नई अनुवांशिक तनावों को विकसित करने तथा अत्यधिक प्रभावी कृषि पद्धतियां विकसित करने के लिए बहुत सारी कृषि जलवायवी जानकारी आवश्यक है । यह न केवल वर्षा और वायुमण्डलीय जानकारी आवश्यक है । यह न केवल वर्षा और वायुमण्डलीय तापमान, आर्द्रता को बल्कि विकिरण, वाष्पन तथा मृदा आर्द्रता को भी संबंधित करती है ।
एक "कृषि जलवायु क्षेत्र ' प्रमुख जलवायु के संदर्भ में एक भूमि की इकाई है जो एक निश्चित सीमा के अंदर फसलों की किस्मों एवं जोतने वालों के लिए उपयुक्त होती है।इसका उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की स्थिति को प्रभावित किए बिना भोजन,फाइबर, चारा और लकड़ी से मिलने वाले ईंधन का उपलब्धता को बनाए रखना एवं इन क्षेत्रीय संसाधनों का वैज्ञानिक प्रबंधन करना है। एक कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र जलवायु मुख्यत: मिट्टी के प्रकार, फसल की उपज वर्षा, तापमान और पानी की उपलब्धता वनस्पति के प्रकार को प्रभावित करने वाले कारकों के संदर्भ में समझा जाता है।(एफएओ, 1983) है। कृषि जलवायवी योजना का लक्ष्य, प्राकृतिक और मानव निर्मित उपलब्ध दोनों ही संसाधनों का अधिक वैज्ञानिक रुप से उपयोग करना है ।
329 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र के साथ देश कृषि जलवायु स्थितियों की एक बड़ी जटिल संख्या को प्रस्तुत करता है।
देश में कृषि जलवायवी जानकारी प्रस्तुतिकरण के लिए अब पर्याप्त आंकड़ें उपलब्ध है।
मिट्टी, जलवायु, भौगोलिक और प्राकृतिक वनस्पति के संबंध में वैज्ञानिक आधार पर वृहद स्तरीय योजना निर्माण के लिए प्रमुख कृषि पारिस्थितिक क्षेत्रों को चित्रित करने के लिए अनेक प्रयास किये गये हैं। वे इस प्रकार हैं।
राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परियोजना (एन.ए.आर.पी.) अंतर्गत भारत के कृषि जलवायविक क्षेत्रों का चित्रण
वर्तमान में, स्थल विशिष्ठ अनुसंधान विकसित करने तथा कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए नीतियों के विकास के उद्देश्य से कृषि जलवायविक क्षेत्रों की पहचान को उचित प्रेरणा मिली है । अधिक सही कृषि गतिविधियों की योजनाओं के उद्देश्य से प्रत्येक क्षेत्र (योजना आयोग द्वारा प्रस्तावित 15 संसाधन विकास क्षेत्र) को एन.ए.आर.पी. योजना अंतर्गत मृदा, जलवायु (तापमान), वर्षा और अन्य कृषि मौसम विज्ञान अभिलक्षणों के आधार पर उप-क्षेत्रों में बांटा गया है ।
प्रत्येक राज्य के बृहत अनुसंधान समीक्षा पर आधारित एन.ए.आर.पी. अंतर्गत भारत में कुल 127 कृषि जलवायविक क्षेत्र पहचाने गए हैं। क्षेत्रीय परिसीमाएं चित्रित करते समय प्रत्येक राज्य के भू आकृतिक मण्डलों, उसकी वर्षा पद्धति, मृदा प्रकार, सिंचाई जल की उपलब्धता, वर्तमान शस्य-पद्धति तथा प्रशासनिक एककों को इस प्रकार विचारार्थ लिया गया है कि क्षेत्र में प्राचलों पर थोड़ी सी ही भिन्नता हो ।
एन.ए.आर.पी. के क्षेत्रीय परिसीमा का चित्रण अधिकतया जिलों तथा कुछ मामलों में तालुका/तहसिलों या उपमण्डलों के रुप में भी पर्याप्त विचारार्थ लिया गया है ।
देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रो ं नाम के लिए क्लिक करें।
सातवीं योजना के नियोजन लक्ष्यों की मध्यावधि समीक्षा का एक परिणाम के रूप में योजना आयोग ने प्राकृतिक भूगोल, मिट्टी, भूवैज्ञानिक संरचना, सिंचाई का विकास और कृषि के लिए खनिज संसाधनों की योजना, जलवायु पैटर्न, भविष्य की रणनीति के विकास के लिए एवं फसल के आधारपर देश को पंद्रह व्यापक कृषि जलवायु क्षेत्रों में विभाजित है। चौदह क्षेत्रों मुख्य भूमि से संबंधित थे और शेष एक बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के द्वीप में थे।
इसका मुख्य उद्देश्य तकनीकी कृषि जलवायु बातों पर आधारित नीति का विकास कर राज्य और राष्ट्रीय योजनाओं के साथ कृषि जलवायु क्षेत्रों को एकीकृत करने के लिए किया गया था। कृषि जलवायु क्षेत्रीय योजना में आगे कृषि-पारिस्थितिकी मापदंडों के आधार इन क्षेत्रों का क्षेत्रीय विभाजन संभव हो पाया।
मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग योजना राष्ट्रीय ब्यूरो द्वारा निर्धारित कृषि पारिस्थितिक क्षेत्र (NBSS और Lup) प्रभावी वर्षा,मिट्टी समूह,जिले की सीमाओं को समायोजित कर क्षेत्रों की एक न्यूनतम संख्या के साथ चित्रित कर 20 कृषि जलवायु क्षेत्रों के साथ सामने आया। बाद में सभी 20 कृषि जलवायु जोन्स 60 उपक्षेत्रों में बांटे गये।
स्त्रोत: कृषि मौसम विज्ञान विभाग,भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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