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झारखण्ड में बागवानी फसलों की जैविक कृषि

जैविक कृषि से तात्पर्य है, खेती हेतु जैविक अवयवों का उपयोग एवं रासायनिक उर्वरकों, तृण नाशकों तथा कीटनाशकों का परिष्कार| अत: जैविक कृषि को एक उत्पादन पद्धति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह भूमि के स्वास्थ्य, संरक्षण, मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संरक्षण के प्रति एक व्यापक प्रक्रिया है।

जैविक कृषि उत्पादन की वह पद्धति है जिसमें अकार्बनिक तत्वों से निर्मित उर्वरक, कीटनाशक, रोगनाशक, एवं तृणनाशक इत्यादि रसायनों का प्रयोग वर्जित है। इसके स्थान पर जैविक पदार्थ जैसे फसल अवशिष्ट, गोबर की खाद, कम्पोस्ट, इन्रिच्ड, एवं फास्फो कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, हरी-खाद, जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है। एक विधि से मृदा की उत्पादकता, उर्वरता, कीटनाशक, एवं फफूंद नाशक में काफी मदद मिलती है।

विश्व में 19वीं शताब्दी के पहले कृषि में जैविक खाद का ही उपयोग होता था| कृषि में बदलाव सर्वप्रथम इंग्लैंड में 19वीं के शुरुआत में आया जब सुपर फास्फेट का निर्माण हुआ। इसी समय जर्मनी में अमोनिया प्रादुर्भाव हुआ और नत्रजन उर्वरक का प्रयोग आरंभ हुआ। सन 1939 ई० में डी० डी० टी० एवं 1933 ई० में 2, 4-D और सन 1940 में MCPA का निर्माण हुआ| इस प्रकार 20वी० शताब्दी के मध्य तक विश्व में आधुनिक कृषि के लिए कृषि यंत्र, रासायनिक खाद, रासयनिक कीटनाशकों का प्रचार-प्रसार तेजी से हुआ।

भारत में भी पिछले दशकों में कृषि में क्रन्तिकारी बदलाव आया है। देश ने कृषि में रासयनिक खाद के द्वारा आत्मनिर्भर की ओर कदम बढाये गये|  हरित-क्रांति के द्वारा कृषि उत्पादन तेजी से बढ़ा और बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान की आव्यसकता पूरी हुई| यह अधिक उत्पादन रासयनिक दवाओं एवं रासायनिक खादों के द्वारा संभव हो सका| अधिक उपज देने वाली किस्में, अत्यधिक मात्रा में उपयोग की जाने वाली दवायें, यांत्रिकीकरण से कृषि में मृदा अपरदन, मिटटी में जैविक क्षरण और रासायनिक दवाओं का कई वर्षो तक मिट्टी के अवशेष के रूप में रहने का कारण बना| इससे पिछले कुछ वर्षो में कई राज्यों में खाद्यान उत्पादन उतना नहीं बढ़ सका जिनती की अपेक्षा की जाती रही। इतना ही नहीं, कुछ अन्य राज्यों में उत्पादन के घटने की भी समस्या आ गयी| यह सिर्फ भारत में ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में चिंता का विषय बन गया है। दिन-प्रतिदिन रसायनों की कीमत में वृद्धि, अधिक आदानों की आवश्यकता, मृदा तथा मानव स्वास्थ्य में कमी ने एक प्रशनवाचक चिन्ह लगा दिया है| अत: इसका एकमात्र उपाय यही है कि जैविक कृषि को अपनाकर बढ़ती हुई जनसंख्या की आव्यश्कताओं को आने वाले समय में पूरा किया जा सके| जैविक कृषि में विश्व के कई देशों ने मत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

झारखण्ड में जैविक कृषि

झारखण्ड में रासायनिक खादों एवं दवाओं का उपयोग अन्य राज्यों की अपेक्षा बहुत कम है। कई ऐसे जिले हैं जहाँ के किसान इनका उपयोग नहीं के बराबर करते हैं और इनकी कृषि को जैविक कृषि ही कहा जा सकता है। इन्हें राष्ट्रीय/ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाने के लिए प्रमाणीकरण की आवश्यकता है। इसके लिए सरकारी, गैर सरकारी संस्थानों, तथा बैंकों को सार्थक पहल करनी होगी। भूमि के प्रमाणीकरण के लिए बहुत से प्रमाणीकरण संस्थाएं है, जो की राष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रमाणीकरण करती हैं जिससे विश्वस्तरीय जैविक उत्पादन संभव हो सके और किसानों के आर्थिक तथा सामाजिक स्तर में सुधार हो सके|

जैविक कृषि हेतु आवश्यक उपादान

झारखण्ड में कई ऐसे संसाधन है , जो जैविक कृषि को बढ़ावा देने में मदद कर सकते है।

  1. परती जमीन की उपलब्धता - राज्य के भोगोलिक क्षेत्र 79.10 लाख हे० में 38 लाख हे० ( 48 प्रतिशत ) ही खेती योग्य भूमि है। इनमें भी बुआई का क्षेत्रफल सिर्फ 22.38 लाख हे० (28.29 प्रतिशत) है| वर्तमान में परती भूमि 6.74 लाख हे० ( 8.52 प्रतिशत) है। जैविक खेती हेतु इनमें से कुछ प्रतिशत परती भूमि को लिया जा सकता है।
  2. मिटटी में जैविक (अंश) की मात्र - झारखण्ड में खेती योग्य भूमि टांड और दोन में बटी हुई है। सबसे ऊँची भूमि को टांड-1, उससे नीचे टांड-2, तथा टांड-3 के नीचे की भूमि को दोन-3, दोन-2 और सबसे नीचे की भूमि को दोन-1 कहते हैं| जहाँ टांड में जैविक अंश की मात्रा कम होती है, वही दोन में यह मात्रा बढ़ जाती है। किसान अपने जानवरों को ज्यादा संख्या में रखतें है, इसलिए जैविक खाद की उपलब्धता आसान हो जाएगी।
  3. रासयनिक खाद एवं दवा का कम उपयोग - झारखण्ड में अधिकतर छोटे एवं सीमांत कृषक है, जो सुविधा के आभाव में रासायनिक दवायें एवं खादों का उपयोग नहीं करते|  अत: जैविक कृषि में सावधानी रखते हुए इस कार्य को बढ़ाया जा सकता है।
  4. छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए उपयोगी - जैविक कृषि छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए उपयोगी है। राज्य में इनकी संख्या अधिक है।
  5. केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा जैविक खेती को प्रोत्साहन - जैविक खेती की तरफ कई राज्यों ने काफी उन्नति की है| पर झारखण्ड ने भी इस ओर कदम बढ़ाये है। राष्ट्रीय बागवानी मिशन पिछले दो-तीन वर्षो से जैविक खेती की ओर अग्रसर हुए है| राज्य में 500 हे० में बागवानी फसलों की जैविक खेती हो रही है, जिसका प्रमाणीकरण भी कराया जा रहा है| इससे केंद्र सरकार का 85 प्रतिशत एवं राज्य सरकार की 15 प्रतिशत राशि व्यय होती है।

राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2012-13 से एक नयी पहल की गयी है| राज्य में जैविक खेती को तीव्र गति से आगे बढ़ाने हेतु एक जैविक कोषांग की स्थापना की गयी है एवं राज्य जैविक कृषि प्रधिकार का गठन कर उसके अन्तर्गत तीन नयी योजनायें प्रारंभ की गयी है जो निम्न है –

  1. राज्य जैविक मिशन
  2. राज्य जैविक मसाला मिशन
  3. राज्य जैविक औषधीय मिशन
  1. राज्य जैविक मिशन:- इस मिशन के अंतर्गत मुख्यतया सब्जिओं (मटर, ब्रोकली, फ्रेंचबीन, शिमला मिर्च, पत्तागोभी इत्यादि)  की जैविक खेती 15000 हे० में की जाएगी|
  2. जैविक मसाला मिशन : इस मिशन के अंतर्गत मुख्यतया मसलों( अदरक, हल्दी, मिर्च, धनिया आदि) की खेती 7000 हे० में की जायेगी।
  3. जैविक औषधीय मिशन:- मानव रोगों के निवारण हेतु औषधीय पौधों का प्रचालन बढ़ रहा है। देश के अन्दर एवं विदेशों में भी औषधीय पौधों की मांग तेजी बढ़ रही है| इस मांग की पूर्ति के लिए राज्य में औषधीय पौधों में मुख्यतः शतावर, कालमेघ , एवं घृतकुमारी की खेती की जायेगी। झारखण्ड में जैविक कृषि अभी शैशवावस्था में है, लेकिन राज्य सरकार द्वारा इसे कुछ ही वर्षो में जैविक राज्य के रूप में विकसित किया जाना है| इससे हमारी खेती दूसरों पैर निर्भरग नहीं रहेगी, मिटटी की उर्वरा एवं पर्यावरण में सुधार होगा, लोगो का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, रोग और व्याधियाँ कम होगी, भोजन स्वादिष्ट एवं पोषक होगा|

जैव उर्वरक एवं इसके गुण

जैविक कृषि हेतु कृत्रिम उर्वरक प्रतिबन्धित है। जैव उर्वरक में गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट सर्वोतम है क्यूंकि गोबर एवं गौमूत्र में नाइट्रोजन, एंजाइम्स, एवं लवण, पर्याप्त मात्रा में होते हैं जो भूमि में जैविक तत्वों की पूर्ति करते हैं तथा मृदा विन्यास को प्राकृतिक स्थिति में बनाये रखते हैं।

गोबर की खाद से उत्पादित खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यवर्धक होते हैं, अत: गोबर की खाद से की गई खेती से निम्न लाभ होते हैं-

  1. भूमि में सूक्षम लाभकारी जीवाणुओं की वृद्धि होती है|
  2. सिंचाई के लिए कम पानी की आवश्यकता होती है क्योंकि भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ जाती है|
  3. पर्यावरण प्रदूषण मुक्त रहता है खाद्यान पौष्टिक एवं स्वादिष्ट रहता है।

गाय के गोबर कंडे की राख में एक विशेष सुगन्ध होती है, जिसका प्रयोग कीटरोधक के रूप    में किया जाता है।

1) गोबर की तरल खाद:- गोमूत्र बंद करके उसे 7 दिन तक

आवश्यक सामग्री:-

  1. एक साधारण मिट्टी का घड़ा
  2. चार किलो ग्राम गाय का गोबर
  3. 8 लीटर गोमूत्र
  4. 250 ग्राम गुड़

विधि- एक मिटटी के घड़े में 8 लीटर गोमूत्र, 4 किलो ग्राम गोबर मिलाकर छायादार स्थान में रखा जाता है। अब इसमें 250 ग्राम गुड़ के छोटे-छोटे टुकड़े डालकर मिलाया जाता है। इसके पश्चात घड़े का मुहँ बंद करके उसे 7 दिन तक रख दिया जाता है|  7  दिन के बाद 1 लीटर  तैयार तरल पदार्थ को कपड़े से छानकर उसमें 4 लीटर पानी मिलाकर फलों एवं सब्जियों के पौधों की जड़ों डाला है। इससे फलों सब्जियों की उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है।

मात्रा:- फलदार पेड़ जैसे – आम, अनार, अमरुद, केला , लीची , इत्यादि में 500 मिलीलीटर प्रति पौधे के अनुसार|

2) अमृत पानी:-

अमृतपानी भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के प्रयोग में आता है। अत: इसका छिडकाव मृदा पर होना चाहिए। छिडकाव करते समय यह ध्यान देना आवश्यक है कि उस समय मिटटी में पर्याप्त नमी होना चाहिए| सिंचाई करते समय नाली में बहते हुए पानी में  अमृतपानी का घोल मिला देने से खेत में सर्वत्र इसका फैलाव जो जाता है।

अमृतपानी मृदा को सजीव करने के साथ-साथ जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आवश्यक सामग्री:-

  1. 250 ग्राम देशी गाय का घी
  2. 500 ग्राम शहद या गुड़
  3. 10 किलोग्राम गाय का ताजा गोबर

200 लीटर पानी

विधि:- एक प्लास्टिक ड्रम में गाय का ताजा गोबर 10 किलोग्राम लेकर उसमें देशी गाय का घी 250 ग्राम अच्छी तरह मिला दें| मिश्रण में शहद या गुड़ 500 ग्राम मिलने में पश्चात उपरोक्त मिश्रण में 200 लीटर पानी मिला दें। अब इसे एक सप्ताह तक रख कर सुबह एवं शाम अच्छी तरह चलाये। तत्पश्चात उपयोग करें। इसका उपयोग बीज संस्कार एवं भूमि संस्कार में किया जाता है।

बीज संस्कार:- 500 ग्राम अमृतपानी एवं बीज को मिटटी के बर्तन में बुआई के पूर्व मिलाकर सुखाने के उपरान्त बुआई करें|

भूमि संस्कार:- 10 लीटर अमृतपानी को एक एकड़ क्षेत्र की बुआई के बाद प्रथम सिंचाई के समय में प्रयोग करें|

3) पंचगव्य:

पंचगव्य गाय का ढूध, गाय ढूध की दही, गौमूत्र, गोबर , एवं गोघृत का विशेष अनुपात में किया गया समिश्रण है। पंचगव्य का उपयोग प्राचीनकाल में मनुष्यों, पौधों, एवं जानवरों के कल्याण के रूप में किया जाता रहा है।

आवश्यक सामग्री:-

गौमूत्र – 3 लीटर

गए का गोबर – 5 किलो

गए का दूध – 2 लीटर

गाय दूध की दही – 2 लीटर

गाय का घी- 1 किलोग्राम

पानी – 5 लीटर

शहद - 500 ग्राम/ गुड़ 1 किलोग्राम

विधि:-

सम्पूर्ण मिश्रण को मिटटी के बर्तन में डालकर अच्छी तरह मिलाएं। फिर छाया में इस बर्तन को 3 सप्ताह तक ढक कर रखें। रात को पुआल या बोरा से ढक कर रखें। तत्पश्चात छान लें फिर 2 लीटर तैयार पंचगव्य को 100 लीटर पानी में मिलाये| लगभग 20 मिनट इसे अच्छी चला कर स्प्रेयर से खेत या फलदार पेड़ पर छिडकाव करें। यह सम्पूर्ण पंचगव्य 4 एकड़ खेत के लिए पर्याप्त है।

4) हरी खाद :-

हरी खाद एक प्रकार की जैविक खाद है। ये ताजे रूप में प्रयोग में लायी जाती है, जिसमें हरे पौधे विशेषकर दलहनी फसलों को खेत में उगाकर फूल आने से पहले उसे हल चलाकर मिटटी में दबा दिया जाता है। ये पौधे नाइट्रोजन का प्राकृतिक रूप से स्थिरीकरण करे हैं, मिटटी में जैविक तत्वों को वृधि तथा पोषक तत्वों की उपलब्धता बढती है।

हरी खाद के रूप में प्रयोग होने वाली मुख्य फसलें:-

इसके लिए निम्न तीन तरह के पौधों का प्रयोग करते है:

  1. दाने वाली फलीदार फसलें : मूंग, लोबिया, सोयाबीन, उड़द आदि|
  2. बिना दाने वाली फलीदार फसलें या चारे वाली फलीदार फसलें : सनई, ढैंचा, सेंजी आदि|
  3. बहुवार्षिक फलीदार फसलें : सुबबुल, कैसिया, सिस्बनिया आदि

हरी खाद में उपयुक्त पौधे के चुनाव में सावधानियाँ :-

  1. पौधे शीघ्र बढने वाले एवं घने पत्तों वाले होने चाहिये।
  2. सूखा, बाढ़, छावं एवं विभिन्न
  3. तापमान सहने वाले पौधे हों।
  4. कीट प्रतिरोधक एवं शीघ्र विघटन होने वाले पौधे हों।

अत: कुछ गांठदार जड़ों वाले पौधे जैसे- मूंग, उड़द, सनई, ढैंचा, लोबिया और सोयाबीन आदि हरी खाद के लिए अधिक उपुक्त है क्योंकि ये पौधे वातावरणीय नत्रजन का स्थिरीकरण करते हैं।

हरी खाद के लाभ:-

  1. इसमें भूमि को जीवांश पदार्थ मिलता है। भूमि की भौतिक तथा रासायनिक स्थिति में सुधार होता है।
  2. हरी खाद की फसलें भूमि की निचली सतहों से पोषक तत्त्व खींचकर ऊपरी सतह पैर डाल देते हैं, जिससे अग्रिम फसलें लाभान्वित होती है।
  3. भूमि संरचना में सुधार होता है।
  4. भूमि में जल अवशोषण क्षमता बढ़ती है।
  5. हरी खाद के पौधे पोषक तत्वों को अपने अन्दर रोकते हैं| जिससे रिस कर तत्वों का हास नहीं हो पता है|
  6. दलहनी पौधों की जड़ वातावरण की स्वतंत्र, नाइट्रोजन को इक्कठी करते हैं|
  7. 7. कुछ तत्वों जैसे कैल्शियम, पोटैशियम , फास्फोरस अदि की उपलब्धता बढ़ती है।

5) बीजामृत

आवश्यक सामग्री : -

गाय का गोबर – 5 किलो

गोमूत्र – 5 लीटर

अच्छी मिटटी – 100 ग्राम

चुना – 50 ग्राम

विधि:-

  1. बीजामृत मिटटी, सीमेंट, या प्लास्टिक के बर्तनों में बनाया जा सकता है।
  2. पांच किलो ताजा गाय का गोबर एक कपड़े बाँधकर रात भर पानी में रखतें है|
  3. अगले सुबह गोबर में पानी डालकर 3 बार धोते हैं|
  4. इसमें 5 लीटर गोमूत्र अच्छी तरह मिलाया जाता है।
  5. मिलाते समय 100 ग्राम अच्छी मिटटी , एवं 50 ग्राम चूना दें।
  6. इसे 20 लीटर बनाकर बीज पर अच्छी तरह छिड़ककर थोड़ी देर छाया में सुखा कर बुवाई करें|
  7. बीज/बिचड़ा / पौधे को उपचारित करने के लिए ताजा व्यव्हार करें।
  8. बीजामृत उपचार से अंकुरण, रोग प्रतिरोधक क्षमता एवं पौधों का विकास अच्छा होता है।

5) जीवामृत:-

यह एक आसानी से बनाया जाने वाला द्रव्य है जिसमे मिटटी में लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि होती है एवं पौधों का विकास होता है।

आवश्यक सामग्री एवं विधि :

  1. 10 किलो गाय का गोबर, गौमूत्र, (5-10 लीटर) एवं अच्छी मिट्टी (1 किलो) लेकर अच्छी तरह मिलाएँ| इसमें 2 किलो गुड़ एवं 1 किलो दाल की भूसी दें|
  2. इसे एक प्लास्टिक या सीमेंट के बड़े बर्तन में 200 लीटर पानी मिला कर बना लें|
  3. इस मिश्रण को 3-4 दिन तक छोड़ दें एवं हर दिन 3-4 बार चला दें।
  4. इसे छान कर पौधों पर छिडकाव करें।
  5. 200 लीटर एक एकड़ के लिए पर्याप्त है।
  6. तैयार करने के बाद इसे एक सप्ताह तक व्यव्हार करें|
  7. इसे सिंचाई, स्प्रिंकलर द्वारा पौधे या पेड़ में भी दिया जा सकता है

6) सी पी पी ( Cow Pat Pit) या गाय के ताजे गोबर गोबर की खाद :-

जगह का चुनाव:-

  1. ऐसे स्थान का चुनाव करें जहाँ पानी जमा न होता हो एवं बरसात का पानी आसानी से निकल जाये।
  2. इसे किसी छायादार पेड़ के नीचे न बनायें।
  3. किसी कुएँ या तालाब के आस-पास बनायें।
  4. बनाने की जगह कोई नजदीक कोई विषैले पदार्थ या प्रदुषण न हो।

संसाधन: -

  1. गाय का गोबर 70-80 किलोग्राम
  2. अंडे का छिलका( पिसा हुआ) – 200 ग्राम
  3. पत्थर का चूर्ण- 200 ग्राम
  4. बायोडायनामिक कम्पोस्ट – 3 सेट
  5. जला हुआ ईटा- 200 नम्बर
  6. जूट का बोरा – एक

बनाने की विधि:-

3’ x 2’ x 1’ का एक गड्ढा बनाये जिसकी दीवार ईंट की दो परत हो| नीचे ईंट न बिछायें। अब 75-80 किलो ग्राम को साफ कर लें और उसमें 200 ग्राम अंडे के छिल्के का चूर्ण एवं 200 ग्राम पत्थर चूर्ण छिड़क दें और एक घंटे तक मिलायें। इस मिश्रण को गड्ढे में भर दें। इसमें बायोडायनामिक कम्पोस्ट के लिए इसमें पांच छेद रखें। ये छेद एक दूसरे से दूर होना चाहिए। इन छेदों में तीन ग्राम प्रत्येक बायोडायनामिक खाद को डालें और इसे गाय के गोबर से ढंक दें। बी० डी० 507 का 30 मी० ली० 1.5 लीटर पानी में लेकर 10 मिनट तक हिलायें एवं गड्डों में छिडकाव कर दें। इसे एक जूट के बोरे से ढंक दें|

बीस दिन के बाद गड्ढे से गोबर को निकल लें और कम से कम 30 मिनट तक मिलाने के बाद    फिर से डाल दें। इस क्रिया को 20-20 दिन के अन्तर पर तीन बार दोहरायें। एक तरह 60-70  दिनों में खाद तैयार हो जाएगी जो गहरे भूरे रंग की होगी और इसमें मिटटी की गंध होगी। इसे ठंडे एवं अंधेरी जगह में मिटटी के बर्तन में रखें|

उपयोग:-

  1. खेत में:-1.25 किलो ग्राम खाद लेकर 37.5 लीटर पानी में मिलायें एवं 20 मिनट तक घड़ी की दिशा एवं उलटी दिशा में चलायें। इसके छिडकाव के समय बी० डी० 500 भी मिलाया जा सकता है। इसे खेत में एक वर्ष में चार बार तक दिया जा सकता है। अगर खेत में नमी रहे तो इतनी मात्रा एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त है।
  2. पौधों पर छिडकाव:- पांच किलो ग्राम खाद लें जो एक हे० के लिए पर्याप्त हो| इसे 60 लीटर पानी में घोलकर अच्छी तरह मिलाएं। इसका छिडकाव चंद्रमा के चढ़ते क्रम में सुबह के समय करें।
  3. जड़ों के विकास हेतु:- पौधशाला में पौधों की कटिंग को पॉलीबैग  में लगाने के पहले खाद का पेस्ट लगा दें। इससे जड़ों का विकास शीघ्र होगा।
  4. बीज में मिश्रण हेतु:- सी० पी० पी० लेकर उसे बीजों के उपर छिडक दें और अच्छी तरह मिलाएं। इसे छाया में सूखने दें। इस क्रिया से बीजों का अंकुरण अच्छा होगा एवं पौधों का विकास भी ठीक होगा। बीजों से होने वाले रोगों की रोकथाम हो सकेगी।
  5. पेड़ों पर लेप करना: पेड़ों के कटने या उनके डाल पर लेप करने से रोग नहीं लगते

7) वर्मी कम्पोस्ट ( केंचुआ खाद):-

यह केंचुआ के द्वारा तैयार की गई खाद है। केंचुआ भूमि में अपना महत्वपूर्ण योगदान भूमि सुधारक के रूप में देता है। केंचुए अपने आहार के रूप में मिट्टी तथा कच्चे जीवांश को निगलकर अपनी पाचन नलिका से गुजरते है जिससे वह महीन कम्पोस्ट में परिवर्तित हो जाता है जिसे अपने शरीर से बाहर छोटी-छोटी कास्टिंग्स के रूप में निकलते है। इसी कम्पोस्ट को केंचुआ खाद या वर्मी कम्पोस्ट कहाँ जाता है| यह खाद मात्र 45-75 दिनों में तैयार हो जाता है।

केंचुआ खाद में विभिन्न तत्वों की मात्रा:-

केंचुआ खाद एक उच्च पौष्टिक तत्वों वाली खाद होती है। नाइट्रोजन 1.2- 1.4 प्रतिशत, फास्फोरस 0.4-0.6 प्रतिशत तथा पोटास 1.5-1.8 प्रतिशत होता है। इसके अलावा सूक्षम पोषक तत्त्व भी उपलब्ध होते है। केंचुए की गतिविधियों से निकलने वाला अवशिष्ट पदार्थ प्राकृतिक तत्वों से मिश्रित होने के कारण यह खाद देने से मिटटी अधिक उपजाऊ बन जाती है

आवश्यक सामग्री :-

सूखा चारा

गोबर की खाद – 3 से 4 क्विंटल

कूड़ा एवं कचरा – 7 से 8 क्विंटल

केंचुए की संख्या – 10,000

विधि:-

  1. एक शेड का निर्माण करें| इस शेड के नीचे सूखे चारे की 6” मोटी परत बिछायें।
  2. इसके उपर 6” पकी गोबर की खाद बिछायें और पानी से भिगोकर 2 दिन के लिए छोड दें।
  3. 100 केंचुए प्रति वर्ग फीट की दर से इस पर सामान रूप से बिछा दें।
  4. उसके उपर 9” मोटी कूड़े-कचरे की तह बिछा दें। इसमें प्लास्टिक , काँच और लोहा इत्यादि नहीं हो। इसे बोरे से ढंक दें।
  5. बोरे पर पानी का छिडकाव समय समय पर करते रहें। जिससे नमी बनी रहे।
  6. एक माह बाद पूरे ढाँचे को ऊपर से नीचे मिला दें फिर बोरे से ढंककर पानी छिड़क कर नमी बनाये रखें|
  7. 60-65 दिन में 3-6 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट तैयार हो जायेगा|
  8. इसमें 20-25 हजार केंचुए भी बढ़ जाते हैं, जिसे फिर से उपयोग किया जा सकता है।

इस तरह एक वर्ष में 4-5 बार वर्मी कम्पोस्ट बनाया जा सकता है

प्रयोग विधि:-

  1. खेत की अंतिम जुताई में केंचुआ खाद डालकर अच्छी तरह मिला दें।
  2. बिचड़ा या पौधे लगते समय प्रत्येक गड्ढे में 30-35 ग्राम केंचुआ खाद डालें|
  3. मिटटी चढाते समय 30-35 ग्राम केंचुआ खाद हर पौधे में डालें|
  4. सभी फसलों में केंचुआ खाद का प्रयोग किया जा सकता है।
  5. कीटनाशक एवं रासायनिक दवाओं का प्रयोग न करें।

सावधानियाँ:-

  1. केंचुआ धूप सहन नहीं कर सकते हैं। अत: खाद बनाने में छायादार स्थान का ही प्रयोग करें।
  2. ताजे गोबर का प्रयोग न करें।
  3. लगभग 60 प्रतिशत नमी बनायें रखें|
  4. कूड़े-करकट में अपघटन न होने वाली चीजें( शीशा,पत्थर,लोहा) को हटाकर प्रयोग करें|

तैयार केंचुआ खाद दानेदार भूरे रंग होता है जिसे तैयार होने के बाद केंचुआ को अलग करके फिर से खाद बनाने में उपयोग कर सकते है।

केंचुआ खाद प्रयोग करने के लाभ :-

  • केंचुआ खाद को भूमि में बिखेरने से तथा भूमि में इनकी सक्रियता से भूमि भुरभुरी एवं उपजाऊ बनती है जिससे पौधों की जड़ों के लिए उचित वातावरण बनता है। इससे उनका अच्छा विकास होता है।
  • केंचुआ खाद मिटटी में कार्बनिक पदार्थ की वृद्धि करता है तथा भूमि में जैविक क्रियाओं को निरन्तर प्रदान करता है।
  • केंचुआ खाद में मौजूदा आवश्यक पोषक तत्व पौधे सुगमता से प्राप्त कर सकते है।
  • केंचुआ खाद के प्रयोग से मिटटी भुरभुरी हो जाती है जिससे उसमें पोषक तत्व व जल संरक्षण क्षमता बढ़ जाती है व हवा का आवागमन भी मिटटी में ठीक रहता है।
  • केंचुआ खाद, कूड़ा-करकट, गोबर व फसल-अवशेषों से तैयार की जाती है अत; गन्दगी में कमी करती है तथा पर्यावरण को सुरक्षित रखती है।
  • केंचुआ खाद टिकाऊ खेती के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है तथा यह जैविक खेती की दिशा में एक नया कदम है।

8) नादेप कम्पोस्ट :-

यह खाद एक किसान श्री नारायण देव राव पाण्डरी द्वारा विकसित की गयी। इस विधि में बहुत कम समय में (110-120 दिन) खाद तैयार हो जाता है जो साधारण कम्पोस्ट से अच्छा होता है। इसे बनाने में गाय का गोबर, हरी या सूखी घास, गेहू की भूसी , धान का पुआल इत्यादि का उपयोग किया जाता है।

विधि:-

  1. इस विधि में एक का निर्माण किया जाता है जिसका आकार 10’ x 6’ x 3’ फीट होता है। इसे ईंट की दीवार से बनाया जाता है , जिससे बीच में छेद रखा जाता है।
  2. टैंक बनाने के बाद उसमें 15 क्विंटल पुआल एवं घास, पत्ते आदि दें इसके आलावा खेतों से निकलने वाले अन्य पदार्थ भी डालें जा सकते है। यह परत 6” की होती है|
  3. एक क्विंटल गोबर पानी में मिलाकर दें खेती की मिटटी (60 किलोग्राम) जिसमें प्लास्टिक आदि न हो, उसे भी उसमें अच्छी तरह डाल दें।
  4. आवश्यकतानुसार उसमें पानी देकर नमी बनायें रखें।
  5. इस तरह 24 घंटे के अन्दर टैंक को भर दें और उसे मिटटी तथा गोबर से लेप कर दें।
  6. यह खाद 110-120 दिन में तैयार हो जाती है।
  7. 7. 70-80 दिन के खाद निष्पादन के बाद सूक्षम जीवाणुओं, जैसे-  एजोटोबैक्टर, राईजोबियम या पी इस बी जीवाणु मिलाएं जाते हैं।

9) बायोडयानमिक कृषि

बीसंवी शताब्दी के प्रारंभ में जर्मनी में मिटटी की उर्वरा शक्ति में कमी आई। खाद पदाथों की गुणवता अच्छी नहीं रही। उसी समय 1924 में डॉ रुडोल्फ स्टेनर ने बायोडयानमिक कृषि की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इनके विचार भारतीय वैदिक खेती से मिलते थे| इन्होने मिटटी एवं कृषि को जीवित प्राणी माना।

डॉ रुडोल्फ स्टेनर ने बायोडयानमिक के 8 तरीके दिए।

  1. हार्न खाद – BD 500
  2. हार्न सिलिका – BD 501
  3. कम्पोस्ट बनाना
  • योरो-Yarrow -  BD-502
  • कैमोमिल -  BD 503
  • स्टीगिंग  नेटल  -  BD 504
  • टोक छाल – BD 505
  • मेलेरियन -  BD 507

सिद्धांत :-

इसे कम मात्रा में पानी में घोलकर अच्छी तरह चलाया जाता है। फिर इसे चन्द्रमा की गति के अनुसार छिडकाव करने से ज्यादा लाभ मिलता है।

उपयोग एवं मात्रा : -

बी. डी. 500:- इस खाद को गाय की सींग एवं गोबर की खाद से बनाया जाता है। इसे एक एकड़ में छिडकाव के लिए 25 ग्राम को 15 लीटर पानी में डालकर एक घंटे तक मिलाया जाता है। यह कार्य शाम के समय चन्द्रमा के घटते क्रम में किया जाता है छिडकाव में बड़ी बूंदों को दिया जाता है। 3-4 बार छिड़काव करने से मिट्टी में बदलाव आ जाता है। मिटटी में केंचुआ एवं राई जोवियम बैक्टीरिया की सक्रियता तथा नमी धारण क्षमता में वृद्धि होती है।

बी. डी. 501:- इसे बनाने में गाय के सींग एवं सिलिका का चूर्ण का उपयोग होता है। इसके एक ग्राम को 15 लीटर पानी में घोलकर एक घंटे तक चलाया जाता है। इसे सुबह के समय चन्द्रम के बढते क्रम में कम से कम दो बार छिड़काव करना चाहिए। स्प्रे करते समय पौधों के उपर महीन एवं ज्यादा दबाव में करना चाहिए। इससे उत्पादन में गुणवत्ता बढ़ती है तथा पौधों की प्रतिरोधक क्षमता में वृधि होती है|

बी. डी 502 :- इसे बनाने में पौधों का उपयोग होता है। यह सल्फर, पोटास एवं सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ाता  है। पौधों के विकास में सहायक है। यह शुक्र ग्रह (वीनस) से जुड़ा है|

बी. डी 503:- यह सल्फर पोटास, कैल्सियम एवं नाइट्रोजन उपलब्ध करता है। मिट्टी की संरचना को मजबूत करता है। यह मर्करी से जुड़ा है। कैल्सियम एवं सल्फर की उपस्थिथि के कारण कवकरोधी कार्य करता है। इसमें मृदा को सजीव बनाने की क्षमता होती है।

बी. डी 504:- यह लोहा एवं गंधक की उपलब्धता बढ़ता है। साथ ही मंगल ग्रह (मार्स) से जुड़ा है। मिट्टी में जैविक खादों को पौधों के लेने योग्य बनता है।

बी. डी. 505 :- इस खाद से कैल्सियम की उपलब्धता बढ़ती है| यह चंद्रमा से जुड़ा है तथा पौधों में फफूंद जनित रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ता है।

बी. डी 506:- यह पोटास एवं सिलिका तत्वों को उपलब्ध करता है। यह ब्रहस्पति ग्रह (जुपिटर) से जुड़ा है। पौधों को मिट्टी से आवश्यक तत्वों को लेने में सहायक है।

बी. डी. 507:- यह स्फूर को पौधों के लेने योग्य बनाता है। यह शनि ग्रह (सैटर्न) से जुड़ा है। केंचुवा की प्रक्रिया को बढाता है।

11 ) कम्पोस्ट:-

पिछले कुछ दशकों में रासयनिक खाद के निरंतर प्रयोग से मिट्टी की संरचना एवं बनावट में काफी अंतर आया है। इस अंतर के कारण झारखण्ड की मिट्टी नमी रहित एवं सख्त हो गयी है। झारखण्ड में अधिकतर वर्षाश्रित क्षेत्र में नमी संरक्षण हेतु जैविक खाद का प्रयोग आवश्यक है। इसके प्रयोग से कृषि योग्य भूमि में कम व्यय में ही पोषक तत्वों की पूर्ति कर कृषि उत्पादन को बढाया जा सकता है। जैविक खाद जैसे कम्पोस्ट को तैयार करना आसान है और कृषक अपने घरों के पास इसे कम खर्च में बना सकते हैं। अतः आवश्यक है कि रासयनिक खाद के स्थान पर जैविक खाद का प्रयोग किया जाये।

बनाने की विधि:-

गड्ढे का आकार:- लम्बाई : चौड़ाई : गहराई : 3 मी. X 1.5 मी. X 1 मी.

गड्ढे की संख्या:- प्रति मवेशी एक गड्ढा

सामग्री: खरपतवार, कूड़ा-कचरा, फसल अवशेष, पशू मल-मूत्र, जलकुम्भी एवं सब्जी अवशेष|

गड्ढा भरना :-

प्रत्येक गड्ढे को तीन भागों में बाँटकर कूड़े-कचरे, पुआल आदि की एक पतली परत (15 सेमी)बिछायें। गोबर का घोल बनाकर डालें। लगभग 200 ग्राम लकड़ी की राख दें। प्रत्येक तह पर 25 ग्राम युरिया दें। गड्ढे को इस तरह तब तक भरते रहें जब तक उसकी ऊंचाई जमीन से 30 सेमी उपर न हो जाये। बारीक मिट्टी की पतली परत (5 सेमी.) से गड्ढे को बंद कर दें। लगभग 5 महीने में कम्पोस्ट तैयार हो जाएगी।

12) पौष्टिक कम्पोस्ट (Enriched compost):-

उपरोक्त विधि से गड्ढे में उपलब्ध सामग्री से एक साथ ही भरें। 2.5 किलो नत्रजन प्रति 10 क्विंटल अपशिष्ट में डालें तथा 1: मंसूरी राक फास्फेट डाल दें। 15 दिनों बाद फफूंद पेनेसिलियम, एसपरजीलस या ट्राई कूरस 500 ग्राम प्रति टन अपशिष्ट जैविक की दर से मिला दें। अपशिष्ट की पलटाई 15,30,45 दिनों के अंतर पर करें। 3-4 महीनों में पौष्टिक कम्पोस्ट तैयार हो जाएगी।

सावधानियाँ:-

  • गड्ढे ऐसे स्थान पर बनाएं जहाँ पानी लगने की संभावना न हो।
  • गड्ढे छायादार स्थान पर बनायें।
  • गड्ढे भरते समय आवश्यकतानुसार पानी मीलायें।
  • बड़े टुकड़ों को काटकर छोटा कर गड्ढे में दें।
  • पशुओं के मल-मूत्र का इस्तेमाल करें।
  • तैयार होने पर कम्पोस्ट, काला, भुभुरा एवं बदबू रहित होता है।

जैविक खेती में सावधानियाँ :-

  • जैविक खेती राष्ट्रीय मानक के अनुसार करें।
  • जैविक खेती हेतु देशज बीजों का या अपने खेत से प्राप्त बीजों का ही उपयोग करें।
  • जैनेटिक प्रोधोगिकी* से प्राप्त बीजों एवं रासयनिक विधि से उपचारित बीजों का प्रयोग न करें|
  • कोई भी रसायन उर्वरक एवं कीटनाशक का प्रयोग न करें।
  • जैविक खरपतवार को मिल्चिंग के रूप में प्रयोग करें|
  • एक ही फसल को प्रत्यक वर्ष न दोहरायें। फसल चक्र के अनुसार खेती करें|
  • शहरों से आने वाले प्रदूषित जल का उपयोग सिंचाई हेतु न करें।
  • कीट/रोग नियंत्रण जैविक विधि से ही करें|
  • जैविक पदार्थों को जला कर खेत की सफाई न करें|
  • तैयार फसल को परम्परागत उत्पादों के मिश्रण से बचायें।

जैविक कीट एवं कवक नियंत्रण

जैविक खेती का उदेश्य कीटों को पूर्णत: समाप्त करना नहीं है। इसका उदेश्य कीटों का नियंत्रण है। रासयन कीटनाशी से कीट समाप्त तो हो जाते हैं परन्तु इन हानिकारक रसायनों के अवशेष हमारे खाद्य पदार्थों पर भी रह जाते हैं और वातावरण को भी प्रदूषित करते हैं तथा सम्पूर्ण खाद श्रंखला को भी प्रभावित करते हैं|

जैविक विधि से कीटों को नियंत्रित करने की कुछ विधियाँ निम्न हैं:-

1) बैसिलस थुरीजीएंसिस :-

यह मिट्टी में पाया जाने वाला जीवाणु है जो अनेक प्रकार के कीटों के अलावा कृमियों को भी मारता है। इसके आक्रमण से कीट का आहार नली तथा मुख निष्क्रिय हो जाता है और कीट तुरंत मर जाता है। यह बाहरी स्पर्श से प्रभावित नहीं होता है। अतः इसे उस स्थान पर छोड़ा जाता है जहाँ कीट खाते रहते हैं।

यह पाउडर एवं तरल रूप में उपलब्ध है। यह बहुत सूक्ष्म होता है। इसका पानी में घोल बनाकर शाम के समय 1-3 बार छिडकाव करना चाहिए। टमाटर, मिर्च, भिन्डी, कपास, नींबू के पिल्लूओं के लिए 1-1.5 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करते हैं।

बाजार में यह अनेक नामों बयोलेप, बयोआस्प, डायथेल, बी-2, डेनफिन, डबलयु जी, बायोमिट हाल्ट आदि नामों से उपलब्ध है|

2) ट्राईकोडरमा:-

यह एक प्रकार का मित्र फफूँद है जो कृषि को नुकसान पहुँचाने वाली फफूँदों को समाप्त करता है। इसके दो प्रकार है:

  1. ट्राईकोडरमा विरिडी
  2. ट्राईकोडरमा हर्जियाना

इसके प्रयोग से विभीन प्रकार की दलहनी सब्जियां, फल, कन्द एवं विभिन्न फसलों में पाई जाने वाली मृदा जनित रोगों जैसे – उकठा (पसजपदह), जड़ गलन, कालर रॉट, आर्द्र पतन, कंद सडन को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है ये रोग मिट्टी में पाई जाने वाली फफूंद जैसे – फुयुज़ेरियम, पिथियम, रईजोक्टोनिया, स्क्लेरोशिया, अल्टरनेरिया, आदि है जो बीजों के अंकुरण एवं पौधे की अन्य अवस्थाओं को प्रभावित करती हैं।

प्रयोग विधि:-

A)     बीजोपचार: इसके लिए प्रति किलो बीज में 5-10 ग्राम प्रति किलो मिलाया जाता है।

B)     भूमि शोधन: एक किलो फफूंद पाउडर को 25 किलो कम्पोस्ट (गोबर की सड़ी खाद) में मिलाकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रख कर उसे गीले बोरे से ढका जाता है ताकि इसके बीजाणु अंकुरित हो जाये। इस कम्पोस्ट को एक एकड़ खेत में फैलाकर मिट्टी में मिला दें। फिर बोआई/रोपाई करें।

C)     कंद उपचार: 10 ग्राम ट्राईकोडरमा प्रति लीटर पानी में घोल बनाया जाता है फिर इस घोल में कंद, बल्ब को 30 मिनट तक डूबा कर रखें। फिर इसे छाया में आधा घंटा रखने के बाद। बोआई करें|

D)     पौधों पर छिड़काव:- पौधों में रोग के लक्षण दिखाई देने पर 5-10 ग्राम ट्राईकोडरमा पाउडर प्रति लीटर पानी में मिलकर छिडकाव करें|

जैविक कीटनाशी

1. नीम की पत्ती:
  • एक बर्तन में नीम की पत्ती डालकर पानी से भर दें।
  • इसे 4 दिनों के लिए छोड दें।
  • पाँचवें दिन पत्तियों को अच्छी तरह मिला कर छान लें|
  • छानने के बाद प्रति लीटर एक ग्राम साबुन मिला कर छिडकाव करें।
  • छिडकाव करने से पिल्लू, एवं दीमक का नियंत्रण होता है।
2. नीम की फली:
  • एक किलो नीम फली का महीन चूर्ण करें।
  • इसे 20 लीटर पानी में मिलाकर 12 घंटे रखें।
  • इसे छान लें तथा 20 ग्राम साबुन मिला कर छिडकाव करें|
  • इससे अनेक प्रकार के हानिकारक कीड़ो का नियंत्रण होता है।
3. गाय का गोबर:-
  • एक मिट्टी के बर्तन में 12.5 किलोग्राम गोबर लें|
  • बर्तन के महूँ* को ढक्कन से बंद कर जमीन में 20 दिन तक गाड़ दें।
  • 21 वें दिन कपडे से छान लें एवं उसमें पानी मिलकर 500 लीटर बना लें। यह चूसने वाले कीड़ों की रोकथाम करता है।
4. गौमूत्र + गोबर द्वारा
  • एक मिट्टी के बर्तन में 10 लीटर गोमूत्र और 20 किलोग्राम ताजा गोबर लें। इसे 15 दिन तक रखें, इसे छान लें।
  • इसमें 350 लीटर पानी एवं 200 मिलीलीटर साबुन का घोल मिला दें तथा पौधों पर छिड़काव करें।
5. तम्बाकू का डंठल:-
  • तम्बाकू के डंठल का चूर्ण एक किलो लेकर 5 लीटर पानी में उबालें। अच्छी तरह उबलने के बाद इसे छान लें।
  • इसमें 400 मिलीलीटर साबुन का घोल मीलायें। तत्पश्चात 500 लीटर पानी मिलाकर एक हेक्टयर फसल पर छिडकाव करें।
6. नीम का पत्ता + धतूरा + गौमूत्र द्वारा
  • 10 किलोग्राम नीम के पत्ते को पीस लें। उसमें 10 किलोग्राम आक के पत्ते एवं 10 किलोग्राम धतूरा के पत्ते को पीस कर मिला दें|
  • इसमें 200 लीटर पानी एवं 5 किलोग्राम गौमूत्र मिलायें। इसे छान कर छिडकाव करने से विषाणु जनित रोगों एवं चूसने वाले कीड़ो की रोकथाम होती है।
7. गौमूत्र + नीम की पत्ती + लहसुन + गुड
  • 10 लीटर गौमूत्र में 3 किलोग्राम नीम की पत्ती पीस कर, 100 ग्राम लहसुन (पीसा हुआ) और 100 ग्राम गुड़ मीलायें|
  • इसे 15 दिनों के लिए छोड़ दें।
  • इसे कपड़े से छान लें और इसमे पानी मिलकर छिडकाव करें। इससे विभिन्न कीड़ों की रोकथाम की जा सकती है।
8. गोबर + पुआल
  • एक प्लास्टिक या तांबे के बर्तन में 12.5 लीटर गोबर लें और इसे 10 दिनों के लिए पुआल के अन्दर रख दें। फिर इसे छान लें और 250 लीटर पानी मिलाकर छिडकाव करें।
  • यह टमाटर और मिर्च के थ्रीवस कीड़ों के लिए प्रभावकारी है।
9. दीमक की रोकथाम:-
  • एक मिट्टी के बर्तन में छिला हुआ मकई का भुट्टा लें इसे खेत में 100 मीटर दूर मिट्टी में ऐसा दबायें कि इसका मुहं* सतह से उपर रहें।
  • फिर इसे पानी से भर दें और महूँ* को कपड़े से बंद कर दें। कुछ दिनों के बाद इसमे दीमक भर जायेंगे। मिट्टी के बर्तन को निकाल लें एवं उसे गर्म कर लें। इस प्रक्रिया को पांच बार दोहरायें तो इससे दीमक की रोकथाम की जा सकती है।

जैविक कृषि में उपयोग होने वाली सामग्री

जैविक खेती में मृदा उर्वरता को ऐसी जैविक सामग्री के पुनः चक्रण के मध्यम से बनाया रखना संभव हो सकता है जिनके पोषक तत्वों को सुक्ष्म जीवों तथा बैक्टीरिया द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।

अधिकतर उत्पादनों के प्रयोग को जैविक कृषि में सीमित किया गया है , जिसे प्रमाणीकरण कार्यक्रम के द्वारा प्रयोग हेतु शर्तो एवं पद्धति का निर्धारण किया जायेगा|

A) जैविक फार्म इकाई पर उत्पादित उपादान: -

गोबर, गौमूत्र, मुर्गी खाद – अनुमति है

फसल अवशिष्ट, हरी खाद – अनुमति है

भूसा एवं अन्य खरपतवार  - अनुमति है

केंचुआ खाद – अनुमति है

B) जैविक फार्म इकाई से बहार उत्पादित उपादान : -

परिरक्षकों से रहित लहू, मांस, अस्थि, तथा पिच्छ - सीमित उपयोग

कार्बन आधारित अवशिष्टों से निर्मित कम्पोस्ट – सीमित उपयोग

मछली तथा परिक्षरको रहित मछली उत्पादन – सीमित उपयोग

ग्वानो – सीमित उपयोग

मानव मल - अनुमति नहीं

जीवाणु, वनस्पति, अथवा पशुमूल – सीमित

बुरादा, लकड़ी का छीलन – सीमित

समुद्री शेवाल – सीमित

C) खनिज तत्व:

चुना एवं मग्निशियम पत्थर - सीमित उपयोग

कैल्सीमूत शैल प्रबाल - सीमित उपयोग

कैल्सियम क्लोराईड - सीमित उपयोग

चूना, चूना पत्थर, जिप्सम – अनुमति है

खनिज पोटासियम ( सल्फेट, ऑफ पोटाश, काईनाईट, सिलवीनाईट, पटेनकली) – सीमित

रॉक फास्फेट - सीमित

माइक्रो  न्यूट्रीएन्ट - अनुमति है

गंधक – अनुमति है

क्ले (बेंटोनाइट, परलाईट, जिओलाईट) – अनुमति है

D) सूक्ष्म जीवाणु उत्पाद–

जैव उर्वरक – अनुमति है

बायोडायनामिक - अनुमति है

वनस्पति मूलक अर्क – अनुमति है

E) कीट एवं रोग नियंत्रण हेतु वनस्पति उत्पाद :

जैविक कृषि में कीट एवं रोग के नियंत्रण हेतु वनस्पति उत्पादों के प्रयोग करने की अनुमति प्रदान की गयी है। इसका प्रयोग नितांत अव्यशक होने पर ही पर्यावर्णीय प्रभाव को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिये। कई उत्पादों को सीमित प्रयोग हेतु कुछ की अनुमति नहीं दी गई है।

F) वनस्पति एवं पशु मूल के पदार्थ

नीम से बने उत्पाद -अनुमति है

एल्गी से बने उत्पाद - अनुमति है

केसीन से बने उत्पाद - अनुमति है

मशरूम, एस्परजिलस से बने उत्पाद – अनुमति है

मधु मोम, विनेगर, बीज से निकला हुआ तेल - अनुमति है

प्रोपोलिस - सीमित उपयोग

तम्बाकू की चाय – सीमित उपयोग

G) खनिज मूल:-

सोडा - सीमित उपयोग

बरगंडी मिश्रण - सीमित उपयोग

क्विक लाइम - सीमित उपयोग

कॉपर साल्ट – प्रतिबंधित/ अनुमति नहीं है

डाएटोमेसियम अर्थ - अनुमति है

लैटराईट मिनरल आयल - सीमित उपयोग

पोटासियम परमैगनेट – सीमित उपयोग

H) कीटमूल :

पैरसाइट्स, प्रीडेटर्स, स्टेरिलाइज्ड कीट - प्रतिबंधित है

बयोपेस्टीसाइड - सीमित उपयोग

कार्बन डाई आक्साइड, नत्रजन - अनुमति है

सल्फर डाई आक्साइड, साबुन, सोडा – अनुमति है

हेमिओपैथिक और आयुर्वेदिक दावा - अनुमति है

हर्बल और बायोडायनामिक प्रीप्रेशन - अनुमति है

समुद्री नमक एवं नमकीन पानी - अनुमति है

ईथाइल एल्कोहल - प्रतिबंधित है

फेरोमोन ट्रैप, प्रोमेंटिक ट्रैप, मकैनिकल ट्रैप - अनुमति है

छत के ऊपर सब्जियों की खेती

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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