आर्किड वनस्पति जगत का अति सुंदर पुष्प है जो अदभुत रंग-रूप, आकार एवं आकृति तथा लम्बेसमय तक तरो-ताजा बने रहने की गुणवत्ता के कारण अंतर्राष्ट्रीय पुष्प बाजार में विशेष स्थान रखता है। भारत में आर्किड की लगभग 1300 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। उत्तर पूर्व हिमालय (600 जातियाँ), उत्तर-पश्चिम हिमालय (300 जातियाँ), महाराष्ट्र (1300 जातियाँ), अंडमान निकोबार द्वीप समूह (70 जातियाँ) और पश्चिम घाट (200 जातियाँ) में आर्किड पाया जाता है। विश्व बाजार में आर्किड 8% की भागीदारी करता है। आर्किड की उच्च गुणवत्ता युक्त प्रति डंडी का मूल्य जापान और संयुक्त राष्ट्र संघ के पुष्प बाजारों में 130 से 1500 रूपये तक होता है। पुष्पों के बदलते रंग, आकार, आकृति और बिना क्षति दूरस्थ स्थानों तक पहुँचने की क्षमता ही इसको अंतर्राष्ट्रीय पुष्प बाजार में दस शीर्षस्थ पुष्पों में विशेष स्थान प्रदान करती है। अब चेन्नई, कोच्ची, बंगलोर, तिरुवनन्तपुरम, मुम्बई, पुणे एवं गुवाहाटी के समीप व्यावसायिक आर्किड फ़ार्म स्थापित होने से अंतर्राष्ट्रीय पुष्प बाजार में आर्किड ने अपना विशेष स्थान सुनिश्चित किया है। विश्व पुष्प बाजार में भारत का हिस्सा कुछ वर्ष पूर्व नगण्य था। लेकिन आज इसमें तीव्र वृद्धि आंकी गई है।
आर्किड का उत्पति स्थान अमेरिका, मेक्सिको, भारत, श्रीलंका, वर्मा, दक्षिणी चीन, थाईलैंड, मलेशिया, फिलिपीन्स, न्यू गायिना, आस्ट्रेलिया इत्यादि देशों को माना जाता है। अलग-अलग देशों में अलग-अलग वंश के आर्किड पाए जाते है।
आर्किड को वंश के आधार पर बाँटा गया है, जो अलग-अलग क्षेत्र, देश में पाये जाते हैं। कुछ वंशों का विवरण निम्नलिखित है:
व्यावसायिक आर्किड में सिम्पोडियल प्रकार (बहुशाखीय बढ़ने वाले आर्किड) की विश्व बाजार में ज्यादा मांग होती है। सिम्पोडियल प्रकार के वंश में सिम्वीडियम और डेंड्रोबीयम वंश की जातियों तथा उनकी संकर किस्मों को अधिक उगाया जाता है।
(1) सिम्बीडियम स्पेसीज: शीतोष्ण प्रदेश में उगने वाला यह आर्किड भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में पाया जाता है। इसके फूल की डंडियों में घने तथा झुके हुए फूल विभिन्न रंगों में पाए जाते हैं।
सिम्बीडियम पीकलेंडी, सिम्बीडियम सनगोल्ड, सिम्बीडियम लोवीनम, सिम्वीडियम एलेक्जेंडरी वेस्टोनबीर्ट, सिम्बीडियम कैरिस्बुक, सिम्बीडियम रेड ब्यूटी, सिम्बीडियम वैल्टिक, सिम्बीडियम किंग अरतुर, सिम्बीडियम टसस्टोन महोगनी, सिम्बीडियम स्कोट्स सनराइज अरोरा, सिम्बीडियम मोरीह हिन्दू इत्यादि किस्मों को व्यापारिक स्तर पर उगाया जाता है।
(2) डेंड्रोबियम स्पेसीज: इस जाति के फूल बड़े और अद्भुत सुन्दरता के साथ लम्बे समय तक खिले रहने के कारण अपना अलग स्थान रखते हैं।
डेंड्रोबियम विगेनी, डे. एन्सवोरर्थी, डे. सायवेली ओकउड, डे. कुलथाना, डे. रोयाल वेलवेट, डे. टोभी, डे. गेल्ड़ेन ब्लोसम, डे.हनीलीन, डे. ओरियेन्टल ब्यूटी, डे. सेलर ब्वाय, सोनिया 17, सोनिया 17 म्यूटेन्ट, हिन्ग ब्यूटी, रीन्नपा, इकापोल पांडा, सकुरा पिंक, पारामोट सबीन, इमावाइट इत्यादि किस्मों को उगाया जाता है।
(1) बीज: आर्किड के बीजों को इक्ट्ठा कर उसे अंकुरित कराया जाता है। इससे तैयार पौधों में बहुत दिनों बाद फूल खिलते हैं।
(2) विभाजन: जब पौधे घने हो जाते हैं तब उनका विभाजन कर नए पौधे तैयार किए जाते हैं। जब 6-8 नए पौधे बन जाते हैं तब उन्हें अलग-अलग कर इन्डोल व्यूटारिक अम्ल के 2000 पी.पी. एम के घोल से उपचारित करने से अच्छी जड़े निकलती हैं।
(3) भूस्तरी या कीकीम: आर्किड में ईख की तरह नए-नए पौधे मातृ पौधे से अलग बनते हैं। इन भूस्तरी पौधों को मातृ पौधे से अलग कर नए पौधे तैयार कर लिए जाते है।
(4) उत्तक संवर्धन: आर्किड पौधे के अलग-अलग भागों, जैसे – पत्ती, तना, फूल, मेरी स्टेम, प्रारोह, पत्ती शीर्ष इत्यादि को उचित पात्र में और उचित पोषक माध्यम द्वारा प्रयोगशाला में विकसित कर नया पौधा तैयार किया जाता है। उत्तक संवर्धन से मातृ पौधे के समान था रोगमुक्त पौधे तैयार किए जाते हैं।
गमला, टोकरी, पेड़ की छाल, लकड़ी की टोकरी और नारियल की पूर्ण छाल आर्किड के लगाने के लिए अच्छे पात्र माने जाते है। अच्छा जल निकास आर्किड के लिए अति आवश्यक होता है। इसलिए पात्र में उचित छिद्र होना जरूरी है जिससे अतिरिक्त पानी निकल जाए।
आर्किड के नए पौधे को वसंत के अंत और गर्मी की शुरुआत के समय लगाना चाहिए, क्योंकि पौधे की वृद्धि का यह उचित समय होता है। नए लगाए गए पौधे को कम प्रकाश (अर्द्ध छाया) और अधिक आर्द्र जगहों पर रखना चाहिए जिससे कि उसका विकास अच्छी तरह से हो सके।
पोषक माध्यम आर्किड के लिए वही अच्छा होता है जो पौधे को उचित पोषकता, उचित जल, जल निकास की व्यवस्था तथा पौधे की वृद्धि में सहायक होता है। ईंट के टुकड़े, पत्थर, कोयला, नारियल की छाल, पेड़ की सड़ी छाल, केंचुआ खाद, पत्ती की खाद इत्यादि के मिश्रण को आर्किड के लिए उचित माना जाता है। गमले में इस प्रकार के मिश्रण में अच्छे पोषक तत्व उपलब्ध होते है।
1 ग्राम कैल्सियम नाइट्रेट, 0.5 ग्राम अमोनियम नाइट्रेट, 0.25 ग्राम मोनोपोटेशियम फास्फेट, 0.25 ग्राम मैग्निशियम सल्फेट, 0.02 ग्राम फास्फेट ऑफ़ आयरन को चार गैलन पानी में घोलकर पौधे को देने से पौधे का अच्छा विकास होता है तथा पुष्प स्वस्थ खिलते हैं।
आर्किड अपने ऊपर छिड़काव विधि से सिंचाई करवाना अधिक पसंद करता है। गर्मियों में सुबह-शाम सिंचाई की आवश्यकता होती है। जाड़े के दिनों में एक बार ही सिंचाई करने से पौधे की जरूरत पूर्ण हो जाती है। आर्किड वर्षा ऋतु में वातावरण से ही पानी ले लेते हैं। आर्किड को कम पानी की आवश्यकता होती है। कम पानी देने से बीमारी लगने की संभावना कम हो जाती है।
आर्किड के लिए दिन का तापमान 20-280 सें. और रात का तापमान 18-210 सें. रहने पर पौधे की वृद्धि अच्छी होती है तथा फूल भी अच्छे खिलते हैं।
आर्किड साधारणत: अधिक आर्द्रता अपनी वृद्धि और पुष्पण के लिए पसंद करता है। 75-80% आर्द्रता में पौधे का पुष्पण और वृद्धि अच्छी होती है।
आर्किड साधारणत: दिनों की लम्बाई से प्रभावित नहीं होते हैं, इसलिए ये दिन-तटस्थ (डे न्यूट्रल) होते हैं। आर्किड के पौधे परिपक्व होने पर किसी भी मौसम या समय में फूल देने लगते हैं। इसलिए आर्किड सालों भर बाजार में उपलब्ध रहता है।
(1) पर्णदाग: यह रोग फफूंद की ग्लोस्पोरियम, क्लोटोट्राइकम, सरकोस्पोरा और फाइलोस्टिकिटना जातियों के कारण होता है। पत्तियों पर भूरे दाग दिखाई पड़ते हैं। इसकी रोकथाम के लिए वेवस्टीन 2 ग्राम या डाइथॉन एम-45, 3 ग्राम/ली. पानी में घोल कर छिड़काव 7 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।
(2) पिथियम ब्लैक रॉट: यह रोग पीथियम अल्टिमस फफूंद के कारण होता है। पौधे काले हो जाते हैं तथा पत्तियाँ झड़ने लगती हैं। अंत में पौधे का निचला भाग सड़ने लगता है। इसकी रोकथाम के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइट दवा 4 ग्राम या रिडोमिल दवा 2 ग्राम/ली. पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
(3) बैक्टीरियल साप्ट रॉट: यह रोग इरवीनी कैरेटोवोरा जीवाणु द्वारा होता है। इस रोग में, पत्तियों के अग्र भाग में पानी जैसा चिपचिपा तथा पत्तियों पर हरे रंग का दाग दिखाई देता है। पौधे से सड़ने की गंध आती है। पौधे को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन दवा की 500 मि. ग्राम की मात्रा प्रति ली. पानी में घोल कर तर-बतर कर देना चाहिए।
(4) वायरस: वायरस लगने पर पौधे छोटे, रंगहीन और बिखरे हुए से हो जाते हैं। यह लाही/माहु कीट द्वारा भी फैलाया जाता है। उत्तक संवर्धित पौधे लगाने से वायरस की संभावना कम हो जाती है तथा लाही कीट की रोकथाम के लिए मैलाथियान दवा का 2 मि.ली./ली. पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
(1) माइट: यह नन्हा कीट पत्तियों का रस चूसकर पौधे को कमजोर तथा जालीदार बना देता है। इसकी रोकथाम के लिए केलाथेन या इथियान या डाइकोफोल दवा को 3.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।
(2) थ्रिप्स: यह छोटा कीट पत्तियों को खरोच कर रस चूसता है तथा फूलों को भी इसी तरह नुकसान पहुँचाता है। इसकी रोकथाम के लिए मैलाथियान या मेटासिस्टॉक्स दवा 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
(3) लाही या माहु तथा मिली बग: यह कीट पत्तियों का रस चूसकर मधु स्त्राव छोड़ता है। यह कीट वायरस को फैलाने में सहायक होता है। इसकी रोकथाम के लिए मैलाथियान दवा को 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
(4) निमेटोड: यह कीट पत्तियों तथा फूलों पर नुकसान पहुँचाता है। फूल गुच्छे में हो जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए पौधा की जड़ों के पास प्रति पौधा 0.5-1 ग्राम फुराडान या एल्डीकार्ब दवा का प्रयोग करना चाहिए।
स्त्रोत: रामकृष्ण मिशन आश्रम, दिव्यायन कृषि विज्ञान केंद्र, राँची।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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