देश के पश्चिमी भाग के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में किसानों की आय बढ़ाने के लिए ग्वार एक अति महत्वपूर्ण फसल है। यह सूखा सहन करने के अतिरिक्त अधिक तापक्रम को भी सह लेती है। भारत में ग्वार की खेती प्रमुख रूप से राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, गुजरात व उत्तर प्रदेश में की जाती है। हमारे देश के संपूर्ण ग्वार उत्पादक क्षेत्र का करीब 87.7 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान में है। सब्जी वाली ग्वार की फसल से बुवाई के 55-60 दिनों बाद कच्ची फलियां तुड़ाई पर आ जाती हैं। अतः ग्वार के दानों और ग्वार चूरी को पशुओं के खाने और प्रोटीन की आपूर्ति के लिए भी प्रयोग किया जाता है। ग्वार की फसल वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में स्थिरीकरण करती है। अतः ग्वार जमीन की ताकत बढ़ाने में भी उपयोगी है। फसल चक्र में ग्वार के बाद ली जाने वाली फसल की उपज हमेशा बेहतर मिलती है। ग्वार खरीफ ऋतु में उगायी जाने वाली एक बहु-उपयोगी फसल है। ग्वार कम वर्षा और विपरीत परिस्थितियों वाली जलवायु में भी आसानी से उगायी जा सकती है। ग्वार की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि यह उन मृदाओं में आसानी से उगायी जा सकती है जहां दूसरी फसलें उगाना अत्यधिक कठिन है। अतः कम सिंचाई वाली परिस्थितियों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। भारत विश्व में सबसे अधिक ग्वार की फसल उगाने वाला देश है। दलहनी फसलों में ग्वार का भी विशेष योगदान है। यह फसल राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात,हरियाणा प्रदेशो में ली जाती हैं।
बुन्देल ग्वार-1, बुन्देल ग्वार-2, बुन्देल ग्वार-3, आर.जी.सी.-986, आर.जी.सी.-1002 एवं आर.जी.
सी.-1003
जुलाई के पहले पखवाड़े/या मानसून प्रारम्भ के बाद।
अच्छे जलनिकास व उच्च उर्वरता वाली दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है। खेत में पानी का ठहराव
फसल को भारी हानि पहुँचाता है।
से 2-3 जुताई अथवा हैरो से करना उचित रहता है।
प्रति हैक्टर 20 कि0ग्रा0 नाइटरोजन, 40-60 कि0ग्रा0 फास्फोरस की आवश्यकता होती है।
मृदाजनित रोगों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम थीरम व 1 ग्राम कार्वेन्डाजिम प्रति कि0ग्राम अथवा 3 ग्राम थीरम प्रति कि0ग्राम की दर से शोधित करके बुआई करें। बीजशोधन बीजोपचार से 2-3 दिन पूर्व करें।
राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार करना फायदेमन्द रहता है।
पंक्ति से पंक्ति - 45 से0मी0 (सामान्य) 30 से.मी. (देर से बुआई करने पर
पौध से पौध - 15-20 से0मी0
बीजदर
15-20 कि0ग्रा0 प्रति हे0।
सिंचाई एवं जल निकास
लम्बी अवधि तक वर्षा न होने पर 1-2 सिंचाई आवश्यकतानुसार।
खुरपी से 2-3 बार निकाई करनी चाहिए। प्रथम निकाई बोआई के 20-30 दिन के बाद एवं दूसरी 35-45 दिन के बाद करनी चाहिए। खरपतवारों की गम्भीर समस्या होने पर वैसलिन की एक कि.ग्रा. सक्रिय मात्रा को बोआई से पूर्व उपरी 10 से.मी. मृदा में अच्छी तरह मिलाने से उनका प्रभावी नियन्त्रण किया जा सकता है।
ग्वार की फसल को खरपतवारों से पूर्णतया मुक्त रखना चाहिए। सामान्यतः फसल बुवाई के 10-12 दिन बाद कई तरह के खरपतवार निकल आते हैं जिनमें मौथा, जंगली जूट, जंगली चरी (बरू) व दूब-घास प्रमुख हैं। ये खरपतवार पोषक तत्वों, नमी, सूर्य का प्रकाश व स्थान के लिए फसल से प्रतिस्पर्धा करते हैं। परिणामस्वरूप पौधे का विकास व वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती है। अतः ग्वार की फसल में समय-समय पर निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को निकालते रहना चाहिए। इससे पौधें की जड़ों का विकास भी अच्छा होता है तथा जड़ों में वायु संचार भी बढ़ता है। दाने वाली फसल में बेसालिन 1.0 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बुवाई से पूर्व मृदा की ऊपरी 8 से 10 सेंमी सतह में छिड़काव कर खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इसके अलावा पेंडिमिथेलीन का 3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के दो दिन बाद छिड़काव करना चाहिए। इसके लिए 700 से 800 लीटर पानी में बना घोल एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त होता है।
जैसिड एवं बिहार हेयरी कैटरपिलर यह मुख्य शत्रु हैं। इसके अतिरिक्त मोयला, सफेद मक्खी,
हरातैला द्वारा भी फसल को नुकसान हो सकता है।
मोनोक्रोटोफास 36 डब्ल्यू0एस0सी0 (0.06%) का छिड़काव एक या दो बार करें।
खरीफ के मौसम में बैक्टीरियल ब्लाइट सर्वाधिक नुकसान पहुँचाने वाली बीमारी है। एल्टरनेरिया
लीफ स्पाट एवं एन्थ्रैकनोज अन्य नुकसान पहुँचाने वाली बीमारियॉं हैं। एकीकृत ब्याधि नियन्त्रण हेतु निम्न उपाय अपनाने चाहिए।
रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग।
उपज
उन्नत विधि से खेती करने पर 10-15 कुन्तल प्रति हे0 प्राप्त होती है।
तिलहन, दलहन, आयलपाम तथा मक्का पर एकीकृत योजना (ISOPOM)के अन्तर्गत देश में ग्वार उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु उपलब्ध सुविधायें :-
10. सहकारी एवं क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा नाबार्ड के निर्देशानुसार दलहन उत्पादक कृषकों को विशेष ऋण सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।
कृषकों तक उन्नत तकनीकी के शीघ्र एवं प्रभावी स्थानान्तरण हेतु अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन आयोजित करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं अन्य शोध संस्थाओं को प्रदर्शन की वास्तविक लागत या रू0 2000/एकड़/प्रदर्शन (जो भी कम हो)ए तथा खण्ड प्रदर्शन आयोजित करने के लिए राज्य सरकार को उत्पादन के आगातों का 50 प्रतिशत तथा वास्तविक मूल्य के आधार पर रू0 2000/हे0 की सहायता प्रदान की जाती है।
कृषकों को प्रशिक्षण उपलब्ध कराने हेतु प्रति 50 कृषकों के समूह पर कृषि विज्ञान केन्द्रों एवं कृषि विश्वविद्यालयों को रू0 15000/- की सहायता प्रदान की जाती है।
स्रोत: राज्य व भारत सरकार का कृषि विभाग, कुरुक्षेत्र|
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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