झारखंड राज्य खाद्यान्न के मामलें में अभी भी पड़ोसी राज्यों पर निर्भर है। यहाँ कुल खाद्यान्न आवश्यकता का मात्र 50 प्रतिशत से भी कम उत्पादन होता है। जिस गति से हमारे राज्य की जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है, उस रफ्तार से हम फसल उत्पादन नहीं कर पा रहें है। अगर हम इसके प्रमुख कारणों पर ध्यान देंगें तो हमें ज्ञात होगा कि अन्य कारणों के अतिरिक्त रोग एवं कीट महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
फसलों में दो प्रकार के बीज जनित रोग पाए जाते है। ये हैं अंत: एक बाह्य जनित रोग। इसमें बीन एन्थ्रेक्नोज, बंधा गोभी का ब्लैक लेग, धान का जीवाणु पत्ती अंगमारी, कपास का जीवाणु अंगमारी, गेहूँ एवं जौ का अनावृत कंड तथा धान का आभारी कंड अंत: बीज जनित एवं अल्टरनेरिया (आलू एवं टमाटर का अगेती झुलसा, सरसों कुल का अंगमारी एवं प्याज में अंगमारी), “यूजेरियम, हेल्मिन्थोस्पोरियम, सर्कोस्पोरा आदि बाह्य बीज जनित रोग कारक है। इनसे अनाज तथा सब्जी फसलों को काफी नुकसान होता है। अगर हम फसल सुरक्षा की बात करते है तो बीज उपचार द्वारा फसलों में होने वाले नुकसान को कम करके 15 से 20 प्रतिशत तक शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है।
फसल उत्पादन में बीज की भूमि अहम है। एक स्वस्थ एवं उन्नत बीज ही अच्छे फसल का मुख्य आधार है। अतएव किसान भाईयों, अनुसंशित किस्म जिसमें रोग/कीट रोधी क्षमता हो, का चयन करें। जहां तक रोग रोधी किस्मों के चयन का प्रश्न है तो प्रत्येक फसल में इस प्रदेश हेतु रोग रोधी किस्में उपलब्ध नहीं है। अगर है भी तो कई जगहों पर समान रूप से किसान भाईयों को आसानी से उपलब्ध नहीं है। इसके लिए या तो जानकारी का आभाव, बाजार में समय पर उन किस्मों का नहीं होना था पैसा का अभाव समझा जा सकता है। अब ऐसे में किसान भाई क्या करें? क्या आपके पास कोई ऐसा उपाय/तकनीक है जिससे कि रोग/कीट रोधी किस्मों के न होने पर भी आप अपने फसल की अच्छी पैदावार ले सकें?
हाँ किसान भाई, बीज उपचार है न आप के पास। बीज उपचार का मतलब है किस प्रकार, किस मात्र में फफूंद नाशी/कीटनाशी/जीवाणु नाशी रसायनों अथवा अन्य परजीवी नाशी कारकों आदि का इस्तेमाल कर बीज विगलन, झरण अथवा बीज जनित विकारों से छुटकारा पाना।
बीजोपचार, बीज जनित रोगों की रोकथाम का सबसे सस्ता व सरल उपाय है, बीजोपचार का मुख्य उद्देश्य बीज तथा भूमि में उपस्थित रोग जनकों से बीज की रक्षा करना है।
बीजोपचार की निम्नलिखित विधियाँ है:
भौतिक विधियाँ – बीजोपचार की भौतिक विधियाँ प्राचीनकाल से ही प्रचलित है, 1670 में गेहूँ से भरे जहाज में समुद्र का खारा पानी भर गया जब इस गेहूँ को पुन: सुखाकर बीज के रूप में बोया गया तब यह पाया गया कि उनसे उगे गेहूँ के पौधे बदबूदार कंडवा रोग से ग्रस्त नहीं हुए। ऐमनेंट ने सन 1637 में नमक को बीजोपचार रूप में प्रयोग कर गेहूँ के कंडवा रोग की रोकथाम की। इसी प्रकार प्राचीनकाल से ही यह प्रचलित है कि बोने से पूर्व बीज को सूर्य की तेज धूप में सुखाया जाये और फिर बोया जायें।
सूर्यताप द्वारा बीजोपचार – बीज के आंतरिक भाग में (भ्रूण) में रोगजनक को नष्ट करने के लिए रोगजनक की सुषुप्तावस्था को तोड़ना होता है, जिसके बाद रोगजनक बिल्कुल नाजुक अवस्था में आ जाता है, जिसे सूर्य की गर्मी द्वारा नष्ट किया जा सकता है। गेहूँ, जौ एव जई का छिद्रा कंडवा रोग आंतरिक बीज जन्य रोग है। इनके नियंत्रण हेतु बीज को पहले पानी में 3-4 घंटे भिगोते है और फिर सूर्य ताप में 4 घंटे तक रखते है, जिससे बीज के आंतरिक भाग में उपस्थित रोगजनक का कवकजाल नष्ट हो जाता है।
गर्म जल द्वारा बीजोपचार – इस विधि का प्रयोग अधिकतर जीवाणु एवं विषाणुओं की रोकथाम के लिए किया जाता है। इस विधि में बीज या बीज के रूप में प्रयोग होनेवाले भागों को 53-54 डिग्री सेल्सियस तापमान किया 15 मिनट एक रखा जाता है जिससे रोगजनक नष्ट हो जाते है, जबकि बीज अंकुरण पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
जैसे यदि गाजर के बीज को गर्म जल में 50 डिग्री सेल्सियस पर 30 मिनट तक रखा जाये तो आल्टरनेरिया नष्ट हो जाता है।
गर्म वायु द्वारा – गर्म वायु के प्रयोग द्वारा भी बीजों को उपचारित किया जा सकता है, जैसे टमाटर के बीजों को 6 घंटे तक 29-37 डिग्री सेल्सियस पर सुखाया जाये तो फाइटोपथोरा इन्फेस्टेंस का असर खत्म हो जाता है। इसी प्रकार यदि टमाटर की बीजों को 46 डिग्री सेल्सियस गर्म वायु में 2 मिनट तक रखा जाये तो मोजेक रोग का प्रकोप कम होता है।
विकिरण द्वारा – इस विधि में विभिन्न तीव्रता की अल्ट्रावयलेट या एक्स किरणों को अलग-अलग समय तक बीजों पर गुजारा जाता है, जिससे रोगजनक नष्ट हो जाते हैं।
रासायनिक बीजोपचार – इस विधि में रासायनिक दवाओं का प्रयोग किया जाता है, ये दैनिक या अदैहिक फफूंदनाशक बीज के अंदर अवशेषित होकर अंत: बीज जनित रोगाणुओं को नष्ट करते है या यह एक संरक्षक कवच के रूप में बीज के चारों ओर एक घेरा बना लेते हैं, जिससे बीज पर रोगाणुओं का संकमण नही हो पाता। फफूंदनाशक को बीजोपचार के रूप में सर्वप्रथम 1760 में प्रयोग किया गया। शुल्येश ने सर्वप्रथम गेहूँ के कंडव रोग से बचाने हेतु कॉपर का प्रयोग किया। 1913 में रहिने ने आर्गेनिक परायुक्त फफूंदनाशक को बीजोपचार के रूप में प्रयोग करने की सलाह दी। सन 1914 में हैरिंगटन ने घास (भान) रोक की रोकथाम के लिए थाइरम का उपयोग किया। सन 1952 में कैप्टन को बीजरक्षक फफूंदनाशक के रूप में उपयोग किया गया। सन 1968 में बेनोमिल की सर्वागी फफूंदनाशक के रूप में खोज के पश्चात इस क्षेत्र एक नये युग की शुरुआत हुई। तत्पश्चात कार्बोकिसन, मेटालेक्सिन व दूसरे सर्वागी फफूंदनाशक जैसे – थायरम, कैप्टान, एग्रोसान, डायथेम एम -45, डायफोलेटॉन की 2.5 से 3.0 ग्राम मात्रा, जबकि दैहिक फफूंदनाशकों जैसे – कार्बोन्डोजिम, बीटावैक्स, वेनलेट, बेनोमिल की 1.5 से 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के उपचार के लिए पर्याप्त होती है।
सूखा उपचार – यह विधि सोयाबीन, ज्वार, मूंगफली, उड़द, मूंग, अरहर, सूर्यमुखी, गेहूँ, चना, अलसी, सरसों आदि के लिए उपयुक्त हैं। बीजोपचार के लिए बीज तथा फफूंदनाशक दवा की उपयुक्त मात्रा को बीजोपचार ड्रम या मिट्टी के घड़े में डालकर 10 मिनट तक घुमाते हैं।
गीला उपचार – यह विधि प्राय: ऐसी फसलों के लिए प्रयोग में लाई जाती है जिसके कंद तथा तना आदि बीज के रूप में प्रयोग किये जाते है, जैसे गन्ना, आलू, अदरक, हल्दी, लहसुन, अरबी आदि। बीजोपचार के लिए आवश्यक मात्रा में पानी व दवा का घोल बनाकर उसमें 10 मिनट तक बीज को डुबाकर रखते हैं, फिर बोनी करते है।
स्लीरी विधि – यह एक व्यापारिक विधि हैं, जिसमें बड़े स्तर पर बीजोपचार करते हैं। इस विधि में कवकनाशी की निर्धारित मात्रा का गाढ़ा पेस्ट बनाकर, बीज की मात्रा के साथ अच्छी तरह से मिलाया जाता है व अच्छी तरह सुखाने के पश्चात बीज को बेचने के लिए पैक कर संग्रहित करते हैं।
धुमिकरण – बीजजन्य रोगों के नियंत्रण हेतु यह एक अच्छी विधि है। इस विधि में सोयाबीन के बीजों को फामेल्डिहाइट के साथ 2 घंटे तक या हाइड्रोजाइक अम्ल को 53 घंटे तक धुमिकृत करने से 80 प्रतिशत तक जीवाणु मुक्त मिलते हैं।
दीमक से बीजों को बचाने हेतु कीटनाशी के रूप में क्लोरपाईरीफ़ॉस 3-7 मि.ली. प्रति किलो बीज की दर से उपचार कर बीजों को लगाना चाहिए।
जैविक बीजोपचार – यह कवकीय या जीवाणुवीय उत्पति के होते हैं, जो कि पीथियम, राईजोक्टोनिया, फाइटोपथोर स्केलेरोशियम, मैक्रोफोमिना इत्यादि से होने वाली विभिन्न बीमारियों, जैसे – जड़ गलन, आर्द्रगलन, उकठा, बीज सड़न, अंगमारी आदि को नियंत्रित करते है। जैव नियंत्रण, हानिकारक कवकों के लिए या तो स्थान, पोषक पदार्थ, जल, हवा की कमी कर देते हैं या फिर रोगजनक के शरीर से चिपककर उसकी बाहरी परत को उपयोग कर लेते हैं, जिससे रोककारक जीव नष्ट हो जाता है। ट्राइकोडर्मा प्रजाति, वैसिलय सबटिलिस, स्यूडोमोनास प्रजाति, ग्लोमस प्रजाति प्रमुख जैव नियंत्रण है, जिनकी 4-5 ग्राम मात्रा बीजोपचार के लिए पर्याप्त है।
कॉम बीज उपचार हेतु 10 ग्राम जैव नियंत्रक पाउडर प्रति लीटर पानी की दर से मिलाकर घोल बना लेते हैं। फिर बीज को उसमें डाल देते है, जिससे पूरा बीज अच्छी तरह से पाउडर द्वारा उपचारित हो जाए। पानी की इतनी मात्रा रखते है कि बीज उपचारणके बाद घोल न बचे। चिकने बीजों जैसे – मटर, अरहर, सोयाबीन आदि के उपचारण के लिए घोल में कुछ चिपकने वाला पदार्थ जैसे – गोंद, कार्वोक्सी मिथाइल, सेलुलोज आदि मिला देते हैं। जिससे जैव नियंत्रक बीज से अच्छी तरह चिपक जाये। इसके बाद उपचारित बीज को छाया में फैलाकर एक रात के लिए रख देते है और अगले दिन इनकी बुआई करते है।
पौध (बिचड़ा) उपचारण
पौध को खेतों में लगाने से पहले उसकी जड़ को जैव नियंत्रक के घोल में उपचारित करते हैं । इसके लिए पौध को पौधशाला में उखाड़कर उसकी जड़ को पानी से अच्छी तरह साफ़ कर लेते है। फिर इसको जैव नियंत्रक घोल में आधा घंटा के लिए रख देते हैं। पौध उपचारण मुख्यत: धान, टमाटर, बैगन, गोभी, मिर्च, शिमला मिर्च इत्यादी के लिए करते है।
क्र.सं. |
फसल का नाम |
प्रमुख रोग एवं कीट |
रसायन/ जैव नाशी का नाम |
रसायन/ जैव नाशी की मात्रा |
1 |
धान |
झुलसा/ बलास्ट, पत्र लाक्षण/ भूरी |
बैकिस्टीन/ कैप्टान |
½ |
जीवाणु पर्ण अंगमारी |
स्यूडोमानास फ्लोरिसेंस 0.5% |
10 |
||
अन्य कीट (दीमक) |
क्लोरिपारी फ़ॉस |
3 |
||
2 |
गेहूँ |
अनावृत कंड |
रैक्सिल/ विटावैक्स |
1.5/2.5 |
अल्टनेरिया पत्र लाक्षण, अंगमारी, हेल्मिथेस्पोरियम |
बैविस्टीन |
2 |
||
दीमक |
क्लोरपारीफ़ॉस 20 ई.सी. |
5 मि.ली. |
||
3 |
मक्का |
हेल्मिथेस्पोरियम, शीथ ब्लास्ट |
थीरम/कैप्टाम |
3 |
4 |
अरहर, चना, मसूर, मूंग, सनई |
उकठा रोग |
बैविस्टीन/थीरम |
3 |
उकठा एवं झुलसा |
ट्राईकोड्रार्मा विरडी 1% WP |
9 |
||
दीमक |
क्लोरपारीफ़ॉस 20 ई. सी. |
6 मिली. |
||
5 |
तीसी |
उकठा रोग |
थीरम |
3 |
6 |
सरसो |
श्वेत कीटट |
बैविस्टर/थीरम |
2/2 |
7 |
मूंगफली |
बीज एवं मिट्टी जनित रोग |
बैविस्टर/थीरम |
2/2 |
8 |
गन्ना |
लाल सड़न रोग |
बैविस्टर/थीरम |
2/2 |
|
ट्राईकोड्रार्मा एसपेसिज |
4-6 |
||
9 |
मटर एवं अन्य फलदार सब्जी |
उकठा रोग |
कैप्टान/थीरम |
3 |
जड़ सड़न |
बेसिलस सुटीलीस |
2.5-5 |
||
10 |
भिण्डी |
उकठा रोग |
कैप्टान/थीरम |
3 |
11 |
बैगन |
जीवाणु मुरझा रोग |
स्यूडोमोनस फ्लोरिसेंस 0.5% WP |
10 -15 |
12 |
मिर्च |
मिट्टी जनित रोग |
ट्राईकोड्रामा विरिडी 1% WP |
2 |
अन्य कीट (जसीड, एफिड, थ्रीप्स) |
इमिडाक्लोपिड 70 WP |
10.15 |
||
13 |
शिमला मिर्च |
रूट नोक्निमेटोड |
स्यूडोमोनास फ्लोरिसेंस, भरलिसीलीयम क्लेमाईडोस्पोरियम |
10 |
14 |
टमाटर एवं पत्तीदार सब्जी |
उकठा |
बैविस्टीन |
2 |
|
स्यूडोमोनास फ्लोरिसेंस, भरलिसीलीयम क्लेमाईडोस्पोरियम |
10 |
||
15 |
गाजर, प्याज, मूली, शलजम |
बीज एवं मिट्टी जनित रोग |
बैविस्टीन |
2 |
|
ट्राईकोड्राम विरिडीह 1% WP |
2 |
||
16 |
आलू |
मिट्टी एवं कंद जनित रोग |
साफ़/कम्पेनियन |
2 |
17 |
गोभी |
मृदुरोमिल असित |
बैविस्टीन |
1.5-2 |
मिट्टी एवं बीज जनित रोग |
ट्राईकोड्रमा विरिडीह 1% WP |
2 |
||
रूट नॉटनिमेटोड |
स्यूडोमोनास फ्लोरिसेंस, भरलिसीलीयम क्लेमाईडोस्पोरियम |
10 |
सावधानियाँ
निष्कर्ष
स्त्रोत: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 6/20/2023
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