किशोर या बच्चा वह व्यक्ति है जिसने अभी अपने जीवन के अठारह वर्ष पूरे नहीं किए हैं। जे. जे. एक्ट की धारा 2 के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु था लड़का या लड़की किशोर या बच्चा हैं। जे.जे. एक्ट 1986 के अनुसार कौमर्य की आयु लड़कों के लिए 16 वर्ष और लड़कियों के लिए 18 वर्ष से कम थी। बच्चों के मसलों पर कार्य करने वाले कार्यकर्त्ताओं ने किशोर लड़कों की उम्र बढ़ाकर लड़कियों के सामान करने के लिए अभियान चलाया था।
जे.जे. एक्ट 2000 में किशोर लड़कों की उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष मुख्यत: संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कन्वेंशन जिसे भारत सरकार ने 11 दिसंबर 1992 को अपनाया से तालमेल बैठाने के लिए की गई। जे.जे. एक्ट 2000 के वस्तु एवं कारणों पर बयान में यह इंगित किया गया है कि यह तालमेल की कमी ही जे. जे.एक्ट 1986 के संशोधन का आधार है।
“इस संदर्भ में नीचे दिए गए प्रस्ताव बनाए गए है :-
.....(iii) किशोर कानून को संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कन्वेंशन से ताल मेल में लाना
(iv) लड़के व लड़की दोनों के लिए 18 वर्ष की समान आयु को तय करना.........”
बाल अधिकार कन्वेंशन के अंतर्गत बच्चे का अर्थ हर वह व्यक्ति है जो 18 वर्ष से कम आयु का है जब तक कि बच्चे पर लागू होने वाले कानून के अनुसार वयस्क होने की उम्र कम न हो।”
इसलिए अब 18 वर्ष से कम आयु के लड़के व लड़कियां दोनों किशोर कानून की सुरक्षा प्राप्त करते है किशोर लड़कों की उम्र बढ़ाने के जो भी कारण रहे हों यह जरूरी था और इस लिए इसका स्वागत किया जाता है।
कुछ लोग खासकर संप्रेषण सुधार गृहों और विशेष गृहों के निगरानी अधिकारी और कर्मचारी यह तर्क देते है कि जे.जे. एक्ट 2000 किशोर की उम्र में बढ़ोतरी से कानूनों का उल्लंघन करने वाले किशोरों की एक बड़ी संख्या किशोर न्याय के अंतर्गत आ रही है जिससे बढ़े हुए बोझ से निपटान के लिए मौजूदा संरचनाएँ अपर्याप्त है। कुछ अधिकारीयों ने सार्वजनिक तौर पर किशोर लड़कों की उम्र 16 वर्ष करने की मांग की है। यह मांग अतार्किक और पराजयवादी है और जिसे कभी माना नहीं जा सकता है। यह समझना आवश्यक है की उम्र करके 16 वर्ष करना कोई उपाय नहीं है इसके अतिरिक्त आंकड़े इस बहस को गलत बताते है।
आंकड़ो के अनुसार किशोर अपराध के दर में 2009में एक शूरूआती बढ़त दिखती है पर जल्द ही यह स्थायी हो गया है। नीचे दिए आंकड़े राष्ट्रीय अपराध गणना ब्यूरो, भारत सरकार के वार्षिक प्रकाशक “भारत में अपराध” में से लिए गए है
वर्ष |
किशोर अपराध रेट |
ओफ्फेंसस कमिटेड बाय जुवेनिल्स टू द टोटल क्राइम रिपोर्टेड |
1999 2000 2001 2002 2003 2004 2005 |
0.9 0.9 1.6 1.8 1.7 1.8 1.7 |
0.5 0.5 0.9 1.0 1.0 1.0 1.0 |
ऊपर दी गई तालिका में यह दिखता है कि 2001 में कैशोर्य की उम्र बढ़ाकर 19 वर्ष कर दी गई किशोर अपराध की दर में वृद्धि हुई। आने वाले वर्षों में यह कमोवेश स्थायी है। राष्ट्रिय अपराध गणना ब्यूरो द्वारा प्रकाशित आंकड़ो के अनुसार कुल भारतीय दंड सहिंता के अपराधों में किशोर अपराधों का प्रतिशत दरअसल 1989 में 1.2% से कुछ कम 2005 में 1.0 हुआ है गिरफ्तार हुए किशोरों की संख्या भी कमी आई है।
“2003 की तुलना में 2004 में 16 से 18 वर्ष की आयु के हुए किशोरों की संख्या में राष्ट्रीय स्तर पर 2003 के मुकाबले 2004 में 9% की कमी आई है। राष्ट्रीय स्तर पर सारे किशोर वर्ग में 7.1% की कमी आई है।”
यह आंकड़े इस तर्क को गलत ठहराते है कि भारत में अपराधिक गतिविधियों में लिप्त किशोरों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है।
मौजूद संरचनाएँ, जे.जे. एक्ट 1986, के अंतर्गत जब किशोर लड़कों की उम्र 16 वर्ष थी तब भी अपर्याप्त थी, इसलिए यह आवश्यक है कि राज्य सरकार मौजूदा संरचनाओं को बढाएं और ज्यादा प्रभावशाली बनाए यह कार्य मुश्किल या असंभव नहीं है इसके लिए सिर्फ थोड़ा सा दिमाग लगाने और सुधरी हुई व्यवस्था बनाने की राजनीतिक इच्छा की जरूरत है। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि सारे गृहों में रिक्त पदों की पूर्ति हो गृहों के सारे कर्मचारियों व निगरानी अधिकारी को मजबूत किया जाए व जरूरी पद बनाये जाए। और किशोर न्याय बनाने के पीछे की भावना की अम्ल में लाया जाए। शैक्षणिक व कार्य संबधित प्रिशक्षण मुहैया करवाया जाए। जमानत की मंजूरी और बैठकों की संख्या बढ़ाना था। अतिरिक्त किशोर न्याय बोर्ड का गठन करना पिछले रुके हुए मामलों को निपटान के लिए जरूरी उपाय है। किशोर मामलों की जल्द सुनवाई के महत्व को समझते हुए किशोर विधान में 2006 में धारा 14 को जोड़ा गया :
“मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मुख्य महानगरीय मजिस्ट्रेट हर महीने पर बोर्ड के रुके हुए मामलों को देखेगे और बोर्ड को अपनी बैठके बढ़ाने या नये अतिरिक्त बोर्ड के गठन का आदेश देंगे।”
किशोर लड़कों की उम्र में बढ़ोतरी के सात इस बात की कल्पना कर ली गई थी कि ज्यादा गंभीर अपराध जैसे हत्या व बलात्कार करने वाले किशोरों की संस्था में एक ठोस वृद्धि होगी। आंकड़े भी इस कयास को मजबूती देते हैं। राष्ट्रीय क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के राष्ट्रीय अपराध में 2.7% मामले हत्या और 2.1%मामले बलात्कार के थे 2001 में कूल भा. द. स. के अपराधों में 2.2 : मामले हत्या और 2.1 : मामले बलात्कार के थे।
जे.जे. एक्ट 2000 की धारा 2 के अनुसार कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर वे है जिन्होंने कोई अपराध किया हो जिसे करते वक्त उसकी उम्र 18 वर्ष से कम ही हो।
परिभाषा में किए गए इस सुधार ने इस बहस पर पूर्णविराम लगा दिया है कि कौन सी वह प्रासंगिक तिथि है जिसके हिसाब से कैशोर्य का निर्धारण किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय सहित सभी न्यायालयों ने यह माना है कि अपराध करने की तारीख है। 2000 में अर्नित दास बनाम बिहार सरकार के माले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस हमेशा की नजरिए से हटते हुए यह माना है कि कैशोर्य का निर्धारण करने की प्रासंगिक तिथि वह है जब उस किशोर की संबंधित प्राधिकरण यानी किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश किया गया। अर्नित दास के मामले से यह मुद्दा उठ कर सामने आया कि किस जिस तारीख पर आवेदन कर्त्ता किए किशोर होने या न होने का पता लगाना है उसका संदर्भ तय किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों के पीठ ने तय किया है कि मौजूदा संदर्भ के अनुसार हमारे दिमाग में स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के किशोर होने का निर्धारण करने की महत्वपूर्ण तिथि वह है जब उसे संबंधित प्राधिकरण के समक्ष प्रस्तुत किया गया। इस फैसले की अपनी योग्यता के अनुरूप बड़ी आलोचना भी की गई, इसकी आलोचना हुई कि क्योंकि यह फैसले कानून के स्थापति सिद्धांतो से अलग हटा और जिसकी वजह से बच्चों को किशोर कानून के लाभकारी प्रावधानों से वंचित किया गया। बहुतों को महसूस हुआ कि यह फैसला कानून की सही आत्मा पाने में असमर्थ रहा है इसके अतिरिक्त इसने 1982 के सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों के पीठ के फैसले पर विचार नहीं किया जिसमें स्पष्ट रूप से माना गया था कि अपराध की तिथि ही प्रासंगिक तिथि है उमेश चन्द्रा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था:
अधिनियम की आम प्रयोज्यता के अनुसार हम साफ तौर पर यह मानते है कि अधिनियम के उपयोग की प्रासंगिक तिथि वह है जब अपराध किया जाता है। बाल अधिनियम में बालकों को अपराधों के परिणामों से इस बिनह पर सुरक्षित किया जा सके कि उस उम्र में उनका दिमाग इतना परिपक्व नही होता कि वे वयस्कों की तरह अपनी अपराधिक गतिविधियों का प्रभाव समझ सकें। इस अधिनियम का यह मकसद होने के कारण इस खोज को दर्ज करना होगा कि इस अधिनियम को बच्चों की उम्र निर्धारित करने के लिए प्रयोग करने की प्रासंगिक तिथि वह है जब अपराध होता है हम साफ तौर पर यह नजरिया रखते है कि हम साफ तौर पर यह नजरिया रखते है की आरोपी जो बच्चा होने का दावा करता हो के उम्र निर्धारण के लिए कानून के प्रयोग करने की प्रासंगिक तिथि घटना की तिथि है न कि पेश होने की तिथि।”
वकीलों और शिक्षाविद ने अर्नित दस के मामले में तीन न्यायाधीशों वाले पीठ के फैसले पर विचार करने की आलोचना की अमदम दोनों मतों के बीच तालमेल के लिए पुनर्विचार की याचिका दर्ज की गई और एक बड़े पीठ को प्रस्तावित किया गया। पर उस वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे को इस तथ्य पर सुलझाने से इंकार कर दिया कि अपराध के दिन अर्नित दस किशोर नहीं था। और सिर्फ शैक्षणिक सवालों का जवाब देने के लिए न्यायालय तैयार नहीं थे।
अंतत : प्रताप सिंह बनाम झारखण्ड सरकार व अन्य मामलें में पांच न्यायाधीशों के पीठ ने इस मामले पर फिर से टिप्पणी करे और जिसे अर्नित दस मामले में गलत ढंग से पलट दिया गया था। मुद्दे को सुलझाया। प्रताप सिंह के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने उसे पेश किए जाने की तारीख को,” सभी पांच न्यायाधीशों ने एकमत होकर यह कहा कि “किशोर की उम्र तय करने की तारीख घटना की तारीख होनी चाहिए न कि प्रश्विवाकरन या कोर्ट के समाने पेश करने की तारीख। उन्मेश चन्द्र के मामले में किए गए फैसले को सही माना गया और यह बात स्थापित की गई। अर्नित दस मामले में दो न्यायाधीशों द्वारा किए गए फैसले ने के अच्छा कानून स्थापित नहीं किया।” 2000 में अर्नित दास मामले में हुए फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि 1986 के अधिनियम में “दोषी किशोर” की परिभाषा में कानून में अस्पष्टता है।
“22 इस पूरी प्रक्रिया की कोई जरूरत नहीं पड़ती अगर कानून में यह ध्यान रखा जाता की किशोर की परिभाषा में कोई अस्पष्टता नहीं है और किशोर होने की उम्र जांचने की सही समय समय इंगित होता।”
सौभाग्यवश, विधान व्यवस्था ने सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी पर ध्यान दिया और किसी भी गलतफहमी की संभावना को खत्म करने के लिए 2006 में कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों की परिभाषा में संशोधन किया। इस मुकाम पर कैशोर्य निर्धारण की अवधि से सम्बन्धित किशोर कानूनों के अंतर्गत दोषी किशोर या कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर की परिभाषा के उदय की जाँच करना जरूरी है। 1986 का कानून दोषी किशोरों को ऐसे किशोरों के रूप में परिभाषित करता है जिन्हें अपराध करते हुए पाया गया है।”
इसी परिभाषा को अर्नित दस के मामले में बहुत अस्पष्ट पाया गया था। इस अनिश्चितता को खत्म करने के लिए 2000 के कानून में कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों को अपराध करने के आरोपी के रूप में पुन: परिभाषित किया गया है। इस बदलाव से यह स्पष्ट हो गया कि किशोर का आयु निर्धारण उस समय के अनुसार होगा। जिस समय अपराध हुआ माना जाता है। यह वह तिथि है जिसपर हुआ है ऐसा माना जाता है। प्रताप सिंह के मामले के बाद 2006 के संशोधन द्वारा विधान व्यवस्था ने इस परिभाषा द्वारा हर दुविधा को खत्म कर दिया कि “कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों” का अर्थ है ऐसा किशोर जो किसी अपराध का आरोपी हो और जिसने अपराध करते वक्त अठारह वर्ष पूरे ने किये हों। लगातार अपराध के मामले में कैशोर्य, अपराध होने की तिथि पर ही तय किया जाएगा और बाद में यदि किशोर 18 वर्ष की आयु पार कर लेता है तो भी उसे किशोर कानून के अंतर्गत ही लिया जाएगा इस बात की परवाह किए बिना की प्राथमिकी कब दर्ज की गई है।
इस बात पर भी दुविधा थी कि 2000 का कानून ऐसे व्यक्ति पर लागू होगा कि नहीं, जिसने 1 अप्रैल 2001, अर्थात 2000 के कानून के अमल में आने से पहले यह अपराध किया हो और अपराध के वक्त उसकी आयु 16 वर्ष से अधिक और 18 वर्ष से कम हो। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रताप सिंह मामले में इस मुद्दे को परखा और कहा कि 2000 का क़ानून अमल में आते वक्त सिर्फ उन व्यक्तित्व के लिए लागु होना जो व्यक्ति की आयु 18 वर्ष से कम हो और उसका मामला टाल दिया गया है। इस तर्क के अनुसार कोई व्यक्ति अनिवार्य जिसने अपराध 18 वर्ष से कम आयु में किया हो, इस कानून को सुरक्षा नहीं मिलेगी यदि उसने 1 अप्रैल 2001 को 18 वर्ष की आयु पार कर ली हो। इस एकतरफा पूर्व निरीक्षण से इस कानून का लक्ष्य, जो की बच्चों की अपने अपरिपक्व क्रियाओं से सुरक्षा हैं, पूरा नहीं होता। इस दुविधा को भी 2000 के संशोधन में दूर कर दिया गया, अब यह स्पष्ट रूप से उद्धृत है, सभी चल रहे मामलों में जिसमें पेशी, पुनर्विचार, अपील या कोई भी अन्य अपराधिक सुनवाई जो कि किशोर कानून से संबंधित हो, और किसी भी अदालत में चल रहा हो, कैशोर्य निर्धारण (2) के क्लॉज (9) के अनुसार होगा। ऐसी स्थिति में भी जबकि इस कानून के अमल में आने के पहले ही किशोर 18 वर्ष की आयु पार कर चुका है, इस कानून के प्रावधान अपराध के होने की सभी जरूरतों और समय पर लागू होगा। अर्थात 2000 के कानून उन सभी व्यक्तियों को सुरक्षा देता है जिन्होंने अपराध के वक्त 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है, फिर अपराध कभी भी हुआ हो, किशोर न्याय अधिनियम 2000 पूर्वनिरीक्षण करने करने वाला कानून है। यह अपने अमल में आने के पहले के मामलों को भी प्रभावित करता है। हालाँकि 2000 का कानून, जिसमें कैशोर्य की सीमा बढ़ाई गई है, 1 अप्रैल 2001 के अमल में आय पर वह 1 अप्रैल 2001 से पहले के सभी मामलों में भी लागू होगा। पूर्वनिरीक्षण करने वाले कानून वह है जो अपने अमल में आने से पहले के कानूनों पर अलग न्यायिक प्रभाव डालता है।
नई जोड़ी गई धारा 7ए के अनुसार कोई व्यक्ति अपने किशोर होने का दावा, मामले में अंतिम फैसले के बाद भी उठा सकता है, और अदालत को निस बात की जाँच करनी पड़ेगी कि अपराध करते वक्त उस व्यक्ति की आयु क्या थी, और यदि इस दी वह व्यक्ति किशोर पाया गया तो ऐसा मामला किशोर न्याय बोर्ड को सही फैसले के लिए दे दिया जाएगा।
किशोर न्याय अधिनियम की धारा 64 इस कानून के दायरे में उन व्यक्तियों को भी लाती है जो इस कानून के अमल में आने के दौरान कैद की सजा पा रहे हैं और जो अपराध के दिन 18 वर्ष से कम आयु के थे। राज्य सरकारों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि ऐसा सुचारू तंत्र स्थापित करें जिसमें अपराध करने वाले 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों की पहचान हो जिन्हें वयस्कों की तरह सजा प्राप्त हुई है, और जो विभिन्न जेलों में अपनी अपनी सजा भूगत रहे हों। ऐसे व्यक्तियों की तुरंत पहचान आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनका ठीक न किया जाने लायक नुकसान न हुआ हो और उन्हें ऐसी उम्र में, जिसमें विधान व्यवस्था उनके साथ वयस्कों से लग व्यवहार करने की इच्छा रखती हो, किए गए अपराध के लिए सजा भुगतनी पड़ रही है, और ताकि वे धारा 64 के अनुसार किसर कानून व्यवहार का फायदा उठा सकें। अपराध न्यायालयों ने ऐसे व्यक्तियों को आजीवन कारावास या मृत्यूदंड दिया हो सकता हैं, और वे सजा की अपेक्षा में मृत्यु की ओर जा सकते हैं।
हर देश के निजी कानूनों में एक न्यूनतम आयु तय की गई है जिसमें कम आयु के व्यक्ति को सजा एवं कानूनी प्रक्रिया से मुक्त किया गया है। इस छूट के पीछे तर्क यह है कि वे अपराध को करते वक्त सही व गलत का फर्क नहीं जानते। इस आयु से कम के व्यक्ति अपनी क्रिया का परिणाम न तो जानते हैं और न ही समझते है। बाल अधिकार कन्वेंशन की धारा 40 (3) (ए) के अनुसार सरकारों को “ऐसी न्यूनतम आयु का निर्धारण, जिसके नीचे के बच्चों के बारे में यह माना जा सके कि वे दंड कानूनों की अवहेलना की क्षमता नहीं रखते, करना चाहिए।”
भारतीय दंड संहिता की धारा 82 के अनुसार भारत में अपराधिक जिम्मेदारी की आयु 7 वर्ष है। भारतीय दंड सहिंता धारा 82:”7 वर्ष से कम आयु के बच्चे द्वारा किया गया कोई भी अपराध नहीं है ।”
इस लिए भारतीय कानून के अनुसार 7 वर्ष से कम आयु का कोई भी बच्चा किशोर न्याय व्यवस्था में कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर के रूप में नहीं शामिल होगा। यदि ऐसा कोई बच्चा देखभाल एवं सुरक्षा के जरूरत बच्चों की परिभाषा के दायरे में आता है तो उसकी देखभाल, सुरक्षा एवं पुर्नवास के लिए उसे बाल कल्याण समिति के समक्ष पेश किया जाएगा।
ज्यादातर यूरोपीय देशों में अपराधिक जिम्मेदारी की आयु 13 से 15 के बीच तय की है; फ़्रांस पोलैंड, जर्मनी, इटली, व फ़िनलैंड में यह आयु क्रमश: 13, 14, व 15 वर्ष है। 7 वर्ष की आयो अपराधिक जिम्मेदारी के लिए बहुत ही कम है जिसे बढ़ाया जाना चाहिए।
क़ानून ने 7-18 वर्ष के बीच की आयु के तमाम बच्चों के वयस्कों से का दोषी माना है और उम्र व परिपक्वता के अनुसार अपराधिक जिम्मेदारी के विभिन्न स्तर निश्चित किए है।
भारतीय दंड संहिता, धारा 83:
“7-12 वर्ष की किसी भी ऐसे बच्चे जिसमें किसी खास मौके पर की गई अपनी क्रिया की प्रकृति व उसका परिणाम समझने की परिपक्वता न हो, उस द्वारा किया गया कोई भी कार्य अपराध नहीं है।
किसी आरोपी बच्चे को इस बचाव का प्रयोग करने के लिए यह साबित करना होगा कि वह 12 वर्ष से कम आयु का है और उसमें पर्याप्त परिपक्वता नहीं है जिसमें वह उस खास मौके पर अपना क्रिया का परिणाम समझ सके। भारतीय कानून के अनुसार 7-12 वर्ष के बच्चे जिन्होंने कोई अपराध किया है, अपनी क्रियाओं के जिम्मेदार हैं, पर उन्हें वयस्कों जैसा व्यवहार व सजा नहीं दी जाती है। ऐसे बच्चों का साथ किशोर कानूनों के अंतर्गत निपटा जाएगा और मुख्य ध्यान उनके के सुधार व पुर्नवास पर दिया जाएगा। बाल अधिकार कन्वेंशन की।
अनूच्छेद 37 किशोर अपराधी से व्यवहार के स्वरूप की बात करता है। सरकारों को सुनिश्चित करना चाहिए कि:
(ए) किसी भी बच्चे पर अत्याचार या अन्य क्रूर, अमानवीय या निचले दर्जे का व्यवहार नहीं किया जाएगा या सजा नहीं दी जाएगी। 18 वर्ष की का आयु के व्यक्तियों द्वारा किए गए अपराधों के लिए छोड़े जाने की गूंजाइश के बिना न तो आजीवन कारावास और न ही मृत्यूदंड दिया जाएगा।
(बी) किसी भी बच्चे से उसकी आजादी गैर कानूनी या असंगत ढंग से छीनी जा नहीं जा सकती। किसी भी बच्चे की गिरफ़्तारी, सजा या कैद कानून के अनुसार होनी चाहिए तथा अंतिम उपाय के रूप में होनी चाहिए और कम से कम समय के लिए होना चाहिए।
(सी) आजादी से वंचित हर बच्चे के साथ मानवीय ढंग से व मानव के प्रति आवश्यक सम्मान के साथ इस तरह पेश आया चाहिए जिसमें उनकी उम्र की सभी जरूरतों को ध्यान में रखा जाए। खास तौर पर आजादी वंचित हर बच्चे को वयस्कों से अलग रखा जाना चाहिए जब शिवाय इसके ऐसा करना उनके सर्वोपरी हित में न हो और उन्हें, विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, अपने परिवार से पत्राचार व भेंट के जरिए संपर्क में रहने का अधिकार होना चाहिए।
(डी) आजादी से वंचित हर बच्चे को कानूनी व अन्य सहायता व अपनी आजादी से वंचित होने के कानूनी पक्ष को अदालत या अन्य संबंधित, स्वतंत्र और निष्पक्ष प्राधिकरण के सामने चुनौती देने व ऐसे मौके पर जल्द सुनवाई का अधिकार होना चाहिए।
वे सभी देश जिन्होंने बाल अधिकार कन्वेंशन को स्वीकार किया है, किशोर अपराधियों के हित की सुरक्षा के लिए अनुच्छेद 37 के अनुसार कानून बनाने के लिए बाध्य हैं।
स्रोत : चाइल्ड लाइन इंडिया फाउन्डेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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