श्वसन तंत्र की बीमारिया बहुत आम हैं। पाचन तंत्र की तरह श्वसन तंत्र को भी बाहरी चीजों का कहीं ज़्यादा सामना करना पड़ता है। इसीलिए श्वसन तंत्र की एलर्जी और संक्रमण इतनी आम है। हवा से होने वाली संक्रमण से बचना उतना आसान नहीं है जितना कि खाने व पानी से होने वाली संक्रमण से बचाव करना। बेहतर आहार, घर और स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता (जैसे धुम्रपान से परहेज) यही सामान्यतया महत्वपूर्ण है। लगातार बढ़ रहा वायु प्रदूषण भी साँस की बीमारियों के लिए काफी नुकसानदेह है।
श्वसन तंत्र की सभी बीमारियों में खॉंसी होना सबसे आम है। खॉंसी अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह असल में किसी न किसी बीमारी का लक्षण है। परन्तु अक्सर इलाज बीमारी के बजाय खॉंसी पर केन्द्रित हो जाता है, जो गलत है। खॉंसी के लिए दिए जाने वाले सिरप आम तौर पर असरकारी नहीं होते। परेशानी की जगह और कारण का निदान ज़रूरी है। श्ससन तंत्र की रचना और कार्य की जानकारी से हमें मदद मिल सकती है।
श्वसन तंत्र मानों एक उल्टा पेड़ है। इसमें सूक्ष्म नलिकाओं और वायुकोश की हवा के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है। छाती की पेशियाँ और फेफड़ों के नीचे का पेशीय पर्दा (मध्य पट) या ड्याफ्राम हवा के अवागमन में मदद करते हैं। श्वसन तंत्र के ऊपरी भाग में नाक, गला और स्वरयंत्र (लैरींक्स) आते हैं। श्वसन तंत्र के निचले भाग में मुख्य श्वास नली और इसकी शाखाएँ यानि श्वसनी, छोटी शाखाएँ और लाखों वायुकोश (एल्वियोलाई) जिनके साथ सूक्ष्म केश नलिकाओं का जाल होता है। श्वसन तंत्र को ऊपरी और निचले भागों में बॉंटकर समझने से आसानी रहती है। ऊपरी भाग का संक्रमण आमतौर पर खुद ठीक हो जाने वाली होता हैं। परन्तु निचले भाग का संक्रमण आम तौर पर गम्भीर होता हैं और कभी कभी जानलेवा हो सकता है।
नाक के अन्दर गुफानुमा जगह होती है। बाहर से इसका पता नहीं चलता। यह हडि्डयों की बनी गुफा जैसी है, जो अन्दर से पतली झिल्ली से ढकी रहती है। इसमें खास तरह की कोशिकाएँ और तंत्रिकाएँ होती हैं जो सूँघने का काम करती है। एक पतली दीवार नाक की गुफा को दो भागों में बॉंटती है। नाक की इस दीवार में किसी भी एक तरफ उभार आ सकता है इससे वो तरफ छोटी हो जाती है। इस पतली तरफ से साँस लेने में मुश्किल होने लगती है। अगर यह शिकायत बार-बार होने लगे या ज़्यादा परेशानी करे तो इसे आपरेशन से ठीक किया जा सकता है। दीवार से मुलायम हडि्डयों की परत हटा देने से उभार हटता है।
नाक के अन्दर की और भी गुफाएँ होती है जिसे साइनस कहते है। नाक के दोनों ओर चार चार साइनस होते हैं। नाक से जुड़े होने के कारण ऊपरी भाग की संक्रमण से साइनस शोथ हो सकती है।
यूस्टेशियन ट्यूब जिसे यहॉं हम ई एनटी ट्यूब भी कहेंगे, नाक को कानों से जोड़ती है। इसी ट्यूब से श्वसन तंत्र के ऊपरी भाग की संक्रमण कानों तक भी पहुँच जाती हैं। कान की संक्रमण बच्चों में बहुत होती है। इसका कारण यह है कि उनमें ईएनटी ट्यूब ज़्यादा सीधी और छोटी होती है।
श्वसन तंत्र के अगला भाग ग्रसनी होता है। हवा और खाना दोनों इसमें से होकर गुज़रते हैं। हवा नीचे जाकर स्वरयंत्र से श्वसनीमें पहुँचती हैं। हम रोगी से उसका मुँह खुलवा कर व उससे ‘आ’ कहलवा कर गले की जॉंच कर सकते हैं। इससे गला बड़ा सा खुल कर तालु ऊपर हो जाता है। पहले अपने ही गले पर यह परीक्षण शीशे में देखकर कर लें।
गले के पीछे की दीवार के ऊपर की ओर दो ग्रंथियाँ कुछ छिपी सी रहती हैं। इन्हें कण्ठशालूक कहते हैं। ये तालु के स्तर के ऊपर होती हैं। इनमें सूजन से सॉस लेने में मुश्किल हो जाती है। इससे बच्चा मुँह खोल कर साँस लेने लगता है। नींद में गले से कुछ आवाज भी चलती है।
श्वसन तंत्र के ऊपरी भाग का आँखरी हिस्सा स्वर यंत्र होता है। इसे लेरींक्स भी कहते हैं। इसके अन्दर स्वर रज्जु होता है। जब कोई आवाज़ निकालने की कोशिश करते हैं तो ये स्वर रज्जु बाहर निकल रही हवा के अनुसार कम्पित होते है। आवाज़ निकलना एक स्वैच्छिक क्रिया है जो कि दिमाग की तंत्रिकाओं द्वारा नियंत्रित होता है।
स्वर यंत्र से केवल स्वर निकल सकती है। इसपर मुँह, गले, तालु, दांत और जीभ से ही बाकी सभी अक्षरों जैसे क, छ, ट, प आदि का संस्करण होता है। स्वर यंत्र का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो तब कुछ दिनों के लिए आवाज़ भारी है। यह बहुत ज़्यादा इस्तेमाल के कारण स्वर -रज्जु सूजने से होता है।
यह पुरा तंत्र एक उल्टे पेड़ की तरह होता है। निचला श्वसन तंत्र श्वास नली (श्वास प्रणाली) से शुरू होता है। यह एक मजबूत नली है जो उपस्थितों के फन्दों से बनी होती है। इसमें पेशियों की एक पतली सी परत भी होती है। नली के अन्दर की तरफ एक खास तरह की कोशिकाओं की परत होती है। ये कोशिकाएँ असल में सूक्ष्म बाल होते हैं इन्हें सीफिया कहते हैं। रोमक कुछ इस तरह लहरों में हिलते रहते हैं जैसे कि हवा से गेहूँ का खेत। ये कोशिकाएँ हमेशा ही स्वरयंत्र की तरफ हिलती हैं। इससे फेफड़ों की तरफ से सभी कण व स्त्राव गले की ओर जाते रहते हैं। यहॉ यह निगला जाता है। आमतौर पर इस पर ध्यान भी नहीं जाता। परन्तु किसी संक्रमण से ज़्यादा बलगम निकलता है और वो इस तरह गले में आता है तो इस पर ध्यान जाता है।
अगर खाना व हवा दोनों ही गले में से होकर गुज़रते हैं तो हर बार खाना खाने या पानी पीने पर हमारा गला क्यों नहीं घुटता? या खाना स्वर यंत्र में कैसे नहीं चला जाता? ऐसा इसलिए होता है कि जब हम खाना निगल रहे होते हैं तो एक समतल परदा (उपकंठ) स्वर यंत्र को ढंक लेता है। अगर आप मुँह खोलकर आ की आवाज़ निकलें तो आप ये उपकंठ क्षणमात्र देख सकते है, लेकिन कभी कभी खाते समय ढक्कन गड़बड़ी कर देता है और खाने के कण स्वरयंत्र में चले जाते हैं। इससे ज़ोरदार खॉंसी और खाने के कण बाहर निकल जाते हैं।
श्वास नली छाती के बीच के हिस्से को दो श्वसनियों में बॉंटता है – बाएँ और दाएँ। ये फिर तीन शाखाओं में बंट जाते हैं जो फेफड़ों के ऊपरी, बीच के और निचले लोब के लिए होते हैं।
ये स्त्राव वृक्ष को गीला रखते हैं। इससे इन नलियों की अन्दर की परत सूखती नहीं है और सुरक्षित रहती है। रोमक लगातार इन स्त्रावों को स्वरयंत्र की ओर ठेलते रहते हैं। जहॉं से ये स्त्राव गले में आ जाते हैं और हम इन्हें निगल लेते हैं। किसी किसम की संक्रमण या जलन होने से ये स्त्राव बढ़ जाते हैं। इस कारण से साँस की कुछ बीमारियों में कफ निकलता है।
श्वसन पेड का आखरी हिस्सा वायुकोश होता है। इन वायुकोशों व इनसे जुड़ी खून की केश नलियों में ही असल में साँस लेने की प्रक्रिया होती है। यह असलमें छोटे छोटे गुब्बारे होते हैं जो श्वसन के दौरान फैलते व सिकुड़ते हैं। वायुकोशों की दीवारें पतली और छेद वाली होती हैं। इसलिए वायुकोश व केश नलियों से आराम से गैसों का आदान प्रदान होता है। वायुकोशों में से ऑक्सीजन केश नलियों में स्थित लाल रक्त कोशिकाओं में जाता है। लाल रक्त कणों में से कार्बन डाइऑक्साइड वायुकोशों की हवा में चला जाता है।
गैसों का आदान प्रदान जब हम साँस अन्दर खींचते हैं तो ताज़ी हवा वायुकोशों में चली जाती है। जब हम साँस बाहर छोड़ते हैं तो कार्बन डाऑक्साइड युक्त हवा फेफड़ों में से बाहर निकल जाती है। कार्बन डाइऑक्साइड शरीर में खाने के पचने से बचती है। यह गैसों का सामान्य आदान प्रदान है। कभी-कभी कुछ ऐसे गैसीय पदार्थ भी इस संचरण में घुस सकते हैं जो असल में शरीर के लिए नुकसानदेह होते हैं (जैसे कि कोई ज़हरीली गैंसे या बेहोश कर देने वाली गैसें)। कुछ चीज़ों की वाष्प भी कभी-कभी फेफड़ों में निकलती है, जैसे कि शराब की वाष्प, इससे साँस में से खास तरह की गन्ध आती है।
साँस लेना एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इससे शरीर में लगातार ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन बना रहता है। साँस रूकने से कुछ ही मिनटों में मृत्यु हो सकती है। निमोनिया में फेफड़ों के एक या दो खण्ड पर असर पड़ता है इससे फेफड़ों की ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड को सम्भालने की क्षमता पर असर पड़ता है। इससे दिमाग के पास सन्देश पहुँचता है जो फिर फेफड़ों के बाकी के हिस्से को ज़्यादा काम करने को कहता है जिससे साँस फूलती है। पानी में डूबने से सभी वायुकोशों में पानी भर जाता है। इसे ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड का आदान प्रदान नहीं हो पाता और कुछ ही मिनटों में मृत्यु हो जाती है।
फेफड़ों को दो पतली परतें ढक रहती हैं (आप फेफड़ों की कल्पना दो तहों वाले गुब्बारें के रूप में कर सकते हैं)। इन परतों को बीच एक द्रव की पतली सी परत है जो इन्हें चिकना रखती है। इसके अलावा इन तहों के बीच खाली (निर्वात) जगह होती है। छाती के ऊपर नीचे होने के साथ फेफड़े भरते व खाली होते रहते हैं। अगर छाती की दीवार में छेद हो जाए तो हवा तहों के बीच की जगह में भर जाती है। इससे उस तरफ का फेफड़े का निपात (पुरी तरह से दब जाना) हो जाता है। इस खाली जगह में ज़ादा द्रव आने से भी फेफड़े पर दवाब पड़ता है उसे नुकसान पहुँचता है। ऐसा तपेदिक में हो सकता है।
छाती में हडि्डयों के पिंजरे के अन्दर फेफड़े होते हैं। पसलियों के बीच की पेशियाँ और मध्यपट की मदद से छाती ऊपर नीचे होती हैं।
वयस्क लोग एक मिनट में १५ से २० बार साँस लेते हैं। बड़ों की तुलना में बच्चे ज़्यादा बार साँस लेते हैं कसरत करने व उत्तेजना से ज़ाहिर है कि साँस की दर बढ़ती है।
स्त्रोत: भारत स्वास्थ्य
अंतिम बार संशोधित : 3/14/2023
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