परिचय
पशुओं में प्रसूति ज्वर जिसे दुग्ध अथवा “मिल्क फीचर” के नाम से भी जाना जाता है, एक उपापचय संबधित विकार है। यह रोग सामान्यतः गायों व भैसों में ब्याने के दो दिन पहले से लेकर तीन दिन बाद तक होता है, परन्तु कुछ पशुओं में यह रोग ब्याने के पश्चात 15 दिन तक भी हो सकता है।
यह रोग प्रमुख रूप से अधिक दूध देने वाली गायों व भैसों के रक्त में ब्याने के बाद कैल्शियम स्तर में एकाएक गिरावट के कारण होता है। इसलिए इस रोग के लक्षण, उपचार व इस रोग से बचाव की जनकारी किसान भाइयों के लिए महत्वपूर्ण हैं।
प्रसूति ज्वर के लक्षण
रोगी पशुओं में इस रोग के लक्षण ३ अवस्था में देखे सकते हैं
प्रारंभिक अवस्था
- रोगी पशु अति संवेदनशील अशांत दिखाई देता है।
- पशु दुर्बल हो सकता है व चलने में लड़खड़ाने लगता है।
- पशु खाना-पीना व जुगाली करना बंद कर देता है।
- मांसपेशियों में कमजोरी के अकंर शरीर में कंपन होने लगती है व पशु बार-बार सिर हिलाने व रंभाने लगता है।
प्रारंभिक अवस्था के लक्षण लगभग तीन घंटे तक दिखाई देते हैं तथा इस अवस्था के रोग की पहचान केवल अनुभवी किसान या पशु चिकित्सक ही कर पाते हैं। यदि इस अवस्था में पशु का उचित उपचार नहीं किया जाए तो पशु रोग की दूसरों अवस्था में पहुँच जाता है, जिसके लक्षण निम्न है:
- रोग के लक्षण दिखाई देते ही तुरंत रोगी पशु को कैल्शियम बोरेग्लुकोनेट दवा की 450 मि,ली, की एक बोतल रक्त की नाडी के रास्ते चढ़ा देनी चाहिए। यह दवा धीरे-धीरे 10-20 बूंदें प्रति मिनट की दर लगभग 20 मिनट में चढ़ानी चाहिए। यदि पशु दवा की खुराक देने किए 8-12 घंटे के भीतर उठकर स्वयं खड़ा नहीं होता है इसी दवा की एक और खुराक देनी चाहिए।
- इस रोग में प्रायः पशु के शरीर में मैग्नीशियम की भी कमी हो जाती अहि इसलिए कैल्शियम-मैग्नीशियम बोरेग्लुकोरेट में मिश्रण की दवा देने से अधिक लाभ होता है। यह दोनों दवाएं बाजार में कई नामों से उपलब्ध है।
- सामान्यतः लगभग 75% रोगी पशु उपचार के 2 घंटे के अंदर ठीक होकर खड़े हो जाते हैं। उनमें से भी लगभग 25% पशुओं को यह समस्या दोबारा हो सकती है। अतः एक बार फिर इसी उपचार की आवश्कता पड़ सकती है।
- उपचार के 24 घटें तक रोगी पशु का दूध निकालना चाहिए।
प्रसूति ज्वर से बचाव के उपाय
अन्य रोगों की तरह प्रसूति से भी पशुओं का बिमारी से बचाव उपचार से अधिक महत्वपूर्ण होता है।
- इस रोग से बचाव के लिए पशु को ब्यांतकाल में संतुलित आहार दें। संतुलित आहार के लिए दाना-मिश्रण, हरा चारा बी सुखा चारा उचित अनुपात में दें। ध्यान रहे कि दाना मिश्रण में 2% उच्च गुणवत्ता का खनिज लवण व 1% साधारण नमक अवश्य शामिल हो।
- यदि दाना मिश्रण में खनिज लवण व साधारण नमक नहीं मिलाया गया है तो पशु को 50 ग्राम खनिज लवण व् 25 ग्राम साधारण नमक प्रतिदिन अवश्य दें। परन्तु ब्याने से 1 महीने पहले खनिज मिश्रण की मात्रा 59 ग्राम प्रतिदिन से घटा कर ३९ ग्राम प्रतिदिन कर दें। ऐसा करने से ब्याने के बाद कैल्शियम की बढ़ी हुई आवश्यक को पूरा करने के लिए हड्डियों से कैल्शियम अवशोषित करने की प्रक्रिया ब्याने से पहले ही अम्ल में आ जाती है, जिससे ब्याने के बाद पशु के रक्त में कैल्शियम का स्तर सामान्य बना रहता है। अतः पशु इस रोग से बच जाता है।
- ब्याने के समय के आसपास पशु पर 3-4 दिन तक नजर रखें। रोग के लक्षण दिखाई देते ही तुरंत उपचार करवाएं।
- अधिक दूध देनी वाली गायों व भैसों अथवा जिन पशुओं में यह रोग पिछली ब्यांत के समय हुआ हो उनकी खीस का दोहन पूर्णतया न करें। लगभग एक-चौथाई खीस थनों में छोड़ दें। ऐसा करने से पशु के रक्त में कैल्शियम के स्तर में अधिक गिरावट नहीं आती। अतः पशु रोग से बच जाता है। जिन पशुओं का दुग्ध दोहन पूर्णतया नहीं होता उनमें थनैला रोग के संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। अतः ऐसी स्थिति में पशु के दुग्ध दोहन के समय स्वच्छता पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। खीस या दूध निकालने से पहले पशु के थनों को अच्छी प्रकार विसंक्रमित घोल से साफ करके दूध निकालना चाहिए तथा दूध दोहने वाले व्यक्ति के हाथ तथा दूध दोहने के बर्तन भी अच्छी प्रकार सपाह होने चाहिए। दूध दोहने के स्थान का फर्श साफ, सुखा व विसंक्रमित किया हुआ होना चाहिए।
- अधिक दूध देने वाले पशुओं को अथवा जिन पशुओं को यह रोग पहले हो चूका ही, उन्हें इस रोग से बचाव के लिए ब्याने के 7-8 दिन पहले विटामिन डी-३ (10 मिलियन यूनिट आई यू) का एक टीका लगा देने से निश्चित तौर पर इस रोग से बचाव हो जाता है।
- इसके अतिरिक्त पशु के ब्याने के एक सप्ताह पहले से लेकर ब्याने के एक सप्ताह बाद तक ओस्टियो कैल्शियम की 100 मि.ली. की खुराक दिन में दो बार देने से भी इस रोग से बचाव संभव होता जाता है।
स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार