परिचय
- जल एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है जिसका उपयोग विभिन्न कार्यों में किया जाता है। कृषि में जल मुख्यतः सिंचाई के लिए काम में लाया जाता है।
- फसलों के उत्पादन में जल एक मुख्य संसाधन है।
- भारतवर्ष में 3/4 खेती वर्षा पर आधारित है।
- उत्पादन बढ़ाने के लिए वर्षा आधारित क्षेत्रों के पानी के हवा को रोकना या कम करना होगा और इसे उचित स्थान पर संग्रह करना होगा, जिसे सुखाड़ या वर्षा नहीं होने के समय सिंचाई के लिए उपयोग किया जा सके।
- सिंचाई कमीशन के अनुसार अगर भारतवर्ष के सम्पूर्ण संसाधनों को भी विकसित कर दिया जाए फिर भी करीब 45% मिमी. 2025 तक वर्षा पर ही आधारित होगी।
- झारखण्ड राज्य में अभी 8% सिंचित भूमि है। अगर सम्पूर्ण संसाधनों को विकसित कर लिया जाए तो भी 15% से अधिक क्षेत्रों को सिंचित नहीं किया जा सकता है।
- वर्षा जल संग्रह कर, फसलों के लिए उपयोग में लाना कोई नई पद्धति नहीं है। यह बहुत पुराना विधि है। अभी दक्षिण भारत में तालाबों का भरमार है। मध्यम सिंचाई परियोजना आने पर सरकार का ध्यान उस ओर कम हो गया था।
- यह पाया गया है कि 50% से भी अधिक वर्षा का पानी बर्बाद हो जाता ही और नदियों द्वारा बह जाता है।
- अगर इस बहाव को रोका जाए और तालाबों एंव जलाशयों में संग्रह किया जाए तो भदई एवं रवि फसलों को सफलतापूर्वक उपजाया जा सकता है।
वर्षा जल संग्रह करने का तरीका
- वर्षा जल का खेतों में ही संग्रह –मेड़ बनाकर जहाँ वर्षा 300-400 मिमी.तक होता है।
- ढाल के विपरीत जुताई कर कुंड में ही जल जमा करना जिससे जमीन में पानी रिसने का समय मिलता है।
- सीढ़ीनुमा खेत बनाकर, सबसे उपर कम पानी चाहने वाले पौधों के क्रम में, उपर से नीचे लगाते हैं। सबसे नीचे धान या सब्जी लगाते है, और उसके नीचे एक छोटा जलाशय बना देते हैं, जिससे सिंचाई की जा सके।
तालाब या बाँध बनाकर
- तालाब या बाँध बनाकर – जहाँ वर्षा 400 मिमी सेअधिक होती है वहाँ खेतों में पूरा पानी संग्रह करना मुशिकल है इसलिए वर्षा ऋतु में तालाब बनाकर जल संग्रह करते हैं।
मिट्टी का छोटा बाँध बनाने की योजना
- बाँध बनाने के समय यह जानना जरूरी है कि बांध बनाने का के प्रयोजन है इसकी के अनुसार हमें उसके स्थान एवं आकार का चुनाव करना होगा।
- अगर सिंचाई के लिए बनाना है तो पहले वहाँ का सिंचित क्षेत्र जानना पड़ेगा एवं उसी के अनुसार हमें बांध का आकार बनाना होगा।
जगह का चुनाव
आर्थिक दृष्टि से बाँध वहाँ होना चाहिए जहाँ सबसे ज्यादा पानी इकट्ठा हो सके और मिट्टी की भराई भी कम से कम हो। ऐसा जगह वहीं हो सकता है जहाँ जगह संकरा (नैरो वैली) हो और पानी जमा करने का जगह गहरा हो।
- अगर बाँध ऊँची जमीन पर है तो सिंचाई के लिए नाला या नहर का उपयोग होगा और पानी गुरुत्वाकर्षण से अपन आप नहर में बहेगा।
- बाँध नीची जमीन पर होगा तो सिंचाई के लिए पम्प और पाइप की आवश्यकता होगी।
- बाँध उसी स्थान पर बनाना उचित है जहाँ मिट्टी आसानी से मिल जाए। मिट्टी क्षारीय, दलदल या बारी (क्ले) नहीं होना चाहिए।
- भारी मिट्टी, वर्षा में फूलेगी और गर्मियों में सिकुड़ जाएगी जिससे बाँध में दरार हो जाएगा।
- मिट्टी की बाँध की चौड़ाई मिट्टी से पानी के रिसाव के रास्ते पर निर्भर करता है।
- अगर बांध की चौड़ाई कम करना है तो बांध के बीच में करीब एक मित्र अपारगम्य मिट्टी या पदार्थ देना होगा जिससे पानी का रिसाव कम होगा।
तालाब या जलाशय
जहाँ की जमीन यह जगह बांध के लिए उपयुक्त नहीं है वहाँ वर्षा का पानी जमा करने के लिए तालाब ही बनाना उचित होगा।
जगह का चुनाव
तालाब बनाने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-
- जल ग्रहण क्षेत्रों का आकार, ढाल, मिट्टी की संरचना एवं प्रकार, वार्षिक वर्षा इत्यादी।
- तालाब में मिट्टी को आने से रोकना।
- क्षेत्र में होने वाले सफल एवं उसका चयन।
अगर जल ग्रान क्षेत्र में कहीं प्राकृतिक गड्ढा है तो वह स्थान तालाब के लिए सर्वोत्तम है। वहाँ मिट्टी की कोड़ाई भी कम होती है।
- जहाँ की मिट्टी में चुना, बड़ा दरार या नाली हो वैसा स्थान तालाब के लिए उपयोगी नहीं है।
- अगर तालाब कोड़ाई के समय पानी निकल जाए तो वैसे तालाबों में पानी सालों भर रहता है।
तालाब की रूपरेखा एवं मापदंड
- तालाब का आकार पानी के उपयोग पर निर्भर करता है। तालाब सिंचाई के उद्देश्य से, पानी पीने के लिए या जानवरों के लिए या सभी चीजों के लिए बनाया जा सकता है।
- तालाब की क्षमता=सिंचाई+जानवरी+गृह कार्य+20% (ऊपर तीनों को जोड़कर) अधिक, पानी की क्षति को पूरा करने के लिए।
- जिन जगहों में वर्षा बहुत कम होती है वहाँ सबसे पहला उद्देश्य गृह कार्य एवं जानवरों के पानी पीने के लिए होना चाहिए।
- तालाब का आकार जलग्रहण क्षेत्र से आने वाले पानी के बहाव पर निर्भर करता है।
- तालाब का आकार जलग्रहण क्षेत्र से आने वाले वार्षिक बहाव के आधा होना चाहिए ताकि साल भर में तालाब दो बार भर सके।
- कम वर्षा के क्षेत्र से एक हेक्टेयर जल ग्रहण क्षेत्र से 100 घन मीटर पानी जमा होने का अनुमान है।
- मध्यम वर्षा क्षेत्र में 200 घन मीटर प्रति हेक्टेयर पानी जमा हो सकता है।
- अगर जल ग्रहण क्षेत्र में प्राकृतिक गड्ढा नहीं है तो जल ग्रहण क्षेत्र के बीच में उसपर से २/3 तिहाई छोड़कर तालाब बनाना चाहिए ताकि आधा या 1/3 तिहाई भाग की सिंचाई आसानी से हो सके।
- जहाँ तालाब है वहाँ का जलग्रहण क्षेत्र का ढाल २ से 3% से अधिक न हो, अधिक होने से तालाब के रखरखाव में खर्च अधिक होगा।
- एक हेक्टेयर सिंचाई के लिए कम से कम 30 सेमी, हेक्टयेर तालाब में पानी होना चहिए।
- तालाब बनाने के ग्राम में सबसे पहले उसकी गहराई जानना जरूरी है।
- तालाब के बगल का ढाल मिट्टी की गुण (एगिल ऑफ़ रिपोज) पर निर्भर करता है।
- तालाब की गहराई जानने के बाद उसकी लम्बाई और चौड़ाई निकालते है क्योंकि हमें पानी का आयतन मालूम है।
- जहाँ वर्षा मध्यम या अधिक होती है वहाँ फिजूल पानी के बाहर निकालने के लिए उपाय करना चाहिए, उन्हें जल निकास या सिप्लवे कहते हैं।
- 3 हेक्टेयर जलग्रहण क्षेत्र के लिए जल निकास घास की नाली से चल जायेगा। जहाँ जल ग्रहण क्षेत्र 4 हिक्त्तेटर या अधिक हो वहाँ यांत्रिक विधि अपनाना पड़ेगा।
- तालाब के लिए ड्राप इनलेट सिप्लवे उपयुक्त होता है।
तालाब बनाने का खर्च
- मिट्टी की कोड़ाई का खर्च
- तालाब के बगल और सतह पर लेप लगाना
- सिप्लवे बनाने में खर्च
तालाब का आयतन (मिट्टी की कोड़ाई)
प्रिजमोइडल सूत्र से आयतन = A+4B+C
A= तालाब के उपर का क्षेत्रफल (मी.२)
B= तालाब के बीच का क्षेत्रफल (मी.२)
C= तालाब के नीचे का क्षेत्रफल (मी.२)
D= तालाब की गहराई क्षेत्रफल (मी.)
तालाब, बाँध या कुओं में जमा पानी का सिचाई में उपयोग
सिंचाई की विधि
सिंचाई की बहुत सारी विधियाँ हैं और सारी विधियों का अपना-अपना उद्देश्य है। विधियाँ फसल,मिट्टी, जलवायु, पानी की उपलब्धता, मजदूरों की स्थिति इत्यादि पर निर्भर करता है।
बोर्डर सिंचाई: इस विधि में खेतों को छोटे-छोटे मेड़ के द्वारा घेर देते हैं। लबाई और चौड़ाई फसलों एवं पानी के श्रोत पर निर्भर करता है। इसकी चौड़ाई 3 से 15 मी. तथा लबाई 60 से 120 मी, तक होता है।
- अगर बोर्डर ढाल में बनाना है तो उसे पत्तीदार बार्डर कहते हैं।
- यह सिचाई पद्धति उस फसल के लिए उपयुक्त है जो नजदीक लगाई जाती है जैसे- गेंहूँ, चना, सरसों, पत्तीदार सब्जी, धनिया इत्यादि।
- मिट्टी मध्यम पानी सोखने वाली हो।
- जमीन की ढाल २% से अधिक न हो।
चेक बेसिन: इस विधि में जमीन की छोटे-छोटे प्लाट को मेड़ से घेर देते हैं।
- इस विधि में प्लाट बनाने में बहुत मजदूर लग जाता है इसलिए बागवनी पौधे एवं शोध कायों के लिए उचित है।
- वहाँ की मिट्टी इस तरह होनी चाहिए कि पानी पूरे प्लाट में उतने समय में भर जाना चाहिए जितना ¼ चौथाई समय में पानी जमीन में रिस जाए।
- यह विधि उन फसलों के लिए उपयोगी है जो पानी अधिक पसंद करता है।
नाली सिंचाई पद्धति: इस विधि पंक्ति में लगाने वाले पौधों या फसल के लिए उपयोगी है।
- नाली गहराई 7.5 से 12.0 सें.मी. तक बदल सकता है अगर नाली की लंबाई अधिक हो तो नाली की गहराई बढ़ा दी जाती है ताकि शुरू में पानी जमा न हो जाए।
- जहाँ पानी की कमी है वहाँ एक नाली छोड़कर सिचाई की जाती है।
- नाली विधि मकई, आलू, ईख, फूलगोभी, बैंगन इत्यादि के लिए उपयोगी है।
- अगर जमीन की ढाल २% से अधिक हो तो सिचाई नाली ढाल के विपरीत बनाते हैं।
- नाली की लंबाई हल्की जमीन में 45 मीटर तथा भारी जमीन में 300 मीटर तक बनाई जा सकती है।
- बागवानी में बड़े पौधों के लिए नाली की गहराई 20 से 30 सें.मी. दिया जाता है।
- नाली मेंपानी की मात्रा 0.5 से लेकर २.5 ली./से दिया जा सकता है। हल्की मिट्टी में पानी की मात्रा अधिक एवं भारी मिट्टी में पानी की मात्रा कम होनी चाहिए।
सब्जी उप्तादन में सूक्ष्म सिचाई पद्धति का उपयोग
- औद्योगिक क्षेत्रों के विकास होने के कारण जल की मांग औद्योगिक क्षेत्रिब के साथ-साथ घरेलू कार्यों में काफी बढ़ गई है। इसके परिणामस्वरूप कृषि कार्यों में जल की कमी की समस्या का समाधान एकमात्र सूक्ष्म सिचाई पद्धति (ड्रिप इरिगेशन सिस्टम) है।
- इस विधि से उच्च दबाव पानी पौधे के जड़ क्षेत्र के निकट अथवा पूरे पौधे पर डिप्रर तथा फवारे द्वारा दिया जाता है।
- यह एक अत्यधिक सिंचाई पद्धति है। इस पद्धति से 3 हेक्टेयेर से अधिक भूमि पर सिंचाई पूरे देश में हो रही है।
- सूक्ष्म नालिकाओं को खूंटी के सहारे स्थापित किया जाता है जिससे उनके टोटियों से गिरने वाले पानी बूंद-बूंद करके पौधों के जड़ क्षेत्र तक पहुंच सके।
- इन टोटियों से २ से 10 लीटर प्रति घंटा दर से पानी बूंद –बूंद करके जमीन पर टपकता रहता है।
- वर्तमान समय में बूंद सिंचाई पद्धति बहुत ही विकसित हो चुकी है। जिसके अंतर्गत अव्भूमि (सब सर्फेस) स्तर पर बहुवर्षीय पौधों में स्थायी रूप से उपमुख्य एवं लैटरल्स बिछा दिया जाते हैं।
- मुख्य पाइप में घुलनशील रासायनिक खाद का ड्रम लगा होता है। जल या रासायनिक खाद एक सूक्ष्म छिद्र (मेंयुरी) द्वारा आवश्यकतानुसार मुख्य पाइप में जाता है।
- मुख्य पाइप में पानी एक उचित दबाव पर पम्प के द्वारा दिया जाता है। इसे स्थापित करने में अधिक खर्च होता है इसी खर्च को कम करने के लिए पानी के ड्रम को कम सेकम 4 फिट की ऊंचाई पर रखा जाता है जिससे बिना पम्प के ही उचित दबाव पर टोटी से पौधों को पानी मिल सके।
छिड़काव या फव्वारा पद्धति
- इस पद्धति में 0.5 से 5 अश्वशक्ति का पम्प सेट से मूख्य तथा उप मुख्य पाइप जुड़े होते हैं जिन्हें एक खूंटा के सहारे खड़ा किया जाता है।
- उप मुख्या पाइप में एक छिड़काव टोंटी लही होती है जिसके घुमने से चारों ओर जल का समान वितरण होता है।
- मुख्य एवं उपमुख्य पाइप 10 से 20 मिमी. तक होता है। ये पाइप एक दूसरे से एलवो टी एवं क्रास से जुड़े होते हैं।
सूक्ष्म सिंचाई पद्धति की विशेषता
- जल की बचत के साथ-साथ फसल की उत्पादकता एवं गुणवत्ता को बनाये रखता है।
- मजदूरों के खर्च को भी कम करता है।
- जड क्षेत्रों में लवण के जमाव एवं बीमारियों के आक्रमण से भी पौधों की रक्षा करता है।
- बूंद सिंचाई पद्धति लबे समय तक मिट्टी की जमी बनाये रखती है।
- छिड़काव पद्धति का व्यवहार उथली, नीची, ऊँची भूमियों में किया जाता है।
- छिड़काव विधि द्वारा अघुलनशील उर्वरक पौधों में डाला जा सकता है।
- ऐसी सब्जी जिनकी पौधों के बीच की दुरी अधिक घनी नहीं हो, अर्थात –टमाटर, बैगन, भिन्डी, फूलगोभी, बंदगोभी, कद्दू, कोहड़ा इत्यादि में बूंद सिंचाई पद्धति काफी उपयोगी है।
- एक सूक्ष्म नली (माइक्रोटुब्युब) पौधों के बीच में इस तरह स्थापित किया जाता है जिससे चार-पांच पौधों को एक साथ पानी दे सके।
- अनुसन्धान से यह पता चलता है कि उपज में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ करीब 30 से 80% पानी की बचत करता है।
- ऐसे सब्जियां जिनमें पौधें के बीच की दुरी कम हो, जैसे-धनिया, मेथी, स्र्स्रों, पालक इत्यादि में फव्वारा सिंचाई पद्धति काफी उपयुक्त होती है।
- नर्सरी के लिए भी यह पूर्णतय उपयोगी है यहाँ सूक्ष्म नलिकाएं स्थापित नहीं की जा सकती क्योंकि पौधें के बीच की दुरी कम रहती है इसलिए छिड़काव पद्धति उपयोगी है।
- गर्मी के समय में पौधों को ठंडक देने के लिए तथा सर्दी में पाले से बचाने के लिए पद्धति काफी उपयोगी है।
- छिड़काव पद्धति से 1 से 3 एकड़ सिंचाई 4 से 6 घंटे में संभव है। इस पद्धति से 25 से 45% तक पानी की बचत होती है।
पारम्पिरक सिंचाई पद्धति से जहाँ एक से डेढ़ क्विटंल/हेक्टेयर/सें.मी. जल से प्राप्त किया जाता है वहीं सूक्ष्म सिंचाई पद्धति से २ से २.5 क्विटंल/हेक्टेयर/सें.मी. जल से प्राप्त किया जा सकता है।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता : समेति, कृषि एवं गन्ना विकास विभाग, झारखण्ड सरकार