20 वीं शताब्दी की शूरूआत से ही भारत के विभिन्न राज्यों के अपने बाल कानून रहे है। मद्रास बाल अधिनियम 1920, लागू होने वाला पहला कानून है था, जिसके तुरंत बाद बंगाल व बम्बई बाल अधिनियम, मद्रास बाल अधिनियम के 4 साल बाद लागू हुआ था, पर यह पहला व्यवहारिक कानून था। फरवरी 1924 में, बम्बई शहर की सीमाओं के भीतर इस कानून को प्रावधान के लागू करने ली चिल्ड्रेन्स एंड सोसायटी नामक एक राज्य समर्थित स्वयंसेवी संस्था का गठन किया गया। चिल्ड्रेनस एंड सोसायटी ने बच्चों की देख रेख व सुरक्षा के लिए संस्थाओं का निर्माण किया और आज भी उनको संभालती है राज्यों के बाल कानूनों ने अपने दायरे में दो प्रकार के बच्चों को शामिल किया (1) छोटी उम्र के अपराधों और (2) द्रारिद्रता व अवहेलना के शिकार बच्चे। किशोर न्यायालयों द्वारा इन दोनों प्रकार के बच्चों को अपने न्याय के दायरे में लाया जाना था इस दौरान पूरी दुनिया में बच्चों की कल्याण के लिए सम्भला जाता था। इन दोनों प्रकार के बच्चों की खुशहाली केंद्र में थी इस लिए निगरानी अधिकरियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी और कानूनी प्रतिनिधित्व अनसुना था।
भारत सरकार ने बाल अधिनियम 1960 को केंद्र शासित प्रदेशों में अवहेलित व अपराधों बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, रखरखाव, कल्याण, प्रशिक्षण एवं पुर्नवास मुहैया कराने और अपराधी बच्चों की सुनवाई के लिए प्रेरित किया। इस अधिनियम बच्चों की सुनवाई के लिए प्रेरित किया। इस अधिनियम के अंतर्गत 16 वर्ष से कम आयु का लड़का और लड़की जो कि 18 वर्ष से कम आयु की श्रेणी में आते है।
बाल कल्याण बोर्ड अवहेलिण बच्चों के किस्सों को देखता था और कानून से विसंगत बच्चे बाल न्यायालय के अंतर्गत आते थे। यह जे.जे. एक्ट 1986 का पूर्वगामी विधान था। राज्य सरकारों ने न सिर्फ बच्चों के लिए अपने अलग कानून बनाए थे बल्कि राज्यों का बाल कानूनों की व्यवस्थाएं भी अलग – अलग थी यह तक कि बच्चे की परिभाषा भी हर राज्य में अलग थी। इसने 1986 में सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया।
“4........ हमारा सुझाव है कि हर राज्य के अपने बाल कानून जो कि अन्य राज्यों के बाल कानूनों जो कि अन्य राज्यों के बाल कानूनों से विषयवस्तु और प्रक्रिया दोनों में अलग होने कि बजाय केंद्र सरकार इस विषय में संसदीय विधान की शूरूआत करें ताकि देश की सीमा के भीतर बच्चों को दी जाने वाली विभिन्न सुविधाओं में एकरूपता हो संसद द्वारा लागू किए बाल कानून में न सिर्फ 16 वर्ष से कम आयु के बचों के खिलाफ किए अप्रदों की जाँच और सुनवाई की व्यवस्था हो, बल्कि इसमें अपराधों के अभियुक्त और परित्यक्ता, दरिद्र और खोए हुए बच्चों के सामाजिक आर्थिक और मनोवैज्ञानिक पुर्नवास के लिए अनिवार्य व्यवस्थाएं भी हों। इसके अतिरिक्त इस विषय पर कानून बनाना ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करना कि वह पूरी तरह से लागू हो सके और राज्य की ओर से कानून के प्रति सिर्फ मौखिक सहानूभूति के साथ आर्थिक संसाधनों की कमी को इसे लगो न करने के लिए बहाने के रूप से इस्तेमाल नहीं करना भी’ अगर ज्यादा नहीं तो उतना ही महत्वपूर्ण है। बच्चों पर खर्च करने का सबसे बड़ा पुरस्कार यह होगा कि एक ऐसा मजोब्बोत मानव संसाधन विकसित होगा जो देश को आगे ले जाने में अपनी भूमिका निभा सके।”
29 नवंबर 1985 में संयुक्त राष्ट्र मानक किशोर न्याय प्रशासन के न्यूनतम नियमों को अपनाया और पहली बार अंतराष्ट्रीय कानूनों में किशोर शब्द का प्रयोग किया गया और सूत्र किशोर कानून को गढ़ा गया। घरेलू कानूनों में किशोर न्याय को अधिनियम 1986 के पारित होने से भाषा में यह बदलाव प्रतिबिम्बत हुआ एम. एस. सबनीस ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर भाषा में आए इस बदलाव के कारणों को द्वि आयामी बताया: (1) यह समझना की किशोर अपराधियों के अथ वयस्क अपराधियों से अलग ब्यवहार किया जाना चाहिए क्योंकि वयस्क के लिए बनी परंपरागत अपराधी न्याय व्यवस्था में उनको विशेष समस्याएँ झेलनी पड़ती है एवं (2) इसके साथ ही विशुद्ध कल्याणकारी गतिविधियों, जो कि बच्चे को सही प्रक्रिया व बुनियादी कानूनी सुरक्षा इंतजामों से दूर करते है, से सचेत रहन।”
बीजिंग नियमों के आगमन के साथ ही कल्याणवाद के युग की जगह न्याय के ढांचे ने ले ली। 1.4 किशोर न्याय को हर देश की राष्ट्रीय विकास प्रक्रिया का अभिन्न अंग माना जाएगा जिसमें सभी किशोरों के लिए सामाजिक न्याय की समग्र रूपरेखा होगी साथ ही साथ बच्चों की सुरक्षा में योगदान के साथ समाज में शांतिपूर्ण व्यवस्था को बनाए रखा जाएगा।
बच्चे की खुशहाली और न्याय, के इन दोनों पहलुओं को ध्यान देने का विभाजन किया जाना था। न्याय सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि उनके लिए भी जिन्हें उनके कर्मों की वजह से तकलीफ झेलनी पड़ी है। कल्याणवाद के प्रति राजनीतिज्ञों, आम जनता और यहाँ तक कि सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के भीतर बढ़ते विरोध के कारण इसकी जरूरत महसूस की कार्यकत्ताओं के भीतर बढ़ते विरोध के कारण इसकी जरूरत महसूस की गई। यह मानते है कि एक उम्र के बाद बच्चों को अपनी हरकतों के लिए जिम्मेदार माना जाना चाहिए; यदि वे वयस्कों की तरह व्यवहार कर सकते हैं तो उनके साथ वयस्कों की व्यवहार क्यों नहीं किया जाना चाहिए जबकि दुसरे समझते हैं की कल्याणवाद एक जैसी परिस्थिति में फंसे किशोरों के साथ अतार्किक ढंग से और बिना सोचे हुए व्यवहार करता है इसलिए उन्हें भी वयस्कों को मिलने वाली संवैधानिक और प्रक्रियात्मक बचावों के दायरे में लाया जाना चाहिए खासकर इसलिए क्योंकि किशोर भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित है।
राष्ट्रों ने किशोर अपराधियों और देखभाल व सुरक्षा के जरूरतमंद बच्चों के लिए अगल अलग कानूनों का निर्माण किया जे. जे. एक्ट 1986 के लागू होने के साथ एक ही कानून के होते हुए भी अवहेलित बच्चों और अपराधी बच्चों के लिए दो भिन्न मशीनरियों (व्यवस्थाओं) का गठन किया गया अपनी- अपनी संबंधित प्राधिकरणों द्वारा जाँच के दौरान इन दोनों प्रकार के बच्चों को एक साथ सुरक्षा गृहों में रखा जाता था। जे. जे. एक्ट 2000 ने पहली बार कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों और देखभाल और सुरक्षा के जरूरतमंद बच्चों को जाँच के दौरान लग अलग रखे जाने का प्रावधान दिया। इस विभाजन का मकसद मासूम बच्चों पर अपराधी किशोरों के प्रभाव को कम करना है। असुरक्षित और गलत मार्गदर्शन के शिकार बच्चों को अब अप्रिय और हिंसक किशोर माना जाता है जिनसे अन्य बच्चों को सुरक्षित रखे जाने की आवश्यकता है धारणाओं में आए इस बदलाव की वजह यह है कि आज किशोर अपराध ज्यादा दिखने लगा है जिनमे से ज्यादातर सड़कों पर होते है जहाँ बच्चे पारिवारिक और समाजिक सहायता के बिना जीने की कोशिश करते है। मीडिया ने भी कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों को अमानवीय हरकत करने वालों ‘जो कि अपनी उम्र के कारण सस्ते से बच जाते है’ की तरह दिखाने में बड़ा योगदान किया है।
भारत के किशोर कानून ने कल्याणवाद और न्याय के बीच “ कल्याण नयायालय” द्वारा तालमेल बिठाने की कोशिश की है जो कि बच्चों को जाँच के दौरान संवैधानिक और प्रक्रियात्मक सुरक्षा, इंतजाम मुहैया कराता है। और उसके बाद बच्चे का हित और उसके समग्र पुनर्वास को ध्यान में रखते हुए सुधार की आवश्यकता है और उम्मीद है कि आगे भी ऐसा होता रहेगा। जे. जे.एक्ट 2000 ही आज तक कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों और देखभाल और संरक्षण के जरूरतमंद बच्चों की देखरेख करता है। शुक्र है की अब तक हमारे किशोर न्याय बोर्ड छोटे अपराधियों के लिए निचले अपराधी न्यायालय में परिवर्तित नहीं हुए किशोर अपराधी को सही सामाजिक प्ररिक्ष्य देते है संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कन्वेंशन ने बच्चों से जुड़ी सारी क्रियाओं में बच्चों के लिए कुछ गारंटी सुनिश्चित करते हुए यह भी माना है की बच्चों का सर्वोपरी हित प्रमुख स्थान पर हो। मानक नियमों में भी यह माना गया है कि सर्वोपरी हित का सिद्धांत जे. जे. एक्ट 2000 के व्यवहारीकरण, व्याख्या व क्रियान्वयन के लिए मौलिक है और किशोर न्याय को लागू करने में इन्हें प्राथमिक दर्जा दिया जाना चाहिए।
स्रोत: चाइल्ड लाइन इंडिया फाउन्डेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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