जैविक कृषि से तात्पर्य है, खेती हेतु जैविक अवयवों का उपयोग एवं रासायनिक उर्वरकों, तृण नाशकों तथा कीटनाशकों का परिष्कार| अत: जैविक कृषि को एक उत्पादन पद्धति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह भूमि के स्वास्थ्य, संरक्षण, मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संरक्षण के प्रति एक व्यापक प्रक्रिया है।
जैविक कृषि उत्पादन की वह पद्धति है जिसमें अकार्बनिक तत्वों से निर्मित उर्वरक, कीटनाशक, रोगनाशक, एवं तृणनाशक इत्यादि रसायनों का प्रयोग वर्जित है। इसके स्थान पर जैविक पदार्थ जैसे फसल अवशिष्ट, गोबर की खाद, कम्पोस्ट, इन्रिच्ड, एवं फास्फो कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, हरी-खाद, जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है। एक विधि से मृदा की उत्पादकता, उर्वरता, कीटनाशक, एवं फफूंद नाशक में काफी मदद मिलती है।
विश्व में 19वीं शताब्दी के पहले कृषि में जैविक खाद का ही उपयोग होता था| कृषि में बदलाव सर्वप्रथम इंग्लैंड में 19वीं के शुरुआत में आया जब सुपर फास्फेट का निर्माण हुआ। इसी समय जर्मनी में अमोनिया प्रादुर्भाव हुआ और नत्रजन उर्वरक का प्रयोग आरंभ हुआ। सन 1939 ई० में डी० डी० टी० एवं 1933 ई० में 2, 4-D और सन 1940 में MCPA का निर्माण हुआ| इस प्रकार 20वी० शताब्दी के मध्य तक विश्व में आधुनिक कृषि के लिए कृषि यंत्र, रासायनिक खाद, रासयनिक कीटनाशकों का प्रचार-प्रसार तेजी से हुआ।
भारत में भी पिछले दशकों में कृषि में क्रन्तिकारी बदलाव आया है। देश ने कृषि में रासयनिक खाद के द्वारा आत्मनिर्भर की ओर कदम बढाये गये| हरित-क्रांति के द्वारा कृषि उत्पादन तेजी से बढ़ा और बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान की आव्यसकता पूरी हुई| यह अधिक उत्पादन रासयनिक दवाओं एवं रासायनिक खादों के द्वारा संभव हो सका| अधिक उपज देने वाली किस्में, अत्यधिक मात्रा में उपयोग की जाने वाली दवायें, यांत्रिकीकरण से कृषि में मृदा अपरदन, मिटटी में जैविक क्षरण और रासायनिक दवाओं का कई वर्षो तक मिट्टी के अवशेष के रूप में रहने का कारण बना| इससे पिछले कुछ वर्षो में कई राज्यों में खाद्यान उत्पादन उतना नहीं बढ़ सका जिनती की अपेक्षा की जाती रही। इतना ही नहीं, कुछ अन्य राज्यों में उत्पादन के घटने की भी समस्या आ गयी| यह सिर्फ भारत में ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में चिंता का विषय बन गया है। दिन-प्रतिदिन रसायनों की कीमत में वृद्धि, अधिक आदानों की आवश्यकता, मृदा तथा मानव स्वास्थ्य में कमी ने एक प्रशनवाचक चिन्ह लगा दिया है| अत: इसका एकमात्र उपाय यही है कि जैविक कृषि को अपनाकर बढ़ती हुई जनसंख्या की आव्यश्कताओं को आने वाले समय में पूरा किया जा सके| जैविक कृषि में विश्व के कई देशों ने मत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
झारखण्ड में रासायनिक खादों एवं दवाओं का उपयोग अन्य राज्यों की अपेक्षा बहुत कम है। कई ऐसे जिले हैं जहाँ के किसान इनका उपयोग नहीं के बराबर करते हैं और इनकी कृषि को जैविक कृषि ही कहा जा सकता है। इन्हें राष्ट्रीय/ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाने के लिए प्रमाणीकरण की आवश्यकता है। इसके लिए सरकारी, गैर सरकारी संस्थानों, तथा बैंकों को सार्थक पहल करनी होगी। भूमि के प्रमाणीकरण के लिए बहुत से प्रमाणीकरण संस्थाएं है, जो की राष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रमाणीकरण करती हैं जिससे विश्वस्तरीय जैविक उत्पादन संभव हो सके और किसानों के आर्थिक तथा सामाजिक स्तर में सुधार हो सके|
झारखण्ड में कई ऐसे संसाधन है , जो जैविक कृषि को बढ़ावा देने में मदद कर सकते है।
राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2012-13 से एक नयी पहल की गयी है| राज्य में जैविक खेती को तीव्र गति से आगे बढ़ाने हेतु एक जैविक कोषांग की स्थापना की गयी है एवं राज्य जैविक कृषि प्रधिकार का गठन कर उसके अन्तर्गत तीन नयी योजनायें प्रारंभ की गयी है जो निम्न है –
जैविक कृषि हेतु कृत्रिम उर्वरक प्रतिबन्धित है। जैव उर्वरक में गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट सर्वोतम है क्यूंकि गोबर एवं गौमूत्र में नाइट्रोजन, एंजाइम्स, एवं लवण, पर्याप्त मात्रा में होते हैं जो भूमि में जैविक तत्वों की पूर्ति करते हैं तथा मृदा विन्यास को प्राकृतिक स्थिति में बनाये रखते हैं।
गोबर की खाद से उत्पादित खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यवर्धक होते हैं, अत: गोबर की खाद से की गई खेती से निम्न लाभ होते हैं-
गाय के गोबर कंडे की राख में एक विशेष सुगन्ध होती है, जिसका प्रयोग कीटरोधक के रूप में किया जाता है।
1) गोबर की तरल खाद:- गोमूत्र बंद करके उसे 7 दिन तक
आवश्यक सामग्री:-
विधि- एक मिटटी के घड़े में 8 लीटर गोमूत्र, 4 किलो ग्राम गोबर मिलाकर छायादार स्थान में रखा जाता है। अब इसमें 250 ग्राम गुड़ के छोटे-छोटे टुकड़े डालकर मिलाया जाता है। इसके पश्चात घड़े का मुहँ बंद करके उसे 7 दिन तक रख दिया जाता है| 7 दिन के बाद 1 लीटर तैयार तरल पदार्थ को कपड़े से छानकर उसमें 4 लीटर पानी मिलाकर फलों एवं सब्जियों के पौधों की जड़ों डाला है। इससे फलों सब्जियों की उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है।
मात्रा:- फलदार पेड़ जैसे – आम, अनार, अमरुद, केला , लीची , इत्यादि में 500 मिलीलीटर प्रति पौधे के अनुसार|
2) अमृत पानी:-
अमृतपानी भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के प्रयोग में आता है। अत: इसका छिडकाव मृदा पर होना चाहिए। छिडकाव करते समय यह ध्यान देना आवश्यक है कि उस समय मिटटी में पर्याप्त नमी होना चाहिए| सिंचाई करते समय नाली में बहते हुए पानी में अमृतपानी का घोल मिला देने से खेत में सर्वत्र इसका फैलाव जो जाता है।
अमृतपानी मृदा को सजीव करने के साथ-साथ जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आवश्यक सामग्री:-
200 लीटर पानी
विधि:- एक प्लास्टिक ड्रम में गाय का ताजा गोबर 10 किलोग्राम लेकर उसमें देशी गाय का घी 250 ग्राम अच्छी तरह मिला दें| मिश्रण में शहद या गुड़ 500 ग्राम मिलने में पश्चात उपरोक्त मिश्रण में 200 लीटर पानी मिला दें। अब इसे एक सप्ताह तक रख कर सुबह एवं शाम अच्छी तरह चलाये। तत्पश्चात उपयोग करें। इसका उपयोग बीज संस्कार एवं भूमि संस्कार में किया जाता है।
बीज संस्कार:- 500 ग्राम अमृतपानी एवं बीज को मिटटी के बर्तन में बुआई के पूर्व मिलाकर सुखाने के उपरान्त बुआई करें|
भूमि संस्कार:- 10 लीटर अमृतपानी को एक एकड़ क्षेत्र की बुआई के बाद प्रथम सिंचाई के समय में प्रयोग करें|
3) पंचगव्य:
पंचगव्य गाय का ढूध, गाय ढूध की दही, गौमूत्र, गोबर , एवं गोघृत का विशेष अनुपात में किया गया समिश्रण है। पंचगव्य का उपयोग प्राचीनकाल में मनुष्यों, पौधों, एवं जानवरों के कल्याण के रूप में किया जाता रहा है।
आवश्यक सामग्री:-
गौमूत्र – 3 लीटर
गए का गोबर – 5 किलो
गए का दूध – 2 लीटर
गाय दूध की दही – 2 लीटर
गाय का घी- 1 किलोग्राम
पानी – 5 लीटर
शहद - 500 ग्राम/ गुड़ 1 किलोग्राम
विधि:-
सम्पूर्ण मिश्रण को मिटटी के बर्तन में डालकर अच्छी तरह मिलाएं। फिर छाया में इस बर्तन को 3 सप्ताह तक ढक कर रखें। रात को पुआल या बोरा से ढक कर रखें। तत्पश्चात छान लें फिर 2 लीटर तैयार पंचगव्य को 100 लीटर पानी में मिलाये| लगभग 20 मिनट इसे अच्छी चला कर स्प्रेयर से खेत या फलदार पेड़ पर छिडकाव करें। यह सम्पूर्ण पंचगव्य 4 एकड़ खेत के लिए पर्याप्त है।
4) हरी खाद :-
हरी खाद एक प्रकार की जैविक खाद है। ये ताजे रूप में प्रयोग में लायी जाती है, जिसमें हरे पौधे विशेषकर दलहनी फसलों को खेत में उगाकर फूल आने से पहले उसे हल चलाकर मिटटी में दबा दिया जाता है। ये पौधे नाइट्रोजन का प्राकृतिक रूप से स्थिरीकरण करे हैं, मिटटी में जैविक तत्वों को वृधि तथा पोषक तत्वों की उपलब्धता बढती है।
हरी खाद के रूप में प्रयोग होने वाली मुख्य फसलें:-
इसके लिए निम्न तीन तरह के पौधों का प्रयोग करते है:
हरी खाद में उपयुक्त पौधे के चुनाव में सावधानियाँ :-
अत: कुछ गांठदार जड़ों वाले पौधे जैसे- मूंग, उड़द, सनई, ढैंचा, लोबिया और सोयाबीन आदि हरी खाद के लिए अधिक उपुक्त है क्योंकि ये पौधे वातावरणीय नत्रजन का स्थिरीकरण करते हैं।
हरी खाद के लाभ:-
5) बीजामृत
आवश्यक सामग्री : -
गाय का गोबर – 5 किलो
गोमूत्र – 5 लीटर
अच्छी मिटटी – 100 ग्राम
चुना – 50 ग्राम
विधि:-
5) जीवामृत:-
यह एक आसानी से बनाया जाने वाला द्रव्य है जिसमे मिटटी में लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि होती है एवं पौधों का विकास होता है।
आवश्यक सामग्री एवं विधि :
6) सी पी पी ( Cow Pat Pit) या गाय के ताजे गोबर गोबर की खाद :-
जगह का चुनाव:-
संसाधन: -
बनाने की विधि:-
3’ x 2’ x 1’ का एक गड्ढा बनाये जिसकी दीवार ईंट की दो परत हो| नीचे ईंट न बिछायें। अब 75-80 किलो ग्राम को साफ कर लें और उसमें 200 ग्राम अंडे के छिल्के का चूर्ण एवं 200 ग्राम पत्थर चूर्ण छिड़क दें और एक घंटे तक मिलायें। इस मिश्रण को गड्ढे में भर दें। इसमें बायोडायनामिक कम्पोस्ट के लिए इसमें पांच छेद रखें। ये छेद एक दूसरे से दूर होना चाहिए। इन छेदों में तीन ग्राम प्रत्येक बायोडायनामिक खाद को डालें और इसे गाय के गोबर से ढंक दें। बी० डी० 507 का 30 मी० ली० 1.5 लीटर पानी में लेकर 10 मिनट तक हिलायें एवं गड्डों में छिडकाव कर दें। इसे एक जूट के बोरे से ढंक दें|
बीस दिन के बाद गड्ढे से गोबर को निकल लें और कम से कम 30 मिनट तक मिलाने के बाद फिर से डाल दें। इस क्रिया को 20-20 दिन के अन्तर पर तीन बार दोहरायें। एक तरह 60-70 दिनों में खाद तैयार हो जाएगी जो गहरे भूरे रंग की होगी और इसमें मिटटी की गंध होगी। इसे ठंडे एवं अंधेरी जगह में मिटटी के बर्तन में रखें|
उपयोग:-
7) वर्मी कम्पोस्ट ( केंचुआ खाद):-
यह केंचुआ के द्वारा तैयार की गई खाद है। केंचुआ भूमि में अपना महत्वपूर्ण योगदान भूमि सुधारक के रूप में देता है। केंचुए अपने आहार के रूप में मिट्टी तथा कच्चे जीवांश को निगलकर अपनी पाचन नलिका से गुजरते है जिससे वह महीन कम्पोस्ट में परिवर्तित हो जाता है जिसे अपने शरीर से बाहर छोटी-छोटी कास्टिंग्स के रूप में निकलते है। इसी कम्पोस्ट को केंचुआ खाद या वर्मी कम्पोस्ट कहाँ जाता है| यह खाद मात्र 45-75 दिनों में तैयार हो जाता है।
केंचुआ खाद में विभिन्न तत्वों की मात्रा:-
केंचुआ खाद एक उच्च पौष्टिक तत्वों वाली खाद होती है। नाइट्रोजन 1.2- 1.4 प्रतिशत, फास्फोरस 0.4-0.6 प्रतिशत तथा पोटास 1.5-1.8 प्रतिशत होता है। इसके अलावा सूक्षम पोषक तत्त्व भी उपलब्ध होते है। केंचुए की गतिविधियों से निकलने वाला अवशिष्ट पदार्थ प्राकृतिक तत्वों से मिश्रित होने के कारण यह खाद देने से मिटटी अधिक उपजाऊ बन जाती है।
आवश्यक सामग्री :-
सूखा चारा
गोबर की खाद – 3 से 4 क्विंटल
कूड़ा एवं कचरा – 7 से 8 क्विंटल
केंचुए की संख्या – 10,000
विधि:-
इस तरह एक वर्ष में 4-5 बार वर्मी कम्पोस्ट बनाया जा सकता है
प्रयोग विधि:-
सावधानियाँ:-
तैयार केंचुआ खाद दानेदार भूरे रंग होता है जिसे तैयार होने के बाद केंचुआ को अलग करके फिर से खाद बनाने में उपयोग कर सकते है।
केंचुआ खाद प्रयोग करने के लाभ :-
8) नादेप कम्पोस्ट :-
यह खाद एक किसान श्री नारायण देव राव पाण्डरी द्वारा विकसित की गयी। इस विधि में बहुत कम समय में (110-120 दिन) खाद तैयार हो जाता है जो साधारण कम्पोस्ट से अच्छा होता है। इसे बनाने में गाय का गोबर, हरी या सूखी घास, गेहू की भूसी , धान का पुआल इत्यादि का उपयोग किया जाता है।
विधि:-
9) बायोडयानमिक कृषि
बीसंवी शताब्दी के प्रारंभ में जर्मनी में मिटटी की उर्वरा शक्ति में कमी आई। खाद पदाथों की गुणवता अच्छी नहीं रही। उसी समय 1924 में डॉ रुडोल्फ स्टेनर ने बायोडयानमिक कृषि की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इनके विचार भारतीय वैदिक खेती से मिलते थे| इन्होने मिटटी एवं कृषि को जीवित प्राणी माना।
डॉ रुडोल्फ स्टेनर ने बायोडयानमिक के 8 तरीके दिए।
सिद्धांत :-
इसे कम मात्रा में पानी में घोलकर अच्छी तरह चलाया जाता है। फिर इसे चन्द्रमा की गति के अनुसार छिडकाव करने से ज्यादा लाभ मिलता है।
उपयोग एवं मात्रा : -
बी. डी. 500:- इस खाद को गाय की सींग एवं गोबर की खाद से बनाया जाता है। इसे एक एकड़ में छिडकाव के लिए 25 ग्राम को 15 लीटर पानी में डालकर एक घंटे तक मिलाया जाता है। यह कार्य शाम के समय चन्द्रमा के घटते क्रम में किया जाता है छिडकाव में बड़ी बूंदों को दिया जाता है। 3-4 बार छिड़काव करने से मिट्टी में बदलाव आ जाता है। मिटटी में केंचुआ एवं राई जोवियम बैक्टीरिया की सक्रियता तथा नमी धारण क्षमता में वृद्धि होती है।
बी. डी. 501:- इसे बनाने में गाय के सींग एवं सिलिका का चूर्ण का उपयोग होता है। इसके एक ग्राम को 15 लीटर पानी में घोलकर एक घंटे तक चलाया जाता है। इसे सुबह के समय चन्द्रम के बढते क्रम में कम से कम दो बार छिड़काव करना चाहिए। स्प्रे करते समय पौधों के उपर महीन एवं ज्यादा दबाव में करना चाहिए। इससे उत्पादन में गुणवत्ता बढ़ती है तथा पौधों की प्रतिरोधक क्षमता में वृधि होती है|
बी. डी 502 :- इसे बनाने में पौधों का उपयोग होता है। यह सल्फर, पोटास एवं सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ाता है। पौधों के विकास में सहायक है। यह शुक्र ग्रह (वीनस) से जुड़ा है|
बी. डी 503:- यह सल्फर पोटास, कैल्सियम एवं नाइट्रोजन उपलब्ध करता है। मिट्टी की संरचना को मजबूत करता है। यह मर्करी से जुड़ा है। कैल्सियम एवं सल्फर की उपस्थिथि के कारण कवकरोधी कार्य करता है। इसमें मृदा को सजीव बनाने की क्षमता होती है।
बी. डी 504:- यह लोहा एवं गंधक की उपलब्धता बढ़ता है। साथ ही मंगल ग्रह (मार्स) से जुड़ा है। मिट्टी में जैविक खादों को पौधों के लेने योग्य बनता है।
बी. डी. 505 :- इस खाद से कैल्सियम की उपलब्धता बढ़ती है| यह चंद्रमा से जुड़ा है तथा पौधों में फफूंद जनित रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ता है।
बी. डी 506:- यह पोटास एवं सिलिका तत्वों को उपलब्ध करता है। यह ब्रहस्पति ग्रह (जुपिटर) से जुड़ा है। पौधों को मिट्टी से आवश्यक तत्वों को लेने में सहायक है।
बी. डी. 507:- यह स्फूर को पौधों के लेने योग्य बनाता है। यह शनि ग्रह (सैटर्न) से जुड़ा है। केंचुवा की प्रक्रिया को बढाता है।
11 ) कम्पोस्ट:-
पिछले कुछ दशकों में रासयनिक खाद के निरंतर प्रयोग से मिट्टी की संरचना एवं बनावट में काफी अंतर आया है। इस अंतर के कारण झारखण्ड की मिट्टी नमी रहित एवं सख्त हो गयी है। झारखण्ड में अधिकतर वर्षाश्रित क्षेत्र में नमी संरक्षण हेतु जैविक खाद का प्रयोग आवश्यक है। इसके प्रयोग से कृषि योग्य भूमि में कम व्यय में ही पोषक तत्वों की पूर्ति कर कृषि उत्पादन को बढाया जा सकता है। जैविक खाद जैसे कम्पोस्ट को तैयार करना आसान है और कृषक अपने घरों के पास इसे कम खर्च में बना सकते हैं। अतः आवश्यक है कि रासयनिक खाद के स्थान पर जैविक खाद का प्रयोग किया जाये।
बनाने की विधि:-
गड्ढे का आकार:- लम्बाई : चौड़ाई : गहराई : 3 मी. X 1.5 मी. X 1 मी.
गड्ढे की संख्या:- प्रति मवेशी एक गड्ढा
सामग्री: खरपतवार, कूड़ा-कचरा, फसल अवशेष, पशू मल-मूत्र, जलकुम्भी एवं सब्जी अवशेष|
गड्ढा भरना :-
प्रत्येक गड्ढे को तीन भागों में बाँटकर कूड़े-कचरे, पुआल आदि की एक पतली परत (15 सेमी)बिछायें। गोबर का घोल बनाकर डालें। लगभग 200 ग्राम लकड़ी की राख दें। प्रत्येक तह पर 25 ग्राम युरिया दें। गड्ढे को इस तरह तब तक भरते रहें जब तक उसकी ऊंचाई जमीन से 30 सेमी उपर न हो जाये। बारीक मिट्टी की पतली परत (5 सेमी.) से गड्ढे को बंद कर दें। लगभग 5 महीने में कम्पोस्ट तैयार हो जाएगी।
12) पौष्टिक कम्पोस्ट (Enriched compost):-
उपरोक्त विधि से गड्ढे में उपलब्ध सामग्री से एक साथ ही भरें। 2.5 किलो नत्रजन प्रति 10 क्विंटल अपशिष्ट में डालें तथा 1: मंसूरी राक फास्फेट डाल दें। 15 दिनों बाद फफूंद पेनेसिलियम, एसपरजीलस या ट्राई कूरस 500 ग्राम प्रति टन अपशिष्ट जैविक की दर से मिला दें। अपशिष्ट की पलटाई 15,30,45 दिनों के अंतर पर करें। 3-4 महीनों में पौष्टिक कम्पोस्ट तैयार हो जाएगी।
सावधानियाँ:-
जैविक खेती में सावधानियाँ :-
जैविक खेती का उदेश्य कीटों को पूर्णत: समाप्त करना नहीं है। इसका उदेश्य कीटों का नियंत्रण है। रासयन कीटनाशी से कीट समाप्त तो हो जाते हैं परन्तु इन हानिकारक रसायनों के अवशेष हमारे खाद्य पदार्थों पर भी रह जाते हैं और वातावरण को भी प्रदूषित करते हैं तथा सम्पूर्ण खाद श्रंखला को भी प्रभावित करते हैं|
जैविक विधि से कीटों को नियंत्रित करने की कुछ विधियाँ निम्न हैं:-
1) बैसिलस थुरीजीएंसिस :-
यह मिट्टी में पाया जाने वाला जीवाणु है जो अनेक प्रकार के कीटों के अलावा कृमियों को भी मारता है। इसके आक्रमण से कीट का आहार नली तथा मुख निष्क्रिय हो जाता है और कीट तुरंत मर जाता है। यह बाहरी स्पर्श से प्रभावित नहीं होता है। अतः इसे उस स्थान पर छोड़ा जाता है जहाँ कीट खाते रहते हैं।
यह पाउडर एवं तरल रूप में उपलब्ध है। यह बहुत सूक्ष्म होता है। इसका पानी में घोल बनाकर शाम के समय 1-3 बार छिडकाव करना चाहिए। टमाटर, मिर्च, भिन्डी, कपास, नींबू के पिल्लूओं के लिए 1-1.5 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करते हैं।
बाजार में यह अनेक नामों बयोलेप, बयोआस्प, डायथेल, बी-2, डेनफिन, डबलयु जी, बायोमिट हाल्ट आदि नामों से उपलब्ध है|
2) ट्राईकोडरमा:-
यह एक प्रकार का मित्र फफूँद है जो कृषि को नुकसान पहुँचाने वाली फफूँदों को समाप्त करता है। इसके दो प्रकार है:
इसके प्रयोग से विभीन प्रकार की दलहनी सब्जियां, फल, कन्द एवं विभिन्न फसलों में पाई जाने वाली मृदा जनित रोगों जैसे – उकठा (पसजपदह), जड़ गलन, कालर रॉट, आर्द्र पतन, कंद सडन को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है ये रोग मिट्टी में पाई जाने वाली फफूंद जैसे – फुयुज़ेरियम, पिथियम, रईजोक्टोनिया, स्क्लेरोशिया, अल्टरनेरिया, आदि है जो बीजों के अंकुरण एवं पौधे की अन्य अवस्थाओं को प्रभावित करती हैं।
प्रयोग विधि:-
A) बीजोपचार: इसके लिए प्रति किलो बीज में 5-10 ग्राम प्रति किलो मिलाया जाता है।
B) भूमि शोधन: एक किलो फफूंद पाउडर को 25 किलो कम्पोस्ट (गोबर की सड़ी खाद) में मिलाकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रख कर उसे गीले बोरे से ढका जाता है ताकि इसके बीजाणु अंकुरित हो जाये। इस कम्पोस्ट को एक एकड़ खेत में फैलाकर मिट्टी में मिला दें। फिर बोआई/रोपाई करें।
C) कंद उपचार: 10 ग्राम ट्राईकोडरमा प्रति लीटर पानी में घोल बनाया जाता है फिर इस घोल में कंद, बल्ब को 30 मिनट तक डूबा कर रखें। फिर इसे छाया में आधा घंटा रखने के बाद। बोआई करें|
D) पौधों पर छिड़काव:- पौधों में रोग के लक्षण दिखाई देने पर 5-10 ग्राम ट्राईकोडरमा पाउडर प्रति लीटर पानी में मिलकर छिडकाव करें|
जैविक खेती में मृदा उर्वरता को ऐसी जैविक सामग्री के पुनः चक्रण के मध्यम से बनाया रखना संभव हो सकता है जिनके पोषक तत्वों को सुक्ष्म जीवों तथा बैक्टीरिया द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।
अधिकतर उत्पादनों के प्रयोग को जैविक कृषि में सीमित किया गया है , जिसे प्रमाणीकरण कार्यक्रम के द्वारा प्रयोग हेतु शर्तो एवं पद्धति का निर्धारण किया जायेगा|
A) जैविक फार्म इकाई पर उत्पादित उपादान: -
गोबर, गौमूत्र, मुर्गी खाद – अनुमति है
फसल अवशिष्ट, हरी खाद – अनुमति है
भूसा एवं अन्य खरपतवार - अनुमति है
केंचुआ खाद – अनुमति है
B) जैविक फार्म इकाई से बहार उत्पादित उपादान : -
परिरक्षकों से रहित लहू, मांस, अस्थि, तथा पिच्छ - सीमित उपयोग
कार्बन आधारित अवशिष्टों से निर्मित कम्पोस्ट – सीमित उपयोग
मछली तथा परिक्षरको रहित मछली उत्पादन – सीमित उपयोग
ग्वानो – सीमित उपयोग
मानव मल - अनुमति नहीं
जीवाणु, वनस्पति, अथवा पशुमूल – सीमित
बुरादा, लकड़ी का छीलन – सीमित
समुद्री शेवाल – सीमित
C) खनिज तत्व:
चुना एवं मग्निशियम पत्थर - सीमित उपयोग
कैल्सीमूत शैल प्रबाल - सीमित उपयोग
कैल्सियम क्लोराईड - सीमित उपयोग
चूना, चूना पत्थर, जिप्सम – अनुमति है
खनिज पोटासियम ( सल्फेट, ऑफ पोटाश, काईनाईट, सिलवीनाईट, पटेनकली) – सीमित
रॉक फास्फेट - सीमित
माइक्रो न्यूट्रीएन्ट - अनुमति है
गंधक – अनुमति है
क्ले (बेंटोनाइट, परलाईट, जिओलाईट) – अनुमति है
D) सूक्ष्म जीवाणु उत्पाद–
जैव उर्वरक – अनुमति है
बायोडायनामिक - अनुमति है
वनस्पति मूलक अर्क – अनुमति है
E) कीट एवं रोग नियंत्रण हेतु वनस्पति उत्पाद :
जैविक कृषि में कीट एवं रोग के नियंत्रण हेतु वनस्पति उत्पादों के प्रयोग करने की अनुमति प्रदान की गयी है। इसका प्रयोग नितांत अव्यशक होने पर ही पर्यावर्णीय प्रभाव को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिये। कई उत्पादों को सीमित प्रयोग हेतु कुछ की अनुमति नहीं दी गई है।
F) वनस्पति एवं पशु मूल के पदार्थ
नीम से बने उत्पाद -अनुमति है
एल्गी से बने उत्पाद - अनुमति है
केसीन से बने उत्पाद - अनुमति है
मशरूम, एस्परजिलस से बने उत्पाद – अनुमति है
मधु मोम, विनेगर, बीज से निकला हुआ तेल - अनुमति है
प्रोपोलिस - सीमित उपयोग
तम्बाकू की चाय – सीमित उपयोग
G) खनिज मूल:-
सोडा - सीमित उपयोग
बरगंडी मिश्रण - सीमित उपयोग
क्विक लाइम - सीमित उपयोग
कॉपर साल्ट – प्रतिबंधित/ अनुमति नहीं है
डाएटोमेसियम अर्थ - अनुमति है
लैटराईट मिनरल आयल - सीमित उपयोग
पोटासियम परमैगनेट – सीमित उपयोग
H) कीटमूल :
पैरसाइट्स, प्रीडेटर्स, स्टेरिलाइज्ड कीट - प्रतिबंधित है
बयोपेस्टीसाइड - सीमित उपयोग
कार्बन डाई आक्साइड, नत्रजन - अनुमति है
सल्फर डाई आक्साइड, साबुन, सोडा – अनुमति है
हेमिओपैथिक और आयुर्वेदिक दावा - अनुमति है
हर्बल और बायोडायनामिक प्रीप्रेशन - अनुमति है
समुद्री नमक एवं नमकीन पानी - अनुमति है
ईथाइल एल्कोहल - प्रतिबंधित है
फेरोमोन ट्रैप, प्रोमेंटिक ट्रैप, मकैनिकल ट्रैप - अनुमति है
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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