उष्ण कटिबंधिय देश जैसे भारत में शुष्क मौसम पशुधन पालन में मुख्य बाधा है। चारे की सीमित उपलब्धि और कम पोषण मूल्यों के कारण पशु का उत्पादन कम होता है। पेड़ की पत्तियाँ और झाड़ियों एक संभावित प्रोटीन के स्त्रोत हो सकते हैं। गहरी जड़ों के कारण वे शुष्क मौसम में भी उग सकते हैं। अच्छे पाचन मूल्य के कारण पशुधन इसे आसानी से स्वीकारते हुए जुगाली करने वाले पशु पूरी तरह से पेड़ की पत्तियों पर जीवित रह सकते हैं। पोषकता रोधी इनकी गुणवत्ता को कम करते हैं।
क्रम |
समान्य |
वैज्ञानिक |
1 |
सुबबूल |
ल्युसिना ल्यूकोसिफेला |
2 |
खेजरी |
प्रेसोपिस सिनेरेरिया |
3 |
सुहाजना(ड्रमस्टिक) |
मेरिंगा ओलिफेरा |
4 |
बबूल |
एकैशिया निलोटिका |
5 |
ग्लरीसीडा |
ग्लिरीसीडा सेपीयम |
6 |
शहतूत |
मोरस इंडिकासे |
7 |
बांस |
डेन्ड्रोकेलेमस स्ट्रिक्टस |
8 |
नीम |
एजाडाइरेक्टा इंडिका |
9 |
केला |
मूसा प्रजाति |
10 |
पीपल |
फाइकस रेलिजियोसा |
11 |
कटहल |
एट्रोकारपस हेटेरोफाइलस |
12 |
बेड़ |
जीजीफस जुजुबा |
13 |
इमली |
टेमेरिंडस इंडिका |
14 |
सफेदा |
युकेलिप्टस टेरेटिकॉर्निस |
15 |
सीरीन |
अल्बिजिया लेबेक |
सूबबूल बहुतायत से उपयोग किया जाने वाला लेग्युम पेड़ है इसकी वृद्धि तीव्रता से होती है। यह गर्म क्षेत्रों में तापमान सीमा 22 से 33°C और 500 से 2000 मि. मी. वार्षिक वर्षा वालेक्षेत्रों में अच्छी वृद्धि दिखाता है। इसकी मजबूत जड़ प्रणाली के कारण यह सूखा सहन कर सकता है । इसकी पत्तियों में प्रोटीन 25 प्रतिशत तथा कुल पाचकीय तत्व 55 प्रतिशत होते है। इसमें टेनिन और माइमोसिन लगभग 4 प्रतिशत होते हैं । यह विटामिन ए, और केरोटिन का भी अच्छा स्त्रोत है । इसे अरोमाथी जानवरों के सामान्यनाम वैज्ञानिक नाम आहार में 5 से10 प्रतिशत और रोमांथी जानवरों के आहार में 30 प्रतिशत तक बिना किसी विषाक्तता लक्षणों के मिलाया जा सकता है। इसकी पत्तियों को इकट्ठा करके पीसकर तत्पश्चात् मोलासेस और कैल्शियम कार्बोनेट के साथ मिलाकर फीड ब्लॉक बनाये जाते हैं। यह बिस्किट्स अधिक पचने वाले होते हैं और पशु 20 प्रतिशत ज्यादा फौंड ब्लॉक को खा सकता है। इन्हें पत्तियों से अधिक प्राथमिकता दी जाती है। यह दुधारू गाय और भैंसों में दूध के निर्माण को बढ़ाते हैं । दूध की मात्रा बढ़ती है। इसकी मात्रा ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा देखी गयी है। कुछ शहरी केंद्रों में दूध की पैदावार में 8 से 10 प्रतिशत जबकि ग्रामीण केन्द्रों में 10 से 20 प्रतिशत वृद्धि देखी गयी है।
खेजरी की पत्तियाँ प्राय: राजस्थान, गुजरात और पंजाब में मिलती है । इनमें प्रोटीन की मात्रा 16 प्रतिशत और कुल पाचक तत्त्व 50 प्रतिशत होते है। टैनिन इसमें 7 प्रतिशत होता है जो कि इसकी पचने की क्षमता को कम कर सकता है। पत्तियाँ वीनर मैमनों के द्वारा उनके शरीर के भार के 4.3 प्रतिशत तक ग्रहण की जा सकती है।
सुहानजंना एक बहुत ही उपयोगी पौधा है जो कि बहुत से कटिबंधीय और उष्ण कटिबंधीय देशों में पाया जाता है। यह एक औषधीय मूल्य वाला तथा पोषक तत्वों युक्त पौधा है। यह खनिज के साथ साथ प्रोटीन, विटामिन, बीटा केरोटिनए अमिनो एसिड और विभिन्न फिनॉलिक यौगिकों का अच्छा स्त्रोत है। इसकी पत्तियों में प्रोटीन 21.8%, एसीड डीटरजेंट रेशा 228 %, न्यूट्रल डीटरजेंट रेशा 30.8 % होता है और साथ ही साथ 412.0 ग्राम कुल रेशा, 211.2 ग्राम कार्बोहाइद्वेट तथा 44.3 भस्य होती है। निम्न गुर्गों वाल पशुधन भौजन को मोरिंगा पत्तियाँ मिलाकर उन्नत किया जा सकता है जो कि कुल खाने और पचाने की क्षमता को बढ़ाएगा। यह भी देखा गया है कि इसकी पत्तियों में उपस्थित अमीनो अम्ल विश्व स्वस्थ्य संगठन के द्वारा दिये गये मानकों के समतुल्य है। सामान्यमोरिंगा और निष्कर्षित मोरिंगा में मिथियोनिन और सिस्टिन कुल ग्राह क्षमता के क्रमशः 14.14 और 8-36 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. होते हैं । यह भी देखा गया है कि इसमें कल केरोटिनॉइड की सहानता नम भार का 40,139 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम होता है। जिसमें से 47.8 प्रतिशत, 19210 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. बीय केरोटीन के समतुल्य होता है। इसकी पत्तीयों में 379.83 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. लोहा, 18798.14 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. कैल्सियम, 1121 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. फॉस्फोरस, 22.5 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा., 20.5 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. क्रूड फाइबर शुष्क भार के आधार पर होते है।
यह एक प्रोटीन युक्त और अधिक पोषकों से युक्त उष्णकटिबंधिय क्षेत्रों में बहुतायत से पाया जाने वाला मुख्य पौधा है। यह अभाव के समय गाय भैंस, भेड़ और बकरियों का मुख्य भोज्य पदार्थ हो सकता है । इसे हरी मक्का की जगह 25 प्रतिशत तक उपयोग किया जा सकता है । इसमें सायनौजन, एच सी एन एल्केलॉइड और टेनिन भी होते हैं जो इसके प्रयोग को सीमित करते हैं।
इसमें क्रूड प्रोटीन 16% और कुल पाचकीय तत्व 53%, खनिज, केरोटिन 185 माइक्रोग्राम प्रति ग्राम और सभी अवशेषी खनिज (जिंक को छेड़कर) पाए जाते हैं । इसे छोटे रोमन्थी जानवारों में कृमियों को नष्ट करने में भी उपयोग में लिया जाता हैं। अनुसंधान में इसका उपयोग भैड़ और बकरियों तक ही सीमित है। मुख्यतः इसका प्रयोग औषधी के रूप में किया जाता है।
किसानों को शहतूत के बारे में अच्छी जानकारी होने से, पशुओं को खिलाने के लिए लम्बे समय से इसका उपयोग किया जा रहा है । रेशमकीट पालन में नर्म पत्तिर्यों का उपयोग, प्रथम और द्वितीय अवस्था में तथा परिपक्व पत्तियों का उपयोग अन्य बची हुई अवस्थाओं के लिए किया जाता है। इस कार्य के पश्चात् | बची हुई पत्तियों का प्रयोग पशुओं को खिलाने के लिए किया जा सकता है । इसे घास के साथ, कृषि क्षेत्र में सड़क के किनारे नहरों के किनारे या बहुत कम भूमि में उगाया जा सकता है। इसका क्रूड प्रोटीन 26% कुल पाचकीय तत्व 50% होता है। इसमें पचने की क्षमता पत्तियों की, तने की, छाल की और पूर्ण पौधे की क्रमशः 70-90%, 37-44%, 60% और 58-79% होती है। प्रायः ऐसा देखा गया है कि यह दुग्ध उत्पादन को बढ़ाकर उत्पादन की लागत को कम करता है। लीव ने बताया कि ऐसे देश जहाँ धान्य अवशिष्ट का उपयोग पशुधन के लिए किया जाता है। वहाँ शहतूत की पत्तियों को भूसे के साथ मिलाकर दिया जा सकता है और इसके महत्वपूर्ण परिणाम देखे गए हैं। शहतूत उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में लाभदायक है जहां पर घास का उपयोग महत्वपूर्णरूप से किया जाता हैं। ओटे रूमांथीयों के लिए शहतूत की पत्तियां, घासों की तुलना में 80-100 प्रतिशत और लेग्युम की तुलना में 40-50 प्रतिशत अधिक उपयोगी है।
इसे प्रायः फलों के निकाल लेने के बाद उपयोग किया जाता है । इसकी पत्तियों नरम होती है और इसमें प्रोटीन अच्छी मात्रा में पाया जाता है, गायें और बकरियाँ आसानी से इसे खाकर रह सकती है परंतु सिर्फ पत्तियों को एक हफ्ते तक खिलाने से दस्त की समस्या देखी गयी है। परंतु भूसे और खली के साथ खिलाने पर कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती है।
इसे सूखे के समय उपयोग किया जाता है । इसमें पचने योग्य प्रोटीन 9% और कुल पाचकीय तत्व (लगभग) 48% होता है। इसकी पत्तियों में ठंड के मौसम में अधिक परंतु गर्मी के मौसम में कम प्रोटीन मिलता है।
यह उष्णकटिबंधिय देशों में पाया जाने वाला और गाय भेड़ और बकरियों के लिए प्रथमिक रूप से केरल, महाराष्ट्र, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में उपयोग किया जाने वाला पेड़ है। इसमें प्रोटीन 4.8% और कुल पाचकीय तत्व 43.3% होता है। यह अकेला पशु की रखरखाव की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता, इसे गेहूँ की चोकर या चावल की पॉलिश के साथ मिलाकर देने से लाभ होता है।
इसकी उत्पत्ति ऑस्ट्रेलिया में हुई है, परंतु अब यह उष्णकटिबंधिय के साथ अन्य मौसमों वाले क्षेत्रों में भी उगाया जाता है । इसके औषधिय गुणों पर कई अनुसंधान हुए हैं जिसमें सफेदा ग्लोबस पर प्रमुख रूप से अनुसंधान हुए हैं । इसे कई मनुष्य और पशुओं के रोग उपचार के लिये भी उपयोग किया जाता है । इससे निकले तैल और इसकी पत्तियों का उपयोग श्वसन संबंधी बिमारियों के उपचार में किया जाता है । यूकेलिप्टस ग्रेडिस के मध्यवर्ति पत्तियाँ आदि का उपयोग कृमियों के विरूद्ध देखा गया है।
यह काँटेदार सदाबहार पौधा है जो कि विभिन्न तरह की मृदा और जलवायु में पाया जाता है। यह 10-15 से.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। इसका आकार झाड़ी से थोड़ा बड़ा होता है। इसकी पत्तियों में प्रोटीन 14 % होता हैं और इसे भेड़ और बकरियों को खिलाने में उपयोग लाया जाता है। अतः पेड़ों की पत्तियाँ पशुधन के लिए भोजन का | अपरम्परागत स्त्रोत है परंतु इसे परम्परागत के स्थान पर उपयोग किया जा सकता है। यह एक सस्ता और विपरीत परिस्थितियों में उपलब्ध होने वाले स्त्रोत है । इसमें कुछ विपरीत पोषण संबंधी कारक होते हैं जिससे इनको अधिकता से उपयोग नहीं किया जा सकता परंतु यह प्रोटीन के पचने की क्षमता को भी बढ़ाते हैं साथ ही साथ इनमें औषधिय गुण भी होते हैं । अंत में हम यह कह सकते हैं कि पेड़ की पत्तियों का उपयोग विपरित परिस्थितियों में बिना किसी विकार के पशुओं के लिए किया जा सकता है।
स्त्रोत: पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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