वक्त कई रंग दिखाता है। सभी को अपने हिसाब से चलने को मजबूर करता है। । वैशाली जिले के राजापाकड़ प्रखंड़ की महिलाओं की जिंदगी में भी वक्त ने अपने हिसाब से खूब रंग दिखाया है। कभी दिहाड़ी करने वाले हाथ अब बच्चों के होठों पर मुस्कान लाने का काम कर रहे हैं। दरअसल समाज के अंतिम कतार से ताल्लुक रखने वाली महिलाओं ने लीक से हट कर काम किया है। उन्होंने मजदूरी को छोड़ कर खिलौना बनाना शुरू किया है। रंग-बिरंगे और काफी आकर्षक इन खिलौनों की बिक्री अच्छी होने के कारण इन महिलाओं के जीवन में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हो रहा है।
दिन भर मजदूरी कर दिहाड़ी कमाने वाली इन महिलाओं की जिंदगी में बदलाव का कारण खुद इनकी ही सोच है। इन महिलाओं को मेहनत के हिसाब से बहुत कम मजदूरी मिलती थी। कई ऐसी भी थी जो आर्थिक रुप से बहुत कमजोर थी। वह कुछ अलग काम तो करना चाहती थी लेकिन वह क्या काम करें? ये जानकारी नहीं थी। महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने वाली संस्था ‘इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट फाउंडेशन’ ने इनकी मेहनत, हालात को देखा। इन सभी को मजदूरी करने के अलावा अन्य विकल्प पर सुझाव देने का विचार किया। संस्था के अधिकारी राजन बताते हैं कि हम क्षेत्र में महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए काफी दिनों से काम कर रहे थे। महिलाओं को मजदूरी करते देख कर ही हमने इनके लिए कुछ विकल्प सुझाया। महिलाओं ने पहले तो ध्यान ही नहीं दिया। वो हमारी बातें सुन कर अनसुना कर देती थी। हमने अपनी कोशिशें जारी रखी। कुछ महिलाओं ने हमारी बातों पर गौर किया। फिर बात बनी। दो, चार, छह फिर तीस राजन बताते हैं, खिलौने बनाने की शुरुआत करीब तीन महीने पहले शुरू की गयी। इसे बनाने की बात पर पहले कुछ ही महिलाओं ने ही ध्यान दिया। सबसे अहम था कि मजदूरी करने वाली महिलाओं का विश्वास कैसे जिता जाये? हालांकि बहुत कम मजदूरी मिलती थी फिर भी ये उस काम को नहीं छोड़ना चाहती थीं। कुछ ऐसी भी थी जो घर में ही रहती थी लेकिन पैसे के लिए कोई काम करना चाहती थी। संस्था ने ऐसी महिलाओं की एक मीटिंग बुलायी। कई विकल्पों के बारे में महिलाओं को बताया गया। जिसमें काशीदाकारी, वर्मी कंपोस्ट, फूड़ प्रोसेसिंग और खिलौना बनाना शामिल था। उनका रुझान खिलौने बनाने को लेकर ज्यादा था। राजन बताते हैं कि इनकी इच्छा देख कर हमने भी यही सोचा कि जिसमें रुचि है, उसी काम का प्रशिक्षण देंगे। इसमें यह भी अहम था कि वो मजदूरी करती थी लेकिन वो यह भी कहती थी कि संस्था द्वारा बताये जाने वाले काम को घर से ही करेंगी। गिनती की संख्या में काम करने शुरू करने वाली इन महिलाओं की संख्या बढ़कर तीस हो गयी है।
प्रशिक्षण देने से पहले इन महिलाओं में आत्मविश्वास आ सके, इसके लिए अलग कदम उठाया गया। राजन बताते हैं कि संस्था ने इन महिलाओं को यह काम दिया कि वे बाजार में जाकर जानकारी लें कि अगर वह खिलौना बनाती हैंतो उसकी बिक्री होगी कि नहीं? इसकी जानकारी दुकानदार से पूछ कर एकत्र करें। उन्होंने ऐसा ही किया। दुकानदारों से जो जवाब मिला वह इनके लिए उत्साहवर्धक था। वे खिलौनों को खरीदने के लिए राजी थे। फिर हमने प्रशिक्षण दिलाने का फैसला लिया। इसमें पटना की एक संस्था से मदद ली गयी। वहां से एक महिला ट्रेनर की व्यवस्था की गयी जो खिलौने बनाने का प्रशिक्षण देती थी। करीब एक माह तक प्रशिक्षण कार्यक्रम चला। इस दौरान उपयोग होने वाले हर सामान को संस्था द्वारा उपलब्ध कराया गया।
खिलौने बनाने में उपयोग होने वाले सामान का खर्च बहुत कम है। ‘फर’ का मूल्य जहां चार सौ से पांच सौ रुपये प्रति मीटर के बीच है वहीं ‘सेल्ट’ कपड़े का दाम सौ रुपये प्रति मीटर के करीब है।
एक खिलौना बनाने में कुछ सेंटीमीटर ही ‘फर’ और ‘सेल्ट’ का उपयोग होता है। आंख, नाक बनाने में उपयोग होने वाले सामान श्रृंगार के दुकान में मिल जातेहैं। हालांकि अभी सारा कच्च सामान पटना से जाता है लेकिन पटना में भी इनकी थोक में खरीदारी श्रृंगार के दुकानों से ही होती है। राजापाकड़ प्रखंड़ के मदनपुर, बेरई, नारायणपुर, बैकुंठपुर समेत कई गांवों की महिलाएं अभी इस काम में लगी हुई हैं। इन खिलौनों का मूल्य सौ रुपये से तीन सौ रुपये तक है। सौ रुपये में बिकने वाले खिलौने की लागत 75 से 80 रुपये और तीन सौ रुपये वाली की लागत 260 से 270 रुपये तक आती है।
नर्म, नाजुक और मनमोहक इन खिलौने की बिक्री राजापाकड़ प्रखंड़ के बाजारों में ही हो जाती है। यहां के दुकानदार इसे हाथोंहाथ खरीद लेते हैं। वैसे तो कई तरह के खिलौने बनते हैं लेकिन सबसे ज्यादा मांग हैंगिंग बंदर, पर्दे में लगने वाला बंदर, हाथी, कुत्ता, खरगोश और जिराफ है। इनकी लगातार मांग होने से उत्साहित महिलाएं अब मिकी माउस और टेडी बियर बनाने को सोच रही हैं। घरेलू स्तर पर बढ़िया प्रतिक्रिया मिलने से अब ये पटना और हाजीपुर में भी अपने सामानों को भेजने की तैयारी कर रही हैं। इसके लिए उन्होंने दुकानदारों से बात भी कर ली है। दुकानदार से मिलने, खिलौने का ऑर्डर लेने और स्थानीय बाजारों में इसकी आपूर्ति करने का जिम्मा इनका ही है। इन सारे काम में अगर किसी भी प्रकार की परेशानी आती है तो इसके लिए संस्था मदद करती है।
मजदूरी को छोड़ कर इस काम में लगी आर्थिक और सामाजिक रुप से पिछड़ी इन महिलाओं की सोच में अब परिवर्तन आ रहा है। अब इनमें बचत की प्रवृत्ति हो गयी है। समाज के लोग भी इनके काम से खुश हैं। संस्था केअधिकारी राजन कहते हैं, इलाके के लोगों का भी मानना है कि अभी यह प्रारंभिक स्तर ही है लेकिन आत्मनिर्भर तो हो रही हैं।
स्त्रोत: संदीप कुमार,स्वतंत्र पत्रकार,पटना बिहार।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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