपनी राय दर्ज करना आवश्यक है।
- मजिस्ट्रेट द्वारा बी के किशोर होने पर अपनी राय दर्ज करने के लिए बी की आयु निर्धारण की जाँच करना आवश्यक है।
- मजिस्ट्रेट द्वारा बी को आयु निर्धारण के लिए कागजी दस्तावेज पेश करने का मौका दिया जाना चाहिए। कागजी दस्तावेज की अनुपस्थिति में बी को चिकित्सकीय जाँच के लिए भेजा जाना चाहिए।
- मजिस्ट्रेट को बी की आयु के संदर्भ में एक साफ नतीजे तक पहूँचना है। यदि बी 18 वर्ष से कम आयु का है तो सके मामले के बोर्ड के समक्ष भेज देना है और उसकी हिरासत निगरानी गृह को दे देनी है। यदि बी 18 वर्ष से अधिक आयु का है तो उसका मामला मजिस्ट्रेट के समक्ष चलता रहेगा।
केस 5 – सत्र न्यायालय के सामने 16 वर्ष के बच्चे द्वारा दिया गया कैशोर्य का आवेदन
पी ने बलात्कार किया है पी का मामला चार्जशीट के बाद सत्र न्यायालय के समक्ष आता है। पी पहली बार सत्र न्यायालय के समक्ष यह आवेदन करता है कि अपराध के दिन वह 16 वर्ष का था।
- सत्र न्यायालय के लिए यह अनिवार्य है कि वह पी आवेदन को 2000 के कानून धारा 7ए के अंतर्गत देखें।
- सत्र न्यायालय को जाँच करनी चाहिए और खोज दर्ज करनी चाहिए की अपराध के दिन पी किशोर था या नहीं। जैसा की पहले दिया गया है। सत्र न्यायालय पहले कागजी दस्तावेज की मांग करेगा और उनकी अनुपस्थिति में चिकित्सकीय जाँच के लिए पी को भेजेगा।
- जाँच द्वारा यदि पी 18 वर्ष से कम आयु का साबित होता है तो उसका मामला बोर्ड के समक्ष और उसे निगरानी गृह की हिरासत में भेज दिया जाएगा। और यदि पी 18 वर्ष से अधिक आयु का है तो उसका मामला सत्र न्यायालय के समक्ष चलता रहेगा।
- यह जरूरी है कि 2000 के कानून की धारा 7ए के प्रावधानों को यद् रखा जाए जिसमें यह खा गया है कि किशोर होने का दावा किसी भी न्यायालय के समक्ष किया जा सकता है और किसी भी स्तर पर इसे माना जाना चाहिए, यहाँ तक की मामले में अंतिम निर्णय के बाद भी।
केस 6 – मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश क्या गया 17 वर्ष का बच्चा जो स्कूल गया हो
एफ पहली पेशी में मजिस्ट्रेट को बताता है कि वह 17 वर्ष का है। एफ आगे यह भी बताता है कि वह गाँव के विद्यालय का प्रमाण पत्र नहीं है।
- मजिस्ट्रेट द्वारा एफ को विद्यालय प्रमाण पत्र हासिल करने का एक मौका दिया जाना चाहिय।
- यदि एफ का कोई परिवार नहीं हैं जो उसके लिए विद्यालय प्रमाण पत्र ला सके तो मजिस्ट्रेट को सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे एक कानूनी सहायता वकील सेवाएँ प्राप्त हो जो प्रधानाद्यापक को लिख कर विद्यालय प्रमाण पत्र हासिल कर सके।
- यदि विद्यालय वकील के आवेदन पर जवाब नहीं भेजता तो मजिस्ट्रेट को खुद विद्यालय या प्रधानाद्यापक को आदेश देना चाहिए कि वह एफ का विद्यालय प्रमाणपत्र भेजे।
- इसके बड मजिस्ट्रेट को एफ की आयु के सम्बंध में किसी साफ निर्णय तक पहूँचना चाहिए। यदि एफ 18 वर्ष से कम आयु का है तो उसका मामला एफ के समक्ष और उसकी हिरासत निगरानी गृह के पास भेज दी जाएगी। यदि एफ 18 वर्ष से अधिक आयु का है तो उसका मामला अपराध न्यायालय के समक्ष चलता रहेगा।
केस 7 – 17 वर्ष का बच्चा जिसे जेल में 2 साल तक रखा गया हो
के जेल में बंद है। उस पर हत्या के मामले की पेशी चल रही है। अपराध 2 वर्ष पहले हुआ है अरु मामला सत्र न्यायालय के समक्ष चल रहा है। के जेल में काम करने वाले एन जी ओ को बताता है कि वह 19 साल का है और के का परिणाम गाँव में है और उस राज्य में नहीं है जहाँ उसका मामला चल रहा है।
- के की उम्र से संबंधित सभी कागजी दस्तावेज हासिल करने का प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसे सबूत भेजने के लिए के परिवार को या के या विद्यालय के प्रधानाद्यापक को पत्र लिखे जाने चाहिए।
- के द्वारा सत्र न्यायालय के समक्ष आवेदन देने के लिए के की फ़ौरन मदद की जानी चाहिए, के किसी प्रतिनिधि को के द्वारा न्यायालय में आवेदन दिए जाने के दिन मौजूद होना चाहिए ताकि के न्यायालय के माहौल में भयभीत न महसूस करे।
- यदि न्यायाधीश मदद नहीं कर रहा तो के की सहायता सत्र न्यायालय के समक्ष कानूनी सहायता वकील प्राप्त करने के लिए आवेदन दिया जाना चाहिए ताकि वकील के के दावे को आगे बढ़ा सके।
केस 8 – किशोर न्याय बोर्ड द्वारा ख़ारिज जमानत की अपील
टी अपने माता पिता के साथ रहता है। टी को डाका डालने अपराध में गिरफ्तार किया गया है और उसका मामला बोर्ड के समक्ष चल रहा है। टी के माता-पिता उसकी जमानत के लिए आवेदन करते है पर बोर्ड द्वारा आवेदन रद्द कर दिया जाता है।
- 2000 के कानून की धारा 12 के अंतर्गत जमानत अनिवार्य है सिर्फ यदि रिहाई से वह जानेमाने अपराधियों की संगत में आने या नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरे में पड़े सकता है या उसका छूटना न्याय के विरूद्ध होगा।
- टी माता पिता के साथ रहता है और ऐसा कुछ भी दर्ज नहीं है जिससे यह साबित हो की टी का छूटना उसे किसी प्रकार भी नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए बोर्ड को टी को जमानत पर छोड़ देना चाहिए था।
- टी के माता – पिता को बोर्ड का यह फैसला सत्र न्यायालय के समक्ष 2000 के कानून के अंतर्गत चुनौती के रूप में पेश किया जाना चाहिए। बोर्ड के आदेश के 30 दिनों के भीतर इस अपील को स्तर नयायालय के समक्ष पेश करना सबसे अच्छा होगा। हालाँकि 30 दिनों के बाद भी यह अपील की जा सकती है यदि आवेदक यह साबित कर सके उसे आवेदन यह साबित कर सके उसे आवेदन करने से रोकने के पर्याप्त कारण है।
- बोर्ड ने आदेश को चुनौती देने के बजाय सत्र न्यायालय के समक्ष टी को धारा 437 के अंतर्गत एक नई जमानत की अर्जी भी टी के माता पिता द्वारा दी जा सकती है।
- सत्र न्यायालय द्वारा दिया गया कोई भी आदेश उच्च न्यायालय के समक्ष पुर्नविचार के लिए दिया जा सकता है।
- यदि ठीक हो तो टी द्वारा बोर्ड के समक्ष जमानत की नई अर्जी भी दी जा सकता है यदि परिस्थितियों के कोई बदलाव आया है तो उदहारण के लिए यदि चार्जशीट दायर नहीं की गई है या जमानत ख़ारिज करते वक्त खोई वस्तुएँ वापस नहीं मिली हैं तो चार्जशीट दायर करने के बाद या खोई हुई चीजें वापस पाने के बाद बोर्ड के समक्ष एक और जरूरत की अर्जी दी जा सकती है।
केस 9 – मुचलका न जुटा पाने वाला किशोर
जे जे बी द्वारा गई को 15 हजार रूपये मुचलके पर जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दिया गया है। जी के माता पिता बहुत गरीब है और 15 हजार रूपये की राशि नहीं दे सकते। जमानत के आदेश दिए हुए 2 महीने हो गए है पर जी 15 हजार ना दे पाने के कारण निगरानी गृह में है।
- मुचलके की रकम के लिए निगरानी गृहों में लम्बे समय तक रखा जाना किशोर न्याय अधिनियम के मूल तत्व से मेल नहीं खाता।
- बोर्ड के समक्ष जमानत की रकम कम करने या जी के माता-पिता द्वारा अनुबंध किए जाने के लिए आवेदन देना चाहिए। 2000 के कानून की धारा 12 के अनुसार कोई किशोर जमानत पर मुचलके के साथ या बगैर जमानत पर रिहा किया जा सकता है।
- आवश्यकता महसूस किए जाने पर किशोर न्याय बोर्ड जी को उसके माता – पिता के साथ अनुबंध में किसी निगरानी अधिकारी के निरीक्षण पर छोड़ सकता है।
- बोर्ड के लिए पहल कदमी लेना आवश्यकता है यदि बोर्ड यह देखता है की कोई किशोर मुचलके की रकम कारण जमानत नहीं ले पाया है तो उसे जमानत के आदेश में बदलाव करने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके की किशोर निगरानी गृह से जल्द से जल्द रिहा कर दिया गया है।
- मास्टर सलीम इफरामूद्दीन अंसारी (2005 सीआरआईएलj 799 [BOM]) के मामले में मुंबई उच्च न्यायालय ने किशोर को सिर्फ अनुबंध रवाकर रिहा कर दिया था। इस मामले में सत्र न्यायालय ने 2002 में सलीम को जमानत दी थी, उसे पर वह जमानत पर रिहा नहीं हो सके क्योंकी वह जमानत के साथ जुड़ी रकम को नहीं दे पाया। उच्च न्यायालय ने 3 साल बाद सलीम को जमानत पर रिहा करते हुए यह निर्देश दिया............सभी मामलों में जब जमानत दी जाती है, सत्र न्यायालय एवं मजिस्ट्रेट को आदेश के 6 हफ़्तों के बाद मामले की रिपोर्ट लेनी चाहिए इससे यह सुनिश्चित होगा की उनका आदेश आर्थिक दिक्कतों या किन्हीं और वजहों के कारण माना जा कसता है या नहीं। इससे यह भी सुनिश्चित होग ऐसे दुसरे दुर्भाग्य पूर्ण मामले दुबारा न हो।
केस 10 – वयस्क सह अभियुक्त के साथ गिरफ्तार
क्यू एक किशोर है जिसे डाका डालने के आरोप में 4 वयस्क सह अपराधियों के साथ गिरफ्तार किया गया है और मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। जाँच से मजिस्ट्रेट को पता चला है कि क्यू किशोर है।
- मजिस्ट्रेट के पास क्यू के अपराध को निपटाने का अधिकार नहीं है, इसलिए उसे क्यू का मामला अन्य सह अपराधियों से अलग कर देना चाहिए।
- किशोर न्याय अधिनियम की धारा 18 (1) के अनुसार कोई भी किशोर किसी भी अपराध के लिए किसी वयस्क अपराधिके साथ नहीं जांचा जाएगा।
- मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस को यह निर्देश दिए जाएंगे की वह क्यू मामला किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष और किशोर को निगरानी गृह में पेश करें।
- इसके बाद से क्यू का मामला बोर्ड में किशोर न्याय अधिनियम 2000 के अनुसार चलाया जाएगा।
केस 11 – धारा 107 दंड प्रक्रिया संहिता द्वारा किशोर के विरूद्ध चलाई जाने वाली प्रक्रिया
पुलिस ने आर के विरूद्ध दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 के अनुसार प्रक्रिया शुरू की है जिसका जन्म प्रमाण पत्र बताता है कि वह 16 वर्ष का है।
- दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 अध्याय 8 के अंतर्गत आता है। जिसका शीर्षक है शांति व अच्छे व्यवहार बनाए रखने के लिए सुरक्षा और इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति संभावित रूप से शांति भंग कर सकता है या जन जविन को प्रभावित कर सकता है या जन जीवन को प्रभावित कर सकता है या ऐसा कोई कार्य कर सकता है जिससे भंग होने या जन जीवन के प्रभावित होने की संभावना हो उससे एक वर्ष के लिए शांति बनाए रखने का अनुबंध किया जा सकता है।
- किशोर न्याय अधिनियम 2000 की धारा 17 के अनुसार किशोर के विरूद्ध इस संहिता की धारा 8 के अंतर्गत कोई भी प्रक्रिया नहीं चलाई जाएगी या कोई भी आदेश नहीं दिया जाएगा। धारा 106 से धारा 124 इस अध्याय के अंतर्गत आगे है।
- इस लिए पुलिस को आर के विरूद्ध चलाई गई प्रक्रिया बंद के देनी चाहिए।
- मुंबई उच्च न्यायालय के औरंगाबाद पीठ ने रियाज अहमद एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार एवं अन्य मामले में किशोर को 5000 हजार रूपए का मुआवजा दिया था जिसके विरूद्ध दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 एवं 111 के अंतर्गत कदम उठाए गए थे।
- यह जरूरी माना जाता है कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 17 के सभी प्रावधानों को रोक लगाने व अनुबंध करने पर लागू किया जाए।
केस 12 – 17 वर्ष का बच्चा जिस पर 1986 कानून के अनुसार आजीवन कारावास की सजा हो
उच्च न्यायालय के समक्ष रुकी हुई अपील
सेशन कोर्ट द्वारा वी को एक 1/12/1999 को हत्या करने के आरोप में आजीवन कारावस का दंड दिया गया है। वी का जन्म 1/12/1982 को हुआ था। वी की अपील उच्च न्यायालय के समक्ष रुकी हुई है।
- अपराध के दिन वी 17 वर्ष का था और उस वक्त किशोर न्याय अधिनियम 1986 लागू था। यूंकी 1986 के कानून के अनुसार किशोर होने कि आयु किसी लड़के के लिए 16 वर्ष की थी इसलिए वी वयस्कों जैसा व्यवहार किया गया और उसे किशोर की सुरक्षा नहीं मिली।
- 2000 के कानून के 1/04/2001 में लागू होने के बाद लड़कों के लिए किशोर होने की आयु 18 वर्ष हो गई।
- 2006 के संशोधन, जो कि 22/08/06 को लागू हुआ, संशोधन के बाद कोई भी व्यक्ति जो अपराध के वक्त 18 वर्ष से कम आयु का रहा हो उसे किशोर कानून की सुरक्षा में लाया गया, बिना इस बात की परवाह किए कि उसने अपराध कब किया था। देखें किशोर न्याय अधिनिमय 2000 की धारा वी व 201।
- वी द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष रुके हुई अपील किशोर होने का दावा पेश किया जाना चाहिए।
- यह तय होने पर कि वी की उम्र 18 वर्ष की कम थी अपराध के वक्त उसे उच्च न्यायालय द्वारा किशोर कानून के प्रावधानों के अंतर्गत तुरंत जमानत दी जानी चाहिए। किशोर न्याय अधिनियम की धारा 6 (2) के अनुसार उच्च न्यायालय के पास बोर्ड को दिए गए सभी अधिकार मौजूद है। जब प्रक्रिया उनके समक्ष अपील पुनर्विचार या अन्य किन्हीं कारणों से आती हैं।
- अपील की जाँच जल्द की जानी चाहिए, अगर अगर यह साबित हो कि वी ने अपराध किया है और वी को छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकी उसने 2000 के कानून में दी गई अधिकतम अवधि से ज्यादा वक्त हिरासत में बिता दी है, इसलिए। उच्च न्यायालय को मामले के अनुसार अपराध मानना चाहिए पर सत्र न्यायालय द्वारा दी गई सजा माफ़ कर देनी चाहिए।
केस 13 – 17 वर्ष का बच्चा जिस पर 1986 कानून के अनुसार आजीवन कारावास की सजा हो
कोई अपील न हो।
जे को 11/03/ 2001 को सत्र न्यायायलय द्वारा 1/12/1999 को दिए गए हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। जे 03/3/1982 को पैदा हुआ था। जे ने उच्च न्यायालय के समक्ष किशोर होने की अपील नहीं दायर की है।
- जे अपराध के वक्त 17 वर्ष 9 महीने का था और सत्र न्यायालय के फैसले के वक्त 19 वर्ष का।
- चूंकि जे ने सत्र न्यायालय के समक्ष दावा नहीं किया जे एक याचिका द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष यह बात ला सकता है कि वह अपराध के वक्त 18 वर्ष से कम आयु का था, जे अपने अपराध को चुनौती नहीं दे रहा बल्कि यह मांग कर रहा है कि सत्र न्यायालय द्वारा उसे दी गई सजा माफ़ कर दी जाए।
- उच्च न्यायालय द्वारा जे की आयु निर्धारण, अपराध के वक्त, के लिए जाँच की जानी चाहिए।
- जाँच से यदि यह साबित होता है की अपराध के वक्त वह 18 वर्ष से कम आयु का था तो वह जरूरी है कि उच्च न्यायालय जे की सजा को किशोर न्यायालय जे की सजा को किशोर न्याय अधिनियम की धारा 15 के अंतर्गत तय करे। यदि जे ने हिरासत में रहने की अधिकतम अवधि पार कर ली है तो उसे छोड़ दिया जाना चाहिए।
- उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने के बजाय जे अपने 18 वर्ष से कम आयु का होने की बात किशोर न्याय अधिनियम 2000 के अंतर्गत भी ला सकता है। राज्य सरकार के पास यह अधिकार है कि वह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए कि किशोर कानून में दिए गए प्रावधानों का लाभ किशोर को मिले।
स्रोत: चाइल्ड लाइन इंडिया, फाउंडेशन