जमानत का अर्थ है किसी आरोपी को जाँच या पेशी चलते हुए छोड़ा जाना और साथ ही भविष्य में चलने वाली पेशियों में उसकी मौजूदगी करना। दंड प्रक्रिया संहिता अपराधों को जमानती या गैर जमानित अपराधों की श्रेणी में विभाजित करती है। कोई अपराध जमानती है या नहीं यह दंड प्रक्रिया संहिता की प्रथम सारणी या विशेष अपराध के लिए बने स्थानीय या विशेष कानूनों के अंतर्गत तय होता है। जमानती अपराधों में, जमानत पाना आरोपी का अधिकार है, और यह जमानत किसी पुलिस अधिअक्र या जिस न्यायालय के समक्ष पेश किया गया है, उसके द्वारा दिया जा सकता है। गैर जमानती अपराध में जमानत अधिकार नहीं होता और और तथ्यों व परिवेश के आधार पर हरेक मामले में न्यायालय जानत को स्वीकार या अस्वीकार करेगा। किसी अपराध की गंभीरता व आरोप पक्ष के गवाहों को धमकाने या बिगाड़ने की संभावना, कुछ ऐसी परिस्थितियाँ दी गई हैं जिनपर यदि गैर जमानती अपराध हो तो भी जमानत दिया जाता है, जैसे यदि आरोपी महिला या बीमार या उम्रदराज या कमजोर हो तो।
किशोर कानून में जमानत को लेकर बिल्कुल अलग समझ है। विभिन्न बाल कानूनों के लागू होने के बाद से किशोर कानूनों के अंतर्गत है, जबतक कि कुछ बताए गए मामलों में छोड़ा जाना बच्चे को नुकसान पहुंचा सकता हो, उदहारण के लिए बी सी ए 1948 के अंतर्गत किसी गारी जमानती अपराध को करने वाला किशोर पुलिस अधिअक्र या न्यायालय द्वारा छोड़ा जा सकता है जब तक ऐसा न हो कि उसे जमानत पर छोड़ना उसे किसी धुरंधर अपराधी के संपर्क में ला सकता है या उसे नैतिक खतरे हैं या उसे छोड़ा जाना न्याय की हार हो सकती है। किशोर को जमानत पर छोड़ना आवश्यक है चूंकि यह उसका जीवन बर्बाद करने से रोक सकता है।
1986 के कानून की धारा 18 किशोर की जमानत व हिरासत से निपटती है और उसे नीचे दिया गया है।
(1) जब कोई जमानती या और जमानती अपराध का आरोपी हो अगर किसी किशोर को गिरफ्तार करके किशोर न्यायालय के समक्ष पेश को गिरफ्तार करके किशोर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाए तो ऐसे व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 का 2) या किसी अन्य किसी कानून में दिए किसी भी प्रावधान को बिना माने, मुचलके के साथ या बिना जमानत पर छोड़ दिया जाएगा पर यदि कोई पुख्ता आधार हो कि उसके छूटने से वह किसी जाने माने अपराधी के संपर्क में आ सकता है या उसे नैतिक खतरे हो सकते हैं या उसे छोड़ना न्याय के विरूद्ध होगा तो उसे नहीं छोड़ा जाएगा।
(2) जब ऐसे किसी गिरफ़्तारी व्यक्ति को उपधारा (1) के अंतर्गत नहीं छोड़ा जाता तो पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी उसे निगरानी गृह या ऐसी किसी अन्य सुरक्षित जगह रखे जाने की व्यवस्था करेगा, जो मान्य हो (पर पुलिस थाने या जेल में नहीं) जबतक कि उसे किसर न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया जाता।
(3) जब ऐसा कोई उप धारा (1) के अंतर्गत किशोर न्यायालय द्वारा जमानत पर नहीं छोड़ा जाता तो उसे जेल भेजने के बजाय, न्यायालय उसे निगरानी गृह या किसी सुरक्षित स्थान पर तब तक के लिए भेजने का आदेश देगी जब तक उसके मामले की जाँच जारी रहेगी।
इसलिए, 1986 के कानून के अंतर्गत भी किसर नयायालय के लिए भी किशोर को कुछ खास बताई गई स्थितियों के अलावा, जमानत पर छोड़ना अनिवार्य था। यह प्रावधान यह भी स्पष्ट करता है कि किशोर को किसी भी हाल में पुलिस लॉक - अप या जेल में नहीं रखा जा सकता। 2000 के कानून में भी ऐसा ही प्रावधान है जमानत के लिए जिसमें छोटे सुधार किए गए हैं, जैसे, (1) किसी किशोर को जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकता यदि ऐसा छोड़ा जाना उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरे में डालता हो और (2) पुलिस द्वारा ऐसे किशोर को निगरानी गृह में छोड़ा जाना अनिवार्य हो न कि सुरक्षित स्थान पर।
जमानत के प्रावधान कागजों पर ही रह गए: सच्चाई इससे काफी अलग थी, किशोरों की एक बड़ी संख्या को या तो जमानत मिली ही नहीं या फिर वे जमानत ले नहीं पाए क्योंकि बोर्ड काफी रूढ़िवादी थे और किशोर कानून के मूलतत्व को नन्हीं समझते थे। हालांकि जमानत अनिवार्य था पर फिर भी नहीं दिया गया ऐसे आधार, पर जैसे अपराध की गंभीरता या यह मान्यता होना कि किशोर भाग जाएगा, जो कि वयस्कों के मामलों में लागू होते हैं पर किशोरों के मामलों ने नहीं। इसके अलावा, किशोर न्यायालय या किशोर न्याय बोर्ड, जमानत का आदेश देते वक्त यह शर्त रखते थे कि किशोर मुचलके के तौर पर बड़ी रकम रखे। हालाँकि कानून कहता है। कि “मुचलके के साथ या बगैर” चूंकि ज्यादातर किशोरों के परिवार या संस्थागत सहयोग नहीं होते, वे मुचलका देने के लिए किसी व्यक्ति को नहीं ढूंढ पाते और इसलिए जमानत हासिल नहीं कर पाते, इसके अलावा, बोर्ड इस बात पर जोर देते हैं कि किशोर के माता-पिता या अभिभावक जमानत की अर्जी दें अरु जमानत पर छोड़े जाने पर किशोर की जिम्मेदारी लें, और जिनके पास दोंनो में से कोई नहीं होते इस अनिवार्य प्रावधान को हासिल नहीं कर सकते है, कुछ किशोर जिनके पास पारिवरिक सहयोग होता है वे जमानत इसलिए नहीं ले पाते क्योंकी उनेक पास वकील के सेवा लेने के लिए वित्तीय संसाधन नहीं होते, इसलिए किशोर, निगरानी गृहों में अपनी जाँच पूरी होने तक पड़े रहते हैं, इस बात के बावजूद कि कानून उन्हें जल्द से जल्द जमानत पर छोड़ना चाहता है।
इस विश्लेषण को नोट करते हुए 2000 के कानून में किए गए 2006 के संशोधनों द्वारा यह डाला गया है कि जब किशोर को जमानत पर रिहा किया जाए तो उसे “ निगरानी अधिकारी या किसी उपयुक्त संस्था या उपयुक्त व्यक्ति की देख रेख में रखा जा सकता है।”
(1) जब कोई व्यक्ति जो किसी जमानती या गैर जमानत अपराध का आरोपी हो, और किशोर हो और उसे बोर्ड के समक्ष पेश किया जाए तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 का 2) या किसी अन्य कानून के अंतर्गत दिए प्रावधानों को न मानते हुए, जमानत पर मुचलके सहित या बगैर रिहा किया जाएगा और निगरानी अधिकारी या किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति की देखरेख में रखा जाएगा पर अगर इस बात के पुख्ता आधार हो कि उसका छोड़ा जाना उसे किसी जाने माने अपराधी के संपर्क में ला सकता है या उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरा हो सकता है या उसका छोड़ा जाना न्याय के विरूद्ध हो तो उसे रही नहीं किया जाएगा।
(2) जब गिरफ्तार किया गया कोई ऐसा व्यक्ति उप धारा (1) के अंतर्गत पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा छोड़ा नहीं जाता है तो वह अधिकारी यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसे किशोर को सिर्फ किसी निगरानी गृह में रखा जाएगा जब तक कि उसे बोर्ड के समक्ष पेश नहीं किया जाता।
(3) जब ऐसा कोई व्यक्ति बोर्ड द्वारा उप धारा (1) के अंतर्गत रिहा नहीं किया जाता तो बोर्ड उसे जेल में भेजने के बजाए उसे आदेश में दिए समय के लिए किसी निगरानी गृह या किसी सुरक्षित स्थान पर रखने के आदेश देगे जब तक कि उसकी जाँच चल रही होगी।” यह उम्मीद है कि संशोधन से ज्यादा बड़ी संख्या में किशोरों को जमानत पर छोड़ा जाएगा: वे जिनके माता – पिता, अभिभावक नहीं है या जो मुचलका नहीं दे सकते वे कानून में डाली गई इस ने हिस्से का फायदा उठा सकेंगे। कोई उपयुक्त संस्था या व्यक्ति जो किशोर का अस्थाई रूप से ध्यान रखने को तैयार हों वे जाँच के दौरान बोर्ड के समक्ष जमानत की अर्जी दे सकते हैं।
किशोर न्याय को किशोर के लिए जमानत की अर्जी का इंतजार नहीं करना चाहिए, उन्हें उपयुक्त शर्तों पर खुद अपनी ओर से जमानत देना चाहिए।
बीजिंग नियमों में यह प्रावधान है कि पेशी के दौरान “हिरासत को आखिरी विकल्प की तरह रखना चाहिए” और यह यथासंभव कम से कम समय के लिए होना चाहिए और “जब भी संभव हो, पेशी के दौरान हिरासत के बजाए वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए, जैसे की कड़ी निगरानी, गंभीर देख रेख आ किसी परिवार में रखा जाना या किसी शैक्षणिक व्यवस्था या गृह में रखा जाना।” क्लोज 10.2 में बीजिंग नियम यह प्रावधान देते हैं की किसी किशोर की गिरफ्तारी होने पर किसी न्यायाधीश या किसी संस्था को देरी के बिना किशोर के छोड़े जाने के मुद्दे पर सोचना चाहिए।
भारतीय न्यायालयों ने बार बार यह फैसले दिया है कि किशोरों सिर्फ तीन आधारों पर ही जमानत देने से इंकार किया जा सकता है, और अपराध की गंभीरता या अपराध के सबूत इसमें शामिल नहीं हैं।
स्रोत : चाइल्ड लाइन इंडिया फाउन्डेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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