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झारखण्ड राज्य में मिट्टी के पोषक तत्व एवं उसका प्रबंधन

झारखण्ड राज्य में मिट्टी के पोषक तत्व एवं उसका प्रबंधन

  1. भूमिका
  2. मिट्टी जाँच की आवश्यकता
  3. जैविक, जीवाणु एवं रासायनिक उर्वरकों की विशेषताऐं एवं उपयोग
  4. जैविक  खाद  एवं इसके  प्रकार
  5. जैविक  खादों  के उपयोग  का फसलोत्पदान  में महत्व
  6. रासायनिक    खादों का    समुचित      उपयोग
  7. जैविक       खाद   बनाने के    वैज्ञानिक     तरीके एवं    उपयोगिता
  8. जैविक  खादों  का मृदा  गुणों  पर प्रभाव
  9. जीवाणु  खाद मिट्टी के लिये वरदान
  10. हरी खाद का महत्व एवं उपयोग
  11. वर्मी   कम्पोस्ट     (केंचुआ      खाद) बनाने की    विधि एवं प्रयोग
  12. राइजोबियम   जीवाणु       कल्चर       की    उपयोगिता
  13. सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के लक्षण एवं प्रयोग विधि
  14. नील हरित शैवाल एवं उसकी  उपयोगिता
  15. फसल उत्पादन  के लिये संतुलित  पोषक तत्व एवं उनका प्रबंधन
  16. संतुलित पोषक तत्व का प्रबंधन
  17. मिट्टी में नमी कायम रखने के आधुनिक तरीके
  18. फसलों पर खाद एवं उर्वरकों का प्रभाव
  19. दलहनी  फसलों  में जीवाणु खाद के प्रयोग  से लाभ

भूमिका

फसलों की बढ़वार एवं उत्पादन मिट्‌टी के गुण एवं उपजाऊपन  पर निर्भर करता है। निरंतर अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए अपने खेतों की मिट्टी की उर्वरता का ज्ञान होना आवश्यक है। यदि मिट्टी में पोषक तत्व उचित मात्रा एवं सुलभ अवस्था में उपलब्ध हो तो, पौधे इन्हे आसानी से ग्रहण करते हैं। पोषक तत्वों की कमी होने पर बाहर से उनकी पूर्ति की जाती है। इस पूर्ति के लिए खाद या उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। रासायनिक  उर्वरकों की उचित मात्रा का, उचित समय पर एवं उचित विधि द्वारा प्रयोग करते हुए अधिकतम  उपज प्राप्त की जा सके, यही मिट्टी जाँच का उद्देश्य है।मिट्टी जाँच की प्रक्रिया को अपनाकर  किसान भाई अपने खेतों से भरपूर उपज प्राप्त कर सकते हैं। यह अधिकतम  उपज प्राप्त करने का सबसे सरल एवं सस्ता जरिया है।

soil-conservation

मिट्टी जाँच की आवश्यकता

भूमि के गुण एवं दोषों की जानकारी  के साथ उन्हे दूर करने के उपाय की जानकारी  मिलती है।

खेतों के उपजाऊपन,  उनकी उर्वरा शक्ति बराबर बनाये रखने के लिए खेत की मिट्टी के दोषो और विकारों से बचाने के लिए एवं भरपूर उपज पाने के लिए पहले मिट्टी परीक्षण करना आवश्यक है।

  1. भूमि विशेष में प्रति एकड़ /प्रति हैक्टर रासायनिक उर्वरकों की कितनी मात्रा, किस विधि से, किस-किस  समय प्रयोग की जाये, इसकी जानकारी मिलती है।
  2. रासायनिक उर्वरकों की बचत होती है।
  3. भरपूर उत्पादन प्राप्त होता है।

मिट्टी जाँच रिर्पोट में दी गई सिफारिशों का पालन करने पर भूमि में उपलब्ध पोषक तत्वों का संतुलन बना रहता है, जिससे उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है।

  1. मिट्टी जाँच के लिए मिट्टी का नमूना लेन की विधि

खेत की स्थिति (जैसे : उँची, नीची, ढलान) एवं मिट्टी की किस्म के अनुसार सर्वप्रथम खेत को कई भागों में बाँट लें। नमूना लेने से पहले जमीन से घास-फूस इत्यादि साफ कर लें। खुरपी या फावड़े से अंग्रेजी के वी आकार का गड्‌ढा खोदकर, किसी भी तरफ से 6 से 7 इंच गहराई तक की मिट्टी की समान मोटी (आधी इंच) की परत तराश (खुरच) कर मिट्टी निकालें। एक एकड़ के खेत से लगभग 8 -10 स्थानों से मिट्टी निकालना चाहिये। इस तरह एकत्रित मिट्टी को एक गमले में रखकर अच्छी तरह से मिलायें। इस मिट्टी को गोल या चौकोर रूप देकर चार भागों में बाँट कर, दो विपरीत दिशा के भाग निकालकर अलग करने का कार्य तब तक करना चाहिए, जब तक आपके पास आधी किलो मिट्टी शेष न रह जाय। मिट्टी यदि गीली हो तो उसे छाया में सुखाकर एवं पीस कर बारीक बना लें। मिट्टी किसी कपड़े या पोलीथीन की थैली में भरकर, सूचना-पत्र के साथ जिसमें कृषक का नाम, ग्राम, पोस्ट आफिस, विकास खण्ड या ब्लाँक का नाम, खेत का नाम या नंम्बर, प्रस्तावित फसल, नमूना एकत्रित करने का दिनांक लिखकर  बैग के साथ बाँध दें । इसके बाद इसे जाँच के लिए भेज दें।

मिट्टी के नमूने लेते समय ध्यान देने योग्य बात यह है कि :

1.  मेंड़ के बिल्कुल नजदीक से नमूना न लें।

2.  ऐसे स्थान जहाँ अधिकतर पानी भरा रहता हो, वहाँ से नमूना की मिट्टी न लें।

3.  जहाँ पर गोबर की खाद आदि डाली गई हो,वहाँ से नमूने की मिट्टी न लें ।

4.  छायादार वृक्षों के नीचे की मिट्टी का नमूना न लें।

5.  एकत्रित की गई मिट्टी का नमूना यदि गीला हो तो उसे छाया में ही सुखायें।

 

जैविक, जीवाणु एवं रासायनिक उर्वरकों की विशेषताऐं एवं उपयोग

जीवाणु खाद विशेष प्रकार के सूक्ष्म जीवाणुओं का संग्रह है जो मुख्य  रूप से वायुमंडलीय  नेत्रजन का स्थिरीकरण करते हैं, अनुपलब्ध फास्फेट को उपलब्ध करातें है तथा सेलूलोज एवं कार्बनिक पदार्थों को सड़ाने में मदद करते हैं। कुल मिलाकर ये जीवाणु खाद आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ा देते हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। जीवाणुओं की क्रियाकलाप  के आधार पर जीवाणु खाद को तीन वर्गो में बाँटा गया है :-

  • नेत्रजन स्थिरीकरण में भाग लेने वाले जीवाणु:

सहजीवी  जीवाणु - जैसे राइजोबियम
असहजीवी  जीवाणु - जैसे एजोटोबैक्टर,  एजोस्पेरिलम,  नील हरित शैवाल, एजोला आदि।

  • फास्फेट  उपलब्ध  कराने  वाले जीवाणु  : जैसे - फास्फोबैक्ट्रीन, स्यूडोमोनास  आदि।
  • सेलूलोज  अपघटनकारी  जीवाणु  : एसपरजिलस,  ट्राइकोडरमा।

 

अलग-अलग  फसलों के लिए जीवाणु खाद के प्रकार भी भिन्न-भिन्न होते हैं। जैसे :-दलहनी फसलों के बीजों का उपचार राइजोबियम जीवाणु के विभिन्न प्रजातियों से किया जाता है। इससे 90-110 कि0 गा्र0 नेत्रजन प्रति हेक्टर का स्थिरीकरण होता है। जो 200 - 250 कि0 गा्र0 यूरिया या 450 -550 कि0 ग्रा0 अमोनियम सल्फेट के बराबर होता है।

  1. कुछ अन्य फसलें जैसे - आलू, मक्का, गन्ना, गेहूँ आदि को एजोटोबैक्टर से बीजोपचार करने पर लगभग 30 कि0 गा्र0 नेत्रजन प्रति हे0 प्रति वर्ष का यौगिकीकरण  होता है।
  2. जल जमाव वाले धान के खेत में नीलहरित शैवाल अथवा अजोला नामक जीवाणु खाद के प्रयोग से 60-90 कि0 ग्रा0 नेत्रजन प्रति हे0 प्रति वर्ष का स्थीरीकरण  होता है।
  3. मक्का, धान, गेहूँ, उरद एवं बरसीम घास के खेतों में फास्फेट को धुलनशील  बनानेवाले जीवाणु (स्यूडोमोनस  बैसिलस) खाद के प्रयोग से इन फसलों की उपज में 20-25 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है।

 

जैविक  खाद  एवं इसके  प्रकार

जैविक खाद का अभिप्राय उन सभी कार्बनिक पदार्थो से है जो सड़ने या गलने के बाद जीवांश पदार्थ में बदल जाते हैं । इसमें मुख्यरूप  से पौधों के अवशेष, पशुशालाओं के बेकार पदार्थ, मानव तथा पशुओं के मलमूत्र, खल्ली एवं हरी खाद आदि आते हैं। इन खादों में पोषक तत्व पाए जाते हैं। जैविक खाद का प्रयोग किसान भाइयों द्वारा बहुत पहले से ही होता आ रहा है परंतु अच्छी किस्म की जैविक खाद बनाने के लिए उन्हे कछ आधुनिक तरीकों को अपनाना  होगा। विभिन्न प्रकार के जैविक खादों में पोषक तत्वों (मुख्यरूप  से नेत्रजन, स्फूर एवं पोटाश) की मात्रा भी अलग-अलग  होती है। रासायनिक  खाद की तुलना में इसमें पोषक तत्व कम मात्रा में पाया जाता है। कुछ प्रमुख जैविक खादों में मूलरूप से पाए जाने वाले पोषक तत्वों नेत्रजन, फास्फेट एवं पोटास की मात्रा इस प्रकार है:

 

पोषक  तत्व  (प्रतिशत  में)

क्रम.स.

जैविक  खाद

नेत्रजन

स्फूर

पोटास

 

1

 

गोबर की खाद

 

0.5

 

0.3

 

0.4

2

ग्रामीण कमपोस्ट

0.6

0.5

0.9

3

शहरी कमपोस्ट

1.5

1.0

1.5

4

अंडी की खल्ली

4.2

1.9

1.4

5

नीम की खल्ली

5.4

1.1

1.5

6

करंज की खल्ली

4.0

0.9

1.3

7

मूँगफली की खल्ली

7.0

1.3

1.5

8

सरसों की खल्ली

4.8

2.0

1.3

9

महुआ की खल्ली

2.5

0.8

1.8

10

शुष्क रक्त

10.1

1.2

0.7

11

हड्‌डी का चूरा

1.5

25.0

--

12

मछली की खाद

4.0

3.0

0.3

13

हरी खाद

0.36

0.53

-

 

जैविक  खादों  के उपयोग  का फसलोत्पदान  में महत्व

 

जैविक खादों के निरंतर उपयोग से मिट्टी की उर्वराशक्ति कायम रहती है जिससे स्थाई रूप से उपज वृद्धि संभव है। मिट्टी की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुण फसलोत्पादन  के अनुरूप बना रहता है तथा इसमें सुधार होता है। इसके महत्व को तीन वर्गों में बाँटा गया है :-

1. मिट्टी के भौतिक दशा पर प्रभाव

2. भूमि के रासायनिक दशा पर प्रभाव

3. भूमि की जैविक दशा पर प्रभाव रासायनिक खाद

रासायनिक खादों से हम सब भली भाँति परिचित हैं । फसल की पैदावार बढ़ाने और खेती से अधिक लाभ पाने के लिए उर्वरक एक प्रभावकारी माध्यम है । अतः इसके सही उपयोग की आवश्यकता है । प्रायः किसान भाई यूरिया,एस.एस.पी.  या डी.ए.पी. डालते हैं, जिससे मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की उर्वराशक्ति हमेंशा बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि उर्वरकों के प्रयोग के पहले खेत की मिट्टी जाँच अवश्य करा लें    तथा अनुशंसित खादों का प्रयोग करें । मिश्रित उर्वरकों के साथ-साथ बोरेक्स, सल्फर आदि के प्रयोग से अधिक लाभ मिलता है ।

रासायनिक खादों का समुचित उपयोग आजकल जैविक खाद, जीवाणु खाद तथा रासायनिक खाद तीनों का एक निश्चित अनुपात में डालने की अनुशंसा की जाती है । जिसे ''सामेंकित पोषक प्रबंधन'' के नाम से जाना जाता है । इसे भी मिट्टी जाँच के आधार पर तथा खेत में लीए जाने वाली फसलों के आधार पर निर्धारित करते है । हमारे झारखंड प्रदेश में लगभग 90% भूमि अम्लीय है में डालने हेतु कुछ महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बातें इस तरह है जैसे :-

 

  1. फसल बुआई के 15-20 दिन पहले हल के पीछे गड्‌ढ़ों में 2.5 -3 क्विंटल चूना प्रति हे0 प्रति वर्ष अवश्य मिलायें। इससे मिट्टी की अम्लीयता कम होती है एवं पोषक तत्वों, का अधिक उपयोग हो पाता है ।
  2. दलहनी फसलों में फसल के लिए अनुशंसित जीवाणु खाद से बीजोपचार अवश्य करें, इससे नेत्रजनीय खाद की मात्रा आधी से कम डालने पर भी अच्छी फसल हो जाती है साथ ही मिट्टी की उर्वराशक्ति भी बनी रहती है|
  3. प्राय : किसान भाई यूरिया या एस.एस.पी. का ही प्रयोग करते है ऐसा करने से मिट्टी के स्वास्थ पर बुरा असर पड़ता है । वे हमेशा नेत्रजन, फास्फेट एवं पोटास के लिए उपयुक्त खाद डालें। यूरिया के बदले अगर डी0 ए0 पी0 डाले तो अधिक लाभ मिलेगा।
  4. जल जमाव वाले धान के खेत में नील हरित शैवाल - एजोला का प्रयोग करें एवं नेत्रजनीय खाद की आधी ही मात्रा डालें इससे उन्हें पूरी उपज मिल जाएगी।
  5. जहाँ तक संभव हो किसान भाइयो को चाहिए कि खेतों में किसी न किसी तरह के जैविक खाद जैसे-गोबर का खाद, कम्पोस्ट, खल्ली या हरी खाद आदि प्रतिवर्ष डालते रहें इससे खेत की उर्वरा शक्ति बनी होती है। फसल उत्पादन के लिए मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है ।

झारखण्ड राज्य में एकमात्र कृषि विश्वविद्यालय  (बी0ए0यू0, काँके) में फसलों के लिए उनके अनुरूप जीवाणु खाद बनाए जाते है जो काफी सस्ते दर (10-15 रू प्रति पैकेट) पर फसलों के बुआई से पहले उपलब्ध रहता है। इन पैकेटों पर उस जीवाणु खाद के उपयोग के तरीके भी छपे होते हैं । जिससे किसान भाई आसानी से उपयोग में ला सके। जरूरत है आगे बढ़कर इस उन्नत तकनीकों से फायदा उठाने की।

 

रासायनिक    खादों का    समुचित      उपयोग

 

आजकल जैविक खाद, जीवाणु खाद तथा रासायनिक खाद तीनों का एक निश्चित अनुपात में डालने की अनुशंसा की जाती है । जिसे ''सामेकित पोषक प्रबंधन'' के नाम से जाना जाता है । इसे भी मिट्टी जाँच के आधार पर तथा खेत में लीए जाने वाली फसलों के आधार पर निर्धारित करते है । हमारे झारखंड प्रदेश में लगभग 90% भूमि अम्लीय है| इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए भी खादों का प्रयोग करते है । उर्वरकों को खेतों में डालने हेतु कुछ महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बातें इस तरह है जैसे :-

फसल बुआई के 15-20 दिन पहले हल के पीछे गड्‌ढ़ों में 2.5 -3 क्विंटल चूना प्रति हे0 प्रति वर्ष अवश्य मिलायें। इससे मिट्टी की अम्लीयता कम होती है एवं पोषक तत्वों, का अधिक उपयोग हो पाता है ।

  1. दलहनी फसलों में फसल के लिए अनुशंसित जीवाणु खाद से बीजोपचार अवश्य करें, इससे नेत्रजनीय खाद की मात्रा आधी से कम डालने पर भी अच्छी फसल हो जाती है साथ ही मिट्टी की उर्वराशक्ति भी बनी रहती है।

 

जैविक       खाद   बनाने के    वैज्ञानिक     तरीके एवं    उपयोगिता

 

जैविक खादों के प्रयोग से उर्वरा शक्ति का संरक्षण तथा पोषक तत्वों पूर्ति होती है। मृदा को स्वस्थ्य रखने में जीवांश पदार्थ का महत्वपूर्ण योगदान है। यह मिट्टी के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में सुधार लाकर मिट्टी के स्वस्थ्य तथा पर्यावरण गुणवत्ता में सुधार लाता हैं। खादो के प्रयोग से मिट्टी में पोषक तत्वों को धारण एवं पूर्ति करने की क्षमता बढ़ जाती है। इसलिए इसे मिट्टी का प्राण भी कहते हैं|

जैविक खाद एक बहुत ही उत्तम खाद मानी जाती है । सही ढ़ग से बनायी हुई जैविक खाद में न केवल नेत्रजन, स्फूर एवं पोटाश पोषक तत्व वर्त्तमान रहते हैं बल्कि इसमें सभी सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं। इसमें बहुत से सूक्ष्मजीवाणु पाये जाते हैं, जो मिट्टी के कणों को भुरभुरा करने एवं मिट्टी में वर्त्तमान अप्राप्त तत्वों को पौधों को प्राप्त होने वाली अवस्था में लाते हैं।

जैविक खाद के लिए एक गड्‌ढ़ा बनाना होगा । गडढ़े का आकार : 3 मीटर लम्बा, 1 मीटर चौड़ा और 1 मीटर गहरा हों । कम्पोस्ट बनाने की सामग्री  के रूप खर - पतवार, कूडा-कचरा,  फसलों के डंठल, पशुओं के मलमूत्र एवं इससे सने हुए पुआल, जलकुम्भी, थेथर, पुटूस, चकोर की पत्तियाँ इत्यादि इक्ट्‌ठा करें ।

1.  प्रत्येक गड्‌ढ़े को तीन भागें में बाँटकर जो भी सामग्री उपलब्ध हो उसे एक पतली परत के रूप में (15 से.मी.) मोटी अर्थात छः इंच बिछायें ।

2.  गोबर का पतला घोल (5%) बनाकर एक सतह पर डालें तथा लगभग 200 ग्राम लकड़ी का राख बिछायें।

3.  प्रत्येक सतह पर 25 ग्राम यूरिया डाल दें। यूरिया के अभाव में दलहनी फसलों का भूसा भी प्रयोग किया जा सकता है।

4.  गडढ़े को उसी प्रकार तब तक भरते रहें जबतक उसकी उँचाई जमीन की सतह से 30 से0 मी0 उँची न हो जाय।

5.  बारीक मिट्टी की पतली परत (5 से0मी0) से गडढ़े को ढक दे तथा गोबर से लिपाई कर बन्द कर दें।

6.  इस प्रकार प्रत्येक भाग को क्रमशः भरें। इस विधि से लगभग 5 - 6 महीने में कम्पोस्ट तैयार हो जायगा। इस विधि से कम्पोस्ट बनाने पर उसमें पोषक तत्वों की मात्रा देहाती विधि (ढेर बनाकर या सीधे गड्‌ढे में डालकर बनायी गयी विधि) की तुलना में अधिक पायी जाती है।

इनरिच्ड  कम्पोस्ट  बनाने  की विधि

1.  बतायी गये विधी के अनुसार 1x1x1 मीटर गड़ढा खोदकर पूरे गड्ढ़े को उपलब्ध सामग्री से एक साथ भर दे तथा 80 -100 प्रतिशत नमी (पानी मिलाकर) बनाये रखें।

2.  2.5 किलोग्राम प्रतिटन अवशिष्ट में यूरिया के रूप में तथा 1 प्रतिशत स्फुर

या प्रति क्विटल 5 किलो की दर से मसूरी, पुरूलिया या उदयपुर राँक फास्फेट के  रूप में डालें।

3.  15 दिनों के बाद प्रथम पलटाई करते समय फफूंद पेनिसिलियम, एसपरजीलस

या ट्राइकूरस 500 ग्राम जैव भार (लाइव वेट) प्रतिटन की दर से डालें। ये कल्चर मृदा सूक्ष्म जीवाणु शाखा, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय  से अग्रिम आदेश देकर प्राप्त किया जा सकता है। कृषि महाविद्यालय,  पूणे में यह पैकेट के रूप में उपलब्ध है। वहाँ से भी इसे मंगवाया जा सकता है। कल्चर के अभाव में किसान भाई 10 प्रतिशत गोबर के घोल का भी छिड़काव कर सकते हैं।

4.  30 दिनों के बाद अर्थात दूसरी पलटाई करते समय फस्फोवैक्ट्रिन  एवं एजोटोबैक्टर  कल्चर डालें।

5.  अवशिष्ट की पलटाई 15, 30 एवं 45 दिनों के अन्तराल पर करें। साथ ही आवश्यकतानुसार नमी बनाये रखने के लिये पलटाई के समय पानी मिलावें।

6.  इस विधि से 3-4 महीने में खाद तैयार हो जाएगी। फास्फोकम्पोस्ट  तैयार  करने  की विधि फास्फोकम्पोस्ट  तैयार करने का तरीका अत्यन्त आसान है तथा जैविक खाद बनाने की उन्नत विधि अथवा इनरिच्ड कॉमपोस्ट बनाने की विधि के समान है।

 

गड्ढ़े  का आकार

2-4 मी0 लम्बा, 1 मी0 चौड़ा और 1 मी0 गहरा आवश्यकतानुसार एक या एक से अधिक गड्‌ढें ।

सामग्री :

कूड़ा-कचरा,  खरपतवार,  फसलों के अवशेष, जलकुम्भी,  थेथर, पुटुश, करंज की पत्तियाँ अथवा अन्य जंगली पौधों की पत्तियाँ, सड़ने वाले ठोस अवशिष्ट, धान का पुआल, गन्ने की पत्तियाँ, मडुआ या मकई के डण्ठल इत्यादि सामग्रियाँ इस अनुपात में सुखे वजन के मुताबिक व्यवहार करना चाहिएः-

  • कार्बनिक     कचरा गोबर मिट्टी कम्पोस्ट

 

8 :     1     :     0.5   :     0.5 उदाहरण के लिए 1 टन (1000 किलो ग्राम) कुल पदार्थ (सुखे वजन के अनुसार) हेतु 800 किलो ग्राम जैविक पदार्थ 100 किलोग्राम सुखा गोबर, 50 किलोग्राम उपजाऊ मिट्टी और 50 किलोग्राम कम्पोस्ट का प्रयोग करना चाहिए।

  • उपलब्ध सामग्री  से पूरे गड्‌ढे को एक ही साथ भरें तथा 80 -100 प्रतिशत

नमी (पानी मिलाकर) बनाये रखें।

  • 2.5 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रतिटन, अवशिष्ट में युरिया के रूप में तथा 12.5 या 25 किलोग्राम रॉक फस्फेट डालें।
  • गोबर, मिट्टी, कॉम्पोस्ट एवं रॉक फास्फेट एवं युरिया को एक ड्रम में डालकर 80 -100 लीटर पानी में घोल बना लें। इस घोल को गड्‌ढ़े में 15-20 से0मी0 अवशिष्ट का परत बनाकर परत-दर परत उस पर छिड़काव करें।
  • इस विधि से गड़ढे को भरकर ऊपर से प्लास्टिक कवर डालकर मिट्टी से ढक दें।
  • किसान कच्चे गडढ़े बनाकर चारों ओर प्लाटिक डालकर या पक्के गडढे बनाकर खाद बना सकते हैं।
  • गडढे को इसी प्रकार तबतक भरते रहें, जबतक इसकी उँचाई जमीन की सतह से 30 से0मी0 उँची न हो जाय। बरीक मिट्टी की पतली परत (5 से0 मी0) से गडढे को ढक दें तथा गोबर से लिपाई कर बन्द कर दें।
  • अवशिष्ट की पलटाई 15, 30, 45 दिनों के अन्तराल पर करें। आवश्यकतानुसार

नमी बनाये रखने के लिए पानी मिलायें।

  • 3-4 महीने में उत्तम कोटी की खाद तैयार हो जाती है तथा सुखे वजन के अनुसार इसका प्रयोग फसलों की बोआई के समय सुपर फास्फेट की जगह कर सकते हैं।

फास्फोकम्पोस्ट  में 3 -7 प्रतिशत कुल फास्फोरस होता है। 12.5 किलो रॉकफास्फेट  से बनाने      पर सूखा 2.5 टन तथा गीला 5.0 टन, 25 किलो रॉकफास्फेट द्वारा बनाने पर सुखा 1.5 टन तथा गीला 3.0 टन का प्रयोग करें तो 60 प्रतिशत स्फुर सिंगल सुपर फास्फेट के बराबर विभिन्न फसलों मक्का, गेहुँ, मुँगफली, मडुआ की फसल उगायी जा सकता है।

 

जैविक  खादों  का मृदा  गुणों  पर प्रभाव

 

जैविक खादों का मृदा स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यह मृदा के भौतिक, रासायनिक  तथा जैविक गुणों को प्रभावित करती है।

 

(क) भौतिक गुणों पर प्रभाव :

 

(1)   भारी अथवा चिकनी मृदा तथा रेतीली मृदा की संरचना सुधर जाती है।

 

(2)   मृदा में वायु संचार बढ़ता है।

 

(3)   मृदा में जल धारण या जल सोखने की क्षमता बढ़ती है ।

 

(4)   मृदा के कण एक दूसरे से चिपकते है अतः मृदा कटाव भी कम होता है।

 

(5)   मृदा में ताप का स्तर सुधारता है।

 

(6)   पौधों की जड़ों का विकास अच्छा होता है।

 

(ख) मृदा के रासायनिक गुणों पर प्रभाव :

 

(1)   पौधों को पोषक तत्व अधिक मात्रा में प्राप्त होते है।


(2)   मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है ।

(3)  मृदा में पाये जाने वाले अनुपलब्ध पोषक तत्व, उपलब्ध पोषक तत्वों में बदल जाते हैं।

(4) पोटेशियम व फास्फोरस सुपाच्य सरल यौगिकों में बदल जाते है।

(5) कार्बनिक पदार्थ के विच्छेदन से कार्बन डाईआक्साइड मिलती है। यह अनेक घुलनशील कार्बोनेट व बाई कार्बोनेट बनाती है।

(6)    मृदा की क्षार विनिमय क्षमता बढ़ जाती है ।

 

(7) पौधों को कैल्शियम, मैग्नेशियम, मैगनीज व सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है ।

(ग)   जैविक गुणों पर प्रभाव :

 

(1)    मृदा में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या  में वृद्धि होती है ।

 

(2)    लाभदायक जीवाणुओं की क्रियाशीलता  भी बढ़ जाती है ।

 

(3)    वातावरण की नेत्रजन का जीवाणुओं द्वारा अधिक स्थिरीकरण होता है ।

 

(4)    जीवाणु जटिल नेत्रजनीय पदार्थो को अमोनियम व नाइट्रेट में बदलते हैं । नेत्रजन का यही रूप पौधों द्वारा ग्रहण किया जाता है ।

कम्पोस्ट  बनाते  समय  ध्यान  देने योग्य  बातें

 

1.    गड्‌ढे ऐसे स्थान में बनावें जहाँ पानी लगने की सम्भावना नहीं हो । हो सके तो गड्‌ढे   में सस्ती प्लास्टिक सीट बिछावें ।

2.    गड्‌ढे   छायादार स्थान में तथा पानी के श्रोत, जैसे तालाब या कुआँ के पास बनावें ।

 

3.    गड्‌ढे भरते समय अनुशंसित मात्रा में पानी का उपयोग करना चाहिए ताकि नमी के अभाव में सड़ने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव नहीं पड़े ।

4.    विभिन्न प्रकार की सामग्री को सम्भव हो तो छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर

डालना चाहिए । ऐसा करने पर कम्पोस्ट जल्द तैयार होता है ।

5.    तैयार खाद बदबूरहित, भुरभुरी एवं काली या गाढ़ी रंग लिये होती है ।

 

कम्पोस्ट  के उपयोग  में सावधानियाँ

अच्छे परिणाम की प्राप्ति हेतु कम्पोस्ट को फसल लगने के 15 - 30 दिन पूर्व ही मिट्टी में मिला देना चाहिए । इतने समय में इन पदार्थो में उपस्थित पौधों के प्रयोजनीय पोषक तत्व दुर्लभ अवस्था से सुलभ अवस्था में परिणत हो जाते है । पूर्णतः सड़े हुए जीवाशं का प्रयोग बुआई के समय भी कर सकते हैं । कम्पोस्ट को मिट्टी में समान  रूप से छींटकर मिला देना चाहिए । प्रत्येक फसल लगने के पहले जीवांश की उचित मात्रा 10 - 15 टन/हेक्टेयर  का प्रयोग करना चाहिए । इस मात्रा का निर्धारण मिट्टी जाँच के आधार पर किया जाता है ।

 

जीवाणु  खाद मिट्टी के लिये वरदान

पौधों की उचित वृद्धि एवं ज्यादा उपज के लिये नाइट्रोजन, स्फूर, पोटाश तथा अन्य पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है । यह पोषक तत्व रासायनिक खाद द्वारा पौधों को उपलब्ध कराये जाते हैं । मिट्टी में कुछ ऐसे भी सूक्ष्मजीवी जीवाणु है जो पौधों को मिट्टी में डाले गये पोषक तत्वों को उपलब्ध कराने में मदद करते हैं । जब ऐसे जीवाणुओं की संख्या  प्रयोगशाला में बढ़ा कर ठोस माध्यम में मिश्रित कर पैकेट के रूप में किसानों को उपलब्ध कराये जायें तो उसे ''जीवाणु खाद'' कहते हैं ।

जैसे दलहनी फसलों के लिये राइजोबियम कल्चर, सब्जियों के लिये ऐजोटोबैक्टर एवं धान के लिये ब्लू ग्रीन अल्गी कल्चर पैकेट में किसानों के लिये तैयार किये जा रहे है ।

 

आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक द्वारा जीवाणुओं की संख्या  प्रयोगशाला में बढ़ा कर कल्चर के रूप में देना सम्भव हो गया है। जीवाणु खाद में हवा से नेत्रजन लेने वाले जीवाणु काफी संख्या  में रहते हैं । इसे फसल की अच्छी उपज के लिये बीज को उपचारित करने के कार्य में प्रयोग करते है ।

 

जीवाणु  खाद  का  प्रयोग

 

1. पौधों को नेत्रजन हवा से प्राप्त होता है ।

 

2. रासायनिक नेत्रजन खाद की बचत होती है ।

 

3. उपज में 15 से 20 प्रतिशत वृद्धि होती है ।

 

4. भूमि की उर्वरता में विकास होता है ।

 

5. दलहनी फसल के बाद अन्य दूसरी फसलों को भी नेत्रजन प्राप्त होता है ।

 

बीज उपचारित करने की विधि

 

1. बोने के पहले 100 ग्राम गुड़ आधा लीटर पानी में डाल कर पन्द्रह मिनट तक उबालें।

2. यदि गुड़ न हो तो गोंद या माड़ का भी प्रयोग किया जा सकता है ।

3. अच्छी तरह ठंडा होने पर इस घोल में एक पैकेट राईजोबियम  कल्चर को

डाल दें और अच्छी तरह मिला दें ।

4. आधे एकड़ के लिये प्रर्याप्त बीज को पानी से धोकर कल्चर के घोल में

डालकर साफ हाथों से अच्छी तरह मिला दें ।

5. इसे अखबार या साफ कपड़े पर छाया में आधा घंटा तक सूखने दें इसके बाद उपचारित बीज की बोआई कर दें ।

6. यदि चूने की परत (पैलेटिंग) करना हो तो कल्चर लगे बीज पर बारीक पिसे हुआ चूने को छिड़क कर मिला दें ताकि हर बीज पर इसकी परत जम जाये ।

सावधानियाँ

 

1. कल्चर को धूप से बचायें ।

 

2. कल्चर जिस फसल का हो उसका प्रयोग उसी फसल के बीज के लिये करें ।

 

3. कल्चर का प्रयोग पैकेट पर लिखी अवधि तक अवश्य कर लें । इस अवधि तक इसे ठंडे स्थान पर रखें ।

4. उपचारित बीज की बोआई शीध्र कर दें ।

 

5. कल्चर की क्षमता बढ़ाने के लिये फास्फेट खाद की पूरी मात्रा मिट्टी में अवश्य मिलायें|

 

जीवाणु खाद को प्रभावशाली ढंग से काम करने के लिये इन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

1. मिट्टी में फास्फेट खाद की उपयुक्त मात्रा (40 से 80 कि. गाम प्रति हेक्टर) डालना चाहिए।

2. यदि मिट्टी आम्लिक हो तो उस में चूने का व्यवहार अवश्य करना चाहिये अन्यथा राईजोबियम  जीवाणु पनप नहीं पायेगें ।

3. यदि किसी कारण वश अम्लीय मिट्टी में चूना न डाला जा सके तो बीज को उपचारित कर उसपर चूने की परत चढ़ानी चाहिये । इस क्रिया को पैलेटिंग कहते हैं । चूने की परत से बीज पर लगे जीवाणुओं की अम्लीय अवस्था में रक्षा होती है ।

4. खेत में जैविक खाद जैसे कम्पोस्ट अथवा सड़े गोबर की खाद देने से राईजोबियम जीवाणुओं की प्रक्रिया में तेजी होती है ।

5.जीवाणु खाद को कारगर ढंग से कार्य करने के लिये खेत में नमी का होना आवश्यक है।

जीवाणु  खाद  से लाभ जीवाणु खाद के प्रयोग से किसान दो तरह से लाभान्वित होते हैं पहला, रासायनिक खाद जैसे यूरिया या अमोनियम सल्फेट की दो तिहाई मात्रा की बचत करके और दूसरा उपज में (15-25%) अतिरिक्त वृद्धि करके ।

उदाहरण के तौर पर यदि किसान दलहनी फसल की खेती करता है तो उसके लिये प्रति हेक्टर 50 कि.ग्रा. नेत्रजन की आवश्यकता पड़ेगी जो यूरिया के रूप में डालने पर 110 कि.ग्रा. की जरूरत होगी अगर किसान राईजोबियम कल्चर का प्रयोग करता है तो यूरिया की सिर्फ एक तिहाई मात्रा की आवश्यकता  होती है अर्थात्‌ 36 कि.ग्रा. या दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वह 75 कि. ग्राम. यूरिया प्रति हे0 की बचत करता है । जिसका मूल्य 200 रूपया होता है । दूसरी तरफ इसके बदले में उसे 25 रूपया/हेक्टर कल्चर पर खर्च करना होगा । अतः उर्वरक के रूप में उसे लगभग 175 रूपया प्रति हेक्टर का शुद्ध लाभ होगा । इसके अतिरिक्त कल्चर के प्रयोग से यदि उसे केवल 2 क्विंटल  प्रति हेक्टर की अतिरिक्त उपज मिलती है तो उसे 800 रूपया प्रति क्विंटल  की दर से 1600 रूपया बचत होता है । दोनो ओर से मिलाकर किसान को 1775 रूपया प्रति हेक्टर की बचत अवश्य होती है ।

झारखण्ड में ''बिरसा जीवाणु खाद'' के नाम से बिरसा कृषि विश्वविद्यालय  के अन्तर्गत राँची कृषि महाविद्यालय, काँके में बनाये जा रहे हैं । कल्चर आधा एकड़ के बीज के लिये सस्ते दर पर उपलब्ध  है । कल्चर का पैकेट खरीदते समय कृपया यह देख लें कि कल्चर किस फसल के लिये है और इसके प्रयोग की अंतिम तिथि क्या है । कल्चर के पैकेट पर जिस फसल का नाम अंकित हो, उसी फसल के बीजों के लिये इसका प्रयोग करें ।

 

हरी खाद का महत्व एवं उपयोग

 

हरी खाद एक प्रकार का जैविक खाद है जो शीध्र विघटनशील  (जल्द सड़ने लायक) ताजे पौधों को मिट्टी में जोतकर तैयार होती है । यह खाद मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है एवं उसकी भौतिक गुणों में सुधार करता है ।

झारखंड राज्य में खेती योग्य भूमि तीन तरह की है । पहली टाँड या ऊपरी भूमि तथा दूसरी मध्यम भूमि । इसतरह की भूमि में बलुआही मिट्टी की अधिकता है । इसमें कार्बनिक   पदार्थ बहुत कम होने की वजह से नेत्रजन, स्फुर और सल्फर तत्वों की कमी होती है । इसकी अम्लिीयता भी अधिक होती है । अधिक अम्लिक होने के कारण इस मिट्टी में घुलनशील फॉस्फोरस तत्व की कमी रहती है । कार्बनिक पदार्थ कम होने एवं सूक्ष्म चिकना पदार्थ (क्ले) अधिक वर्षा से बह जाने के कारण इसमें जल धारण की क्षमता कम होती है । तीसरी तरह की भूमि दोन या निचली भूमि है । इसमें कार्बनिक पदार्थ एवं क्ले कण अपेक्षाकृत अधिक होने से उसकी उर्वरता ज्यादा है एवं वर्ष के अधिक समय तक नमी बनी रहती है । इन सभी भूमि के लिये हरी खाद का प्रयोग करने से कई फायदे है :-

 

1. यह मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाता है । जिससें सूक्ष्म जीवों की सक्रियता बढ़ जाती है । नेत्रजन और सल्फर तत्वों की मात्रा बढ़ती है ।

2. मिट्टी की भौतिक गुणों जैसे संरचना, जल धारण क्षमता एवं कटायन एक्सचेंज क्षमता में वृद्धि होती है ।

3. पौधों के अन्य तत्वों जैसे- फॉस्फोरस, कैल्सियम, पोटेशियम तथा मैग्नेशियम को बढ़ाती है ।

4. पौधों के लिये आवश्यक तत्वों को बह जाने से रोकता है ।

5. फलीदार (गांठ जड़ों वाली) पौधों के प्रयोग से दूसरी फसलों को भी नेत्रजन प्रदान होता है ।

6. ऊपरी अम्लिक मिट्टी में फॉस्फोरस की स्थिरीकरण को कम करता है ।

7. धान की फसल में हरी खाद के प्रयोग से फॉस्फोरस एवं पोटाश की उपलब्धता 10 - 12 प्रतिशत बढ़ जाती है ।

 

हरी  खाद  के लिए  पौधों  का इस्तेमाल

 

इसके लिए निम्न तीन तरह के पौधों का व्यवहार करते है

 

1. दाने वाली फलीदार पौधे (ग्रेन लेग्यूम) : जैसे मूँग, लोबिया, सोयाबीन,

 

2. बिना दाने वाली फलीदार पौधे (नन ग्रेन लेग्यूम) या चारे वाली फलीदार पौधे : जैसे - सनई, ढैंचा, सेन्ट्रोसेमा, स्टाइलों, एवं सेंजी आदि ।

 

3. बहु वार्षिक लेग्यूम : जैसे - सुबबुल, कैसिया इत्यादि ।

 

हरी खाद के लिए उपयुक्त पौधे का चुनाव बहुत आवश्यक है । एफ. ए. ओ. और इरी (अर्न्तराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान) ने इन बातों पर ध्यान देने पर बल दिया है :-

1. जल्द बढ़ने वाले एवं घने पत्तों वालें पौधे ।

 

2. सूखा, बाढ़, छाँह एवं विभिन्न तापमान सहने वाले पौधे ।

 

3. शीध्र एवं लम्बे समय तक वायुमंडलीय नेत्रजन स्थिरीकरण करने वाले पौधे ।

 

4. 4 - 6 सप्ताह के अन्त तक अच्छी बढ़वार करने वाले पौधे ।

 

5. मिट्टी में आसानी से मिल सके एवं शीध्र सड़ने योग्य पौधे ।

 

6. बीमारी एवं कीड़ों को सहने वाले पौधे ।

 

इन सभी गुणों को ध्यान में रखते हुए यह पाया गया है कि कुछ गाँठदार जड़ों वाले पौधे जैसे - मूँग, सोयाबीन, सनई, ठैंचा और लोबिया इस तरह की खाद के लिए ज्यादा उपयुक्त है । गाँठदार जड़ों वाली पौधों में कुछ खास विशेषता के कारण ही इसे हरी खाद के लिये सबसे उपयोगी माना जाता है

गाँठदार जड़ों वाली फसलों (दलहनी) में वायुमंडलीय नेत्रजन स्थिर करने की क्षमता होने के साथ-साथ इसकी बढ़वार कम समय में ज्यादा होती है । इन पौधों में नेत्रजन की मात्रा अन्य पौधों से ज्यादा होने (2.0 - 4.9%) के कारण ये मिट्टी में मिलने के पश्चात्‌ जल्द सड़ जाते हैं । साथ ही लगनेवाली फसल को नेत्रजन तत्व ज्यादा उपलब्ध हो पाता है । कम समय में ज्यादा जैव पदार्थ संग्रह होने से भूमि में कार्बनिक पदार्थ ज्यादा जमा होता है ।सभी गाँठदार जड़ों वाली पौधों में भी विभिन्नता है जैसे:-

 

1.  बिना फली वाले गाँठ वाले पौधे (ननग्रेन लेग्यूम) : कोयम्बटूर  में अनुसंधान के आधार पर निचली जमीन (दोन) के लिए जहाँ नमी की अधिकता है, धान लगाने से पहले ठैंचा को हरी खाद के लिए उपयोगी बताया गया है ।

 

इससे एक महीने के पश्चात् औसतन 20 टन प्रति हे0 कार्बनिक पदार्थ 86 कि. नेत्रजन प्रति हे0 प्राप्त होता है । अन्य पौधे जैसे :-

हरी खाद(फसल)

जैव पदार्थ(टन/हे0)

नेत्रजन(कि0ग्रा0/हे0)

सनई

21

91

सेंजी

28

150

खेसारी

12

66

बरसीम

15

67

 

ये भी धान या अन्य फसलों की लिये हरी खाद के रूप में उपयुक्त हैं ।

 

2. दानेवाली   गाँठदार      पौधे   (दलहनी      ग्रेन   लेग्यूम)      :

कुछ दलहनी पौधों से दाना या फली तोड़ने के पश्चात डंठल को खेत में जोत देते है । इससे करीब 40 - 60 कि.ग्रा. नेत्रजन प्रति हेक्टेयर धान की फसल को मिलता है ।

हरी खाद फसल

दाने की उपज (कि0/हे0)

नेत्रजन (कि0/हे0)

कार्बनिक पदार्थ(टन/हे0 )

मूँग

10

50

2.5

उड़द

12

40

2.0

लोबिया

5

60

3.0

सोयाबीन

6

62

7.5

 

अनुसंधान के आधार पर यह पाया गया है कि मूँग/उड़द/लोबिया हरी खाद के    रूप में ठैंचा या सनई की अपेक्षा ज्यादा लाभदायक है, क्योंकि इससे दाना भी प्राप्त होता है तथा अगली फसल को डंठल सड़ने से पोषक तत्व भी मिलता है ।

1.  धान पर आधारित फसल पद्धति :

धान की फसल लेने के पहले मई महीने में सिंचाई की सुविधा वाली क्षेत्रों में 45 दिनों में होने वाली मूँग की फसल लेते है । फली तोड़ने के पश्चात डंठल को खेत में मिलाकर जुताई करते है । इसके 10 - 15 दिन के पश्चात्‌ धान की रोपाई करनी चाहिए ।

2.  आलू पर आधारित पद्धति :

सनई, लोबिया, कुल्थी, गुआर फली आदि हरी खाद के रूप में लेते हैं । फली लेने के पश्चात्‌ डँठल को सड़ने के लिए खेत में जुताई कर मिला देते हैं । 15-20 दिन के पश्चात्‌ आलू की फसल के लिए खेत तैयार करते है ।

3.  वर्षा पर आधारित  फसल पद्धति :

वर्षा पर आधारित  क्षेत्रों के लिए हरी खाद के लिए यह तरीके अपनाते है :-

(क) मानसून की पहली वर्षा के साथ कम समय वाली दलहनी फसल जैसे मूँग की बुआई करते हैं । 45 दिनों के पश्चात्‌ फली की पहली पैदावार तोड़कर शेष पौधों को खेत में जोत देते हैं । तत्पश्चात्‌ देर से लगने वाली खरीफ की फसल लेते है ।

 

(ख) सुबबुल की पत्तियाँ तथा कोमल डंठल प्रथम वर्षा के साथ खेत में अच्छी तरह मिलाते हैं । दस दिनों के पश्चात्‌ खरीफ फसल की बुआई करते है । औसतन यह पाया गया है कि हरी खाद से 40 से 50 कि0ग्रा0 नेत्रजन प्रति हे0 की प्राप्ति होती है । हरी खाद का अवशेष का लम्बे समय तक प्रभाव होता है| रेपसीड सरसों एवं मक्का-सरसों फसल चक्रों के आधार पर यह देखा गया है कि पहली फसल के साथ हरी खाद देने पर दूसरी फसल को भी नेत्रजन प्राप्त होता है ।

हरी खाद की फसल लगाने एवं खेत में मिलाने के लिए तीन बातों पर ध्यान देते हैं:-



1. फसल कब लगानी चाहिए ?

 

2. उसे खेत में कब मिलाएँ ?

 

4.  हरी खाद की पौध खेत में मिलाने और दूसरी फसल उगने के बीच कितना समय चाहिए?


1. हरी खाद लगाने का समय : प्रायः मौनसून की पहली वर्षा के बाद ।

2.  खेत में मिलाने का समय : प्रायः पौधे में पूरी बढोत्तरी हो एवं फूल देने लगे जो सभी हरी खाद फसल मे 6-8 सप्ताह तक पूरी हो जाती है ।

3.  खेत में मिलाने  एवं दूसरी फसल लगाने का समय : यह निम्न बात पर निर्भर करता है  (क) मौसम

(ख) हरी खाद के पौध की स्थिति

(ग) धान की रोपनी के समय गर्म और आद्रता ज्यादा होने पर एक सप्ताह का समय या कम समय ।

(घ) अगर फसल में डंठल कड़ा हो तो 15-20 दिन के पश्चात्‌ ।

 

 

वर्मी   कम्पोस्ट     (केंचुआ      खाद) बनाने की    विधि एवं प्रयोग

केंचुआ खाद एक प्रकार का जैविक खाद है जो केंचुओं के द्वारा विभिन्न प्रकार के व्यर्थ पदार्थों, जैसे घर के कूड़ा-करकट,  पौधों के अवशेष, गोबर, इत्यादि को खा लिए      जाने के बाद, उसके पाचक नालिका से होकर गुजरने के बाद प्राप्त होता है,-'केंचुआ  खाद'' कहलाती है । इसमें साधारण कम्पोस्ट की अपेक्षा अधिक नाइट्रोजन  (1-2.25% ), फास्फोरस  (1-1.5%),एवं पोटाश (2-3%) होता है । जबकि जैविक खाद वह खाद है जो जैविक पदार्थ , जैसे - गोबर, कूड़ा-करकट,  पौधों के अवशेष तथा अन्य प्रकार के घास-फूस को लेकर बनायी जाती है, जिसमें अनेक प्रकार के लाभदायक जीवाणु भी उपस्थित रहते हैं । इसमें विभिन्न प्रकार की खल्लियाँ, जीवाणु खाद, केचुआ खाद, कम्पोस्ट, मुर्गी की खाद, गोबर की खाद इत्यादि आते है । इस प्रकार की खाद किसान भाई स्वयं बना सकते है । यह खेती के टिकाऊपन अर्थात उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए बहुत ही आवश्यक है। केचुआ खाद का उत्पादन बहुत ही आसान है । इसे कोई भी किसान भाई थोड़ी जानकारी प्राप्त करके उत्पादन कर सकते हैं ।

प्रथम  चरण :

सबसे पहले एक छोटी सी झोपड़ी बनाना होगा । यह झोपड़ी बाँस के खम्भों के सहारे बनायी जाती है । अत्यधिक धूप एवं वर्षा से बचाने के लिए खपड़ा अथवा पुआल का छत बना दिया जाता है । झोपड़ी के नीचे एक पक्का टैंक जिसकी लम्बाई 20 फीट, चौड़ाई 3 फीट एवं गहराई 2-2.5 फीट की होनी चाहिए बनायी जाती है ।

द्धितीय चरण :

इसके बाद गोबर, घास-फूस, पौधों के अवशेष सब्जियों के अवशेष तथा अन्य कूड़ा - करकट जिसका इस्तेमाल केचूआ खाद बनाने में करना है, को एकत्रित कर लेते हैं । यदि हरी घास अथवा पुआल का प्रयोग करना हो तो इसे छोटे-छोटे टुकड़े के रूप में काट लेते हैं । इसके बाद इसे गोबर में मिलाकर खाद बनाने के काम में लाया जाता है । गोबर एवं अन्य कूड़ा करकट का अनुपात सही होना चाहिए । इसके लिए 10 किलो गोबर के साथ 1 किलो अन्य पदार्थो का मिश्रण तैयार किया जाना चाहिए । गोबर में इन पदार्थो को मिलाने के बाद 10 - 12 दिन तक एक जगह संग्रह कर लेते हैं, तथा इसे आंशिक विघटन के लिए छोड़ देते है । इसके बाद ही इसे केचूओं के खाने के रूप में प्रयोग करते हैं । जिसे वे खाकर एक अच्छा खाद के रूप मं परिवर्तित कर देते हैं । जो सामग्रियों खाद बनाने के रूप में दी जा रही है, उसमें  नमी की मात्रा 60% से अधिक नहीं होनी चाहिए ।

 

एक पक्की टंकी होनी चाहिए । इस टंकी में सबसे पहली सतह 4 इंच मोटी नारियल के छिलके या सूखे केले के पत्ते की होनी चाहिए । इसके उपर 4 ईच मोटी सतह अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद की होनी चाहिए । तत्‌पश्चात अखबार अथवा रद्दी कागज की एक सतह बिछा दी  जाती है । इसी के उपर केंचूओं को 1 वर्गफीट में 30 - 35 केचूए के हिसाब से छोड़ दिये जाते हैं । इसके बाद गोबर तथा अन्य कूड़ा करकट का मिश्रण डाल दिया जाता है । इसकी सतह की मोटाई 1 फीट से ज्यादा ऊँचा नहीं होनी चाहिए । जब यह केचूओं द्वारा खा लिया जाता है, तो इसे सावधानी पूर्वक एकत्र कर लेते हैं तथा पुनः दूसरा गोबर एवं अन्य पदार्थो का मिश्रण डाल दिया जाता है । इस प्रकार लगातार केंचूआ खाद का उत्पादन किया जा सकता है ।

केंचूआ खाद का उत्पादन मुख्य  रूप से केंचूओं की किस्म, उसकी संख्या , वातावरण की परिस्थितियाँ  तथा उचित देख-रेख पर निर्भर करता है । यदि परिस्थितियाँ अनुकूल हो तो उचित देख-देख के साथ 5 वर्गमीटर क्षेत्रफल से जिसमें केचूओं की संख्या  10000 हो तो एक माह में 1 टन केंचूआ खाद का उत्पादन किया जा सकता है ।तैयार खाद गन्धहीन, कालीभूरी एवं भूर-भूरी होती है । देखने में यह बिलकुल चाय की पत्ती की तरह महीन दीखती है|

इस विषय पर अभी अनुसंधान हो रहे है । फिर भी अभी तक जो जानकारी है उसके अनुसार 100 क्विंटल प्रति हे0 के हिसाब से फसल बुवाई के समय दी  जाती है ।

केंचुआ खाद के साथ रासायनिक खादों (जैसे- यूरिया, डी.ए.पी., एवं एस.एस.पी.) का प्रयोग करने से पौधों का विकास एवं वृद्धि और भी अच्छी होती है । क्योंकि पौधों द्वारा इन खादों का भरपूर उपयोग हो पाता है ।

वर्मी कम्पोस्ट से कई लाभ है -

 

1. यह खेती के टिकाउपन के लिए बहुत ही आवश्यक है ।

2. इसमें नाइट्रोजन  (1-2.25%), फास्फोरस  (1-1.5%) तथा पोटाश (2-3%),पाये जाते हैं ।

 

3. इसके लगातार प्रयोग से मिट्टी की भौतिक दशा में सुधार होता है ।

4. मिट्टी में हवा का आवागमन सुचारू रूप से होने लगता है । जिससें जड़ों का विकास हो पाता है ।

5. मिट्टी की जल धारण क्षमता का विकास होता है ।

 

केचुआ खाद का उत्पादन प्रायः हर मौसम में किया जा सकता है । इसमें समय की कोई पाबन्दी नहीं है । परन्तु पर्याप्त मात्रा में गोबर एवं पदार्थो जैसे-घास - फूस, सब्जियों के अवशेष, फसलों के अवशेष या अन्य प्रकार के कूड़ा करकट जो केचुआ खाद बनाने के काम में आ सकते हैं, पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना चाहिए ।

 

राइजोबियम   जीवाणु       कल्चर       की    उपयोगिता

राइजोबियम कल्चर 'राइजोबियम' नामक जीवाणुओं का एक संग्रह है जिसमें हवा से नेत्रजन प्राप्त करने वाले जीवाणु काफी संखया में मौजूद रहते है,  जैसा कि आप जानतें है कि सभी दलहनी फसलों की जड़ों में छोटी-छोटी  गांठें पायी जाती है । जिसमें राइजोबियम नामक जीवाणु पाये जाते हैं । ये जीवाणु हवा से नेत्रजन लेकर पौधों को खाद्य के रूप में प्रदान करते हैं । इस कल्चर का प्रयोग सभी प्रकार के दलहनी फसलों में किया जाता है ।

राइजोबियम कल्चर के प्रयोग से पौधों को नेत्रजन वायुमंडल से प्राप्त होता है । इसके प्रयोग से उपज में 10 से 15 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है । भूमि की उर्वरता में विकास होता है । दलहनी फसल के बाद अन्य दूसरी फसलों को भी नेत्रजन प्राप्त होता है । इस जीवाणु खाद (कल्चर) के प्रयोग करने से लगभग 90 से 110 किलोग्राम नेत्रजन प्रति हेक्टर प्रति वर्ष मिलता है । जो कि 450 - 550 किलो अमोनियम सल्फेट या 200 से 245 किलो गा्रम यूरिया के बराबर है । या दूसरे शब्दों में 200 से 245 किलो ग्राम रासायनिक उर्वरक की बचत होती है ।

 

बीज उपचारित करने की विधि :-

1.  बोने से पूर्व बीज को साफ पानी से घोकर सुखा लें ।

2.  बीज उपचारित करने से पहले 100 ग्राम गुड़ आधा लीटर पानी में डालकर पन्द्रह मिनट तक उबालें । यदि गुड़ न हो तो गोंद या माड़ का भी प्रयोग किया जा सकता है ।

3.  घोल को अच्छी तरह ठण्डा होने पर इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम जीवाणु कल्चर का घोल डालें, और अच्छी तरह कल्चर को घोल में मिलायें ।

4.आधा एकड़ के लिए प्रयाप्त बीज को कल्चर के घोल में डालकर साफ हाथों से अच्छी तरह मिला दें ।

 

सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के लक्षण एवं प्रयोग विधि

पौधों के द्वारा भूमि से कम मात्रा में चूसे जाने वाले पोषक तत्वों को सुक्ष्म पोषक तत्व कहते हैं । सूक्ष्म पोषक तत्व भी पौधों की बढ़वार एवं जीवन - चक्र पुरा करने के लिए उतने ही आवश्यक है जितना की गौण तत्व। इसमें केटाइनिक सूक्ष्म पोषक तत्व - लोहा, मैंगनीज, जस्ता एवं तांबा है जबकि एनाइनिक सुक्ष्म तत्वों में बोरोन, मोलीब्डनम तथा क्लोरीन आता है ।

झारखण्ड में मुख्यतः  अम्लीय मिट्टी है । यहाँ की मिट्टी में मैगनीज एवं लोहा बहुत अधिक मात्रा में है, अपेक्षाकृत जस्ता एवं ताबा के । जब की रासायनिक तत्वों बोरोन एवं मोलीब्डनम की कमी है ।

झारखण्ड में खरीफ में मुख्यतः  धान एवं मकई होता है जिसमें जिंक की कमी का लक्षण दिखता है जबकि रब्बी चना एवं मटर में बोरोन की कमी तथा सब्जी में फूलगोभी एवं टमाटर में बोरोन एवं मोलीब्डनम की कमी के लक्षण दिखाई देता है ।

 

मैंगनीज  के कमी  के लक्षण

उपरी नई पत्तियों के अगले भाग पर मृत उत्तकों के धब्बे बन जाते हैं । इसके प्रयोग की विधि में -बुआई से पहले मैगनीज सल्फेट उर्वरक 40 से 60 कि0/हे0 की दर से छिड़काव करें ।

 

जस्ता  के कमी  के लक्षण  एवं निदान

सामान्यतः    पुरानी एव नई पत्तियाँ आकार में छोटा एव पीले रंग के धब्बे या सफेद धारियाँ सी पड़ जाती है, शिराओं के बीच के उत्तक भी मर जाते हैं । इसके निदान के लिए बुआई से पहले जिंक सल्फेट 25 कि./हे. उर्वरक का प्रयोग करे या इसके 0.5 से 1 प्रतिशत घोल जिसमें 0.25 प्रतिशत चूना मिला हो छिड़काव करना चाहिए ।

जस्ता  के कमी  से होने  वाले  बीमारियाँ

 

1.  धान का खैरा रोगः रोपाई के 3 - 4 सप्ताह के बाद तीसरे या चौथी पत्तियाँ पर पहले हरिमाहीनता बाद में भूरे रंग के छोटे -छोटे धब्वे, फिर बाद में धब्वे

एक दूसरे से मिल जाते हैं। पूरा पौधा भूरा-लाल दिखाई पड़ता है|

2.   मक्का का सफेद चित्ती रोगः अंकुरण के बाद पुरानी पत्तियाँ सफेद रंग धारण कर लेती है । नई निकली हुई पतियाँ प्रायः हल्की पीली या सफेद रंग की दिखाई पड़ती हैं|

 

ताँबा की कमी के लक्षण  एवं प्रयोग  विधि

नई पत्तियों के किनारे व नोक हरितिमाहीन होकर मुड़ जाती है । तांबा के आभाव में बढ़ रहे कल्लों और कलियों की संखया सामान्य से अधिक होकर मुड़ जाती है । इसके निदान का उपाय है। बुआई से पहले कम्पोस्ट तथा कॉपर सल्फेट 40 कि./हे. उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए या 0.2 प्रतिशत का घोल का भी छिड़काव करें ।

 

बोरोन  के कमी  के लक्षण

बोरोन कि कमी झारखण्ड की मिट्टी में अधिक है । इसकी कमी से पत्तियाँ मोटी होकर मुड़ जाती है, जड़ो का विकास रूक जाता है, मुख्य  तने की फुनगी मर जाने के कारण फूल और फल नहीं लग पाते । पत्तियाँ में  कड़ापन एवं झुरियाँ पड़ जाती है ।

 

बोरोन  से होने  वाले  रोग

1.  फूलगोभी का भूरा रोगः र्शीष पर भूरे चकते दिखाई पड़ते है पत्तियाँ मोटी तथा कड़ी हो जाती है और नीचे की ओर मुड़ जाती है ।

2.  लुसर्न का पीली पुनगी रोगः पत्तियाँ सामान्य रूप से पीली या भूरी हो जाती है, तने की पोरी छोटी हो जाती है, शाखाओं के बढ़ने वाले भाग मर जाते है ।

3.  तम्बाकू का शिखर रोगः कलियाँ मर जाती है, पुरानी पत्तियाँ मोटी और कड़ी हो जाती है, शाखाओं के बढ़ने वाले भाग मर जाते है ।

4.  नींबू के फलों का कठोरपनः पौधों के अग्र भाग मर जाते हैं । पेड़ में फूल कम आते हैं । फलों का आकार भद्दा हो जाता है ।

 

बोरोन के    प्रयोग की    विधि

बुआई के पहले कम्पोस्ट खाद तथा बोरेक्स 10 से 15 कि0/हे0 उर्वरक का प्रयोग करें या 0.2 प्रतिशत बोरेक्स के साथ बुझा चुना 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करे । चूना के प्रयोग से भी बोरोन की कमी पूरी कियी जाती है ।

 

मोलिविडनम  की कमी  के लक्षण  एवं निदान

इसके आभाव के लक्षण पुरानी पत्तियों से प्रारम्भ होकर अग्र सिरे की ओर बढ़ती है| शिराओं के मध्य भाग में इसके निदान के लिए बुआई के पहले कम्पोस्ट तथा सोडियम मालिब्डेट 1 कि0/हे0 उर्वरक के रूप में अथवा फसल पर 0.3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें|

 

नील हरित शैवाल एवं उसकी  उपयोगिता

नील  हरित  शैवाल

फसलों के उचित बाढ़ एवं अधिक उपज के लिए पोषक तत्वों खासकर नेत्रजन, स्फूर एवं पोटाश की आवश्यकता  होती है । इन तीनों पोषक तत्वों में नेत्रजन की जरूरत ज्यादा होती है । वैसे तो नेत्रजन मिट्टी में भी पाया जाता है परन्तु लगातार खेती करने से इनकी मात्रा मिट्टी से कम हो जाती है । अतः इसे उर्वरक के रूप में पौधों को उपलब्ध कराया जाता है । कुछ जीवाणु भी है जो वायुमण्डलीय नेत्रजन को पौधों       उपलब्ध कराते हैं, जैसे - राइजोबियम दलहनी फसलों में, ऐजोटोवैक्टर, गेहूँ, सब्जीयों एवं कपास इत्यादि में तथा नील हरित शैवाल जिसे काई भी कहते है, धान की फसल में नेत्रजन उपलब्ध कराते हैं । ये जीवाणु उर्वरक के रूप में व्यवहार में लाये जाते हैं तथा खड़ी फसल के अलावे बाद वाली फसल को भी नेत्रजन उपलब्ध कराते हैं ।

 

नील हरित शैवाल खाद के द्वारा अधिक उपज प्राप्त करने के लिए धान की रोपनी समाप्त होने के एक सप्ताह बाद खेत में 5-7 से.मी. पानी भरें । यदि पानी नहीं हो तो उसके बाद खेत में 10 कि.ग्रा. प्रति हे0 के दर से नील हरित खाद का छिड़काव बराबर रूप से कर दें । खेत में शैवाल डालने के बाद कम से कम 10 दिनों तक पानी भरा रहना चाहिए । इस तरह से एक ही खेत में कई सालों तक लगातार प्रयोग करते रहने से ये खाद आने वाले कई एक सालों तक डालने की जरूरत नहीं पड़ती है, इस प्रकार शैवाल खाद का पूरा लाभ फसलों को मिलता है जिससे उपज में वृद्धि होती है ।

 

नील हरित शैवाल खाद के प्रयोग से लगभग 30 कि.ग्रा. नेत्रजन प्रति हे. की प्राप्ति  होती है, जो लगभग 65 कि.ग्रा. यूरिया के बराबर है, इसके प्रयोग से उपज में 0-15 प्रतिशत की वृद्धि अलग से होती है । यह स्वयं जैविक प्रवृति के होने के कारण अनेक उपयोगी अम्ल, विटामिन एवं पादप हारमोन भी भूमि में छोड़ते है, जो कि धान के पौधों के लिए लाभदायक है । इन सभों  के अलावा यह ऊसर भूमि सुधारने में भी मदद करता है । नील हरित शैवाल खाद को किसान भाई कम खर्च में अपने घरों के आस पास बेकार पड़ी भूमि में बना सकते हैं । इसके लिए सबसे पहले ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए जहाँ सूर्य का प्रकाश और शुद्ध हवा प्रर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो । इसे बनाने के लिए गैल्बानाइजड  (जंगरोधी लोहे की चादर) लोहे की शीट से2 मी0 लम्बा, 1 मी0 चौड़ा तथा 15 से. मी. ऊँचा एक ट्रे बना लें । इस प्रकार का     ट्रे इंट एवं सिमेंट के द्वारा भी बना सकते है । या फिर इसी साइज का गडढा खोद कर उसमें नीचे पोलीथीन शीट बीछा कर पानी डालकर भी इस्तेमाल कर सकते है । इस ट्रे में सबसे पहले 10 कि.ग्रा. दोमट मिट्टी में 200 ग्रा0 सुपरफास्फेट खाद एवं 2 ग्रा. चूना भी मिलायें । इस ट्रे में इतना पानी भरें कि 5 - 10 से.मी. की ऊचाई तक हो जाये । उसे कुछ घंटो तक छोड़ दें जिससे मिट्टी अच्छी तरह    बैठ जाये । इसके बाद पानी की सतह पर एक मुट्‌ठी नील हरित शैवाल का प्रारम्भिक कल्चर छिड़क दें । 7-8 दिनों के बाद गहरे हरे रंग की काई की परत दिखाई पड़ने लगती है । अब पानी को सुखने के लिए छोड़ दें और जब पानी सुख जाय तो काई या शैवाल को आधा से.मी. की गहराई तक खुरच कर थैले में भर लें । फिर ट्रे में पानी डालकर इस क्रिया को दो तीन बार दुहरायें । एक बार भरे ट्रे से लगभग

1.5 से 2 कि.ग्रा. शैवाल खाद की प्राप्ति होगी । यह कार्यक्रम सालों भर चला कर शैवाल खाद बनाया जा सकता है ।

 

नील  हरित  शैवाल  खाद  बनाते  समय  सावधानियां

ट्रे या गडढे को ऐसे जगह पर रखे या बनाये जहाँ पूरी मात्रा में धूप एवं हवा आती हो क्योंकि धूप से ही इसमें गुणन विधि या फैलाव ज्यादा एवं जल्दी होता है| ट्रे में हमेशा पानी भरा रहे इसका भी ध्यान रखना चाहिए यदि मिट्टी अम्लीय हो तो चूना अवश्य डालें|

 

फसल उत्पादन  के लिये संतुलित  पोषक तत्व एवं उनका प्रबंधन

संतुलित पोषक तत्व का अर्थ समझने के लिये पहले पोषक तत्व के बारे में जानना जरूरी है । पौधों के लिए पोषक तत्व उसे कहते हैं जिसकी अनुपस्थिति  में उनका जीवन - चक्र पूरा नहीं होता है, अर्थात बीज बोने से लेकर पुनः बीज प्राप्त करने तक अगर कोई एक भी आवश्यक पोषक तत्व मिट्टी में अनुपस्थित हो जाय तो पौधों का जीवन-चक्र पूरा नहीं होगा । पौधों के लिये 17 आवश्यक पोषक तत्व हैं । वे है : कार्बन, आक्सीजन,  हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस,  पोटाशियम,  कैल्सियम, मैग्नेशियम, सल्फर, लोहा, जस्ता, मैंगनीज, तांबा, मोलिब्डेनम,  बोरोन, क्लोरीन एवं कोबाल्ट । सभी तत्वों का पौधों के जीवन में अलग-अलग कार्य हैं । अगर जीवित पौधे को जाँचे तो हम पायेगें कि करीब 94 प्रतिशत भाग में सिर्फ कार्बन, आक्सीजन एवं हाइड्रोजन है और 6 प्रतिशत में बाकी तत्व हैं । अब हमें यह जानना जरूरी है कि कौन सा तत्व पौधा को कहाँ से प्राप्त होता है कार्बन हवा से कार्बन डाईआक्साइड  के रूप में पौधों पत्तियों द्वारा लेती है । आक्सीजन एवं हाइड्रोजन पानी से प्राप्त करते है ।

शेष तत्व पौधे मिट्टी से प्राप्त करते हैं । आपकों यह भी जानना जरूरी है कि कौन सा तत्व किस मात्रा में पौधे ग्रहण करते है । नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाशियम की पौधे को अधिक मात्रा में जरूरत होती है । कैल्सियम, मैग्नेशियम एवं सल्फर की कुछ कम मात्रा में जरूरत होती है । इसके बाद बाकी 8 तत्व बहुत ही कम मात्रा में पौधे को चाहिये । इसीलिये इ न 8 तत्वों को सूक्ष्म तत्व कहते हैं । मिट्टी से जितने भी पोषक तत्व पौधे प्राप्त करते हैं, उन तत्वों का मिट्टी में प्रर्याप्त एवं संतुलित मात्रा में विद्यमान होना अत्यन्त आवश्यक है ।जिससे पौधे जरूरत के अनुसार प्राप्त कर सकें ।कुछ तत्व ऐसे हैं जो फसल विशेष के लिये पौधे को अधिक मात्रा में जरूरी है । जैसे - कैल्सियम एवं फास्फोरस दलहनी फसलों के लिये, तेलहनी फसलों के लिये सल्फर, प्याज एवं आलू के लिये पोटाशियम, एवं बोरोन फूलगोभी के लिये । यहाँ के मिट्टीयों में नाइट्रोजन की काफी कमी है । अधिक गर्मी पड़ने के कारण मिट्टी के जैविक पदार्थ नष्ट हो जाते हैं जिससे नाइट्रो जन की काफी कमी हो जाती है। अम्लीय मिट्टी होने के कारण उपलब्ध फास्फोरस की कमी हो जाती है । पहले पौटाशियम की कमी नहीं थी, परन्तु अधिक उपज देने वाली फसल उगाने से उसकी भी कमी कहीं-कहीं पाई गई है । अतः पौधे को जिस मात्रा में जिन तत्वों की जरूरत है, वह मात्रा पौधे को उपलब्ध हो जाय तो यही संतुलित पोषक तत्व होगा । भिन्न- भिन्न फसलों के लिये संतुलित पोषक तत्वों की भिन्न-भिन्न मात्रा होती है । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई तत्व जरूरत से अधिक खेत में डाला जाता है, तो दूसरे तत्वों की पौधों को कमी हो जातीहै । भले ही वह तत्व मिट्टी में प्रचुर मात्रा में मौजूद हो । जैसे अगर फास्फोरस जरूरत से काफी अधिक खेत में डालेगें तो पौधे को जस्ता की कमी हो जायगी ।

 

संतुलित पोषक तत्व का प्रबंधन

पौधों को 94 प्रतिशत पोषक तत्वों की पूर्ति हवा और पानी से होती है। सिर्फ 6 प्रतिशत पोषक तत्वों को पूर्ति के लिये बड़े-बड़े कारखाने खोले गये हैं । संतुलित पोषक तत्वों के प्रबंधन के लिये सबसे जरूरी चीज है मिट्टी की जाँच । मिट्टी के जाँच से हमें पता चलता है कि कौन-सा तत्व किस मात्रा में मिट्टी में मौजूद है । अब फसल के अनुसार हमें ज्ञात करना होता है कि कौन-सा तत्व किस  मात्रा में मिट्टी में डाला जाय जिससे हमें अच्छी फसल प्राप्त हो । इसके लिये काफी अनुसंधान हो चुका है और आगे भी अनुसंधान की जरूरत है । अभी तक धान, गेहूँ, मकई इत्यादि फसलों पर काम हो चुका है । अनुसंधान से कुछ समीकरण बनाये गये हैं। जिससे मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों के हिसाब से उपर से डाले जाने वाले पोषक तत्वों की सही मात्रा निकाली जा सकती है । इसके लिये हमें फसल की उपज का लक्ष्य तय करना होता है अर्थात्‌ अधिक उपज तो अधिक खाद, कम उपज तो कम खाद । अब हमें यह मालूम होना चाहिये कि कौन-से तत्व की पूर्ति कस खाद से करेंगें । नाइट्रोजन की पूर्ति यूरिया, अमोनिया सल्फेट, कैल्सियम       अमोनियम, नाइट्रेट इत्यादि खाद से करते हैं । फास्फोरस की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट तथा रॉक फास्फेट से करते हैं । पोटाशियम की पूर्ति म्यूरेट आफ पोटाश एवं सल्फेट आफ पोटाश से करते हैं । सल्फर की पूर्ति फास्फोजिप्सम  या तत्वीय सल्फर से कर सकते हैं । बोरोन की पूर्ति बोरेक्स या सुहागा से कर सकते हैं । इसी तरह अन्य पोषक तत्वों की पूर्ति उनके कई तरह के यौगिकों से कर सकते हैं।

 

कुछ प्राकृतिक साधन हैं जिससे कि हम पौधों को पोषक तत्वों की पूर्ति करते हैं । जैसे दलहनी फसलों में नाइट्रोजन के लिये राइजोबियम खाद, मकई में जोटोबैक्टर कल्चर एवं धान में नील हरित शैवाल कल्चर से कर सकते हैं । हरी खाद, गोबर खाद एवं खल्ली से आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति कर सकते है ।

 

मिट्टी में नमी कायम रखने के आधुनिक तरीके

 

मिट्टी में जरूरत के मुताबिक नमी का होना बहुत जरूरी है । खेत की तैयारी से लेकर फसल की कटाई तक मिट्टी में एक निश्चित नमी रहनी चाहिए । कितनी नमी हो यह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन सा कार्य करना है और मिट्टी की बनावट कैसी है । जैसे बलुवाही मिट्टी में कम नमी रहने से भी जुताई की जा सकती है, लेकिन चिकनी मिट्टी में एक निश्चित नमी होने से ही जुताई हो सकती है । इसी तरह अलग-अलग  फसलों के लिए अलग-अलग  नमी रहनी चाहिए । जैसे -धान के लिए अधिक नमी की जरूरत है लेकिन बाजरा, कौनी वगैरह कम नमी में भी उपजाई जा सकती है|

पौधों के लिए आवश्यक नमी का होना बहुत ही जरूरी है । क्योंकि नमी के चलते ही पौधों की जड़ें फैलती हैं और पौधे नमी के साथ ही मिट्टी से अपना भोजन लेते हैं । साथ ही मिट्टी के सूक्ष्म जीवाणु भी मिट्टी में हवा और पानी के एक निश्चित अनुपात में ही अपना काम कर पाते हैं और पौधों के लिए भोजन तैयार करते हैं ।

 

झारखण्ड के पठारी क्षेत्रों में सिचाई की क्षमता काफी कम है । यहाँ खरीफ में केवल सात प्रतिशत जमीन में ही सिंचाई हो सकती है, जबकि रबी के मौसम में तो सिंचाई सिर्फ 3 प्रतिशत जमीन में ही हो सकती है । इन क्षेत्रों  के सभी  सिंचाई  श्रोतों  का उपयोग यदि सही ढंग से और पूर्ण क्षमता के साथ की जाए तो यहाँ सिंचाई सिर्फ 15 प्रतिशत जमीन में ही की जा सकती है ।

पठारी क्षेत्रों की जमीन ऊबड़-खाबड़  है । मिट्टी की गहराई भी कम है। यहाँ एक       हजार से पंद्रह सौ मि.मी. वर्षा होती है । इस वर्षा का 80 प्रतिशत भाग जून से सिंतबर महीने तक होता है । मिट्टी की कम गहराई और खेत के ऊबड़-खाबड़ होने से वर्षा का पानी तो खेत से निकल ही जाता है, यह अपने साथ खेत की उपजाऊ मिट्टी भी ले जाता है । इन्हीं कारणों के चलते पठारी क्षेत्रों में पौधों के लिए नमी बनाए रखना बहुत जरूरी है ।

पठारी क्षेत्रों की मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है वे है :-

  1. खेत की सतह से वर्षा के जल के बहाव को रोकना ।
  2. मिट्टी की गहराई के अंदर जल के बहाव की गति को बढ़ाना जिससे खेत की सतह से कम पानी बाहर जा सके ।
  3. वर्षा के जल की बूँदों के प्रभाव से जमीन की सतह पर पपड़ी बन जाती है । इससे बीज के अंकुरण में बाधा आती है और जल के मिट्टी की गहराई के अंदर बह जाने की क्षमता भी कम हो जाती है ।
  4. भूसंरक्षण के उपाय - इसके द्वारा मिट्टी के कटाव को रोकना ताकि अधिक उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी सतह की जल-धारण  क्षमता बनी रहे ।
  5. खेत की सतह को घास - फूस या फसल के अवशेषों द्वारा ढ़क देना| जिससे कि मिट्टी से जल का वाष्पीकरण रोका जा सकें ।
  6. वर्षा जल संचय करना ताकि जरूरत के समय आवश्यक सिंचाई द्वारा मिट्टी की नमी कायम रखी जा सके ।
  7. वर्षा द्वारा संचित जल का सही उपयोग जिससे कि कम-से-कम जल द्वारा अच्छी फसल ली जा सके ।
  8. फसल की उपज को ध्यान में रखते हुए जल उपयोग क्षमता को बढ़ाना । इसके द्वारा खेती के उन्नत तरीकों को अपना कर कम-से-कम  जल के उपयोग से अधिक से अधिक फसल को  लेना । मिट्टी की नमी बनाए रखने के लिए कुछ आसान और आधुनिक उपाय किए जा सकते हैं ।

ये उपाय इस प्रकार है -

 

खेत की सतह से वर्षा के जल का बहाव रोकने के लिए खेत के चारों ओर हल्का मेड़ बना दें| खेत के ऊपरी ढलान पर पानी के बहाव का एक सुरक्षित रास्ता बनावें|

जो खेत के बगल होकर किसी नदी नाले में जा सके जिससे कि खेत की मिट्टी का कटाव रोका जा सके । यह उपाय बड़े किसान खुदकर सकते है । छोटे किसान सहकारी समीतियाँ या सरकार की मदद से कर सकते हैं । इस उपाय के द्वारा दो फायदे होते हैं । एक तो वर्षा का जल मिट्टी की गहराई के नीचे जाकर मिट्टी में समा जाता है और जरूरत के मुताविक फसल की जड़ों को जल मुहैया कराता है । दूसरा फायदा यह है कि इससे खेत की मिट्टी का कटाव भी नहीं हो पाता है      मिट्टी के अंदर वर्षा जल के बहाव को बढ़ाने के लिए खेत की सतह के ऊपर या उसके अंदर कड़ी परतों को उपयुक्त औजार के द्वारा काटें । इस तरह से वर्षा का अधिक जल खेत की सतह के नीचे चला जाता है और खेत के ऊपर से पानी का बहाव कम हो जाता है ।इसके लिए सबसे अच्छा उपाय है जैविक खादों का उपयोग । गोबर की खाद 10 -20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालने से हल्की और कड़ी मिट्टी दोनों में जल-धारण क्षमता बढ़ जाती है । इसके साथ ही खेत में जल का जमाव भी नहीं होता है और अच्छी फसल ली जा सकती है । जैविक खाद या जैविक पदार्थो के नियमित उपयोग से खेत की सतह पर कड़ी परत भी नहीं बन पाती है । इससे मिट्टी के अंदर जल का बहाव अच्छा होता है साथ ही बीज का अंकुरण भी ठीक होता है ।

खेत की सतह को घास-फूस  या फसल के अवशेषों से ढकने की क्रिया को अंग्रेजी में 'मलचिंग' कहा जाता है । इससे सबसे बड़ा लाभ यह है कि खेत की मिट्टी से   जल का वाष्पीकरण  नहीं हो पाता है । इसका  दूसरा फायदा  यह है कि खर-पतवार के बढ़ोतरी में भी कमी होती है । जिसके चलते नमी का संरक्षण होता है । इसका तीसरा फायदा है कि वर्षा जल के द्वारा मिट्टी का कटाव भी नहीं हो पाता है । वर्षा जल का संचय करने के लिए संचय तालाब का निर्माण किया जाता है । यह तालाब यदि संभव हो तो ऐसी जगह बनाया जाए जहाँ भूमि की सतह की प्राकृतिक बनावट में थोड़ा-सा ही फेर बदल कर के तालाब का रूप दिया जा सके ।

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि तालाब  को ऐसी जगह बनाया जाय जहाँ से कम-से-कम खर्च में अधिक-से-अधिक खेतों में जरूरत के समय फसल को सुरक्षित रखने के लिए एक-या-दो  सिंचाई दी जा सके । ये उपाय सहकारी समितियों के माध्यम से या सरकार की मदद से किए जा सकते हैं । ऐसे तालाब विशेषज्ञों से सलाह लेकर ही बनाना चाहिए ।

कुछ ऐसे भी उपाय हैं जिसके द्वारा किसान वर्षा के जल को संचय कर कुछ समय तक के लिए मिट्टी में नमी कायम रख सकते हैं । इन उपायों में एक है फसल की कतारों के बीच गहरी नालियाँ बनाना । जिससे वर्षा का जल संचित हो ओर काफी समय तक मिट्टी के नमी को कायम रखा जा सके । दूसरा उपाय है फल वृक्षों वाले जमीन में वृक्ष की कतारों के बीच छोटे-छोटे गड्‌ढे, जगह-जगह  पर बना कर वर्षा जल को संचित किया जा सकता है और इस जल से अगल - बगल के फल वृक्षों में जरूरत के समय सिंचाई कर मिट्टी की नमी को कायम रखा जा सकता है ।

 

उन्नत और आधुनिक तरीके से खेती करने से प्रति इकाई पानी की मात्रा से अधिक से अधिक फसल ली जा सकती है । इसके लिए ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिए जिनकी  जड़ें मिट्टी की अधिक गहराई में जाकर वहाँ की नमी का उपयोग जरूरत के मुताबिक कर सके । सुखाड़ के समय ऐसे पौधों को लगावें जो वाष्पीकरण या अन्य तरीके से मिट्टी के जल को कम-से-कम वायुमंडल में छोड़ सके । इसके लिए कम चौड़े पत्तें वाले फसलों का चुनाव करना चाहिए । खेत से हमेशा खर-पतवार को निकालना चाहिए ताकि मिट्टी में फसलों के लायक नमी बनी रह सके ।

कीड़े-मकौड़े  और बीमारियों का निदान भी करते रहना चाहिए जिससे कि अधिक उपज कम से कम जल के उपयोग से मिल सके ।

 

फसलों पर खाद एवं उर्वरकों का प्रभाव

जिस प्रकार मनुष्य तथा पशुओं के लिए भोजन की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार फसलों से उपज लेने के लिए पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों की आपूर्ति करना आवश्यक है| फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्व जमीन में खनिज लवण के रूप में उपस्थित रहते हैं, लेकिन फसलों द्वारा निरंतर पोषक तत्वों का उपयोग, भूमि के कटाव तथा रिसाव के द्वारा भूमि से एक या अधिक पोषक तत्वों की कमी हो जाती है, जिसे किसान भाई खाद और उर्वरक के रूप में खेतों में डालकर फसलों को उनकी आपूर्ति करते हैं ।

फसल उत्पादन में आमतौर पर गोबर की खाद, बार्मी कम्पोस्ट, शहरी कम्पोस्ट, अंरडी की खली, नीम की खल्ली, मूंगफली की खल्ली, सरसों की खल्ली, हड्‌डी का चूर तथा डैचा, सनई और मूँग को हरी खाद के रूप में उपयोग की जाती है । इनमें पोषक तत्व कम मात्रा में होते है तथा प्रति ईकाई पोषक तत्व के लिए अधिक मात्रा की आवश्यकता पड़ता है हमारे किसान भाई अपने खेतों में पशुओं से प्राप्त गोबर को खाद के रूप में चुनते है । लेकिन कुछ किसान भाई गोबर से उदला बनाकर ईधन के  रूप में उपयोग करते है । उनसे आग्रह है कि गोबर जैसी बहुमूल्य खाद को जलावन के रूप में न प्रयोग कर अपनी फसल  से अधिक उत्पादन लेने के लिए खेतों में डालें । क्योंकि खाद के प्रयोग से फसल को न केवल पोषक तत्व ही मिलते है, बल्कि इनका उपयोग से भूमि संरक्षण में सुधार होता है । यहाँ की बलुवाई भूमि की संरचना में सुधार होता है । इससे इसमें अल-धारण क्षमता में वृद्धि होती है जिससे  किसान भाई को अधिक बार सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है ।

इसके अलावे धनायन विनिमय की क्षमता बढ़ती  हैं जिससे जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ती है। भूमि में जीवाणु के स्तर में परिवर्त्तन होता है । वायु का संचार अच्छी तरह होने से जीवाणुओं की क्रियाशीलता  बढ़ती है । जिससे फसलों की वृद्धि अच्छी होती है तथा उपज अच्छी मिलती है । इसके अलावे जैविक अम्ल का भी निर्माण होता है जो भूमि में पोषक तत्वों की घुलनशीलता  को बढ़ाते हैं, जिससे वे पोषक तत्व फसल को आसानी से मिलते है । नीम तथा करंज की खली के उपयोग से पोषक तत्वों की आपूर्ति के साथ-ही-साथ  फसल को कीटाणुओं द्वारा होने वाली क्षति भी    क म होती है ।

 

फसल उत्पादन में मुख्यतः नेत्रजन स्फुर, पोटाशयुक्त उर्वरक का प्रयोग होता है । इसके अलावे सतुलित पोषक के लिए गंधक युक्त तथा लोहा युक्त उर्वरक का भी प्रयोग होता है । नेत्रजन  युक्त उर्वरक  में यूरिया,  अमोनियम  सल्फेट,  अमोनियम क्लोराइड का प्रयोग होता है । स्फुर युक्त उर्वरकों में सिंगल सुपर फासफेट तथा पोटाश के लिए पोटाशियम  क्लोराइड  तथा पोटाशियम  सल्फेट का प्रयोग होता है । इसके अलावे नेत्रजन + स्फुर क्षेत्रों के लिए हाई आमोनियम फासफेट का प्रयोग होता है । गंधक की आपूर्ति के लिए जिप्सम का प्रयोग होता है ।

 

वर्तमान समय में फसल उत्पादन  में उर्वरकों का 40 - 60 प्रतिशत योगदान है । संतुलित उर्वरक प्रयोग से अधिक उपज ली जा सकती है । नेत्रजन युक्त उर्वरक पोधों की वृद्धि एवं विकास में सहायक होते है  तथा सभी प्रोटीनों का आवश्यक अवयव जिसका विकास एवं उपज की वृद्धि में सहायक है । स्फुर  युक्त उर्वरक जड़ों की वृद्धि कोशिका विभाजन पौधों की वृद्वि एवं उपज में बढोतरी में सहायक होते है । फूलों एवं फलों के विकास के लिए फसल को शीध्र पकने के लिए स्फुर जनित उर्वरकों का प्रयोग जरूरी है । पोटाश युक्त उर्वरक प्रोटीन, मंड तथा र्शकरा सेउत्पादन एवं प्रवाह के नियंत्रित करना, पौधों को रोगों एवं कीड़ों, पाला एवं फसल की गुणवक्ता की वृद्धि के लिए आवश्यक है । गंधक युक्त उर्वरक से तेलहनी फसलों में तेल की मात्रा बढ़ती है तथा उपज में भी वृद्धि होती है ।फसलों में एक्कीकृत पोषण का मतलब  है कि फसल से समुचित उपज लेने के लिए खाद एवं उर्वरको का समन्वित उपयोग करें । क्योंकि लगातार उर्वरक को प्रयोग से जमीन की उर्वराशक्ति पर बुरा असर पड़ता है तथा उपज भी प्रभावित होता है|

इसके बाद इसे अखबार या साफ कपड़ों पर फैलाकर छाया में आधा घंटे तक सुखने दें । इसके बाद उपचारित बीजों की बुआई शीध्र कर दें । इस तरह अगर बीज को उपचारित करें तो किसानों को कितना आर्थिक लाभ होने की संभावना है|

दलहनी  फसलों  में जीवाणु खाद के प्रयोग  से लाभ

इसके प्रयोग से किसान भाइयों को मुख्य  रूप से दो तरह का लाभ प्राप्त होता है । पहला रासायनिक उर्वरक खाद जैसे - युरिया या आमोनियम सल्फेट की दो तिहाई मात्रा की बचत करके और दूसरा उपज में 10-15 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि करके । रासायनिक उर्वरक के रूप में लगभग एक हजार रूपये के उर्वरक की बचत प्रति वर्ष होती है ।

हर प्रकार के दलहनी फसलें जैसे - अरहर, मटर, चना, मूंग इत्यादि के लिए अलग-अलग जीवाणु कल्चर खाद का प्रयोग करना चाहिए । क्योंकि अगर चना के कल्चर खाद का प्रयोग हम मटर के फसल में करेगें तो उसका लाभ फसल को नहीं मिलेगा । इसलिए कल्चर खाद जिस फसल की हो उसी में उसका प्रयोग करना चाहिए ।

राइजोबियम कल्चर जीवाणु खाद की आधा किलो मात्रा यानि 500 ग्रा0 प्रति हेक्टर के दर से प्रयोग करना चाहिये । जिसका मुल्य लगभग 40 रूपया है ।

वैसे तो यह जीवाणु खाद देश के सभी कृषि विश्वविद्यालयों में बनाया जाता है ।

झारखण्ड में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय,  राँची के मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग में यह कल्चर उपलब्ध है । वहाँ से हमारे किसान भाई प्राप्त कर सकते है ।

कल्चर के प्रयोग में मुख्य  रूप से ध्यान देने योग्य बाते हैं :-

  • कल्चर को धूप से बचायें ।
  • कल्चर जिस फसल की हो उसका प्रयोग उसी फसल के बीज के लियें करें ।
  • कल्चर का प्रयोग पैकेट पर लिखे अवधि तक अवश्य कर लें ।
  • उपचारित बीज की बोआई शीध्र कर दें ।
  • कल्चर खाद की क्षमता बढ़ाने के लिये फास्फेट खाद की पूरी मात्रा मिट्टी में अवश्य मिलायें ।
  • किसान भाई ध्यान दें कि यदि मिट्टी अम्लीय स्वभाव की हो तो उसमें चूने का व्यवहार अवश्य करें ।

 

स्रोत: झारखण्ड सरकार का कृषि व गन्ना विकास विभाग, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय,राँची|

 

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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