गुच्छों को पूरी तरह से पकने पर तोड़ना चाहिए। फलों का पकना वांछित टी एस एस व अम्लता के अनुपात से जाना जा सकता है जो विभिन्न किस्मों में 25-35 के बीच अलग-अलग होती है (पूसा सीडलेस में 29.24)। पूसा किस्में जून के प्रथम सप्ताह में पकना आरंभ कर देती हैं। अंगूर के गुच्छों को तोड़कर प्लास्टिक की ट्रे में रखना चाहिए। गुच्छों को एक के ऊपर एक करके नहीं रखना चाहिए। गुच्छों से खेत की गर्मी को कम करने के लिए उन्हें कुछ समय तक छाया में रखना चाहिए। इसके उपरांत खराब अंगूरों को गुच्छों से हटा देना चाहिए। उत्पाद को लहरदार (कारूगेटिड) फाइबर बोर्ड बक्सों में पैक करके स्थानिय अथवा दूरवर्ती बाजार में भेजा जा सकता है।
अंगूरों को 80-90 प्रतिशत आर्द्रता एवं शून्य डिग्री तापमान पर 4 सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है। जून माह में अंगूरों का अच्छा दाम मिलता है किशमिश और शराब बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर उसे अमल में लाकर भी लाभ कमाया जा सकता है।
उपोष्ण कटिबंधीय अंगूर की खेती की सस्यक्रियाओं का कैलेण्डर
जनवरी के प्रथम से द्वितीय सप्ताह तक
परिपक्व अंगूर की कटाई-छंटाई एवं नवविकसित बेलोंक की संधाई (ट्रेनिंग)। प्रत्येक युवा एवं परिपक्व बेल में 25 कि. ग्रा. अच्छी तरह से सड़ी हुए घूरे की खाद का प्रयोग कर थियोयूरिया अथवा डॉर्मेक्स का इस्तेमाल।
जनवरी के तीसरे से चौथे सप्ताह तक
अंगूर की प्रत्येक बेल में 250 ग्रा.अमोनियम सल्फेट और 250 ग्रा. पोटेशियम सल्फेट द्वारा उर्वरीकरण। अप्रैल का प्रथम सप्ताह : सरस फल विकास और बेहतर क्वालिटी के लिए प्रति फलदार बेल के लिए 200 ग्रा. पोटेशियम सल्फेट का प्रयोग।
अप्रैल के दूसरे सप्ताह से जून के अंत तक
एक दिन के अन्तराल पर सिंचाई (परिपक्वता से एक सप्ताह पूर्व सिंचाई को रोक देना चाहिए)। फलों की तुड़ाई के तुरंत पश्चात् एंथ्रेक्नोज के प्रकोप से बचने के लिए प्रति लीटर जल में 3 ग्रा. ब्लीटॉक्स/बैविस्टिन के घोल का छिड़काव।
जुलाई-अगस्त-सितंबर
फलों की तुड़ाई के तुरंत बाद सितम्बर तक 15-20दिन के अंतराल पर प्रति लीटर जल में 3 ग्रा. ब्लीटॉक्स के घोल का छिड़काव।
नवम्बर-दिसम्बर
प्रति लीटर 3 ग्रा. ब्लीटाक्स के घोल का जल के साथ अन्तिम छिड़काव।
भा. कृ.अ. सं. के प्रधान वैज्ञानिक एवं अंगूर प्रजनक स्वर्गीय डॉ, पी.सी. जिंदल तथा छत्तीसगढ़ के प्रगतिशील किसान डॉ. बी. एन.पालीवाल के उललेखनीय प्रयासों को राज्य सरकार द्वारा मान्यता दी गई है। सरकार के अनेक गण्यमान्य पदाधिकारियों ने प्रायोगिक फार्म का दौरा किया। डॉ. जिंदल एवं डॉ. पॉलीवाल के योगदान को मान्यता प्रदान करते हुए वर्ष 2003 में राज्य कृषि विभाग एवं जिला क्लेक्ट्रेट, रायपुर द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित राज्य बागवानी प्रदर्शनी में छत्तीसगढ़ राज्य के कृषि एवं उद्योग मंत्री ने डॉ. जिंदल एवं डॉ. पॉलीवाल को रजत पटि्टका व प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया। इस सफलता से उत्साहित होकर पड़ोसी राज्य उड़ीसा के सीमावर्ती जिलों के किसानों ने भी उपोष्ण कटिबंधीय अंगूर की खेती करना प्रारंभ कर दिया है। 'द ग्रेप ग्रोअर्स कॉआपरेटिव ऑफ छत्तीसगढ़' द्वारा अब अपने उत्पादों के प्रसंस्करण हेतु किशमिश तथा शराब बनाने का संयंत्र स्थापित करने की योजना तैयार की जा रही है।
किशमिश बनाने के लिए अंगूर की ऐसी किस्म का चयन किया जाता है जिसमें कम से कम 20 फीसदी मिठास हो। किशमिश को तैयार करने की तीन विधियां हैं- पहली- प्राकृतिक प्रक्रिया, दूसरी-गंधक प्रक्रिया और तीसरी-कृत्रिम प्रक्रिया। पहली प्राकृतिक प्रक्रिया में अंगूर को गुच्छों से तोड़ने के बाद सुखाने के लिए 9क् सेंटीमीटर लंबी और 60 सेंटीमीटर चौड़ी ट्रे या
60 सेंटीमीटर लंबी और 45 सेंटीमीटर चौड़ी ट्रे, जिसके नीचे प्लाई-वुड या लकड़ी की पट्टियां लगी हुई हों, में अंगूरों को अच्छी तरह फैला दें। फिर तेज धूप में 6-7 दिन तक रखें। अंगूरों को प्रतिदिन उलटते-पलटते रहें। इसके पश्चात ट्रे को छायादार स्थान पर रख दें, जहां अच्छी तरह हवा लगे सके। छायादार स्थान में सुखाने से किशमिश मुलायम रहती है और इसका इसका रंग भी खराब नहीं होता है। तैयार किशमिश में 15 फीसदी नमी रहनी चाहिए। गंधक प्रक्रिया से किशमिश बनाने पर उसका रंग बिल्कुल नहीं बदलता है। इसका मतलब है कि इस प्रक्रिया से बनी किशमिश हरी रहती है। धूप में सुखाने से किशमिश का रंग थोड़ा भूरा हो जाता है।
इसे रोकने के लिए गंधक के धुएं का उपयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया के लिए ताजे अंगूरों को गंधक के धुएं से भर कक्ष में लकड़ी की ट्रे पर किशमिश बिछा देते हैं। कमर के भीतर गंधक के धुएं के फैलने का पर्याप्त इंतजाम होना चाहिए। अंगूरों पर तेल की परत भी चढ़ाई जा सकती है। इसके लिए नारियल या मूंगफली तेल का उपयोग किया जाता है। तेल लगाने से किशमिश चमकीली हो जाती है और इसे लंबे समय तक भंडारित किया जा सकता है। कृत्रिम प्रक्रिया से किशमिश बनाने के लिए माइक्रोवेव किरणों से अंगूरों को सुखाया जाता है। इस प्रक्रिया से अंगूर में मौजूद पानी भाप बनकर उड़ जाता है और किशशि की गुणवत्ता भी बनी रहती है। इस प्रक्रिया से 90 फीसदी समय की बचत होती है। अंगूर एक समान सूखता है, जिससे फल का रंग, खुशबू व पोषक तत्व ताजे फल जैसे बने रहते हैं। तैयार किशमिश को शीशे के मर्तबान या पॉलीथीन की थैलियों में बंद करके किसी साफ सुथर हवादार स्थान पर रखना चाहिए।
ठीक से सफाई करने के बाद अंगूर के बराबर मात्रा में पानी डालकर उसे 10 मिनट तक पका लें। यह ध्यान रहे कि पानी का तापमान 60-70 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक न हो। उबले अंगूरों को छलनी में रगड़कर रस निकाल लें। बड़े पैमाने पर शरबत तैयार करना हो, तब बाल्टी के तले में छोटे छेद करके भी उबले अंगूरों से निकाला जा सकता है। एक अलग बर्तन में चाशनी तैयार करके उसमें सिट्रिक एसिड डाल दें। प्रति लीटर चाशनी में 8-10 ग्राम सिट्रिक एसिड डालना चाहिए। इसके बाद इसे डालकर ठंडी होने। बाद में अंगूर से निकाला रस मिला लें। तैयार रस में प्रति लीटर एक ग्राम के हिसाब से पोटेशियम मेटाबाइ सल्फाइट मिलाएं। पोटेशियम मेटाबाइ सल्फाइट पूर शरबत में एकसाथ मिलने के बजाय छोटी कटोरी में पहले मिलाए और बाद में उसे पूर शरबत में मिलाएं। इस शरबत को साफ बोतल में भरकर ठंडे स्थान में रखें। अंगूरों के बजाय इससे बने उत्पादों का बाजार में कहीं बेहतर दाम मिलेगा। एक फायदा यह भी है कि उत्पादकों पर ताजे अंगूर बेचने का दबाव भी नहीं होगा। इससे उन्हें कम दाम पर अंगूर नहीं बेचने होंगे।
स्त्रोत-
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार कृषि मंत्रालय अधीन कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग एक स्वायत्त संगठन।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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