रेशम उद्योग को मिली नई जिंदगी
भागलपुर का रेशम अपनी गुणवत्ता के लिए प्रसिद्ध है। यहां के रेशम द्वारा बनाये गये सामानों की बड़े पैमाने पर बिक्री तो होती ही है। इसकी उत्कृष्ट क्वालिटी के कारण इसके कद्रदान हर जगह मिल जाते हैं। हालांकि समय के साथ भागलपुर के इस रेशम उद्योग पर भी असर पड़ा है। पहले बड़े पैमाने पर होने वाले रेशम उद्योग का दायरा अब सिमट रहा है। इस दम तोड़ते उद्योग को फिर नयी उम्मीद मिली है। इलाके की महिलाएं इस काम को कर के अपने साथ रेशम उद्योग को भी नयी जिंदगी दे रही हैं। फर्क यह है कि ये महिलाएं बंगलुरू से मोटा ‘टसर’ मंगा कर उसे इस कदर मुलायम कर देती हैं कि वह कपड़े, दरी बनाने के लायक हो जाता है। कपड़ों की फिनीशिंग करने के साथ ही महिलाओं का यह समूह मुलायम धागों, सुतली को भी बना रही हैं। जिसकी स्थानीय बाजार के साथ दूसरे शहरों में भी काफी मांग है।
स्वयं सहायता ग्रुप की पहल
इस काम की शुरुआत कैसे की? इस बारे में महिला उत्थान के लिए काम कर रहे ‘सृजन महिला उत्थान समिति’ के सचिव उमेश सिंह बताते हैं, ग्रुप ने सन् 1999 में इस काम को शुरू किया। तब यह काम छोटे पैमाने पर होता था। इसका एक कारण यह भी था कि महिलाएं उतना उत्साह नहीं दिखाती थीं। बड़े पैमाने पर यह काम कैसे हो सकता है? इस बात को बताने, समझाने की पहल किसी ने नहीं की थी। वह कहते हैं, काम को लेकर एक संशय की स्थिति यह भी थी कि हम अगर सुतली बनायेंगे तो खरीदेगा कौन? लेकिन वक्त बदला तो सब तरफ परिवर्तन हो गया। हमने इनसे सारी परेशानियों को जानने की कोशिश की। सभी को यह बताया गया कि इस काम को करने से क्या और कितना बदलाव हो
सकते हैं। समझाने को लेकर कोई और परेशानी हुई? इस बारे में उमेश बताते हैं कि शुरू में हर काम की तरह हमें भी परेशानी हुई क्योंकि इनके घर वालों को इस तरीके से समझाने की जरूरत थी कि वह गंभीरता से इस बात को सोचें और आर्थिक हालात बदलने के साथ महिलाओं के आगे बढ़ने के रास्ते को प्रशस्त करें। जमीनी स्तर पर कुछ और भी शुरुआती परेशानी हुई लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। इसके लिए ‘टसर’ यानि रेशम के ही काम को क्यों चुना गया? सशक्तीकरण के लिए कोई और विकल्प क्यों नहीं बताया गया? इसके लिए उनका कहना था कि इस क्षेत्र में ‘टसर’ का काम पहले भी होता रहा है। छोटे पैमाने पर ही सही लेकिन इस काम से महिलाएं पहले भी जुड़ी हुई थीं। काम कैसे करना है, इसकी जानकारी थी। इनका यह भी कहना था कि वह ऐसे काम को ही करना चाहेंगी, जिसे वह घर के काम को निपटाने के बाद कर सकें। हालांकि कुछ विकल्प भी दिये गये लेकिन इस काम में संस्था ने उनकी रूचि को देखा तो उनके मन मुताबिक ही सहयोग करने का फैसला किया।
बातों का हुआ असर
कितनी महिलाओं से इस काम की शुरुआत हुई? उमेश बताते हैं कि, महिलाओं को संस्था से जोड़ने को लेकर हमने जो पहल किया था। उसका परिणाम आशा के विपरीत आया। पहली बार में ही ग्यारह ग्रुप तैयार हो गया जो ‘टसर’ के काम को करने के लिए राजी थी। प्रत्येक ग्रुप में औसतन दस महिलाओं को शामिल किया गया। पहले उन्हें इस काम को करने के लिए तकनीकी सहायता और व्यावहारिक बातें बतायी गयी। साथ ही पैसे बचत करने की प्रवृति के लिए उत्साह बढ़ाया गया। शुरू में तो संस्था ने अपने स्तर पर हर प्रकार की मदद की, बाद में ग्रुप की प्रत्येक महिला सदस्य को प्रतिदिन एक रुपया बचत करने की सलाह दी गयी। इसके लिए ‘सृजन संस्था’ की तरफ से बचत खाते को खुलवाया गया। संस्था के प्रयास से इन्हें दोहरा लाभ मिलने लगा। एक तरफ यह काम भी करती थी, दूसरी तरफ पैसे की बचत भी।
पहले 30 अब 60 रुपये
काम करने के एवज में इन्हें कितने पैसे मिलते हैं? इस बारे में उमेश का कहना है कि पहले ये औरतें बहुत छोटे स्तर पर काम करती थीं। अलग -अलग हो कर काम करने से इन्हें कोई खास लाभ तो होता ही नहीं था। साथ ही आर्थिक हालात भी जस के तस रहते थे। समूह ना होने का खामियाजा इन महिलाओं को उठाना पड़ता था। जानकारी का अभाव भी एक बड़ा कारण था जिसका लाभ स्थानीय महाजन उठाते थे। रेशम के कारोबार में लगे लोग ‘टसर’ की कटाई, पालिशिंग के लिए प्रति किलो 30 रुपये ही देते थे। हमने जब पहल की तब कटाई के दामों में भी वृद्धि की। तीस के बदले साठ रुपये प्रति किलो की दर से भुगतान किया गया। इसका असर बचत पर भी पड़ा, पहले जहां ये महिलाएं 30 रुपये प्रति माह बचत खाते में जमा करती थी, समूह में जुड़ने से यह राशि बढ़ कर दो सौ रुपये प्रतिमाह हो गयी। क्योंकि इनके काम का उचित मेहनताना मिलने लगा था। ‘टसर’ के काम को किस तरह से ये करती है? इसके बारे में उमेश बताते हैं कि इस कार्य में सबसे पहले महिलाएं मोटे ‘टसर’ को पॉलिश कर के इसकी सुतली बनाने, कटाई करने के काम को अपनी दक्षता से तीन श्रेणी के कटपीस में बदल देती हैं। सुतली बनाने के लिए चकली, धेरूआ का प्रयोग करती हैं। श्रेणियों में बंटे इन कपड़ों का अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल होता है। मोटे ‘टसर’ से जहां दरी, कालीन बनती हैं वहीं उससे पतले से बंडी, सदरी जैकेट और सबसे मुलायम से साड़ी, कुर्ती सलवार, कमीज बनता है। इनकी फिनिशिंग के लिए रसायन का भी प्रयोग किया जाता है। जिससे कपड़ा तैयार होने के बाद नये रंग में नजर आता है। सभी का मूल्य अलग-अलग होता है।
बंगलुरू का कपड़ा, गांव की दक्षता
बिना पॉलिश किया हुआ ‘टसर’ बंगलुरू की कपड़ा कंपनियों से ट्रक द्वारा मंगाया जाता है। ये दो प्रकार की होती हैं। लाल और सफेद जिनका अलग-अलग प्रयोग होता है। एक ट्रक में करीब 15 टन तक ‘टसर’ रहता है।
माल मंगाने के लिए शुरू में इनकी मदद संस्था ने ही की, अब यह काम संपर्क करने पर ही हो जाता है। कपड़ों की फिनिशिंग हो जाने के बाद जहां से माल आता है, वही कंपनी खरीद लेती है। बिक्री का पैसा इनके बैंक खाते में डाल दिया जाता है। मोटे ‘टसर’ को लेकर किसे कितना और क्या काम करना है? उसे समयबद्ध तरीके से पूरा करने की जिम्मेवारी इनके ही जिम्मे होता है।भागलपुर जिले के सबौर और गोराडीह प्रखंडों के बैजलपुर, पुरपट, जमती, कोयलागांव, अगरपुर गांव में किये जा रहे इस काम का स्पष्ट असर दिख रहा है।
दिख रहा है ‘टसर’ का असर
शंका, संकोच की जगह अब आत्मविश्वास ने ले लिया है। अशिक्षित महिलाएं शिक्षा पर भी ध्यान दे रही हैं। परिवार के वैसे सदस्य भी जो पहले शिक्षा से दूर थे, उनमें भी जागृति आ गयी है। घर के पुरुष सदस्यों का रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में होने वाले पलायन में भी कमी आयी है। संस्था से जुड़ने वाली महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। मोटे ‘टसर’ से हो रही आमदनी से अब इनका उत्साह बढ़ गया है। अब ये ‘ककून’ के जरिये भी रेशम के उत्पादन में अपना हाथ आजमा रही हैं। इसके लिए भी उन्हें जानकारी मुहैया करायी जा रही है। उमेश कहते हैं कि संस्था का ध्यान अब स्थानीय क्षेत्रों से ही कच्चे रेशम के सामान को खरीद कर उपयोग लायक बनाना है ताकि स्थानीय स्तर पर और लोगों एवं महिलाओं के आर्थिक हालात में बदलाव आ सके।
स्त्रोत: संदीप कुमार,स्वतंत्र पत्रकार,पटना बिहार।