झारखण्ड राज्य की स्थापना 15 नवम्बर 2000 में हुई। यह 22 जिलों में 79,70 लाख हेक्टेयर भूमि में फैला हुआ है। इस राज्य में सिंचाई की सुविधा खरीफ में 12%, रबी में 8% और गरमी में 1% है। इस राज्य में सिंचाई की सुविधा केवल 20% तक ही बढ़ाई जा सकती है। इसके अधिक होने की संभावना बहुत कम है, चूँकि यहाँ सालों भर बहने वाली नदियों की कमी है और जमीन के नीचे पहाड़ है। इस क्षेत्र में वर्षा तो करीब-करीब 1400-1550 मि.मी. तक होती है। मगर इसकी अवधि केवल साढ़े तीन या चार माह का होता है। (15 जून से अक्तूबर के दूसरे सप्ताह तक) वर्षा की तीव्रता अधिक होने से भू-क्षरण की समस्या बराबर बनी रहती है। इसके विपरीत वर्षा ऋतु खत्म होने पर नवंबर और दिसंबर में सुखाड़ रहता है यानि वर्षा पर आधारित रबी फसलों को सुखाड़ का सामना करना पड़ता है।
झारखण्ड की 27% भूमि में जंगल अवस्थित है और 30-32% में खेती होती है। यह पूरा राज्य पठारी है और इसकी ऊंचाई समुद्र तट से 1400-1200 मीटर है। यहाँ के अधिकतर किसान छोटे और सीमांत है।
शुष्क भूमि अनुसंधान का कार्य इस क्षेत्र में 1971 से भारतीय कृषि अनुसन्धान, नई दिल्ली की मदद से आंरभ हुआ और अभी भी इसपर कार्य चल रहा है। शुष्क भूमि के शोध कार्य की अनुशंसाएं इस राज्य के लिए बहुत लाभदायक है और किसान इसे अपना रहे हैं। चूँकि 80-90% क्षेत्र शुष्क भूमि पर ही आधारित है, और भविष्य में भी रहेगा, इसलिए अधिक सिंचाई की संभावना नहीं है। झारखण्ड राज्य की भूमि की बनावट के आधार पर तीन प्रकार में बांटा गया है, 1. ऊपरी जमीन (टांड़) २. मध्यम जमीन (बीच वाला) और 3. नीचे वाली जमीन जिसे दौन कहते हैं। तीनों जमीनों की बनावट एक दूसरे से भिन्न है और जिनके वर्षा पर आधारित खेती के सिद्धांत इस प्रकार है:-
अधिक जल-धारण कर सकने वाली जमीनों में खरीफ के बाद रबी में आगात बोआई करके तीसी, कुसुम, चना, जौ, मसूर आदि फसल भी ली जा सकती है। उसी प्रकार अधिक उपज देने वाली तथा कम दिनों में तैयार होनी किस्मों का चुनाव करना चाहिए। जल्दी पकने वाले प्रभेदों को लगाने से मिट्टी में नमी रहते हुए रबी फसल लगाना अधिक लाभप्रद होगा।
ऊपरी जमीन : टांड जमीन को हम दो प्रकार में बाँट सकते है (1) मिट्टी का गहराई 20-25 सेंमी, तथा (२) मिट्टी की गहराई एक मीटर या अधिक। जहाँ मिट्टी की गहराई कम है, तो वहाँ-
क) जंगल के पौधे, सागवान, शीशम, सखुआ तथा गमहार को लगाना चाहिए जो कमान बनाने तथा दूसरे कामों में आता है।
ख) इस जमीन का प्रयोग फलदार वृक्ष लगाने के काम भी आ सकती है। जैसे आम, शरीफा, आंवला, लीची, पपीता तथा अमरुद इत्यादि।
ग) इस प्रकार के जमीनों में उन्नत किस्म के घास इत्यादि लगाना उचित होगा। इससे भू-क्षरण की समस्या कम होगी तथा जानवरों को चारा भी मिलेगा।
ऊपरी जमीन जहाँ गहराई 80 सेंमी. से अधिक हो।
इस प्रकार की जमीन में 90-95 दिनों की फसलों को लगाना चाहिए, जैसे-मकई, ज्वार, दलहनी, मूंगफली, धान मडुआ इत्यादि को पूर्ण सस्य विधि से लगायें। ऐसी जमीन में जैविक खाद, नेत्रजन, स्फुर तथा सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी है।
अंतराल खेती: ऊपरी जमीन अन्तराल खेती की अनुशंसा की गई है। जिससे किसानों को फसल की अच्छी उपज मिलती है और आमदनी अधिक होती है। कभी-कभी सुखाड़ की हालत में एक फसल नष्ट हो जाती है तो दूसरी फसल हो जाती है। ऊपरी जमीन मुख्य अन्तराल खेती की अनुशंसा की गई तथा किसानों द्वारा अपनाया जा रहा है, वह इस प्रकार है:
अरहर+मकई (1:1 पंक्ति) अरहर+धान (1:2 पंक्ति)
अरहर+मूंगफली (1:4 पंक्ति) अरहर+उरद/मुंग (1:2 पंक्ति)
अरहर+ सोयाबीन (1:2 पंक्ति)
अरहर+मूंगफली में, मूंगफली की पंक्तियों की दूरी 90-120 सेमी तथा वाकी सभी अंतराल खेती में अरहर से अरहर के पंक्तियों की दूरी 75 सेमी. रखना चाहिए।
बीच वाली जमीन: इस जमीन की जल धारण की क्षमता अधिक रहती है और ऐसे खेतों में जुलाई से जल का जमाव शुरू हो जाता है। इसमें मध्यम अवधि का धान 120-130 दिनों में तैयार होने वाला (आई.आर. 36 एंव 64, बिरसा 202) की रोपाई या बोआई करना चाहिए। धान को अक्तूबर में तुरंत काटकर इसमें चना/मसूर/तोरी/तीसी तथा जौ की बोआई करें।
नीचे वाली जमीन इस प्रकार की जमीन में पानी का जमाव जुलाई के आखरी सप्ताह में लग जाता है। इसलिए ऐसे खेतों में लंबी अवधि की धान लगानी चाहिए और धान काटकर टमाटर या गरमा सब्जी लगनी चाहिए।
उन्नत तकनीक को अंगीकृत करने से लाभ: उन्नत तकनीक को अंगीकृत करने से किसानों के खेतों में फसलों की उपज दोगुनी बढ़ सकती है और इससे किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिलती है।
क) ऊपरी जमीन आम्लीय
ख) यहाँ की ऊपरी जमीन में भू-क्षरण के कारण उपजाऊ ऊपरी परत बह जाती है
ग) जमीन की कम जलधारण शक्ति
घ) यहाँ वर्षा का वितरण बराबर नहीं है और कभी – कभी समय पर नहीं होती
ङ) यहाँ परंपरागत खेती है। लोगों को फसल बदलाव की तकनीक नहीं मालूम है।
च) किसानों की हालत ठीक नहीं है। छोटे और सीमांत किसानों को ऋण दिलाने की सुविधा कराना चाहिए।
छ) अच्छे बीज तथा खाद्य का अभाव है और सरकार द्वारा समय पर बीज तथा खाद का प्रंबध करना चाहिए एवं
ज) किसनों के खेत में अच्छे तकनीक का प्रदर्शन करना चाहिए।
झ) लाभ- मूल्य विशलेषण: राष्ट्रीय कृषि प्रौद्योगिकी योजना और शुष्क भूमि कृषि अनुसन्धान के अंतगर्त किसान के खेतों पर 3 वर्षों के अनुसन्धान के बाद निम्नलिखित परिणाम ऊपरी जमीन के फसल प्रणाली के अनुकूल पाया गया है जो निम्न है:
फसल |
कुल लागत रु./हे. |
कुल लाभ रु./हे. |
लाभ लागत अनुपात |
धान (बिरसा गोड़ा) |
5,910 |
3,805 |
0.64 |
मक्का (कंचन) |
10,240 |
19,510 |
1.90 |
मूंगफली (ए.के.12-24 |
8,840 |
15,960 |
1.80 |
धान-अरहर (3:1) |
10,060 |
9.515 |
0.94 |
अरहर+मूंगफली (1:२) |
12,060 |
18,205 |
1.50 |
क) फसल के उपज में बढ़ोतरी तथा स्थिरता लाना
ख) खेती की सघनता बढ़ाना
ग) प्राकृतिक संसाधनों का विकास तथा उनका समुचित उपयोग और पैदावर बढ़ाना
घ) जमीन के अनुरूप पौधों, फसलों तथा किस्मों का चुनाव होना चाहिए।
ङ) वर्षा के अनुरूप फसल पद्धति तथा किस्मों का चुनाव होना चाहिए।
च) उचित प्रभेदों का चुनाव
छ) फसलों की आगात बोआई तथा पौधों की पर्याप्त संख्या तथा ऊपरी जमीन की फसल का बदलाव
ज) खेती योग्य जमीन में नमी संरक्षण के उपाय करना बहुत आवश्यक है।
झ) समय से खर-पतवार का नियंत्रण
ञ) ऊपरी जमीन में अंतराल खेती और मध्यम जमीन/नीचे वाली जमीन में दोहरी फसल पद्धति
फसलों में खासकर खरीफ की फसलों में जैविक खाद तथा उर्वरक का प्रयोग करें। जिससे उपज में काफी वृद्धि होती है। खरीफ में नमी रहती है। इसलिए पौधे उर्वरक का प्रयोग अधिक करते हैं।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: समेति, कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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