बाल्यावस्था जीवनकालिक विकास की महत्वपूर्ण अवस्था है| इस अवस्था को दो भागों में विभाजित किया गया है- पूर्व बाल्यावस्था एवं उत्तर बाल्यावस्था आरंभिक २ से 6 वर्ष की आयु पूर्व बाल्यावस्था कहलाती है जिसमें बच्चे की आत्मनिर्भरता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है| यह अवधि पाठशाला में प्रवेश की होती है| इसलिए इसे ‘स्कूल पूर्व आयु’ भी कहा जाता है और ‘टोली पूर्व आयु’ भी कहा जाता है| इस अवधि में बालक सामाजिक व्यवहारों के आधारभूत तत्वों को सीखना आरंभ करता है| उत्तर बाल्यावस्था का आरंभ 6 वर्ष की आयु से होता है तथा वय:संधि के प्रारंभ अर्थात् 12 वर्ष तक चलता रहता है| बालक स्कूल में प्रवेश पा चूका रहता है| इस अवस्था को ‘टोली की अवस्था’ भी कहा जाता है| इसे ‘प्रारम्भिक स्कूल अवस्था’ भी कहा जाता ही| अतः जीवन के अनेक पक्षों के विकास की दृष्टि से यह आयु अत्यंत महत्व रखती है| प्रस्तुत अध्याय के अंतर्गत बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक, सांवेगिक एवं व्यक्तित्व विकास संरूपों का क्रमशः वर्णन किया गया है|
इस अध्याय के प्रथम अनुभाग में बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का वर्णन किया गया है| इसके अतर्गत पूर्व तथा उत्तर बाल्यावस्था में सामाजिक विकास का क्या संरूप होता है? इस अवधि में कौन-कौन से सामाजिक व्यवहार परिलक्षित होते हैं? तथा सामाजिक व्यवहारों के विकास में पारिवारिक कारकों की क्या भूमिका होती है एवं अन्य परिवेशीय कारकों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है? इन प्रश्नों की समीक्षा इस भाग के अंतर्गत किया गया है|
अध्याय के दुसरे अनुभाग में, बालक में होने वाले संवेगात्मक विकास का वर्णन किया गया है| इसके अंतर्गत यह जानने का प्रयास किया गया है कि पूर्व तथा उत्तर बाल्यावस्था में सांवेगिक विकास का संरूप क्या होता है? सामान्यतः कौन-कौन से संवेग अभिव्यक्त होते हैं? तथा सांवेगिक विकास के निर्धारण में किन कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण है?
अध्याय के अंतिम अनुभाग में बाल्यावस्था में व्यक्तित्व विकास का विवेचन किया गया हैं| इसके अंतर्गत विकास से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों जैसे व्यक्तित्व का संरूप क्या है? स्व तथा शीलगुणों का विकास किस प्रकार होता है? व्यक्तित्व की कौन-कौन सी विशेषतायें मुख्य रूप से बाल्यावस्था में परिलक्षित होती है? व्यक्तित्व के विकास में किन कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है? की समीक्षा की गयी है| अंत में, व्यक्तित्व विकास के स्वरुप की ब्याख्या प्रमुख सैद्धान्तिक उपागमों के आधार पर की गई है|
सामाजिक व्यवहारों का विकास यद्यपि शैशवावस्था से ही आरंभ हो जाता है परन्तु बाल्यावस्था में, सामाजिक विकास के संरूपों में गुणात्मक तथा मात्रात्मक परिवर्तन तीव्रतर गति से परिलक्षित होने लगते हैं| पूर्व बाल्यावस्था तथा उत्तर बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास के संरूपों का विवेचन आगे किया जा रहा है|
बच्चों के सामाजिक की बुनियादी परिवार से पड़ती है| सामाजिक की इस प्रक्रिया में माता-पिता, परिवार के अन्य सदस्य, रिश्तेदार प्रमुख अभिकर्ता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है| तत्पश्चात बाल्यावस्था में आस-पड़ोस, मित्रमंडली एवं विद्यालय की भूमिका भी सामाजिक विकास प्रक्रम में महत्वपूर्ण हो जाती है| जैसे-जैसे बालक परिवार के दायरे से निकलकर बाहरी लोगों से सम्पर्क बनाता है वैसे-वैसे उसकी सामाजिक दुनिया विस्तृत होती जाती है| माता-पिता पर बच्चे की निर्भरता कम होने लगती है तथा उसके स्थान पर परिवार के बाहरी व्यक्तियों से सम्बन्ध बनते जाते हैं| हिथर्स (1957) का मानना है कि घर के बाहर की आरंभिक सामाजिक अनुभव संवेगों की दृष्टि से बालक के लिए प्रायः समस्या उत्पन्न करने वाले होते है, विशेषतः तब जब वह अपने से बड़े बालकों के सम्पर्क में आता है| बाहरी लोगों से समायोजन करने में उसकी सफलता बहुत कुछ इस बात से प्रभावित होती है कि घर के अन्दर उसे किस प्रकार के अनुभव प्राप्त हुए हैं| यथा-जनतान्त्रिक ढंग से पले-बढ़े बच्चों का समायोजन घर के बाहर सामाजिक समायोजन तथा पालन-पोषण की शैली से भी निर्धारित होता है| ये बच्चे सत्तावादी, घरेलू परिवेश वाले बालकों की तुलना में अधिक समायोजनशील होते हैं| इसी प्रकार परिवार में बालक की संस्थिति ( यथा-बच्चा अपने माता-पिता की एकलौती संतान है या उसके सहोदर है, इत्यादि) भी उसके घर के बाहर के सामाजिक समायोजन को प्रभावित करती है( बोसार्ड, 1953) |
बच्चे का जन्मक्रम, माता-पिता द्वारा पालन पोषण की शैली, बच्चे के प्रति उनकी अभिवृतियाँ, परिवार वातावरण सभी कुछ बच्चे के प्रारंभिक अनुभवों को प्रभावित करते हैं|
यदि ये अनुभव धनात्मक हैं तो बाहरी लोगों से उसका समायोजन ठीक होगा| इसके विपरीत आरंभिक नकारात्मक अनुभव, बाहरी परिवेश के सारे बच्चों के समायोजन की क्षमता को घटाते हैं| प्रारंभिक बाल्यावस्था सामाजिक विकास की “ टोली पूर्व’ अवस्था यदि किसी कारणवश पूर्व बाल्यावस्था में बच्चे को अन्य बालकों के सम्पर्क में रहने का अवसर नहीं मिलता तो वह उन अनुभवों से बंचित रह जाता है जो तात्कालिक एवं भविष्य में सामाजिक समायोजन के लिए आवश्यक होते हैं| छोटे बालकों के सामाजिक विकास में सामाजिक व्यवहारों की संख्या के अतिरिक्त उनके प्रकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है| यदि उसे दूसरों के सम्पर्क से आनंद आता है, तो चाहे ये सम्पर्क कभी-कभी क्यों न हों, बावजूद इसके अग्रिम सामाजिक सम्पर्कों के प्रति उनमें धनात्मक अभिवृति विकसित करते हैं|
शिशु जहाँ वयस्कों के साथ अधिक संतुष्टि रहते हैं, वहीँ उसके लिए छोटे बच्चों का सम्पर्क सन्तोषप्रद नहीं होता, परन्तु तीन वर्ष की आयु के बालक अन्य बालकों अन्य बालकों की ओर देखने में रूचि लेते हैं और यह उनसे सम्पर्क बनाने की प्रथम कोशिश होती है| इस अवस्था में बालक समानांतर खेल खेलता है जिसको दो बालक साथ होते हुए भी स्वतंत्र रूप से स्वांत: सुखाय, खेलते हैं| इसके बाद ‘सहचारी खेल’ का चरण आता है जिसमें बालक अन्य बालकों के साथ खेलता है तथा एक जैसी क्रियाएँ करता है| अंततः ‘सहयोगी खेल’ का चरण आता है जिसमें बालक समूह का एक अंग बन जाता है| मार्शल (1961) के अनुसार 3-4 वर्ष की अवस्था में बालक में समूह के प्रति लगाव विकसित होता है जो आयु में वृद्धि के साथ-साथ बढ़ता जाता है| इस उम्र का बालक प्रायः तटस्थ दृष्टा की तरह होता है जो अन्य बालकों को मात्र खेलते हुए देखता है, अन्य बालकों से बातें करता है, लेकिन समूह के खेल में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं होता| 4 वर्ष की आयु तक बालक में ‘संगठित खेल’ का आरंभिक रूप परिलक्षित होने लगता है| वह दूसरों के प्रति सचेत हो जाता है और आत्म प्रदर्शन द्वारा दूसरों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करता है|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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