जैसा कि बार–बार कहा जाता है किशोर न्याय व्यवस्था से उम्मीद रखी जाने वाली, किशोरों के संबंध में आखिरी चीज, है किशोरों का सुधार व उनका पुनर्वास। इसकी मांग है कि किशोर की देखरेख और उसके भविष्य का व्यवहार पर नियंत्रण के बीच तालमेल बिठाया जाए। सुधार व पुनर्वास के बीच एक महीन पर साफ फर्क की रेखा है। सुधार इस धारणा पर बना है कि किशोर अपनी सोच बदलने और यह मानने में सक्षम है कि उसने जो किया वह गलत था। पुनर्वास इस धारणा पर आधारित होता है की किशोर के अपराध करने की वजह उसका परिवेश है, इसलिए ध्यान इस बात पर होता है कि गलत परिवेश को सही किया जाए। पूरा ध्यान किशोर व उसकी कुछ परिस्थितियों पर होता है। इससे हरेक किशोर पर ध्यान आकर्षण होता है और इसके साथ उसके पारिवारिक व सामाजिक परिस्थतियों पर भी इसलिए अनुपात का सिद्धांत किशोर न्याय बोर्ड के फैसलों को संचालित करता है और एक सामाजिक कानूनी समझ की मांग करता है; अपराध पर जाने वाली प्रतिक्रिया सिर्फ अपराध की गंभीरता पर नहीं बल्कि उन परिस्थितियों पर भी आधारित होनी चाहिए जिनकी वजह से अपराध हुए है। परिवेश का संबंध किशोर की पारिवारिक स्थिति, सामाजिक स्तर इत्यादि से हो सकता है।
एक निगरानी अधिकारी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त या मनोनीत किया जाता है या अपवाद के मामलों में एक ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जो न्यायालय के राय में मामले की विशेष परिस्थितियों के हिसाब से निगरानी अधकारी की भूमिका निभा सकता है। मानक नियम प्राधिकरण को यह अधिकार देते हैं कि वे निगरानी अधिकारी की सह भूमिका निभा सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं और सामाजिक कार्यकर्त्ता भी निगरानी सेवाओं को निभाने के लिए उपयुक्त माने जा सकते हैं। निगरानी अपराधी अधिनियम 1958 निगरानी अधिकारीयों की जिम्मेदारियाँ को निम्नलिखित गिनाते हैं:
निगरानी अधिकारी की भूमिका, किशोर न्याय व्यवस्था के अंतर्गत दोहरी है;
निगरानी अधिकारी किशोर न्याय बोर्ड को बच्चे के बारे में जानकारी देता है उन किशोरों की निगरानी भी करता है जिन्हें समुदाय में वापस भेज दिया गया है। किशोर न्याय बोर्ड द्वारा निगरानी अधिकारी की रिपोर्ट की सहायता, जमानत की अर्जी देखते हुए और मामले की अंतिम सुनवाई करते हुए ली जाती है। इस रिपोर्ट का मुख्य ध्येय किशोर के इतिहास की जानकारी है ताकि अपराध होने के कारणों का पता लगाया जा सके। किशोर न्याय बोर्ड का फैसला इन कारणों का इस प्रकार इलाज करने वाला होना चाहिए जैसा इलाज चिकित्सा बीमारी का करता है। यह रिपोर्ट किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता द्वारा किशोर के पारिवारिक और सामाजिक पारिवारिक या ऐसे ही अन्य भौतिक परिस्थितियों की जाँच करनी है। जैसी जरूरत हो और एक सामाजिक जाँच रिपोर्ट जल्द से जल्द पेश करनी है। इसके अलावा निगरानी अधिकारी को किशोरों की छूटने के बाद परिवर्ती जाँच करती है और आवश्यकता अनुसार सहायता व सलाह देते हैं। और किशोर या बच्चे के घर या स्कूल या कार्यस्थल कार्यस्थल पर लगातार जाना है और पाक्षिक रिपोर्ट पेश करनी हैं। निगरानी अधिकारी की सलाह व सुझावों के आधार पर किशोर न्याय बोर्ड के किशोर के सर्वांगीण पुर्नवास की योजना बनानी है। इसलिए, निगरानी अधिकारी की रिपोर्ट या एस. आई. आर. एक ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिससे किसी अपराध करने वाले किशोर का भविष्य निर्धारण होता है। हालाँकि निगरानी अधिकारी के रिपोर्ट की सिर्फ सलाह देने की भूमिका होती है पर किशोर न्याय बोर्ड के लिए इस रिपोर्ट की मदद किसी किशोर के मामले में फैसला लेने और इसके आगे की कार्यवाही को तय करने के लिए लेना आवश्यक है। यदि किशोर, किशोर न्याय बोर्ड के प्रभाव क्षेत्र में नहीं आता है तो नगरानी अधकारी (1) किशोर के परिवार के इलाके का निगरानी अधिकारी या (2) उस क्षेत्र में काम कर रही गैर- सरकारी संगठन की मदद ले सकते है। निगरानी अधिकारी किशोर व उसके माता- पिता अभिभावक या सगे संबंधियों से रिपोर्ट तैयार करते वक्त संपर्क में रहता है। बीजिंग नियमों में भी सामाजिक जाँच रिपोर्ट के महत्व पर जोर दिया गया है;
16.1 छोटे अपराधों के अलावा सभी मामलों में,इससे पहले की संबंधित प्राधिकरण सजा से संबंधित अपना फैसला दे, किशोर जिन परिस्थितियों में रह रहा है या जिन परिस्थितियों में उसके द्वारा यह अपराध हुआ है, उनकी जाँच करना आवश्यक है ताकि संबंधित प्राधिकरण द्वारा मामले पर न्यायसंगत फैसला किया जा सके।
किशोरन्याय अधिनियम 2000 की धारा 15 यह बताती है कि किशोर न्याय बोर्ड इस नतीजे पर पहुँचने के बाद कि किसी किशोर ने अपराध किया है, उसे क्या फैसला सुना सकती है और उप धारा (2) कहती है;
बोर्ड को किशोर पर सामाजिक जाँच रिपोर्ट किसी निगरानी अधिकारी या किसी मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था द्वारा करनी है, और इस रिपोर्ट की खोज को उस किशोर को निर्णय सुनते हुए ध्यान में रखना है।
निगरानी अधिकारी की भूमिका किशोर कानूनों में हमेशा महत्वपूर्ण रही है। जब बी.सी.ए.1948 लागू था तो किशोर अपराधियों को कानूनी सहायता लेने का अधिकार नहीं था, तब किशोर न्यायालय और निगरानी अधिकारी ही बच्चे का भविष्य निर्धारित करते थे। बाल कल्याण अधिकारी (निगरानी) की रिपोर्ट को किशोर न्यायालय को, फैसला सुनाते हुए, ध्यान मर रखना ही पड़ता था, किशोर न्याय अधिनियम 1986 में भी निगरानी अधिकारी द्वारा तैयार रिपोर्ट फैसला सुनाते वक्त ध्यान में रखने वाली एक परिस्थिति की तरह शामिल है। किशोर न्याय अधिनियम 1986 की धारा 57 (2) निगरानी अधिकारी भूमिकाओं को निम्न बताता है:
(एफ) ऐसी अलग जिम्मेदारियों को निभाना जिनकी जरूरत हो।
इसके अतिरिक्त, निगरानी अधिकारी को यह अधिकार भी था कि वह किशोर न्याय अधिनियम के अंतर्गत स्थापित संस्थाओं का दौरा करें व जाँच रिपोर्ट राज्य सरकार को दें। यह महसूस किया गया है कि 2000 का कानून में निगरानी अधिकारीयों की भूमिका को कंकर दिया गया है और इस बदलाव के कारण निगरानी अधिकारियों से संपर्क में आई कमी का नतीजा यह भी हो सकता है कि, किशोर अपराधों में वापस चले जाएँ।
निगरानी फैसले सुनाए गए किशोर,नौजवान अपराधियों और वयस्क अपराधियों से सामाजिक गैर-संस्थागत व्यवहार है। सामाजिक व्यवहार फैसला करने वाली प्राधिकरण द्वारा बताया जाएगा। निगरानी, संस्थागतिकरण का विकल्प है और इसका सर्वाधिक प्रयोग किशोरों के फैसलों में किया गया जाता है। किशोर, किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष वादा करता है कि वह दुबारा अपराध नहीं करेगा। उसका वादा किशोर न्याय बोर्ड द्वारा स्वीकार किया जाता है और यह माना जाता है की वह तय अवधि के दौरान दो बार अपराध नहीं करने का वादा निभाएगा। किशोर न्याय अधिनियम की धारा 15 (1)न (ई) व (एफ) यह प्रावधान देते हैं कि किशोर को 3 वर्ष से अधिक न होने वाली अवधि के लिए निगरानी पर रिहा किया जाए, एक लिखित बांड पर किशोर के माता पिता या अभिभावक या उपयुक्त व्यक्ति जिसकी देख रेख में किशोर को छोड़ जा रहा है, ये वादा करवाया जाता है। आदेश में दी गई अवधि के दौरान किशोर से जबर्दस्ती अच्छा व्यवहार करवाया जाता है क्योंकि अन्यथा उसे विशेष गृह में डाल दिया जाएगा। किशोर कानून के अंतर्गत किशोर को अपने बल पर बांड भरने का कोई विशेष प्रावधान इस तर्क पर नहीं दिया गया गया है कि किशोर अभी बालिग नहीं है और इसलिए कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकता, हालाँकि विशेष रूप से प्रावधान नहीं होने पर भी कोई किशोर अगर फैसले के वक्त तक वयस्क हो गया है तो उसे निजी बांड पर छोड़ा जा सकता है, जिसका अर्थ है कि वह खुद अच्छे व्यवहार का वायदा करेगा।
सिर्फ किशोर ही अच्छे व्यवहार की निगरानी में छोड़े नहीं जा सकते बल्कि ऐसा वयस्कों के साथ भी हो सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 किसी अभियुक्त को अच्छे व्यवहार की निगरानी में फैसले के बाद सजा के बजाय छोड़े जाने के बारे में बताता है और निगरानी अपराधी धारा 1945 भी इसी मुद्दे को देखती है। ये दोनों ही उन परिस्थितियों को बताती है जिनके अंतर्गत किसी अभियुक्त को न्यायालय द्वारा में छोड़ा जा सकता है। इन कानूनों के अंतर्गत निगरानी को अभियुक्त द्वारा अधिकार के रूप में निर्भर होता है कि किसी अभियुक्त को वह अच्छे व्यवहार की निगरानी में छोड़ना चाहती है या नहीं।
किसी किशोर के अच्छे के लिए यह जरूरी है कि वह निगरानी अधिकारी के संपर्क में रहें। यह तय है कि अगर कोई किशोर जाँच के जारी रहने पर जमानत पर छूटा है तो भी निगरानी अधिकारी से उसका संपर्क बरकरार रहना चाहिए।यह निगरानी अधिकारी की जिम्मेदारी है कि वह किशोर का मार्गदर्शन करें और उसे उसके अपराध पर आत्म विवेचना करवाए और यह इच्छा शक्ति बनाए कि वह जाँच के पूरा होने के बाद छूटने पर अपना अपराध न दोहराए। निगरानी अधिकारी की असली परख तभी होती है जब उसके संपर्क में आने वाला किशोर उससे संपर्क बनाए रखें, और उसकी सलाह ले, खास तौर पर ऐसी स्थिति में जब वह मुश्किल परिस्थितियों से गुजर रहा हो।
स्रोत: चाइल्ड लाइन इंडिया फाउन्डेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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