झारखण्ड के छोटानागपुर एवं संथालपरगना क्षेत्र में सरगुजा की खेती खरीफ में विलंब से की जाती है| स्थानीय बोलचाल की भाषा में लोग इसे गुंजा भी कहते हैं| यह इस क्षेत्र की एक प्रिय फसल है जिसकी खेती बहुधा कम उपजाऊ ऊपरी भूमि में की जाती है| आदिवासी लोग इस फसल की खेती पुरातन काल से खाने एवं लगाने के लिए करते आ रहे हैं| सभी प्रकार की तेलहनी फसलों जैसे तिल, तीसी, सरसों, राई एवं मूंगफली आदि में सरगुजा का स्थान इस क्षेत्र में सर्वोपरि है|
जिस ऊपरी भूमि में सरगुजा की खेती की जाती है, उसकी मिट्टी हल्की बनावट वाली, अम्लीय तथा अल्प नमी धारण क्षमता वाली होती है| यह फसल स्वभावत: बहुत ही कठोर होती है, जो नमी के अभाव को अच्छी तरह सह लेती है क्योंकि यह गहरी जडों वाली होती है| इस फसल की खेती विस्तृत रूप में संथालपरगना, हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, रांची,गुमला एवं पलामू जिलों में की जाती है| झारखण्ड के पठारी क्षेत्रों में फसल के अन्तरगत क्षेत्रफल एवं इसकी उत्पादकता को बढ़ाने की प्रबल संभावनाएं हैं| इसकी खेती उन सभी ऊपरी भूमि में की जा सकती है जो गोड्डा धान एवं रागी फसलों की कटनी के बाद खाली हो जाती है| इसके अतिरिक्त रबी सरगुजा की भी संभवनाएं अच्छी हैं| अत्: अधिकांश क्षेत्र, जिसमे प्राय: एक ही फसल हो पाती है तथा जाड़े में खाली ही पड़ी रहती है उसमें सरगुजा की खेती सफलपूर्वक की जा सकती है|
प्रभेद
(क) एन.५ : परिपक्वता – ९५-१०० दिन, तेल प्रतिशत -३८-४०% औसत उपज -४-५ क्विंटल प्रति हेक्टेयर , बीज –चमकीला एवं हंसिए के आकार का|
(ख) उटकमंड : परिपक्वता – १००-११० दिन, तेल प्रतिशत -३५-४०%| औसत उपज -४-५ क्विंटल प्रति हेक्टेयर , बीज – भौदा काला एवं हंसिए के आकार का|
(ग) के.इ.सी.-१: संभावना युक्त किस्म, एन. ५ की तुलना में अगात परिपक्वता अवधि वाली तथा औसत उपज ५-६ क्विंटल प्रति हेक्टेयर |
सरगुजा की बुवाई का सर्वोत्तम समय मध्य अगस्त से अंतिम अगस्त तक होता है|
५-६ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की बुवाई हल की पीछे पंक्तियों में ३० से. मी. की दूरी पर करनी चाहिए| पौधों के थोड़ा बड़े होने पर पौधे की दूरी तकरीबन १५ से. मी.रखकर अनावश्यक पौधों को निकाल देना चाहिए|
भूमि की तैयारी दो जुताई में हो जाती है| अंतिम जुताई के समय २५ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से ५% एल्ड्रिन धूल या १०% बी.एच.सी. धूल को मिट्टी में अच्छी तरह अवश्य डालना चाहिए|
बुवाई के समय २० किलोग्राम यूरिया, १ क्विंटल सिंगल सुपर फास्फेट तथा १५ किलोग्राम म्यूरियट ऑफ़ पोटाश का व्यवहार हल द्वारा खोदी गयी नालियों में करना चाहिए तथा बुवाई के एक माह बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में २० किलोग्राम यूरिया का व्यवहार करना चहिये|
खेतों को खरपतवार से मुक्त रखने हेतु आवश्यकतानुसार दो-तीन निकाई-गुडाई करना चाहिये| प्रथम गुडाई बुवाई के २८-२५ दिनों के बाद करनी चाहिए|
सरगुजा एक सख्त फसल है जिसमें किसी रोग के लगने की संभावना बहुत ही कम होती है| कभी-कभी यह पाउडरी मिल्डयू से आक्रांत होता है, जिसके नियंत्रण के लिए अलोसाल नामक दवा का छिड़काव दवा की २०० ग्राम मात्रा को १००० लीटर में घोलकर करना चाहिए|
इस फसल की प्रमुख कीट व्याधि है भुआ पिल्लू| ये पिल्लू पत्तियों को खाने लगते हैं| फलस्वरूप पौधों की बढवार रुक जाती है| आक्रमण के प्रारम्भिक चरण में इसका नियंत्रण पत्तियों पर बैठे कीटों को पैर से मसलकर या इन्हे किरासन तेल में डालकर नष्ट करके किया जा सकता है| जब आक्रमण भयंकर रूप से हो जाये तब नुवान दवा की ३०० मि. ली. मात्रा को ८०० लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए|
यह फसल दिसम्बर माह के दौरान पक जाती है| पौधों की जड़ से काटकर धूप में एक सप्ताह तक सुखाया जाता है और उसके बाद डंडों से पीटकर फसल की दौनी की जाती है| सूखे हुए बीज का भण्डारण मिट्टी के बर्तनों या कोठियों में किया जाता है|
स्रोत: बिहार पठारी विकास परियोजना, कृषि विकास कार्यक्रम, तेलहन फसलों की वर्षाश्रित खेती
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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