विश्व में भूमि क्षरण एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या है जो कि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र एवं खाद्य सुरक्षा के लिए एक खतरा है । भूमि क्षरण से मृदा का कटाव, पोषक तत्वों का दोहन, मृदा में कार्बनिक पदार्थों की कमी, मिट्टी की उत्पादन शक्ति में कमी, जैव विविधता में कमी, अनियमित भूजल स्तर, जलवायु परिवर्तन एवं आर्थिक नुकसान प्रमुख रुप से होता है। भारत में सभी प्रकार की जलवायु जैसे शितोष्ण, सम शितोष्ण, कटिबंधीय, उष्ण कटिबंधीय इत्यादि पर खेती की जाती है। विश्व की जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ भूमि क्षरण की समस्याएँ भी बढ़ती रहेंगी जिसकी वजह से उपजाऊ मूदा एवं अनाज के लिए विभिन्न देशों के बीच खाद्य सुरक्षा के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। इन समस्याओं से निपटने के लिये विश्व में भूमि क्षरण को रोकने तथा प्राकृतिक संसाधनों का इष्टत्म उपयोग एवं तरीकों पर पिछले कई वर्षों से विकल्पों की तलाश जारी है। भूमि संसाधन का उपयोग एवं प्रबन्धन की विधियों पर मृदा की उत्पादन क्षमता निर्भर करती है। मृदा में कार्बनिक पदार्थों का प्रबन्धन अति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह मृदा संरचना के स्थिरिकरण के लिए आवश्यक है। सघन कृषि के अन्तर्गत खेतों की लम्बे समय तक जुताई करने से अधोसतह में एक मजबूत परत (क्रस्ट) बन जाती है जिससे मृदा संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन की वजह से असमय वर्षा, अनियमित वर्षा जल का वितरण, मार्च महीने में तापमान का एकाएक से बढ़ना (टर्मिनल हीट), औलावृष्टि, अतिवृष्टि, कीट व बीमारियों का प्रकोप इत्यादि जैसी कई गंभीर समस्याएं पूरे विश्व के सामने बाँहें फैलाये खड़ी हैं। भारत के अधिकांश हिस्सों में भू-जलस्तर वर्ष दर वर्ष नीचे जाता जा रहा है जो कि एक चिंता का विषय बना हुआ है फिर भी भू-जल का दोहन ज्यों का त्यों बना हुआ है। कई राज्यों में भू-जलस्तर खतरे के निशान से नीचे जा चुका है फिर भी वहां ज्यादा पानी की मांग वाली फसलें जैसे धान एवं गन्ना इत्यादि की खेती निरन्तर की जा रही है जिससे हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं है। हमें अपना कल सुरक्षित रखने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के उचित प्रबन्धन के प्रति आज ही सजग होने की आवश्यकता है। आज इस प्रतिस्पर्धा के दौर में किसान अधिक से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए अपने खेतों में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग कर रहा है जिससे मिट्टी में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों का संतुलन दिन प्रतिदिन बिगड़ता जा रहा है जिसके दूरगामी परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतने होंगे। जहाँ एक तरफ मृदा की घटती उत्पादन क्षमता की समस्या है वहीं दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या की वजह से खाद्यान्न सुरक्षा भी चिंता का विषय बनी हुयी है। ऐसे समय में हमें ऐसी खेती की ओर ध्यान देना चाहिए जिससे प्राकृतिक संसाधनों का इष्टत्म उपयोग हो एवं मृदा का स्वास्थय बना रहे। ऐसे में संरक्षण खेती का नाम उभर कर हमारे सामने आता है।
कृषि की वह पद्धति है जिसके अन्तर्गत संसाधन संरक्षण तकनीक की सहायता से टिकाऊ उत्पादन स्तर के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखते हुये फसल उत्पादन लिया जाता है। संरक्षण खेती मृदा की ऊपरी व निचली सतह के अन्दर प्राकृतिक जैविक क्रियाओं को बढ़ाने पर आधारित है। संरक्षण खेती के तीनों सिद्धान्तों न्यूनतम जुताईं, स्थायी रूप से मिट्टी को आच्छादित करना तथा फसल विविधिकरण को अपनाकर ही फसल उत्पादन के स्तर को टिकाऊ बनाया जा सकता है ।संरक्षण खेती प्रणाली में उपलब्ध संसाधनों का ईष्टतम् उपयोग एवं संरक्षण करते हुये, किसी स्थान की भौतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के अनुसार टिकाऊ फसल उत्पादन लेने के लिए नये-नये तरीके अपनाये जाते हैं। यह तरीके तीन सिद्धान्तों पर आधारित रहते हैं जोकि निम्न हैं:
कार्बनिक पदार्थ मृदा का महत्वपूर्ण अवयव है क्योंकि यह फसलों को पोषक तत्व प्रदान करता है तथा मृदा संरचना के स्थिरीकरण में मदद करता है एवं लाभदायक जीवाणुओं की बढ़ाता है,मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की कमी हो जाती है और मृदा की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता में कमी आ जाती है। भूपरिष्करण यंत्र जैसे हैरो, कल्टीवेटर, रोटावेटर इत्यादि मिट्टी की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में परिवर्तन लाते हैं जिससे मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलता है। अतः संरक्षण खेती में मिट्टी की न्यूनतम जुताई को अपनाकर कर ईंधन एवं मानव श्रम दोनों की बचत की जा सकती है ।
संरक्षण खेती में न्यूनतम जुताई की जाती है जिससे फसल अवशेष मृदा की सतह पर बने रहते हैं। यह आवरण मृदा को वर्षा, धूप इत्यादि के हानिकारक प्रभावों से रक्षा करता है जिससे मृदा क्षरण बहुत कम हो जाता है। मृदा में फसल अवशेषों के जमाव से सूक्ष्मजीवों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। मृदा पर फसल अवशेष आवरण की वजह से मृदा सतह पर सूक्ष्म वातावरण (माइक्रोक्लाइंग्रेट) जीवाणुओं, शैवालों, कवकों एवं कंचुओं के अनुरूप हो जाता है जिससे उनकी संख्या में काफी बढ़ोतरी होती है एवं जैव भार में वृद्धि हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप फसल अवशेषों का विघटन होता है और एक अच्छी हमूमस तैयार हो जाती है। ह्यूमस मिट्टी के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बढ़ाती है, साथ ही साथ फसल के लिए उपयुक्त वातावरण और पोषण प्रदान करती है। मृदा गुणवत्ता में सुधार से सूक्ष्मजीव विविधता में वृद्धि होती है जिससे फसलों पर कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप कम होता है। इस खेती की प्रणाली में पानी का रिसाव बढ़ जाता है जिसकी वजह से पानी का सतही अपवाह बहुत हद तक कम हो जाता है जो कि मृदा क्षरण को कम करके भूजल संसाधनों को बढ़ाने में सहायक है। संरक्षण खेती में केंचुए और पौधों की जड़ें जैविक जुताई का काम करते हैं जिससे कार्बनिक पदार्थ एवं पोषक तत्वों का पुनर्चक्ररण/रिसाइकलिंग अच्छा होता है।
खेत में फसलों को अदल बदल कर लगाने से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ एवं जीवाणुओं की संख्या में बढ़ोतरी होती है जिसके फलस्वरूप फसल को पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है। फसल विविधिकरण मिट्टी की उर्वरता बनाए रखता है तथा फसल सम्बंधित कीटों एवं रोगों के रोगजनक ध्वंसावशेष (केरी ओवर) प्रभाव को तोड़ता है। इसको अपनाने से पानी, पोषक तत्वों, कार्बनिक पदार्थों इत्यादि का मृदा प्रोफाइल में बेहतर वितरण होता है जिसका परिणाम मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर सीधा पड़ता है।
संरक्षण खेती के सिद्धांतों को पूर्ण रूप से लागू करने के लिए कई संसाधन संरक्षण तकनीकें अपनायी जाती हैं जैसे लेजर लेवलर, बैड प्लान्टर, हैप्पी सीडर/ टर्बो सीडर से शून्य जुताई, बूंद-बूंद सिंचाई, आदि जिससे फसल संसाधनों का प्रबंधन सुचारू रूप से किया जा सके। ये सभी तकनीकें संसाधानों की कुशलता बढ़ाती हैं।
स्त्रोत: केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद),करनाल,हरियाणा।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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