उड़ीसा में तेंदू पत्तों को तोड़ने वालों की स्थिति नामक अनुसन्धान प्रोजेक्ट, मानव विकास सोसाइटी, नई दिल्ली द्वारा उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का अध्ययन’ से प्रकट हुई संस्तुतियाँ:-
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा सोसायटी अधिनियम 1860 के अंतर्गत पंजीकृत एक गैर-सरकारी संगठन मानव विकास सोसायटी (एच। डी।एस), मजदूरी प्रथा के विशेष सन्दर्भ में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का अध्ययन’ नामक अनुसन्धान प्रोजेक्ट सौंपा गया।
मावन विकास सोसायटी द्वारा अध्ययन रिपोर्ट पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने विचार किया और तेंदू पत्तों को तोड़ने वालों सामजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने हेतु उड़ीसा सरकार को निम्नलिखित स्स्तुतियाँ भेजी ।
१. कुछ तेंदू तोड़ने वालों के पास अपन प्लकर कार्ड्स नहीं हैं। इस प्रथा से उन्हें अपने श्रम को रिकोर्ड कराने के अधिकार से वंचित रखा जा रहा है। इसलिए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रत्येक तेंदू पत्ता तोड़ने वालों को प्लकर कार्ड जारी किये जाएँ।
२. 14 वर्ष की कम आयु के बच्चों को प्लकर कार्ड जारी किये गये हैं। यह एक गंभीर मामला है क्योंकि ऐसे में सरकार स्वयं ही बाल श्रमिकों की नियुक्ति का रही है। संविधान की धारा 21 (क) के अंतर्गत 14 वर्ष की आयु के कम उम्र के बच्चों को इस कार्य में नहीं लगाना चाहिए और उन्हें स्कुल भेजा जाना चाहिए।
३. पत्ता तोड़ने वालों को समय पर भुगतान नहीं किया जाता जिससे साहूकार के पास अपना प्लकर कार्ड गिरवी रखने जैसी कुप्रथा को बढ़ावा मिलता है। अतः राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पत्ता तोड़ने वालों को समय पर भुगतान किया जाए। सरकार को निधियों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु भी कदम उठाने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भुगतान होने में किसी तरह की देरी न हो।
४. अनुसन्धान प्रोजेक्ट के निष्कर्षों से यह पता लगता है है कि इससे होने वाले लाभ को उन क्षेत्रों में निवेश किया जा रहा है जहाँ तेंदू पत्र की तुड़ाई नहीं होती। उड़ीसा सरकार को इस पर पुनर्विचार कर ऐसी कार्यप्राणाली तैयार करनी चाहिए जिससे राज्य के सामान्य राजस्व में इस लाभ को न डाला जाए और इस लाभ को ऐसे क्षेत्रों के मुलभुत ढाँचे के सुधार और विकास में लगाना चाहिए जहाँ तेंदू पत्तों की तुड़ाई होती है।
५. इस अनुसन्धान से यह भी पता चलता है कि जैसे-जैसे पत्ता तोड़ने वालों की संख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे उनकी आय कम हो रही है, इसलिए सुझाव है कि इस क्षेत्र में रोजगार को बढ़ावा देने के लिए सरकार को अन्य विकास कार्यक्रमों पर ध्यान देना चाहिए ताकि ऐसे समय में जव कृषि में रोजगार के अवसर कम हों या मंदी का समय हो, तो लोगों के पास रोजगार के वैकल्पिक साधन उपलब्ध हों।
६. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश राज्यों में अंगीकृत पद्धति कई वर्षों से अच्छे ढंग से काम कर रही है। इन राज्यों के अनुभवों को देखते हुए उड़ीसा राज्य भी इन राज्यों की भांति सहकारी ढाँचे को अपना सकता है। ऐसा होने पर तेंदू पत्ता तोड़ने वालों को न केवल अपनी मजदूरी मिलेगी बल्कि तेंदू पत्तों ने उपर्युक्त राज्यों के मॉडल को अपनाने को संस्तुति की है क्योंकि इससे उपरिलिखित (1) से (5) तक की संस्तुतियों को पूरा करने में सहायता मिलेगी।
आयोग ने 14 मार्च 2007 को उपर्युक्त संस्तुतियों को कार्यान्वयन हेतु मुख्य सचिव, उड़ीसा सरकार को प्रेषित किया था।
पुलिस की प्राथमिक जिम्मेदारी नागरिकों के जान-माल और स्वतंत्रता की रक्षा करना है। दांडिक न्याय प्रणाली, इन अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए है। जब कोई व्यक्ति हिरासत में होता है तो वह राज्य की हिरासत में माना जाता है और इसलिए, उसके मानवाधिकार सुरक्षित रहें, यह प्रत्यक्ष रूप से राज्य की चिता एवं उत्तरदायित्व का विषय बन जाता है। व्यक्तियों को पुलिस स्टेशन में, जेल में, न्यायिक हिरासत मेंम किशोर अपराधी गृहों में एवं मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों के लिए नियत गृहों में रखा जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने दांडिक सुधार एंव न्याय प्रशसान (पी आर ए जे ए) के सहयोग से दिनांक 30-31 मार्च, 2006 को विज्ञान भवन, नई दिल्ली में न्यायिक हिरासत विषय पर दो दिवसीय कार्यशाला आयोजित की। इस सेमिनार का मुख्य उद्देश्य इस तथ्य को उजागर करना था कि हिरासतीय प्रताड़ना को रोका जा सकता है है यह कि हिरासत में लोगों के अधिकारों की रक्षा करना राज्य का दायित्व है।
विचार-विर्मश के उपरान्त उपर्युक्त सेमीनार से जो प्रमुख सिफारिशें सामने आयीं, उन्हें दो शीर्षों के अंतर्गत रखा जा सकता है। इनमें से पहली पुलिस ढांचे से संबधित और दूसरी कारगार से संबधित है।
पुलिस ढांचा
पुलिस हिरासत में पूछताछ के दौरान मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु और शारीरिक यातना दी जाती है।
पुलिस हिरासत में होने वाली मृत्यु और हिंसा पर निगरानी रखने वाली संस्था के रूप में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों ने जाँच-पड़ताल के लिए नजरबंद लोगों के प्रति वैज्ञानिक, व्यावसायिक और मावनीय दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया है।
राष्ट्रीय मानव अधिकारों आयोग, यह सिफारिश करता है कि जाँच-पड़ताल शीघ्रता से और एक निश्चित समयावधि में किये जाने की आवश्यकता है। डी।के। बसु बनाम पश्चिम बंगाल मामले में निर्धारित, हिरासत में लेने संबंधी दिशा-निर्देशों का पालन किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, जाँच-पड़ताल के कार्य में और हिरासत में रखे गए व्यक्ति के हिरासतीय प्रबंधन में वरिष्ठ नेतृत्व को शामिल किये जाने की तत्काल आवश्यकता है। जाँच-पड़ताल के दौरान शारीरिक यातना को रोकने के लिए वैज्ञानिक तकनीकों एवं न्यायिक विज्ञान का पूर्ण इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जाँच-पड़ताल कौशल में पुलिस प्रशिक्षण सभी प्रकार की जाँच पड़ताल के लिए अनिवार्य है।
अल्पसंख्यकों, बच्चों एवं महिलाओं के प्रति होने वालो अपराध से संबंधित आंकड़ों का विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि इन पर विशेष ध्यान दिये जाने और शीघ्रता से निपटाए जाने की जरूरत है। अतएव, इन मामलों की प्रत्येक पखवाड़े में निगरानी किये जाने की जरूरत है।
हिरासत में होने वाले मानवाधिकारों का किसी भी तरह का उल्लंघन सहन नहीं किया जाना चाहिए। जिन मामलों में पुलिस कर्मियों के दुर्व्यवहार अथवा दोष की पुष्टि हो जाती है, उनमें यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि लगाया गया हर्जाना उनके दुव्यर्वहार/दोष के अनुसार हो।
पुलिस कर्मियों को जाँच पड़ताल और कानून एवं व्यवस्था के लिए दो प्रक्षों में बांटने की अति आवश्कता है। तदनुसार, जाँच पड़ताल प्रक्रिया में विशेषज्ञता देने के लिए कार्मियों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इससे निश्चित रूप से मामलों के शीघ्र निपटान में सहायता मिलेगी।
उपर्युक्त परिपाटी को अपनाने के लिए, प्रशिक्षण को सतत प्रक्रिया के रूप में लिया जाना चाहिए और इसे पुलिस कर्मियों की मानसिकता और मनोवृत्ति को परिवर्त्तित करने के प्रयोजन के रूप में उपयोग किया जाए।
कारागार
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने यह पाया है कि विचाराधीन कैदियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। कारगारों में उनके पड़े रहने की अवधि भी काफी लंबी है। कुछेक मामलों में मानव अधिकार आयोग ने यह पाया है कि विचारणाधीन कैदी 20 से 54 वर्षों से न्यायिक हिरासत में हैं जो किसी भी धारा के अंतर्गत निर्धारित दंड से बहुत अधिक है।
अतएव, मानव अधिकार आयोग न केवल उन विचाराधीन कैदियों, जिन्होंने अपने कारावास की अवधि पूरी कर ली है, को छोड़ने के संबंध में विचाराणाधीन कैदियों की तत्काल पुनरीक्षा करने के बारे में सिफारिश करता है बल्कि यह निम्नलिखित के अलावा कारगारों में भीड़-भाड़ को कम करने के बारे में सिफारिश करता है-
क) मामलों के शीघ्र निपटारे के ली कारगारों में नियमित रूप से विशेष अदालते चलाने की प्राणाली तैयार करना।
ख) न्यायिक अधिकारियों को जमानत याचिकारों पर सावधानीपूर्वक विचार करने और हिरासत में उत्पीड़न की किसी भी संभावना का निराकरण करना होगा। इसी प्रकार, सभी न्यायिक कार्यों में त्वरित विचारण सुनिश्चित करने पर बल देना चाहिए। इसमें गवाहों को समन भेजना और उनके जिरह करना शामिल है। अन्वेषण एजेंसियों, जहाँ आवश्यक हो, विधिक सहायता प्रदान करने पर विशेष प्रयास करें।
ग) जिला मजिस्ट्रेट, एस एस पी, और न्यायिक अधिकारियों द्वारा, कारगारों का निरीक्षण औपचारिकता मात्र नहीं होना चाहिए और उन्हें मामलों को शीघ्र निपटाने के लिए किए गये प्रयासों को रिकार्ड करना चाहिए। यदि कैदी ने अपनी सजा की आधी या दो तिहाई अवधि पूरी कर ली है तो विचाराधीन कैदियों को ब्रांड पर छोड़ने जैसे अभिनव तरीके भी अपनाए जाने चाहिए।
सजायाफ्ता कैदियों को हिरासत से मुक्त किये जाने के बाद, उनके लिए विकास विभागों के साथ मिलकर सुधार और पुनर्वास कार्य की रुपरेखा तैयारी करनी चाहिए और उन्हें ऐसा कौशल प्रदान करना चाहिए जो उन्हें बेहतर रोजगार अवसर उपलब्ध करा सकें। देश के विभिन्न भागों में इस तरह के बढ़िया उदारहण देखे गये हैं और इन्हें प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है। विशेष प्रकार के मामलों में जहाँ मुख्य उद्देश्य उनमें सुधार करना है, राज्य सरकारों को उन्हें कौशल प्रदान करने के विशेष प्रावधानों को अपनाने पर आग्रह किया जाना चाहिए जिससे पुनर्वास के बेहतर अवसर उपलब्ध हो सकें।
महिलाओं, वृद्धों और मानसिक रूप से रुग्ण कैदियों के लिए कारावास की स्थिति को ज्यादा से ज्यादा मानवीय बनाया जाना चाहिए।
मानसिक रूप से रुग्ण कैदियों की नियमित स्वास्थ्य जाँच और विशेष प्रावधान जेल की व्यवस्था में गौण होते जा रहे हैं। राष्ट्रीय मानव अह्दिकार आयोग, राज्य सरकारों का ध्यान आकृष्ट करना चाहेगा कि वे यह सुनिश्चित करें कि मानसिक रूप से रुग्ण कैदियों को अलग रखा जाए और उन्हें आवश्यक चिकित्सा सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
मानव मल को हाथों से उठाने की अमानवीय एवं अपमानजनक प्रथा, जो कि मानव प्रतिष्ठा पर प्रहार है और मानव अधिकारों संबंधी एक बहुत बड़ा विषय है, की ओर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का ध्यान गया है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने इसे एक बहुत बड़ी सामाजिक कुरीति माना है और पाने स्थापना काल से ही आयोग इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के संबंध में प्रयासरत रहा है।
केंद्र सरकार ने 24 जनवरी 1997 को सिर पर मैला ढोने वाले व्यक्तियों के रोजगार और शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 अधिसूचित किया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग देश में सिर पर मैला ढोने की अपमानजनक प्रथा को समाप्त करने की आवश्यकता पर प्रबल तरीके से कार्य कर रहा है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष द्वारा क्रमबद्ध व्यक्तिगत हस्तक्षेपों के माध्यम से केंद्र और राज्य सरकारों के उच्चतम अधिकारों के साथ इस मामले पर विचार किया गया है।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने राज्य सरकारों के साथ कई बैठकें आयोजित कीं। केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों तथा अन्य साझेदारों के साथ राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष की अध्यक्षता में सिर पर मैला ढोनेके उन्मूलन विषय पर नई दिल्ली में 18 मार्च 2007 को इसी प्रकार की एक बैठक हुई थी। बैठक में व्यापक विचार-विर्मश करने के पश्चात राज्यों/केंद्र सरकारों के संबध प्राधिकारियों द्वारा कार्यान्वयन /अनुवर्ती कार्रवाई के लिए निम्नलिखित सिफारिशें उभर कर आई-
आयोग ने 10 अप्रैल 2007 को आयोजित अपनी बैठक में उपर्युक्त सिफारिशें को स्वीकार किया था। सिफारिशों को अनुवर्ती कार्रवाई के कार्यान्वयन के लिए सभी राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों को भी भेज दिया गया था।
11 नवम्बर 1997 के अपने आदेश द्वारा उच्चतम नयायालय ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से आगरा, ग्वालियर और रांची के मानसिक अस्पतालों की मोनिटरिंग तथा महिला संरक्षण गृह, आगरा की मॉनिटरिंग से संबंधित कार्य के पर्यवेक्षण में शामिल होने का अनुरोध किया।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने मानसिक अस्पतालों अर्थात आर।आई। एन।पी। ए।एस।रांची, आई।एम।एच।एच।, आगरा और जी। एम।ए। ग्वालियर सर रोगियों की प्राक्रतिक कारणों से मृत्यु के संबधं में अथवा अप्राकृतिक कारणों अर्थात नरहत्या अथवा आत्महत्या के विषय में समय-समय पर प्राप्त रिपोर्टों पर संज्ञान लिया है। मृत्यु की रिपोर्टिंग में अपनाई गई कार्रवाई/प्रक्रिया ने कई अनुसुलझे प्रश्न छोड़ दिए हैं जिनके लिए परिहार्य पत्र-व्यवहार की आवश्यकता है। मृत्यु की रिपोर्टिंग में तीन अस्पतालों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया को मानकीकृत करने की दिशा में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने भविष्य में अनुपालन के लिए निम्नांकित दिशा-निर्देश प्रतिपादित किए हैं-
क) संस्थान में होने वाली रोगों की प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक, प्रत्येक मृत्यु के विषय में आयोग को तत्काल अवश्य सूचित किया जाना चाहिए।
ख) मृत्यु के प्रत्येक मामले में शव परीक्षा अवश्य करायी जानी चाहिए। प्रत्येक मामले में अस्पताल का निदेशक शव परीक्षा रिपोर्ट में उल्लिखित मृत्यु के कारण को ध्यान में रखते हुए जाँच करेगा।
ग) अप्राकृतिक मृत्यु अर्थात आत्महत्या अथवा नर हत्या के मामलों में ।
i) यदि विवादस्पद मृत्यु अप्राकृतिक मुत्यु हो अथवा मृत्यु की परिस्थितियां किसी धोखे का संदेह उत्पन्न करती हैं तो, संस्थान का निदेशक, एक वरिष्ठ डॉक्टर की अध्यक्षता वाले अधिकारियों के बोर्ड द्वारा मामले के सभी संगत पहलुओं की जाँच का आदेश दे सकता है।
ii) कोर्ट की जाँच रिपोर्ट को प्रबन्धन समिति की समय-समय पर होने वाले सांविधिक बैठकों में विचार-विमर्श करने तथा जाँच के निष्कर्षों के विषय में उसकी संतुष्टि के पश्चात ही अंतिम रूप दिया जाना चाहिए।
iii) नरहत्या अथवा आत्महत्या के सभी मामलों की जाँच करने वाले अधिकारियों के बोर्ड के पर्यवेक्षी स्टाफ के दायित्वों के विषय में भी विचार करना चाहिए तथा इस सबंध में स्पष्ट निष्कर्ष देना चाहिए।
घ) प्राकृतिक मृत्यु अर्थात बिमारी के कारण हुई मृत्यु अथवा कोई दुर्घटना, जो की मृतक की मानसिक दशा के करण उसकी ओर से हुई लापरवाही से हुई हो के मामलो में –
i) निदेशक को शव-परीक्षा रिपोर्ट का परीक्षण करने के पश्चात जाँच रिपोर्ट राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को भेजनी चाहिए।
ii) यदि शव-परीक्षा रिपोर्ट में विस्तृत जाँच की उचित कारण दिया गये हों अथवा मृतक के परिवार से कोई शिकायत प्राप्त हो तो उपर्युक्त (ग) में दी गई प्रक्रिया का अनुपालन किया जाना चाहिए।
आयोग की मोनिटरिंग के अंतर्गत आने वालो सभी तीनों मानसिक अस्पताल अर्थात आर.आई.एन.पी.ए.एस. रांची, आई.एम.एच.एच. आगरा और जी.एम.ए. ग्वालियर, उपर्युक्त दिशा-निर्देशों का पालन कर रहे हैं।
शासन व्यवस्था की एक अनिवार्य इकाई पुलिस होती है। राज्य में शांति और अमन कायम करने तथा अपराध नियंत्रित कर नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा करने के लिए उसकी जरूरत पड़ती है। वस्तुतः किसी भी देश की संप्रभुता इस बात से ही आंकी जाती है कि वहाँ शांति तथा कानून-व्यवस्था का राज है। लोक जीवन में कानून-व्यवस्था बहाल करने, शान्ति का राज कायम रखने के जिम्मेदारी स्वाभाविक रूप से पुलिस तंत्र की होती है। कार्य निष्पादन के लिए उनके पास प्रायः विशेषाधिकार होते हैं जिनकी शक्ति उन्हें अपराधों की रोकथाम और अमन-चैन कायम करने में समर्थ बनाती है। इसलिए जैसे-जैसे अपराधों की आवृत्ति में वृद्धि होती हैं उनके स्वरुप में परिवर्तन होता है, प्रायः वैसे-वैसे पुलिस के निरोधी अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। पुलिस को अधिकार सपन्न बनाने के पीछे देश की शासन व्यवस्था का मकसद भले ही अपराध नियंत्रण और शन्ति की बहाली हो, ऐसे उदाहरण भी कम नहीं है जब पुलिसकर्मी अपने विशेषाधिकारों के मद में निरंकुश न हो उठते हों और स्वयं कानून के राज को धता बताते हुए मानवाधिकारों का हनन करने लगते हों। अधिकार हनन की प्रवृत्ति की वजह से ही समाज में पुलिस की एक सीमा तक नकारात्मक छवि बनी हुई है।
यह कोई नवीन प्रवृत्ति नहीं है, न ही ऐसी चीज जिससे नीतिगत निर्णय लेने वाले लोग और स्वयं शीर्ष पुलिस व्यवस्था अवगत न हो। वस्तुतः वास्तविक जीवन में अनेक मर्तबा कानून और व्यवस्था साथ-साथ नहीं चल पाते। अनेक मर्तबा शान्ति और व्यवस्था शांति और व्यवस्था की रक्षा करने क्रम में पुलिसकर्मी कानून अपने हाथ में ले लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम मानवाधिकारों की उपेक्षा होती है और मनुष्य को नैसर्गिक अधिकारों से वंचित का उसके साथ पाशविक व्यवहार होने लगता है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखकर और अर्द्धसैनिक बलों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में मानव अधिकार को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया गया है ताकि आंरभ में ही उन्हें नागरिकों के नैसर्गिक अधिकारों में अवगत कराया जा सके, न केवल अवगत कराया जाए बल्कि यह तथ्य उनके मनोमस्तिष्क में स्थापित कर दिया जाए कि इन्हीं अधिकारों का संरक्षण और संवर्धन व्यावहारिक जीवन में कर्तव्यपालन के दौरान उनका अभीष्ट देने वाली पाठ्य सामग्री के आभाव के रूप में उपस्थित होता है। भारतीय पुलिस सेवा से संबद्ध रहे डॉक्टर एस। सुब्रह्मण्यम को अपने सेवाकाल के दौरान पाठ्य सामग्री के आभाव से अनिवार्य रूप से रूबरू होना पड़ा होगा जिसने उन्हें अंततः अवकाशग्रहण करने के उपरांत ‘पुलिस और मानवाधिकार’ नामक पुस्तक के सृजन के लिएप्रेरित किया होगा।
इस तरह डॉक्टर एस. सुब्रह्मण्यम द्वारा प्रणीत पुलिस और मानवाधिकार शीर्षक पुस्तक, दोनों के अंतसंबंध अथवा अंतद्वेद्व को लेकर किसी किस्म की वैचारिक बहस में भी छेड़ती, यह उसका अभीष्ट भी नहीं है। पुस्तक का अभीष्ट, जैसा कि ‘प्राक्कथन’ में भी कहा गया हिया, पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के कार्मिकों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में ‘मानव अधिकार’ विषय पर स्तरीय पाठ्य पुस्तक की आवश्यकता पूरी करना है। इस ध्येय की पूर्ति के लिए पुलिसकर्मी के बतौर जीवन आरंभ करने वाले और सेवारत पुलिसकर्मियों को जितनी और जिन बैटन की जानकारी होनी चाहिए उनका संकलन इस पुस्तक में करने की कोशिश की गई है। पुस्तक अपने इस घोषित अभीष्ट की पूर्ति में किस तक सफल रहती है, इसका मूल्यांकन करने से पूर्व आईये देखें इसकी अंतर्वस्तु में क्या चीजें शामिल है।
‘लोकतंत्र में पुलिस सेवा’ नामक पहले अध्याय में जहाँ यह बताने की कोशिश की गई है कि ‘लोकतंत्र’ नाम वाली शासन व्यवस्था वस्तुतः होती क्या है और उसकी क्या विशेषताएं होती है, वहीं लोकतांत्रिक व्वयस्था में पुलिस प्रणाली कैसी हो तथा उसके क्या गुण-धर्म हों इनकी भी विवेचना की गिया है। ‘मानव अधिकार’ एक सिंहावलोकन शीर्षक दूसरे अध्याय में संक्षेप में वैश्विक स्तर पर तथा भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी मानवाधिकारों के विअक्स क्रम की चर्चा की गिया है। इस अध्याय में उन अधिकारों को भी सूचीबद्ध किया गया है जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने नागरिक, राजनितिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के रूप में मान्यता दी है। यहाँ भारत में मानवाधिकारों की संकल्पना के विकास क्रम का वर्णन भी संक्षिप्त रूप में किया गया है जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा सन 1895 में तैयार किए गया भारतीय संविधान बिल (होमरूल दस्तावेज) में शामिल नागरिक अधिकारों से लेकर भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस की ही पहल पर गठित मोतीलाल नेहरु रिपोर्ट, 1928 तथा 1931 के करांची कांग्रेस में पारित मूल अधिकार एवं सामाजिक संकल्प का वर्णन यहाँ मिलता है। इस अध्याय में आगे चलकर जनवरी 1950 मौलिक अधिकारों का भी संक्षिप्त वर्णन किया यगा है।
दंड न्याय प्रणाली शीर्षक तीसरे अध्याय का विषय इसके बारे में समुचित जानकारी की उम्मीद जगाता है लेकिन पुस्तक में इसे बहुत संक्षेप में समेट दिया गया है। यदि प्रशिक्षु और सेवारत पुलिस कर्मियों को दंड न्याय पर प्रणाली की विस्तृत और समुचित जानकारी दी जाती तो वह उनके व्यावहारिक जीवन में दायित्व निर्वहन के क्रम में काफी उपयोगी होता। दंड न्याय प्रशासन में मानव अधिकार नामक चौथा अध्याय दरअसल पिछले अध्याय का ही विस्तार है। इस अध्याय में संविधान तथा दंड प्रक्रिया संहिता की विभिन्न धाराओं में वर्णित अभियुक्तों के मानवाधिकारों को चुनकर एक जगह संगृहित किया गया है। साथ ही, पीड़ितों के मानवाधिकारों, उन्हें प्राप्त संरक्षणों का विवरण भी यहाँ है। कहना न होगा कि न्याय प्रशसन वस्तुतः पीड़ितों के अधिकार रक्षण का ही दूसरा नाम है, किन्तु दंड न्याय प्रशासन के क्रम में भी अधिकार हनन की संभावना बनी रहती है। उससे बचाव के लिए जो प्रावधान किये गये हैं उनका उल्ल्लेख भी यहाँ है।
हिंसा: कारण और निदान’ शीर्षक 5वां अध्याय पुस्तक का दूसरा सबसे बड़ा अध्याय है जिस्स्में हिंसा को जन्म देने वाले सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, व्यावसायिक और प्रशासनिक कारणों के बारे में बताया गया है। साथ ही एस्स्में हिंसा निवारण के नैदानिक उपायों की भी चर्चा है। लेकिन अध्याय का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा पारित 10 दिसबंर, 1984 को अंगीकृत ‘यातना और क्रूर, अमानवीय एवं अपमानजनक व्यवहार अथवा दंड के विरुद्ध अनुबंध की पुनप्रस्तुति में लगाया गया है। बावजूद इसके यहाँ यह उल्लेख नहीं है कि भारत ने इस अनुबंध पर हस्ताक्षर का दिया है अथवा नहीं।
छठे अध्याय का शीर्षक है- विधि प्रवर्तकों से संबधित आचार संहिता’। इस अध्याय में कानून लागू करने वाले पुलिस अधिकारियों के लिए संयुक्तराष्ट्र राष्ट्र संघ द्वारा बनाई गई आचार संहिता के अलावा पुलिस हेतु भारतीय आचार संहिता का भी वर्णन है। दोनों ही आचार संहिताओं का फलक व्यापक है और उनमें आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल से लेकर हवालात में बंद कैदियों पर नियंत्रण और उनसे संबधित रिपोर्टिंग प्राविधि तक का उल्लेख है।
अगला अध्याय ‘कैदियों के अधिकारों पर केन्द्रित है यह पुस्तक का सर्वाधिक बड़ा अध्याय (लगभग 40 पृष्ठ) भी है। यहाँ भी संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाए गया संकल्प की पुन्प्रस्तुति में ही सारे पृष्ठ खपा दिये गये हैं। कहीं भारतीय जेल अधिनियम के प्रावधानों और उसमें किये गये संशोधनों का संक्षिप्त उल्लेख तक नहीं है। और, कारागार सुधार के लिए भारत सरकार ने अलग-अलग समय पर जो समितियां गठित की, उनकी रिपोर्ट, अनुशंसाओं, उनमें से कौन-सी लागू की गई, कौन से लागू होने से रह गई, और किन वजहों से, इसका कोई उल्ल्लेख इस अध्याय में नहीं मिलता।
8वें अध्याय में जहाँ आतंरिक सुरक्षा संबंधी कार्रवाइयों के क्रम में मानव अधिकारों की चर्चा है, वहीं 8 वीं अध्याय में पाठकों को राष्ट्रीय मानव अधिकार, उसके कार्यक्षेत्र, भूमिका, शक्तियों के साथ-साथ राज्य मानव अधिकार आयोग तथा मानव अधिकार न्यायालय के बारे में सूचनाप्रद जानकारी दी गई है। अंतिम अध्याय में लेखक ने मानव अधिकार प्रशिक्षण की आवश्यकता को अपरिहार्य बताते हुए प्रशिक्षण प्राविधि का भी संक्षिप्त उल्लेख किया है।
आरंभ में उल्लेख किया जा चुका है कि इस पुस्तक का अभीष्ट पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों को मानव अधिकारों संबधी प्रशिक्षण हेतु सूचनाप्रद जानकरी मुहैय्या कराना है। अपन इस ध्येय में यह पुस्तक ‘अशतः’ सफल होती है। अशतः इसलिए कि अनेक स्थानों पर सूचनाएं अधूरी रह गिया हैं और उनको पूरा करने का प्रयास नहीं किया गया है। स्रोत और सन्दर्भ सामग्री के लिए अधिकाधिक संयुक्त राष्ट्र जैसे बाह्य निकायों पर निर्भर रहा है और भारतीय सन्दर्भ अनेक मर्तबा उपेक्षित रह गये हैं। कई बार यह भी नहीं बताया जा सका है कि संयुक्त राष्ट्र के जिन संकल्पों की पुनप्रस्तुति में जो इतने पृष्ठ प्रयुक्त किये गये हैं, उन संकल्पों को भारत ने अंगीकार कर लिया (हस्ताक्षर कर दिया) है अथवा नहीं।
स्रोत: मानव अधिकार आयोग, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 3/13/2023
इस पृष्ठ पर अनिवासी भारतीयों, विदेशी भारतीय नागरिक...
इस पृष्ठ पर बालकों के दत्तक-ग्रहण मार्गदर्शक सिद्...
इस पृष्ठ पर बालकों के दत्तक-ग्रहण संबंधित प्रक्रिय...
इस पृष्ठ में गांधी दर्शन मानव अधिकारों की आधारपीठि...