भारत देश कृषि प्रधान देश है जहाँ की 70% जनसंख्या की आजीविका कृषि पर आधारित है| यहाँ वर्षा में काफी असमानता है और ज्यादातर खेती वर्षा पर ही आधारित है| खरीफ मौसम में धान की खेती प्रमुख रूप से होती है, जिस पर कृषकों की आजीविका एक बड़ी सीमा तक आधारित है| भारत में धान की खेती 450 लाख हैक्टेयर में होती है| इसमें सिंचित धान का क्षेत्र 49% है|
झारखण्ड की 80% आबादी कृषि पर निर्भर है, झारखण्ड की कुल भौगोलिक क्षेत्र 79 लाख हेक्टेयर है जिसमें सिर्फ 22 लाख हेक्टेयर ही कृषि योग्य जमीन है राज्य की कृषि मुख्यतः वर्षा पर ही निर्भर है और यहाँ साल में औसतन 1200 से 1600 mm वर्षा ही होती है| इन परिस्थितियों में यहाँ धान की खेती को प्रोत्साहित करने की जरूरत है जिसमें कृषि के उन्नत तकनीकों को अपनाकर कम लागत और कम जमीन का उपयोग कर अधिक उत्पादन सुनिश्चित किया जा सके|
धान की परम्परागत खेती के लिए पानी की अधिक आवश्यकता होती है| धान के खेत में पानी 2-3 इंच तक भरा हुआ होना चाहिए, जिसके लिए भरपूर पानी की आवश्यकता होती है यहाँ धान का औसत उत्पादन 14 से 18 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है, जो काफी कम है| पानी की बढ़ती मांग तथा भविष्य में पानी की कमी को देखते हुए धान की खेती की एक नयी विधि विकसित की गई है, जो किसानों व देश के लिए काफी उपयोगी है| इस विधि में कम बीज व कम पानी से अधिक उत्पादन होता है| यह विधि है –सिस्टम ऑफ़ राइस इन्टेसिन्सफिकेशन (एस.आर.आई.) यानि धान की सघनीकरण विधि|
सामान्यतः एक किलोग्राम चावल की पैदावार में लगभग 5000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है| देश में पानी की कमी के कारण कई राज्यों में धान की खेती के क्षेत्रफल में कमी हो रही है| यदि एस.आर.आई. विधि अपनाई जाती है तो हम वर्तमान में धान के लिए इस्तेमाल हो रहे पानी से सिंचित क्षेत्र में 50% की बढ़ोत्तरी कर सकते हैं| इससे धान की पैदावार में भी कम से कम 50% की अतिरिक्त बढ़ोत्तरी होगी|
हमारे देश में कमी को देखते हुए एस.आर.आई. विधि बहुत उपयुक्त है जिससे किसान कम पानी से भी अधिक खेतों में धान का उत्पादन कर सकते हैं|
कम बीज की आवश्यकता- इस विधि में नर्सरी में बीज को अधिक दूरी पर बोया जाता है जिससे बीज की खपत कम होती है| खेत में भी बुआई से समय कम बिचड़ों की आवश्यकता होती है|
कम पानी की आवश्यकता- इस विधि में खेत में पानी भरकर नहीं रखते| खेत कभी सुखा व कमी नम रखना पड़ता है| इसलिए पानी की कम आवश्यकता होती है|
कम उम्र के पौधों का रोपण- 10-14 दिन के पौधों का रोपण कम गहराई पर किया जाता है जिससे पौधों में जड़ें व नये कल्ले अधिक संख्या में एवं कम समय में निकलते हैं और पैदावार अधिक होती है|
अधिक दूरी पर पौधे से पौधे की दूरी एंव पंक्ति से पंक्ति की दूरी 12x12 इंच होने से सूर्य का प्रकाश प्रत्येक पौधे तक आसानी से पहुँचता है जिससे पौधों में पानी, स्थान एंव पोषण के लिए प्रतिस्पर्द्धा नही होती| पौधे की जड़ें ठीक ढंग से फैलती हैं और पौधे को ज्यादा पोषक तत्व प्राप्त होते हैं जिससे पौधे स्वस्थ होते हैं एवं अधिक उत्पादन होता है|
खर-पतवार को मिट्टी में मिलाना- वीडर की मदद से निराई करने पर खर-पतवार खाद में बदल जाती है एवं पौधे के लिए पोषण का काम करती है| इस प्रक्रिया से पौधों की जड़ों में हवा का आवागमन ज्यादा होता है जिससे जड़ें तेजी से फैलती हैं|
जैविक खाद का उपयोग- जैविक खाद के प्रयोग से भूमि में हवा का आवागमन एवं सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है जो कार्बनिक पदार्थों को पोषण में बदलने में मदद करते हैं जिससे पौधा का विकास अच्छा होता है|
रोग व कीटों का जैविक नियंत्रण- एस.आर.आई विधि में पौधों का रोपण अधिक दूरी पर करने से सूर्य का प्रकाश व हवा उचित मात्रा में मिलती है जिससे रोग व कीटों क प्रकोप कम होता है यदि रोग व कीटो का प्रकोप होता है तो जैविक पद्धति द्वारा उसका निदान किया जाता है|
एस.आर.आई विधि व परम्परागत विधि की तुलना
एस.आर.आई |
परम्परागत विधि: |
नर्सरी में क्यारी बनाकर अंकुरित बीज का छिड़काव किया जाता है व कम पानी लगता है |
नर्सरी में सीधे बीज का छिड़काव किया जाता है व अधिक पानी लगता है| |
कम बीज की आवश्यकता (प्रति एकड़ 2 से 2 से 2.5 कि. ग्रा.) होती है| |
अधिक बीज की आवश्यकता (प्रति एकड़ 25 से कि. ग्रा.) होती है| |
10-14 दिन के पौधे का रोपण किया जाता है |
20-25 दिन के पौधे का रोपण किया जाता है |
पौधे से पौधे व पंक्ति से पंक्ति की दूरी 12X12 इंच तक रखते हैं |
पौधे से पौधे व पंक्ति से पंक्ति की दूरी कोई निश्चित नहीं है| |
खेत को धान में बाली आने तक बारी-बारी से नम एवं सूखा रखा जाता है| |
इसमें अधिकांश समय पानी भरकर रखते हैं |
खरपतवार नियंत्रण वीडर मशीन के द्वारा करते हैं |
खरपतवार नियंत्रण हाथ से करते हैं |
कम पानी की आवश्यकता |
अधिक पानी की आवश्यकता (अधिकांश समय 3-5 से.मी. पानी भरा रखते हैं) |
एस.आर.आई विधि से धान की ज्यादा पैदावार
एस.आर.आई विधि द्वारा खेती निचले खेत के अलावा किसी भी तरह के खेत में अपनाई जा सकती है| क्योंकि निचले खेत में ज्यादा पानी होता है जिससे 10-14 दिन के छोटे बिचड़ों को लगाने से उसमें डूब जाने का या बह जाने का खतरा रहता है| इसलिए उसमें एस.आर.आई विधि से खेती नहीं करते| अच्छी जलधारण एवं जलनिकासी वाली मध्यम एवं नीची जमीन (दोमट मिट्टी) उपयुक्त होती है| अम्लीय एवं क्षरीय भूमि में इसकी खेती नहीं करनी चाहिए| इसके लिए उपयुक्त पी.एच.मान 5.5 से 7.5 तक है| इसकी खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए| भारी एवं काली मिट्टी वाले खेत में वीडर चलाने में थोड़ी समस्या होती है|
2.खेत का समतलीकरण:
खेत को पूर्ण से समतल किया जाना जरुरी है ताकि पूरे खेत में एक समान सिंचाई दी जा सके और कहीं भी अनावश्यक पानी न जमा हो| खेत में कहीं ज्यादा पानी रहने से रोपे गये छोटे बिचड़ों (10-14 दिन की आयु के) मरने के सम्भावनाएं बढ़ जाएगी-बिचड़ों और जड़ों का विकास अच्छा नहीं होगा जिससे प्रति पौधा कल्लों की संख्या कम हो जाएगी|
3.भूमि की तयारी:
इस विधि में जैविक तरीके से खेती करने पर जोर दिया जाता है| खेत को अच्छी तरह तैयार करके एक साल पुराना सड़ा गोबर 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से छींटकर अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें खेत के चारों तरफ एवं हर 10 फीट पर एक नाला बना दें जिससे जल निकासी में सुविधा होगी|
4. भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करने के तीन उपाय नीचे दिए गए हैं:
क) कम्पोस्ट की खाद- अच्छी सड़ी हुई खाद 15 टन प्रति हैक्टेयर के हिसाब से (8 ट्राली प्रतिहैक्टेयर) डालना आवश्यक है| गोबर की खाद के साथ वर्मी कम्पोस्ट, नाडेप कम्पोस्ट यदि उपलब्ध हो तो दोनों मिलाकर उपयोग करना चाहिए| इसके साथ पंचगव्य व अमृत जल का उपयोग किया जाता है| प्रथम, द्वितीय व तृतीय विडिंग के पश्चात् पंचगव्य व अमृत जल या मेपल ई. एम. 1 का प्रयोग क्रमवार करना चाहिए जिससे भूमि में सूक्ष्म बैक्टीरिया की संख्या में वृद्धि होती है जिससे भूमि की उत्पादकता और उत्पादन में वृद्धि होती है|
ख) हरी खाद- खेत में धान की रोपाई से दो माह पूर्व खेत की जुताई करके सनई(Sunhemp), ढेंचा (Sesbania) की बुआई करनी चाहिए| 35 से 45 दिन पश्चात्, हरी फसल को खेत की जुताई करके मिट्टी में दबा देते हैं जिससे भूमि में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है| इससे भूमि मी नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु वायुमंडल से नाइट्रोजन लेकर जड़ों में संग्रहित कर सकते हैं|
ग) हरी खाद बनाने की दाभोलकर विधि- वर्तमान में यह विधि काफी लोकप्रिय है| साधारणतः हरी खाद प्राप्त करने के लिए लेग्युमिनस (बेल वाली) फसलों को ही बोया जाता था लेकिन दाभोलकर विधि में 5 तरह (अनाज, दलहन, तिलहन, लेग्युमिनस एवं मसाले) के बीजों का मिश्रण करके बोया जाता है| बाद में इनको जुताई करके मिट्टी में दबा दिया जाता है|
इस विधि में दलहन, तिलहन, अनाज और हरी खाद के प्रत्येक फसल के बीज के 6 किलोग्राम और मसाले के बीज का 500 ग्राम मिलाया जाता है| बोने के 40 से 45 दिन के बाद जुताई करके इनको मिट्टी में दबा दिया जाता है| इससे मिट्टी की ऊपरी परत में लाभदायक जीवाणु से ह्यूमस बनता है| हरी खाद की फसल को बढ़ाने एवं सड़ने के लिए उचित मात्रा में नमी की आवश्यकता होती है|
5. बीज का चयन
धान की अच्छी उपज पाने के लिए ख़राब बीजों की छंटाई और चुने हुए बीज का उपचार करना चाहिए| एस.आर.आई विधि से खेती करने के लिए बीज की छटाई और उपचार करना जरुरी है|
बीज की छटाई और उपचार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री: मुर्गी का एक अंडा, दो किलो साधारण नमक, दो सफेद प्लास्टिक बाल्टियाँ, बेभिस्टिन पावडर, एक चाय चम्मच, एक जुट की बोरी, गाँव से ही दो किलो बीज और 1 बाल्टी साफ पानी|
बीज छटाई और उपचार की विधि इस प्रकार है:-
इस प्रकार से ख़राब बीज की छटाई कर रोगमुक्त चुने हुए स्वस्थ बीजों को नर्सरी में डाला जाता है| जिससे बीज द्वारा आने वाले रोगों से फसल को बचाया जा सकता है|
कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
अच्छे बीज का और अधिक विषोधन करेंगे तो और भी ज्यादातर लाभ मिल सकता है| दीमक की मिट्टी, गोबर और राख को समान भाग में लें, उसमें साधा पानी या गोमूत्र डालकर अच्छी तरह मिलाकर उसे खीर जैसा बना लें| नमकीन पानी से निकाले हुए धान को इसमें मिलाकर धूप में सुखा लें| इस विषोधित बीज को ना चिड़िया चुग सकती है और न ही चींटी खा सकती है| बुबाई के समय शरीर में खुजली भी नहीं होगी| लेकिन पौधों को दीमक की मिट्टी, गोबर और राख जैसा अच्छा शिशु आहार मिल जाता है|
पहले पट्टे या क्यारी की मिट्टी को समतल कर देना चाहिए उसके ऊपर रेत अथवा रेतीली मिट्टी का एक भाग, अच्छी सड़ी हुई खाद अथवा केंचुआ खाद का एक भाग, बिना घास वाला अच्छी कड़क मिट्टी अर्थात् कम्पोस्ट पीट के पास की मिट्टी, दीमक की मिट्टी या जंगल की मिट्टी, क्यारी के ऊपर अच्छी तरह फैला दें|
आठ से दस दिन का पौधा मिट्टी से ज्यादा कुछ खाना ग्रहण नहीं करता है| धान के अंदर ही उसका खाना रहता है| लेकिन पौधों के साथ जो मिट्टी खेत में जाती है, वो पोधों को खेत में रोपने के बाद पौधों के लिए काफी लाभकारी होती है|
श्री पद्धति में स्वस्थ बीज, स्वस्थ बीज, स्वस्थ मिट्टी और आवश्यकतानुसार पानी और छोटे पौधों को अलग-अलग रोपने के कारण तथा पर्याप्त मात्रा में हवा और सूरज की रौशनी मिलने से कीड़े की बीमारी से 50-60% तक राहत मिलती है| जमीन बीच- बीच में बाँस के डंडे गाड़ दें, वहाँ पर बहुत से पक्षी आकर बैठेंगे और जमीन के कीड़े-मकोड़े नष्ट हो जाते हैं|
बचे हुए कीड़े-मकोड़ों को हमारे आस-पास मिलने वाले जैविक पदार्थों की मदद से नष्ट किया जा सकता है|
उदाहरण: अपने इलाके में मिलने वाले नीम जैसे कड़वे अन्य बदबूदार तथा गोंद वाले पत्तों को इकट्ठा करें| जितने पत्ते हो उसका दस गुना गौमूत्र लें| पत्तों को छोटा-छोटा काट कर या पीस कर गोमूत्र में मिलकर दस दिन तक सड़ाएं फिर इसे छानकर उसमें 15 से 20 गुना पानी मिलाकर इस घोल का छिड़काव धान के पौधों के ऊपर 15 से 20 दिन के अन्तराल पर करें| ऐसा करने से बहुत से बीमारी वाले कीड़े पौधों से दूर रहेंगे|
6. नर्सरी की तयारी
परम्परागत विधि से धान की खेती एक एकड़ जमीन में करने के लिए 25-30 किलो बीज की आवश्यकता होती है| 25-30 किलो बीज के लिए करीब 10 डिसमिल जमीन पर नर्सरी बनाया जाता है जिसके कारण बिचड़े बहुत घने होते हैं| काफी पास-पास उगने के कारण सभी बिचड़ों को पर्याप्त भोजन और सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता जिससे यह पतले और कमजोर पड़ जाते हैं|
परन्तु एस.आर.आई विधि में एक एकड़ धान की खेती के लिए सिर्फ 2-2.5 किलो बीज की आवश्यकता होती है| इसके लिए 400 वर्गफीट (1डिसमिल) जगह पर नर्सरी किया जाता है| प्रत्येक hai बिचड़े को पर्याप्त भोजन और सूर्य का प्रकाश मिलता है तथा वे स्वस्थ बच्चा तगड़ा जवान होता है उसी प्रकार स्वस्थ बिचड़ा ही उन्नत उपज देता है|
नर्सरी बनाने के समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए| इस विधि से 10-14 दिन के बिचड़े का रोपण किया जाता है| एक एकड़ में धान की खेती के नर्सरी के लिए 400 वर्गफीट या 1 डिसमिल जमीन पर 2-2.5 किलो बीज की आवश्यकता होती है|
नर्सरी की क्यारी बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि क्यारी खेत के मध्य या कोने में बनाई जाए जहाँ पौधा रोपण करना है| लम्बाई स्थिति के अनुसार व बैड की ऊँचाई आधार तल से 6 इंच होनी चाहिए|
नर्सरी में रासायनिक खाद के स्थान पर गोबर खाद का इस्तेमाल करना चाहिए| क्योंकि इससे बिचड़ों को भोजन मिल जाता है और मिट्टी मुलायम रहने से बिचड़ों को बिना नुकसान पहुँचाए खेत तक ले जाया जाता है|
कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
7.नर्सरी में बीज की बुआई
शोधित बीज को हाथ से लाइन बनाकर एक-एक करके लाइन से बोया जाता है एवं उस पर एक हल्की परत सड़े गोबर की डाली जाती है और अंत में नर्सरी बेड़ को पुआल से ढँक दिया जाता है| बीज जन्मने के बाद पुआल को हटा दिया जाता है(3-4 दिन बाद) बीज को सीधी धुप, चिड़ियों और चीटियों से सुरक्षा करनी चाहिए| पुआल हटाने के बाद सुबह-शाम प्रतिदिन हल्की सिंचाई आवश्यकता होती है| सिंचाई करते समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि बीज मिट्टी से बाहर न निकले|
8. बिचड़ों को नर्सरी से खेत तक ले जाना:-
परम्परागत विधि से 20-25 दिन पुराने बिचड़ों को, जो तब तक काफी बड़ा हो गया होता है, खीँचकर निकाला जाता है| जिसके कारण जड़ें काफी टूट जाती हैं और बिचड़ों को फिर से हरा होने में काफी समय लगा जाता है| इसके अलावा बिचड़े 20-25 दिन पुराने होने के कारण उसकी कल्लों की शक्ति बहुत कम हो चुकी होती है| जड़ें भी बहुत बढ़कर के दूसरे से उलझ जाती हैं| इस कारण प्रति बिचड़ा कल्लों की संख्या काफी कम होती है| बिचड़ों को खेत तक ले जाने के लिए गट्ठर में बाँधा जाता हो कभी-कभी तो उखाड़े हुए बिचड़े और कमजोर हो जाते हैं कुछ मर भी जाते हैं|
एस.आर. आई विधि में 10-14 दिन पुराने छोटे बिचड़ों को जिनमें साधारणतः 2 पत्तियाँ आ चुकी होती है, को काफी सावधानी से खेत तक ले जाया जाता है| बिचड़ों को पता भी नहीं चलता कि उन्हें एक स्थान (नर्सरी) से दूसरे स्थान (खेत) तक कब लाया गया| बिचड़ों को
रोपने के लिए 10-14 दिन का समय ही चुना जाता है क्योंकि इसी समय उनमें कल्ले निकलने की अधिकतम शक्ति होती है|
बिचड़ों को जड़ की मिट्टी सहित सावधानी से उठाया जाता है ताकि जड़ों को कोई नुकसान न पहुँचे, जड़ें सुरक्षित रहने से रोपाई के बाद बिचड़े तुरंत बढ़ते हैं| बिचड़ों को कभी भी खींचकर नहीं निकालना चाहिए और उन्हें नर्सरी से खेत तक ले जाने के लिए चौड़े बर्त्तन का उपयोग करना चाहिए| नर्सरी बेड़ के नीचे हाथ या तस्तरी डालकर बिचड़ों को जड़ और मिट्टी सहित सुरक्षित बाहर निकालना उचित होता है|
कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
9. खेत की तैयारी:-
इस विधि में परम्परागत विधि के समान ही खेत की तैयारी की जाती है| लेकिन खेत को समतल करना आवश्यक होता है| बिचड़ों को रोपने के 12 से 24 घंटे पूर्व खेत की तैयारी करते हैं, खेत में एक इंच से ज्यादा पानी नहीं रहना चाहिये. इससे निशान लगाने में कोई असुविधा नहीं होती है| बिचड़ों को रोपने के पूर्व खेत में मार्कर से 12X12 इंच की दूरी पर निशान लगा दिया जाता है| पौधों के बीच उचित दूरी रखने के लिए निशान लगाते समय शुरू में एक रस्सी लगाकर सीधी लाइन बना ली जाती है, इससे निशान बनाने में आसानी होती है| निशान लगाने का कार्य पौधे रोपण से 6 घंटे पूर्व कर लेना चाहिए|
एक एकड़ खेत में 60 से 80 क्विंटल कम्पोस्ट या गोबर की खाद डालना चाहिए| सही मात्रा में कम्पोस्ट खाद डालने से रासानियक खाद की जरूरत नहीं के बराबर पड़ती है| खेत में गोबर खाद की मात्रा पर्याप्त होने से मिट्टी में जीवाणु की संख्या बढ़ जाती हैं जो हवा और मिट्टी में उपलब्ध पोषण जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटास और सूक्ष्म तत्व फसल को उप्पब्ध कराते हैं| इस कारण उपज में भारी वृद्धि होती है| खेत में चारों तरफ 8 इंच गहरी और 1.5 फुट चौड़ी नाली बनाते हैं नाली बनाने से खेत का फालतू पानी नाली में जमा हो जाता है जिसे आसानी से खेत के बाहर निकाला जा सकता है| इस कारण ज्यादा बारिश होने पर भी बिचड़े उसमें डूबते नहीं हैं|
10. परम्परागत विधि में रोपाई करने के लिए खेत में 3-4 इंच पानी जमा रखा जाता है| 3 या अधिक बिचड़ों को एक ही जगह पर 1.5-2 इंच कादों में गाड़ देते हैं| बिचड़ों की रोपाई लाइन से न होकर बेतरतीब तरीके से होती है और बीच की दूरी का भी कुछ खास ध्यान नहीं रखा जाता| एक ही जगह पर ज्यादा बिचड़े होने से किसी को भी पर्याप्त मात्रा में सूरज की रौशनी और भोजन नहीं मिल पाता और जिससे वे बहुत दिनों तक पीले पड़े रहते हैं और कमजोर होने के कारण कल्ले भी बहुत कम निकलते हैं| जड़ें टूट जाने के कारण रोपे गए बिचड़ों को नया जीवन पाने में 7 से ज्यादा दिन लग जाते हैं| धान के रोपे गये बिचड़ों को खेत में जीवन शुरू करते हुए काफी मुश्किलों से गुजरना पड़ता है| जिस कारण वो अपनी क्षमता के अनुसार उपज नहीं दे पाता है|
एस.आर. आई विधि से 10-14 दिन उम्र के बिचड़ों की रोपाई किया जाता है जब बिचड़ों में दो पत्ते होते हैं| haiरोपाई करते समय खेत गीला होना चाहिए और कादो के ऊपर एक इंच से कम पानी होना चाहिए| बिचड़ों को नर्सरी से निकालने के बाद आधे घंटें के अंदर रोप देना चाहिए| देर करने से बिचड़ों के सूखने का खतरा रहता है क्योंकि बिचड़ा काफी छोटा और नाजुक होता है| पौधा रोपण के समय हाथ के अँगूठे एंव वर्तनी अंगूली (Index finger) का प्रयोग करना चाहिए| रोपते समय बिचड़ों को मिट्टी के साथ हल्के से कादो में बैठा देना चाहिए| लाइन से लाइन और बिचड़ों की दूरी 10 से 12 इंच होनी चाहिए| लाईन बनाने के लिए मार्कर या प्लास्टिक की पतली रस्सी का इस्तेमाल किया जा सकता है| मार्कर से लाईन बनाने का वर्णन पूर्व के अध्याय में किया गया है| अगर लाइन बनाने के लिए पतली रस्सी का उपयोग हो रहा है तो 10-12 इंच की दूरी पर रंगीन प्लास्टिक के टुकड़े निशान देने के लिए बांध देते हैं| बिचड़ों को लाइन से लगाना आवश्यक है, नहीं तो घास निकालने की मशीन (वीडर) नहीं चलायी जा सकेगी|
कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
11. खरपतवार निकालना और पानी का रखरखाव:-
पारंपरिक तरीके से धान की खेती में साधारणतः किसान एक ही बार हाथ से खरपतवार निकालता है और खेत के बाहर फ़ेंक देता है इसमें एक तरफ शारीरिक श्रम अधिक होता है, वहीँ खरपतवार बाहर फेंकने के कारण खेतों में कम्पोस्ट तैयार नहीं होता है| इससे मिट्टी को पलटा नहीं जाता जिससे जड़ों को हवा नहीं मिलती और पुरानी जड़ें मरने लगती है|
एस.आर. आई विधि से धान की खेती में प्रभावी तरीके से खरपतवार निकालना और पानी का रखरखाव काफी महत्वपूर्ण है|
खरपतवार निकालने के लिए हाथ से चलाए जाने वाले वीडरो का उपयोग किया जाता है| वीडर मशीन को लाइन के बीच आगे पीछे चलाया जाता है इससे खेत की मिट्टी पलट जाती है और जड़ों को हवा मिलती है एवं इसके साथ खरपतवार मिट्टी में सड़कर खाद बन जाते हैं जिससे बिचड़े तेजी से बढ़ते हैं| मशीन चलाने के समय खेत में एक इंच पानी होनी चाहिए|
बिचड़ों की रोपाई के 12-15 दिन बाद पहली बार खरपतवार निकालते हैं| इस समय खरपतवार निकालना बहुत जरुरी होता है क्योंकि इस समय खरपतवार के पौधे छोटे होते हैं और उन्हें नष्ट करना आसान होता है| इस समय बिचड़ों से कल्ले फूटने शुरू हो जाते हैं| खेत में खरपतवार होने से बिचड़ों के हिस्से का पोषण खरपतवार ले लेते हैं जिससे उपज में बहुत कमी हो सकती है| एस.आर. आई विधि में धान के बिचड़े दूर-दूर लगाने और कम पानी होने से खरपतवार ज्यादा मात्रा में उगते हैं और तेजी से बढ़ते हैं| पहली बार खरपतवार निकालने के बाद, 12-15 दिनों अंतरालों पर दो बार और खरपतवार निकालना चाहिए:
वीडर मशीन चलाने के लाभ:
एस.आर. आई विधि में बिचड़ों को रोपने के बाद खेत में पर्याप्त नमी बनी रहे, इतनी सिंचाई करनी चाहिए| खेत में पानी भर कर रखने की आवश्यकता नहीं है| सिंचाई का अंतराल (कितने दिनों के बाद हो) भूमि के प्रकार एवं वर्षा के अनुसार तय करना चाहिए| जब जमीन में हल्की सी दरार दिखाई दे तभी सिंचाई करनी चाहिए| वीडर चलाते समय खेत में 1 इंच पानी की आवश्यकता होती है| वीडर मशीन चलाने के बाद खेत का पानी खेत से बाहर नहीं निकालना चाहिए| कटाई के 20-25 दिन पूर्व सिचाई बंद कर देनी चाहिय|
12. कल्लों का निकलना :
18-45 दिन दे बीच धान के पौधे से सबसे ज्यादा कल्ले निकलते हैं क्योंकि इस समय पौधों को धूप, हवा पानी पर्याप्त मात्रा में मिलता है| अनुभवों के आधार पर जहाँ सिर्फ एक बार वीडर चलाया गया है, वहां एक पौधे से कल्लों की संख्या 15-25 तक प्राप्त हुई है| तीन बार वीडर का उपयोग करने पर एक पौधे से अधिकतम 90 तक भी कल्ले निकलते हैं|
13. धान की खड़ी फसल की देखभाल:
पारम्परिक विधि से धान की खेती में खेत में हमेशा 3-4 इंच पानी जमा रहता है जिससे धान के पौधों की जड़ों को साँस लेने के लिए हवा नहीं मिल पाती जिससे वे मरने लगते हैं| इसकी भरपाई के लिए और जड़ें निकलती है जिससे बिचड़े की शक्ति खर्च होती है| इस कारण जितना कल्ले निकलने चाहिए वे नहीं निकल पाते| एक जगह में सिर्फ 15-30 कल्ले ही फुट पाते हैं|
खरपतवार को भी केवल एक बार ही निकाला जाता है, सिर्फ कभी-कभी ही दो बार निकाला जाता है | चूँकि खरपतवार को निकालकर खेत के बाहर फ़ेंक दिया जाता है अतः खेत में कम्पोस्ट नहीं बन पाता|
इससे अलग एस.आर. आई विधि खेती में धान के खेत में सिर्फ पानी की 1 इंच पतली रखते हैं ताकि एक सप्ताह तक बारिश नहीं होने पर भी फसल को पानी की कमी न हो, लेकिन ज्यादा दिन तक बारिश नहीं होने पर खेत में दरार दिखने लगे तो सिंचाई की व्यवस्था करनी चाहिए|
कोनोवीडर/वीडर मशीन बीच-बीच में चलाने से मिट्टी पलटती है, और जड़ों को हवा मिलती है| हवा मिलते रहने से जड़े मरते नहीं हैं| जड़े स्वस्थ रहने से ज्यादा कल्ले निकलते हैं| एक बिचड़े से 40-80 कल्ले निकलते हैं|
14. धान की पैदावार:
एस.आर. आई विधि से एक जगह में प्रत्येक बिचड़े से 40 से 80 कल्ले फूटते हैं जिससे अच्छी बालियों वाले 25 से 50 कल्ले होते हैं| हरेक बाली में 150-200 तक धान के पुष्ट दाने होते हैं| इस विधि में बिचड़े बहुत मजबूत होते हैं और कल्लों की संख्या भी काफी ज्यादा होती है| इसलिए वो हवा से गिरते नहीं है और उपज का नुक्सान नहीं होगा| एस.आर. आई विधि से खेती में एक एकड़ जमीन (स्थानीय माप की इकाई जैसे कट्ठा, बीघा, आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है) से 80-100 मन धान की उपज होती है| एक औसत परिवार
के लिए इस विधि से एक एकड़ जमीन में साल भर के लिए पर्याप्त चावल उगाया जा सकता है|
कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
एस.आर. आई विधि के द्वारा कोई भी धान की बीज इस्तेमाल कर सकते हैं| उन्नत किस्म की बीज अच्छी उपज देती है| स्थानीय किस्मों से भी अच्छी उपज पाई गई है| स्थानीय किस्मों में रोगों से लड़ने की ज्यादा शक्ति होती है|
15. कटाई :-
जब पौधों की कटाई की जाती है तो पौधे का तना हरा रहता है जबकि बालियाँ पक जाती हैं| बालियों की लम्बाई व दोनों का वजन परम्परागत विधि की अपेक्षा ज्यादा होता है| बालियों में खाली दानों की संख्या कम होती है तथा जल्दी नहीं झड़ते |
एस.आर. आई तकनीक द्वारा सफलतापूर्वक के लिए खेती करने के लिए मुख्य रूप से निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना जरुरी है:-
क) पचगव्य
ख) हरित खाद (झाड़ी/पौधा आधारित)
ग) हरित खाद (पेड़ आधारित)
घ) वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद)
ङ) मटका खाद
च) औषधीय मटका खाद
छ) ब्रम्हास्त्र
ज) उर्वरक (अजोस्पइरिलम, फास्फोबैक्टीरियम, राइजोबियम/अजोटोबैक्टर)
झ) अजोला एवं हरा नीला शैवाल
ञ) सूक्ष्मजीव जो फास्फेट को घुलनशील बनाते हैं
ट) पौधों की सुरक्षा
पंचगव्य
आवश्यक सामग्री:
क) 1 किलो गाय का गोबर
ख) 2 लीटर गौ मूत्र
ग) 1 लीटर गाय का दूध
घ) 250 मिली लीटर गाय का घी
ङ) 1 लीटर दही
बनाने की विधि:
उपर्युक्त सभी सामग्रियों के दिए गए अनुपात में लें और एक मिट्टी के बर्तन में कम से कम 1 घंटे के लिए मिलाएँ| इस मिश्रण को फिर 150 और 45 दिनों पर तथा लम्बी अवधि वाली किस्मों में इन दो समय के उपरांत 75 दिन में भी करें|
कार्य:
पंचगव्य पौधों की वृद्धि में सहायक होता है तथा प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है|
ख) हरित खाद (झाड़ी/पौधा आधारित)
खेत में ही जैविक पदार्थ निर्माण के लिए हरा खाद तैयार एक पुरानी पद्धति है| यह ढैंचा, चना, सेम के बीजों को खेत में रोप कर तथा आठ से दस हप्तों के पश्चात पौधों को मिट्टी में ही दबाकर/पलट कर किया जाता है| इन पौधों का चयन मिट्टी के प्रकार, नमी उपलब्धता, मौसम तथा बीजों की कीमत के आधार पर किया जाता है|
ग) हरित खाद (पेड़ आधारित)
हरा खाद निर्माण का यह तरीका है कि खेतों के मेढ़ या अन्य स्थानों में पेड़ या पौधा लगाकर तथा समय-समय पर उनकी ऊपरी टहनियों को काट कर मिट्टी में मिलाया जाए| इन टहनियों को फलों के बगीचों में जमीन ढकने के लिये आधी सड़ी घास (मल्व) उपयोग किया जाता है जो न सिर्फ जमीन की नमी को बचाए रखते हैं बल्कि धीरे-धीरे विघटित होकर जैविक खाद में बदल जाते हैं| जब सूखी पत्तियों की मात्रा अधिक हो इनका उपयोग सीधे बगीचों में “मल्व: के रूप में किया जा सकता है|
घ) वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद)
केंचुआ ( Earth Wrom) के द्वारा जैविक पदार्थों के खाने के बाद उसके पाचन-तंत्र से गुजरने के बाद अपशिष्ट पदार्थ मल के रूप में बाहर निकलता है उसे वर्मी कम्पोस्ट या केंचुआ खाद कहते है यह हल्का काला, दानेदार तथा देखने में चाय पत्ती के जैसा होता है|
वर्मी कम्पोस्ट बनाने की विधि
ड.) मटका खाद
आवश्यक सामग्री
क) 1 किलो गाय का गोबर
ख) 2 लीटर गौ मूत्र
ग) 50ग्राम गुड़
घ) मिट्टी का बर्त्तन
बनाने की विधि:-
उपर्युक्त सभी सामग्रियों को दिए गए अनुपात में लें और मिट्टी के बर्त्तन में कम से कम 1 घंटें के लिए मिलाएँ| बर्तन को पोलिथीन के द्वारा ढँक दें तथा इसे वायुरोधक बनाकर 10 दिनों तक रखें| 10 दिन बाद मिश्रण को पतले कपड़े से छानें तथा 40 गुणा पानी में मिलाकर फसल में उपयोग करें| छानें हुए तरल पदार्थ को बड़े मुँह वाले उपकरण से या झाड़ू के द्वारा छिड़कें| बिना छाना हुआ मटका खाद को पानी के नाला में डालकर भी उपयोग में लाया जा सकता है|
कार्य
मटका खाद पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देता है|
च)औषधीय मटका खाद
आवश्यक सामग्री
क) 1 किली गाय का गोबर
ख) 2 लीटर गौ मूत्र
ग) 1 किलो नीम की पत्ती
घ) 1 किलो करंज की पत्ती
ङ) 1 किलो कैलोट्रोपिस की पत्ती
च) 50’ ग्राम गुड़
छ) मिट्टी का बर्तन
बनाने की विधि:-
तीनों प्रकार की पत्तियों को पीसकर या काटकर गाय के गोबर तथा मूत्र के मिश्रण में मिलाएँ| फिर उसमें गुड़ डालें| गुड़ डालने के बाद पूरे मिश्रण को अच्छी तरह मिला लें| बर्तन को पौलीथीन से ढँक कर वायुरोधक बना लें तथा छाया वाले स्थान में रखें| मिश्रण को 2-3 दिनों के अन्तराल पर एक लकड़ी से चला दें| 10-15 दिनों के बाद यह मिश्रण उपयोग के लिए तैयार हो जाता है| इसके उपयोग की विधि मटका खाद के जैसी ही है| मटका खाद के जैसे – औषधीय मटका खाद को फसल पर या तो चौड़े मुँह वाले छिड़कने वाले उपकरण के द्वारा छिड़क कर या झाड़ू के द्वारा छिड़क कर उपयोग में लाया जाता है|
कार्य
औषधीय मटका खाद के विविध कार्य हैं| यह लगभग सभी प्रकार के पौधों की बीमारियों तथा कीटों के खिलाफ कारगर हैं| इसे बीज उपचार में भी उपयोग में लाया जा सकता है तथा पौधों की वृद्धि में भी सहायक होता है|
छ)ब्रह्मास्त्र
आवश्यक सामग्री
क) आधा लीटर नीम का तेल
ख) आधा लीटर पानी में मिलाया हुआ तम्बाकू पत्ती
ग) 100 ग्राम हींग
घ) 6 लीटर गौ मूत्र
ङ) 500 ग्राम पीसा हुआ लहसुन
च) 250 ग्राम पीसा हुआ अदरक तथा 250 ग्राम पीसा हुआ मिर्च
बनाने की विधि:-
आधा लीटर नीम का तेल, आधा लीटर पानी में भिंगोया हुआ तम्बाकू पत्ती तथा 10 ग्राम हींग को 6 लीटर गौमूत्र में अच्छी तरह मिलाएँ| इस मिश्रण के साथ 500 ग्राम पीसा हुआ लहसुन, 250 ग्राम पीसा हुआ अदरक तथा 250 ग्राम पीसा हुआ मिर्च को मिलाएँ, इसको 6 घंटे के लिए बिना छेड़छाड़ के रख दें| एक अन्य बर्तन में 100 लीटर पानी में 50 ग्राम साबुन पाउडर (चूर्ण) डालें| अब पहले बनाए गए मिश्रण को साबुन पानी में मिलाएँ और इस प्रकार से ब्रह्मस्त्र तैयार हो जाता है| यह ब्रह्मस्त्र फसल में रोपाई के 15 और 40 के उपरांत उपयोग किया जाता है|
कार्य
यह लगभग सभी प्रकार की फसलों के विभिन्न प्रकार के रोगों तथा कीड़ों के खिलाफ अचूक कारगर हथियार के रूप में कार्य करता है|
ज)उर्वरक ((अजोस्पइरिलम, फास्फोबैक्टीरियम, राइजोबियम/अजोटोबैक्टर)
राइजोबियम तथा अजोटोबैक्टर युक्त जैव उर्वरकों का उपयोग काफी लम्बे समय से फसल उत्पादन में किया जाता है| चूँकि ये सूक्ष्मजीवी वातावरण के नाइट्रोजन को मिट्टी में स्थापित करते हैं इसलिए कुछ हद तक रासायनिक के स्थान पर इन जैव-उर्वरकों का उपयोग किया जाता है है| जहाँ ये फसल उत्पादन को बढ़ाते हैं वहीँ उसकी लागत को कम करते हैं|
झ)अजोला एवं हरा नीला शैवाल
पानी की शैवालों (अजोला प्रजाति) के साथ एक सहजीवी साहचर्य कर नील हरे शैवाल वातावरण के नमी को मिट्टी में स्थापित करते हैं| नीले-हरे शैवालों में नोस्टोक एवं एनाबेना प्रजाति ज्यादा लोकप्रिय है| नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्रति फसल (जैसे जमीन की धान) स्थापित करते हैं| ये इसीलिए निचली जमीन नाइट्रोजन स्थापन में शैवालों का सर्वोत्तम साहचर्य होता है|
सूक्ष्मजीव जो फास्फेट को घुलनशील बनाते हैं
मिट्टी जिनका PH उच्च क्षारीय होता है, उनमें उपजे पौधों को फोस्फेट उपलब्धता में परेशानी होती है| इससे उबरने के लिए फास्फेट घुलनशील बनाने वाले सूक्ष्मजीव उपयोगी होते हैं| ये सूक्ष्मजीव अघुलनशील बनने वाले अजैविक फास्फोरस को घुलनशील बनाते हैं| बैसिलस मेगाटेरियम, बैसिलस सरकुलन्स, सबटिलिस, स्यूडोमोनास स्ट्रेटा जैसे जीवाणु, फुफंद (रसपरगिलस, पेनिसीलियम, ट्राइकोडरमा) तथा खमीर सूक्ष्मजीव चट्टानों फोस्फेट तथा ट्राइ कैल्सियम फास्फेट को अपघटित कर उनको घुलनशील स्वरुप प्रदान करते हैं|
ये सूक्ष्मजीव एक प्रकार का फुफंदनाशक हैं तथा पोधों की वृद्धि बढ़ाने हेतु तत्वों को उत्पादित भी करते हैं| लेकिन सूक्ष्मजीवों को कार्यक्षमता कार्बन स्रोत की उपलब्धता, फास्फोरस की मात्रा, चट्टानों में उपलब्ध फास्फेट के आकार, तापमान तथा नमी जैसे घटकों पर निर्भर करती हैं| जिन किसानों के जमीन क्षारीय है उनके लिए ये एक वरदान हैं|
ट)पौधों की सुरक्षा
क) लहसून,तम्बाकू और मिर्च मिक्स
आवश्यक सामग्री
क) 250 ग्राम पीसा हुआ लहसुन
ख) 250 ग्राम पीसा हुआ तम्बाकू
ग) 250 ग्राम सूखा मिर्च पाउडर (चूर्ण)
घ) 1.5 लीटर नीम का तेल
ङ) साबुन पाउडर
च) ढंका हुआ बर्त्तन या प्लास्टिक की बाल्टी
बनाने की विधि:-
शीशे के बर्त्तन या प्लास्टिक की बाल्टी में 1.5 लीटर नीम का तेल लें| पीसा हुआ लहसुन, पीसा हुआ तम्बाकू, सूखा मिर्च पाउडर बनाकर 3 दिनों के लिए रखें| 3 दिनों में यह मिश्रण तैयार हो जाता हैं| इस मिश्रण को अच्छी तरह मिलाकर छान लें| यह मिश्रण सुबह के समय में 15 दिनों के अंतराल पर फसलों पर छिड़का जाता है|
कार्य
यह पत्ती काटने वाला कीड़ा, चूसने वाले कीड़ों तथा छिद्रक तथा कुछ जीवाणु वाले और फुफंद वाले रोगों के खिलाफ प्रभावी है|
ख) सीताफल, नीम, मिर्च रस
आवश्यक सामग्री
क) सीताफल का पत्ता -2 किलोग्राम
ख) सूखी मिर्च -500 ग्राम
ग) नीम का फल- 1 किलोग्राम
घ) Emulsifier- 250 मिली लीटर
बनाने की विधि:-
2 किलोग्राम सीताफल की पत्तियाँ लें और अच्छी तरह पीस लें| इसमें 500 मिली लीटर पानी डालें, इसे अच्छी तरह मिलाएँ तथा रस को छान लें छाने हुए तरल पदार्थ को अलग रख दें|
500 ग्राम सूखी मिर्च चूर्ण लें और इसे पानी में डूबाकर रात भर रखें| अगले दिन इसे पीसें तथा मिश्रण को छानकर रस निकाल लें|
1किलोग्राम कुचले हुए नीम का फल लें तथा इसे 2 लीटर पानी में डालकर रात भर रखें| अगले दिन रस को छान लें|
तीनों छाने हुए तरह पदार्थों को 50-60 लीटर पानी में मिलाएँ| छिड़कने से पहले इसमें 250 मिली लीटर Emulsifier डालें| इसे फिर से छान लें और छिड़कें|
कार्य
यह Aphids, Brown Plant hoppers झींगुर, Green Leaf hoppers आदि के खिलाफ प्रभावी है|
ग) चूहों की रोकथाम
चूहों की रोकथाम हेतु खेतों के मेढ़ों में पपीता के टुकड़ों को फैलाया जाता है| पपीता में ऐसे रासायनिक पदार्थ होते हैं जो चूहों के मुँह की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाते हैं (एक एकड़ के लिए तीन पपीता के टुकड़ों की आवश्यकता होती है)
कुतरने वाले जानवरों को प्रतिविम्बित करने के लिए, चूहे पीड़ित क्षेत्रों में ग्लिरिसिडीया के फूलों की बिखेर दिया जाता है| ऐसा माना जाता है कि जब कुतरने वाले जानवर फूलों को स्पर्श करते हैं यह कुतरने हैं कुछ समय के लिए उन्हें लकवा मार देता और वे फसलों को कोई नुकसान पहुँचाने में सक्षम नहीं रहते हैं| इस प्रकार पाए जाने वाले स्थानीय निवेशों के द्वारा ये प्रबंधित होते हैं|
नीम/करंज की टहनियों को खेत में निश्चित अंतराल में रखें| यह उड़ने वाले पक्षियों के बैठने के लिए तथा खेत के विभिन्न प्रकार के कीटों को खाने के लिए के मंच होगा| रात में उल्लू इस पर बैठेंगे तथा चूहों को नियंत्रित करेंगे|
घ)धान में BPH का नियंत्रण
प्रकाश से आर्कर्षित होने वाले कीड़े
कर्नाटका के एक प्रगतिशील कार्बनिक किसान के द्वारा Brown Plant hoppers से धान को बचाने की एक नई विधि विकसित की गई| रात के समय दो टार्च लाइटों को आकृति में धान के खेत के बीच में जलाया टार्च पकड़ने वाला आदमी खेत के बीच से किनारों की ओर चलता hagyहै| कीड़े रौशनी के द्वारा आकर्षित होते हैं और उसका पीछा करने की कोशिश करते हैं| इस प्रकार वे धान के खेत छोड़ देते हैं| यह प्रक्रिया लगातार दो से तीन दिनों तक दोहराई जाती और BPH की संख्या घट जाती हैं|
Bund Fire
खेत के Bund (मेड़) में शाम में आग लगाकर भी Brown Plant hoppers तथा Green Leaf hoppers को नियंत्रण किया जा सकता है| ये कीड़े रौशनी की ओर आकर्षित होते हैं और आग में जल जाते हैं|
ड. नील लिपटे यूरिया के काम करने का तरीका
जब सिर्फ यूरिया खेतों में डाला जाता है, तो यूरिया में मौजूदा नाइट्रोजन (एमाइड) तेजी से अमोनिकल नाइट्रोजन, फिर नाइट्राइट और नाइट्रेट में तब्दील हो जाता है\ नाइट्रोजन का यह स्वरुप ( नाइट्रेट) पौधों द्वारा अवशोषित होने के साथ ही तेजी से मिट्टी से नष्ट (समाप्त) हो जाता है (बारिश से धुलकर, अन्य स्वरूपों में बदलकर) लेकिन जब यूरिया को नीम की टिकिया से लपेट कर खेतों में डाला जाता है तो नीम में मौजूदा तत्व (ट्राइटरपिंस) मिट्टी में मौजूदा नाइट्रीकरण बैक्टरिया (जीवाणु) की गतिविधियों को कम कर देता है, फलस्वरूप अमोनिकल नाइट्रोजन का नाइट्रेट में तब्दील होने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है| इस प्रकार लम्बे समय तक (धीरे-धीरे को लगातार नाइट्रोजन मिलता रहता है|
1) आसान इस्तेमाल एवं किफायती
2) पौधों को लबे समय तक लगातार तथा धीरे-धीरे नाइट्रोजन की उपलब्धता
3) यूरिया से नाइट्रोजन का ह्रास कम होना
4) मृदा जनित कीड़ों/रोगजनक से पौधों की रक्षा
इस्तेमाल का तरीका
1) एक साफ सतह पर 50 किग्रा. यूरिया छाँव में फैला लें|
2) 250 ग्राम नीम इसमें मिला लें |
3) नील लिपटे यूरिया को हाथ से बराबर रगड़ते रहें ताकि यूरिया अच्छे से नीम में लिपटता जाये
4) इस मिश्रण को तैयार होने तक, सूखने के लिए छोड़ दें|
च)गोमूत्र में तम्बाकू तथा अन्य पौधों का काढ़ा
1) 1/२ किग्रा, लहसून, ½ किग्रा. मिर्च 250 ग्राम अदरक को पानी की पर्याप्त मात्रा में मिलाकर पेस्ट बना लें |
2) 250मिली. नीम तेल, 250 मिली तम्बाकू अर्क तथा 10 मिली, हींग अर्क लें|
3) सभी मिश्रण/ अर्क को 5-6 गोमूत्र (72 घंटे पुरानी) में मिला लें और फिर इसमें 50-60 लीटर पानी मिला दें|
4) छिड़काव करने से पूर्व इसमें 4 मिली. प्रति लीटर के दर से साबुन का घोल मिला लें |
क. गैर आवर्ती व्यय
सामग्री
स्प्रेयर
वीडर
थ्रेसर
ख. आवर्ती व्यय
इनपुट सामग्री
3 किलोग्राम बीज
240 सीएफटी गोबर खाद
10 किलोग्राम ब्लू ग्रीन शैवाल
घर में बना हुआ नीम का कीटनाशक
ग. प्रति सीजन खर्च
2 मानव दिवस नर्सरी उगाने के लिए
5 मानव दिवस खेत तैय्रार करने के लिए
8 मानव दिवस बिचड़ों के प्रतिरोपण के लिए
6 मानव दिवस निराई और गुड़ाई के लिए
5 मानव दिवस खाद तथा कीटनाशक के प्रयोग के लिए
पानी तथा सिंचाई प्रबंधन (अनुमानित)
16 मानव दिवस फसल कटाई के लिए
12 झड़ाई, साफ-सफाई एवं भण्डारण
पशु संसाधन
जुताई
गुथाई
ढुलाई(फसल कटाई के बाद)
मशीनरी
वीडर मशीन
स्प्रेयर
फसल कटाई मशीन
थ्रेसिंग मशीन
उपज की ढुलाई के लिए
जल एवं सिंचाई की लागत
सामग्री का अवमूल्यन
घ) आय प्रति वर्ष
मद
धान 16 क्विंटल
पुआल 28 क्विंटल
राजदेव भुइयाँ 35 साल का एक सिमांत किसान है जो अपने सात सदस्यीय परिवार के साथ बरवाडीह पंचायत, जिला लातेहार के सेनरी गाँव में रहता है| उनके सात सदस्यीय परिवार में उसकी पत्नी, तीन बेटे तथा दो बेटियाँ हैं| उसने अपनी बड़ी बेटी की शादी 16 साल की उम्र में ही कर दी| वह अपने परिवार का एकमात्र कमाने वाला सदस्य है|
लातेहार जिले का यह क्षेत्र मुख्यतः सूखा प्रभावित रहता है| किसानों के पास बहुत ही सिमित सिंचाई के साधन हैं, जिससे कृषि पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है और किसान इसी पर अपना गुजारा करने के लिए विवश हैं|
राजदेव भुइयाँ के पास कुल 3.5 एकड़ जमीन है, जिसमें सिर्फ दो एकड़ ही खेती योग्य है| वे पिछले साल तक इस जमीन पर परम्परिक विधि से धान की खेती कर रहे थे| राजदेव के अनुसार जितना उत्पादन हो पाता था उससे उनके परिवार की पांच से छः माह की जरूरतें ही पूरी हो पाती थीं| बाकी समय में उन्हें गाँव तथा आस-पास के क्षेत्र में मजदूरी कर गुजारा करना पड़ता था |
बहुत प्रयास के बाबजूद राजदेव को साल भर में मनरेगा सहित 100 से 120 दिन की ही मजदूरी का काम मिल पाता था| इन परिस्थितियों में जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए सम्मानजनक जीवन जीना उनके लिए एक चुनौती थी|
2011 की पहली तिमाही के दरम्यान राजदेव को इस क्षेत्र में चलाये जा रहे व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण कार्य्रकम (VET) की जानकारी मिली जिसे बिहार प्रदेश युवा वर्ल्ड सोलिडैरिटी (सी.डबल्यू.एस.) के द्वारा संयुक्त रूप से चलाया जा रहा है| इस कार्यक्रम के अंतर्गत खेती वनोपज, पशुपालन आदि विषयों पर ग्रामीण युवाओं के लिए प्रशिक्षण का प्रावधान है|
राजदेव ने बि.पी.आई.पी. द्वारा आयोजित एक बैठक में हिस्सा लिया जहाँ से उन्हें इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के प्रावधानों तथा प्रशिक्षुओं की योग्यता सम्बन्धित बातों की विस्तार से जानकारी प्राप्त हुई| राजदेव ने वेट VET प्रशिक्षण के अंतर्गत “श्री विधि” से धान की खेती के प्रशिक्षण के लिए आवेदन दिया और उनका चयन हो गया|
राजदेव ने “श्री विधि” से धान की खेती पर दस दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लिया| जिसमें सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों तरह से प्रशिक्षण का प्रावधान था|
प्रशिक्षण में निम्नलिखित विषयों को सम्मिलित किया गया था:-
1.उप्युर्युक्त भूमि का चयन 2.भूमि की तैयारी 3. बीज का चयन तथा उपचार 4. नर्सरी की तैयारी और बीज की बुवाई 5. धान की खेत की तैयारी 6. प्रतिरोपण (बिचड़ों को नर्सरी से धान के खेत में लगाना) 7. निराई (वीडर मशीन का प्रयोग) 8. सिंचाई तथा जल प्रबंधन 9. कीट नियंत्रण तथा प्रबंधन 10. फसल की कटाई
राजदेव ने प्रशिक्षित होकर 1 एकड़ जमीन पर“श्री विधि” से धान की खेती करने का निश्चय किया| उन्होंने प्रशिक्षण में बताई गई सारी बातों का सही प्रयोग किया, जिससे खेती की लागत में कमी आयी| पारम्परिक विधि से धान की खेती में उन्हें प्रति एकड़ 30-35 किलो बीज की आवश्यकता होती थी| जबकि “श्री विधि” के लिए प्रति एकड़ केवल 3 किलो बीज की आवश्यकता होती है| इस प्रकार श्रम तथा अन्य लागतों में भी कमी आई| “श्री विधि” से लागत में कमी के साथ-साथ उत्पादन की मात्रा में दुगुने से भी ज्यादा की वृद्धि हुई|
प्रशिक्षण ले लेकर कटाई तक की इस पूरी प्रक्रिया में बि.पी.आई.पी. संस्था ने सी. डब्ल्यु.एस. के मार्गदर्शन में सभी प्रशिक्षुओं के साथ-साथ सही “श्री विधि” अपनाने वाले किसानों के साथ काम किया| उन्हें खेती के सभी चरणों में निरंतर सहयोग देता रहा|
राजदेव भुइयाँ के अनुसार इस वर्ष धान की खेती से उन्हें 20 क्विंटल धान का उत्पादन हुआ जो कि उनके साल भर के चावल की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त है| यह उनके धान के खेती के सम्बन्ध में उनके बढ़े हुए ज्ञान के साथ-साथ अच्छी बारिश की वजह से ही संभव हो पाया|
स्रोत: जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची|
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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