भारत में विकास के साथ-साथ पर्यावरण आधरित संघर्ष भी बढ़ते जा रहे हैं। ये आम आदमी के परम्परागत अधिकारों से वंचित होने की पीड़ा को दर्शाते हैं। इन्होने आम आदमी को अपने परम्परागत अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने को मजबूर किया है। ये आंदोलन जहाँ एक ओर पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं वही आम आदमी के परम्परागत अधिकारों की रक्षा की बात भी कर रहे हैं क्योंकि मूलत: दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं जो कि वस्तुत: भारतीय प्राचीन संस्कृति की विशेषता रही है। इन्होने विकास के वर्तमान मॉडल को वैचारिक चुनौती भी दी है। पर्यावरण आंदोलनों ने भारतीय लोकतंत्र तथा नागरिक समाज को एक नया आयाम दिया है।
पर्यावरण आंदोलनों के उदय का मुख्य कारण पर्यावरणीय विनाश है। भारत में पिछले 200 वर्षो से अपनायी गए विकास प्रक्रिया का ही यह परिणाम है कि आज हमारी वायु जहरीली हो गई है, नदियां, नालों में तबदील हो गई हैं, बढ़ता शोर प्रदूषण हमें मानसिक रूप से विकलांग बना रहा है, विभिन्न जीव जंतुओं की अनेक प्रजातियां लुप्त हो रही हैं, वनों का अंधाधुंध कटाव हो रहा है, जिसका परिणाम हमें मौसमी परिवर्तन , धरती के ताप में बढ़ोतरी , ओजोन परत में छेद आदि में देखने को मिल रहा है। हमारी विकास प्रक्रिया ने हजारों लोगों को जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया है। विकास प्रक्रिया के इन्ही दूप्रभावों ने आम आदमी को पिछले कुछ समय से एकजुट होने तथा विकास को पर्यावरण संरक्षण आधारित करने के लिए अनेक आंदोलन चलाने को प्रेरित किया है जिन्हें हम पर्यावरण आंदोलन कहते है। इनमे मुख्य हैं चिपको आंदोलन, नर्मदा आंदोलन, अपिको आंदोलन, आदि।
माधव गाडगील तथा रामचन्द्र गुहा, भारतीय पर्यावरण आंदोलनों में मुख्यत: तीन वैचारिक दृष्टिकोण रेखांकित करते हैं: गांधीवादी, माक्र्सवादी तथा उपयुक्त तकनीकी दृष्टिकोण। गांधीवादी दृष्टिकोण पर्यावरणीय समस्याओं के लिए मानवीय मूल्यों में हो रहे इस तथा आधुनिक उपभोक्तावादी जीवन शैली को जिम्मेदार मानते हैं। इस समस्या की समाप्ति के लिए वे प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की पु:न स्थापना करने पर जोर देते हैं। यह दृष्टिकोण पूर्व औपनीवेशीक ग्रामीण जीवन की ओर लौटने को आह्वाहन करता है जो सामाजिक तथा पर्यावरणीय सौहार्द पर आधारित था। दूसरी ओर माक्र्सवादी दृष्टिकोण में प्रर्यावरणीय संकट को राजनीतिक तथा आर्थिक पहलुओं से जोडा जाता है। इसका मानना है कि समाज में संसाधनों का असमान वितरण पर्यावरणीय समस्याओं का मूल कारण है। अत: माक्र्सवादीयों के अनुसार पर्यावरणीय सौहार्द पाने के लिए आर्थिक समानता पर आधरित समाज की स्थापना एक अनिवार्य शर्त है। तीसरी ओर उपयुक्त तकनिकी दृष्टिकोण औद्योगिक और कृषि, बडे तथा छोटे बांधों, प्राचीन तथा आधुनिक तकनीकी परम्पराओं के मध्य सांमजस्य लाने का प्रयत्न करता है। यह दृष्टिकोण व्यवहारिक स्तर पर गांधीवादी तकनिकों तथा रचनात्मक कार्यों से बहुत मेल खाता है। इन तीनों दृष्टिकोणों की एक झलक हमें चिप्को आंदोलन में देखने को मिलती है।
भारतीय पर्यावरण आंदोलनों को मुदों के आधार पर तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रथम समुह में जल से जुडे आंदोलन हैं जिनमे मुख्य हैं--नर्मदा-टिहरी बचाओ आंदोलन, चिलका बचाओ आंदोलन, गंगा मुक्ति आंदोलन, पानी पंचायत आदि। इनका उद्देश्य जल को प्रदूषण मुक्त करना, पेयजल की प्राप्ति तथा जल संरक्षण की परम्परागत तकनिकों को प्रयोग में लाना है। दूसरे वर्ग में जंगल से जुडे आंदोलन हैं। इनमें मुख्य हैं--विष्णोई आंदोलन, चिपको-अपिको आंदोलन, साइलेंट घाटी आंदोलन आदि। इनका मुख्य उद्देश्य वनों को संरक्षित करना, जैव विविधता की रक्षा करना तथा वन संसाधनों में आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित करना है। तीसरे समूह में जमीन से जुड़े आंदोलन हैं जो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढाने, मिट्टी का कटाव रोकने तथा बडी परियोजनाओं के कारण विस्थापित लोगों के अधिकारों को बचाने के लिए संघर्षरत हैं। इनमें मुख्य हैं--बीज बचाओं आंदोलन, नर्मदा तथा टिहरी बचाओ आंदोलन। इस अध्याय में मुख्यत: इन सभी आंदोलनों के उद्देश्यों, कार्यक्रमों तथा इनके संघर्षों को विस्तार से रखने की कोशिश की गई है।
स्त्रोत: विकासपीडिया टीम
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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