भारत में बच्चों की विकलांगता के लिए पोलियोमाइलिटस एक अन्य प्रचलित बीमारी है। हमारे देश में पोलियो वायरस (विषाणु) की व्यापकता राज्य एवं जिलों के अनुसार बहुत भिन्न-भिन्न है। उदाहरण के लिए आसाम के डिब्रूगढ़ जिले में (पांच वर्ष से कम आयु का) एक बच्चा प्रति हजार से भी कम का औसत था। जहाँ भी सघन टीकाकारण कार्यक्रम चलाया गया है वहाँ भारी मात्रा में पोलियो का प्रभाव कम हुआ है)
वायरस (संक्रमण) इसका संक्रमण या वायरस सुषुम्ना नाड़ी के एक भाग को क्षति पहुंचता है। जहाँ पर केवल गति को नियंत्रण करने वाली नाड़ियों की कोशिकाएं नष्ट हो जाती जिस क्षेत्र में पोषण की स्थिति ख़राब तथा शौचालयों की कमी होती है। वहाँ पोलियो ग्रस्त बच्चे के मल से यह वायरस स्वस्थ बच्चे के मुँह तक पहुँच जाते हैं। यह वायरस पीने के पानी यह खाद्य पदार्थ में मक्खियों द्वारा यह गंदे हाथों द्वारा पहुँच कर दूसरे बच्चों को प्रभावित कर देते हैं। जहाँ पर साफ-सफाई बढिया होती हैं, वहाँ पर इसके वायरस खांसी और छींकने के द्वारा फैलते हैं।
केवल कुछ प्रतिशत बच्चे ही प्रभावित होते हैं। ज्यादातर केवल वे जो ख़राब सर्दी-जुकाम तथा बुखार से प्रभावित होते हैं इसके बावजूद भी, यदि बच्चा पोलियो वायरस से जुकाम में है और उसे किसी प्रकार की दावा का इंजेक्शन दे दिया जाता है तो उस इंजेक्शन के कारण हुई उत्तेजना से लकवाग्रस्त हो सकता है।
जब बच्चा पहली बार पोलियो से बीमार पड़ता है तो उसके दो हफ्ते बाद संक्रामक नही होता है। वस्तुतः ज्यादातर पोलियो उन बच्चों के मल से फैलता है जो लकवाग्रस्त नहीं होते, बल्कि उन्हें पोलियो वायरस के कारण केवल जुकाम होता है।
भारी संख्या में बच्चे 7 से 24 माह की आयु के बीच पोलियोग्रस्त होते हैं इनमें से आधे से ज्यादा पोलियो के मरीज 18 माह से कम आयु के होते हैं। यह प्राय: ख़राब पोषक स्थिति एवं कम साफ-सफाई वाले क्षेत्रों में होता है। यद्यपि पोलियो के लिए गंभीर खतरा प्रायः 5 वर्ष तक की (अतिसंवेदनशील) आयु के सभी बच्चों के लिए बना रहता है।
लड़कियों से कहीं ज्यादा लड़कों को प्रभावित करता है। टीकाकारण किये गए बच्चों की अपेक्षा गैर टीकाकृत बच्चे ज्यादा शिकार होते हैं जो बच्चे टीकाकरण कराए गये क्षेत्र में रहते हैं वे गैर टीकाकारण वाले क्षेत्र के बच्चे से ज्यादा सुरक्षित होते हैं।
शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चे प्राय ज्यादा जल्दी प्रभावित होते हैं जबकि मध्यमवर्ग एवं उच्च मध्यमवर्ग के कॉलोनी में रहने वाले कम प्रभावित होते झुग्गी-झोपडी इलाकों में उचित साफ-सफाई नहीं होती तथा मल त्याग एवं पीने से सही पानी की व्यवस्था का आभाव होता है। ये लोग घने एवं छोटे-छोटे मकानों में रहते है। इस क्षेत्र में रहने वाले लोग प्रायः धन और रोजगार की तलाश में यहाँ आकर रहते हैं। इस तरह के लोगों से अनुचित एवं अधूरे टीकाकरण को बढ़ावा मिलता है। शहरों व देहाती क्षेत्रों में बच्चों के इलाज के लिए बुखार के समय इंजेक्शन प्रायः सभी स्वास्थ्य कार्यकर्ता लगा देते हैं और वे इसे सामान्य प्रक्रिया समझते हैं, लेकिन यदि बुखार पोलियो वायरस के कारण होता है तो सुई लगाने से लकवा के ‘पोलियोमाइलिटिस’ का शिकार बना देती है। हरियाणा के सोनीपत जिले के 68 गांवों में किये गए सर्वेक्षण से यह बात उभर कर आई है कि वहाँ के ज्यादातर लकवा का कारण’इंजेक्शन’ लगाना रहा है।
पानी के कारण होने वाली बिमारियां जैसे हैजा व टायफायडी के महामारी के रूप में फैलते के दौरान पोलियो के फैलने की गति भी बढ़ जाती है क्योंकि पीने के पानी के साथ मल गंदगी के होने की संभावना बढ़ जाती है। महामारी की इस अवधि के दौरान टीकाकरण कार्यक्रम सुई के द्वारा नहीं किया जाना चाहिए; क्योंकि सुई के द्वारा पोलियो के शिकार होने के ज्यादा संभावनाएं रहती हैं।
जब एक बार बच्चे को लकवा हो जाता है तो वह कभी दूर नहीं होता और न ही हालत भी ज्यादा ख़राब होगी। बीमारी की प्रांरभिक एवं प्रबल अवस्था में बच्चा अपने अंग को हिला-डुला नहीं सकता, क्योंकि दर्द व लकवाग्रस्त दिखता है। एक बार जब दर्द ख़त्म हो जाता है और क्षतिग्रस्त मांसपेशी कुछ ठीक हालत में आती है तो उसके क्रियाकलाप में सुधार आता है। यह प्रक्रिया सात मास तक चल सकती है। सात मास के बाद बची लकवा की बीमारी या दशा प्राय स्थाई होती है। हो सकता है दूसरे प्रकार की परेशानियाँ एवं विक्रतियां भी पैदा हो जाएँ, खासकर तब जब रोकथाम के लिए पूर्व सावधानियां न बरती जाएँ।
फिलहाल अभी तक अंग्रेज़ी, आयुर्वेदिक एवं होम्योपथिक आदि की कोई भी दावा नही है जिससे लकवाग्रस्त पोलियो ठीक हो सके। इसमें 30% बच्चे लकवाग्रस्त होने पर स्वतः ही अपनी शरीरिक क्षमता के कारण ठीक हो जाते हैं परन्तु लोग इसका गलत अर्थ लगाते हैं कि रोगी दवा, चुटकी या मालिश की कारण ठीक हो गया जो कि कुछ मामलों में ही ऐसा हो पाता है। एक बार जब प्रांरभिक व घातक स्थिति से यह बीमारी गुजर जाती है तो मालिश से प्रभावित अंग को स्वस्थ बनाये रखने में मदद मिल सकती है। सकारात्मक व्यायाम में भी मालिश एक नियमित कार्य हो सकता है। सार्थक व्यायाम के रूप में मालिश नियमित की जा सकती है।
जैसे ही आपको लकवा के बारे में पता चले तो तुरंत आप एक स्वास्थ्यकर्ता या डॉक्टर से सम्पर्क करें, लेकिन यदि हाथ या भुजा में विकसित होने वाला लकवा है तो बहुत संभव है उसका लकवा फैलने वाला हो।
इससे बच्चे की साँस लेने वाली मांसपेशी के लिए खतरा होता है और बच्चा जल्दी ही लेने में कठिनाई महसूस कर सकता है। यह एक आपातकालीन स्थिति होती है अतः बच्चे को तुरंत ही बड़े अस्पताल में ले जाएँ।
इसके साथ ही यदि बच्चा उनींदा सा लगता है तो भी उसे तुरंत अस्पताल ले जाना चाहिये।
आमतौर पर अच्छी सुविधाएँ देने से बच्चा प्रोत्साहित होकर खुद के लिए कुछ कर सकता है। वह स्कूल जा सकता है और अपनी शरीरिक क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए कई कौशलों को सीख सकता है।
वह व्यक्ति शादी कर सकता है क्योंकि पोलियो किसी भी प्रकार से पैतृक रोग नहीं है। इसके साथ ही यह बच्चे पैदा करने की क्षमता को कमी भी प्रभावित नहीं करता है।
स्रोत:- जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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