मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं – भोजन, वस्त्र और आवास ।पौष्टिक भोजन, स्वच्छ वस्त्र तथा साफ-सुथरा आवास मानव की कार्यक्षमता एवं जीवन को सुचारू रूप से सक्रिय रखने के लिए न्यूनतम एवं वांछनीय आवश्यकताएं हैं ।वर्त्तमान युग में मशीनीकरण का युग है ।औधोगिकीकरण के जिनते भी आयाम है, सब मशीन पर निर्भर हैं, लेकिन इन मशीनों की कार्यक्षमता को बनाये रखने अथवा अनुकूल दशाओं के विकास के लिए श्रमिकों का संतुलित एवं पौष्टिक आहार शरीर ढूंढनें को पर्याप्त मात्रा वस्त्र और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने के लिए स्वास्थ्यकर आवास की उपलब्धि नितान्त आवशयक है ।लेकिन औद्योगिकप्रगति के बाद आज श्रमिकों के आवास की व्यवस्था अच्छी नहीं है ।उन्हें गंदी बस्तियों में ही रहना पडत है ।अत: वर्त्तमान युग में गंदी बस्तियों की समस्या बनती जा रही है ।इसी कारण हाउस ने नगर को “जीवन और समस्याओं का विशिष्ट केंद्र” माना है ।
जहाँ तक भारत जैसे विकासशील देश का प्रश्न है, गंदी बस्ती की समस्या यहां अत्यधिक गंभीर है ।लोगों को बुरी आर्थिक दशा के कारण यह बढ़ती हुई जनसंख्या, उन्नत तकनीकी और धीमी प्रगति से होने वाले औधोगिकीकरण का ही परिणाम है ।भारत में गंदी बस्ती का उदय कब हुआ, इसका निश्चित समय नहीं बतलाया जा सकता है ।लेकिन जैसे-जैसे समय बिताता जा रहा है नई-नई गंदी बस्तीयों का विस्तार हो रहा है ।इस प्रकार गन्दी बस्तियाँ प्राय: सभी बड़े नगरों में विकसित हुई है ।
दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गन्दी बस्ती की समस्या का निराकरण कर दिया गया हो ।यधपि संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस आर्थिक और तकनीकी रूप में उन्नत देश हैं, फिर ही सस्ते और स्वस्थ आवास व्यवस्था की समस्या विभिन्न उपायों को अपनाकर भी नहीं सुलझाया जा सका है ।19वीं एवं 20 वीं शताब्दी में विज्ञान, उद्धोग और शिक्षा में अत्यधिक वृधि हुई ।चिकित्सा विज्ञान ने व्यक्ति को दीर्घायु बनाया है ।पिछले 100 वर्षों में संसार की जनसंख्या दुगुनी हो गयी है ।भारत में जनसंख्या में भी तीव्र गति से वृधि हुई है ।पिछले 10 वर्षों की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1981 में 84.4 करोड़ हो गई ।यह वृधि 23 प्रतिशत की दर से हैं ।ग्रामीण जनसंख्या में निरन्तर वृधि होती जा रही है किन्तु अत्यधिक निर्धनता के कारण ग्रामीण निवासी बहुत बड़ी तादाद में नगरों में काम की तलाश में आ रहे हैं ।इससे नगरों में आवास की समस्या उत्पन्न हुई है ।औद्योगिकनगरों में जनसंख्या का दबाव अत्यधिक बढ़ गया है ।मलिन एवं गंदी बस्तियाँ मूलतः औद्योगिकनगरों एवं महानगरों की उपज है ।यहां व्यक्तियों को छोटा बड़ा काम मिल जाता है पर रहने को घर नहीं मिलता ।इसलिए इन महानगरों को मलिन बस्तियों में शरण मिलती है ।
नगरीकरण और औधोगिकीकरण ने जहां व्यक्तियों को विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, शिक्षा और एक अच्छी वैज्ञानिक समझ दी है वहीं करोड़ों व्यक्तियों को नारकीय जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया है ।इस नारकीय जीवन को गंदी बस्तियों में देखा जा सकता है ।एक छोटी-सी झोपड़ी, कच्चे मकान अथवा एक कोठरी में 10 से 15 व्यक्ति तक रहते हैं ।जल निकासी का कोई प्रबंध नहीं होता ।कूड़े, कचरे का यहां ढेर लगा रहता है ।शौच की कोई व्यवस्था नहीं होती ।बैठने के लिए इनके पास खुला स्थान नहीं है ।तंग संकरी मलिन बस्तियाँ जहां जीवन कम और बीमारियां अधिक हैं ।पीले, मुर्झाये चेहरे, चिपके गाल , उभरती हड्डियाँ, फाटे गंदे कपड़े यहां का सौंदर्य है ।इन्हें पात नहीं ये कब जवान होते हैं और कब बूढ़े हो जाते हैं ।कब इन्हें टी.बी. हो जाती है और कब कैंसर ।ये तो मौत के मुहं में जन्म लेते हैं ।इनका जिंदा रहना और मरना समाज के लिए कोई अर्थ नहीं रखता ।आखिर गरीब के मरने कोई अर्थ नहीं होता है ।गंदी बस्तियों में इनका जीवन नाली के कीड़ों जैसा ही है ।पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कानपुर के अहाता को देखकर एक बार कहा था – “ आदमी-आदमी को इस रूप में कैसे देखता है“ ।इस तरह गंदी बस्तियों का सीधा संबंध बढ़ती हुई जनसंख्या और आवास व्यवस्था की कमी से है जो समय के साथ और गहरी होती जा रही है ।
गंदी बस्ती का सामान्य अर्थ प्रत्येक तरह की कठिनाईयों जैसे जर्जर आवास व्यवस्था और गंदी युक्त पर्यावरण तथा वातावरण से है ।गंदी बस्तियों की सामान्य परिभाषा करना अत्यत्न कठिन है क्योंकि प्रत्येक देश आर्थिक स्थिति के अनुरूप ही गंदी बस्तियाँ स्थापित होती हैं ।गंदी बस्तियां झोपड़ी सराय , छोटी-छोटी कोठरियां, खपडैल और बांस से बने हुए कच्चे मकान, टिन शेड से निर्मित मकान, लकड़ी की छोटे केबिन आदि से स्थापित हो जाती हैं।एक स्थान पर बस्तियों की उत्पत्ती के लिए कोई निश्चित पर्यावरण निर्धारित करना कठिन है ।यह कभी भी विकसित हो सकती है ।फिलिपाइन्स के दलदली क्षेत्रों में, छोटे-छोटे पहाड़ी क्षेत्रों में और युद्ध में जी स्थान नष्ट हो गए थे वहां गंदी बस्तियां स्थापित हो गई है ।लैटिन अमेरिका में छोटे-छोटे पहाड़ों की ढ़लान पर गंदी बस्तियाँ हैं ।करांची में कब्रिस्तान और सड़क के किनारे इन्हें देखा जा सकता है ।भारत में भी इसे इस रूप में देखा जा सकता है ।रवालपिंडी और दक्षिणी स्पेन में प्राचीन गुफाओं में इनके दर्शन किए जा सकते हैं ।अहमदाबाद, कानपुर, कलकत्ता, बम्बई, मद्रास कें एक कमरे की अंधेरी कोठिरियों का गंदी बस्तियों में संख्या अत्यधिक है ।गिस्ट और हलबर्ट ‘गंदी बस्तियों को विशिष्ट क्षेत्रों का विशिष्ट स्वरूप बताते हैं, तथा क्वीन एवं थामस ‘गंदी बस्तियों को और रोगग्रस्त क्षेत्रों में पर्यायवार्ची समझते हैं ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि गंदी बस्तीयों के स्वरुप में विविधताएँ हैं ।प्रत्येक देश की गंदी बस्ती का अपना स्वरुप है किन्तु उसका पर्यावरण और रहने की दशाएं लगभग समान हैं ।इसमें निवास करने वाले निर्धन, बेरोजगार और काम आय वाले व्यक्ति हैं जिनका न कोई मकान है और न मकान होने की आशा है ।यह वह आवासीय अनाथालय है जहां जमीन की समस्त असुविधाएं एक साथ देखने को मिलती हैं, जहां व्यक्ति नहीं, व्यक्ति के नाम पर वे पशु की तरह जीवनयापन करते हैं ।औद्योगिकक्रांति के विकास ने उधोगों का विकास किया किन्तु अपने करोड़ों श्रमिकों को रहने के लिए घर नहीं दिया ।गंदी बस्तियाँ बहुत कुछ इस औद्योगिकक्रांति का परिणाम हैं ।
गंदी बस्तियों के कारण – गंदी बस्तियों का जन्म अचानक ही नहीं हो गया है वरन इसकी पृष्ठभूमि में अनेक मौलिक तत्व हैं जो इनकी वृधि के कारण बने हैं ।यह निम्नलिखित हैं :
निर्धनता : निर्धनता अभिशाप है ।निर्धन व्यक्ति के लिएय यह भू-लोक ही नरक है ।निर्धन, बेरोजगार, दैनिक वेतनभोगी श्रमिक ये सब उस वर्ग के व्यक्ति हैं जो कठोर परिश्रम करने के पश्चात भी दो समय का भोजन अपने परिवार को नहीं दे पातें हैं ।परिणामत: इनके बच्चे कुपोषण का शिकार बन जाते हैं ।बढ़ती महंगाई, कम आमदनी , निर्धन को उच्च पौष्टिक मूल्यों वाले भोज्य पदार्थों को खरीदने के योग्य नहीं छोड़ती है ।अभावों में जीना इनकी मजबूरी है ।
नगरों में आवास समस्या – नगरों में भूमि समिति है और मांग अत्यधिक है ।भूमि का मूल्य भी यहां आकाश छूता है ।सामान्य व्यक्ति भूमि क्रय करके नगर में मकान नहीं बना सकता है ।नगर में किराये के मकान भी समान्य व्यक्ति नहीं ले सकता है ।लाखों श्रमिकों जिसके साधन और आय सीमित हैं उसे विवश होकर गंदी बस्तियों में रहना पड़ता है ।मकान कम है और रहने वाले व्यक्ति कहीं अधिक हैं और परिणामस्वरूप गंदी बस्तियों में निरन्तर वृधि होती जा रही है ।स्थानाभाव के चलते संक्रमण तथा रोग व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं ।छोटे छोटे बच्चे अपने परिवार के साथ तंग जगह में रहते हैं ।परिवार में पड़ी बीमार व्यक्तियों के साथ रहने पर संक्रामक कीटाणु उन्हें भी संक्रमण के जाल में फंसा लेता है ।फलत: डायरिया, मीजल्स आदि के बाद भूख खत्म हो जाती है और शरीर निर्बल होकर कुपोषण की स्थिति में चला जाता है ।
नगरीय जनसंख्या का दबाव – बढ़ती जनसंख्या के साथ जमीन तो बढ़ी नहीं फलस्वरूप रोजगार की खोज में लोग गांव से शहरों की तरफ भाग रहे हैं ।जहां उन्हें राहत के स्थान पर तमाम तकलीफों का सामना करना पड़ता है ।रहने को मकान नहीं, खाने को अच्छा खाना नहीं, शुद्ध पानी नहीं, गंदगी से भरा वातावरण तथा भीड़-भाड़, इन सबके कारण उन स्वाथ्य गिरता जाता है फलत: वे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं, जिसका प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है ।
औद्योगिक क्रांति – गंदी बस्तियों की उत्पत्ती में औद्योगिकक्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका है ।औद्योगिकनगर में जीविका के अनके विकल्प उपस्थित होते हैं ।लाखों की संख्या में ग्रामीण व्यक्ति यहां अधिक से अधिक धन अर्जित करने की कल्पना सजाए आता है परंतु उसे यहां निराशा ही हाथ लगती है ।वह मिल, फैक्टरी, कारखाना या और किसी प्रकार का श्रम करके पटे भरता है ।निर्धनता उनका स्थायी धन है ।इसे औद्योगिकमहानगरीय सभ्यता और संस्कृति में उसे तो गंदी बस्तीयों में रहना पड़ता है ।उसके पास इसके अतिरिक्त विकल्प की क्या है ?
शिक्षा और जागरूकता का अभाव – शिक्षा और जागरूकता के अभाव में गंदी बस्तियों के विकास में वृधि हुई है ।वे व्यक्ति जो निर्धनता के शिकार हैं, वे गंदी बस्तियों की गंदगी से भी अनभिज्ञ हैं ।जहां सुविधाएं नाम को भी नहीं है और बीमारियों और सामाजिक बुराइयां असीमित हिं फिर भी यहां इसलिए आतें हैं क्योंकि उन्हें नाम मात्र का किराया देना पड़ता है ।अशिक्षा के चलते भोजन के पौष्टिक तत्वों के संरक्षण की विधि से लोग वाकिफ नहीं हैं ।भोजन को तल कर खाने में उन्हें, इस बात का अंदाजा नहीं लगता है कि वे अपने ही हाथों से, जो कुछ उन्हें मिल सकता था, उसे भी नहीं ले रहें हैं ।भोजन में पकाया पानी या माड़ आदि निकालकर, न जाने कितने पोषक तत्व वे स्वयं नष्ट कर देते हैं ।शिक्षा और जागरूकता के अभाव में वे अपने ही हाथों से अपनी ही क्या, अपनी अगली पीढ़ी की भी हानि कर रहें हैं ।
गतिशीलता में वृद्धि – पहले व्यक्ति को अपनी जमीन और घर की ड्योढ़ी से अत्यधिक लगाव था ।वह किसी भी दशा में अपना गांव, क़स्बा छोड़ना नहीं चाहता था, किन्तु औद्योगिकक्रांति और आवगामन की सुविधाओं ने व्यक्ति को नगरों में काम खोजने और नौकरी करने के लिए उत्प्रेरित किया ।नित्य लाखों की संख्या में व्यक्ति एक गांव से एक नगर, एक नगर से दुसरे नगर और नगर से महानगर में काम की तलाश में जाता है ।इतने व्यक्तियों के रहने के स्थान कोई भी नगर, अबालक कैसे बना सकता है ।अस्तु वे गंदी बस्तियों के शरण में जाते हैं ।इस तरह गंदी बस्तियों का विकास निरन्तर होते जा रहा है ।
शोषण की प्रवृति – उत्पादन का महत्वपूर्ण अंग श्रमिक, मलिन बस्तियों में रहता है और मालिक वातानुकूलित बंगलों में ।पूंजीवादी व्यवस्था की यह बुनियादी नीति है कि आप आदमी की रोजी-रोटी की परेशानियों में फसायें रखें ।भूखा व्यक्ति अपने परिवार के पेट भरने की चिंता पहले करता है और कुछ बाद में ।उसे जीने की इतनी सुविधाएं नहीं देते जिससे की वह दहाड़ने लगे और बाजू समेटकर अपने अधिकारों की मांग करने लगे ।इसलिए उसे अभाव में जीने दो जिससे कि वह सदैव मालिकों का दास बनकर रहें ।उसकी स्थायी नियत शोषण करना है , श्रमिकों को सुविधायें पहुंचना नहीं ।अंततःनिर्धन शोषित श्रमिक रहने के लिए मलिन बस्तियों की शरण में ही जाता है ।
सुरक्षा का स्थल है – गाँव छोड़कर ग्रामीण इसलिए भी नगर आ रहा है क्योंकि वहां सुरक्षा नाम की कोई चीज नहीं है ।चोरी और डकैती सामान्य बात है ।डकैतों का बढ़ता हुआ आतंक ग्रामीणों को गाँव छोड़ने के लिए मजबूर करता है ।नगर में प्रशासक, पुलिस की व्यवस्था है जो उनके जान-माल की रक्षा करती है ।इसलिए नगर की जनसंख्या में निरन्तर वृधि हो रही है और इसी के साथ गंदी बस्तियों में भी वृधि हो रही है ।
ग्रामीण बेरोजगारी – भारतीय निर्धन गांव जहाँ वर्ष में कुछ ही महीने व्यक्ति को काम मिलता है और शेष माह वह बेरोजगारी के अभिशाप को भोगता है ।ग्रामीण क्षेत्र में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं है कि व्यक्ति को खाली समय में काम मिल सके ।इसलिए खेती के समय जो ग्रामीण व्यक्ति गाँव में उपलब्ध रहता है उसके पश्चात वह नगरों में काम करने आ जाता है ।इनमें से अधिकांश व्यक्ति रिक्शाचालक, ठेले खींचने वाले, खोमचा लगाने वाले या मिल में श्रमिक होते हैं अथवा कोई छोटा-मोटा कार्य करके अपनी जीविका अर्जित करते हैं ।उनमें से अधिकांश व्यक्ति गंदी बस्तियों में रहते हैं ।यह उनकी विवशता भी है ।
नगर नियोजन का अभाव – नगर में गंदी बस्तियों का यदि विकास हो रहा है तो इसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व नगरपालिका और सरकार पर है ।यदि नगर का विअकास सुनियोजित और योजनाबद्ध ढंग से किया जाए तो गंदी बस्तियों का विकास शायद इस रूप में संभव न हो पता और ये नगर और मानवता के कलंक न बन सकते ।
दुष्परिणाम – धरती के ये नरक सभ्य मानव जाति के लिए कलंक है ।ये वे स्थान हैं जहाँ से असंख्य बुराइयां उत्पन्न होती हैं और सम्पूर्ण समाज को निगल जाती है ।गंदी बस्तियों के दुष्परिणाम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझे जा सकते हैं :
यह वह स्थान है जहाँ कमरों में भीड़ रहती है और व्यक्ति एकांत के लिए व्याकुल रहता है ।एक-एक कमरे में 10-15 व्यक्ति रहते हैं ।इनमें कुछ भी गोपनीय नहीं रहता है। शीघ्र ही बच्चे बुरी आदतों को ग्रहण कर लेते हैं ।
गन्दगी से परिपूर्ण यह स्थान बीमारियों के केंद्र हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह मानव समाज नरक है ।यहां सब कुछ प्रदूषित है ।न यहां शुद्ध जल है न वायु और न वातावरण बच्चे इस नारकीय स्थान में रहतें हैं ।यहां क्षय रोग सामान्य बात है ।पेचिश , डायरिया तथा अनेक रोग यहां के बच्चों की विशेषता है ।
बच्चे सामाजिक बुराइयों के बीच जन्म लेते हैं। इनके चारों तरफ असामाजिक वातावरण होता है ।ये सहज ही बुराइयों को अपना लेते हैं और बचपन से ही ये सब करने लगते हैं जो अपराध है ।इनके मध्यम से ही चरस, गांजा कच्ची शराब बेची जाती है ।यह अनैतिक यौन संबधों की दलाली करते हैं। जुओं के अड्डों की देख-रेख करते हैं ।इन्हें इसी रूप में प्रशिक्षित किया जाता है ।आगे चलकर यह गंभीर अपराधी बनते हैं ।
यहां व्यक्तित्व और परिवार का निर्माण होता। अधिकांश परिवार अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए उचित व अनुचित सभी प्रकार के कार्य करते हैं ।शराब ,जुआ, अनैतिक यौन संबंध, चोरी आदि व्यक्ति को जहां नष्ट करते हैं वही पारिवारिक को भी विघटित करते हैं ।बच्चे इसे देखकर अपने पुवाजों की परंपरा का निर्वाह भविष्य में भी करते हैं ।
ये वे स्थान हैं जहां सामाजिक आदर्श, मुल्य, नैतिकता, सहिष्णुता आदि के दर्शन होते हैं ।ये अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं। इन्हें खरीदकर इनसे कुछ भी कराया जा सकता है ।अराजक तत्व यहां बनाये जाते हैं ।ये वे व्यक्ति हैं जो समाज में गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने के लिए ख़रीदे जाते हैं ।इस प्रकार के कार्यों से समाज विघटित होता है ।
बंदी बस्तियों की व्याख्या करते हुए डॉ राधा कमल मुखर्जी ने लिखा है – “औद्योगिककेंद्रों की हजारों मलिन बस्तियों ने मनुष्यत्व को पशु बना दिया है, नारीत्व का अनादर होता है और बाल्यावस्था को आरम्भ में ही विषाक्त किया जाता है ।ग्रामीण सामाजिक सहिंता श्रमिकों को औद्योगिककेंद्रों में अपनी पत्नियों के साथ रहने के लिए हतोत्साहित करती है ।ऐसी दशा में जहां कम आयु में विवाह प्रचलित है, वहां युवा श्रमिक, जिनसे आप वैवाहिक जीवन प्रारंभ ही किया हो, नगर के आकर्षण से प्रभावित होता है ।”
भारत में गंदी बस्तियों की समस्याएं पाश्चात्य देशों की बस्तियों की समस्याओं से भिन्न हैं ।यहां गंदी बस्ती का अर्थ गन्दगी और बीमारी से बसर कर रहे छोटे-छोटे, टूटे-फूटे माकानों में रह रहे लाखों लोगों से है, जो गरीबी रेखा के नीचे बसर कर रहे हैं, सीमांत जब समूह हैं ।अंग्रेजी में इसे ‘मारनल पोपुलेशन’ कह सकते हैं ।जो भी हो इन सब गंदी बस्तियों का जीवन प्रणाली अलग ही है ।इन बस्तियों में निवास कर रहे लोग अलग हैं तथा इन लोगों का दृष्टिकोण और इनकी सामाजिक व्यवस्था समाजशास्त्रियों के अध्ययन के लिए रूचि कर विषय है ।
गंदी बस्ती का विकास शहर के विकास के साथ जुड़ा हुआ है और इसके साथ तरह-तरह की समस्याएं भी उत्पन्न हुई है ।यधपि नगरीकरण ने गंदी बस्तियों को जन्म दिया है और इन गंदी बस्तियों ने नई समस्याएं एवं चुनौती पैदा की है।मैक्स वेबर के अनुसार “जब-जब नगर से महानगरों का विकास होता है, तब-तब भ्रष्टाचार के नये-नये रूप भी प्रकाश में आतें हैं ।“
गंदी बस्ती तथा उनके जैसी सघन मुहल्लों में संख्या भारत के नगरों से दिन-व-दिन बढ़ती जा रही है ।1969 के एक सर्वेक्षण के अनुसार बम्बई में कुल 206 बस्तियाँ थी जिसमें कुल 6,31,000 लोग रहते थे ।1991 के जनगणना के अनुसार पटना शहर की आबादी लगभग 9.18 लाख थी ।इनमें से 3.43 लाख आबादी पटना की 68 गंदी बस्तियों में रहती थी ।यह शहर की कुल जनसंख्या का 37.3 प्रतिशत था ।इन केंद्रों में प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या का घनत्व 44-84 था ।
वर्त्तमान आर्थिक स्तर पर भारत कुपोषण की समस्या को कुछ कारगर तथा उपयुक्त योजनाओं के द्वारा 50 प्रतिशत तक खत्म कर सकता है ।बच्चों में समुचित पोषण मूल्य को सुनिश्चित करने के काम में महिलाएं ही महत्वपूर्ण कदम उठा सकती हैं ।बच्चों तथा परिवार के पोषण के स्तर में सुधार लाने के लिए महिलाओं को पोषण संबंधी जानकारी अच्छी तरह देनी होगी जिससे वे उन्हें अपनी रोजमर्रा की आदतों में शामिल कर सकें ।
मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं – भोजन, वस्त्र और आवास ।
भोजन करना प्रत्येक व्यक्ति के दैनिक जीवन का एक अनिवार्य भाग है ।भोजन के बिना कोई व्यकित कुछ ही दिनों तक जीवित रह सकता है तथा ऐसा समय में शारीर में उपस्थित भोज्य तत्व निरन्तर व्यय होते रहते हैं व अंत समय तक व्यक्ति कंकाल मात्र ही रह जाता है ।अत: यदि शरीर पूर्ण स्वस्थ व क्रियाशील रखना है तो प्रतिदिन आवश्यकतानुसार भोजन लेना अनिवार्य होगा।
भूख लगना प्राकृतिक के अपरिवर्तनीय नियमों में से एक है ।भूख मिटाने के लिए हम भोजन करते हैं ।भोजन न करने से हमारा शरीर दुर्बल हो जाता है तथा हम विभिन्न प्रकार के रोगों के शिकार हो जाते हैं ।इस तरह भोजन केवल हमारे भूख को मिटाता है बल्कि यह हमारे शरीर का निर्माण करता है, शरीर को ऊर्जा यानि शक्ति प्रदान करता है तथा हमारे शरीर के विभिन्न क्रियाओं को नियंत्रित करता है ।
भोजन ही आहार है, हम आहार को मुख्य रूप से दो भागों में बांटते हैं – (क) अपर्याप्त आहार तथा (ख) पर्याप्त या सन्तुलित आहार ।
अपर्याप्त आहार वह आहार है जो भूख को शांत करने के लिए किया जाता है ।इस प्रकार के भोजन से हमारा भूख तो मिट जाता है एवं शरीर क्रियाशील रहता है पर ऐसे भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी के कारण शरीर में रोग निरोधक क्षमता नहीं रहती है ।
दूसरी और सन्तुलित आहार व भोजन है जिसमें सभी पौष्टिक तत्व उचित मात्रा में रहते हैं ।दुसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि सन्तुलित आहार है जिसमें शरीर में समस्त पोषण-संबंधी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए सभी पोषक तत्व उचित मात्रा में उपलब्ध रहता है ।इसलिए सुपोषित भोजन हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है, पोषण उन प्रतिक्रियाओं का संयोजन है जिनके द्वारा जीवित प्राणी अपनी क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए तथा अपने अंगों की वृधि एवं उनके निर्माण हेतु आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करता है एवं उनका उपभोग करता है ।इस प्रकार पोषण शरीर में भोजन के विभिन्न कार्यों को करने की सामुहिक प्रतिक्रियाओं का ही नाम है ।
अपर्याप्त भोजन या कुपोषण के दुष्परिणाम निम्नलिखित लक्षणों के रूप में प्रकट होते हैं :
इस तरह यह कहा जा सकता है कि भोजन में कई रासायनिक पदार्थ उपस्थित होते हैं ये भोज्य तत्व ही हमारे शरीर को स्वस्थ रखने व क्रियाशील रखने के लिए उत्तरदयी होते हैं ।ये तत्व कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज तत्व, विटामिन व जल हैं, जो भोजन में विभिन्न अनुपातों में उपस्थित रहते हैं ।इन तत्वों से शरीर को क्रियाशील रखने के लिए ऊर्जा तथा शरीर को गर्म रखने के लिए ऊर्जा की प्राप्ति होती है ।निरन्तर परिवर्तन होते रहना जीवित पदार्थों का एक विशेष गुण है।मनुष्य के शरीर में भी निरंतर परिवर्तन होते रहता है ।जीवन के प्रारंभिक वर्षों में शरीर में बराबर वृधि व विकास होता रहता है तथा विभिन्न अंगों के क्रियाशील रहने के कारण उनकी कोशिकाओं से बराबर टूट-फूट का निर्माण करने में सहायक होती है ।इसके अतिरिक्त भोज्य के तत्व हमारे शरीर में होने वाली विभिन्न जटिल प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है जिससे हमारा स्वास्थ्य उत्तम रहता है तथा रोगादि से बचा रहता है ।
गंदी बस्तियों में निवास करने वाले परिवारों में निर्धनता के परिणामस्वरूप समुचित मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं हो पातें हैं ।श्रम के अनुरूप शरीर में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन नितांत आवश्यक है ।गंदी बस्तियों में निवास करने वाले दैनिक मजदूर, ठेला मजदूर, रिक्शाचालक , खोमचावाले तथा निम्न आय वर्गीय व्यक्ति होते हैं ।अशिक्षा एवं अज्ञानतावश इनके परिवारों की संख्या अधिक होती है ।अपनी सीमित आय से वे अपने परिवार का भरण-पोषण सही ढंग से नहीं कर पाते हैं ।निर्धनता इनके लिए अभिशाप है ।भोजन की समुचित मात्रा उपलब्ध नहीं होने से ये बच्चे अपने बाल्यकाल में ही अनेक रोगों से ग्रसित हो जातें हैं ।इनका शारीरिक एवं मानसिक विकास शिथिल पड़ जाता है ।आवश्यकता इनके लिए समुचित भोजन उपलब्ध करवाने की है ।वर्तमान में सरकार ने इन गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को लाल कार्ड वितरण की व्यवस्था करने का प्रयास किया है. जिसके अंतर्गत उन्हें उचित मात्रा में उचित मूल्य पर खाधान्न उपलब्ध कराये जायेंगे ।लेकिन सरकारी तंत्र उन्हें सही तरीके से उपलब्ध करा पायेगा या नहीं विचारणीय प्रश्न है ?
द्वितीय, वस्त्र मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है ।गंदी बस्तियों में निवास्क करने वाले लोगों की यह एक समस्या है ।वे मैले कुचैले कपड़े धारण करते हैं ।लोग इन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं ।जिन निर्धन व्यक्तियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं होता है उन्हें आचे वस्त्र नसीब कहां होंगे
उनके बच्चे नंग-धडंग अवस्था में इन बस्तियों में रहते हैं, कुछ पहनते भी है तो वे मैले-कुचैले होते हैं जिससे महामारी तथा अन्य रोग होने का खतरा रहता है ।इस अवस्था में इनके बच्चे प्राय: अस्वस्थ रहते हैं ।समुचित चिकित्सा वयवस्था के आभाव में वे अकाल ही काल कलवित हो जाते हैं ।इस असहनीय पीड़ा से त्रस्त इनके परिवार के अन्य सदस्य चोरी, डकैती एवं अन्य अनैतिक कार्यों में संलग्न हो जाते हैं ।
तृतीय, गंदी बस्तियों में निवास करने वाले लोगों की मुख्य समस्या आवास की समस्या है ।औधोगिकीकरण और नगरीकरण ने अनेक समस्याओं को नगर में उत्पन्न करने का श्रेय प्राप्त किया है ।निर्धन ग्रामीण व्यक्ति जीविका की खोज में नगरों और विशेषतया औद्योगिकनगरों में बड़ी संख्या में आ रहे हैं ।उसे पेट भरने के लिए यहां कोई –न –कोई काम मिल जाता है किन्तु रहने के लिए स्थान नहीं मिल पाता है ।उसे इतना भी स्थान नहीं मिलता, जहां वह खाना बना सके, रात में सो सके और अपना खाली समय व्यतीत कर सके ।निर्धन श्रमिक और वेतन भोगी व्यक्ति की इतनी आय नहीं है कि वह भूमि का क्रय करके अपना मकान बना सके और यदि किसी प्रकार उसने कोई टुकड़ा भूमि खरीद भी लिया तो उस पर मकान बनाना उसकी शक्ति के बाहर होता है ।आवास की सुविधाएं नाम की कोई चीज यहां नहीं होती ।यह वे स्थान हैं जहाँ जिंदगी चिरस्थायी है ।यह नगर के नरक, कलंक और अभिशाप हैं ।
गंदी बस्तियों को साफ करने पर नियुक्त परामर्शदाता समिति के अनुसार औद्योगिकनगरों में 6 प्रतिशत से 7 प्रतिशत से लोग बस्तियों में रहते हैं ।ग्रामीण व्यक्ति छोटे से कच्ची मिटटी के मकान में रहता है अथवा वहां असंख्य घास, फूंस के छप्पर वाले मकान है ।मिटटी के बने मकानों में बारहों मॉस सीलन बनी रहती है ।इसके साथ ही उस छोटे से मकान में अनके व्यक्ति रहते हैं ।निर्धन ग्रामीण बड़े मकान की कल्पना भी नहीं कर सकता है ।जिन मकानों में निर्धन रहता है वहां अँधेरा उसका साथी है और जीवन सुरक्षा नाम की कोई चीज इन मकानों में नहीं होती है ।नगर और महानगरों में आवास समस्या के अनेक कारण है जो परस्पर एक-दुसरे से जुड़े हुए हैं ।यह एक सामान्य तथ्य है कि किसी भी गंभीर समस्या का जन्म किसी एक कारण से नहीं वरन अनेक कारणों से होता है ।
सरकार द्वारा आवास समस्या के निराकरण के प्रयास – गंदी बस्तियों को हटाने और उनका सुधार करने के लिए सरकार कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर रही है ।गंदी बस्तियों को हटाने के लिए द्वितीय पंचवर्षी योजना में 20 करोड़ रुपये निश्चित किये गये ।वर्त्तमान में 114.86 करोड़ रुपये राज्यों के लिए आवास योजनाओं के लिए आवास योजनाओं में व्यय करने हेतु प्रदान किये गये हैं ।सरकार आवास समस्या के समाधान हेतु सदैव जागरूक रही है ।उसने कमजोर वर्ग और औद्योगिकश्रमिकों के लिए अनके नगर और महानगरों में मकानों का निर्माण किया है ।उसने निम्न और मध्यम आय वर्ग के लिए विशेषतया लाखों मकानों का निर्माण करके उन्हें सरल किश्तों पर बेचा जा रहा है ।
गंदी बस्ती में पोषाहार एवं कुपोषण – पोषण राष्ट्रिय विकास का मूल घटक है ।कुपोषण पर धयान देना एक नैतिक आवश्यकता है ।कुपोषण समाज में अस्वीकार्य है क्योंकि वह व्यक्ति के उपयुक्त पोषण के अधिकार का हनन करता है ।यह पोषण मानव संसाधनों की गुणवत्ता पर आधारित होती है जो कि आबादी के स्वाथ्य तथा पोषक स्तर द्वारा देखभाल ।इसकी पूर्ति के लिए संसाधनों की पहचान तथा साथ-साथ समुदायों का सशक्तिकरण और गरीब वर्गों के लिए सहायक योजना का होना जरुरी है ।
कुपोषण और लघु पोषण अपूर्णता, कार्य के परिणाम तथा गुणात्मक उत्पादकता के संदर्भ में, निम्न श्रम उत्पादकता का कारण होता है ।इसके कारण बच्चों में शैक्षणिक उपलब्धियां निम्नतम होती जाती हैं, स्कूलों में नामांकन तथा उपस्थिति की दर कम होती है ।तथा बच्चों में स्वास्थ्य तथा मृत्यु दर में बढ़ोतरी होती जाती है ।जिस प्रकार उन्नत उत्पादकता ज्यादा मुनाफा देती है उसी प्रकार उन्नत पोषण उत्पादकता में वृधि के साथ-साथ श्रम आय में वृधि करेगा ।इस प्रकार उन्नत पोषण दो महत्वपूर्ण तथ्यों को प्राप्त करने में मदद करता है – उत्पादकता में वृधि तथा उससे उत्पन्न लाभों का वितरण ।
कुपोषण नियंत्रण नीतियों की मूलतः दो विचारधाराएं हैं ।पहले सिद्धांत के अनुसार कुपोषण मूलतः गरीबी का परिणाम है ।अत: इसे दूर करना गरीबों की उत्पादकता में वृधि, आय के स्तर को ऊँचा करने एवं खाद्य प्रणाली के वितरण पर निर्भर करता है ।दूसरा सिद्धांत इस अवधारणा पर आधारित है कि लोग कुपोषण के शिकार इसलिए होते हैं क्योंकि वे समुचित पोषण स्तर तथा स्वस्थ वातावरण को सुनिश्चित करने वाले संसाधनों का उचित उपयोग नहीं कर पाते ।इसलिए कुपोषण का सामना करना घरेलू संसाधनों का उपयोग, निरक्षरता के समापन, पोषण संबंधी जानकारियों में वृधि तथा सही आदर्शों के विकास पर ही निर्भर करता है ।
नया विकास प्रतिमान गरीबों द्वारा पोषण-संबंधी समस्याओं के समाधान पर जोर देता है ।उनकी सामना करने की रणनीतियों के पहचानकर सशक्त बनाया जा रहा है ।सबों की भागीदारी मुख्यत: महिलाओं की भागीदारी सशक्तिकरण की ओर ले जाएगा जिससे स्थानीय संसाधनों को कयाम तथा संघटित रखा जाएगा ।ज्ञान और जानकरी, जो कि सशक्तिकरण का मुख्य घटक है, समस्याओं को जड़ों के विश्लेषण में मदद करता है तथा संसधानों द्वारा उपर्युक्त कार्यवाही में मदद करता है ।
6 वर्ष से कम उम्र में बच्चों में शारीरक विकास का आभाव देखा गया है जो कुपोषण के कारण पुरे देश व्याप्त है ।नवजात शिशुओं और बच्चों में मृत्यु का कारण यह है कि करीबन 30 प्रतिशत बच्चे 2.3 किलोग्राम से भी कम वजन के होते हैं ।अधिकांशत: स्कूल जाने से पूर्व की उम्र के बच्चों में करीब 69 प्रतिशत कम वजन के , जिसमें 9 प्रतिशत गंभीर कुपोषण से ग्रस्त रहते हैं तथा 65 प्रतिशत अविकसित तथा 20 प्रतिशत अत्यंत दुर्बल होते हैं ।6 महीनों की उम्र वह नाजुक समय है जब शिशु होता है और 24 महीने की उम्र तक चलता है ।कुपोषण 6 महीने से 2 वर्ष की उम्र के बच्चों को जायदा प्रभवति करता है ।
प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण विकास में अवरोध में शरीर के वजन में कमी तथा अन्य दुर्बलताएं विशेषतया छोटे बच्चों में मृत्यु के खतरे को बढ़ता है ।
इस बात के प्रमाणित हुई है कि कुपोषण से ग्रस्त बच्चों को भविष्य में अपकर्षक बीमारियों जैसे उच्च रक्तचाप तथा मधुमेह होने की संभावना रहती है ।बच्चों के विकास को कायम रखने में परिवारों की अक्षमता के ये कारण हो सकते हैं ।
कुपोषण को कम करने के लिए उसके कारणों पर ध्यान देना होगा, जैसे अपर्याप्त औजार और संक्रमण/बीमारी तथा खाने-पीने की सही आदतों को डालने में तेजी लानी होगी ।कुपोषण की स्थित्ति में सुधार लाना एक चुनौती है ।यह परिवार के सदस्यों, समुदायों तथा इस क्षेत्र में काम करने वालों पर निर्भर करता है ।कुपोषण की रोकथाम या उसकी नियंत्रण में लाने के लिए उनको जागृत होना होगा ।
बिहार की आबादी का 40.8 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जी रहा है ।हालांकि समूचे राज्य के लिएय कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है फिर भी राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा नमूने के तौर पर किये गए अध्ययन से ज्ञात होता है कि राज्य में लगभग 11 प्रतिशत बच्चे श्रेणी तीन और श्रेणी 4 के कुपोषण से, 32 प्रतिशत बच्चे दो के कुपोषण से तथा 36 प्रतिशत बच्चे श्रेणी के कुपोषण से ग्रसित हैं ।सिर्फ 12 प्रतिशत बच्चे ही सामान्य श्रेणी के हैं ।इस प्रकार यह लगता है कि बिहार में लगभग 79 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी श्रेणी के कुपोषण के शिकार हैं ।
एक अन्य विश्लेषण बच्चे के जीवन के दुसरे वर्ष के निर्णायक महत्त्व के बारे में बताता है कि 1 से 2 वर्ष के आयु वाले 86 प्रतिशत बच्चे कुपोषित पाये गए हैं, जिसमें से 18 प्रतिशत गंभीर कुपोषण के शिकार हैं ।तदापि 1 वर्ष की आयु वाले लगभग 36 प्रतिशत बच्चे पोषण के मामलों में सामान्य स्तर के हैं ।यह आंकड़ा 1 से 2 वर्ष के बच्चों के मामले में 14 प्रतिशत तक कम हो जाता है ।
हालांकि शिशु जन्मे के समय तथा उसका वजन को जानने के लिए राज्य में कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है फिर भी ऐसा अनुमान है कि लगभग एक तिहाई जन्मे लेने वाले बच्चे सामान्य से कम, यानी 2.5 के.जी. से कम वजन के होते हैं ।हाल ही में राज्य के विभिन्न जिलों में एक अधययन किया गया था, जिसमें पाया गया था कि उनमें 59.6 प्रतिशत महिलाओं ने अपने पहले बच्चे को जन्म आपनी 20 वर्ष पूरी होने के पूर्व ही दे दिया था ।
किशोरावस्था की गर्भावस्था और यह तथ्य कि तीन चौथाई गर्भवती महिलाएं पोषाहारीय, रक्ताल्पता की शिकार होती हैं, इस संभावना को बल देता है कि जन्मे के समय कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत अधिक है ।
एक उम्र के विवाह और कम उम्र के गर्भाधान, यानी “ काफी पूर्व काफी नजदीक काफी अधिक काफी बिलम्ब “ के परिणामस्वरुप ही राज्य में माताओं के पोषण का स्तर अत्यन्त ख़राब है जैसा कि उपर अंकित है, राज्य का लगभग तीन चौथाई गर्भवती महिलाएं रक्ताल्पता से ग्रसित हैं और उसमें सुधार के कोई आसार नजर नहीं आतें हैं ।
सूक्ष्म पोषक पदार्थों का अभाव :
विटामिन ‘ए’ – हालांकि बिहार के लिए अलग से कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी ऐसा अनुमान लगाना वास्तविकता से बहुत भिन्न नहीं होगा कि पोषाहार की कमी के कारण भारत में हर वर्ष जो 40000 लोग अन्धें हो जाया करते हैं, उनमें से 10 प्रतिशत बिहार के ही होंगे ।इसी प्रकार देश में विटामिन ‘ए’ के अभाव से ग्रसित जो लगभग 10 लाख बच्चे हैं उनमें से निश्चित तौर पर 10000 बिहार के होंगे ।रांची में किये गए एक छोटे अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि बच्चों में अधिकतर बालिकाएं ही विटामिन ‘ए’ की कमी से ग्रसित होती है ।
आयोडीन की कमी से होने वाले विकार – समूचा बिहार आयोडीन की कमी से होने वाले विकारों के दायरे में है ।इसकी कमी से घेघा जैसे बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो बच्चे के विकास में बाधक है ।
इस तरह माताओं की अशिक्षा, अज्ञानता अंधविश्वास, रूढ़िवादिता के चलते बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं ।सबसे प्रमुख बात तो यह है कि इनकी आर्थिक स्थितियां दयनीय होती हैं तथा परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होता है जिसके चलते बच्चे को उपयुक्त आहार उपलब्ध नहीं हो पाता है ।अपर्याप्त आहार के कारण बच्चों को पौष्टिक तत्व नहीं मिल पाते जिसके कारण रोग निरोधक क्षमता कम हो जाती है और वे अनेक बीमारियों तथा शारीरिक विकास का अवरुद्ध होना, रक्तहीनता का शिकार, मांसपेशियों का शिथिल हो जाना, मानसिक विकास अवरुद्ध होना, चिडचिडापन आना आदि से ग्रसित हो जाते हैं ।
भोजन तथा उसके पोषक तत्व – मनुष्य जो भोजन करता है उसका शरीर में पाचन हो जाता है और वह उतकों के विकास तथा रख-रखाव में प्रयुक्त होता है ।भोजन के बिना जीवन नहीं चल सकता ।इसीलिए, प्रत्येक जीवधारी अपनी भोजन आवश्यकताओं की प्राप्ति के निमित अतिमात्र प्रयत्न करता है ।वनस्पति वर्ग तो मिटटी, पानी और हवा की कार्बन डाईआक्साइड के लिए कुछ साधारण रसायनों से अपने लिए यथेष्ट भोजन कर निर्माण करने की क्षमता नहीं होती ।इसलिए वे वनस्पति जगत व अन्य पशुओं पर निर्भर रहकर अपना भोजन प्राप्त करते हैं ।
पशु जगत अपनी भोजन आवश्यकताओं के पूर्ति मुख्यत: प्राकृतिक वरण के सिद्धांत के अनुरूप करता है अर्थात वह उन पौधों और पशुओं का चयन करता है जो विकासवादी सिधांतों के अनुसार जीवित रहने के योग्य नहीं हो ।परन्तु मानव को अपनी आहार पूर्ति के लिए अनेक खाद्य पदार्थ उपलब्ध होते हैं जिनमें से वह इच्छानुसार चुनाव कर सकता है ।चूँकि सरे ही खाद्य पदार्थ एक से पोषक मूल्य के नहीं होते हैं, अत: मानव स्वास्थ्य उन खाद्य द्रवों की संरचना तथा उनकी मात्रा पर निर्भर रहता है जिन्हें वह अपनी क्षूधतृप्ति के लिए चुनता है ।भूख एक जन्मजात प्रवृति है ।भोज्य पदार्थों को जीवन के रूप में ग्रहण किया जाता है ।इनमें से कुछ शरीर निर्माण तथा मरम्मत के लिए जरूरी है, कुछ से ऊर्जा यानि कार्य करने की शक्ति मिलती है ।कुछ खाद्यों से शरीर को रोग अवरोधक शक्ति मिलती है जिससे वह वातावरण के सूक्षम जीवाणुओं से अपनी रक्षा करके, अपने को स्वस्थ बनाए रख पाता है ।
हमरे जीवन में कुछ स्वास्थयप्रद पदार्थ होते हैं जिन्हें पोषक तत्व कहा जाता है ।पोषक तत्व हमारे शरीर के लिए निम्नलिखित कार्य करते हैं :
भोज्य पदार्थों में कई पोषक तत्व होते हैं तथा ये विभिन्न कारकों से हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं –
प्रोटीन – प्रोटीन हमरे लिए एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व हैं क्योंकि (क) यह हमारे शरीर के कोशिकाओं का निर्माण, वृधि , गठन एवं उसकी क्षति पूर्ति करता है जिससे हमारे अंग-प्रत्यंगों का उचित गठन एवं विकास होता है ।(ख) यह बच्चों के शारीरिक वृधि में महत्वूर्ण भूमिका अदा करता है ।(ग) रोग निरोधक क्षमता को बढाता है ।
कार्बोहाइड्रेट – यह एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है इसका मुख्य काम शरीर के लिए ऊर्जा उत्पन्न करना है ।ऊर्जा ही शरीर की सभी एच्छिक एं अनैच्छिक क्रियाओं के लिए गति एं शक्ति प्रदान करता है
वसा – वसा भी एक ऊर्जा पोषक तत्व है क्योंकि (क) वसा में अधिक मात्रा में अधिक समय तक स्थायी ऊर्जा उत्पादित होती है, (ख) ह्रदय को मांसपेशियां को मुख्य रूप से ऊर्जा वसा से ही प्राप्त होती है , (ग) आंतरिक अवयवों के चारों ओर जमा होकर स्थिरता प्रदान करते हैं, (घ) कोशिकाओं की रचना में भाग लेते हैं ,(ड) आकस्मिक आघात के समय शरीर की यथाशक्ति रक्षा करते हैं ।
विटामिन ‘ए’ – हमारे स्वास्थ्य के लिए यह एक अति आवश्यक पौष्टिक तत्व है क्योंकि –
यह शरीर वृधि में सहायक होता है उसकी लम्बाई ठीक तरह से होती है ।
यह रात में अंधेरे में अच्छी तरह दिखाई देने के लिए दृष्टि शक्ति बनाए रखता है ।
उपकला की कोशिकाओं को मजबूत बनाने में और उसके पुननिर्माण में सहायक होता है ।
विटामिन ‘डी’- हमारे स्वास्थ्य के लिए विटामिन ‘डी’ कई तरह से लाभदायक होते हैं :
यह रक्त में कैल्सियम की मात्रा को नियमति बनाए रखता है ।
यह रक्त में ऐलकेलाइन फास्फेटेन एंजाइम को भी नियमति बनाए रखता है जिससे यह एंजाइम कैल्सियम एवं फास्फोरस को हड्डियों एवं दांतों से संचित किये रखता है ।
विटामिन ‘डी’ कैल्सियम एवं फास्फोरस के अवशोषण में सहायक होता है, जिससे हड्डियों एवं दांतों को यह खनिज पदार्थ उचित मात्रा में मिलता रहता है ।
विटामिन ‘के’ – यह रक्त स्त्राव को रोकता है ।
थायामिन – थायामिन से तंत्रिका दर्द या न्यूराइटिस को दर्द नहीं होने देता है ।
राईवोकलेविन – यह विटामिन हमरे आँख, मुहं एवं त्वचा का उचित देखभाल करता है ।
नियासिन – यह रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करता है ।
फोलिक एसिड – यह रक्त कणीयों का निर्माण करता है और उन्हें परिपक्व बनाता है ।
विटामिन ‘सी’ – यह कई प्रकार से हमें लाभान्वित करता है, जैसे –
यह कोयलेजन की मजबूती एवं उसका नवनिर्माण करता है ।
रक्त धमनियों की भीतरी भित्तियों पर कोलस्ट्रोल के जमाव को रोकता है ।
नाक, गले एवं सांस नलिकाओं की कोशिकाओं को दृढ़ता प्रदान करता है ।
कैल्सियम – कैल्सियम हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि –
यह हड्डियों को बनाने एवं दृढ़ता प्रदान करने के लिए काम करता है ।
शरीर की वृधि करता है ।
दाँतों का निर्माण एवं मजबूती प्रदान करता है ।
आंतरिक ग्रंथियों की स्त्राव निर्माण में सहायक है ।
लोहा – यह हिमोग्लोबिन का निर्माण करता है, रक्त के लाल कणियों मुख्य तत्व है जिसके अभाव में रक्त कणियां आपना जीवन निर्वाह नहीं कर पाती हैं ।
ऊर्जा प्राप्त के लिए भोजन की आवशयकता – भोजन से जो मुख्य चीज हम प्राप्त करते हैं वह ऊर्जा है ।जिस प्रकार मोटर कार पेट्रोल का प्रयोग करती है, उसी प्रकार हमारा शरीर ऊर्जा के रूप में भोजन प्राप्त करता है ।इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि शरीर ऊर्जा के लिए भोजन को जलाता है ।सुप्रवस्था में भी शरीरी के कुछ अवयव सक्रिय रहते हैं दिल धड़कता रहता है , फेफड़े सांस लेते हैं और पाचन प्रक्रिया कार्यरत रहती है ।अत: बुनियादी तौर पर कुछ ऊर्जा की जरुरत होती है ।जितना अधिक शारीरिक परिश्रम होगा उतनी ही अधिक ऊर्जा की और उसी अनुपात में अधिक भोजन की आवश्यकता होगी, इस ऊर्जा को मापा कैसे जाता है ? जिस प्रकार कपड़े को मीटरों में और समय को घंटों और मिनटों में मापा जाता है उसी प्रकार ऊर्जा को कैलोरीयों में ।उसे लगभग 1500 कैलोरी बुनियादी ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।इसके अतिरिक्त 100 – 1300 कैलोरी ऊर्जा की आवशयकता सामान्य शारीरिक क्रियाओं के लिए होती है ।अत: एक सामान्य व्यक्ति को 2600-2800 कैलोरी ऊर्जा की जरुरत होती है ।छोटा आकार के होने के कारण महिलाओं को कैलोरी की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होती है, परन्तु गर्भधारण और बच्चे को स्तनों से दूध पिलाने की अवधि में यह बढ़ जाती है ।बच्चों की आवश्यकता उनके आकार तथा आय पर निर्भर करती है ।
मात्रक शरीर भार के आधार पर व्यक्त की अपेक्षा एक शिशु तथा छोटे बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की अधिक मात्राओं में आवश्यकता होती है ।वयस्कों की भांति, एक क्रियाशील और स्वस्थ बच्चे की ऊर्जा तथा ऊतकों की टूट-फूट की मरम्मत के लिए भोजन चाहिए ।इसके अतिरिक्त शरीर के अंग प्रत्यंग की निरन्तर वृधि की पूर्ति के लिए फालतू पोषण की आवश्यकता होती है ।बच्चा जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे अपनी क्रियाशीलता के क्षेत्र को बढ़ता जाता है ।यह नन्हा सा बालक जितनी देर जागता है, उतनी देर उधम मचाता रहता है ।परिणामत: उसकी ऊर्जा मांगे अत्यधिक बढ़ी-चढ़ी हो जाती है, यहां तक की मात्रक भार के हिसाब से, शिशु और टूरकते बच्चे के लिए, एक वयस्क की अपेक्षा, “ ऊर्जा उत्पादक “ तथा “शरीर रचनात्मक” कार्यों की ज्यादा जरुरत होती है ।उतव संवर्धन की तीव्र गति तथा ऊर्जा के अधिक व्यय के कारण विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के नियमन के लिए तथा बच्चे के पूर्ण स्वास्थ्य के लिए सरंक्षी पोषकों में अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है
अनुपयुक्त भोजन का प्रभाव – यदि बच्चे को आवशयकतानुसार पोषण न मिले, तो उस पर किसी-न-किसी प्रकार के कुपोषण का दुष्परिणाम अवश्यम्भावी है ।यह दुष्परिणाम आहार में किसी-न-किसी विशेष पोषक तत्व के आभाव के कारण होता है ।शिशु का पोषण सही नहीं होने का सुराग हमें उसकी वृधि गति में कमी हो जाने से मिलता है तथा कभी-कभी तो उसकी वृधि रूक जाती है ।यह शिशु कुपोषण के प्रारंभिक लक्षण होते हैं ।
निम्नलिखित तालिका 1.1 में वजन और लम्बाई में वृधि के आंकड़े दिए गए हैं :
तालिका .1.1
वजन और लम्बाई में वृधि
आयु (महीने) |
शरीर ल० बालक |
से० मी० बालिका |
बालक |
भार (कि०ग्र०) बालिका |
जन्म के समय |
50.6 |
50.2 |
3.4 |
3.4 |
3 |
60.4 |
59.5 |
5.7 |
5.6 |
6 |
66.4 |
65.2 |
7.6 |
7.3 |
9 |
71.2 |
70.1 |
9.1 |
8.7 |
12 |
75.2 |
74.2 |
10.1 |
9.8 |
आरम्भिक सप्ताहों में या तो स्तन्य दुग्ध की कमी से या सही ढंग से यथेष्ट मात्रा में ऊर्जा उत्पादक सम्पूरक आहारों के शुरू करने में देर होने से, यदि उसे ऊर्जा की पूर्ति करने वाले आहार न मिले तो वह थोड़े समय तक अपनी निजी ऊर्जा भंडार से खर्च करके अपना काम निकालता रहता है ।
स्तन आहार – माता का दूध शिशु के लिए सर्वोतम प्राकृतिक आहार है जिसमें सभी पौष्टिक तत्वों का उचित अनुपात में समावेश रहता है ।यह दूध बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक विकास के लिए उपयोगी होता है ।
विशेषता –
गंदी बस्तियों में रहने वाले बच्चे स्तन-आहार प्रचुर मात्रा में करते हैं, लेकिन निर्धनता के चलते माताएं सन्तुलित आहार प्रचुर मात्रा में नहीं ले पाती है फलत: उनमें दूध की कमी होती है ।परिणामस्वरूप गंदी बस्तियों में रहने वाले बच्चे प्राय: असामान्य किस्म के तथा अनेक रोगों से ग्रस्त रहते हैं ।जहां तक गंदी बस्तियों में स्तन पान कराने की अवधि का प्रश्न है हमने यह पाया कि आम तौर पर बच्चों को तब तक स्तनपान कराया जाता है, जब तक कि बच्चा स्वयं दूध पीना बंद न कर दें ।
तालिका 1.2
स्तनपान करने की अवधि
अवधि |
बारंबारता |
प्रतिशत |
6 महीने की उम्र में |
5 |
2.5 |
9 महीने की उम्र में |
9 |
4.5 |
1 वर्ष की उम्र में |
29 |
14.5 |
1 – 2 वर्ष की उम्र में |
38 |
19.0 |
जब बच्चा पीना बंद कर दे (जब दूध आना बंद हो जाए या मां पूर्ण ) |
52 |
56.0 |
गर्भवती हो जाए |
42 |
21.0 |
उपरोक्त सारणी से यह स्पष्ट होता है कि परिवारों में अधिकांश परिवार ऐसे हैं जहां बच्चों को स्तनपान करना बंद करने की कोई समय सीमा नहीं है क्योंकि हम देखते हैं कि 26.0 तथा 21.0 प्रतिशत परिवारों में अर्थात 46.0 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जहां तब तक स्तनपान जारी रखा जाता है जब तक या तो बच्चा स्वयं दूध पीना न बंद कर दे या मां का दूध आना ही न बंद हो जाए ।हालांकि मां का पूर्ण गर्भवती होना स्तनपान करना एक प्रक्रिया है जिसके लिए किसी अतिरिक्त धन की आवश्यकता नहीं होती ।इन दिनों प्रचार माध्यमों द्वारा भी इससे होने वाले रोगों की जानकारी दी जाती है ।परन्तु ऐसा देखा गया है कि अधिकांश महिलाएं अज्ञानतावश स्तनपान के संबंध में कई गलत धारणाएं पास रखती हैं ।इनमें मुख्यत: प्रसव के कई घंटे या दिनों के बाद स्तनपान प्रारंभ कराना या अपने बच्चे को प्रथम दूध न पिलाना आदि का कालान्तर में बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है ।
तालिका 1.3
जन्म के बाद स्तनपान प्रारंभ करने की अवधि
अवधि (घंटा में ) |
बारंबारता |
प्रतिशत |
1-3 |
48 |
24.0 |
4-6 |
36 |
18.0 |
7-12 |
38 |
19.0 |
13-24 |
28 |
14.0 |
24 से ऊपर |
50 |
25.0 |
उपरोक्त सारणी से यह स्पष्ट होता है कि गंदी बस्तियों में लगभग 25 प्रतिशत परिवारों में प्रसव के 24 घंटे बाद बच्चों को मां के दूध से वंचित रखा जाता है जबकि लगभग इतने ही परिवारों में जन्म से 1-3 घंटे के अंदर स्तनपान प्रारंभ कर दिया जाता है ।जन्म के तुरंत बाद स्तनपान करना बच्चों के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है जिसकी परिवारों को नहीं है ।
बच्चों के लिए मां का प्रथम दूध कई रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है तथा प्रतिरोधक शक्ति में विकास करता है, परन्तु अज्ञानतावश कई बार माताएं इसे फेंक देती हैं ।
तालिका 1.4
बच्चे को प्रथम दूध देना
अवधि |
बारंबारता |
प्रतिशत |
हाँ |
86 |
43.0 |
नहीं |
114 |
57.0 |
उपरोक्त सारणी से ज्ञात होता है कि गंदी बस्तियों में लगभग 43.0 प्रतिशत परिवारों में ही बच्चों को प्रथम दूध दिया जाता है ।हालांकि वैसे परिवारों जहां प्रथम दूध पिलायी जाती है उनसे बात करने पर ज्ञात हुआ कि वैसे परिवार जो प्रथम दूध पिलाते हैं कि उन्हें इससे होने वाले रोगों की जानकारी है बल्कि इसके लिए उनकी आर्थिक स्थिति अधिक जिम्मेदार है ।
साथ ही जब वैसे परिवारों में जो श्वीस नहीं मिलते उनसे पिलाने का जब कारण पूछा गया को इसके कई कारण बताएं जिन्हें नये सारणी में दर्शाया गया है –
कारण |
बारंबारता |
प्रतिशत |
बच्चा नहीं पचा सकता |
42 |
30.4 |
बच्चे के लिए हानिकारक |
36 |
26.1 |
बच्चे को स्वयं पीने में कठिनाई |
32 |
23.1 |
बुजुर्गों की सलाह पर |
28 |
20.3 |
उपरोक्त सारणी से यह ज्ञात होता है कि वैसे परिवार जिनमें बच्चों के जन्म के बाद श्वीस नहीं दिया जाता है उकसा मुख्य कारण उनमें यह धारणा कि बच्चे नहीं पचा सकते ।यह लगभग 30 प्रतिशत परिवारों में है तथा 26.0 प्रतिशत परिवार इसे बच्चों के लिए हानिकारक मानते हैं ।लगभग 23 प्रतिशत परिवारों में इसे पीने में बच्चे को कठिनाई होती है ।
यदि उपरोक्त कारणों पर गंभीरता से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि ये सभी कारण अज्ञानता या अंधविश्वास कि देन है जिनका सीधा संबंध अशिक्षा से है जिसकी गंदी बस्तियों में बहुलता है ।
बच्चे के अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक है कि 3-4 माह की आयु होते ही उसे पूर्णत: दूध पर न रखकर धीरे-धीरे अर्ध ठोस आहार देना प्रारंभ कर दिया जाए लेकिन गंदी बस्तियों में आम तौर पर ऐसा नहीं किया जाता है ।
तालिका 1.6
बच्चों को पूरक पोषाहार प्रारंभ करने का समय
अवधि |
बारंबारता |
प्रतिशत |
3-4 माह बाद |
68 |
34.0 |
5-6 माह बाद |
48 |
24.0 |
7-9 माह बाद |
30 |
15.0 |
9-12 माह बाद |
6 |
3.0 |
12 माह से अधिक |
2 |
1.0 |
उपरोक्त सारणी से स्पष्ट होता है कि गंदी बस्तियों में रह रहे लगभग 58.0 परिवारों में 6 माह के अंदर ही बच्चों को पूरक पोषाहार दिया जाना प्रारंभ कर दिया जाता है जबकि 23.0 प्रतिशत इस संबंध में कोई जानकारी नहीं रखते ।वैसे परिवार जहां 3-4 माह बाद बच्चों को अतिरिक्त पोषाहार दिया जाना प्रारंभ कर दिया जाता है उसका कारण उनकी इस बात के प्रति चेतना न होकर कोई अन्य कारण रहा है जिनमें मुख्यत: दूध पिलाने में आर्थिक कारणों का आभाव जान पड़ा ।अत: वे अपनी मजबूरियां वश दूध कम होने के बाद धीरे –धीरे चावल का पानी या पतली खिचड़ी आदि जैसी चीजें बच्चे को पेट भरने हेतु देना प्रारंभ करते हैं ।अत: इसका अर्थ नहीं होता है कि वे पूर्णत: पोषाहार संबंधी जानकारी रखते हैं और उससे प्रेरित होकर ऐसा किया जाता है ।
यदि हम बच्चों को ठोस आहार में दिए जाने वाले वस्तुओं पर गौर करें तो इससे यह स्पष्ट होता है कि इनमें अधिकांश ऐसे ही पदार्थ हैं जिनके लिए कोई विशेष या अतिरिक्त खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती तथा कुल मिलकर ये बहुत हद तक बच्चों की जरूरतों को भी पूरा करने में समर्थ हैं ।
तृण धान्य के पोषक मूल्य - ** धान्य ऊर्जा के सस्ते एवं महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं ।इसका प्रमुख पोषक तत्व जो ऊर्जा प्रदान करता है वह है स्टार्च, जिसकी औसत मात्रा लगभग 75 प्रतिशत रहती है जिनका प्रमुख भोजन अन्न होते हैं ।उनके लिए यह प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्त्रोत होता है क्योंकि इसमें लायसिन नामक एमिनोएसिड का पूर्णत: आभाव रहता है ।जब भोजन में अनाजों से बने व्यंजनों को तरकारी, दाल, दही अरु दूध आदि के सहत ग्रहण किया जाता है तो यह कमी पूरी हो जाती है और इनका पोषण मूल्य बहुत बढ़ जाता है ।अनाजों में पाए जाने वाले प्रोटीन की मात्रा अलग-अलग प्रकार के अनाजों में भिन्न रहती है ।ये उनमें उपलब्ध विभिन्न एमिनोएसिड पर निर्भर करती है ।
अनाजों के पौष्टिक मूल्य इस बात बार निर्भर करते हैं कि उनका कौन सा अंश प्रयोग किया जाता है सम्पूर्ण अन्न प्रोटीन और स्टार्च को मुख्य रूप से उपलब्ध करता है ।परन्तु परिष्कृत अनाजों में से प्रोटीन खनिज (आयरन तथा फास्फोरस) तथा बी०काम्प्लेक्स का अंश मिलिंग के समय नष्ट हो जाता है ।ये मशीनों द्वारा दोनों से अलग कर दिए जाते हैं तथा छानने से उनको हम आपने ही हाथों में फेंक कर अपने को उनसे वंचित कर देते हैं ।वस्तुत: ये अनुचित काम है ।सम्पूर्ण अनाजों के अपेक्षा अधिक ही विटामिन, खनिज तथा तन्तु रहते हैं तथा ये आहार द्वारा उपलब्ध आयरन फास्फोरस, थायामिन तथा तन्तु के मूल्यवान स्त्रोत हैं ।अनाजों बिना टूटे साबित दोनों में से उपरोक्त सभी पोषक तत्व रहते हैं पर कूटने –पिसने से तथा छानने की क्रियाओं के अंतर्गत इनका कुछ अंश नष्ट हो जाता है ।जब इन्हें अधिक परिष्कृत रूप दिया जाता है तब इनसे बने व्यंजन देखने में और खाने में अच्छे जरूर लगते हैं, परंतु तब इनकी पौष्टिकता में बहुत कमी आ जाती है ।सम्पूर्ण अनाज की भूसी खाने से कब्ज से बचाव होता है ।
दालों का पोषक मूल्य – दालें अत्यधिक पौष्टिक भोज्य पदार्थ हैं ।दालों में 20 से 25 प्रतिशत प्रोटीन रहता है ।ये प्रोटीन के अच्छे स्त्रोत हैं ।परंतु इनका प्रोटीन अपूर्ण श्रेणी का होता है ।इसमें जो प्रोटीन का मात्रा रहती है वह प्राणी जगत के प्राप्त होने वाले भोज्य पदार्थों के प्रोटीन से अधिक होती है, परन्तु अन्तर इतना है कि दालों में मेथियोबिन नामक अनिवार्य एमिनोएसिड का अभाव रहता है ।यही कारण है कि कुछ अंश का समावेश किया जाये तो मेथियोबिन की कमी को पूरा किया जा सकता है ।दालों में गंधक के एमिनोएसिड अरु टिप्तोफैन कम मात्रा में पाए जाते हैं, जबकि अनाजों में इनकी अच्छी मात्रा रहती है ।स्वामीनाथन के अनुसार इसलिए अनाज और दालों के प्रोटीन मिलकर मात्रा की प्रभावक पूर्ति कर देते हैं ।दालों में वसा की मात्रा कम होती है ।ये 1-2 प्रतिशत ही रहती है ।इसमें 55 से 61 प्रतिशत स्टार्च रहता है ।प्रति 100 ग्राम दाल में 50 से 10 मि० ग्राम आयरन होता है ।इस तरह से ये आयरन के अच्छे स्त्रोत हैं ।लगभग 6 – 240 मि० ग्राम कैलिशयम रहता है ।दालों में विटामिन ‘बी’ , बी2 तथा निकोटिनिकएसिड की अच्छी मात्रा रहती है ।दालों में विटामिन ‘सी’ की कमी होती है ।अंकुरित होने पर उनमें विटामिन ‘सी’ की मात्रा बढ़ जाती है ।
तरकारियों के पोषक मूल्य :
हरी पत्ती वाली तरकारियाँ – हरी पत्ती वाली तरकारियों में जल का अंश अधिक रहता है ।इनमें सेल्युलोल और रेशे भी अधिक रहते हैं ।जल की अधिकता के कारण इनका शक्ति देने वाला गुण बहुत कम होता है ।परन्तु इनमें खनिज, लवण और विटामिन प्रचुर मात्रा में रहते हैं ।इनमें सामान्यत: आयरन, विटामिन ‘ए’, धायमिन , रिबोफ्लोबिन तथा एस्कर्षिक एसिड (विटामिन ‘सी’) अच्छी मात्र में रहते हैं ।इनमें कैल्सियम भी रहता है ।हरे रंग की गहराई के साथ –साथ विटामिन की मात्रा बढ़ती जाती है ।ऐसी तरकारियों के रेशे आंतों में अपच अवस्था में रहते हैं अरु अभिपचन क्रिया में पचते हुए भोजन को पाचक नली में नागे बढ़ने में मदद करते हैं ।फूल के अपेक्षा पत्तियां में चार गुणा अधिक कैलिसयम और दुगना विटामिन ‘ए’ और रिबोफ्लोबिन रहता है ।
फूल कली और डंठली वाली तरकारियाँ – कई तरकारियों के फूल, कली व डंठल प्रयोग किए जाते हैं ।फूलगोभी से धायमिन, रिबोफ्लोबिन अच्छा मिलता है ।एस्पेरेगस में विटामिन ‘ए’ बहुत अधिक रहता है ।हरी अवस्था में तो नायसिन और विटामिन ‘सी’ बहुतायत से मिलती है ।
फल तरकारियाँ – फल तरकारियों में टमाटर, बैंगन, लौकी, तुरई , निनुआ, भिन्डी, परवल, ककरी, खीरा आदि आते हैं ।इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण टमाटर है क्योंकि इसमें विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ भरपूर रहता है ।धूप लगकर पके टमाटरों में विटामिन ‘सी’ की मात्रा और अधिक बढ़ी रहती है ।कोहड़े में रजक तत्व (कैरोटिन) अधिक रहता है ।अत: यह विटामिन ‘ए’ का अच्छा जरिया है ।
कंदमूल वाली तरकारियां – अधिकांश जड़वाली तरकारियाँ धाईमिन की प्राप्ति के अच्छे साधन होते हैं ।गाजर में कैरोटिन नामक तत्व अधिक रहता है ।इसलिए ये विटामिन ‘ए’ के अच्छे स्त्रोत हैं ।पीले रंगवाली शकरकंद में भी विटामिन ‘ए’ अधिक रहता है ।कच्चे शलजम में विटामिन ‘सी’ पर्याप्त मात्रा में रहता है ।कंद-मूल तरकारियों में स्टार्च और शर्करा रहती है फलत: इनसे कैलोरी भी मिलती है ।शलजम, चुकुन्दर, आलू आदि विटामिन ‘सी’ के सस्ते साधन हैं ।
बीजवाली तरकारियाँ – बीजोसहित फलियों को या केवल बीजों को भी तरकारी बनाई जाती है ।हरी फलियों की अपेक्षा परिपक्व फलियों में अधिक पोषक तत्व संग्रहित हो जाते हैं
अन्यों के अपेक्षा इस वर्ग की सब्जियों में प्रोटीन की मात्रा भी मौजूद रहती है ।किसी फलियों में प्रोटीन की मात्रा मांस से अधिक रहती है ।मटर के हरे दानों में धामिन, रिबोफ्लोबिन, नायसिन और विटामिन ‘सी’ अच्छी मात्रा में मिलते हैं ।
फलों के पोषक तत्व – दैनिक आहार में फलों का महत्व बहुत अधिक है ।विटामिन ‘सी’ प्रधान फलों का प्रयोग प्रतिदिन थोडा बहुत अवश्य ही करना चाहिए ।जैसे – नींबू, नारंगी, टमाटर, आदि ।फलों का कुछ भाग भोजनीय होता है और कुछ व्यर्थ का होता है ।फलों में प्रमुख शक्तिदायक तत्व शर्करा के रूप में रहता है ।फलों में वसा नहीं रहता है तथा विटामिन ‘सी’ और ‘बी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है ।अधिक समय तक संग्रह करने से इनमें विटामिन कम हो जाते हैं ।गलत ढंग से काटने से और उद्भासित रखने से भी उनके विटामिनों की कमी आ जाती है ।फलों में विटामिन की भिन्नता के प्रमुख कारण हैं, उनके जलवायु, सूर्य का प्रकाश तथा उनकी परिपक्वता की अवस्था ।फलों में लवण भी रहते हैं ।साइट्रस फलों में कैल्सियम रहता है ।कैल्शियम, सोडियम और पोटेशियम के अम्लीय लवणों के रूप में फलों में ऑर्गेनिक अम्ल रहते हैं ।फल इसलिए रक्त के ‘एसिड बेस’ संतुलन को बनाये रखते हैं ।रसीले फलों में टारटरिक, आक्जोलिक और मोलक एसिड रहते हैं ।कुछ के अतिरिक्त सभी सूखे फल उन पोषक तत्वों से युक्त ही रहते हैं, जिनसे कि ताजे फल, विटामिन उनकी सुखेरण की प्रक्रिया पर निर्भर करते हैं ।गंधक द्वारा सुखाए फलों में थायमिन कम हो जाता है परंतु विटामिन ‘ए’ ज्यों का त्यों बना रहता है ।धूप में सुखाने से धायमिन बना रहता है परंतु विटामिन ‘सी’ और ‘ए’ नष्ट हो जाता है ।
फलों में शर्करा की मात्रा अधिक रहती है ।किन्ही फलों में प्रोटीन भी रहता है, परन्तु वसा प्राय: अनुपस्थित रहती है ।केले में 4 प्रतिशत प्रोटीन, 5 प्रतिशत वसा तथा 2 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट रहता है ।सभी रस वाले मीठे फल ऊर्जा के अच्छे साधन हैं ; अधिक पकने पर फल के पौष्टिक मूल्य में अन्तर आ जाता है ।अत: उचित रूप से पके फल का प्रयोग ही करना चाहिए ।कच्चे या अधिक पके फल सरतला से नहीं पचते हैं और वे पाचन संस्थान के लिए उतने लाभकारी नहीं सिद्ध होते हैं जितने कि उचित रूप से पके हुए फल होते हैं ।गंदी बस्तियों में रहने वाले बच्चे प्राय: अधिक पके हुए फलों का इस्तेमाल करते हैं ।नतीजन डायरिया तथा अपच जैसे संक्रमक रोगों का अविभार्व होता है ।बचे फल में स्थित स्टार्च ही पकने पर शर्करा में बदल जाता है इसलिए उनमें मिठास बढ़ जाती है ।ताजे फलों में विटामिन ‘सी’ भी रहता है ।संग्रहीकरण और पकाने के विधियों से इनकी मात्रा कम भी हो जाती है जिससे स्कर्वी रोग से बचाव होता है ।खट्टे फलों में आवजैलिक, स्टिरिक, टारटरिक तथा मौलिक एसिड रहते हैं ।इनमें कुछ पके फलों में भी रह जाते हैं ।फलों में धायमिन, रिबोफ्लोबिन आयरन ठ कैरोटिन भी रहते हैं ।परन्तु विटामिन ‘डी’ का इनमें आभाव रहता है ।नींबू, आंवला, नारंगी, अमरुद, बैर, अंजीर, अंगूर में कैल्शियम रहता है ।आम विटामिन ‘ए’ एवं ‘सी’ तथा कैलोरी का उत्कृष्ट स्त्रोत है ।पपीता में कैरोटिन बहुत होता है ।सेव में प्रोटीन, अनार में टेनिन, अमुरुद में विटामिन ‘सी’ प्रचुर मात्रा में रहता है ।बेल का औषधीय मूल्य बहुत अधिक है क्योंकि इसमें पैक्टिन, म्युसिजेलिन्स , प्रिसिपल और टेनिन रहता है ।नीचे तालिका में विभिन्न फलों के पोषक मूल्यों को दर्शाया गया है :
इस तरह हम देखते हैं कि शरीर के पोषक तत्वों संबंधी दैनिक आवश्यता की भी पूर्ति हेतु फलों का अपने भोजन में समावेश जरूरी है ।रस निकालकर खाने की अपेक्षा फल का सम्पूर्ण भोजनीय अंश खाना अच्छा रहता है, क्योंकि गंदे और छिल्के से सटे हुए विटामिन ‘सी’ और आयरन रहते हैं, जो रस निकलने पर अवशिष्ट के साथ व्यर्थ चले जाते हैं ।फलों का स्लाद, आइसक्रीम, कस्टर्ड आदि के रूप में अरु अन्य विविध रूपों में प्रयोग अनुशंसा की गई है ।
दूध के पोषक - दूध का प्रयोग विश्व भर में व्यापक रूप से किया जाता है ।दूध एक आदर्श भोज्य पदार्थ है ।अधिकांश प्राणियों में शिशु का प्रथम आहार दूध ही रहता है ।यह सभी आयु के व्यक्ति के बुद्धि, विकास और रोगों से रक्षा के लिए आदर्श सहायक खाद्य पदार्थ है ।दूध में सामान्य रूप से जल के अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन , खनिज तथा विटामिन पाये जाते हैं ।इन्हीं सबकी सहायता से दूध के द्वारा शरीर की ऊर्जा पुननिर्माण संबंधी तथा सामान्य बुद्धि के लिए सयंत्र प्रदान होते रहते हैं ।सभी के आहार को पौष्टिक और असंतुलित बनाने में दूध का विशेष महत्त्व है ।रोगी और अतिवृद्ध के लिए भी दूध का महत्व है ।इससे यह स्पष्ट है कि इसमें जो पोषक तत्व हैं और पोषक तत्व इसके अभिपाचन के बाद शरीर में आत्मसात होते हैं वे किसी अन्य एकाकी वस्तु से नहीं मिल सकते हैं, क्योंकि यह भी अवस्थायों के सर्वथा अनुरूप है ।दूध के पोषक तत्व निम्नलिखित हैं :
प्रोटीन – दूध में औसत रूप से 3-4 प्रतिशत मात्रा प्रोटीन की रहती है ।दूध का प्रोटीन दूध का मुख्य नाइट्रोजन युक्त घटक है ।दूध में प्रमुख प्रोटीन, केसिन, लेक्टेअलव्युमिन्स तथा लेक्टेग्लोब्यूलिन्स है ।इनमें से अंतिम दो दूध की सीरम में घुलनशील हैं ।दूध में सभी अनिवार्य अमिनोएसिद पाये जाते हैं ।इस तरह हम देखते हैं कि दूध का सर्वश्रेष्ट तत्व प्रोटीन है
दूध का प्रोटीन अनाजों, दालों में प्राप्त प्रोटीन से बहुत अधिक उच्च कोटि का है क्योंकि इसमें अनिवार्य अमिनोएसिद मौजूद रहते हैं ।अन्य पदार्थों की अपेक्षा दूध का प्रोटीन सरलता से पच जाता है, इसमें अनावश्यक पदार्थ नहीं के बराबर होते हैं और लगभग समूर्ण ही शरीर द्वारा अवशोषित हो जाता है ।दूध के प्रोटीन में लायसिन और थिय्रोनिन की मात्रा पर्याप्त होती है ।अत: इन्हें अनाज प्रोटीन का प्रभावशाली पूरक माना जाता है ।100 ग्राम दूध लेने पर 3.5 ग्राम श्रेष्ट प्रोटीन उपलब्ध होता है ।
कार्बोहाइड्रेट – दूध में 4-5 प्रतिशत तक कार्बोहाइड्रेट रहता है ।दूध का शर्करा लेक्टोस कहलाती है ।ये दूध को उसकी प्राकृतिक मिठास प्रदान करती है ।ये ड्राई सैकेराइड शर्करा है और पाचन में ग्लूकोज में परिवर्तित हो जाती है ।ये गले की रस की चीनी सी मिठास से कम होती है ।अधिक ताप पर गर्म करने से ये भूरा रंग ग्रहण कर लेती है ।लेक्टोज एक लाभकारी ज्वलनशील पदार्थ है जिससे शरीर को ऊर्जा मिलती है ।लैक्टोवैसिलस जीवाणु इस शर्करा को लेक्टिक अम्ल में बदल देते हैं जिससे दूध खट्टा हो जाता है ।
वसा – वसा की मात्रा अलग-अलग जीवों में दूध से भिन्न-भिन्न होती है ।भैंस के दूध में सबसे अधिक 7.0 प्रतिशत वसा रहती है ।माता के दूध में वसा सबसे कम रहती है ।गाय की दूध में वसा की मात्रा 3-5 प्रतिशत होती है ।दूध की वसा पायस रूप में रहती है ।दूध वसा में 9.32 कोलेस्ट्रोल होता है ये हार्मोन तथा विटामिन ‘डी’ से सम्बंधित है ।यह वस्तुत: दूध के स्टीटल ही होते हैं ।
खनिज लवण- दूध में खनिज लवण अच्छी मात्रा में मिलते हैं ।इनमें सबसे अधिक कैल्शियम फास्फेट रहता है जो अस्थियों की समुचित वृधि के लिए जरुरी है ।यही कारण है कि वृधि काल में दूध का बड़ा महत्व होता है ।दांतों, मांसपेशियों, रक्त तथा शरीर के सुगठन तथा स्वास्थ्य के लिए दूध अनिवार्य है ।वैसे तो दूध के लवण सभी के स्वास्थ्य के लिए नितान्त आवश्यक है ।एक लीटर दूध में लवणों की मात्रा प्राय: इस प्रकार होती है ।कैल्शियम 1.162 ग्राम, फास्फोरस 0.907 ग्राम, लोहा 0.002 ग्राम, सोडियम 0.497 ग्राम ।इसके अतिरिक्त आयोडीन, कॉपर तथा कई अन्य लवण भी दूधो में रहते हैं ।मैग्नेशियम एवं पोटैशियम भी थोड़ी मात्र में दूध में रहते हैं ।माता के दूध में अन्य जीवधारियों के दूध की अपेक्षा खनिज लवण कम रहते हैं ।परन्तु फिर भी शिशु का छ: महीने तक इसी से काम चल जाता है क्योंकि उसके शरीर में, जन्म के पूर्व ही, आवश्यक लवण, कुछ समय तक, कम चलाने लायक संग्रहित हुए रहते हैं ।
विटामिन – दूध में विटामिन सबसे अह्दिक मात्रा में तथा उचित अनुपात में रहते हैं ।दूध में विटामिन ‘ए’, ‘बी6 ‘ तथा ‘बी2 ‘ तथा फौलिकएसिड अच्छी मात्रा में रहते हैं ।व्साराहित दूध में इसकी कमी हो जाती है ।दूध का महत्त्व उसमें उपस्थित विटामिन और रिबोफ्लोबिन के कारण बहुत अधिक आँका गया है ।उबालते समय ‘बी’ समूह के तथा ‘सी’ विटामिन नष्ट हो जाते हैं ।इसलिए दूध पीते बच्चे के लिए एसकार्बिक एसिड पूरक आहार के रूप में उपलब्ध कराना अनिवार्य है ।
शर्करा तथा गुड – स्वाद को बढाने के लिए पये तथा अन्य खाद्य पदार्थों में मिठास के लिए शर्करा और गुड का प्रयोग किया जाता है ।ये मुख्यतः ऊर्जा के साधन हैं, यदपि गुड से ऊर्जा में अतिरिक्त लौह भी होता है ।
वसा और तेल – आहार में काम आने वाली वसाएं मक्खन, घी तथा अन्य नाना प्रकार के वनस्पति तेलों में पायी जाती है और कभी-कभी हाइड्रोजनिकृत वनस्पति तेलों से भी प्राप्त होती है ।वसा चाहे किसी भी प्रकार का हो समस्त तेल और चिकनाईयां हमें ऊर्जा की एक सी मात्राएँ देती हैं ।हमारे आहार में वनस्पति तेल आवश्यक रूप से 15 ग्राम प्रतिदिन के हिसाब से सम्मिलित किये जाने चाहिए जिससे हमरे शारीर को आवश्यक वसा अम्लों की उचित मात्राएँ प्राप्त होती रहें ।वनस्पति तेल, विशेषत: करडी का तेल बहुसंतृप्त वसा अम्लों से भरपूर होते हैं ।
मांस – मांस भोजनों तथा मछली और मांस में उच्च जैविक मान के प्रोटीन और ‘बी’ विटामिनों को प्रचुरता होती है ।विशेषत: विटामिन बी12 तो केवल जंतु जन्य भोजनों में ही होता है ।मांस में प्रोटीन, वसा , खनिज, लवण , कार्बोहाइड्रेट , एंजाइम, विटामिन तथा जल रहता है ।मांस में उत्तम वर्ग का प्रोटीन 18 से 23 प्रतिशत रहता है ।इस प्रोटीन का जैव मूल्य बहुत अधिक होता है, क्योंकि इसमें सभी अनिवार्य एमिनोएसिड रहते हैं ।इनसे उच्च श्रेणी का मानसिक और शारीरिक विकास होता है ।ये प्रोटीन चार प्राकर के होते हैं – एक्टिन और मायोसिन मांस उतकों में रहते हैं ।ये पानी में घुलनशील हैं परन्तु पकाने पर थक्के के रूप में जम जाती हैं ।कैलेगन और इलास्टिन प्रोटीन मांस के संयोजक उतकों में रहता है ।सफेद उतकों में कैलेगन तथा पीले उतकों में इलास्टिन रहता है ।ये पकाने पर जिलेटिन में परिवर्तित हो जाते हैं ।पेशी के रेशों के भीतर विशेष प्रकार के तत्व रहते हैं ।ये कुछ नाइट्रोजन विहीन और कुछ नाइट्रोजन युक्त होते हैं ।नाइट्रोजन विहीन में लेक्टिक एसिड प्रमुख है ।मांस को उबालकर औषधियों के लिए सत्व प्राप्त किए जाते हैं ।इन तत्वों में पाचक रसों को श्रावित होने में मदद मिलती है ।मांस में वसा की मात्रा 10 से 13 प्रतिशत होती है ।यह स्टिरोत के रूप में रहती है ।वसा के कारण मांस में स्वादिष्ट और सुगंध मिलती है ।मांस की शक्ति मूल्य उसमें रहने वाली वसा की मात्रा पर निर्भर करता है ।प्रत्येक प्रकार के मांस में वसा प्राय: प्रयाप्त मात्रा पर निर्भर करता है ।वसा के अच्छे साधन होने के कारण मांस शक्ति प्राप्ति के अच्छे साधन माने जाते हैं ।पशु के मांस को आद्रता प्रदान करती है ।मादा पशुओं के मांस में वसा बहुत अधिक रहती है ।मांस में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बहुत कम होती है जो कुछ कार्बोहाइड्रेट रहता भी है, वह भी ग्लाइकोजन के रूप में रहता है ।ये अंश यकृत में संग्रहित रहता है ।मांस में रहने वाले रक्त के हिमोग्लोबिन में आयरन रहता है ।सबसे बड़ी बात है कि मांस के खनिज जरा सा भी नष्ट नहीं होते हैं ।इसका पकाया तरल अंश यदि प्रयोग कर लिया जाए तो सम्पूर्ण मात्रा में खनिज प्राप्त हो जाती है ।तरल अंश के प्रयोग से साधे पुरे के पुरे विटामिनों के अंश प्रयोग में आ जाते है ।पकाने से मांस का स्वाद बढ़ जाता है तथा उसमें उपस्थित रोगाणु भी नष्ट हो जाते हैं ।मांस को भुनकर, ग्रिल करके, तलकर, स्टू बनाक , उबालकर शोर बेदार कैसा भी बनाया जा सकता हा है ।पकाने से मांस के पेशीय रेशों का प्रोटीन कोलूलेट कर दिया जाता है तथा संजोल ऊतक कैलेगेन फूलकर जिलेटिन में बदल जाते हैं ।इसकी वसा पिघल जाती है और जलीय अंश कम हो जाता है ।इसे अधिक देर तक पकाने से पेशी तन्तु पृथक-पृथक हो जाते हैं ।एसिड के कारण ऐसा परिवर्तन होता है ।पकाने से मांस के पोषक मूल्यों में बहुत अधिक वृधि हो जाती है ।
मछली – मछली प्रोटीन का श्रेष्ट स्त्रोत है ।इसका मुख्य पोषक तत्व ही प्रोटीन है ।मछली के पेशियों में उत्तम श्रेणी का प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में मिलता है ।शरीर में उपयोगिता की दृष्टि से इसके अनिवार्य मशीनों एसिडों का बहुत मूल्य है ।इसमें प्रोटीन 16.20 प्रतिशत होता है जिसका उच्च जैविक मूल्य रहता है ।स्वस्थ व्यक्तियों के लिए अधिक चर्बी युक्त मछली, प्रोटीन, वसा, विटामिन ‘ए’, ‘डी’ तथा खनिज लवणों की प्राप्ति का अच्छा साधन है ।अधिक वसामय मछलियों का कैलोरी मूल्य बढ़ जाता है ।मछली का सैलगन, इबोट, वाटर फिश, कैटे फिशों में 11-20 प्रतिशत वसा होती है ।मछली में कार्बोहाइड्रेट ग्लाइकोजन के रूप में रहता है ।परन्तु इसकी मात्रा बहुत कम होती है ।कई प्रकार की शैल फिश का स्वाद कुछ मीठा होता है ।इसका करण इन्जाइम की क्रिया के द्वारा ग्लाइकोजन का ग्लूकोज में परिणत हो जाना है ।सभी प्रकार की मछलियों में खनिज लवणों की अधिकता रहती है ।मछलियां कैल्शियम का उत्तम साधन है ।समुद्री मछलियां आयोडीन के उत्तम स्त्रोत हैं मछली में कॉपर तथा आयरन भी अधिक मात्रा में मौजूद रहता है ।मछलियों में रिबोफ्लोबिन, धायमिन तथा नायसिन भी रहता है ।कुछ मछलियां विटामिन ‘डी’ की प्राप्ति के बहुत अच्छे स्त्रोत हैं ।सभी मछलियों के यकृत में कम या अधिक मात्रा में विटामिन ‘डी’ जरुर रहता है ।मछली का कैलोरी मूल्य उसमें मौजूद वसा पर निर्भर करता है ।
अंडा – अंडा ऐसे प्रोटीन का उत्तम स्त्रोत है जिसका जैव मूल्य उच्च अशांक का रहता है ।अंडे में 80 से 88 प्रतिशत अंश जल का रहता है ।जल के माध्यम से ही अंडे के भीतर विभिन्न रासायनिक और भौतिक क्रियाएं सम्पन्न होती है ।प्रोटीन के स्त्रोत के रूप में देखा जाए तो अंडे में दो प्रकार की प्रोटीन पायी जाती है ।साधारण वर्ग की प्रोटीन है ओवोल न्युमिन जो सभी अंडे के सफ़ेद भाग में रहती है ।सफेद भाग में ही कुछ संयुक्त प्रोटीन भी पायी जाती है, जैसे ओबोक्युसिड तथा ओवोक्युसिन ।इन सब संयुक्त प्रोटीन जैसे ओवोविटैलिन तथा लिवोर्टन अंडे के पीले भाग में भी रहती है ।अंडा अत्यधिक पोषक खाद्य पदार्थ है ।शरीर निर्माण के लिए इसमें सब कुछ रहता है ।इसमें वृधि कारक सभी तत्व रहते हैं ।यह ऐसा खाद्य पदार्थ है जिसके पोषक मूल्य को दूध की टक्कर में रखा जा सकता है ।
आचार चटनी तथा मसाले – ये सहायक खाद्य पदार्थ मुख्यत: व्यंजनों को स्वस्दिष्ट बनाने में प्रयुक्त होते हैं ।मिर्च और धनियाँ कैरोटिन के अच्छे साधन हैं ।हरी मिर्च, विटामिन ‘सी’ और हल्दी तथा इमली लौह के अच्छे स्त्रोत हैं ।चूँकि मिर्च मसाले बहुत थोड़ी मात्रा में खाये जाते हैं ।इसलिए वे आहार के पौषनिक मान को विशेष रूप में नहीं बढ़ाते ।हींग और लहसुन जैसे कुछ मसालों में ऐसे सक्रिय तत्व पाये जाते हैं जो आंतों में सडान पैदा करने वाले जीवाणुओं की वृधि का संदमन करते हैं ।
सामान्य आहार का संघटन और उसका मोटे तौर पर पौष्टिक मान को निम्न तालिका द्वारा दर्शाया जा सकता है :
संतुलित आहार जिसमें दूध तथा अन्य खाद्य सामग्री हो दुगुनी या उससे भी अधिक लागत बाला होगा ।ऐसी स्थिति में पोषण कार्य करने वालों को कठिनाई का सामना करना पड़ता है ।भारत में बच्चों के आवास गृहों में प्राय: धन की कमी होती है ।? जबकि कम लगत में वस्तुतः संतोषजनक आहार देना प्राय: असंभव हो, उसे समय कुछ बातें इस प्रकार के अहारों के संशोधन – प्रयास में धयान में रखने योग्य होती है ।बच्चों को प्रतिदिन कम से कम 8 औंस (250 मि.ली.) मिलना चाहिए, यदपि वास्तव में यह मात्रा पोषण कार्यकर्ता द्वारा प्रस्तावित ‘युक्ततम’ मात्रा में बहुत ही काम है ।
अन्य ध्यान देने योग्य बातें इस प्रकार हैं – यदि खाधान्न मशीनी चावल हो, तो आहार के पौष्टिक मान में संशोधन करने के लिए उक्त चवाल की जगह, समग्र रूप से अथवा आंशिक रूप से, कम कटा हुआ चावल या सेला चावल, सम्पूर्ण गेहूँ या मोटे अनाजों में से कोई एक विशेषतया ज्वार का प्रयोग करना चाहिए ।यदि मशीन का कुटा हुआ चावल ही आहार का आधार रहता है तो यह समझ लेना चाहिए कि मशीनी चावल खाने वाले को सम्पूर्ण गेहूँ या रागी खाने वाले की अपेक्षा अधिक सरंक्षि भोजनों की आवश्यकता पड़ेगी ।जैसे – दाते, दूध, हरी तरकारियां फल इत्यादि ।जब आहार में चावल के अतिरिक्त और कुछ भी न हो और लोग इतने निर्धन हों कि कभी-कभार अन्य भोजनों की कुछ मात्राओं को छोड़ अन्य भोज्य खरीद ही न सकें, तो जिस दशा में चावल खाया जाता हो वह दशा ही सबसे अधिक महत्त्व की है ।
दालों में प्रोटीन तथा ‘बी’ वर्ग के कुछ विटामिनों की प्रचुरता होती है और 2-3 औंस (70 ग्राम) दाल प्रतिदिन लेने से खाद्यान्न प्रधान अहारों का पौष्टिक मान बहुत उन्नत हो जाता है ।सोयाबीन में प्रोटीन तथा वसा अधिक होती है और हमरे देश में इसकी खेती उतरोत्तर बढ़ती जा रही है ।यदि सोयाबीन का प्रयोग भारत में में व्यापक रूप से होना लगे तो उसकी स्वस्दिष्ट तथा ग्राह रूप में बनाने विधियों की ओर धयान देना पड़ेगा ।
भारतीय बच्चों के आहार संबंधी विकारों में प्रोटीन और कैलोरी का अपूर्णता से उतपन्न होने वाले विकास सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं ।प्रोटीन कैलोरी कुपोषण ही गरीब बच्चों की इतनी अधिक मृत्यु दर तथा अस्वस्थता दर के लिए कुछ जिम्मेदार है ।अभी हाल में ऐसे प्रमाण भी हो रहे हैं जो हमें समझते हैं कि शुरू की जन्दगी कुपोषण बच्चे के उत्तरकालीन विकास पर भी चिरस्थायी प्रभाव डाल सकता है ।बचपन में भीषण प्रोटीन कुपोषण की घटना के उपरान्त बालक की न केवल शारीरिक उन्नति पर, वरन मनसिक और सीखने की क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
प्रोटीन कैलोरी कुपोषण की समस्या एक से पाँच वर्ष तक के आयु काल में खास तौर से तीव्र होती है ।प्रारंभिक शैशवकाल में माता का दूध बच्चे के प्रोटीन आवश्यकताओं को पर्याप्त मात्रा में पूरा कर देता है ।निर्धन भारतीय समुदायों की पौषनिक हैसियत के बावजूद माताएं जो दूध प्रदान करती हैं वह केवल थोड़े से विटामिनों की कमी को छोडकर बढ़िया किस्म का होता है और पर्याप्त मात्रा में होता है तो भी इतने यथेष्ट मात्रा में दूध पिलाने के बावजूद छठे महीने के बाद केवल मां के दूध पर ही बच्चे का विकास यथावत कायम रखना असंभव हो जाता है ।अत: इस समय के पश्चात पूरक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता पड़ने लगती है ।बच्चों में प्रोटीन कैलोरी का दारुण कुपोषण दो रूपों में दिखाई देता है ।एक रूप तो वह है जिसे क्वाशियोरकर कहते हैं ।इसके लक्षण तथा पहचान वृधि का रुक जाना, दस्त लग जाना, बालों का विवर्णता तथा बिखरापन, त्वचा विवर्णता और उसका उतरना, अरक्तता, शरीर की सूजन और भावहीन है ।दुसरे रूप में मरास्मस (सुखा रोग) में, शुद्ध वृधि के अतिरिक्त शरीर के मांसपेशियों का चरम अपव्यय होने लगता है ।
इस तरह भोजन के रूप में उपयुक्त विभिन्न खाद्य पदार्थ का अपना पोषक मूल्य होता है जिसके उपयोग से मनुष्य का शारीरिक विकास होता है ।
नगरीय समाजशास्त्र एक नवीन सामाजिक विज्ञान है ।नगरीयकारण का उत्तरोतर विकास होने के कारण नगरीय अध्ययनों का महत्व काफी बढ़ गया है ।इसलिए आज नगरीय क्षेत्रों में व्यापक रूप से अनुसंधान व समाजिक गवेषणाओं की प्रबल आवश्यकता हो गई ।परन्तु इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए अनेकानेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है ।इन कठिनाइयों में सबसे प्रमुख इस क्षेत्र की प्राथमिक अवधारणाओं की समस्या है ।इस दृष्टि से बौद्धिक व समाजशास्त्रिय दृष्टि से नगरीय समाज व अविस्थापना संबंधी अवधारणायें अभी स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं हो पाई हैं ।इस संदर्भ में देश, काल व संस्कृति की छाप दृष्टिगोचर होती है ।इस अध्याय में तथा आगामी अध्याय में हम इसी दृष्टिकोण से विचार करेंगे ।प्रथम हम कुछ सैधांतिक अवधारणाओं पर धयान आकर्षित करेंगे ।
नगरीय – नगरीय शब्द की अवधारणा का संबंध मानवीय अविस्थापना केक विशिष्ट रूप से भी है ।परन्तु नगरीय अवस्थापना या नगरीय स्थान की अवधारणा भी विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है ।इसके अलावा नगरीय अविस्थापना की कोई सार्वभौम परिभाषा सर्वत्र अभाव पाया जाता है ।नगरीय समाजशास्त्र में नगरीय अविस्थापना की परिभाषा का सर्वत्र प्रयोग होता है ।समान्यत: नगरीय विश्लेषण की दृष्टि से दो क्षेत्रीय, नगरीय प्रशासनिक इकाईयों को सर्वमान्य माना गया है ।प्रथम, नगरीय अविस्थापना इकाई और द्वितीय, नगरीय प्रशासनिक इकाई है ।परंतु इस दृष्टि से भी विभिन्न समाजों में परस्पर विषमतायें पाई जाती है ।नगरीय प्रशासनिक इकाई के अंतर्गत
राज्य , प्रांत , कन्टोस, डिपार्टमेंट अदि भिन्न-भिन्न अवधारणाओं का प्रयोग होता है ।इसी प्रकार नगरीय प्रशासनिक उप-इकाइयों जैसे काउनटीज, म्युनिसिपैलिटिज आदि अवधारणायें प्रचलित हैं ।इसी प्रकार टाउनशिप , केंट एरिया आदि अवधारणायें भी इसी संदर्भ में प्रचलित है ।
नगरीय समाजशास्त्रीय विश्लेषण की दृष्टि ये यदपि नगरीय प्रशासनिक इकाइयों का आधार ही सर्वमान्य रूप से अपनाया जाता है ।नगरीय शोध में प्रयुक्त ये अवधारणायें ही प्रयुक्त होती हैं तो भी इनसे अन्तराष्ट्रीय दृष्टि से कोई सर्वमान्य अवधारणा प्रचलित नहीं है ।इस समस्या का समाधान करने की दृष्टि से राष्ट्र संघ के माध्यम से प्रयास किये गये ।राष्ट्रसंघ की एक विज्ञप्ति में बताया गया है कि 250 और अधिक निवासियों की इकाई को डेनमार्क के नगरीय इकाई माना जाता है ।कोरिया में इस दृष्टि से 40,000 से कम आवासीय क्षेत्रों को नगरीय मना जाता है ।
राष्ट्रसंघ के जनसंख्या आयोग ने ‘नगरीय’ शब्द की अवधारणा संबंधी विषमताओं को दूर करने का प्रयास किया है ।इस दृष्टि से यह सुझाव दिया गया है के नगरीय अव्सिथापना में आवासीय सम्पूर्ण जनसंख्या को नगरीय मानना उचित रहेगा ।इस दृष्टि से प्रत्येक राष्ट्र को जनसंख्या सम्बन्धि आंकड़ों के आधार पर ‘नगरीय’ की अवधारणा स्वीकार करनी चाहिए ।
नगर की समाजशास्त्रीय अवधारणा – समाजशास्त्री दृष्टि से नगरीय का अर्थ नगर में रहने वाले समुदाय से है ।नगर क्षेत्र की अवधारणा सपष्ट हो जाने के बाद नगरीय की समाजशास्त्री आवधारणा स्पष्ट की जा सकती है अर्थात ‘नगरीय’ शब्द का प्रथम स्थान है ।यह समुदाय विशेष का सूचक शब्द है ।सम्पूर्ण मानव समाज को किन्हीं लाक्षणिक आधारों पर नगरीय तथा ग्रामीण समुदायों में विभाजित किया जा सकता है ।‘नगरीय’ शब्द नगरीय समुदाय विशेष को इंगित करता है जो नगरीय क्षेत्र में निवास करता है ।नगरीय समाज की विशेषताओं और लक्षणों का समाजशास्त्रियों ने अध्ययन करने का प्रयास किया है ।इस दृष्टि से सोरोकिन, जिम्मरमेन, पार्क, बर्गस तथा विर्थ के कार्य उल्लेखनीय स्थान रखते हैं ।नगरीय समाजशास्त्र में ‘नगरीय’ शब्द की अवधारणा का प्रयोग सर्वत्र पाया जाता है ।यहां शब्द समुदाय तथा समाज विशेष लिए प्रयुक्त किया गया है ।नगरीय क्षेत्र उस परिपूर्णता के रूप में समझा जाता है, जो मुख्यता उद्योग, व्यापार, नौकरी तथा अन्य व्यवसायों में संलग्न होता है ।नगरीय समाज का सम्बन्ध कृषि व्यवसायों से नहीं होता है ।यह समुदाय प्रमुखत: वस्तुओं के निर्माण तथा तकनीकी कार्यों से सम्बंधित रहता है ।नगरीय जीवन ग्रामीण जीवन से बिल्कुल भिन्न होता है ।नगरीय समाजशास्त्र में ‘नगरीय’ शब्द मानव जीवन से सम्बंधित है ।जीवन का एक विशेष ढंग या प्रणाली जीवन के ढंग या प्रणाली से भिन्नता रखती है, नगरीय कहलाती है ।
नगरिय मानव जीवन का एक विशिष्ट ढंग है ।इस जीवन की विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था होती है ।नगरीय परिवार के सदस्यों का व्यवसाय करने वाले सदस्य के व्यावसायिक गतिविधियों में कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है ।नगरीय पारिवारिक इकाई एक व्यावसायिक इकाई नहीं है ।नगरीय समाजिक व्यवस्था में व्यक्ति को व्यवसायिक क्रियाएं करने की स्वतंत्रता होती है ।नगरीय जीवन मानवीय औद्योगिकअवस्थाओं का एक संकुल है ।इस संकुल में अनेकानेक आर्थिक क्रियाएं संचालित होती है जो एक-दुसरे के लिए पूरक होती हैं ।इन क्रियाओं में व्यक्तियों के मध्य किसी प्रकार के प्राथमिक सम्बन्धों क व्यवस्था नहीं होती है ।
नगरीय व्यक्ति, परिवार और समुदाय की प्रकृति से एकान्तता होती है ।यहां भौतिक जीवन प्रकृति प्रधान नहीं होता, अपितु मानवकृत होता है ।‘नगरीय’ शब्द वातावरण एवं पर्यावरण का सूचक भी है ।नगरीय पर्यावरण मानव निर्मित होता है ।इसमें प्रकृति का प्रभाव नहीं होता है ।लोहे और पत्थर से बनी मानव निर्मित भौतिकता का यहां बाहुल्य होता है ।यहां परिस्थिति चंचल, भावना प्रधान और शोर–गुल से आच्छादित होती है ।यहां भूमि का अधिक महत्त्व होता है और जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है ।नगरीय समुदाय का आकार विशाल होता है ।इस भांति स्पष्ट है कि नगरीय समाजशास्त्र में ‘नगरीय’ शब्द की अवधारणा के अंतर्गत व्यक्ति, समुदाय परिवार, परिस्थिति और सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था संबंधी तत्वों का प्रमुख स्थान है ।
नगरीयता की अवधारणा – नगरीय समाज की दूसरी प्राथमिक अवधारणा के सम्बन्ध में भी नगरीय समाजशास्त्रीयों के मध्य विभिन्न विचार प्रचलित हैं ।क्वीन और कारपेंटर ने नगरीयता को नगर निवास की एक प्रघटना बताया है ।इन्होने लिखा है , “हम नगरीयता का प्रयोग नगर निवास की प्रघटना को पहचानने के लिए करते हैं ।“ इस प्रकार नगरीयता एक स्थायी घटना है अथवा नगरीयता परिस्थितियों का एक स्थायी रूप है ।विर्थ ने नगरीयता को बिल्कुल भिन्न अर्थों में परिभाषित किया है ।उसने लिखा है , नगरीयता की परिभाषा करते हुए स्पष्टतया लिखा है , “ नगरीयता लक्षणों का वह पुंज है जो नगरों में एक विशिष्ट प्रकार का जीवन उत्पन्न करता है ।“ इस प्रकार नगरीयता की परिभाषा के सम्बन्ध में विर्थ के विचार प्रमुख स्थान रखते हैं ।उनके अनुसार नगरीयता जीवन का एक ढंग है ।इस विचार का समर्थन बर्गल व एंडरसन ने भी किया है ।इस विचार पर हम यहां तनिक विस्तार में विचार करेंगे ।
नगरीयता : जीवन की एक प्रणाली – विर्थ ने नगर में पायी जाने वाली नगरीयता को जीवन का एक ढंग कहा है ।उन्होंने इसकी विशेषताओं का भी उल्लेख किया है ।उनके अनुसार नगरीयता के निम्नलिखित लक्षण तथा विशेषताएं हैं ।
ऊपरी दिखावे के अनेकानेक सामाजिक सम्बन्ध एवं व्यवहार और उनकी तथाथित सभ्य और बुद्धिमत्तापूर्ण जीवन प्रणाली ।
विषमता – विर्थ के अनुसार ‘नगर की विषमता’ दुसरे पर अत्यधिक निर्भरता उपरी दिखावे के अनेकानेक सामाजिक सम्बन्ध एवं व्यवहार और उनकी तथाकथित सभ्य और बुद्धिमत्तापूर्ण जीवन प्रणाली – ये सब नगरीयता के परिचायक लक्षण हैं ।ये उस भेद को उत्पन्न करते हैं जो ग्रामीण व नगरीय जीवन में होता है ।नगरवासी ही नहीं, आज एक ग्रामवासी कृषक भी अपने आधुनिकतम कृषि साधनों तथा ट्रेक्टर, उसके पुर्जे व साथ ही अन्य मशीनें, फर्टिलाइजर, विधुत, अणुशक्ति, उत्तम बीज, आवागवन के सथानों आदि के लिए उतना ही दूसरों पर निर्भर है जितना कि एक नगरवासी ।इसी कारण उसे अनेकानेक सम्बन्ध स्थापित करने पड़ते हैं और उनकी जटिलताओं में प्रवेश करना पड़ता है ।यह सब होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि एक सीमा तक विर्थ के कथन में सत्यता है ।ग्राम व नगर जीवन प्रणाली के अंतर के विषय में कोई दो राय नहीं हो सकती (चाहे इस अन्तर की मात्रा कम अथवा अधिक क्यों न हो )
निर्भरता – नगरवासियों और ग्रामवासियों में मुख्य अन्तर निभरता का है ।नगरवासी अधिक मात्रा में और अधिक विषयों में एक दुसरे पर निर्भर रहते हैं और साथ ही प्रकृति से दूर होते हुए अप्राकृतिक साधनों, तथा विधुत व इससे बने साधन साइकिल, कार , मनोरंजनों के साधनों आदि पर आना जीवन निर्भर रखते हैं ।ग्रामवासियों और नगरवासियों में यह निर्भरता की मात्रा जीवन से भी व्यापक अंतर ला देती है ।ग्रामवासियों के विपरीत नगरवासी प्रकृति पर कम निर्भर रहते हैं और अनके बार वे प्रकृति के सामीप्य का अनुभव नहीं कर पातें ।वे मनुष्यों पर, सामाजिक सम्बन्धों पर और अप्राकृतिक साधनों पर निर्भर रहते हैं ।
दिखावा – नगरवासियों को अनके ऐसी समस्यायों का सामना करना होता है जो तत्काल समाधान चाहती हैं ।इसी आधार पर ग्रामवासियों को प्राय: सुस्त व न्यून बौद्धिक स्तर वाला कहा जाता है ।वास्तव में नगर में मनुष्य को परिश्रमी और सावधान रहते हुए जीवन व्यतीत करना होता है ।इस कारण नगरवासियों में व्यवहार और प्रवृतियों के कुछ प्रतिमान निश्चित हो जाते हैं जिन्हें जीवन की नगरीय प्रणाली कहा जाता है ।नगरीय आधुनिक समय की दें नहीं है ।प्राचीनकाल में ही ग्राम की परिधियों से दूर ऐसे मानव समूह का अस्तित्व रहा है जिसने ग्रामों की समस्या को सुलझाया और शक्ति सम्पन्न होने के नाते संस्कृति को विकसति किया ।इस अलग बने शक्ति सम्पन्न समूह ने “नगरीयता” की परम्परा को सदैव जीवित रखा है ।यह नगरीयता कभी भी नगरों तक सीमित नहीं रही ।सदैव से ही नगर ग्रामों को प्रभावित करते रहे हैं और ग्राम नगर की जीवन प्रणाली को अपनाते रहे हैं ।आज के ग्रामों में कल के नगरों की बहुत से बातें द्रष्टव्या हैं ।आज ही यही स्थिति विकसित देशों में दृष्टिगत होती है जहां नगरीकरण बहुत अह्दिक मात्रा में हो चूका है ।इन देशों में ग्राम और नगरों में यदि मुख्य भेद हैं तो वह उद्धोगों का है ।अन्यथा ग्रामवासी भी प्रयाप्त सीमा तक “नगरीयता” को अपनाते जा रहे हैं, लेकिन साथ ही, जैसा कि स्पष्ट है, यह भेद सनातन है और विकसित एवं अविकसित समूह के मध्य सदैव बना रहेगा ।नगरीयता की अवधारणा के विश्लेषण में विर्थ ने कुछ सीमा तक अतिश्योक्ति की है ।यह आवशयक नहीं है नगरों में सदा विषमता ही परिलक्षित होती हो ।कई नगर ऐसे हैं जहां सजातीयता पायी जाती है ।द्वितीय, नगर में लोगों की एक दूसरों पर निर्भरता की प्रकृति की ऊंची दर के सम्बन्ध में भी विर्थ का कथन पूर्णत: सार्वभौमिक प्रतीत नहीं होता है ।आज ग्रामों में भी कृषि के यांत्रिकारण के कारण वहां के लोगों में परस्पर निर्भरता दृष्टिगोचर होती है ।तृतीय, नगरों में ऊपरी दिखावे के सामाजिक सम्बन्ध और बुद्धिमतापूर्ण जीवन प्रणाली के तत्व भी आजकल ग्रामीण लोगों में भी विकसित हो गये हैं ।आधुनिक कृषक भी दिखावे के सामाजिक सम्बन्ध रखता है ।फिर भी विर्थ के विचारों में नगरीयता अवधारणा को स्पष्ट करने की एक दिशा है ।इसने नगरीयता की इन विशेषताओं का विश्लेषण करके ग्राम और नगर में भेद करने के आधार सुझाये हैं ।ये आधार कुछ सीमा में अवश्य नगर और ग्राम के मध्य अन्तर रेखा खींचने में सहायता प्रदान करते हैं ।विर्थ द्वारा प्रतिपादित निर्भरता का तत्व इस दृष्टि से उल्लेखनीय है ।नगर के लोग ग्रामीण लोगों की तुलना में अवश्य एक-दुसरे पर अधिक निर्भर रहते हैं ।ये अपने जीवन में कई ऐसे साधनों का प्रयोग करते हैं जिन पर उन्हें सदा निर्भर रहना पड़ता है ।कृषक मौलिक रूप से प्रकृति से सम्बन्धित रहता है तथा उसी पर निर्भर रहता है जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता है ।दुर्खीम ने भी अपने शोध प्रबन्ध “समाज में श्रम विभाजन” में इसी तथ्य की पुष्टि की है ।आधुनिक नगरीय समाजों की यह एक विशेष प्रकृति है ।नगर में लोग प्रकृति पर निर्भर नहीं रहते हैं तथा उनको प्रकृति का ज्ञान नहीं होता है ।वे मनुष्यों पर और उनके सामजिक संबंधों पर तथा भौतिक साधनों पर निर्भर रहते हैं ।वे सदा इन तत्वों के सहारे अपना जीवन यापन करते हैं ।ग्रामीण लोग प्रकृति के व्यवहारों पर निर्भर रहते हैं जब कि नगरीय लोग मनुष्यों के व्यवहारों पर निर्भर रहते हैं ।
इस प्रकार नगरीयता जीवन का एक विशिष्ट अंग है ।मनुष्य जब इस ढंग को अपना लेता है तो उसे आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता, चाहे वह ग्राम में रहे अथवा नगर में ।नगरीयता के तत्व सदा उसके साथ रहते हैं ।इस सम्बन्ध में एंडरसन ने लिखा है, “नगरीयता जीवन के ढंग के रूप में नगरों एवं कस्बों तक ही सीमित नहीं है यधपि वह बड़े नगरीय केंद्रों से ही प्रारंभ होती है ।वह व्यवहार का एक ढंग है और इसका तात्पर्य यह होता है कि एक व्यक्ति यधपि एक ग्राम में रहता है तथापि वह अपने विचार एवं आचरण में नगरीय हो सकता है ।विर्थ ने भी इन्हीं विचारों का प्रतिपादन किया है ।वह लिखता है , “ हम यह परिणाम निकालते हैं कि ग्रामीण जीवन पर नगरीयता की उतनी छाप रहेगी जितनी कि वह संपर्क संचार के द्वारा नगरों के प्रभाव में आता है ।यह कहना इस बात को स्पष्ट ही करेगा कि यधपि नगरीयता के वे प्रमुख केंद्र व स्थान रहेंगे जिन्हें, हम नगर कहते हैं फिर भी नगरीयता नगरों तक सीमित नहीं है अपितु हर उस स्थान पर पायी जाती है जहां तक नगर का प्रभाव पहुंच जाता है ।
विर्थ ने अपने शोध लेख जो “अमरीकन जरनल ऑफ सोशियोलोजी” में प्रकाशित हुआ, में नगरीयता और उसके तत्वों पर विशेष विश्लेषण प्रस्तुत किये हैं ।इसने नगरीयता का एक सिद्धांत भी पारित किया है ।इस सिधान्त के अनुसार नगर में नगरीयता का विकास होता है और नगरीयता नगरों का विकास करती है ।नगरों की उत्पत्ति घनी और मलिन बासियों की अविस्थापना के फलस्वरूप होती है ।प्रथम इन बस्तियों में नगरीयता से परिपूर्ण विशिष्ट प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं ।इन सामाजिक संबंधों से एक विशिष्ट प्रकार के जीवन ढंग विकसित हो जाता है ।यह ही जीवन का ढंग नगरीयता कहलाता है ।इस सिद्धांत के सम्बन्ध में विर्थ ने लिखते हुए कहा है ,”अत: जिनता अधिक विस्तृत घना बसा हुआ है और अधिक बेमेल एक समुदाय होगा, उतनी ही उसकी विशेषताएं नगरीयता जैसी होगी “।इसी संदर्भ में विर्थ द्वारा प्रस्तुत नगरीय जीवन प्रणाली की प्रमुख विशेषताएं भी वर्णित की जा सकती हैं ।ये निन्मलिखित हैं :
अस्थायित्वता – नगरीय जीवन प्रणाली की यह प्रमुख विशेषता है कि इससे प्रभावित लोग संबंधों की विविधता रखते हैं ।इस विविधता के कारण संबंधों में सिमितता और स्थायित्वता आ अभाव रहता है ।नगरीय व्यक्ति नित नये सम्बन्ध बनता है और पुराने संबंधों को तोड़ता जाता है ।नगरीय जीवन प्रणाली की यह विशेषता है कि व्यक्ति अपने भौतिक हितों की पूर्ति होने तक अन्य व्यक्तियों से अपने सम्बन्ध स्थापित करता है ।
अल्पज्ञता – नगरीय जीवन प्रणाली का एक यह भी लक्षण है कि इसमें कृत्रिमता और औपचारिकता विशेष होता है ।इसी कारण नगरीय व्यक्तियों के संबंध कृत्रिमता और औपचारिकता से पूर्ण होते हैं ।
गुमनामता – नगरीय जीवन प्रणाली का एक यह भी लक्षण है कि इसमें कृत्रिमता तथा गुमनामता भी प्रमुख है ।नगरीयता से परिपूर्ण समूहों में परस्पर एक-दुसरे के परिचय और जान-पहचान का आभाव रहता है ।जनसंख्या अधिक होने के कारण नगरों में समूहों का रूप भीड़-भाड़ वाला होता है ।भीड़ व्यवहार में गुमनामता विशेष रूप में पायी जाती है ।वहां व्यक्ति आत्मकेंद्रित अधिक होता है ।विशाल समूहों में पारस्परिक अभिमित का अभाव रहता है ।एक मकान में रहने वाले पड़ोसी भी यहां परस्पर एक-दुसरे को नहीं जानते हैं ।
विस्तृत आकार – नगरीय जीवन प्रणाली विकास के लिए सबसे प्रमुख आवश्यकता जनसंख्या का विस्तृत क्षेत्र होता है ।विर्थ ने इस सम्बन्ध में लिखा है “जनसंख्या में वृधि इस प्रकार बदले हुए सामजिक संबंधों को समाविष्ट करती है ।“ नगर के परस्पर संपर्क द्स्तुत: आमने-सामने को हो सकते हैं परन्तु वे सदा अव्यक्तिगत, श्रेष्ट, परिवर्तनशील और एकान्तपूर्ण होते हैं ।
घनत्वता – नगरीय जीवन प्रणाली विशेषकर का विकास करीत है ।इस विशेषीकरण के लिए जनसंख्या का घनत्व अधिक होना चाहिए ।इसलिए जनसंख्या का घनत्व भी नगरीय जीवन प्रणाली की एक विशेषता मानी जाती है ।
विषमता – नगरीय जीवन प्रणाली में विषमता के तत्वों का भी प्रबल प्रभाव होता है ।नगर विषमताओं का केंद्र होता है ।इस सम्बन्ध में विर्थ ने उचित कहा है “ इस प्रकार ऐतिहासिक रूप से नगर सदा प्रजातियों, जनताओं एवं संस्कृतियों को पिघलाने वाला एक घड़ा है ।”
आज नगरीय का निरन्तर विकास हो रहा है ।इस सम्बन्ध में एंडरसन नी लिखा है : “नगरीयता जीवन के ढंग के रूप में नगरों एवं कस्बों तक ही सीमित नहीं है, यधपि वह बड़े नगरीय केंद्रों से ही प्रारंभ होता है ।वह व्यवहार का एक ढंग है और इसका तात्पर्य यह होता है कि एक व्यक्ति यधपि एक ग्राम में रहता है, अपर अपने विचार एवं आचरण में नगरीय हो सकता है ।दूसरी तरफ, एक अनागरिक व्यक्ति एक नगर के अत्यधिक नगरीय क्षेत्र में रह सकता है ।दूसरी तरफ, एक अनागरिक व्यक्ति एक नगर से अत्यधिक नगरीय क्षेत्र में रह सकता है ।”
विर्थ ने भी लिखा है : “हम यह परिणाम निकालते हैं कि ग्रामीण जीवन पर नगरीयता की उतिनी छाप रहेगी जीतनी कि वह संपर्क एवं संचार के द्वारा नगरों के प्रभाव में आता है ।यह कहना इस बात को स्पष्ट ही करेगा कि यधपि नगरीयता की प्रमुख केंद्र वे स्थान रहेंगे जिन्हें हम नगर कहते हैं, फिर भी नगरीयता नगरों तक ही सीमित नहीं है अपितु हर उस स्थान पर पाया जाता है जहां कि नगर का प्रभाव पहुँचता है ।“
नगरीयता की प्रमुख विशेषताएं – नगरीयता की एक पमुख विशेषता अस्थायित्व है ।वह केवल अस्थायी सम्बन्ध रख पाता है ।रोज नये-नये लोगों से सम्बन्ध जोड़ता है और पुरानों को भूलता जाता है ।उसे इतने अधिक लोगों से सम्बन्ध रखना पड़ता है कि हर बार एक को भली प्रकार से स्मरण नहीं रख सकता ।उसके सम्बन्ध कृत्रिम एवं औपचारिक भी होते हैं ।वह सबे सम्बन्ध में पूरी जानकारी भी नहीं कर सकता : क्योंकि उसके पास इतना समय नहीं होता, और न उसका इतना काम ही पड़ता है ।उसका व्यवहार घनिष्ट नहीं होता, अपितु बनावटी होता है ।वह ‘हलो मित्रता’ में विश्वास करता है ।कहीं मिल गये तो बढ़े ही तपाक से मिलेंगे और हेलो शब्द से संबोधित करेंगे और उसके अरेंगे केवल स्वार्थ ही की बात होगी ।वह गुमनाम रहना ही पसंद करता है ।नगर की भीड़ में कौन किसको पहचानता है ।सब लोग अपने अपने कम में लगे रहते हैं ।इतने अधिक व्यक्ति होते हैं कि कोई किसी को नहीं पहचानता ।एक ऐसा न पहचानने का दृष्टिकोण भी बन जाता है ।
ये प्रमुख विशेषताएं विर्थ न बतायी है ।एंडरसन ने इन्हें अत्याधिक महत्त्व दिया है ।
नगरीयता का एक सिद्धांत – विर्थ ने नगरीयता का सिद्धांत प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है ।सिद्धांत का सार यही है कि नगर स्थायी घने बसे हुए क्षेत्रों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं और इस घने बसे हुए क्षेत्रों में एक विशिष्ट प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध उत्पन्न होते हैं जो नविन जीवन के ढंग को जन्म देतें हैं ।यही नवीन जीवन का ढंग नगरीयता है ।विर्थ ने लिखा है : “ अत: जितना ही अधिक विस्तृत, अधिक घना बसा हुआ और अधिक बेमेल एक समुदाय होगा, उतनी ही उसकी विशेषताएं नगरीयता जैसी होंगी ।
विर्थ ने निम्न तत्वों को अत्यधिक महत्त्व दिया है :
जनसंख्या के आकार पर अनेक प्रकार के परिवर्तन सामाजिक संबंधों से उत्पन्न होते हैं ।हर व्यक्ति एक-दुसरे से भिन्न होते हैं ।इसलिए उसमें विभिन्न प्रतिभाएं, योग्यताएं इत्यादि पायी जाती हैं ।इसके कारण अंतरण उत्पन्न होता है ।विर्थ ने भी लिखा है : “जनसंख्या में वृधि इस प्रकार बदल हुए सामाजिक संबंधों का समावेश करती है ।” संख्या अधिक होने के कारण व्यक्ति हर एक से पूर्ण रूप से नहीं मिल पाता ।वह केवल अंशों में सम्बंधित एवं आवशयक सम्बन्ध रख पाता है ।नगर में सबंध प्राथमिक न होकर द्वैतीयक होते हैं ।इस सम्बन्ध में विर्थ का कहना है कि ये सम्बन्ध व्यक्तियों पर आधारति नहीं होते हैं बल्कि अवैयक्तिक होते हैं ।ये दिखावटी, कृत्रिम, अस्थायी एवं कार्य-विशेष से ही सम्बंधित होते हैं ।नगर के व्यक्ति के संम्बंध तर्क पर आधारित होते हैं ।ये परिवर्तित सामाजिक सम्बन्ध नये प्रकार के सामाजिक संगठन एवं ढांचे को जन्मे देते हैं ।
जनसंख्या का घनत्व भी महत्व रखता है ।डार्विन ने पेड़ पौधों इत्यादी के सम्बन्ध में खोज की, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि घनत्व के कारण विशेषीकरण का विकास होता है ।दुर्खीम ने मानव समाजों के विषय में यही खोज की और श्रम –विभाजन का सिधान्त प्रतिपादित किया ।इस प्रकार नगरों में घनत्व अधिक होने से विशेषीकरण का विकास होता है ।विभिन्नता पर भी विर्थ ने विशेष बल दिया है ।उनका मत है कि “ इसके कारण नगरों को एक विशेष शक्ति प्राप्त होती है ।नये नये विचार, नये-नये कार्य दिखायी पड़ते हैं, जो नगर के जीवन को प्रगति की ओर ले जाते हैं ।विभिन्न जातियों, प्रजातियों, वर्गों, पदेशों, देशों इत्यादि के लोग एकत्रित होते हैं ।ये एक नवीन सभ्यता एवं संस्कृति को जन्मे देतें हैं” नगर नये नये अनुभवों एवं संस्कृतियों का लाभ उठता है ।इन सबके कारण एक नये जीवन का उदय होता है ।
नगरीयता और सभ्यता – नगरीयता एवं सभ्यता में घनिष्ट सम्बन्ध है ।कुछ लोग तो नगरीयता को ही सभ्यता मानते हैं ।मीडोज ने भी यही विचार रखा है ।एंडरसन ने मीडोज के विचार व्यक्त किये हैं ।उसके अनुसार नगरीयता एवं नगर ही प्रमुख रूप से सभ्यता के निर्माण करने वाले हैं ।वे ही उकसी दूसरा रूप देने के भी उत्तरदायी हैं ।सभ्यता की परिभाषा करने का अर्थ है नगरीयता की परिभाषा करना ।सभ्यता नगर के पर्यावरण में ही केन्द्रित है ।
इस प्रकार हम देख्नते हैं कि सभ्यता प्रकार से नगरीयता का पसाद है ।नगरीयता ही वह जीवन का ढंग है जिसे हम सभ्यता कहते हैं ।विर्थ न भी लिखा है, “ आधुनिक युग में मानव के जीवन के ढंग के विशष्ट लक्षण उसका अत्यंत घनी आबादी में केन्द्रीकरण है, जिसके चारो ओर छोटे छोटे केंद्र रहते हैं और जहां से विचारा एवं व्यवहार फैलते हैं, उन्हें हम सभ्यता कहते हैं ।” विर्थ के अनुसार महानगर ही आधुनिक युग के मानव के जीवन के ढंग का विशेष लक्षण है जहां से विचारों एवं व्यवहारों के प्रतिमानों का जन्म होता है ।फिर यही छोटे-छोटे नगरों द्वारा अपने लिये जाते हैं ।नगरों का व्यवहार सीखना ही सभ्यता सीखना है ।एरिकसन ने लिखा है : “समाजशास्त्रीय रूचि के केंद्र में नगर के समझने के कार्यक्रम के द्वारा हम न केवल नगरीय सभ्यता की प्रमुख समस्याओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, अपितु समकालीन समाज को पूर्ण रूप से समझ लेते हैं ।“
विर्थ ने यह समझाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार नगरीयता समकालीन समाज के समस्त जीवन को प्रभावित करता है ।पहली बात उन्होंने यह कही है कि हमारा यह समझाना गलत है कि नगरीयता केवल उन लोगों के जीवन को प्रभावित करता है जो नगरों में रहते हैं ।नगरीयता का प्रभाव बड़ा व्यापक है ।नगर जब केवल लोगों के रहने एवं काम करने का ही स्थान नहीं है, अपितु वह आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के नियंत्रण एवं अनुकरण करने का महत्वपूर्ण केंद्र है ।वह अपने क्षेत्र में समस्त संसार को लपेटता चला जा रहा है ।नगर यह निश्चित करता है कि किस प्रकार का आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन समकालीन मानव का होगा ।जो इसका अनुकरण करते हैं आज का समाज उन्हें पुरुस्कृत करता है और जो इन्हें नहीं अपनाते उन्हें हानि उठानी पड़ती है ।इस प्रकार नगर नियंत्रण का भी केन्द्र है ।व्यवहारिक प्रतिमान सिखाने के साथ-साथ नगर नियंत्रण की शक्ति को बढ़ता जा रहा है जिसके फलस्वरूप उसके प्रभाव का विस्तार हो रहा है ।
एंडरसन ने लिखा है : “ एक जीवन के ढंग के रूप में नगरीयता समस्त भूमण्डल पर फैलता जा रहा है ।” नगरीयता जीवन का एक ऐसा ढंग है जो सबको ही अपनाना पड़ेगा ।” उसने आगे लिखा है :”कुछ भी हो, यह एक ऐसा चलन है जिसे अपनाना ही होगा।“
नगरीयता बढता ही जा रहा है और दुसरे हर प्रकार के जीवन के ढंग को समाप्त करता जा रहा है ।वर्गल ने इस सम्बन्ध में लिखा है : “नगरीयता ने एक नवीन प्रकार के समाज को ही विकसित नहीं किया है, अपितु यह पहले के समस्त प्रकारों को हटाने की प्रक्रिया में है ।एक ग्रामीण कृषक समाज और एक नागरिक समाज के सह-अस्तित्व की बात अब भूतकाल की हो गई है ।” इसी प्रकार का विचार बर्गल ने भी व्यक्त किया है : “नगरीयता अब केवल नगरों तक ही सीमित नहीं रहेगा ।यह ग्रामीण कृषकों समाजों को हटाकर उनका स्थान स्वयं ले लेगा ।...नागरिक जीवन का ढंग ही केवल एक मात्र जीवन का ढंग रह जायेगा ।”
नगरीयता को लोग, पृथक-पृथक नामों से पुकारते हैं ।एंडरसन ने इस सम्बन्ध में लिखा है : “कुछ लोग, इसे प्रगति कहकर पुकारते हैं ।साम्यवादी भाषा में नगरीयकरण की प्रक्रिया को वह मुक्ति हैं और साम्यवादी देशों में इस प्रक्रिया को निर्देशित एवं व्यवस्थित रूपों में आगे बढाने के लिए सक्रिय कार्यक्रम है ।”
नगरीय समाजशास्त्र का उद्भव और विकास के सम्बन्ध में विचारकों के मध्य विवाद पाया जाता है ।इस विवाद का कारण यह है कि कुछ विचारक यह मानते हैं कि नगरीय समाजशास्त्र से पूर्व ग्रामीण समाजशास्त्र का उद्भेदन हो चूका था ।इसके विपरीत कुछ लोगों का मत है कि ग्रामीण समाजशास्त्र के पहले ही नगरीय समाजशास्त्र की उत्पत्ति हो चुकी थी ।जो समाजशास्त्री इस बात का समर्थन करते हैं कि नगरीय समाजशास्त्र के बाद में प्रकट हुआ है, वे इसकी उत्पत्ती २०वीं शताब्दी में निर्धारित करते हैं क्योंकि ग्रामीण समाजशास्त्र का उद्भव 19वीं शताब्दी के उतरार्ध में हुआ है ।इन समाजशास्त्रियों में श्री.एफ एल.हाउस का स्थान प्रमुख है ।लेकिन यह बात समाजशास्त्रीय आंदोलन में प्रमुख स्थान प्राप्त कर गया हो ।अमेरिका के शिकागो विश्विधालय में ग्रामीण समाजशास्त्र का विकास इतना द्रुतगति से हुआ हो कि वह अमेरिका के समाजशास्त्रीय आंदोलन में प्रमुख स्थान प्राप्त कर गया हो ।अमेरिका के शिकागो विश्वविधालय में ग्रामीण का अधययन एवं अध्यापन नगरीय समाजशास्त्र की उत्पत्ति एवं विकास नगरीय समाजशास्त्र से पहले माना जाता है ।वैसे नगरीय समाजशास्त्र की उत्पत्ती ग्रामीण समाजशास्त्र से काफी पूर्व में ही हो चुकी थी ।
वस्तुत: 16वीं शताब्दी में नगरीय समाजशास्त्र पर कार्य प्रारंभ हो गये थे ।इन कार्यों में नगरों का अध्ययन प्रमुख स्थान रखता है ।यधपि ये अध्ययन समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचारकों के मत से उपयुक्त नहीं माने जाते हैं तथापि नगरीय समाजशास्त्र में नगर के जीवन और उससे सम्बंधित गतिविधियों के विश्लेषण का महत्वपूर्ण स्थान है ।इस दृष्टि से इन कार्यों से ही हम इस शास्त्र की उत्पत्ती निर्धारित कर सकते हैं ।16वीं शताब्दी में किये गये अध्ययनों में निम्नांकित विचारकों का स्थान प्रमुखता रखता है :
यदपि इन विचारकों के कार्य पूर्ण रूप से नगरीय जीवन से सम्बंधित हैं ।इनके अध्ययनों में नगरीय सामाजिक व्यवहारों के सम्बन्ध में विशिष्ट उल्लेख नहीं मिलता है ।इसलिए कुछ विचारक इन क्यों की समाजशास्त्रीय अध्ययनों की दृष्टि से गणना नहीं करते हैं ।वर्गल ने भी इसी बात का समर्थन किया है
।इन कार्यों के प्रति बर्गल का विचार है किए जैसे अमेरिका में नगर कर प्रति लोगों की रूचि अत्यंत प्राचीन है ।लेकिन नगरीय समाजशास्त्रीय अधययन का विकास तो 20वीं शताब्दी में ही परिपूर्णता तक पहुंचा है ।
भारत में भी नगर अध्ययनों का सूत्रपात प्राचीन काल में हो चूका था ।गुप्त और मौर्यवंश के राजाओं को नगर निर्मण का बहुत शौक था ।उन्होंने प्राचीनकाल में अनके नगर बसाये तथा उसकी योजनाओं पर विचार किया ।इनमें तक्षशिला , उज्जैन , वैशाली आदि नगर प्रमुख हैं ।विदेशियों ने भी इन नगरों के जीवन के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है ।लेकिन इन रचनाओं को हम समाजशास्त्रीय इसलिए नहीं कहते हैं कि इन कार्यों में सामाजिक कार्यों तथा सामाजिक व्यवहारों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है ।तत्कालीन नगरीय समाजशास्त्रीय अवधारणाओं से परिपूर्ण अध्ययनों की भारत में परमावश्यकता है ।
17वीं शताब्दी के बाद 18वीं व 19वीं शताब्दी में भी नगरों पर कुछ कार्य अमेरिका, जर्मनी, इंगलैंड, फ़्रांस तथा भारत में हुए हैं ।नगरीय समाजशास्त्रीय दृष्टि से इन कार्यों का भी महत्वपूर्ण स्थान न होने के कारण उल्लेख नहीं किया जता है क्योंकि विधिवत रूप से नगरीय समाजशास्त्र ने अपना पूर्ण रूप 20वीं शताब्दी में ही प्रकट किया है ।इसी कारण ग्रामीण समाजशास्त्र अपने विकास में इन विज्ञान से अगुआ बन गया है ।नगरीय समाजशास्त्र की तुलना में ग्रामीण समाजशास्त्र अधिक प्राचीन है ।
नगरीय समाजशास्त्र का विकास – अधिकांश समाजशास्त्री नगरीय समाजशास्त्र के विकास के सम्बन्ध में इस बात पर सहमत हैं कि नगरीय समाजशास्त्र का विकास 20वीं शताब्दी में हुआ है ।इस शताब्दी में नगरीय अध्ययनों की वैज्ञानिक पधातियों पर अनके कार्य हुए हैं ।ये वैज्ञानिक अध्ययन नगर विज्ञान और नगरीय परिस्थिति शास्त्र पर पूर्णरूप से आधारित हैं ।इन कार्यों का हम निम्नांकित शीषर्क के अंतर्गत वर्णन कर सकते हैं ।
नगरीय परिस्थिति शास्त्रीय अधययन – नगरीय प्रिस्थितिशास्त्रीय अध्ययन प्रमुख रूप से अमेरिका में किये गए हैं ।ये अध्ययन शिकागो विश्वविधालय प्रेस से प्रकाशित हुए हैं ।इन अध्ययनों में नगर की परिस्थिति का विश्लेषण किया गया है क्योंकि परिस्थिति सम्पूर्ण मानव जाति से सम्बंधित है ।जैसा कि हम जानते हैं कि परिस्थितिशास्त्र जीवन के ढंग का वर्णन करता है ।जीवन के ढंग में संस्कृति के तत्व अधिक मात्रा में नहीं मिलते हैं ।मानव परिस्थिति को ग्रामीण परिस्थिति और नगरीय परिस्थिति में विभाजित किया जाता है ।
सम-समायिक अध्ययन – इन अध्ययनों के अंतर्गत जो प्रतिवेदन दिए गए हैं , वे राजनैतिक, गणितज्ञ, संखिकीयशास्त्री , जनसंख्या की समस्या के विधार्थी, अर्थशास्त्री, और इतिहासकारों के लिए भी उपयोगी है ।इनमें कुछ कार्य प्रशंसकों, भवन-निर्माण विशेषज्ञों, आयोजकों एवं सुधारकों के द्वारा ही किये गए हैं ।इनका सब कार्यों के प्रति नगरीय समाजशास्त्र बड़ा ऋणी हैं ।नगरीय परिस्थितिशास्त्र के क्षेत्र में बड़े विस्तृत कार्य हुए हैं ।इन कार्यों में नगर विशेष पर लिखी गई रचनाओं को काफी ख्याति मिली है ।इन सामाजिक विषयक अध्ययनों के प्रकाशन से नगरीय समाजशास्त्र को एक व्यवस्थित विज्ञान के रूप में विकसित होने के लिए गति मिली है ।इसलिए सम-समायिक विषयक अध्ययनों का महत्त्व नागिरय समाजशास्त्रियों के लिए बहुत है ।इन कार्यों में नगरीय घटना के उल्लेख पर बड़ा बल दिया गया है ।
इन कार्यों के प्रमुख रूप से नगरीय अर्थ-व्यवस्था और घटनाओं का अधिक उल्लेख होने के कारण यधपि इन्हें पूर्ण रूप से समाजशास्त्रियों द्वारा ही किये गये हैं ।नगरीय समाजशास्त्र के विकास में इन कार्यों का महत्वपूर्ण योग है ।
राजधानी संबंधी अध्ययन – ये अध्ययन भी नगरीय समाजशास्त्र के विकास में उल्लेखनीय स्थान रखते हैं ।ये अध्ययन प्राथमिक रूप से विशेष अवसरों पर तथा विशेष आवश्यकताओं के आधार पर किये गए हैं ।नगरीय समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का विकास करने में इनका बड़ा योग है ।नगरीय समाजशास्त्र के विकास की पृष्ठभूमि का निर्माण करने की दृष्टि से ऐसे अध्ययन उपयोगी रहे हैं ।
नगरीय सम्बन्धी अध्ययन – प्रमुख नगरीय समाजशास्त्री पार्क, वर्गस तथा बिर्थ ने जो रचनाएं लिखी हैं, व नगरीयता के तत्वों के समाजशास्त्रीय अध्ययनों से सम्बंधित हैं ।इन रचनाओं में नगरीयता, एक जीवन के ढंग में देखेंगे कि जीवन का ढंग समाजशास्त्र के लिए उपयोगी है ।नगरीय समाजशास्त्र के विकास में सहयोग देने की दृष्टि से इन रचनाओं का बड़ा महवपूर्ण स्थान है ।
उपरोक्त रचनाओं में नगरीय समाजशास्त्र के विज्ञान को न केवल विकसित करने में ही योग नहीं दिया है, बल्कि इससे नगरीय समाजशास्त्र को एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में प्रकट होने में भी बड़ी सहायता मिली है ।
नगरीय समाजशास्त्र : एक स्वतंत्र विज्ञान – एक स्वतंत्र सामाजिक विज्ञान के रूप में नगरीय समाजशास्त्र का वास्तविक विकास रोबर्ट ई० पार्क ने एक निबंध ‘दी सिटी’ से हुआ है ।इस निबन्ध न नगरीय समाजशास्त्र के एक नये युग को जन्म दिया ।यह निबंध 1915 में अमेरिकन जरनल ऑफ सोशियोलोजी में प्रकाशित हुआ था ।लेकिन इस समय तक भी नगरीय समाजशास्त्र के प्रति बहुत लोगों का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ है ।समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान के रूप में ही अटल रहा है ।इसकी शाखाओं का विशेषीकरण पूर्ण एवं स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं हो सका है ।नगरीय समाजशास्त्र अपनी शैशवावस्था में झूलता रहा ।सन 1915 का समय अवश्य एक बदलता हुआ समय था ।जब पार्क ने अपने निबंध को एक छोटी पुस्तक ‘दी सिटी’ के रूप में प्रकाशित कराया ।इस कराय में वर्गस ने पार्क को बहुत सहयोग दिया ।
इसी समय में बर्गस ने ‘ दी अरबन कम्युनिटो’ नाम की रचना प्रकाशित करा कर नगरीय समाजशास्त्र के उत्तोतर विकास की गति को एक निर्धारित दिशा प्रदान की ।इस प्रकार सर्वप्रथम सन 1929 में नगरीय समाजशास्त्र की प्रथम पाठ्य पुस्तक प्रकाशित हो गयी ।यह अमेरिका की पहली रचना थी ।इससे नगरीय समाजशास्त्र पूर्ण व्यवस्थित और समाजशास्त्र की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है ।आज नगरीय समाजशास्त्र, एक नगर विज्ञान के रूप में प्रस्फुटित हो चूका है ।यधपि इस विज्ञान के विकास में नगरशाश्त्रीयों, अर्थशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, राज्य सरकारों, प्रशासकों एवं समाजकार्य वैज्ञानिकों को ही श्रेय देना होगा ।इनके सहयोग से ही यह नवीन विज्ञान न केवल अमेरिका में ही बल्कि अब तो भारतीय विश्विधालयों में भी पठन-पाठन का प्रचलित विषय बन गया है ।इतना ही नहीं, नगरीय समाजशास्त्रियों के अथक प्रयत्न इस संदर्भ में उल्लेखनीय स्थान रखते हैं ।इनके प्रमाणिक अध्ययनों के प्रभावस्वरूप ही यह न्यायशास्त्र, अपराधशास्त्र, औषधिशास्त्र, स्वाथ्य विज्ञान, भवन-निर्माण विज्ञान, आयोजन विज्ञान तथा मनोरंजन शास्त्रों से भी प्रमुख संदर्भ अध्ययन के रूप में अविस्थापित हुआ है ।
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त से नगरीय समाजशास्त्र के विकास की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है ।अब तक यहां यह धारणा प्रचलित रही है कि भारत ग्रामीण देश है ।इसलिए ग्रामों के विज्ञान पर बल दिया जाना चाहिए ।लेकिन औधोगिकीकरण एवं नगरीकरण की द्रुतगति प्रक्रियाओं ने यहां के विचारकों को बाध्य कर दिया है कि वे नगर और नगरीय जीवन के सम्बन्ध में भी अपना ध्यान आकर्षित करें ।इसके परिणामस्वरूप न केवल नगर तथा नगरीय समाजशास्त्र के अध्ययन पर ही अब बल नहीं दिया जा रहा है, बल्कि नगर सामुदायिक योजना तथा अन्य नगरीय समस्याओं के निवारण हेतु नगरीय समाजशास्त्र का प्रायोगिक महत्त्व बढ़ गया है ।वह समय दूर नहीं जब भारत के प्रत्येक विश्विधालय एवं अनुसंधान संस्थाओं में ग्रामीण समाजशास्त्र के समान नगरीय समाजशास्त्र भी महत्त्व का विषय बन जायेगा ।
भारत में नगरीय समाजशास्त्र की प्रगति – भारत में नगरीय समाजशास्त्र अभी अपने शैशवावस्था में हैं ।एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में इस शास्त्र का विकास यहां अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है ।लेकिन इतना अवश्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त ये भारत में इस दिशा में जिज्ञासाएं तथा क्षेत्रीय कार्यों की दृष्टि में उत्साह विकसित हो गया है ।भारत में नगरीय जीवन के भिन्न-भिन्न महत्वपूर्ण पक्षों कर सर्वेक्षण कार्य गत वर्षो से तीव्रगति पर है ।भारत में नगर इकाइयों में कुछ सर्वेक्षण कार्य हुए हैं ।इन सर्वेक्षण कार्य हुए हैं ।इन सर्वेस्क्षणों को नगर, जिला प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया गया है ।इस दृष्टि से सर्प्रथम डॉ.वी.के.आर.वी.राव के सद्प्रयतनों से हुए दिल्ली के समीप क्षेत्रों में जैसे फरीदाबाद, निलोखेरी तथा राजपुरा के अध्ययन उल्लेखनीय स्थान रखते हैं ।सन 1995 के बाद इस दृष्टि से नगर स्तर के समाजिक –आर्थिक सर्वेक्षण हुए इनमें आगरा, इलाहबाद, अलीगढ़, अमृतसर, बडौदा, भोपाल, हुबली, जयपुर, जमशेदपुर, कानपुर, लखनऊ, मद्रास , पूना, सूरत और विशाखापत्तनम आदि अध्ययन उल्लेखनीय स्थान रखते हैं ।इन अध्ययनों में से अधिकाशत: अध्ययनों का आयोजन भारत के योजना आयोग की देख रेख में किया जाता है ।
नगर स्तर के इन सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षणों में गोखले इंस्टिट्यूट, ‘पूना का “पूना – पुन: सर्वेक्षण का प्रमुख स्थान है ।यह अध्ययन डॉ० डी० आर० गाडगिल के नेतृत्व में किया गया है ।द्वितीय स्थान पर मद्रास, बम्बई, कलकत्ता और दिल्ली नगर क्षेत्र के सर्वेक्षण उल्लेखनीय स्थान रखते हैं ।इसी प्रकार महुआ (महाराष्ट्र) नामक डॉ.आई०पी०देसाई का कार्य प्रधानता रखता है ।इसी दृष्टि से फोर्ड फाउंडेशन की सहायता से “हैदराबाद मैट्रोपोलिटन रिसर्च प्रोजेक्ट “, ओसमानिया युनिवर्सिटी द्वरा किया गया है, हैदराबाद का सर्वेक्षण भी इसी श्रेणी में आता है ।रास का, हिन्दू फैमिली इन अरबन सेटिंग’ नामक अध्ययन इस दिशा में एक अच्छा प्रयास माना जा सकता है ।इसी प्रकार दक्षिणी भारतीय उच्च तथा मध्यम श्रेणी के नगरीय परिवारों का वैज्ञानिक विश्लेषण डॉ,घूरिये द्वारा प्रस्त्तुत किया गया है ।यूनेस्को रिसर्च सेंटर’ द्वारा भी भारत में प्रमुख क्षेत्रों के सर्वेक्षण के अध्ययन आयोजित किये गये हैं ।इस भांति भारत में नगर स्तर के सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षणों का आयोजन स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत से विशेष उत्साह से हुआ है ।इन सर्वेक्षणों को नगरीय समाजशास्त्र नहीं कह सकते हैं ।ये सर्वेक्षण आंशिक हैं तथापि नगरीय समाजशास्त्र की विषय-समाग्री के निर्माण में योग प्रदान करते हैं ।यह प्रसन्नता है कि भारत में शोध संस्थानों, विश्विधालययों और विदेशी एजेंसियां के कार्य महत्वपूर्ण हैं ।इन सर्वेक्षणों से नगरीय समाजशास्त्र को प्राथमिक तथ्य प्राप्त होते हैं ।
भारत में नगर सम्बन्धी सर्वेक्षणों के विकास के क्षेत्र में नेशनल सैम्पल सर्वे नामक संगठन का कार्य भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय स्थान रखता है ।भारत सरकार ने 1950-51 में इस विभाग की स्थापना की थी ।इस विभाग द्वारा नगरीय सामाजिक स्तरण के सम्बंधित आंकड़े एकत्रित किये गये हैं ।सम्पूर्ण भारत के नगरीय क्षेत्रों को इस भांति 94 खण्डों में विभाजित करके तीन व चार सामाजिक स्तरणओं की ख़ोज की गयी है ।इस भांति नेशनल सैम्पल सर्वे योजना के अंतर्गत नगरीय जीवन से सम्बंधित व्यापक आंकड़े एकत्रित किये गए हैं ।इस दृष्टि से नगरों की श्रम शक्ति , पारिवारिक व्यय, तालिकाएँ, नगरों में बेकारी के अनुपात आदि विषयों से सम्बंधित आंकडें उपयोगी माने जा सकते हैं ।
भारत में नगर जीवन तथा नगरीयता से सम्बंधित आंकडें एकत्रित करने हेतु आयोजित सर्वेक्षणओं में जनसंख्या तथ्य एकत्रित किये गये हैं ।इस सर्वेक्षण में ग्रामीण अध्ययनों का क्रम अभी भी निरंतर जारी है ।दिल्ली के नेशनल इकोनोमिक रिसर्च कौन्सिल द्वारा भी कुछ नगरीय सर्वेक्षण किये गए हैं ।इसी संदर्भ में ऑल इंडिया अरबन हाउसहोल्ड सेविंग्स सर्वे का भी नाम उल्लेखनीय हैं ।भारत में कुछ प्रादेशिक स्तर के अध्ययन भी हुए हैं ।इस दृष्टि से भिलाई, भाकरा नंगल, हीराकुंड, दामोदर घाटी , खड़गपुर , आदि प्रादेशिक स्तर के सर्वेक्षण महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।‘दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क’ तथा अखिल भारतीय नैतिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य संघ द्वारा आयोजित भिक्षावृति संबंधी सर्वेस्क्षण भी उल्लेखनीय स्थान रखते हैं ।
इस भांति हम देखते हैं कि भारत के नगरीय समाजशास्त्र के क्षेत्र में अभी तक पठन-पाठन संबंधी अवधारणात्मक प्रकाशन प्रकाशित नहीं हुए हैं ।यधपि सार्भौमिक रूप से नगरीय जीवन पर प्रकाश डालने वाल अध्ययन हुए हैं ।नगरीय समाजशास्त्र में विभिन्न दिशाएँ विकसित की जा सकती हैं, जैसे ‘नगरीयता – एक जीवन के क्रम के रूप में’ ।इस दृष्टि से अभी तक भारतीय स्तर पर कार्य नहीं हुए हैं ।नगरीय परिस्थिति और नगर क्षेत्रों के अध्ययन की दृष्टि से भी बड़े व्यापक एवं सार्वभौमिक सैद्धांतिक प्रतिस्थापना की दृष्टि से इस क्षेत्र से अत्यधिक कार्य होना शेष है ।
भारतीय स्तर पर नगरीयकरण के प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि निकट भविष्य में नगरीयता का व्यापक विकास होगा ।इस दृष्टि से महानगरों और विराटनगरों, औधोघिक नगरों तथा पूर्व औद्योगिकनगरों का अध्ययन करने की प्रबल आवश्यकता है ।भारत में विकसित नगरीय समस्याओं जैसे – व्यवसायिक, मनोरंजन, यातायात एवं संदेशवाहन की दृष्टि से भी व्यैक्तिक विषय अध्ययन होना आवशयक है ।नगर आयोजन की दृष्टि से भी व्यापक अध्ययनों की भारत में आज प्रबल आवश्यकता है ।
सामाजिक संरचना प्रमुख समाजशास्त्री प्रतिपाध विषय हैं ।नगरीय सामाजिक संरचना की अपनी विशिष्ट प्रक्रति है ।नगरीय सामाजिक संरचना से भिन्न है ।परन्तु जैसा कि हम पहले भी लिख चुके हैं कि यह भिन्नता हमें ध्रुवीय उदाहरणों में ही मिलती है ।इसी आधार पर हमने गत अध्याय में ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में भिन्नताओं का उल्लेख करने का प्रयास किया है ।सामाजिक संरंचना का विश्लेषण करने की दृष्टि से विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाये हैं ।मर्टन ने समाज विशेष में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति एवं कार्यों के आधार पर इस विश्लेषण का सुझाव देते हैं ।हम भी यहां नगरीय समाज की प्रमुख संस्थाओं का विवेचन करके नगरीय सामाजिक संरचना का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे ।हम प्रमुखत: परिवार, वर्ग व्यवस्था, मनोरंजन की संस्थाओं एवं नगरीय सरकार पर विचार करेंगे ।प्रथम हम नगरीय परिवार की व्याख्या कनरे का यत्न करेंगे ।परन्तु पूर्व इसके हम नगरीय सामाजिक संरचना की सामान्य विशेषताओं का यहां उल्लेख करना आवश्यक समझते है ।
नगरीय सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं - नगरीय समाज की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –
नगरीय परिवार की विशेषताएं – नगरीय परिवार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
नगरीय सामाजिक संरचना में यधपि परिवार पितृसत्तात्मक होते हैं परन्तु नगरों में पितृसत्तात्मक के ये अधिकार अति न्यून रह गये हैं ।उसके समस्त अधिकार छिन गये हैं ।पिता परिवार के वैधानिक मुखिया है ।उसकी तुलना इंग्लैंड के राजा से की जा सकती है ।नगरीय परिवार का मुखिया वैधानिक अधिकारी है न कि निरंकुश पितृसत्ता का ।आधुनिक कानूनों के अनुसार स्त्रियों तथा बच्चों को अनके अधिकार प्राप्त हो गये हैं ।बच्चों पर माता तथा पिता दोनों का समान अधिकार होता है ।स्त्रियों की सामाजिक स्थिति ऊँची होती जा रही है ।पुरुष तथा स्त्री की स्थिति परिवार में समान होती है ।समसत्तात्मक परिवार नगरों में पाये जाते हैं ।बच्चो की शक्ति भी बढ़ती जा रही है ।माउरर ने उचित ही लिखा है , “वास्तव में परिस्थितियों में प्रबलता प्राप्त करने की ओर धयान देते हैं जिसमें बच्चा की नीति को निश्चित करती है ।अत: झुकाव सन्तानात्मक परिवार की ओर है जिसमें बच्चा प्रबल कार्य करता है “ यदि बच्चों की शक्ति इसी प्रकार बढ़ती जा रही है तो शीघ्र ही नगरीय परिवार सन्तानात्मक परिवार हो जायेगा ।
नगरीय परिवार में कृषि का कार्य न होने के कारण अधिक सदस्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती ।अन्य आर्थिक कारक भी परिवार के आकार को छोटा रखते हैं ।प्राकृतिक रूप से भी नगरीय परिवार बड़ा नहीं हो पाता है क्योंकि यहां सन्तान निरोध के अनके साधन उपलब्ध हैं ।इन कारकों के फलस्वरूप नगरीय परिवार आकार की दृष्टि से बहुत छोटा है ।नगरीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियाँ भी छोटे परिवार के प्रोत्साहित करती है ।
इसके विपरीत पत्नी पारिवारिक दायरे में अपने आपको अपने पति से उच्चतर नहीं हो पूर्णत: समान अवश्य समझती है ।वह पारिवारिक समूह के भाग्य को सहानभूतिपूर्वक नियंत्रित करती है लेकिन अल्प प्रतिज्ञ व्यक्ति की तरह नहीं ।वह दास वृत्ति करने वाली गुलाम नहीं हैं ।जहां तक बच्चों का प्रश्न है पिता से अधिक उसकी (माता की) आज्ञाओं पर धयान दिया जाता है ।स्पष्ट है कि पिरवार में स्त्रियों ने आर्थिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक तथा राजनैतिक शक्ति को भी प्राप्त किया है ।इसके फलस्वरूप परिवार में उनकी स्थिति उच्च है ।
नगरों में परिवार संस्था में विघटन के लक्षण प्रतीत होते हैं ।प्रसिद्ध समाजशास्त्री जिम्मर मेन ने अपनी पुस्तक क्रईसेस इन अमेरिकन फैमली में इस दृष्टि से व्यापक रूप में प्रकाश डाला है ।नगरों में परिवार संस्था का ग्रामों से मौलिक रूप नहीं पाया जाता ।भारतीय नगरीय संरचना में भी विघटन के कगार पर खड़ी है ।इस संस्था में आज अनेक समस्याएं परिव्याप्त हो गई हैं ।
नगरीय परिवार की समस्यायें :
(i) पारिवारिक तनाव – नगरीय परिवार की सबसे बड़ी समस्या पति और पत्नी का सम्बन्ध है ।प्राचीन युग एवं आधुनिक युग में संघर्ष चल रहा है ।पति अपने को ऊंचा समझता है और पत्नी आपके को निम्न ।पूर्वकाल में स्त्री का कोई महत्त्व नहीं था ।वह बिना पढ़ी-लिखी एवं हर दृष्टिकोण से पति पर निर्भर थी ।जब वह पूर्ण स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर होती जा रही है ।यधपि सिद्धांत कर लिया गया है फिर भी एक-दुसरे के अधिकारों एवं कर्तव्यों की व्याख्या नहीं हो पायी है ।नगरों में पारिवारिक तनावों की संख्या अधिक पाई जाती है ।बच्चों में भी अनुशासनहीनता है ।
(ii) विवाह-विच्छेद – नगरीय परिवार की दूसरी प्रमुख समस्या विवाह विच्छेद का विकास होना है ।विवाह का आधार पवित्र समझौता न होकर वैज्ञानिक समझौता हो गया है ।जिसे चाहे जब तोडा जा सकता है ।विवाह का उदेश्य जीवन के कार्यों कि पूर्ति न होकर सुख, आनंद एवं भोग विलास की संतुष्टि हो गया है ।दोनों को आपस में बांधने से बंधन समाप्त हो गये हैं ।
(iii) माता-पिता व संतानों का संघर्ष – माता पिता एवं इनके बच्चे का संघर्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ।परिवार के साथ में कोई भी ऐसी शक्तियाँ नहीं हैं जिनके द्वारा माता पिता बच्चों पर नियंत्रण कर सकें ।परिवार के संरक्षकों व युवा संतानों में परस्पर मूल्यों का संघर्ष विकसित है ।युवाओं में अनुशासनहीनता बढ़ गई है ।
(iv) संतानों के पालन-पोषण की समस्याएं – पति और पत्नी दोनों ही घर के बाहर कार्य करने जाते हैं ।इसके कारण बच्चों के पालन-पोषण की समस्या बढ़ती जा रही है ।माता केवल घर की चाहदीवारी में न रह कर समाज के अन्य कार्यों एवं उत्सवों में भाग लेती है, इसके कारण वह बच्चों की देखभाल नहीं कर पति ।यधपि दूसरी व्यवस्थाएं की गई हैं, परन्तु वे संतोषजनक फल नहीं पा रही हैं ।
(v) सुरक्षा पर अभाव – पहले पति-पत्नी का सम्बन्ध स्थायी होता था और उसके कारण परिवार के सदस्यों में सुरक्षा की भावना रहती थी ।नगरीय पिरवार में इस भावना का लोप है क्योंकि दोनों को ही सदैव यह डर बना रहता है कि जाने कब दूसरा साथी मुझे छोड़ दे ।आपत्तिकाल में ऐसा अधिकांश रूप में देखा गया है कि किसी –न-किसी बहाने विवाह-विच्छेद हो जाता है ।
(vi) पारस्परिक विश्वास की कमी – पारस्परिक विश्वास की अत्यधिक कमी पायी जाती है ।एक दुसरे पर कोई विश्वास नहीं करता ।यह परिवार न होकर एक सयुंक्त समिति कंपनी हो गयी है ।
(vii) न्यून जन्म दर – जन्म दर दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है ।ऐसे बहुत से परिवार पाये जाते हैं, जिनसे बच्चे ही नहीं होते ।इसके कारण राष्ट्र की जनसंख्या को कम होती ही है साथ-ही-साथ परिवार अस्थायी होता जाता है ।बच्चों के कारण पति और पत्नी बंधन में बंध जाते हैं ।जिन परिवारों में बच्चे होते हैं उनमें विवाह विच्छेद कम होता है ।
क्या नगरों में पुरानी परम्परा के अनुसार परिवार रह सकता है ? – भारतीय नगरों में पुरानी परम्परा के अनुसार परिवारों का रह पाना बड़ा कठिन है क्योंकि आधुनिक समय में तीव्र एवं मौलिक परिवर्तन हो रहे हैं ।पुरानी परम्परा कृषि समाज के अनुसार है ।नगरीय परम्परा में और ग्रामीण परम्परा में परस्पर गहरा विरोध है ।स्वाभाविक है कि औधोगिकी और नगरीय समाजों में परिवार के नये प्रतिमान विकसित होंगे ।कोई भी संस्था क्यों न हो, संस्था का प्रमुख उदेश्य मानव आवश्यताओं की पूर्ति करना है ।जो संस्थाएं किसी समय में मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होते हैं, वे शैने:-शैने: समाप्त हो जाती है ।पुरानी परम्परा के परिवार आधुनिक समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते हैं, इसलिए वे बने भी नहीं रह सकते हैं ।नगरों में परम्परागत परिवार के मौलिक कार्य करने वाली अनेक संस्थाओं का प्रचलन है ।इससे परिवार की कोई विशेष आवश्यकता अनुभव नहीं होती ।विशेष रूप से भारतीय नगरों में आज संयुक्त परिवार का तो कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता ।
संयुक्त परिवार के दोष – समय के साथ-साथ संयुक्त परिवार तथा सामाजिक जीवन पिरवर्तित होता गया ।संयुक्त परिवार में अनके दोष उत्पन्न होते गये तथा वह समय की गति के साथ-साथ पग मिला न सका ।संयुक्त परिवार प्रथा के निम्न प्रमुख दोष हैं :
संयुक्त परिवार के उपरोक्त दोषों के अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं जो इसे विघटित कर रहे हैं ।अब हम उन कारकों पर प्रकाश डालेंगे ।
नगरों में संयुक्त परिवार को विघटित करने वाले कारक
डॉ कपाडिया तथा डॉ देसाई दोनों ने ही यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि संयुक्त परिवार अभी भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं तथा एकांकी परिवार की पवृति अधिक नहीं है ।डॉ कपाडिया ने लिखा है , “इस प्रकार आज भी हिन्दू भावनाएं संयुक्त परिवार के पक्ष में हैं।” इन विद्वान समाजशास्त्रियों ने निष्कर्ष की प्रवृति से मेरा विनम्र मतभेद है ।” जहां तक डॉ देसाई द्वारा संयुक्त परिवार की परिभाषा का आधार परम्प्रात्मक लक्षणों के स्थान पर नवीन लक्षणों का है, वह एक सराहनीय तथ्य है ।उन्होंने इस पक्ष पर बल देकर संयुक्त परिवार के वास्तविक स्वरुप को स्पस्ट कर दिया है ।वास्तव में केवल परिवारों के पृथक रहने या भोजन करने इत्यादि से ही उन्हें एकांकी परिवार नहीं समझ लेना चाहिए ।इस पर भी यह निश्चित है कि संयुक्त परिवारों की संख्या में दिन-प्रतिदिन हास्र होता जा रहा है तथा एकांकी परिवारों की संख्या में वृधि होती जा रही है ।यह कहना उचित नहीं होगा होता कि एकांकी परिवारों की संख्या में वृधि हैं ।अन्यत्र इन दोनों ही लेखकों ने अप्रत्यक्ष रूप से इस तथ्य को स्वीकार किया है ।भारत के जनगणना आयुक्त के अनुसार एकांकी परिवार ग्रामों में 33 प्रतिशत तथा नगरों में 38 प्रतिशत पाये जाते हैं ।डॉ देसाई द्वारा निर्मित कठोर कसौटियों पर चढ़ने के उपरान्त उनके अध्ययन में 28 प्रतिशत परिवार एकांकी पाये गये ।भविष्य की गति इंगित करने के लिए परम्परा से इतना अंतर पर्याप्त है ।इसके लिए तथ्यों के होते हुए तर्क की आवश्यकता नहीं है ।डॉ कपाडिया ने भी लिखा है, “इन दोनों अन्वेषणों के परिणाम यह स्पष्ट करते हैं कि पिछले 20 वर्षों में स्न्तातकों का संयुक्त परिवार में रहना लगभग 5 प्रतिशत कम हो गया है ।परन्तु संयुक्त परिवार में रहने की इच्छा अत्यधिक बढ़ गयी है ।जो संयुक्त परिवार में रहना चाहते हैं उनकी संख्य दुगुनी हो गयी है तथा इसके विरोधियों की आधी रह गयी है ।
“परिवार की तुलना समाजशास्त्रिय अध्ययन” का अर्थ है कि परिवार का विभिन्न संस्कृतियों, समुदायों, क्षेत्रों आदि में पाये जाने वाले प्रतिमानों की तुलना की जाये ।यह बहुत ही अधिक व्यापक विषय एवं कार्य है ।
यहां हम ग्रामीण परिवार और नगरीय परिवार की तुलना करेंगे ।ग्रामीण परिवार परम्परात्मक परिवार होते हैं और नगरीय परिवार आधुनिक परिवार होते हैं ।अत: परम्परात्कम परिवार और आधुनिक परिवार की तुलना भी इससे स्पष्ट हो जायेगी ।
ग्रामीण परिवार और नगरिय परिवार की तुलना :
संचार सम्बन्धी :
(i) स्थायित्व : ग्रामीण परिवार की संरचना अधिक स्थायी एवं संगठित होती है, परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से नगरीय परिवार की संरचना उतनी स्थायी एवं संगठित नहीं होती हैं ।अस्थायित्व नगरीयवाद का अभिशाप है ।
(ii) आकार – ग्रामीण परिवारों का आकार नगरीय परिवारों की तुलना में बड़ा होता है ।ग्रामों में कृषि के व्यवसाय के कारण बढ़े परिवार की आवश्यकता भी रहती है ।नगरीय परिवार का आकार लघू होता है और प्राय: यह मूल परिवार ही होती है, जिसमें पति, पत्नी और उनके बच्चे होते हैं ।जन्मदर भी ग्रामीण परिवारों की अधिक होती है, नगरीय परिवार के व्यक्ति अधिक बच्चे पसंद भी नहीं करते हैं ।
(iii) स्वरुप – ग्रामीण परिवार अभी अधिकांशत: विस्तृत परिवार अथवा संयुक्त परिवार होते हैं ।नगरीय परिवर अधिकांशत: एकांकी परिवार होते हैं ।
(iv) सामंजस्य – ग्रामीण परिवारों में अत्यधिक सामंजस्य पाया जाता है तथा पारिवारिक बन्धन अत्यंत शक्तिशाली होते हैं ।नगरीय परिवार में अपेक्षाकृत अति न्यून सामंजस्य पाया जाता है ।सदस्य अपनी खिचड़ी पकाते हैं ।
(v) मुखिया की सत्ता – ग्रामीण परिवार के मुखिया की सत्ता अपरिमित होती है ।वह ग्रामीण परिवारों का एकमात्र शासक होता है ।नगरीय परिवारों में मुखिया की सत्ता अधिक नहीं होती, कई बार तो बिल्कुल ही नहीं होती है ।
(vi) सामान्य जीवन – ग्रामीण परिवार में सामान्य जीवन की प्रमुखता पायी जाती है ।माता-पिता, बच्चे तथा अन्य संबंधी अधिकतर साथ-साथ कार्य करते हैं ।उनमें अत्यधिक सहयोग की भावना पायी जाती है ।नगरीय परिवारों में मान्य पारिवारिक जीवन का अभाव पाया जाता है ।परिवार के सदस्य अधिकांश समय घर के बाहर बीतते हैं तथा बहुत कम समय के लिए साथ-साथ रहते हैं ।डॉक्टर देसाई ने उचित ही लिखा है. “अत: नगरीय परिवार के सदस्यों के लिए घर केवल एक अस्थायी रात्रि का डेरा मात्र रह जाता है ।”
(vii) पारिवारिक महत्त्व – ग्रामीण परिवार एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है तथा उसे ग्रामीण समाज का मूल आधार कहा जा सकता है ।नगरीय परिवार इतना महत्वपूर्ण नहीं है ।उसके सदस्य परिवार को त्याग कर भी सरलता से आन्दमय जीवनयापन कर सकते हैं ।
(viii) अन्योन्याश्रितता – ग्रामीण परिवारों में सदस्य एक दुसरे पर अत्यधिक मात्रा में अन्योन्याश्रित होते हैं ।वे एक-दुसरे के सहयोग के बिना जीवन नहीं चला सकते ।नगरीय परिवार में इतनी अधिक अन्योन्याश्रितता नहीं पायी जाती है ।नगरीय परिवार के सदस्य अधिक स्वतंत्र होते हैं ।
(ix) अनुशासन – ग्रामीण परिवार के सदस्य अधिक अनुशासित होते हैं ।वे परिवार के मुखिया एवं अन्य प्रमुख सदस्यों का अत्यधिक आदर करते हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं ।नगरीय परिवार के सदस्य अपेक्षाकृत कम अनुशासित होते हैं ।वे परिवार के मुखिया को अधिक महत्त्व नहीं देते तथा अपने स्वतंत्र विचार रखते हैं एवं स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं ।
(x) सामाजिक नियंत्रण – ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों पर अत्याधिक सामाजिक नियंत्रण रखते हैं ।छोटा समुदाय होने के कारण कोई भी बात छिपी नहीं रह सकती ।इसके कारण परिवार का नियंत्रण अधिक रहता है ।नगरीय परिवार सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से पूर्णरूपेण असफल रहा है ।
(xi) सामाजिक संरचना में परिवार का महत्त्व – ग्रामीण परिवार का सामाजिक संरचना में अत्यधिक महत्त्व है ।ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवार ने सदैव ही महत्वपूर्ण स्थान रखा है ।ग्रामीण समाजिक संरचना ग्रामीण परिवार का सत्य प्रतिरूप है ।सिम्स ने लिखा है, “निश्चय ही यह (ग्रामीण परिवार) उसकी (ग्रामीण सामाजिक संरचना) सदैव से ही प्रमुख संस्था रही है, जो व्यक्ति को स्थिति प्रदान करती रही है तथा सामाजिक संरचना पर छाया रहता है और उसकी छाप हर संस्था पर स्पष्ट लक्षित होती है ।ग्रामीण समाज को ही परिवारात्मक समाज कहा गया है । नगरीय परिवार का महत्त्व समाजिक संरचना में उतना अधिक नहीं है ।नगरीय परिवार नगरीय सामाजिक संरचना की एक साधारण संस्था है ।नगरीय परिवार का अधिक प्रभाव नगरीय सामजिक संरचना पर नहीं पड़ता है ।
कार्य – ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों के कार्यों में भी बहुत से अंतर हैं जो प्रमुख रूप से निम्न हैं :
(i) प्रानिशास्त्रीय कार्य - प्रानिशास्त्रीय कार्य निम्न हैं –
(अ) संतानोत्पत्ति, (ब) यौन-सम्बन्धों की संतुष्टि, (स) बच्चों का पालन-पोषण, (द) स्थान की व्यवस्था (य) भोजन एवं वस्त्र की व्यवस्था और (र) सदस्यों की शारीरिक रक्षा ।(अ) से लेकर (य) तक के कार्य तो ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही करते हैं कहीं-कहीं अंशों का अंतर है ।
सदस्यों की शारीरिक रक्षा का कार्य ग्रामीण परिवार को विशेष को विशेष रूप से करना पड़ता है और यह उसका विशेष उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्य समझा जाता है ।ग्रामों में शक्तिशाली परिवार के आधार पर ही शरीर की रक्षा की जा सकती है ।
(ii) आर्थिक कार्य – ग्रामीण परिवार अभी भी आर्थिक क्रियाओं के केंद्र है ।ग्रामीण परिवार का कार्य उत्पादन करना, वस्तुओं को बिक्री के योग्य बनाना, उनका विक्रय करना आदि सभी हैं ।नगरीय परिवार आर्थिक क्रियाओं का केंद्र नहीं रहा है वह तो केवल उपभोग का केंद्र रह गया है ।
(iii) सामाजिक कार्य :
(अ) सामाजिक स्थिति का निर्धारण – ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों की समाजिक स्थिति निर्धारण करता है ।ग्रामीण समाज में व्यक्ति की सामाजिकता स्थिति के निर्धारण में परिवार का आधार सबे प्रमुख है ।चुनावों एवं राजनितिक व सामाजिक नेतृत्व में भी पिरवार का आधार बहुत महत्वपूर्ण रहता है ।नगरीय परिवार का महत्त्व सामाजिक स्थिति के निर्धारण में अब उतना नहीं है ।व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति अर्जित करता है ।नगरों में व्यक्ति के गुणों एवं कार्यों का महत्व है न कि उसके परिवार का ।
(आ) सामाजिक नियंत्रण : ग्रामीण परिवार नगरीय परिवार की तुलना में सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से अधिक महत्वूपर्ण है ।
(इ) धार्मिक कार्य : धार्मिक कार्यों का प्रतिपादन ग्रामीण परिवारों में अधिक होता है ।नगरीय परिवार धार्मिक कार्यों के प्रति उदासीन हैं ।
आवास की समस्या ने नयी गंदी बस्तियों के स्थापित होने में सहायता की है ।असंख्य जर्जर मकानों में असंख्य निर्धन व्यक्ति रहने लगे हैं जिनने गंदी बस्ती का रूप धारण कर लिया है ।इस तरह नयी गंदी बस्तियाँ स्थापित होती जा रही हैं और पुरानी गंदी बस्तियों के निर्धन इसलिए नहीं छोड़ते कि इससे सस्ता घर नगर में कहीं उपलब्ध नहीं होता है ।एशिया और दक्षिणी अफ्रीका की स्थिति तो यह है कि गंदी बस्तियों के घर व्यक्ति उन चीजों से बनाता है जिसे लोग कूड़ा-कचरा समझकर फेंक देते हैं ।भरते में ऐसी गंदी बस्तियों की उत्पत्ती के लिए कोई निश्चित पर्यावरण निर्धारित करना कठिन है ।यह कहीं भी विकसित हो सकती है ।फिलिपाइन्स में दलदली क्षेत्रों में, छोटे-छोटे पहाड़ी क्षेत्रों में और युद्ध में जो नष्ट हो गए थे वहां गंदी बस्तियाँ स्थापित हो गयी हैं ।लैटिन अमेरिका में छोटे-छोटे पहाड़ों की ढलानों पर गंदी बस्तियाँ हैं ।कराँची में कब्रिस्तान और सड़क के किनारे इन्हें देखा जा सकता है ।भारत में भी इसे इस रूप में देखा जा सकता है ।अहमदाबाद, कानपुर, नागपुर, कलकत्ता, बम्बई, मद्रास में एक कमरे की अंधेरी कोठरियों की गंदी बस्तियों की संख्या अधिक है ।
अध्ययन के उदेश्य – प्रस्तुत अध्ययन के निम्नलिखित उदेश्य हैं :
अध्ययन क्षेत्र गया शहर का संक्षिप्त परिचय – गया शहर भारतवर्ष के पूर्वी भाग में बिहार राज्य के अंतर्गत अवस्थित है ।भौगोलिक दृष्टि से उत्तर में गंगा की समतल भूमि तथा दक्षिणी में छोटानागपुर के पठार के मध्य में है ।सांस्कृतिक संक्रमण की दृष्टि से, यह एक महत्वूर्ण स्थान है ।इसके उत्तर तथा पूर्व में मगध का प्राचीन राज्य, जहां हिन्दू तथा बौद्ध धर्म का अधिपत्य था है ।इसके दक्षिणी और दक्षिणी-पश्चिम में, शहर से केवल दस मिल की दूरी पर से ही, छोटा नागपुर का पठार आरंभ होता है, जहां भिन्न-भिन्न आदि जातियां वास करती हैं ।
गया नगरपालिका के अभिलेख के आनुसार इस शहर का क्षेत्रफल लगभग सत्रह वर्गमील है ।नगरपालिका के अभिलेख से यह भी मालूम होता है की 1931 ई० इस शहर का क्षेत्रफल केवल छ: वर्गमील था, जो आगे चलकर मालूम साढ़े आठ वर्गमील और 1950 ई० में लगभग पौने बारह वर्गमील हो गया ।भारतीय जनगणना से हमें यह भी विदित होता है कि इसकी जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृधि होती गई है ।1931 में इसकी जनसंख्या कुल 88,005 थी, जो 1941 में 105,223, 1951 में 1,33,700 तथा 1991 में 335,895 हो गई ।गत कुछ दशकों में इसके क्षेत्रफल तथा जनसंख्या में जो वृधि हुई है, उसके कारण हैं, उधोग तथा व्यापार में वृधि रेलमार्ग की विकास, प्रशासन एवं अगस्त 1947 में देश की विभाजन के फलस्वरूप बंगाल तथा पंजाब से शरणार्थियों का आगमन ।
शहर के क्षेत्र, धार्मिक एवं लौकिक – कार्य-व्यापार तथा सांस्कृतिक महत्ता की दृष्टि से गया शहर सहज ही दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – धार्मिक एवं लौकिक ।धार्मिक क्षेत्र शहर के दक्षिणी भाग में तीन वर्गमील से भी अधिक फैला हुआ है ।यहां बहुत से तीर्थस्थान पुराने बाजार तथा गयावाल पुरारियों, ब्राहमण कर्मकांडियों और धार्मिक कार्यकलापों ने संबध रखने वाले अन्य व्यक्तियों के मकान विधमान हैं ।लौकिक क्षेत्रों से इसकी भिन्नता दिखलाने के लिए इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है ।लौकिक क्षेत्रों से इसकी भिन्नता दिखलाने के लिए इसे “अंदर गया” अथवा “पुरानी गया” कहकर पुकारते हैं ।संभवत: ये नाम इस क्षेत्र की प्राचीनता की ओर दंगित करते हैं, जो संकरी गलियों, सड़कों, मंदिरों , पुजारियों के मकानों की प्राचीन भव्य कारीगरी एवं एक ही स्थल में प्राचीन तीर्थ स्थानों के जमघट और विशेषत: इस क्षेत्र में पाये जाने वाले अधिवास के समान्य प्रकारों से स्पष्ट है ।बाहर से आनेवाले यात्री इसे “गयाजी” (पूज्य गया) कहते हैं, जो इस स्थान के प्रति उनके आदर की भावना का प्रतिक है ।संभवत: प्राचीनकाल में इस धार्मिक क्षेत्र का केवल यही एक नाम था, जिससे सम्पूर्ण भारत के लोग भिज्ञ थे ।परन्तु आजलक वह नाम सिर्फ गया नगरपालिका के अंतर्गत आने वाले भू-भाग के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है ।
लौकिक क्षेत्र, जिसका विकास मुसलमान तथा ब्रिटिश शासनकालों में हुआ, अभी हाल तक भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता था ।मुस्लमान लोग इसे “अलाहाबाद” कहकर पुकारते थे ।अभी तक यह प्रबल मुसलमान मुहल्ला है, यधपि बहुत से अन्य मुसलमान मुहल्ले यत्र-तत्र बस गए हैं, जो भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं ।अंग्रेजों के शासनकाल में इस क्षेत्र का और भी विकास हुआ ।श्रीमान ली जो 18वीं शताब्दी के उतरार्ध में, यहां के जिला पदाधिकारी थे, विधिवत इसका नाम साहेबगंज(प्रशासकों का निवास स्थान) रखा ।बुचानन (1911-12) ने गया की भूमि को नापा और लिखा कि साहेबगंज तथा गया दो भिन्न शहर है, जो रुपना नामक एक खुले मैदान से पृथक किया गया है ।इस मैदान में आजकल रहने के मकान तथा तीर्थस्थान बन गए हैं ।फिर भी, अब तक यह अपने प्राचीन नाम से पुकारा जाता है ।रुपना जो पुरानी गया के उपांत पर अवस्थित है, धार्मिक (पुरानी गया) तथा लौकिक (साहेबगंज) क्षेत्र वर्त्तमान गया नगरपालिका के अंतर्गत मिलता है ।गत अनेक शताब्दियों में गया लौकिक क्षेत्र का , प्रशासन, शिक्षा, व्यापार, उधोग तथा आवागमन की दृष्टियों से , अत्यधिक विकास एवं वर्धन हुआ है और सभी व्यवहारिक कार्यों के लिए यह एक सांस्कृतिक वैभिन्य का क्षेत्र बन गया है ।गया शहर का एक महत्वपूर्ण अध्ययन “धार्मिक भूगोल” “धार्मिक कर्मकांड” एवं धार्मिक विशेषज्ञ के संकुल के रूप में किया गया, जिसे “पवित्र संकुल” का नाम दिया गया ।
इन दो क्षेत्रों के अतिरिक्त, जो अब एक दुसरे से मिल गए हैं और एक ही नगरपालिका के अंतर्गत आते हैं, एक धार्मिक क्षेत्र और भी है जो शहर के छह मील दूर है तथा जिसे मुख्य (हिन्दू) गया से भिन्न दिखलाने के निमित “बौद्ध गया” के नाम से पुकारा जाता है ।यह स्थान बौद्ध धर्म का जन्मस्थान होने के नाते ईसा की पांचवीं शताब्दी से ही मशहूर है ।यह प्राचीनकाल में तथा आजकल भी भरते तथा विदेश के बौद्ध का तीर्थ स्थान रहा है ।अपने इस लंबे इतिहास अवधि में बुद्ध गया को कई उत्थान और पतन देखने पड़े हैं ।वर्त्तमान काल की अपेक्षा भूतकाल में हिन्दू पुजारियों में इसकी अधिक घनिष्टता थी ।अभी भी जैसी स्थिति है मुख्यत: बौद्ध का ही पवित्र स्थान है तथापि हिन्दू तीर्थयात्री भी, भगवान बुद्ध को अपनी श्रधा अर्पित करने तथा पिंडदान देने के निमित बोधिवृक्ष से नीचे बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति के दिन ही यादगारी में मनाया जाता है ।इस त्योहार में सभी धर्म के अनुयायी काफी संख्या में आते हैं ।
गया के सांस्कृतिक एवं कार्य व्यापारिक क्षेत्रों की समान्य समीक्षा करने के उपरान्त पूज्य गया के हिन्दुओं के इधर-उधर बिखरे हुए क्षेत्रों एवं धार्मिक केंद्रों की गहनता तथा महत्ता की परीक्षा कराना उपेक्षित है ।इस दृष्टिकोण को अपनाने का अभिप्राय यह है कि इससे प्रेक्षण तथा गहनता के विभिन्न स्तर पर धार्मिक केंद्रों का वर्णन एवं वर्गीकरण किया जा सके तथा गया की पुण्य प्रष्टभूमि में हिन्दू सभ्यता की विभिन्न परम्पराओं को देखने का उदेश्य पूरा किया जा सके ।
प्रेक्षण ठोस धरातल पर आने पर यहां आपको हजारों प्रकार के देवी देवताओं के दर्शन होंगे, जो दीवालों पर बनाई हुई प्रतिमाओं, मूर्तियों, नदियों , तालाबों, पेड़ों, पत्थरों , खुदाइयों तथा चित्रकारियों में लाक्षणिक रूप से व्यक्त करता है ।वेद, पुराण तथा माहाकव्यों में वर्णित अनेक देवी-देवताओं, उदहारणअर्थ – सूर्यदेव, विष्णु के विभिन्न अवतार- राम, कृष्ण, हनुमान , तथा गणेश की मूर्तियाँ आदि पाई जाती हैं ।इन मूर्तियों में अनेक पौराणिक निरूपण, व्यक्तिगत सजावट तथा वेशभूषा आदि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है ।देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के द्वारा इस प्रकार दिग्दर्शन करना हिन्दू जगत कि एक सामान्य विशेषता रही है ।इस प्रकार की प्रतिमाओं तथा तस्वीरों के कई संग्रह का प्रकाशन मिशनरी लेखकों (मूर 1861) द्वारा हो चूका है ।कुछ ऐसे भी देवता हैं, जो गुप्त पूजा निमित लाक्षणिक रूप से अभिव्यक्त किये गए हैं, जैसे काले पत्थर के लिंग द्वारा भगवान शिव का निरूपण ।समस्त गया में एक स्थल को छोड़कर, जहां शिवाजी की प्रतिमा है, अन्यत्र सभी जगह वे इसी तरह गुप्त रूप में मूर्त किये गए हैं ।मंगलगौरी नाम तीर्थ स्थान दो गोल पत्थरों द्वारा दिखया गया है ।स्थानीय पुरोहित लोग उन्हें पुरानों में वर्णित भगवान् शिव की पत्नी सती के दोनों स्तनों के चिन्ह बताते हैं ।अध्यात्मिक रूप से इसकी पूजा जगत अधिष्ठात्री देवी के रूप में की जाती है ।शीतला नाम तीर्थ स्थान में इस तरह के सात पत्थर हैं, जो शीतला देवी की सात बहनों के प्रतिरूप माने जाते हैं ।भगवान् शिव का तीर्थ स्थान, जिसे विष्णुपद कहा जाता है, उस स्थल पर है, जहां एक पत्थर पर भगवान के दाहिने पैर का पदचिन्ह अंकित है ।साधारणतया ऐसी प्रतिमाएं और मूर्तियां पवित्र ग्रंथों में वर्णित धार्मिक विधियों के अनुसार बनाए गए मंदिरों में रखी गई है ।जो भी हो, जैसा कि गांवों में होता है, गया में भी बहुत सी प्रतिमाएं उअर मूर्तियाँ पेड़ों के नीचे अथवा मंदिरों के किसी कोने या दीवालों की ताखों पर देखी जा सकती है ।
गया के कुछ धार्मिंक केंद्र, भारत में अन्यत्र होता है, नदियों तथा तालाबों के रोपो में दिखाए गए हैं ।फल्गु नदी, विशेषकर वह भाग हो गया क्षेत्र में पड़ता है, भगवान् विष्णु के तत्व से अभिभूत माना जाता है और सर्वत्र पितृ-पूजा के लिए विख्यात है ।वैतरणी, ब्रह्मकुंड, उत्तरमानस, तालाब भी, पुराणों में वर्णित पूजा करने योग्य दिव्य वस्तुओं के प्रतिरूप माने जाते हैं और श्राद्ध की बलि देने वाले लोगों द्वारा विशेष पूजे जाते हैं ।
कुछ धार्मिक केंद्रों में पेड़ों से बने हैं जिनकी पूजा की जाती है ।दो तरह के पेड़ों अर्थात वट तथा पीपल, गया में विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं ।अनेक धार्मिक स्थलों में जो पेड़ों के समूह से बने हैं, अक्षयवट और बोधिद्रुम विशेष रूप से पूजे जाते हैं ।तुलसी का पौधा, जो विष्णु और उनकी पत्नी लक्ष्मी के तत्व से अभिभूत माना जाता है, घर-घर में पूजा जाता है ।बड़ी और छोटी पहाड़ियों में देवता तथा भूत-प्रेत निवास करते हैं ।गया के अंदर अथवा चतुर्दिक जितनी पहाड़ियां हैं, उनका नामकरण देवताओं के नाम पर हुआ है और उन मंदिर भी बने हुए हैं – ब्रह्म्योनी, रामशिला, प्रेतशिला, मुरली आदि ।
धार्मिक केंद्र, स्थल-समूह, एवं खंड – इन तीर्थ स्थानों तथा पूज्य प्रतीकों को निकट से देखने से एक स्थानीय महत्त्व नजर आता है, जिसका संबध कुछ तो सप्रदयों से और कुछ पूजा की विधियों से दिखाया जा सकता है ।“धार्मिक केंद्र” , “धार्मिक स्थल-समूह”, “धार्मिक खंड” , “धार्मिक क्षेत्र” और धार्मिक “स्थल-सदृश” परिभाषित शब्दों के प्रयोग की आवश्यकता मालुम पड़ती है, जिससे यह दिखया जा सकते कि स्थान की दृष्टि से, एक तीर्थ स्थान का दुसरे तीर्थ स्थान से क्या सम्बन्ध है ।इससे गया की पवित्रता की कुछ जटिलताओं का यथार्थ विश्लेषण करने में मदद मिलेगी ।
भिन्न-भिन्न तीर्थ स्थानों एवं पूज्य प्रतीकों का इस प्रकार सिंहावलोकर करने के सिलसिले में पूजा की सबसे छोटी इकाई को जो प्रतिमा, नदी, तालाब या पेड़ों द्वारा प्रकट की जाती है, धार्मिक केंद्रों कहना उचित होगा ।धार्मिक केंद्र से मतलब उस स्थान विशेष से है जहाँ कोई भी धार्मिक कार्य किया जाता है ।इस तरह के धार्मिक केंद्र भिन्न-भिन्न स्थानों में हो सकते हैं ।ये एक दुसरे से बिल्कुल दूर हो सकते हैं, जैसा कि शिवालयों , ठाकुरबाड़ियों (पौराणिक देवताओं के मंदिर) अथवा अन्य तरह के धार्मिक केंद्रों के संबध में, जो इधर-उधर बिखरे पड़े हैं को गौर किया है ।धार्मिक केंद्र अनेक अन्य धार्मिक केंद्रों के समूह पड़ोस में भी अवस्थित हो सकता है ।उदाहरणार्थ, हमने मगलागौरी धार्मिक केंद्रों को शिव, कृष्ण तथा विष्णु के धार्मिक केद्रों के बीच में हैं और प्रेतशिला में अनेक केंद्र, प्रेतशिला, प्रेतभवानी, और विष्णु इक्कठे नजर आते हैं ।इसी तरह, पुरानी गया में भी, धार्मिक केंद्रों के अनेक समूह विष्णुपद, फल्गु, सूर्यमंदिर, गायेश्वरी आदि प्रमुख हैं ।पुरानी गया के उत्तरी छोर में पितामहेश्वर और शीतला दो धार्मिक स्थल-समूह एक ही समुदाय के पुरारियों के अधिन है ।उनमें एक ही प्रकार के देवी-देवता रहते हैं ।फिर भी, इसके कई अपवाद पाए जाते हैं ।मंगलागौरी में शिव और विष्णु के धार्मिक केंद्र हैं ।धार्मिक-केंद्रों के समूह स्थल में, फिर भी प्रमुख धार्मिक स्थल समूहों में जहां देवी माता का धार्मिक केंद्र प्रमुख है, पशु-बलि का प्रचलन है यधपि शिव और विष्णु के धार्मिक केंद्र बिल्कुल उसके पड़ोस में हैं ।उसी प्रकार शीतला और गायेश्वरी देवियाँ, जो पितामहेश्वर तथा विष्णुपद (दो मुख्य शाकाहारी धार्मिक केंद्र) के समीप हैं, किसी प्रकार की पशु बलि द्वारा कभी भी, पूजित नहीं होती ।
स्थान और संगठन के दुसरे स्तर पर दो या दो से अधिक धार्मिक स्थल-समूह, जो एक क्रमबद्ध दंड का निर्माण करते हैं , ‘धार्मिक खंड’ कहे जा सकते हैं ।इस स्तर पर विष्णुपद-फल्गु-सूर्यमंदिर-गायेश्वरी वाला समूह एक धार्मिक खंड का निर्माण करता है ।इसी तरह, पितामहेश्वर-उत्तरमानस-शीतला-मंगलागौरी-अक्षयवट तथा बहुत से उत्तर में बागेश्वरी-रामशिला के समूह क्रमश: पहले, दुसरे, तीसरे और चौथे धार्मिक-खंड का निर्माण करते हैं ।खण्ड के स्तर पर, विभिन्न प्रकार के प्रदर्शन, सांप्रदायिक देवी देवता तथा पुजारी, मिलते हुए दीख पड़ते हैं ।इस बात की पुष्टि विष्णुपद-फल्गु-सूर्यमंदिर-गायेश्वरी के धर्मिक खंड को लेकर किया जा सकता है ।यह खण्ड सबसे अधिक विख्यात है और वर्तमान अध्ययन में हमने इसका विशद विवरण दिया है ।
इस खण्ड में देवी-देवताओं के सभी प्रकार के चिन्ह विधमान हैं ।यहां सूर्यदेव की शानदार प्रतिमाएं, विष्णु के विभिन्न रूप और शिवालय एवं विष्णुपद में रखी गयी अलौकिक मूर्तियाँ भी हैं फल्गु एक पवित्र नदी हैं तथा सूर्यकुंड सूर्य की पूजा निमित एक प्रमुख तालाब है ।इस पवित्र खंड में दो बड़े पीपल के वृक्ष हैं, जिनकी पूजा समय-समय पर पूजा करने वाले तथा बलि चढ़ाने वाले द्वारा की जाती है ।इन सब धार्मिक केंद्रों के अतिरिक्त पत्थर, मूर्ति, उत्कीर्ण चित्रों आदि द्वारा प्रदर्शित अगणित देवी देवता हैं, जो यत्र-तत्र दीवालों, तालाबों , पेड़ों के नीचे या बड़े मंदिरों के निकट पाए जाते हैं ।वे सभी धार्मिक खंड को देवी देवताओं का एक छोटा नगर ही बना देते हैं ।
साम्प्रदायिकता देवी-देवताओं के प्रतिनिधित्व के दृष्टिकोण से देखा जाय तो यह पाँचों प्रकार के हिन्दू सम्प्रदाय (वैष्णव, शैव , शक्ति सौर तथा गणपतयास ) पाए जाते हैं ।यधपि यह खण्ड विशेष रूप से विष्णु भक्तों के लिए पवित्र माना जाता है तथापि अन्य सम्प्रदाय के देवी-देवता भी यहां देखने को मिलते हैं ।बाकी अन्य सम्प्रदायों के धार्मिक केंद्र वैष्णव धार्मिक केंद्र के समीप ही स्थित हैं तथा हिन्दुओं द्वारा बिना किसी साम्प्रदायिक भेद भाव के पूजे जाते हैं ।सूर्य मंदिर , जिसके सामने सूर्यकुंड नामक तालाब है, छठव्रत के अवसर पर भक्तों की भीड़ से विशेष रूप से भरा होता है ।गायेश्वरी भी शक्ति देवी का एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र है, अत: यहां पशु-बलि नहीं चढ़ाई जाती है ।शैव धार्मिक केंद्र एक ही मंदिर में हैं ।यधपि इनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है तथापि भक्तों द्वारा यहां कुछ-न-कुछ अर्पित कर ही दिया जाता है ।
इस खण्ड के विभिन्न धार्मिक केंद्रों में दान पाने और उन्हें रखने के लिए पुजारी वर्ग की जो संख्या है, वह अत्यंत महत्वूर्ण है ।पुजारीगण विष्णुपद धार्मिक केंद्र के रक्षक हैं ।शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के अनेक परिवार सूर्य मन्दिर में पूजा कार्य सम्पन्न करते हैं और दशनामी सन्यासियों के तीनों समाजों गिरी, पूरी एवं भारती के महंत, जो एक मठ में रहते हैं, परन्तु उनका संप्रदाय भिन्न-भिन्न है ।दो अन्य धार्मिक स्थल समूहों में ब्राह्मण पुजारी का कार्य सम्पन्न करते हैं ।
विधि संस्कार की दृष्टि से देखा जाए, तो मालूम होता है कि इस धार्मिक खंड के प्रमुख केंद्रों में भक्तगण भिन्न-भिन्न कामनाएं लेकर आते हैं ।विष्णुपद मन्दिर में आये हुए 200 भक्तों को, जब तीन विशेष अवसरों पर पूछा गया कि उनका वहां आने का उदेश्य क्या है तो उन्होंने कोई स्पष्ट उत्तर नही दिया ।उनमें से 35 प्रतिशत लोगों को उत्तर का वस्तुत: यही भाव था कि वे स्वाथ्य एवं सौभाग्य प्राप्त करने की इच्छा से वहां आये हैं ।40 प्रतिशत लोगों ने कुछ स्पष्ट उत्तर दिया वह यह कि अपने किसी व्रत के पूर्ण होने पर दान देने आये हुए हैं और नया व्रत लेने आए थे ।उनके आने का मतलब था किसी ऐसी समस्या को हटाना, जो उनके अथवा उनके परिवार के सामने आ खड़ी हुई थी ।कुछ विशिष्ट समस्याओं में थी नौकरी पाना, मुकदमा जितना, स्कूल अथवा संतान प्राप्त करना ।23 प्रतिशत लोगों ने बतलाया कि वे पारलौकिक जीवन में सुख प्राप्त करने हेतु पुण्य कमाना चाहते हैं और 2 प्रतिशत लोग कोई संस्कार-कार्य सम्पन्न करने आए हुए थे ।
यधपि भक्तगण उपर बताए हुए अथवा अन्य उदेशयों से, किसी धार्मिक केंद्र अथवा दो या तीन ऐसे केंद्रों के दर्शन करने आते हैं तथापि इस खंड के धार्मिक केंद्र अन्य खंडों की धार्मिक केंद्रों की भांति कुछ विशिष्ट कामनाओं की पूर्ति के लिए विशेष रूप से उपयुक्त समझे जाते हैं ।उदाहरणार्थ विष्णुपद तथा फल्गु श्राद्ध-पूजा के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं और गायेश्वरी योग्य पति पाने या सहज प्रसव के लिए उपयुक्त मानी जाती है ।सूर्य मंदिर दर्शन तथा सूर्य कुंड स्नान कुष्ठ जैसे रोगों और अन्य चर्म रोगों सी निवृति पाने के लिए किए जाते हैं ।
गया के अन्य धार्मिक खंडों, मंगलागौरी , अक्षयवट, पितामहेश्वर, उत्तरमानस, शीतला तथा बागेश्वरी-रामशिला की भी वही विशेषताएं हैं, जो विष्णुपद-फल्गु-सूर्यमंदिर-धार्मिक खण्ड में पाई जाती है किन्तु किसी भी धार्मिक खण्ड को पूरी संस्था नहीं मान लेना चाहिए ।एक खंड दुसरे खंड से इसलिए सम्बंधित हैं कि भक्त या बलि चढाने वाला एक खण्ड से दुरे खंड देवी-देवताओं को बलि देने जाता है ।फिर स्थान की दृष्टि से विष्णुपद-फल्गु-सूर्यमंदिर-गायेश्वरी-मंगलागौरी-अक्षयवट तथा पितामहेश्वर-उत्तरमानस-शीतला एक धार्मिक क्षेत्र कहे जा सकते हैं, जिनसे इसकी लौकिक गया से अलग पहचान की जा सके इस तरह धार्मिक क्षेत्र में तीन खंड हैं, जो पुजारियों तथा अन्य धर्म-विशेषज्ञों के मकानों द्वारा एक-दुसरे के कुछ अंश में मिले हुए हैं ।यह धार्मिक कार्यकलापों तथा विधि-संस्कार का सम्पन्न करने का एक विशेष क्षेत्र है ।संक्षेप में, गया की पुण्यभूमि में स्थित पुरानी गया नमाक एक धार्मिक क्षेत्र, रामशिला-वागेश्वरी नामक एक धार्मिक खंड, प्रेतशिला नामक एक धार्मिक स्थल-समूह और उनके बिखरे हुए धार्मिक केद्रों की व्याख्या की है ।गया के धार्मिक स्थल-समूह एवं धार्मिक खंड का स्पष्ट विवेचन तालिका संख्या 3.1 में है :
गया का पवित्र भूमि को पौराणिक कथा के आधार पर ही समझा जा सकता है जिसका उल्लेख वायु पुराण में किया गया है ।इस पौराणिक कथा के अनुसार, जिसका हिन्दू जगत में विस्तृत मान है, गया का नाम गयासुर एक दैत्य का नाम पर पड़ा, जो विष्णु तथा अन्य सभी देवी देवताओं से मारा गया था ।वह इतना भारी संत था कि सभी देवी-देवताओं ने उसके शरीर में वास करने की प्रतिज्ञा की ।उसका सिर दो मील तथा शरीर छह मील तक फैला हुआ था ।यह पौराणिक कथा दस मील के अंदर आने वाले सभी धार्मिक केंद्रों को मान्यत देती है ।यदि हम आज की गया की पौराणिक गया से तुलना करें, तो देखेंगे कि पुरानी गया जिसे पुराण में गयासुर दैत्य के सिर पर स्थित कहा गया है, वही आज गया धार्मिक क्षेत्र कहलाता है ।अन्य धार्मिक केंद्र तथा स्थल-समूह, जो गया के शरीर पर शती माने गए हैं, उसकी तुलना में कम पवित्र तथा कम विशिष्ट हैं ।
धार्मिक केंद्रों की स्थानीय सीमा – गया की पवित्र भूमि के अन्तर्गत निम्न-से-निम्न धार्मिक केंद्र से लेकर श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ धार्मिक केंद्र आते हैं ।सभी गयावाल परिवार तथा अधिकांश उच्च वर्ग के लोग अपने-अपने घरों में “पवित्र” स्थान रखते हैं ।इस प्रकार का धार्मिक केंद्र अधिकतर घर के किसी कमरे में प्रस्थापित किया गया है, जहां पूर्वजों तथा परिवार के अन्य देवताओं को रखा जाता है ।सम्मिलित परिवार के लये यह केंद्र पूर्णरूपेण पवित्र माना जाता है और परिवार की परंपरा तथा रीती रिवाज के अनुसार ही यहां की पूजा विधि निर्धारित की जाती है ।इसके अतिरिक्त कुछ परिवारों में ठाकुरबाड़ी नाम का एक दूसरा धार्मिक केंद्र भी होता है जहां पौराणिक देवी-देवता रखे जाते हैं ।यधपि यह मुख्यत: परिवार की पूजा का स्थल होता है, फिर भी, मित्र और अन्य संबंधी यहां पूजा चढाने से रोके नहीं जाते ।
भक्तगण को आकर्षित करने वाली धार्मिक केंद्र की सबसे छोटी इकाई, गौण स्थानीय केंद्र के नाम से पुकारी जाती है ।इसमें तथा मुख्य धार्मिक केंद्रों में भिन्नता इस बात कि यहां सिर्फ पड़ोस के भक्तगण ही पूजा के लिए आतें हैं, जबकि मुख्य धार्मिक केंद्रों में शहर के सभी कोने से भक्तगण आतें हैं ।इस तरह के धार्मिक केंद्र गया में बहुत सी संस्था में हैं और प्रधानत: शिव और महावीर के मंदिर, राम तथा कृष्ण की ठाकुरबाड़ियों और वट तथा पीपल वृक्षों के चारों ओर बने चबूतरों पर रखी मूर्तियों में सहज ही वह पहचाने जा सकते हैं ।ऐसे धार्मिक केंद्रों की स्थापना अधिकतर किसी व्रत के पूर्ण होने या पड़ोस के रहने वाले धनिकों द्वारा पुण्य अर्जन के हेतु की जाती है ।इन गौण धार्मिक केंद्रों की देख-रेख किसी व्यकित-विशेष के परिवार द्वारा धार्मिक केंद्रों के नाम पर दी हुई सम्पति से होती है ।ऐसे धार्मिक केंद्रों के नाम निर्माणकर्ता के पारिवारिक नाम (तथा सेन ठाकुरबाड़ियों या मुहल्ले के नाम – यथा मुरापुर शिवालय) पर रखे जाते हैं ।
मुख्य धार्मिक केंद्र वे हैं, जिनका विस्तार हो चूका है और जो एक ही स्थल में इक्कठे हैं ।ऐसे धार्मिक केंद्रों को शहर की समस्त हिन्दू जनता जानती है तथा वहां शहरभर के भक्तगण दर्शनार्थ आते हैं ।किसी-किसी धार्मिक मेले के अवसर पर तो लोगों की संख्या हजारों तक हो जाती है ।ऐसे मेलों के अवसर पर अधिकतर भीड़ स्थानीय ही होती है यधपि आसपास के गांवों से भी कुछ लोग उसमें शामिल होते हैं ।
गया में बागेश्वरी, पितामहेश्वर तथा मंगलागौरी सदृश धार्मिक स्थल-समूह प्रमुख केंद्रों में गिने जा सकते हैं ।नित्य पूजा करने वाले पुजारियों के अतिरिक्त प्रतिदिन वहां चालीस से पचहतर भक्तगण दर्शन करने आतें हैं ।सप्ताह के विशेष-विशेष दिनों में जैसे पितामहेश्वर में सोमवार के दिन, बागेश्वरी तथा मंगलागौरी में मंगलवार के दिन भक्तों की संख्या दुगुनी-तिगुनी हो जाती है ।देवी-देवताओं की पूजा करने के अतिरिक्त इनमें से कुछ भक्तगण बगल के बरामदे में बैठकर धर्मशास्त्र से अपने-अपने देवी-देवताओं के संबध में कुछ पढ़ते या मंत्रोच्चारण करते हैं ।इस प्रकार की सस्ती पुस्तकों में विष्णु-चालीसा तथा दर्गा स्तुति है ।विशेष प्रकार के पूजा, जैसे गान-भजन के साथ विस्तृत विधि-व्यवहार तथा बलिदान, भिखमंगों को भिक्षादान तथा पुजारियों को कीमती भेंट आदि कुछ भक्त द्वारा किसी व्रत के पूरा होने, कठिन रोग से मुक्ति पाने तथा जीवन में सफलता प्राप्त होने पर चढ़ाई जाती है ।
बागेश्वरी में श्रावण मास के चारों मंगलवार को स्थानीय नागरिक इस मंदिर के आंगन में अथवा उसके आसपास इक्कठे हो जाते हैं ।फूल, माला, धुप, दीया, नैवेध , फल आदि पवित्र चीजों को बेचने के लिए अनेक दुकानों की स्थापना वहां अस्थाई रूप से हो जाती है ।खिलौना, पालतू पक्षी, बच्चों के लिए अनेक प्रकार की चीजें, घरेलू वासन-बर्तन, स्त्रियों के लिए श्रृंगार की सामग्री तथा तैयार कपड़े आदि की दूकान भी खोली जाती है ।निकटवर्ती गाँवों के लोग अपने खेतों का काम समाप्त कर यहां आसानी से आ सकते हैं ।उनलोगों को यह मेला आनेवाली कटनी में अच्छी फसल मिलने की मनौती करने तथा कुछ खरीद-बिक्री करने पर भी अवसर प्रदान करता है ।
दूसरा धार्मिक मेला शिवरात्रि के अवसर पर ; जो भगवान शिव तथा उनकी पत्नी पार्वती को समर्पित है, राम –शिला पहाड़ी पर तथा पितामहेश्वर में लगता है ।शिवरात्री फागुन कृष्णपक्ष के चौदहवें दिन में होती है तथा गया में, जैसा कि अन्यत्र पुरे बिहार में गाँव है, यह भगवान् शिव का देवी पार्वती के साथ विवाह की रात्रि मानी जाती है ।शिवरात्री पर्व के दिन दोपहर में हजारों की संख्या में लोग पहाड़ी तीर्थ स्थानों में देखे जाते हैं ।शाम से लेकर आधी रात तक भक्तगण शिव पितामहेश्वर के भिन्न-भिन्न प्रमुख धार्मिक केंद्रों में इक्कठे नजर आते हैं ।इन दो स्थानों में होनेवाले पूजा समारोह में स्थानीय नागरिकों के अतिरिक्त निकटवर्ती गांवों के लोग भी भाग लेते हैं ।
नवरात्री के अंतिम दिन के अवसर पर, जो आश्विन शुक्ल पक्ष के नवें दिन में होता है, मंगलागौरी तथा बागेश्वरी में भक्तों की एक छोटी-सी भीड़ जमा जो जाती है और वहां बकरों की बलि दिन भर चढ़ाई जाती है ।
गया में कुछ धार्मिक केंद्र ऐसे भी हैं जिनका स्थान की दृष्टि से विस्तृत वर्णन उपस्थित करना और जरूरी हो गया हैं ।इनमें फल्गु नदी तथा विष्णुपद मंदिर के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।फल्गु नदी में अनेक पवित्र घाट हैं, जहां छठ –व्रत के अवसर पर हजारों भक्तगण सूर्य की पूजा करने आते हैं ।इसके अतिरिक्त हिन्दू विधि-व्यवहार की वर्ष-तालिका के विशेष दिनों में फल्गु में स्नान करना परालौकिक पुण्य-अर्जन के लिए लाभदायक समझा जाता है ।
कार्तिक पूर्णिमा तथा विसुआ के दिन जो बैशाख नवमी को पड़ता है, यह क्षेत्र स्नान के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है ।इन दो अवसरों पर यहां मवेशी मेला भी लगता है ।लगभग 100 मील के अंदर के किसान पुण्य पाने तथा साथ-साथ में सभी प्रकार के मवेशी का व्यापार करने यहां आते हैं ।फल्गु-स्नान तथा कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर होने वाला मवेशी-मेला उतरी बिहार के गंडक नदी के किनारे सोनपुर में महाद्वीपीय स्तर पर उसी समय लगने वाले मवेशी-मेले का अनुकरण –सा जान पड़ता है ।जहां तक मुझे मालूम है, बैशाख विशुआ बिहार के कुछ ही हिस्सों में मनाया जाता है ।इस अवसर पर लोग पवित्र नदी में स्नान करते और बाद में नए चना और जौ के सत्तू खाते हैं ।
ग्रहण के अवसर पर भी, फल्गु नदी के पवित्र जल में स्नान करने के लिए निकटवर्ती क्षेत्र से भीड़ एकत्र होती है ।ऐसा विश्वास है कि ग्रहण, जो बुरे नक्षत्र राहू द्वारा चंद्रमा या सूर्य के पकड़े जाने से होता है , हिन्दुओं को छूता स्थिति में डाल देता है ।इस अवसर पर फल्गु नदी में स्नान करने के लिए भारी भीड़ जमा हो जाती है ।
फल्गु नदी सर्वत्र पितरों की मुक्ति के लिए तर्पण का स्थान मानी जाती है ।पितृपक्ष के अवसर पर जो पूर्वजों की पूजा का अर्धमास है, 1,00,000 से भी अधिक आदमी अपने पूर्वजों को जल तर्पण कनरे के लिए आते हैं ।ये तर्पण “गया श्राद्ध” कहलाते हैं ।
दूसरा सर्वप्रसिद्ध धार्मिक केंद्र विष्णुपद है, जो फल्गु नदी के किनारे स्थित है ।यह अन्य दुसरे प्रमुख धार्मिक केंद्र के समान ही स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करता है ।वहां निवास करने वाले पुजारियों द्वारा तथा सैंकड़ों अन्य भक्तगण द्वारा भी, विष्णुपद में विशेष साप्ताहिक पूजा चढ़ाई जाती है ।प्रत्येक रविवार को तथा प्रत्येक पक्ष के ग्यारवें दिन (एकादशी) यहां लोगों की भीड़ तिगुनी हो जाती है ।पवित्र स्नान के निर्धारित दिनों से विशेष रूप से भर जाता है ।और यहाँ पितृपक्ष की पवित्र अवधि आरंभ होती है, तो सारे हिंदुस्तान से आए यात्री यहां इतनी संख्या में आ उमड़ते हैं कि स्थानीय राजकीय प्रशासन द्वारा यहां का व्यवस्थापन-संचालन कठिन हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त अक्षयवट, प्रेतशिला, बोधिद्रुम तथा वैतरणी जैसे अनेक धार्मिक केंद्र हैं, जहां पुजारियों द्वारा पिंडदान के लिए श्राद्ध की बलि दी जाती है ।परम्परा से इस तरह के पैंतालिश धार्मिक केंद्र हैं, जिनका वर्णन वायु-पुराण में भी किया गया है ।कुछ भी हो, परंतु आज उनका महत्व शैने:-शैने: घटता जा रहा है ।उनमें से कुछ तो बिल्कुल ही छोड़ दिए गए हैं या लोगों ने उन्हें भुला दिया है ।सामान्य तीर्थयात्री के लिए गया तीर्थयात्रा का विस्तृत अर्थ अब यही रह गया है कि यहां फल्गु नदी, विष्णुपद, अक्षयवट आदि स्थलों में पूजा की जाती है ।इस तरह, विशेष पूजा तथा साप्ताहिक दर्शनों के अतिरिक्त इन मुख्य धार्मिक केंद्रों का सम्बन्ध कुछ धार्मिक मेले से भी है जिसका विस्तृत विवेचन तालिका संख्या -3.2 में किया जा रहा है :
धार्मिक केंद्रों से सम्बंधित पवित्र मेले
हमने अभी तक गया की पवित्र भूमि की रूप-रेखा समकालीन दृष्टि से ही उपस्थित की है ।हमने अपने विषय को इस प्रकार सजाया है कि वह हमारे लिए एक तीर्थ –स्नान में धार्मिक केंद्रों के वृधि-क्रम तथा विस्तार को समझने में सहायक हो सके ।यह विकास हमारे देश की एक प्राचीन सभ्यता वाली नगरों के भौगोलिक विकास को समझाने के लिए दो तरह की मनोरंजन बातें सामने रखता है ।यह हमें बतलाता है कि किस प्रकार समय क्रमानुसार एक ही धार्मिक केंद्र धार्मिक –समूह , खंड तथा अंत में एक धर्मिक क्षेत्र तथा पुण्य-भूमि में विकसित हो जाता है ।यह बतलाता है कि किस तरह एक धार्मिक केंद्र की सीमा परिवार तथा स्थानीय क्षेत्र को पारकर अंत में पुरे हिन्दू संसार को ढंक लेती है ।इस प्रकार के विकास में हम विभिन्न चिन्हों, सम्प्रदायों तथा परम्पराओं से आनेवाले पुजारी-वर्ग की क्रमिक मिश्रण तथा संधि पाते हैं ।गया के धार्मिक केंद्रों के संबंध में ये परिणाम हमें एक समय स्तर के अध्ययन के उपरांत ही मिले हैं ।
ऐतिहासिक प्रष्टभूमि की पर्यवेक्षक धार्मिक-केंद्रों के क्रमिक विकास के साथ-साथ अत्यंत ही लाभदायक सिद्ध हो सकता है ।परन्तु धार्मिक-केंद्रों की बढ़ती हुई संख्या तथा 200 वर्षों से अधिक की अवधि में उनके प्रासाद को देखते हुए, यह किसी भी सामाजिक इतिहासज्ञ के लिए एक विकट समस्या सी मालूम पड़ती है ।यों मैं इस स्थल पर सभी प्रकार की ऐतिहासिक मान्यताओं में प्रवेश करना नहीं चाहता हूँ ।इतिहास से सम्बंधित जो भी थोड़ी-बहुत किताबें हैं, वे इस तरह की सामग्री प्रस्तुत नहीं करती, जो ऐतिहासिक क्रम को पूर्णरूपेण समझने में सहायक हो सके ।हाल में प्रोफेसर कश्यप ने गया पर कुछ ऐतिहासिक समाग्री जमा की है ।इन बिखरे हुए लेखों तथा प्रमाणों के आधार पर हमने गयावाल पुजारियों तथा गया के धार्मिक केंद्रों के पुराने इतिहास का निर्माण करने की कोशिश की है ।इन भिन्न-भिन्न समय-स्तरों को ध्यान में रखते हुए, हम ऐतिहासिक सामग्रियों का उपयोग संस्कृति के विवरण के साथ इस तरह करना चाहेंगे कि गत शताब्दियों में स्थापित धार्मिक केंद्रों की प्रक्रियाओं का स्पष्टीकरण हो जाय ।
धार्मिक केन्द्रों का त्याग और परिवर्तन – परिवर्तन की प्रक्रिया जो एक शोधक को आकर्षित करती है, वर्तमान समय में उन धार्मिक केन्द्रों का लोप जो अतीत काल में तीर्थयात्रियों के प्रिय स्थल थे ।बुचानन पैंतालिस ऐसे तीर्थस्थानों की सूची देते हैं, जहाँ मराठे तथा अन्य धनिक बलि चढाने को आया करते थे ।वायु पुराण के आंठवे परिच्छेद में कुछ ऐसे धार्मिक केन्द्रों के नाम दिए गए हैं, जिनका बुचानन ने उल्लेख नहीं किया है ।वे हैं, गदाधर, जो विष्णुपद- फल्गु-सूर्य-खंड में अवस्थित हैं, और जनार्धन, परमपितामहेश्वर और गिद्धकूट-मंगलागौरी-अक्षयवट-धार्मिक-खंड में स्थित हैं ।बुचानन की सूची में आए हए अनेक धार्मिक केन्द्रों का, जिनके लिए परवाना मिला था, अभी कोई नामोनिशान नहीं है ।यहां तक कि स्वयं पुजारियों ने भी गत अनेक दशकों को लगातार लापरवाही के कारण उन्हें भुला दिया है ।
श्राद्ध-बलि के लिए प्रसिद्ध पैंतालिस धार्मिक-केंद्रों में से ग्यारह केन्द्रों का परित्याग हो चूका है, परन्तु उनके स्थल में उनके प्राचीन अस्तित्व के चिन्ह अब भी देखे जा सकते हैं ।आठ अन्य धार्मिक केंद्र जिनके लिए श्राद्ध-बलि चढाने वालों को परवाना मिला था, अब करीब-करीब बिल्कुल ही भुला दिए गए हैं, जहां तक कि पुजारी भी उनके सही स्थल का ठीक-ठीक निर्देश नहीं कर सकते ।
धार्मिंक-केन्द्रों जिनका परित्याग हो चूका है अथवा जिन्हें भुला दिया गया है, प्राचीनतम धार्मिक-केन्द्रों में है ।उनमें से अधिकांश मंगलागौरी-अक्षयवट –धार्मिक –खंड के अंतर्गत ही आते हैं ।यह धार्मिक कार्यकलापों का एक खंड की ओर स्थानातंरण की तरफ संकेत करता है ।ये दोनों खंड एक-दुसरे से संबद्ध हैं एक धार्मिक केंद्र के विस्तार द्वारा अधिकाधिक महता प्राप्त करता जाता है उर दूसरा उपेक्षा के कारण दिनानुदिन परित्यक्त होता जा रहा है ।
मंगलागौरी अक्षयवट की अपेक्षा वर्तमान विष्णुपद-फल्गु-सूर्य-खंड की आशातीत वृधि तीन ऐतिहासिक घटनाओं द्वारा समझाई जा सकती है ।सर्वप्रथम सबसे ऊँचे (100 फीट) स्थल में अहिल्याबाई होल्कर (एक मराठा विधवा रानी, जो यहां अठारवीं सदी के उतरार्द्ध में आई थी) द्वारा निर्मित सबसे रमणीक मंदिर है ।इस मंदिर से सटकर ही फल्गु नदी के बड़े-बड़े बने हैं ।कहा जाता है कि इस मंदिर को बनाने में 10-12 वर्ष करीब 3,00,000 रूपये खर्च हुए ।मंदिर की रचना के लिए जयनगर तथा राजस्थान के मंदिरों को बनानेवाले अनेक कारीगरों को लाया गया था ।ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंदिर के निर्माण से न केवल एक अन्य धार्मिक केंद्रों का महत्त्व कम हो गया है, वरन गदाधर सदृश धार्मिक केंद्र भी, जिसकी वायु पुराण में श्राद्ध-तीर्थस्थान के रूप में अत्यधिक प्रतिष्टा प्राप्त हैं, श्रीहीन हो गया है ।उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में गदाधर साक्षी देव के नाम से विख्यात था, परन्तु वर्त्तमान युग में उसकी श्राद्ध से संबंधित वह प्रतिष्ठा भी लुप्त हो गई है ।दूसरी और विष्णुपद का धार्मिक केंद्र, जिसकी वायु पुराण तथा विष्णु सूत्र में यत्र-तत्र उल्लेख आया है संभवत: कारीगरी से संबंधति होने तथा राजशाही संरक्षण के कारण ही बहतु ही प्रसिद्ध हो गया है ।
गत दो सौ वर्षों में विष्णुपद-फल्गु-सूर्य-खंड का मंगलागौरी –अक्षयवट-खंड से प्रसिद्धि प्राप्ति करने का दूसरा कारण गयावाल प्रोहितों का आंदोलन था जिसे उन्होंने मग्लागौरी-अक्षयवट-खंड एवं विष्णुपद मंदिर के पड़ोस में फैले हुए अन्य भू-भाग तथा फल्गु के नए घाटों पर शुरू किया था ।गयावाल पुजारियों का यह समूहिक पुनर्वास 400 बीघा जमीन से ही संभव हो सका था, जिसे एक मुग़ल शासक ने इस कार्य के निमित उन्हें जागीर के रूप में दिया था ।गयावाला पुजारियों का संबंध विष्णुपद मंदिर तथा फल्गु धार्मिक केंद्र से एक साथ ही स्थापित हो गया ।
धार्मिक केंद्रों का उपेक्षित होने का तीसरा कारण था, तीर्थयात्रियों की संख्यानुसार धार्मिक केन्द्रों को श्रेणीबद्ध करना तथा उन पर परवाना शुल्क लगाना ।प्रथम श्रेणी के धार्मिक-केंद्रों में फल्गु आता था और जब कोई तीर्थयात्री उकसे दर्शन करने जाता, उसे दो रूपये, पौने दो रुपये परवाना शुल्क के रूप में देने पड़ते थे ।दूसरी श्रेणी के धार्मिक केन्द्रों में फल्गु तथा विष्णुपद आते थे, जिनके दर्शन करने के लिए उसे तीन रूपये पौने छह आने देने पड़ते थे ।तीसरी और अंतिम श्रेणी के धार्मिक-केन्द्रों के अंतर्गत पैंतालिस स्थल थे. जिनके दर्शन के लिए तीर्थयात्री आठ रुपये पौने पांच आने दिया करते थे ।इसके फलस्वरूप 1970 और 1920 के बीच गरीब तीर्थयात्रियों ने अन्य स्थलों को छोड़ सिर्फ दो ही जगहों का दर्शन करना शुरू कर दिया ।अमीर तथा रुढ़िवादी तीर्थयात्री, फिर भी अधिक-से अधिक तीर्थस्थानों के दर्शन करते ही रहे ।जब 1920 में तीर्थयात्री-धारा के अनुसार परवाना शुल्क उठा दिया गया, जब तीर्थयात्री अन्य धार्मिक केंद्रों में भी जाने लगे ।बदलती आर्थिक स्थिति तथा लोक-विचार के कारण उन्होंने इस कार्य को कुछ की केंद्रों तक सीमित रखना उचित समझा ।
लोक धर्म का परिवर्तन – दुरसी मजेदार बात, जिसकी धार्मिक झुंड के स्तर पर परीक्षा की जा सकती है, वह है, प्रारंभिक धार्मिक केंद्र, जो पहले भूत-प्रेत की पूजा के लिए विख्यात थे ।परन्तु जिनका बाद में धीरे-धीरे ब्राह्मणीय देवी-देवताओं से संबंध जोड़ दिया गया अथवा उनसे संबंध स्थापित कर दिया गया ।साधारणत: यह बात सत्य है कि बहुत समय से आते हुए ब्राह्मणीय प्रभाव के कारण अशिकंश लोकदेव तथा देवी सांस्कृतिक नामों से पुकारे जाने लगे हैं और सामान्य हिन्दुओं की पहुंच के अंतर्गत आ गए हैं ।हमें कुछ ऐसे संकेत प्राप्त हुए हैं, जो इस संबध की प्रक्रिया की ओर इंगित करते हैं ।ऐसे चार उदाहरणों का वर्णन करना यहां पर उपेक्षित जान पड़ता है :
बौद्ध धर्म के साथ संयोग और सुलह – यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि जो कुछ धार्मिक झुंडों में लक्षित होती है, वह है बौद्ध मूर्तियों तथा प्रतिमाओं का हिन्दू देवी-देवताओं के रूप में अंगीकृत किया जाना ।कुछ लोग विश्वास के साथ यह कहते हैं कि विष्णुपद मंदिर के अंदर स्थापित विष्णु का पदचिन्ह प्रारंभ में एक बौद्ध चिन्ह था, जो कालान्तर में हिन्दू पुजारियों द्वारा अपना लिया गया ।जेनरल कनिघंम इस बात की पुष्टि करते हैं ।जो भी हो, वे तीर्थयात्री, जो भारतवर्ष के विभिन्न कोने से यहां आते हैं, इसे पुराणों में वर्णित भगवान् विष्णु का ही पदचिन्ह मानते हैं ।पूजा के समय वे कुछ अंश में भी बुद्ध का ध्यान नहीं करते और न वे कभी बौद्ध धर्म के साथ इसका संबंध ही जोड़ते हैं ।बहतु से मंदिरों में बरामदों, दीवालों की ताखों, पेड़ों के नीचे अथवा पवित्र घाटों में बौद्ध प्रतिमाओं को देखना एक साधारण बात है ।इन प्रतिमाओं का सम्बन्ध फिर भी बुद्ध के सही नहीं जोड़ा जाता ।प्रभावशाली हिन्दुओं द्वारा तो ये अपने ही देवी-देवता समझे जाते हैं ।
जहां तक बोधि वृक्ष का प्रश्न है, बुद्ध ने इसी के नीचे ज्ञान प्राप्त किया था ।हिन्दू धर्म तो पूर्णरूपेण उसे अपने में मिला सका और न हसे विरोध को ही रोक सका है ।बौद्ध धर्म के साथ बोधि वृक्ष का एक निश्चित सम्बन्ध है ।यह बुद्ध गया के धार्मिक क्षेत्र के अंदर बौद्ध मंदिर के ठीक पीछे स्थित है ।श्रधांजलि देनेवालों के लिए यह एक धार्मिक केंद्र है, जहां वे अपने परिभ्रमण के चौथे दिन जाते हैं ।प्रतीत होता है कि बहुत वर्षों से हिन्दू लोग इसे पूजा की वस्तु के रूप में अंगीकृत करने की कोशिश में थे ।इसका अंगीकरण किस तरह हुआ, यह कठिन है ।फिर भी इतना स्पष्ट है कि ईसा की सातवीं शताब्दी में हिन्दू लोग इसे पूजा की वस्तु मानते थे ।लगभग 600 ईसवी सन में शशांक ने, जो कट्टर ब्राह्मण था, इसे खोदकर इसमें आग लगाई थी, इस उदेश्य से कि इसका समूल नाश हो जाय और एक भी अवशेष न बचे, ऐसा संभव जान पड़ता है कि ब्राह्मण पुजारियों ने बौद्ध धर्म के पतन के पश्चात, इस वृक्ष को श्रद्धा के योग्य वस्तु समझकर ग्रहण कर लिया तथा बौधों द्वारा की जाने वाली पूजा इस प्रकार से समुचित लाभ उठाते रहे ।वायु पुराण में इस पूजा की अत्यधिक प्रशंसा की गई है तथा इसके लिए विशेष स्तुतियाँ भी दी गई हैं ।बुचानन ने भी इस पूजा का उल्लेख किया है ।वह यह भी लिखता है कि कुछ लोग ने द्वेषवश चबूतरे की बहार एक सीढ़ी बना दी थी जिससे रुढ़िवादी लोग ओसारे में प्रवेश के लिए बिना ही अंदर न जा सकें तथा बुद्ध की घृणास्पद मूर्ति को न देख सकें ।
ब्राह्मण पुजारियों तथा बौद्ध मतावलंबियों के बीच का विरोध उन अदालती कार्यवाहियों से स्पष्ट लक्षित होता है, जिन्हें सिंहलद्वीप तथा गया के महाबोधी समाज ने बुद्ध गया के मंदिरों को गिरी सन्यासी वर्ग के हिन्दू महंत से अपने कब्जे में लाने के लये उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में कार्यान्वित किया था ।
हाल ही में राज्य सरकार तथा पटना हाई कोर्ट के सक्रिय हस्तक्षेप के फस्वरूप दोनों पक्षों में सुलह करा दी गई है ।इस समझौते के अनुसार मंदिर का स्वामित्व हिन्दू महंत से एक ट्रस्ट को हस्तांतरित कर दिया गया है, जिसमें दोनों धर्मालंबियो के लोग तथा कुछ सरकारी व्यक्ति सदस्य हैं ।गत पाँच वर्षों की कार्य-प्रणाली से ऐसा मालूम पड़ता है कि बुद्ध को ज्ञान प्राप्त की वर्षगाँठ के अवसर पर नए तरीके से मनाए जाने वाले धार्मिक त्योहार में हिन्दू और बौद्ध दोनों ही अब बहुत उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं ।
संरक्षण, विकास , पतन तथा पुनर्गठन – वर्तमान अध्ययन में संबंध रखने वाली दूसरी महत्वपूर्ण बात, जो गया की पुण्य भूमि के विकास के लिए किए जाने वाले अर्थ-संचय से स्पष्ट है, वह है भारत में विभिन्न भागों में बसने वाले धनिक भक्तों का संरक्षण ।धार्मिक केन्द्रों के स्थानों का वर्णन करते समय यह स्पष्ट रूप से बतलाया है कि गौण, स्थानीय धार्मिक केंद्र स्थानीय धनिक भक्तों द्वारा ही बनाए गए हैं ।यह भी दिखाया जा चूका है कि किस प्रकार तथाकथित जिला के महंत ने अपने खर्च से बागेश्वरी का निर्माण कराया है ।अनके घाट तथा अन्य धार्मिक केन्द्रों का निर्माण भी गया जिले के जमींदारों द्वारा ही हुआ है ।मित्रा ने अनेक प्रमाण उपस्थित कर दिखलाने की कोशिश की है किस प्रकार सम्राट अशोक ने बुद्ध गया में धार्मिक क्षेत्र के प्रमुख मंदिर के चारों ओर अनके चेरे तथा मंदिर बनवाए थे जो उसकी राजधानी पाटलिपुत्र से सिफ 60 मील की दूरी पर थी ।इन प्रमाणों के आधार पर निश्चय पूर्वक अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थानीय धार्मिक केंद्रों, मंदिर तालाब, सीढ़ी , धर्मशाला, मठ आदि के निर्माण की प्रथमावस्था में स्थानीय एवं निकटवर्ती जमींदारों और अन्य धनिक भक्तों ने काफी पैसे खर्च किए ।गया के प्रति हिंदुस्तान के अन्य भागों के लोगों की भी दिलचस्पी थी ।अत: अधिकांश निर्माण-कार्यों में, जो बाद में धार्मिक केंद्रों में परिवर्तित हो गए, भारत के अन्य भाग के लोगों ने भी अपने अर्थ का विनियोजन उनमें किया ।धार्मिक इमारतों के बनाने में व्यय करने वाले अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दू रूचि का प्रमाण 100ई० से 1900 ई० शताब्दी तक पाए जाने वाले शिलालेखों के आधार पर उपस्थित किया जा सकता है ।
ओमौली कहता है कि एक शिलालेख में नेपालवासी वज्रपाणी गया को एक छोटे स्थान से बदलकर अमरावती बना देने की डिंग भरता है ।अमरावती आलिशान महलों तथा भड़कीला सजावटों के लिए प्रशिद्ध भारतवर्ष का एक पौराणिक शहर है ।दुसरा शिलालेख, जो कुछ बाद का है भारत के उत्तर पश्चिम भाग से आए हुए राजपूत मंत्री के साक्षी देता है, जो गया में तीर्थयात्रा करने तथा धर्मशाला बनवाने के हेतु आया हुआ था ।
सूर्य मंदिर, जिसमें सूर्य देवता की एक सुंदर मूर्ति है, गया के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है ।शिलालेख इसे 13वीं शताब्दी में मैसूर प्रदेश के रांगल-वासी प्रताप रूद्र द्वारा निर्मित मानते हैं ।एक विद्वान का कथन है कि अठारहवीं शताब्दी में कश्मीर-निवासी मित्रजित ने इसे बनवाया था ।
मराठा रानी लक्ष्मीबाई होल्कर के संरक्षण के संबध में पहले ही लिखा जा चूका है ।इन्होने गया में अनेक मंदिर, घाट और धर्मशाला बनवाए ।कहा जाता है कि विष्णु के प्रसिद्ध मंदिर तथा फल्गु नदी के तट पर स्थित रमणीक घाट का निर्माण भी करवाया था ।इनके अतिरिक्त प्रेतशिला के पुराने मंदिर को वर्त्तमान रूप देना भी इन्हीं का काम था ।अहिल्या बाई ने बनारस में भी बहुत से मंदिर बनवाए थे ।इन मंदिरों के निर्माण के फलस्वरूप वे भारतवर्ष भर के हिन्दुओं के बीच प्रसिद्ध हो गई ।गया में एक अलग मंदिर है, जहां देवी रूप में उनकी बंदना होती है और जहां उसे भेट तथा बलि भी चढाई जाती है ।
मदन मोहन दत्त नामक एक दुसरे व्यक्ति ने, जो कलकत्ता निवासी एक बंगाली थे जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दिनों में व्यापार बोर्ड के मैनेजर का काम किया था, रामशिला तथा प्रेतशिला पहाड़ियों के ऊपर जाने वाली सीढियों के निर्माण का खर्च वहन किया था ।उन्होंने पुराने मंदिरों की फिर से मरम्मत करवाई और नए मंदिर भी बनवाए ।उनका नाम, उपाधि तथा तिथि प्रेतशिला धार्मिक झुंड में अनेक स्थलों पर उत्कीर्ण हैं ।यह भी कहा जाता है कि गया शहर को प्रेतशिला धार्मिक झुंड से मिलाने वाली सड़क को इन्होंने ही पक्की बनवाया था ।
इन मुख्य निर्माण-कार्यों के अतिरिक्त मंदिर तथा सूर्य मंदिर के बीच जो द्वारपथ है, उसे कृष्णदेव तथा उनकी पत्नी टीरुमाला देवी ने 1531 ई० में बनवाया था ।वे दक्षिण भारते में स्थित विजयनगर के राजा और रानी थे ।फल्गु नदी के मुख्य घाट के दाहिने कोने में धर्मशाला है, वह हेस्टिंग के शासनकाल में कंपनी के दीवान राय बल्लभ द्वारा निर्मित माना जाता है ।उसमें जो घंटा है, वह नेपाल के राणा के मंत्री श्री रंजित पाण्डेय द्वारा भेंट स्वरुप दिया गया था ।दूसरा घंटा जो इसी मंदिर के प्रवेश-द्वार पर है, गिलैंडर्स नामक एक ब्रिटिश पदाधिकारी द्वारा सन 1970 की जनवरी में भेंट में दिया गया था ।
गयावाल सूचकों ने हमें राजाओं, राजकुमारों, जमींदारों तथा अन्य धनिक भक्तों के सम्बन्ध में बताया ।विशेषत: उनेक संबध में, जो कश्मीर ,राजस्थान, बंगाल, मुंबई, मैसूर और बड़ौदा से वहां आए थे ।उन्होंने किस तरह मंदिरों के निर्माण तथा मरम्मत में अपने पैसे खर्च किए इसकी कथा सुनायी ।ऐसा प्रतीत होता है कि उपयुक्त प्रमाण भारतवर्ष में भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले धार्मिक तथा घनिष्ट भक्तों की तीर्थस्थानों में धर्मशालाओं के निर्माण कार्य में अभिरुचि प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है ।
सांप्रतिक परिवर्तन – वर्तमान शताब्दी में राजे-रजवाड़े तथा धनाढ्य भक्तों द्वारा धर्मशालाओं के निर्माण प्राय: नहीं के बराबर हो चला है ।इसका कारण बदलती हुई आर्थिक व्यवस्था तथा धार्मिक धारणा ही जान पड़ती है ।जो भी हो अभी उनके स्थान में सरकार द्वारा प्रायोजित समितियां और संस्थायें ही धर्मनिरपेक्ष अभिकर्ता के रूप में काम कर रही हैं ।गया में 1920 के तीर्थयात्री कानून के अनुसार एक समिति बनाई गई है जिसमें सरकार, पुजारियों , नगरपालिका एवं जनता के प्रतिनिधि हैं और जिनका काम तीर्थयात्रीयों तथा धर्मशालाओं से सम्बंधित प्रत्येक प्रकार के काम की देखभाल करनी है ।गत वर्षों में निवास स्थान समिति ने अनके निर्माण तथा मरम्मत के कार्य सम्पन्न किए ।पहला तीर्थयात्रियों का आरामगृह या एक विशाल धर्मशाला, दूसरा संकराचार्य का स्मारक, और तीसरा, विष्णुपद मंदिर के पीछे एक दुसरे उधान की रचना ।जब ये निर्माण कार्य समाप्त हुए थे, तो उनके उद्घाटन के निमित कुछ राजनीतिक नेताओं तथा अन्य विद्वानों को भी आमंत्रित किया गया था ।यह सत्य है कि समिति ने किसी नए निर्माण-कार्य को सम्पन्न नहीं किया है ।फिर भी ये सब कार्य पुरानी गया में विष्णुपद मंदिर के अड़ोस-पड़ोस में ही किए गए हैं ।पुरानी गया की आबादी बहुत ही घनी थी परन्तु गयावाल पुजारियों के टूटते हुए मकानों के कारण वह अब शैने:-शैने: भग्नावशेषगत होती जा रही है ।इन सब कारणों से पुरानी गया में अभी गैर-धार्मिक मकानों, आरामगृहों तथा स्मारिक चिन्हों के निर्माण के लिए काफी सुविधायें प्राप्त हैं ।
इन सबी दृष्टिकोणों से गया की पुण्य भूमि की पुन: समीक्षा करने पर यह शायद स्पष्ट है की तीर्थ का स्थान तत्वत: सांस्कृतिक तथा बड़ी परम्पराओं वाली प्राकृति का होता है ।वह ऐसे धार्मिक केन्द्रों को ही सम्मिलित करता है, जो लोक अथवा छोटी परम्पराओं से अथवा उसके चतुर्दिक उद्भूत हुए हैं ।यह अध्ययन उन प्राचीन तत्वों की ओर भी इंगित करता है, जो लाक्षणिक विध्यात्मक तथा प्रेरक रूप से इन धार्मिक केन्द्रों पर प्रकाश डालते हैं ।सरल तथा लोक धार्मिक केन्द्रों से जटिल तथा सार्वलौकिक धार्मिक-खंड, विशिष्ट धार्मिक क्षेत्र या पुण्य भूमि में किस प्रकार रूपांतरित होते हैं , उनकी जगह और समय दोनों ही दृष्टिकोण से,समीक्षा की गई है ।भारत के प्रत्येक कोने से धनाढ्य भक्तों का गया की पुण्यभूमि को विकसित करने का प्रयास और उनके द्वारा दी गई आर्थिक सहायता का भी यहां उल्लेख किया गया है ।वर्त्तमान शताब्दी में ऐसे व्यक्तियों की कमी की ओर भी संकेत कर दिया गया है और यह भी बतलाया गया है कि इस कमी की पूर्ति के लिए किस प्रकार सरकार द्वारा प्रायोजित समितियों का निर्माण हो चूका है ।इनमें से बहुत सी चीजों का सबंध कार्य व्यापार से है ।
औद्योगिकक्रांति ने मानव समाज को बहुमुखी प्रगति और विकास की ओर अग्रसर किया है ।इसके कारण जहाँ के ओर मानव गौरान्वित हुआ है और उसने सभ्यता के सर्वोच्च शिखर की और पहुंचने का प्रयास किया है, वहीं दूसरी ओर मानव समाज को इस क्रांति ने अनेक समस्याएं प्रदान कि हैं ।औद्योगिकक्रांति ने मानव समाज को सशक्त साधन के रूप में प्रभावित किया है और औधोगिकीकरण तथा नगरीकरण को प्रोत्साहित किया है ।यह वे प्रक्रियाएं हैं जिनके द्वारा विशाल जनसंख्या एक केंद्र बिन्दु के चारों ओर केन्द्रित हो जाती है और इसी केंद्र बिन्दु के चारों ओर निवास करने के लिए प्रेरित होती है ।यह एक ऐसा स्थान होता है, जहां किसी भी प्रकार की पूर्व नियोजित योजना नहीं होती है ।मकानों का निर्माण अव्यवस्थित होता है तथा किसी प्रकार की योजना को स्थान प्रदान नहीं किया जा सकता है ।गली ओर नालियों की समुचित व्यवस्था नहीं होती है ।पीने का पानी पर्याप्त मात्रा में सर्वसुलभ नहीं होता है ।एक ही स्थान पर अनके व्यक्ति एक साथ नहाते, कपड़े साफ़ करते और पीने का पानी भरते हैं ।सार्वजानिक नलों पर पानी के बर्तनों को कतारों में रख दिया जाता है और यह कतार इतनी लम्बी होती है जिसके बर्तन कतार में न हों, उसे जल्दी पानी प्राप्त करना असंभव हो जाता है ।गंदे पानी को बाहर निकालने के लिए वैज्ञानिक तरीकों से निर्मित नालियां नहीं होती है ।इससे पानी इधर-उधर फैलता है और सड़ता रहता है ।कूड़े-कचरों के फैंकने के व्यवस्थित स्थान नहीं होते हैं और उनकी साफ-सफाई की ओर भी विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है ।वहां पर जनसंख्या का दबाब भी अधिक होता है ।इसका परिणाम यह होता है कि वहां पर रहने वाली जनसंख्या नारकीय जीवन व्यक्तित करने के लिए बाध्य होती है ।उनका नैतिक पतन प्रारम्भ हो जाता है और वे अनेक प्रकार के समाजविरोधी कार्यों की ओर उन्मुख होने लगते हैं ।उनके रहन-सहन का स्तर निम्न होता है और इसमें निरन्तर गिरावट आती जाती है ।उनका जीवन अनेक समस्याओं से घिरा होता है और इन समस्याओं की मात्रा में निरन्तर वृधि होती जाती है ।मधपान, जुआ, वेश्यागमन आदि कार्यों की और अग्रसर होकर व्यक्ति विघटन को प्रोत्साहित करते हैं ।ये विघटित व्यक्ति परिवार और समाज को भी विघटिन के कगार पर लाकर खड़ा कर देते हैं ।
भारत में गंदी बस्तियाँ – यधपि भारत में औद्योगिकक्रांति की लहर काफी देर से आई और आज भी यह विश्व के अन्य देशों की तुलना से अत्यंत ही धीमी है, फिर भी भारत इस समस्या से अछुता नहीं रहा है ।भारत में इन गंदी बस्तियों का विकास औधोगीकरण और श्रमिकों का एक स्थान पर आकार निवास करने के फलस्वरूप है ।औद्योगिकक्षेत्रों में काम करने के लिए श्रमिकों की आवश्यकता होती है ।उधोगपति श्रमिकों को काम पर तो लगते जाते हैं किन्तु उनके रहने के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं करते हैं ।नगरों में मकानों का किराया अधिक होता है और मजदूर जितनी भी मजदूरी पाते हैं उससे वे अपनी “रोटी” की समस्या को ही सही ढंग से नहीं सुलझा पाते हैं ; किराये से अच्छा मकान लेकर रहना तो स्वप्न मात्र होता है ।फिर, शहरों में तो रहना ही पड़ेगा क्योंकि रोजी-रोटी का प्रश्न है ।ऐसी स्थिति में अत्यंत ही गंदे और जर्जर मकानों को किराये में लेते हैं और उनमें पशुओं की भांति कई परिवार के व्यक्ति निवास करते हैं ।ब्रिटिश श्रमिक संघ कांग्रेस का एक शिष्ट मंडल 1928 में भारत आया था ।इसने भारतीय श्रमिकों की आवास व्यवस्था पर जो टिप्पणी की है, वह निम्नलिखित हैं:
“हम जहां कहीं भी ठहरे वहां श्रमिकों के निवास स्थानों को देखने के लिए गये और यदि हमने उन्हें नहीं देखा होता, तो हमें इस बात का कभी भी विशवास नहीं हो सकता था कि इतने खराब मकान हो सकते हैं ।”
मकानों की यही दशा गंदी बस्तियों का मूल कारण है ।देश में नगरीकरण और औधोगीकरण की प्रक्रिया अत्यंत ही तीव्र है ।यदि हम भारत के व्यावसायिक आंकड़ों की ओर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि प्रधान देश होते हुये भी भारत में कृषि-व्यवसाय ओर आश्रित व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर कमी आती जा रही है और व्यवसायों पर आश्रित रहने वाले व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर वृधि होती जा रही है ।यधपि भारत में कुटीर उधोगों को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गयी है, किन्तु इस क्षेत्र में प्रगति नहीं हुई है ।ऐसा लगता है कि भारतीय जनता की कुटीर उधोग में अधिक आस्था नहीं है ।भारत में विशाल उधोगों के क्षेत्र में ही प्रगति हुई है ।ये विशाल उधोग नगरों में ही स्थापित किये गये हैं क्योंकि नगरों में सभी प्रकार की सुविधाएं प्राप्त हैं ।भारतीय गाँव आजादी के 60 वर्ष बाद भी इन सिवुधाओं से काफी दूर हैं ।यहां कुछ प्रमुख भारतीय नगरों में विकसित और स्थापित गंदी बस्तियों की विवेचना ही पर्याप्त है ।यह विवेचना निम्नलखित हैं :
(अ) 91.24 प्रतिशत परिवार ऐसे थे जो एक ही कमरे वाले मकानों में निवास करते थे,
(आ) इन चालों में रहने वाली जनसंख्या में 74 प्रतिशत श्रमिक थे,
(इ) 79 प्रतिशत मकानों में शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं थी, और
(ई) 81 प्रतिशत कमरों में पानी को कोई भी व्यवस्था नहीं थी ।
बम्बई के श्रमिकों की एक बस्ती का वर्णन करते हुए बी.शिवाराव ने लिखा है कि “जब बम्बई में श्रमिकों की एक बस्ती में एक लेडी डॉक्टर एक मरीज को देखने गयी तो उसने देखा कि एक कमरे में 4 गृहस्थियाँ रहती थी, जिनके सदस्यों की संख्या 14 थी ।”
बम्बई में श्रमिकों की दयनीय दशा को देखते हुए श्री हर्स्ट ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं “रहने की दशाएं यहां सबसे ख़राब हैं ।एक संकरी गली में, जिसमें कि दो व्यक्ति एक साथ नहीं जा सकते हैं, (लेखक के ) घुसने के बाद इतना अँधेरा था कि हाथ से टटोलने पर ही कमरे का दरवाजा मिला ।उस कमरे में सूर्य का लेशमात्र भी प्रकाश नहीं था ।ऐसी दशा में दिन के 12 बजे थे ।एक दियासलाई जलाने के बाद ज्ञात हुआ कि ऐसे कमरों में भी श्रमिक रहते हैं”
शाही श्रम आयोग ने भी इसी प्रकार के दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं – “अधिकतर चालों में कोई सुधार करने की गुंजाइश नहीं है और उनको नष्ट कर देने की आवश्यकता है ।”
उपयुर्क्त आयोगों के प्रतिवेदनों और विचारकों, लेखकों तथा समाजसुधार कार्यकर्ताओं के विचारों का मनन और चिंतन करने से स्पष्ट हो जाता है कि बम्बई की यह गंदी बस्तियाँ, जिन्हें चाल के नाम से जाना जाता है, मानव पतन की पराकाष्ठ के चित्र प्रस्तुत करती हैं ।इनको देखकर किसी भी इंसान का ह्रदय स्वभावत: पीड़ा और वेदना से भर जाता है ।इन चालों में रहकर व्यक्ति सभी प्रकार के समाज- विरोधी कार्यों को सम्पादित करने के लिए बाध्य होता है ।
“एक बस्ती में बहुत से कच्चे मकान होते हैं जिसमें सड़कों, नालियों, प्रकाश और जल की कोई व्यवस्था नहीं होती है ।यह बस्तियाँ दुःख, कुकर्म, गंदगी रोग और बीमारियों को जन्म देती है ।इन बस्तियों में बहुधा हरे और दूषित जल से भरे हुए तालाब पाये जाते हैं जिनमें प्राय: वहां के निवासी सड़ी हुई सब्जियां और पशुओं का मलमूत्र फेंकते रहते हैं और यह वहां सड़ता रहता है ।अधिकतर श्रमिक अपने दैनिक प्रयोग के लिए पानी इन तालाबों ही से प्राप्त करते हैं ।इन बस्तियों में सम्पूर्ण परिवार निवास करता है वे एक कमरे के मकान में भोजन करते हैं और रहते हैं तथा पुरे परिवार को एक नम और भींगे हुए फर्श पर चटाई बिछाकर सोना पड़ता है ।
कलकत्ता कार्पोरेशन प्रशासन ने जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था, उसे एक शताब्दी से भी अह्दिक समय हो गया है ।किन्तु आज भी कलकत्ता ही इन बस्तियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, परिवर्तन यदि हुआ भी है तो वह यही कि इन बस्तियों की हालत निरन्तर बद-से-बद्तर होती जा रही है ।स्वतंत्रता के बाद भी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है और आज भी मानव इन बस्तियों में पतन और समाज-विरोधी कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित होता है ।इधर कुछ मिल मालिकों ने श्रमिकों के आवास के लिए मकानों के निर्माण का कार्य किया है किन्तु यह कार्य पर्याप्त नहीं हैं ।दूसरी ओर इन बस्तियों को समाप्त करने या सुधार करने की दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है ।
कानपुर श्रमिक जाँच समिति ने अपने प्रतिवेदन में इन आहातों के बारे में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं :
1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरु कानपुर की इन बस्तियों को देखने गये, तो उनका मानव ह्रदय उद्वेलित हो गया, वे अपनी भावनाओं को दबा नहीं सके तथा क्रोध और आवेश में आकार उन्होंने कहा था कि “ये गंदी वस्तियाँ से अधिक वीभत्स और घृणास्पद नहीं होंगे ।यहां पर व्यक्ति नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं, छोटे से कमरे में कई परिवारों के जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कार्य इसी एक कमरे में ही होते हैं ।इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का अधोपतन होता है और वह स्वभावतः समाजविरोधी कार्यों की ओर अग्रसर हो जाता है ।
चेरी – मद्रास भी इस भीषण समाजिक समस्या से परे नहीं हैं ।मद्रास में भी देश के अन्य नगरों की भांति ही गंदी बस्तियाँ हैं और वहां इन बस्तियों को चेरी या चेरिज के नाम से पुकारते हैं ।मद्रास में अधिकांश चेरियां कूम नदी के किनारे बनी हुई हैं ।इसके अतिरिक्त नगर के अन्य क्षेत्रों में भी चेरियां हैं ।इन बस्तियों में कमरों की औसत नाप 8 X 6 होती है ।यह कच्ची मिटटी के बने मकान होते हैं, इसलिए वर्षा में इनकी हालत अत्यंत ही ख़राब हो जाती है ।इनमें रहने वाले व्यक्ति अत्यंत ही दयनीय अवस्था में अपना जीवन व्यक्तित करते हैं ।महात्मा गांधी ने मद्रास की इन चरियों की दशा निम्नलिखित शब्दों में किया है :
“एक चेरी जिसे देखने मैं गया था, उसके चारों ओर पानी और गंदी नालियां थी ।वर्षा ऋतु मनुष्य जाने कैसे वहां रहते होंगे ? एक बात यह है कि चेरियां सड़क के स्तर से नीची हैं और वर्षा ऋतु में उनमें पानी भर जाता है ।इनमें सड़कों, गलियों की कोई व्यवस्था नहीं होती है और अधितकर झोपड़ियों में नाममात्र के रोशनदान भी नहीं होते हैं ।यह चेरियां इतनी नीची होती हैं कि बिना पूर्णतया झुके उनमें प्रवेश नहीं किया जा सकता है ।यहां की सफाई न्यूनतम स्तर की सफाई से भी कहीं ख़राब होती है”
गांधी जी ने मद्रास की एक चेरी का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह वास्तव में ह्रदय को दहला देनेवाला है ।इससे स्पष्ट हो जाता है कि चेरियां को सामन्य दशाएं कितनी अमानवीय है तथा इनमें पशुओं से भी ख़राब जिंदगी व्यतीत करता है ।मद्रास में अनुमानत: इन चेरियों की संख्या 200 से अधिक है ।इनमें से अधिक चेरियां निजी स्वामित्व की हैं और बाकी सरकारी, मद्रास नगर की कार्पोरेशन तथा ट्रस्टों की हैं ।
भारत में उपर जिन चारों नगरों की गंदी बस्तियों की चर्चा की गई है, इनके अतिरिक्त भी अनके ऐसे नगर हैं जहां गंदी बस्तियाँ विकसित की गई है ।इन नगरों में अहमदाबाद, इंदौर, जबलपुर, दिल्ली आदि का नाम प्रमुख है ।आज भारतीय नगरों में तीव्रता के साथ औद्योगिकविकास होता जा रहा है ।इस औद्योगिकविकास के कारण अचानक एक स्थान पर बड़ी मात्रा में व्यक्तियों को निवास करने के लिए बाध्य होना पड़ता है ।चूँकि औधोगीकरण के साथ –ही साथ आवास-वाव्स्था का समुचित सुधार नहीं होता है, इसलिए गंदी बस्तियां विकसित होती हैं ।
भारत में खानों और बागान क्षेत्रों में भी गंदी बस्तियाँ विकसित हो गयी हैं ।इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में अधिक मात्रा में काम करने वाले मजदूर रहते हैं और उनके निवास आदि की उचित व्यवस्था न होने से ये गंदी बस्तियों के रूप में परिवर्तित होते हैं ।
गंदी बस्तियों के कारण
“उत्तम खेती, माध्यम व्यापार,
नीच चाकरी, भीख निदान ।”
भारत में चार प्रकार के व्यवसायों की चर्चा की गयी है :
आज विचारधारा बदल गयी है ।भारत में जिस कृषि को सर्वोच्च महत्ता प्रदान की गयी थी, आज उकसी ओर शिक्षित जनसंख्या का बिल्कुल ही झुकाव नही है और वह इसे असभ्य और पिछड़ेपन की निशानी मानती है ।जिस नौकरी को निकृष्ट(निम्न कोटि का) माना जाता था आज उसे सर्वाधिक महत्व प्रदान किया जा रहा है भारत के सभी व्यक्ति चाहते हैं कि उन्हें किसी-न-किसी प्रकार की नौकरी मिल जाय ।दुःख की बात तो यह है कि लोग गांवों में नौकरी भी नहीं करना चाहते हैं क्योंकि गाँवों को पिछड़ेपन का प्रतिक मानते हैं ।इससे नगरीकरण में वृधि होती है और गंदी बस्तियों का विकास होता है ।
जैसाकि उपर लिखा जा चूका है कि भारतीय गाँवों में खेती के अतिरिक्त अन्य रोजगारों का नितान्त अभाव है ।4-5 माह कृषि कार्य करने के बाद ग्रामीण व्यक्ति बेरोजगार हो जाते हैं और फिर रोजगार की तलाश में गाँवों से नगरों की ओर पलायन करते हैं ।नगरों में पहुंचनेवाले ये व्यक्ति आवास के अभाव में झुग्गी-झोपड़ियों का सहारा लेते हैं, इसका परिणाम यह होता है कि गंदी बस्तियों का विकास होता है ।
९. प्राकृतिक विपदाएं – समय-समय पर पड़ने वाली प्राकृतिक विपदाएं भी भारतीय नगरों में गंदी बस्तियों के लिए उत्तरदायी हैं ।इन प्राकृतिक विपदाओं में अकाल, बाढ़, सूखा आदि प्रमुख हैं ।इन प्राकृतिक विपदाओं का सीधा प्रभाव कृषि पर होता है कृषि पैदावार में गिरावट आती है ।अनके अवस्थाओं में कुछ ऐसी प्राकृतिक विपदाएं जैसे – पाला, ओला, बाढ़ , सुखा आदि प्रमुख आती हैं तो लगी फसलें भी सुख जाती हैं, नष्ट हो जाती हैं और किसान का सारा जीवन संकटग्रस्त हो जाता है ।भारत में प्रतिवर्ष इन प्राकृतिक विपदाओं के कारण खेती की भारी मात्रा में हानि होती है ।खेती ही ग्रामीणजनों के भरण-पोषण का आधार होती है ।ऐसी अवस्था में ग्रामीण जन किस प्रकार से अपना जीवनयापन करें ? गाँवों में अन्य उधोग-धंधे तो होते नहीं, जिसकी शरण में विपदाओं का शिकार ग्रामीण व्यक्ति जा सकें, अत: ऐसी अवस्था में ग्रामीण व्यक्तियों को एक ही रास्ता प्रतीत होता है और वह रस्ता है – नगर की ओर पलायन करने की ।व्यक्ति विवश होकर नगरों की शरण लेते हैं ।आवास के अभाव में उन्हें गंदी बस्तियों में निवास करना पड़ता है ।इससे गंदी बस्तियों को प्रोत्साहन मिलता है ।
10. नगरों में सामाजिक सुरक्षाएं – भारतीय ग्रामीण समाज में नगरों की तुलना में सामाजिक सुरक्षाएं अत्यंत ही कम हैं ।उदाहरण के लिए गांवों में चोरों, लुटेरों और आवाराओं से बचने के लिए न तो पुलिस है और न ही बीमारियों से बचने के लिए चिकित्सालय और डॉक्टर ही ।इसके अतिरिक्त गाँवों में शिक्षा, सांस्कृतिक जीवन, मनोरंजन, सन्देश और संचार के साधन आदि की सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं ।आज का ग्रामीण उपर्युक्त बातों को जीवन के लिए आवश्यक समझता है ।उसका विश्वास है कि नगरों में जाकर वह इन सभी सुविधाओं को प्राप्त कर सकता है ।फिर गाँवों में जाति आदि के बंधन भी कठोर और निन्दनीय जीवन व्यतीत करना पड़ता है ।गाँवों का “नरइना” नगर में “नारायणदास” के नाम से परिचित होकर गर्व और प्रतिष्ठा की अनुभूति करता है ।इस सबका परिणाम यह होता है कि व्यतीत गाँवों के अपेक्षा नगरों को अच्छा मानते हैं और वहां रहना भी पसंद करते हैं ।इसका परिणाम यह ही होता है कि नगरीकरण कि नगरीकरण की प्रक्रिया गतिशील हो जाती है और गंदी बस्तियों का विकास होता जाता है ।
11. नगर नियोजन का अभाव – नगर नियोजन का अभाव भी भारतीय नगरों में गंदी बस्तियों के लिए उत्तरदायी हैं, नगरीय जनसंख्या में जो वृधि हुई है वह किसी योजना के अधिन नहीं है ; इससे अनेक समस्याओं के विकास होता है ।इन समस्याओं में गंदी बस्तियों की समस्या एक है ।
12. अन्य कारण – भारत में गंदी बस्तियों के लिए उत्तरदायी जिन कारणों की विवेचना की गयी है, उनके अतिरिक्त अन्य अनेक कारण भी हैं जो नगरीकरण को प्रोत्साहित करते हैं ।इनमें से कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं :
(अ) पारिवारिक कलह
(आ) सामाजिक बहिष्कार
(इ) रीती-रिवाज और रुढियों की उपेक्षा तथा
(ई) अनाथ अवस्था और ग्रामीणों पर अत्याचार ।
गंदी बस्तियों के दुष्परिणाम- गंदी बस्तियां समाज के लिए सबसे बड़ी कलंक की निशानी हैं ।ये उस मानव समाजों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है जो अपने को सभ्य और प्रगतिशील कहते हैं ।आज मानव चाँद पर पहुंच गया है और भविष्य में वह अन्य ग्रहों पर भी विचरण करेगा ।विज्ञान और औधोगिकी ने अत्यधिक मात्रा में प्रगति की है, किन्तु धरती पर रहने वाले इन मानवों की समस्याएं आज भी ज्यों-की-त्यों हैं उर मर्ज और भी गंभीर होता जा रहा है तथा मरीज की हालत और भी खराब होता जा रही है ।इसलिए इस समस्या की ओर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है ।इसका सामाजिक जीवन पर अत्यंत ही बुरा प्रभाव पड़ता है ।गंदी बस्तियों के सामाजिक दुष्परिणामों को मुख्यरूप से निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है :
(अ) मधपान,
(आ) मादक द्रव्य व्यसन
(इ) जुआ खेलना और दांव लगाना
(ई) आत्महत्या
उपर्युक्त सभी घटनाएं मानव पतन और व्यक्तिगत विघटन की प्रतिक हैं ।
समस्या के समाधान के सुझाव- मौलिक प्रश्न यह है कि समस्या का समाधान किस प्रकार किया जाय ? ऐसे कौन से साधन हैं जिनकी सहायता से मानव को इस नारकीय यातना से मुक्त किया जा सके ? समस्या अत्यंत ही उग्र हो गयी है और गरीब अंतिम सांस ले रहा है ।समस्या बहुत गंभीर हो गयी है अत: इसका निराकरण साधारण-सी बात नहीं है ।फिर भी कोई ऐसी समस्याओं की तुलना में अधिक लगन परिश्रम और बुद्धिमानी की आवश्यकता है ।यहां इस समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं :
(अ) भूमि पर जनसंख्या के दबाब को कम किया जाय अर्थात जनसंख्या वृधि पर रोक लगायी जाय,
(आ) कृषि की नई और कुशल रीतियों को अपनाया जाय,
(इ) कृषि की भूमि के विभाजन और अपखंडन पर रोक लगायी जाय ।
(ई) कृषि शिक्षा का प्रसार किया जाय,
(उ) सिंचाई सुविधाओं के विस्तार किया जाय,
(ऊ) कृषि अनुसंधान कार्यों को प्रोत्साहित किया जाय,
(ऋ) शासकीय कृषि फार्मों की स्थापना की जाय और इनकी सहायता में कृषकों में जागरूकता का प्रसार किया जाय ,
(ऌ) अच्छी किस्म के बीज और खाद तथा अच्छी नस्ल के बैलों का कृषि में प्रयोग किया जाय,
(ऍ) विनाशकारी कीड़े-मकोड़ों पर रोक लगायी जाय,
(ऎ) भूमि के कटाव को रोका जाय और
(ए) फसलों की पद्धति में आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन किया जाय ।
(अ) वातावरण सम्बन्धी सफाई – इसमें गंदी बस्तियों का जीर्णोधार करना तथा वहां नालियों आदि का निर्माण करना और पानी तथा बिजली की व्यवस्था करना आदि सम्मिलित हैं ।
(आ) व्यक्ति संबंधी सफाई – केवल वातावरण को साफ करके ही गंदी बस्तियों की सफाई नहीं की जा सकती है ।इसके लिए उन व्यक्तिओं की सफाई आवश्यक है जो इन गंदी बस्तियों में निवास करते हैं ।इन व्यक्तिओं में नैतिक रूप से पतित, बीमारी विघटित व्यक्ति आदि सम्मिलित है ।
(अ) नियोजन वैज्ञानिक हो तथा इसे कड़ाई से लागू किया जाय,
(आ) नगर और मकान आधुनिक सुविधाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप हों,
(इ) इन नगरों मनी जीवन सुरक्षा की गारंटी हो,
(ई) स्वच्छ पानी की पर्याप्त व्यवस्था हो ,
(उ) पार्क बगीचे, खेल के मैदान और मनोरंजन के साधनों की पर्याप्त व्यवस्था हो,
(ऊ) शिक्षा, संचार, व्यापार और बैंक व्यवस्था हो, तथा
(ऋ)सरकारी प्रबंध संतोषजनक हो ।
इस प्रकार नगरों को वैज्ञानिक सुविधाओं के अनुरूप नियोजित करके गंदी बस्तियों की समस्या को समाप्त किया जा सकता है ।
अध्ययन क्षेत्र का वर्णन (गंदी बस्ती) – गया शहर एक ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय महत्व का प्राचीन नगर है ।इस नगर के संबंध में विभिन्न प्रकार धार्मिक मान्यताएं जुडी हुई है ।इसके अतिरिक्त इसे गौतम बुद्ध नगरी भी कहा जाता है ।अत्यंत प्राचीन एवं ऐतिहासिक नगर होने के कारण यहां व्यवस्थित ढंग से भवन निर्माण नहीं हो पाया ।धार्मिक मान्यताओं से जुड़े रहने के कारण एक विशेष वर्ग के लोगों का निवास स्थल बन गय ।यहां का विष्णुपद मंदिर तथा कुछ अन्य धार्मिक स्थल पितृ आत्माओं की शांति के लिए तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए यहां आते हैं ।इन कार्यों को सम्पादित कराने वाले लोगों तथा तीर्थयात्रियों के माध्यम से अपनी जीविका चलाने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती गई ।इसके अतिरिक्त पुराना जिला होने के कारण भी यहां की आबादी में काफी वृधि हुई ।उधोग-धंधों के कारण भी जनसंख्या का घनत्व बढ़ता रहा, लेकिन आज के जनसंख्या वृधि का प्रमुख कारण नक्सल समस्याएं हैं ।गाँवों में नक्सवादियों के आतंक के कारण भी बहुत बड़ी संख्या में लोग शहर में आकार बस रहे हैं ।इस प्रकार शहर के सीमित स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व निरन्तर बढता जा रहा है ।शहर के पुराने भागों में अस्वस्थ आवास का बाहुल्य है ।मकान परस्पर इतने सटे हुए हैं कि उनमें स्वास्थ्यवर्धक हवा और प्रकाश की बहुत कमी रहती है ।खुले रौशनदान का अभाव, गंदी गलियां, कूड़ा-करकट और धुंआ, नालियों का अभाव आदि के कारण बस्तियों की विशेषताएं विकसित हो गयी है ।
गया नगरपालिका की स्थापना 1966 में हुई ।16 नवम्बर, 1983 को गया नगर निगम की स्थापना की गई ।इसी से पाप्त सुचना के अनुसार निगम द्वारा स्वीकृत निम्नलिखित मुहल्ला गंदी बस्ती की श्रेणी में आतें हैं :
10. सलेमपुर भुई टोली – वार्ड न० 17
11. लखनपुर – वार्ड न० 11
12. चमार टोली (घुघरी तांड) – वार्ड न० 2
13. बक्सुविगहा – वार्ड न० 3
14. अंदर रमना हरिजन टोली – वार्ड न० 22
15. पितामहेश्वर हरिजन टोली – वार्ड न० 21
16. नादरागंज मल्लाह टोली – वार्ड न० 20
17. ब्राह्मण टोली – वार्ड न० 1
18. माडनपुर, मंगलागौरी – वार्ड न० 4
19. भैरोस्थान, मंगलागौरी – वार्ड न० 19
20. गेवालविगहा – वार्ड न० 26
21. रामपुर – वार्ड न० 10
22. दुसाध टोली- वार्ड न० 13
23. भट्टविगहा – वार्ड न० 15
24. इमलियाचक – वार्ड न० 9
25. बनिया पोखर –वार्ड न० 5
26. डेल्हा –वार्ड न० 7
27. हरिजन टोला – वार्ड न० 25
28. कटारी – वार्ड न० 8
यधपि गया नगर निगम द्वारा स्वीकृत नगर की गंदी बस्तियों की कुल संख्या 28 है फिर भी अनेक ऐसे क्षेत्र हैं, जहां गंदी बस्ती की सारी विशेषताएं पायी जाती हैं ।जैसे-बैरागी, पंचायती अखाड़ा, पाहसी, पुरानी गोदाम, मुरापुर , धीमी टोल, कठोकर तालाब, गोल बगीचा, कोयरी बारी, बुनियादगंज, गांगुविगहा, महारानी रोड, नवागढ़ी, चाँद चौरा आदि उल्लेखनीय हैं ।
गंदी बस्तियों की स्थिति के उपयुक्त अध्ययन के लिए क्षेत्र की परिस्थिति, भौतिक, आर्थिक और भौगोलिक विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त होता करना आवश्यक है ।गया की गंदी बस्तियों को पूर्वतः पाँच भागों में बांटा गया है ।प्रत्येक प्रकार से एक क्षेत्र इस अध्ययन के लिए चुना गया ।चुने गए क्षेत्र निम्नलिखित हैं :
वर्ग प्रथम – ग्रामीण-सह-शहरी गंदी बस्ती छोटकी नवादा
वार्ड द्वितीय – भोजनाहीन गंदी बस्ती पह्सी
वर्ग तृतीय – भारी भीड़ वाली गंदी बस्ती पुरानी गोदाम
वर्ग चतुर्थ – छिन्न-भिन्न गंदी बस्ती – नादरागंज
वर्ग पाँच – झुग्गी झोपड़ियाँ – डोम टोली
इन नमूने के क्षेत्रों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है :
छोटकी नवादा - छोटकी नवादा क्षेत्र प्रथम वर्ग की गंदी बस्ती का प्रतिनिधित्व करता है ।गंदी बस्ती सुधार परियोजना के अंतर्गत गया नगर निगम के द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 30 प्रतिशत घर 20 से 30 वर्ष पुराने हैं तथा छिन्न-भिन्न अवस्था में थे ।यहां लगभग 600 मकान हैं जिनमें से 50 प्रतिशत अस्थायी मकान के अन्तर्गत रखे गये ।इनकी दीवारें मिटटी अथवा ईंट मिटटी से बनी थी, तथा छत खपडों से ढंकी थी ।किन्तु हाल में इस क्षेत्र की दशा आश्चर्यजनक ढंग से बदलती हैं ।यह क्षेत्र अब पूर्णत: रहने योग्य बन गया है ।इस क्षेत्र में शरीरिक श्रम करने वाले मजदूरों की संख्या अधिक है ।इस वर्ग में अधिकतर रिक्शा चालक, अकुशल मजदूर , कुशल मजदूर, ग्वाला आदि आते थे ।कुछ क्लर्क, शिक्षक, सरकारी कर्मचारी आदि भी इस क्षेत्र के उत्तर में अभी भी खेत, दक्षिण में बागेश्वरी स्थान, पूरब में फल्गु नदी तथा पश्चिम में गया कॉटन मिल है ।कोढ़ अस्पताल से लेकर कॉटन मिल तक का क्षेत्र इसके अन्तर्गत आता है ।यह वार्ड न० 1 में है ।
इस स्थान की कच्ची गलियां बहुत ही संकीर्ण हैं ।उनकी समान्य चौड़ाई तीन से चार फीट हैं ।ये गलियां वाहनों के आवागमन के लिए पूर्ण रूप से अनुपयुक्त है ।बहुत जगहों पर बद्तर नाली व्यवस्था के कारण घरों से निकलता हुआ गन्दा पानी प्राय: इन्हीं गलियों में आ जाता है ।प्राय: सभी क्षेत्रों में सरकारी नालों से निकला हुआ जल गलियों में फ़ैल जाता है तथा क्षेत्र को गन्दा करता है ।
पहसी – पह्सी क्षेत्र दुसरे वर्ग के अंतर्गत आता है ।इस प्रकार की गंदी बस्ती का विकास प्राथमिक योजना और भवन निर्माण की नियमितता के अभाव से हुआ है ।इस क्षेत्र के उत्तर में रोड है ।
यह क्षेत्र मुख्यत: निवास योग्य मकानों से बना है ।मकान बेतरतीब, बिना उचित नाली गली और सफाई के विहीन बनाये गये हैं ।इस तरह इस क्षेत्र में अत्यधिक अस्वस्थकर स्थिति व्याप्त है तथा इसे गंदी बस्ती बना रही है ।पहसी की गलियां व्यवस्थित रूप से निर्मित नहीं हुई हैं ।गलियां मुश्किल से पाँच से सात फीट तक चौड़ी हैं ।ये गलियां एक निश्चित दुरी पर जाकर दूसरी मुख्य सड़क से मिल जाती हैं ।कुछ गलियाँ एक निश्चित दुरी पर जाकर समाप्त हो गयी हैं ।कुछ समय पहले तक इस क्षेत्र के अधिकांश मकानों में खुले शौचालय थे ।अधिकतर नालियां खुली हुई हैं और जहाँ-तहाँ नालियों का पानी बिखरा दिखाई देता है ।नालियों की स्थिति बहतु दयनीय है, लगता है कि वर्षों से इन नालियों की सफाई नहीं हुई है ।गलियां कुछ कच्ची तथा कुछ पक्की लेकिन टूटी-फूटी हैं ।मुख्य सड़कों पर भी पानी का जमाव रहता है ।यह क्षेत्र मुख्यत: निचली भूमि में निर्मित है जहाँ बरसात का पानी जमा हो जाता है तथा अस्वस्थकर स्थिति हो जाती है ।
इस क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के लोग जैसे किरानी, वकील शिक्षक, अफसर , डॉक्टर कलाकार आदि रहते हैं ।इनके अतिरिक्त कुछ समान्य मजदूर, रिक्शा चालाक, भिखमंगे और मुसहर आदि इस क्षेत्र में बसते हैं ।यह क्षेत्र गया नगर निगम के वार्ड न० 3 में स्थित है ।
पुरानी गोदाम – पुरानी गोदाम क्षेत्र तीसरे वर्ग के अंतर्गत आता है ।यह गया शहर के मध्यम में आता है ।इसके उत्तर में टिकारी रोड दक्षिण में कठोकर तालाब, पूरब में धामी टोला तथा पश्चिम में स्वराज्यपुरी रोड है ।इस तरह पुरानी गोदाम क्षेत्र गया नगर निगम के वार्ड न० 9,10,14,15,16, और 17 में स्थित है ।पुरानी गोदाम गंदी बस्ती विकास क्षेत्र लगभग 90 एकड़ भूमि में है तथा यहां की आबादी लगभग 15 हजार है ।यह नगर की सबसे अधिक घनी आबादी का क्षेत्र है ।इसकी जनसंख्या का घनत्व 150 व्यक्ति प्रति एकड़ है ।यह घनत्व प्रदर्शित करता है कि इस क्षेत्र में समुचित जल बहाव व्यवस्था, खुला स्थान, आवश्यक सामुदायिक सुविधाओं और नागरिक सुविधा का पूरी तरह अभाव है ।मुख्य सड़क पक्की है लेकिन सड़क गोदाम की गंदगी फैली रहती है ।सड़क की स्थित्ति कच्ची सड़क से भी बदतर है ।अन्य सड़कों पर पानी का जमाव देखा जा सकता है ।नाली खुली हुई है तथा सफाई के आभाव में उपर तक भर गयी है ।नाली का पानी सड़कों पर बहता रहता है ।इस तरह अत्यधिक अस्वस्थकर स्थिति इस क्षेत्र में व्याप्त हैं ।यह क्षेत्र भी मुख्यत: निवास योग्य भवनों से निर्मित है और भूमि पर मकान तथा मकानों में आदमी की भीड़ का उत्कृष्ट उदाहरण है ।इस मुहल्ले में पाँच से दस फीट गलियों के होने के करण यह एकदम संकुचित है ।पतली गलियां वाहनों के आवागमन के लिए एकदम अनुपयुक्त हैं ।इस क्षेत्र के अधिकांश लोग व्यपार का कार्य करते हैं ।कुछ लोग किरानी, वकील और शिक्षक आदि हैं ।यह क्षेत्र मुख्य व्यपारिक केंद्र है ।इस क्षेत्र में अनाज की मंडी हैं तथा बहुत ही प्रमुख कपड़ों तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की दूकान है ।
नादरागंज – चौथे वर्ग की गंदी बस्ती के अंतर्गत नादरागंज क्षेत्र आता है ।इस क्षेत्र के पूरब में बभनी घाट, पश्चिम में राजेन्द्र आश्रम, उत्तर में पितामहेश्वर तथा दक्षिण में नवागढ़ी है ।प्रयोग के अभाव में गया नगर का यह क्षेत्र गंदी बस्ती में परिवर्तित हो गया है ।यह क्षेत्र गया नगर निगम के वार्ड न० 20 में पड़ता है ।इस क्षेत्र में बहुत सारी पतली-पतली गलियां हैं ।पानी के बहाव का कोई उचित मार्ग नहीं है ।फलस्वरूप इस क्षेत्र में हमेशा जल का फैलाव सड़कों और गलियों पर देखा जा सकता है ।इस क्षेत्र में हमेशा जल का फैलाव सडकों और गलियों पर देखा जा सकता है ।इस क्षेत्र की आबादी लगभग 5 हजार है ।
झुग्गी-झोपड़ी – पाँचवे वर्ग की गंदी बस्ती के अन्तर्गत झुग्गी-झोपड़ी आते हैं जो लभभग गया शहर के कई भागों में फैले हुए हैं ।ये झोपड़ियाँ नगरपालिका अथवा निगम की भूमि पर जल्दबाजी में बेतरबित ढंग से तथा कामचलाऊ रूप से बना लिये जाते हैं ।उदाहरण के लिए स्टेशन के पूरब में डोम टोली का क्षेत्र, छोटकी डेल्हा , एक नम्बर गुमटी के पास का क्षेत्र, मुरली हील पहाड़ी के पास का क्षेत्र, रामशिला पहाड़ के आस-पास का क्षेत्र तथा इसी प्रकार के अन्य क्षेत्र इसके अंतर्गत आते हैं ।
इस क्षेत्र में स्टेशन के पूरब डोम टोली के क्षेत्र को पांचवी श्रेणी में रखा गया है । इस क्षेत्र के उत्तर में मुरली हील पहाड़ी, दक्षिण में गोल-बगीचा, पूरब में तेल बिगहा तथा पश्चिम में गया स्टेशन है ।गया नगर निगम के वार्ड न० 5,13 और 14 में पड़ता है ।यहां की झोपड़ियाँ अस्थायी है तथा छतें नारियाँ, खपड़े, पुआल तथा निवारी से ढंकी है ।ये प्राय: एक कमरे की झोपड़ी है ।अधिकांश झुग्गी निवासी अत्यंत पिछड़ी जाति अथवा हरिजन हैं ।ये झाड़ू लगाने वाले भंगी हैं ।इन क्षेत्रों में अत्यधिक अस्वस्थकर स्थिति व्याप्त है ।यहां के निवासीयों को कोई भी नागरिक सुविधा प्राप्त नहीं है ।
इस प्रकार गंदी बस्तियाँ नगर में बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही हैं ।सरकार भी इस प्रकार की झुग्गी झोपड़ियों को रोकने में उत्सुक नहीं दिखाई पड़ती है ।1976-77 में अर्थात पिछली एमरजेंसी में गंदी बस्तियों को हटाने और सरकारी जमीन को खली करवाने का एक अभिमान आरम्भ किया गया था, किन्तु बाद में वह भी प्रभावहीन हो गया ।सरकार बीच-बीच में अतिक्रमण विरोधी अभियान के अंतर्गत झुग्गी-झोपड़ियों को तोड़कर स्थान खाली करवाती हैं किन्तु ये झोपड़ियाँ गया शहर के बाहर न जाकर शहर के ही एक क्षेत्र से दुसरे क्षेत्र में सरकरी अथवा नगर निगम की जमीन पर बनती रही या फिर उसे तोड़े गये स्थान पर बना ली गई ।
अध्ययन विधि – प्रस्तुत अध्ययन में चुने हुए गंदी बस्तियों में 200 परिवारों का चयन सुविधाजनक निदर्शन विधि के आधार पर किया गया है ।चुने हुए उत्तरदाताओं के साक्षात्कार अनुसूची के द्वारा तथ्यों का संकलन में सहयोगी साबित हुआ है क्योंकि गंदी बस्ती में रहने वालों से पूरी सुचना एकत्रित करवाना काफी कठिन परिश्रम का काम है ।एकत्रित तथ्यों का समान्य, संखिकीय विश्लेषण कर तालिका के माध्यम से तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण किया गया है ।
औधोगिकीकरण और नगरीयकरण ने अनेक समस्याओं को नगर में उतपन्न करने का श्रेय प्राप्त किया है । निर्धन ग्रामीण व्यक्ति जीविका की खोज में नगरों और विशेषतया औद्योगिकनगरों में बड़ी संख्या में आ रहे हैं ।उसे पेट भरने के लिए यहां कोई काम मिल जाता है किन्तु रहने के लिए स्थान नहीं मिल पाता है ।उसे इतना भी स्थान नहीं मिलता है कि वह खाना बना सके, रात में सो सके और अपना खाली समय व्यतीत कर सके ।आवास भूमि का मूल्य नगर में अत्यधिक है और निर्धन श्रमिक और वेतनभोगी व्यक्ति की इतनी आय नहीं है कि भूमि क्रय कर के अपना मकान बना सके ।प्रात: से सायं तक वह अपने जीवन की अनिवार्य आवश्यताओं को पूर्ण करने में लगा रहता है ।न तो उसके पास धन है और न समय जिसने कि वह अपना मकान बना सके ।इसलिए वह झोपड़ी, कोठरी अथवा बांस के छप्परों में कुटिया बनाकर रहता है ।सैकड़ों मकान इस प्रकार के बनाकर श्रमिक नगरों में रहता है ।यहां जीवन किसी प्रकार व्यतीत करता है ।आवास की सुविधायें नाम की कोई चीज यहां नहीं होती ।यह वे स्थान हैं जहाँ गंदगी चिरस्थायी है ।यह नगर के नरक, कलंक और अभिशाप है ।इस प्रकार नगर में भूमि की कमी, अथवा इसका महंगा होना, चाहे उसे खरीदने के लिए हो अथवा किराये पर रहने के लिए, दोनों ही निर्धन श्रमिक और बेरोजगार व्यक्ति का क्षमता के बाहर की वस्तु है ।
गंदी बस्तियों को साफ करने पर नियुक्त परामर्शदाता समिति के अनुसार औद्योगिकनगरों में 6 प्रतिशत से 7 प्रतिशत लोग बस्तियों में रहते हैं ।मात्र कलकत्ता में 6 लाख व्यक्ति बस्तियों में रहते हैं ।यह अनुमान लगाया गया है कि एक करोड़ से अधिक व्यक्ति गंदी बस्तियों में निवास करते हैं ।यह आंकड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं क्योंकि जनसंख्या का दबाव नगरों पर अधिक है और उसे अनुपात में यहां मकान उपलब्ध नहीं होते हैं ।
गंदी बस्तियों के पृथक-पृथक नगरों में अलग-अलग नाम है जैसे कलकत्ता में बस्ती, बम्बई में चाल या झोपरपट्टी, मद्रास में पेरी और कानपुर में अहाता कहते हैं ।कानपुर के मलिन बस्तियों को देखकर नेहरु जी ने कहा था – ये गंदी बस्तियाँ मानवता के पतन की पराकाष्ठ की प्रतिक है जो व्यकित इन गंदी बस्तियों के लिए उत्तरदायी हैं, उन्हें फांसी की सजा दे दी जानी चाहिए ।
महात्मा गाँधी ने मद्रास की पेरी का वर्णन इस रूप में किये है – “एक पेरी जिसे मैं देखने गया था उसके चारों ओर पानी और गंदी नालियां थी ।वर्षा –ऋतू में यह व्यक्तियों के रहने योग्य स्थान नहीं रहते होंगे ।दूसरी बात यह है कि पेरीयां सड़क की सतह से नीचे हैं और वर्षा ऋतू में इनमें पानी भर जाता है ।इनमें सड़कों, गलियों की कोई व्यवस्था नहीं होती है और अधिकांश झोपड़ियों के नाम मात्र के भी रोशनदान नहीं होते ।ये पेरीयां इतनी नीची होती हैं कि बिना पूर्णतया झुके इनमें प्रवेश नहीं किया जा सकता है, सभी दृष्टि में यहां की सफी न्यूनतम स्तर से भी गई गुजरी होती है ।”
गंदी बस्तियों की विवेचना करते समय नगर की औधोगिकी प्रगति के साथ आवास समस्या पर भी पर्याप्त विचार किया गया है ।औद्योगिकनगर, महानगर और नगरों में आवास समस्या अत्यंत गंभीर है ।नगर में उधोगों के केन्द्रीयकरण, अधिक धन अर्जित करने का आकर्षण, जीवन सुरक्षा की अधिक सुविधायें, ग्रामीण संकटों में बचाव आदि ऐसे कारक हैं जिससे नगर, में जनसंख्या का दबाब निरन्तर बढ़ता जा रहा है मकान कम है और नगरीय जनसंख्या कहीं अधिक है ।इसलिए यहां गंदी बस्तियों में ही अधिक वृधि हुई है ।1918 में औद्योगिककमीशन ने चेतावनी दी थी कि यदि श्रमिकों की आवास समस्या का निराकरण शीघ्र से शीघ्र नहीं किया गया तो वह भविष्य में गंभीर समस्या का रूप धारण कर लेगी ।इस चेतावनी पर ब्रिटिश सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया ।नगरीकरण की प्रवृति में वृधि होने से नगरीय आवास समस्या समय के साथ और गंभीर होती गई ।1944 में स्वास्थ्य सर्वेक्षण और विकास समिति ने कहा था कि हमें औद्योगिकश्रमिकों के स्वाथ्य को ध्यान में रखकर उनकी आवास-समस्या पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ।एक कमरे में अनके श्रमिक रहते हैं जहाँ जीवन के सामान्य नैतिक नियमों का पालन करना संभव नहीं है ।इस छोटे से कमरे में रहना, सोना, खाना पकाना और आराम करना भी है ।इन मकानों में स्नानघर और शौच की कोई व्यवस्था नहीं होती ।शौच के लिए उन्हें काफी दूर जाना होता है ।यह तथ्य इस बात के प्रतिक हैं कि अंग्रेजी शासन काल में ही आवासीय समस्या पर विचार किया गया किन्तु इन्होने इसे न तो गंभीरता से लिया और न इस समस्या का निराकरण करने का प्रयास किया ।
प्रथम पंचवर्षी योजना में महसूस किया गया कि भारत में नगरों का विकास व्यवस्थित ढंग से नहीं किया गया है ।नगरों में जिस तरह के निम्न स्तरीय मकान पाये जाते हैं, वे स्वाथ्य की दृष्टि से बहुत ही ख़राब हैं ।गंदी बस्तियों में निरन्तर वृधि हुई है ।मिटटी के मकानों और झोपड़ियों वाले मकानों की संख्या अधिक है जिसमें न स्वच्छ वायु आने की सुविधा है और न प्रकाश और न पेयजल की सुविधा है ।कानपुर में आहाते और कलकत्ते की बस्तियाँ इनका उदाहरण हैं ।इसका उत्तरदायित्व बहुत कुछ राज्य सरकार अथवा नगर पालिकाओं पर है ।
वास्तव में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात राज्य और केंद्र सरकार को जितनी गंभीरता से आवास समस्या पर विचार करना था उतना नहीं किया , परिणामस्वरूप सम्पूर्ण भारत में नगर और महानगर अव्यवस्थित रूप से विकसित होते गए ।निर्धन और मध्यम परिवार के लिए भूमि लेकर मकान बनाना स्वप्न-सा ही है क्योंकि नगर में जमीन और मकान निर्माण की सामग्री बहुत महंगी है ।इसलिए यहां गंदी बस्तियों का निरन्तर विस्तार होते जा रहे हैं ।बम्बई के चाल अथवा झोपड़-पट्टी, कलकत्ते में बस्ती, कानपुर के आहाते, मद्रास के पेरी वे गंदी बस्तियाँ हैं जहां लाखों श्रमिक, निर्धन और मध्यम परिवार के व्यक्ति निवास करते हैं ।महानगरों का नाटकीय जीवन यहां देखे जा सकता है ।मनुष्य यहां पशुओं की तरह रहता और जीता है ।इन गंदी बस्तियों के विकास और विस्तार का मुख्य कारण है कि नगर में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही है और उसके अनुपात में मकान कही कम बने हैं इसलिए नगर में आवासीय समस्या सरकार के लिए एक चुनौती भी है और एक बहुत बड़ा संकट भी है ।
सामने व्यक्ति बगलों, महलों और कोठियों में रहने का सपना नहीं देखता है क्योंकि वह इस तथ्य से परिचित है कि वह धनी वर्ग का नहीं है और जीवन में संभवत: समान्य व्यक्ति के पास इतना धन कभी नहीं होगा कि वह महलों और कोठियों में रहे ।पर उसकी इच्छा अवश्य है किए ऐसे मकानों में रहे जो उसके परिवार के सदस्यों की आवश्यकता के अनुरूप हो ।परिवार के सदस्य आराम से रह सकें ।पानी, प्रकाश , हवा सुविधा हो ।ये सभी स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक हैं ।मकान खुले वातावरण में हो और उसके चारों तरफ गंदगी न हो जिससे किसी प्रकार की बिमारी न फैल सके ।
इस तथ्य से अब हम परिचित हो गये हैं कि भारत नगरों का विकास नियोजित ढंग से नहीं किया गया ।इसलिए नगर और महानगरों के दो स्वरूप दिखाई पड़ते हैं जैसे पुराना कानपुर, पुराना लखनऊ, पुराना आगरा, पुरानी दिल्ली, पुरानी पटना आदि है ।ये वे स्थान है जो घने बसे हैं ।तंग और संकरी गलियां, बहती हुई नालियों और सन्हास, कूड़े के ढेर, ऊँचे- ऊँचे मकान, जिसकी नीचे की मंजिलों में धूप और प्रकाश नाममात्र को भी नहीं आता है ।इन मकानों में सीलन और बदबू बनी रहती है ।
महानगर में दुसरे प्रकार के मकान है जिसका निर्माण नियोजित ढंग से किया जा रहा है ।वे मकान नगर विकास प्राधिकरण के तहत बनाये जा रहे हैं ।ये मकान निम्न मध्यम और उच्च वर्ग के व्यकित की आय के अनुसार बनाये जाते हैं ।निम्न वर्ग के भी मकान इस रूप में होते हैं कि उसकी आवश्यकताएँ कम से कम पूर्ण हो सके ।इन मकानों के चारों तरफ खुलापन होता है ।मकानों के मध्य पार्क होता है ।बाजार की पृथक बिल्डिंग होती है ।इस तरह नगर और महानगरों में सरकार नियोजित ढंग से जो मकान बना रही है वह पहले की अपेक्षा अधिक आरामदायक और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी ठीक है ।किन्तु दुःख यह है कि नगर और महानगरों में जनसंख्या लाखों और करोड़ों में हैं और इसके अनुपात में मकानों का निर्माण न के समान हो रहा है ।इसलिए नगर और महानगरों में गंदी बस्तियों का विस्तार होता जा रहा है ।इसके अतिरिक्त श्रमिक, जिसे दो समय का भोजन भी सरलता से उपलब्ध नहीं हो पता है, वह निम्न वर्ग के मकानों को कैसे खरीद सकता है ।इसलिए समर्थ वर्ग ही सरकार द्वारा बनाये हुए मकानों, पर अधिकार जमा लेते हैं और निर्धन और शोषित वर्ग अभी भी गली कुचे गंदी बस्तियों, आहातों, झुग्गी झोपड़ियों में रहता है जहाँ विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ उसका स्वागत करने को तैयार रहती है ।यहां निवास करने वाले व्यक्तियों की जहाँ कार्य क्षमता निरंतर कम होती जाती है वहीं अल्प आयु में ये मृत्यु के शिकार भी होते हैं ।इसलिए नगर और महानगरों की आवास समस्या एक गंभीर और जटिल समस्या बन गयी है ।
नगर और महानगरों में आवास समस्या के अनेक कारण हैं जो परस्पर एक-दुसरे से जुड़े हुए हैं ।यह एक सामान्य तथ्य हैं कि किसी भी गंभीर समस्या का जन्म किसी एक कारण से नहीं वरन अनेक कारणों से होता है ।गंदी बस्तियों के विकास के संदर्भ में जिन कारणों की हमने व्याख्या की है लगभग वे ही आवास समस्या के कारण हैं जैसे उधोगों का विकास, बड़ी संख्या में ग्रामीणों का नगर में काम को ख़ोज में आना, नगर में जनसंख्या की तीव्र गति से वृधि पडोसी क्षेत्रों से औद्योगिकनगरों में व्यक्ति का काम के लिए आना, नगरीकरण में तीव्रता से वृधि, भूमि के मूल्य में अत्यधिक वृधि आदि ।
सरकार द्वारा आवास समस्या के निराकरण के प्रयास – गंदी बस्तियों को हटाने और उनका सुधार करने के लिए सरकार कुछ महवपूर्ण कार्य कर रही है ।गंदी बस्तियों को हटाने के लिए द्वितीय पंचवर्षी योजना में 20 करोड़ रूपये निश्चित किए गए जिसे बाद में घटाकर 15 करोड़ कर दिया गया ।यह भी निश्चित किया गया है कि गृह निर्माण में जितना रुपया व्यय किया जाएगा ।उसमें केन्द्रीय सहायता के तौर पर 25 प्रतिशत और ऋण के रूप में 50 प्रतिशत देगी ।इस प्रकार राज्य सरकारों को 25 प्रतिशत व्यय करना होगा ।इस योजना के अंतर्गत 31 दिसम्बर, सन 1959 तक 3232 माकन बनाए गए और 11,761 बनाने शेष रह गए थे ।मकान निर्माण करने की यह गति अत्यंत मध्यम रही है ।
प्रथम पंचवर्षी योजना के नगरीय क्षेत्र में दो प्रकार की योजनाएं चली गई है ।ये हैं औद्योगिकआवास योजना और निम्न आय समूह के लिए आवास योजना ।इन योजनाओं के अंतर्गत 24.12 करोड़ रुपये के व्यय से 51,536 मकानों का निर्माण किया गया ।द्वितीय ओर तृतीय पंचवर्षी योजना में आवास समस्या के समाधान हेतु विशेष ध्यान दिया गया ।संघ सरकार ने द्वितीय पंचवर्षी योजना में 72.62 करोड़ और जीवन बीमा निगम ने 17.4 करोड़ रुपये गृह-निर्माण के लिए निश्चित किया ।इससे 1,45,078 मकानों का निर्माण किया गया ।द्वितीय पंचवर्षी योजना में आवास योजना पर 250 करोड़ रुपया व्यय किया गया और इससे लगभग 5 लाख मकानों का निर्माण हुआ ।तृतीय पंचवर्षी योजना में 87.55 करोड़ और जीवन बिना निगम में 60 करोड़ रुपये आवास समस्या के लिए निश्चित किये गए ।1,87,081 मकान इस योजना के अंतर्गत बनवाये गए और दिल्ली में झुग्गी झोपड़ी को हटाने के लिए 22,678 छोटे मकानों का निर्माण किया गया ।चतुर्थ पंचवर्षी योजना में राज्य के क्षेत्र में 114.86 करोड़ रुपये राज्यों के लिए 9.67 करोड़ रुपया संघीय क्षेत्रों के लिए आवास योजनाओं में व्यय होने का अनुमान लगाया गया था ।यहां पर यह भी ध्यान रखने की बात है कि सरकार पंचवर्षी योजनाओं के माध्यम से गंदी बस्तियों की समस्या का समाधान करने के लिए दृढ संकल्प है ।
सरकार आवास समस्या के समाधान हेतु सदैव जागरूक रही है ।उसने कमजोर वर्ग और औद्योगिकश्रकिकों के लिए अनेक प्रकार और महानगरों में मकानों का निर्माण किया है ।उसने निम्न और मध्यम आय वर्ग के लिए विशेषतया लाखों मकानों का निर्माण करके उन्हें सरल किश्तों पर बेचा जा रहा है ।राज्य के आवास विकास बोर्ड को केंद्र करोड़ों रुपयों की वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है ।इसी प्रकार बाग़ में कार्य करने वाले श्रमिकों की आवास समस्या को 50 प्रतिशत ऋण देती थी और साढ़े सैंतीस प्रतिशत गृह निर्माण के लिए सहायता प्रदान करती थी ।यह योजना 1956 से आसाम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु ,त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में विशेषतया कार्यान्वित है ।दिसम्बर 1978 तक इस योजना में 129,475 मकानों का निर्मण किया जा चूका है ।
गंदी बस्तियों के सुधार हेतु 1956 से विशेष योजनाएं बनायी गयी है ।इस योजना मुख्यतः दो सिधांतों पर आधारित थी कि बस्तियों में जो व्यक्ति रह रहे हैं उन्हें वहीं पुन: स्थापित किया जाय अथवा निकट के स्थान पर मकान-निर्माण कर उन्हें बसाया जाए जिससे कि वे अपने कार्य स्थं में दूर न हो सकें ।इसके साथ ही इन मकानों का किराया बस्तियों में रहने वाले व्यक्तियों की आय के अनुरूप ही जिससे की वे सरलता से किराया दे सकें ।साथ ही वे मकान स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अच्छे होने चाहिए ।पेयजल की समुचित व्यवस्था की जाय और शौचालय और सीवर व्यवस्था भी होनी चाहिए ।इनमें चौड़ी सड़कें और गलियों का निर्माण किया जाय ।इन स्थानों पर स्कूल, पार्क , खेलने के मैदान, पुलिस स्टेशन, अस्पताल आदि की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए ।
जहां तक ग्रामीण आवास निवास की समस्या के समाधान का प्रश्न है प्रथम पंचवर्षीय योजना में इस पर विचार किया गया किन्तु इस पर समुचित धयान नहीं दिया गया ।इस योजना को सामुदायिक विकास योजना के साथ जोड़ दिया गया ।इस योजना में पयेजल, स्वाथ्य, सड़कों का निर्माण, ड्रेनेज व्यवस्था, शिक्षा आदि के साथ ही ग्रामीण आवास निवास की समस्या को भी जोड़ दिया गया है ।द्वितीय पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण आवास विकसा परकोष्ठ का निर्माण किया गया जिसने आवास विकास की समस्या पर विचार किया ।तृतीय योजना में ग्रामीण आवास सदस्यता पर गंभीरता से विचार किया गया ।विशेष रूप से ग्रामीण आवास समस्या पर विचार किया गया खेतिहर कृषकों के मकान के लिए भूमि देने की व्यवस्था की गयी ।
भारत के विभिन्न महानगरों में विभिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा लगभग दो लाख मकान प्रत्येक वर्ष बनाये जाते हैं ।इसके अतिरिक्त लाखों की संख्या में व्यकितगत रूप से मकान बनाये जा रहे हैं फिर भी आवास समस्या का समाधान नही हो पा रहा है ।
आज देश में आवास समस्या के निराकरण के लिए अनेक प्रकार की योजनाएं कार्यान्वित है ।निम्नलिखित आवास योजनाएं इसका उदाहरण है :
इसके अतिरिक्त वर्ल्ड बैंक गंदी बस्तियों में सुधार हेतु भारत सरकार को करोड़ों रुपयों की सहायता कर रहा है किन्तु जिस अनुपात में जनसंख्या में वृधि हो रही है उस अनुपात में आवास समस्या का समाधान हो पाना कठिन है ।आवश्यकता है जनसंख्या को नियंत्रित करने की जिससे लाखों ग्रामीण जीविका की खोज में नजर ना आ सकें ।
20 सूत्री कार्यक्रम के अंतर्गत प्रदेश की सरकार आवास समस्या के निराकरण हेतु प्रभावी कदम उठा रही है ।दुर्बल आय वर्ग की क्रय शक्ति को ध्यान में रखते हुए मकानों का प्रावधान किया गया है ।
आवास मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में एक है ।प्रत्येक व्यक्ति को आवास की जरुरत है ।वह व्यक्ति को केवल धूप और सर्दी से सुरक्षा ही नहीं करता है बल्कि उसकी मानसिक शांति एवं शक्ति को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।आवास में उपयुक्त एवं पर्याप्त स्थान का अभाव होने पर व्यक्तियों का, विशेषकर बच्चों का नैतिक विकास अवरुद्ध हो जाता है ।ये बचपन से ही विभिन्न अपराधमूलक कार्य करने लगते हैं तथा यौन संबंधी अपराधों से भी ग्रसित हो जाते हैं ।अत: आवास व्यक्तियों के मानसिक, शारीरिक एवं नैतिक विकास में सहायक है ।इस अध्ययन में गंदी बस्तीवासियों के आवास की व्यवस्था आदि के सम्बन्ध में अध्ययन किया गया है :
तालिका 4.1
आवास का स्वामित्व
स्वामित्व |
संख्या |
प्रतिशत |
अपना मकान (कर देते हैं) |
36 |
18.0 |
अपना मकान (नहीं कर देते हैं ) |
103 |
51.5 |
किराये का मकान |
61 |
30.5 |
योग |
200 |
100.0 |
उपयुर्क्त तालिका से यह विदित हैं कि अधिकांश बस्तीवासियों को अपना मकान है परन्तु अधिकांश मकान गैर-मजरुआ जमीन पर बना हुआ है जिसके कारण उसे कोई कर नहीं देना पड़ता है ।बिना कर देने मकानों की संख्या 51.5 प्रतिशत है ।केवल 18 प्रतिशत परिवारों को अपना मकान है जिसका उन्हें कर देना पड़ता है ।30.5 प्रतिशत आबादी किराया के मकानों में रहता है जो मकान मालिक को किराया देते हैं ।
तालिका 4.2
मकानों के प्रकार
प्रकार |
संख्या |
प्रतिशत |
पक्के का मकान |
21 |
10.5 |
मिटटी के मकान |
19 |
9.5 |
पक्के एवं कच्चे मकान |
67 |
33.5 |
झोपड़ी |
93 |
46.5 |
योग |
200 |
100.0 |
उपर्युक्त तालिक से स्पष्ट है कि अधिकांश व्यक्ति झोपड़ी में रहते हैं ।ये सभी झोपड़ियाँ गैर मजरुआ जमीन पर बनी हुई है ।कुछ मिटटी का मकान है ।उनमें से कई मकान गैर-मजरुआ जमीन पर है ।33.5 प्रतिशत परिवार कच्चे एवं पक्के मिश्रित मकान में रहते हैं ।केवल 10.5 प्रतिशत व्यक्तियों को पक्के मकान में रहने का सौभाग्य प्राप्त हैं जो सभी किराया देते हैं ।
तालिका 4.3
कमरों की संख्या
कमरा |
संख्या |
प्रतिशत |
1 |
95 |
47.5 |
2 |
71 |
25.5 |
3 |
31 |
15.5 |
4 |
3 |
1.5 |
योग |
200 |
100.0 |
करीब-करीब आधी (47.5) आबादी एक कमरे के मकान में रहती है ।यह सभी मकान झोपड़ी के हैं जो गैर मजरुआ जमीन पर बनी हुई है ।केवल 17 प्रतिशत उत्तरदाता ही तीन या चार कमरों वाले मकान में रहते हैं ।अत: यह स्पष्ट है कि जिन व्यक्तियों की झोपड़ियाँ एक कमरे वाला मकान प्राप्त है उनके लिए वह कमरा सोने तथा रसोई दोनो के लिए उपयोग में लाया जाता है ।इन छोटे मकानों व झोपड़ियों में हवा आने जाने तथा रोशनी का प्रबन्ध नहीं के बराबर होती है ।इस प्रकार के मकान स्वाथ्य के लिए हानिकारक हैं तथा बच्चों के मानसिक व शारीरक विकास के लिए अनुकूल नहीं हैं ।
इन मकानों में बिजली, पानी आदि की व्यवस्था नहीं होने से इनमें रहने वालों की स्थिति दयनीय मानी जा सकती है ।
तालिका 4.4
मकानों में सुविधा के मुख्य साधन
उपर्युक्त तालिका से यह स्पष्ट है कि अधिकांश मकानों में बिजली की कोई व्यवस्था नहीं है ।केवल 41 प्रतिशत मकानों में बिजली है ।जिन मकानों में बिजली है उनमे से काफी मकानों में सरकार की तरफ से बिजली की व्यवस्था नहीं की गई है ।अधिकांश मकान मालिक चोरी का तार लगा कर गैरकानूनी ढंग से बिजली का उपयोग करते हैं और वे दिन के समय तार निकाल देते हैं फिर शाम होने पर उसे जोड़ देते हैं ।कुछ मकान मालिकों के अनुसार बिजली कर्चारियों को इसके बारे में जानकारी है एवं वे यदा कदा उसे कुछ पैसे दे देतें हैं ।इस प्रकार झोपड़ियों में रहने वाले कुछ लोग भी गैर-कानूनी ढंग से बिजली का उपयोग करते हैं ।
उत्तरदाताओं का कहना है कि उनके निवास स्थान में पास-पड़ोस में पानी की व्यवस्था है ।39 प्रतिशत उत्तरदाताओं के घर में पानी का नल है तथा 61 प्रतिशत उत्तरदाता सार्वजानिक नल का पानी लाते हैं ।आप तौर पर उत्तरदाताओं का कहना है कि पानी की आपूर्ति अनियमित है ।ऐसे समय भी आते हैं जब कई-कई घंटे पानी बंद रहता है ।बिजली नहीं रहने पर भी पानी नहीं मिलना एक आम बात है ।पानी का प्रेसर भी बहुत कम है ।एक हांडी या बाल्टी पानी भरने में 10 मिनट समय लग जाता है ।सार्वजानिक नल से पानी लेने के लिए कतार में भी खड़ा रहना पड़ता है ।कुल मिलकर जल का अभाव एक समान्य बात है और जलाभाव के आदि हो चुके हैं ।
शौचालय मकान के लिए एक अनिवार्य अंग है ।परन्तु तालिका के अनुसार 38 प्रतिशत परिवारों को किसी प्रकार के शौचालय की सुविधा नहीं है ।वे सार्वजानिक शौचालय (5.5 प्रतिशत) या खुले मैदान में (32.5 प्रतिशत) शौच के लिए जाते हैं ।पटना शहर के कई स्थानों पर शौचालय बने हुए हैं ।मंदिरों, मोहल्ला में भी एक सार्वजानिक शौचालय है ।परन्तु शौचालय के उपयोग के लिए प्रति व्यस्क व्यक्ति को एक रुपया की दर से शुल्क देना पड़ता है ।बस्ती में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए विशेष कर झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के लिए प्रति व्यक्ति एक रुपया प्रतिदिन देना कठिन है ।अत: उन्हें खुली मैदान विशेषकर गंगा के किनारे शौच के लिए जाना पड़ता है ।13 प्रतिशत ऐसे उत्तरदाता हैं जिनके घर में परम्परागत खुली शौचालय है ।इन शौचालय की सफाई मेहतर द्वारा होती है ।49 प्रतिशत उत्तरदाताओं के घर में सेप्टिक शौचालय है ।सामान्य तौर पर शौचालयों का उपयोग भी प्रचलित है किन्तु प्राय: अर्थाभाव से उनका प्रयोग कम ही लोग कर पाते हैं ।
सारांश यह कि मकानों में स्थानाभाव ने केवल उन्हें गर्मी में ही बाहर होने के लिए विवश करती है, बल्कि सर्दी की रातें भी उन्हें बाहर ही सोकर गुजारनी पड़ती है ।बाहर सड़क के किनारे, फुटपाथों पर, सड़क पर, मैदान में सोना न केवल अस्वास्थकर होता है, बल्कि असुरक्षित भी होता है ।जलाभाव भी अस्वास्थ्यकर आदतों एवं गंदगी को बढ़ावा देता है ।वर्षा के या गंदे जमे हुए पानी में नहाना धोना आम बात है ।स्वैच्छिक संस्थाओं के द्वारा निर्मित स्नानघर एवं शौचालय का सीमित उपयोग का कारण केवल अथार्थभाव ही नहीं है, उसके प्रयोग के लिए अनुकूल प्रवृति एवं मनोवृति का भी उसमें अभाव है ।स्वछता एक आदत भी है जिसका विकास परिस्थितियों एवं प्रसिक्षण पर निर्भर करता है, जिसका इन गंदी बस्तीवासियों में सर्वथा अभाव है ।
गंदी बस्तीवासियों की आर्थिक स्थिति – गंदी बस्ती पर जितने भी अध्ययन इस देश में तथा विश्व के अन्य देशों में हुए हैं, उससे यह निष्कर्ष निश्चित तौर पर निकाला जा सकता है कि वस्तिवासियों की जीवन वृहत्तर समाज की जीवन शैली से अलग-अलग होती है तथा समाज के एक बाहरी अंश की तरह जिंदगी बिताने को मजूर होती है ।लेविस (1961) के अनुसार बस्ती में गरीबों की जिंदगी जीने वाले ये लोग एक अलग संस्कृति को जन्म देते हैं जिसे “कल्चर ऑफ पोवर्टी” के रूप में जाना जाता है ।लेविस ने अपनी मशहूर पुस्तक “कल्चर ऑफ पोवर्टी” में उन चार कारकों की चर्चा की है जिसके आधार पर बस्ती के जीवन को हम भलीभांति समझ सकते हैं –
प्रस्तुत अध्ययन में लेविस द्वारा बताए इन्हीं चार मूल्यों को ध्यान में रखकर बस्ती के जीवन विश्लेषण करने की चेष्टा की गयी है ।साथ ही प्रस्तुत विश्लेषण इन्हीं आयामों की समालोचना करती है ।अत: यह जरुरी हो जाता है कि सबसे पहले बस्तीवासियों के आर्थिक जीवन का विश्लेषण किया जाय ।
पेशागत विवरण – बस्ती की आर्थिक जीवन को समझने के लिए यह आवश्यक था कि हम लोग वहां की पेशागत जीवन के विषय में जानकारी प्राप्त करे क्योंकि हम निश्चित तौर पर यह कह सकते हैं कि किसी व्यकित के आय और उसके साथन अर्थात पेशा का उसके आर्थिक जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है ।इसी उदेश्य से प्रस्तुत अधययन के दौरान प्राथमिक स्तर पर उत्तरदाताओं का सर्वेक्षण किया गया ।वर्तमान आय स्तर को ध्यान में रखते हुए निम्न तालिका में उन्हें विभिन्न आय वर्गों में विभाजित कर उनकी पेशागत एवं आर्थिक जीवन का विश्लेषण प्रस्तुत करने की चेष्टा की गयी ।यदि हम वर्त्तमान मूल्य स्तर पर इनका विश्लेषण करें तो गरीबी रेखा की सीमा शेहरी क्षेत्र के लिए 11,000 रूपये प्रति वर्ष मानी गयी है ।
तालिका 4.5
मासिक आय एवं पेशा के अनुसार उत्तरदाताओं का विवरण
उपरोक्त तालिका के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि बस्तियों में रहने वाली 19.3 प्रतिशत की आबादी गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन यापन कर रही है साथ ही हमें यह भी देखने को मिलता है कि अधिकांश लोगों (52.0) प्रतिशत की मासिक आय 501 से 1000 रुपये तक ही सीमित है अर्थात हम यह भी मान सकते हैं कि बस्तियों की लगभग आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा के आस-पास की जीवन जीने को मजूर है ।तालिका हमें यह भी दर्शाता है कि मात्र 14 प्रतिशत परिवारों की मसिक आय 2000 से ऊपर है ।
जहां तक बस्तीवासियों की पेशागत जीवन का प्रश्न है तलिका से पता चलता है कि अधिकांश (40.0 प्रतिशत) नौकरी करने वाले या मजदूरी कर (29.5 प्रतिशत) अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं ।वैसे उत्तरदाताओं में 7.5 प्रतिशत भंगी, 4.5 प्रतिशत रिक्शाचालक, 4.0 प्रतिशत फेरी वाले तथा 3.5 प्रतिशत छोटे दुकानदार हैं ।
यदी उत्तरदाताओं की मसि आय और उनकी पेशा की तुलना हम करें तो गया होता है कि वैसे परिवार जिसकी मासिक आय 500 रुपये तक है ज्यादातर लोग (61.5 प्रतिशत) मजदूरी करते हैं या भंगी (12.8 प्रतिशत) तथा घेरुलू नौकर (10.2 प्रतिशत) का काम किया करते हैं ।उन परिवारों में जिनकी आय इससे कुछ अधिक अर्थात 501 से 1000 रूपये प्रतिमाह है उनमें अधिकतर या छोटी-मोटी नौकरी (36.5 प्रतिशत ) या मजदूरी (33.6 प्रतिशत) कने वाले हैं ।
तालिका पर गौर करने से यह भी ज्ञात होता है कि एक ओर जहां नौकरी तथा दुकानदारों वालों की आय में वृधि हुई है वहीँ दूसरी ओर एक रिक्शाचालक या भंगी 501 से 1000 रूपये मासिक आय से ऊपर नहीं उठ सकते हैं जबकि 2000 से अधिक आय वर्ग में शत-प्रतिशत नौकरी कनरे वाला ही है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बस्ती में आम तौर पर लोग बेहतर जीवन जीने की आशा में अभी भी जिंदगी जी रहे हैं ।एक ओर नौकरी करने वाले थोड़ी अच्छी जिंदगी जरूर बीता रहे हैं परन्तु समाज के एक बड़े हिस्से से कटे होने के कारण अभी भी बस्ती की उप-संस्कृति के शिकार हैं और हम यह कह सकते हैं कि उच्च वर्ग में पाये जाने वाले सामाजिक बंधन यहां अवश्य है परन्तु आर्थिक तंगी के कारण बे बंधन बहुत ही कमजोर दीखते हैं ।
आय-व्यय का विवरण – अब तक हमलोगों में बस्तिओं में रहने वाले लोगों की आय एवं पेशा की चर्चा की परन्तु जब तक किसी की आय की तुलना उसके व्यय करने के तरीकों या उनकी सीमाओं में नहीं की जाए उनके जीवन स्तर का सही मुल्यांकन कर पाना कठिन होता है ।हमलोगों ने देखा की बस्ती में रहने वाले अधिकांश गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे हैं ।फिर भी यदि हम इनके खर्च करने के तौर-तरीकों पर नजर डाले बिना इनके जीवन स्तर के विषय में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कर सकते हैं ।नीचे की तालिका में बस्तीवासियों की आय और व्यय का ब्योरा प्रस्तुत किया गया है ।
तालिका 4.6
उत्तरदाताओं की मासिक आय एवं व्यय विवरणी
तालिका पर एक सरकारी दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि लगभग 20.0 प्रतिशत लोगों की मासिक आय 501 से 1000 प्रतिमाह है ।उपरोक्त तालिका के आधार पर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि एक ओर कुल उत्तरदाताओं में 19.5 प्रतिशत की आय 500 से कम है वहीँ दूसरी ओर 500 रूपये प्रतिमाह व्यय करने वालों की संख्या 4.5 प्रतिशत है ।अत: यह कहा जा सकता है कि बस्तियों में कुछ असी लोग भी अवश्य हैं जो प्रतिमाह कुछ पैसों की बचत भी कर पाते हैं ।
उपरोक्त तालिका पर एक दूसरी नजर डालने में जिसमें विभिन्न आय वर्गों के उत्तरदाताओं के यदि उनके व्यय से जब हम तुलना करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज लगभग सभी आय वर्गों के लोग अपनी आय और व्यय में संतुलन कायम कर पाने में समर्थ नहीं दिखाते फिर भी कुछ-न-कुछ बचत अवश्य कर लेते हैं ।वस्तुत: इसका एक मात्र कारण ही हो सकता है कि उनमें लगभग सभी अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के उदेश्य से शहरों की बस्तियों में तमाम सुविधाओं के अभाव झेल रहे हैं ।या हम यूँ भी अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी सामजिक जिम्मेदारियां बहुत सीमित होने की वजह से ये झूठी ज्ञान और दिखावेपन जो आमतौर पर एक मध्यम वर्गीय परिवार को विरासत के रूप में मिलती है. ये अछूते हैं ।अत: इस संदर्भ में हमें उनके व्यय के तरीकों पर प्रकाश डालना आवश्यक हो जाता है ।
भोजन पर खर्च – अर्थशास्त्र के सूत्रों के अनुसार यह देखा जाता है कि गरीब व्यक्ति अपनी आय का एक बड़ा भाग खाद्य पदार्थों के क्रय पर ही खर्च कर देता है ।शायद है कारण रहा हो कि हमने प्रस्तुत अध्ययन में इस संबंध में विश्लेषण किया तो पाया कि कुल उत्तरदाताओं में अधिकांश अपनी आय का एक बड़ा भाग भोजन पर व्यय कर देते हैं ।तालिका से स्पष्ट होता है कि कुल उत्तरदाताओं में 79.5 प्रतिशत की आय 1000 रूपये प्रतिमाह है जबकि हमने यहां पाया है कि 99.5 प्रतिशत लोग अपने जीवन पर प्रतिमाह 1000 रुपये तक व्यय करते हैं जिसका अर्थ है यह होता है कि बस्ती में रहने वाले अधिकांश लोग अपनी आय का एक बड़ा भाग अपने भोजन पर खर्च करने को मजबूर हो जाते हैं जिससे उनके रहन-सहन का स्तर बहुत नीचा हो जाता है ।खाद्य सामग्रियों पर प्रतिमाह व्यय विवरण नीचे तालिका में प्रस्तुत किया गया है :
तालिका 4.7
उत्तरदाताओं द्वारा खाद्य पदार्थों पर मासिक व्यय पर ब्योरा
व्यय (रुपये में) |
संख्या |
प्रतिशत |
200 से कम |
27 |
13.5 |
201-300 |
41 |
20.3 |
301-400 |
23 |
11.5 |
401-500 |
39 |
19.5 |
501-600 |
29 |
14.0 |
601-700 |
15 |
7.5 |
701-800 |
9 |
4.5 |
801-900 |
11 |
5.5 |
901-1000 |
6 |
3.0 |
1000 से ऊपर |
1 |
0.5 |
योग |
200 |
100.0 |
बस्ती में रहने वालों की जीवन शैली और उनके आय व्यय करने के तरीकों पर भारत में पहले बी अध्ययन हो चुके हैं ।बेव (1971) के अनुसार मद्रास के बस्तियों में रहने वाली 60.0 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे बसर करती थी ।यहां प्रति व्यक्ति प्रतिमाह औसत वर्ष 1975 में मात्र 31.0 रुपये थी ।हैदराबाद की बस्तियों में प्रतिमाह आय 155.00 रुपये तथा बम्बई की बस्तियों के आधे से अधिक परिवारों की औसत मसिक आय 100-200 रुपये के बीच आंकी गयी थी जिसका उल्लेख 1972 में देसाई और पिल्लई के अध्ययनों से मिलता है ।डॉ.आर.सी. के 1977 में पेश किये एक प्रतिवेदन के अनुसार पटना की बस्तियों में रहनेवालों परिवारों की औसत मासिक आय 296 रुपये थी ।1950 में पुरानी दिल्ली में हुई एक अध्ययन से पता चला कि वहां के बस्तियों में रहनेवालों की प्रीतव्यक्ति मासिक आय मात्र 20 रुपये थी ।
वस्तुत: आय और व्यय के अध्ययन पर टिप्पणी करना कभी-कभी कठिन हो जाता है क्योंकि भारतवर्ष ही नहीं अन्य देशों में आय पर आंकड़ों संकलित करने में काफी कठिनाई होती है क्योंकि साधारणत: लोग अपनी आय का सही ब्योरा नहीं देते ।अत: आय के शैतान पर जब उनसे खर्च का ब्योरा माँगा जाता है तो वह कभी-कभी आसानी से प्राप्त हो जाते हैं हालांकि ये भी विश्वसनीयता की दृष्टि से खरे नहीं होते फिर भी बस्तियों के अध्ययन के लिए व्यय का ब्योरा ही न्यायोचित एवं तर्कसंगत होता है ।बस्तियों के अध्ययन में अधिकतर यह पाया जाता है कि आय और व्यय के आंकड़ों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं होता ।
कपड़े पर खर्च – शरीर पर ढँकने एवं सभ्य समाज में बदन छुपाने के लिए कपड़ा एक आवश्यकता है, परन्तु कई अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिया है कि बस्तीवासियों में रहनेवाले परिवारों द्वारा कपड़े पर बहुत ही कम खर्च किया जाता है ।माई-थोर के एक अध्ययन से यह पता चला कि बस्ती में रहने वाले लोग बहुत ही ख़राब या साधारण तरीके से अपने को सजाते संवारते हैं तथा साधारणत: ये लोग कपड़ों के मामले में आम जनता की दया एवं सरकार की सहायता पर निर्भरशील होते हैं ।कपड़े पर कम व्यय का एक कारण यह भी जान पड़ता है कि ये लोग समाज के सम्पन्न या धनी वर्गों की तरह आपसी प्रतिस्पर्धा और दिखावे की संस्कृति से दूर होते हैं ।कपड़ों का एक अनूठा ढंग और कीमती होना एक समूह विशेष के लिए बहुत मायने रखरा है, परन्तु बस्तियाँ जहां अधिकांशत: या सभी गरीबी रेखा के आस पास का जीवन बिनाते को मजबूर हों, कपड़ों के मामले में एकरूपता दर्शाते हैं ।
तालिका 4.7
उत्तरदाताओं द्वारा कपड़ों पर मासिक व्यय
व्यय (रुपये में) |
संख्या |
प्रतिशत |
20 से कम |
21 |
10.5 |
20-29 |
29 |
12.5 |
30-39 |
13 |
6.5 |
40-49 |
7 |
3.5 |
50-59 |
31 |
15.5 |
60-69 |
41 |
20.5 |
70-99 |
34 |
17.0 |
100 से ऊपर |
28 |
14.0 |
योग |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से यह ज्ञात होता है कि लगभग 48.5 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनका कपड़ों पर मासिक खर्च 60 रुपये से भी कम है तथा 14.0 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनका कपड़ों पर खर्च 100 रुपये प्रतिमाह या उससे अधिक होता है ।इस प्रकार यदि एक परिवार में औसतन 5 व्यक्तियों की संख्या मान लिया जाय तो यह खर्च प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 12-20 रुपये होता है जो 1994 की मूल्य सूचकांक के आधार पर लगभग नहीं के बराबर है ।अत: हम निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि बस्ती में रहने वालों की आर्थिक स्थिति एवं रहन-सहन का स्तर बहुत नीचा प्रतीत होता है ।
परिवार में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन काम करने के घंटे – प्राय: यह देखा जाता है कि परिवार की आर्थिक स्थिति सुद्रढ़ करने के लिए परिवार के मुखिया के अतिरिक्त पिरवार के अन्य सदस्य भी आर्थिक गतिविधियों में संलग्न हो जाते हैं ।अत: इस अध्ययन के दौरान यह जानने की भी चेष्टा की गयी है कि बस्तियों में रहने वाले परिवारों के कितने व्यक्ति काम पर जाते हैं ।उनसे प्राप्त आंकड़ों का विवरण निम्न तालिका में प्रस्तुत किया जरा रहा है :
तालिका 4.9
परिवार में काम करने वाले व्यक्तियों तथा कार्य करने के घंटे की विवरणी
काम के घंटे |
परिवार में काम करने वाले सदस्य (1) |
परिवार में काम करने वाले सदस्य (2) |
परिवार में काम करने वाले सदस्य (3) |
कुल संख्या |
प्रतिशत |
5 से कम |
7.6 |
2.5 |
12.5 |
14 |
7.0 |
5-7 |
22.9 |
5.0 |
6.2 |
36 |
18.0 |
8-10 |
31.9 |
22.5 |
6.2 |
56 |
28.0 |
11-13 |
29.9 |
7.5 |
6.2 |
47 |
23.5 |
14-16 |
4.9 |
30.0 |
12.5 |
21 |
10.5 |
17 से ऊपर |
9.2 |
13.3 |
13.6 |
10.5 |
---- |
कुल उत्तरदाता |
144 |
44 |
16 |
200 |
---- |
प्रतिशत |
72.0 |
20.0 |
8.0 |
100.5 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका के अवलोकन से ज्ञात होता है कि पटना शहर की बस्तियों में रहने वाले 72.0 प्रतिशत परिवारों में मात्र एक ही व्यक्ति कमाने वाले हैं तथा दो या तीन काम करने वाले परिवारों की संख्या क्रमश: 20.0 तथा 8.0 प्रतिशत है ।जहां तक काम के घंटों का प्रश्न है तालिका से यह भी ज्ञात होता है कि जिन परिवारों में मात्र एक व्यकित कार्यरत हैं वैसे परिवारों के व्यक्ति प्रतिदिन औसतन 9.2 घंटे काम करते हैं तथा कुल उत्तरदाताओं के परिवारों मनी कुल कार्यरत व्यक्ति प्रतिदिन औसतन 10.3 घंटे काम करते हैं ।इसका मुख्य कारण यह है कि पटना के बस्तीवासी अधिकांशत: अकुशल श्रमिक हैं, बम्बई के एक अध्ययन में यह पाया गया था कि वहां की ज्यादातर परिवारों में काम का औसत घंटा 8 है ।
उपर्युक्त तालिका से यह भी ज्ञात होता है कि वैसे पिरवार जिनमें एक काम करने वाला सदस्य है उनमें अधिकंश (31.9) से 10 घंटे से कम काम करते हैं ।
अत: परिवार में आय, पारिवारिक व्यय, परिवार में काम करने वाले सदस्यों की संख्या तथा काम करने के घंटे में समरूपता या यों कहा जाए कि इन सबों में या सभी आपस में एक दुसरे से सम्बंधित हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।वैसे बम्बई और मद्रास के अध्ययनों से भी यह पता चलता है कि वस्तुत: ये समस्याएं अर्धबेरोजगारी के कारण पैदा होती है ।इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि पटना की बस्तियों में बेरोजगारी, अर्धबेरोजगारी, गरीबी एवं तंगी की समस्याएं विधमान हैं ।
तालिका 4.10
उत्तरदाताओं द्वारा खाली समय का उपयोग
कार्य |
संख्या |
प्रतिशत |
घरेलू काम |
20 |
10.0 |
पत्रिका पढना |
12 |
6.0 |
सिनेमा/ टी० वी० देखना |
21 |
10.0 |
अराम करना / सोना |
52 |
26.0 |
पड़ोसियों के साथ बातचीत |
73 |
36.5 |
छोटे-मोटे धंधे |
20 |
10.0 |
सामाजिक कार्य |
2 |
1.0 |
योग |
200 |
100.0 |
साधारण तौर पर यह देखा गया है कि गंदी बस्तियों में रहने, अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने खाली समय का उपयोग किसी ऐसे कार्य में करते हैं ।जिससे उन्हें कुछ अतिरिक्त आय हो सके ।परंतु इसके विपरीत बम्बई के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि मात्र 4 प्रतिशत गंदी बस्तियों में रहने वाले व्यक्ति ही खाली समय में कुछ काम करते थे ।तथा दिल्ली के एक सर्वेक्षण से मात्र 1 प्रतिशत ही ऐसे बस्तीवासी पाये गये जो खाली समय का सदुपयोग अर्थ उपार्जन के लिए करते थे ।
उपर्युक्त तालिका से यह ज्ञात होता है कि पटना की गंदी बस्तियों में रहने वाले 10 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो अपनी आथिक स्थिति सुधारने के लिए अतिरिक्त समय में कोई छोटे-छोटे धंधों में लगे रहते हैं जबकि अधिकांश (36.5) पड़ोसियों के साथ गप करते हुए तथा 26 प्रतिशत अपना समय सोने या आराम करते हुए व्यतीत करते हैं ।10.5 प्रतिशत तथा 10 प्रतिशत उत्तरदाता क्रमश: खाली समय में टी० वी० या सिनेमा देखते हैं या घरेलू काम का निपटारा करते हैं ।अत: उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पटना की गंदी बस्तियों में रहने वाले बहुत हद तक गरीबी की संस्कृति के अंग हैं ।
गंदी बस्तियों के स्वास्थ्य स्तर- लोगों का स्वास्थ्य होना न केवल एक अभीष्ट उदेश्य है, बल्कि यह मानव संसाधनों में भी एक अत्यावश्यक निवेश है ।राष्ट्रिय स्वास्थ्य नीति, 1983 में सन 2000 ई० तक सभी के लिए स्वास्थ्य कार्यकर्मों के प्रति भारत सरकार की वचनबद्धता को दोहराया गया है ।स्वास्थ्य के क्षेत्र में देश को कई अपूर्व सफलताएँ मिली हैं, चेचक का उन्मूलन हो गया तथा प्लेग अब कोई समस्या नहीं रही ।मलेरिया, हैजा तथा विभिन्न बीमारियों में होने वाली रुग्णना दर एवं मृत्यु दर में कमी हुई है ।अशोधित जन्म दर तथा शिशु मृत्यु दर में 1947 की तुलना में भी कमी हुई है ।1971 में यह दर 38 और 129 थी जो अब 29.9 तथा 80 रह गयी है ।इनके बीच कई असंक्रामक रोग नई जन स्वाथ्य समस्या के रूप में उभरे हैं ।बदलते हुए शहरी आकार के कारण, शहरी स्वास्थ्य सेवाएं विशेष रूप विशेष रूप से गंदी बस्तियों पर विशेष ध्यान देने का संकल्प आठवीं योजना के अंतर्गत किया गया है ।
आठवीं योजना के अनुसार भारत की कुल आबादी का एक चौथाई भाग से भी ज्यादा शहरी क्षेत्रों में रहता है ।ऐसा भी अनुमान लगाया गया है कि महानगरों तथा बड़े शहरों की कुल आबादी का 40-50 प्रतिशत गंदी बस्तियों में रहते हैं जहां लोगों की स्वास्थ्य स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों जैसे ही ।किन्तु शहरी क्षेत्रों में तो प्राथमिक परिचर्चा के लिए आधारभूत सुविधाएं ही ही नहीं ।
1974 में शहरी गंदी बस्तियों का पर्यावरण सुधार कार्यक्रम को निम्नतम आवश्यकता कार्यक्रम का एक अभिन्न अंग माना गया और इसे राज्य रोग में स्थानांतरित यह योजना सभी क्षेत्रों की अधिसूचित गंदी बस्तियों पर लागू की गयी ।इस योजना का मुख्य उदेश्य गंदी बस्तियों में जल आपूर्ति सेवाएं, बरसाती पानी की नालियों, सामुदायिक स्नान गृह और शौचालय, गलियों और पगडंडियों को चौड़ा करना और सड़क पर रोशनी जैसी बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था करना था।सातवीं योजना काल के दौरान इस योजना पर प्रति व्यक्ति 300 रूपये खर्च का प्रावधान था जिसे 1991-92 में बढ़ा कर 525 रूपये कर दिया गया है ।
सुरक्षति पेयजल आपूर्ति तथा मूलभूत स्वच्छता, स्वास्थ्य तथा दक्षता के लिए अनिवार्य मानव जरूरते हैं ।प्रत्येक वर्ष रोग तथा मृत्यु विशेषत: बच्चों को क्या महिलाओं का कठिन काम करना प्रत्यक्षत: इन आवश्यकताओं के अभाव के कारण माना गया है ।शहरी जल आपूर्ति तथा स्वच्छता स्कीम राज्य क्षेत्र योजना का भाग है ।अत: इसके लिए केंद्र से सीधा वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं होती है और यहां राज्य संसाधनों की कमी के कारण अब तक इस शहर में पूर्ण स्वच्छ जलापूर्ति का अभाव रहा है ।
समुचित स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, दूषित पर्यावरण तथा स्वच्छ जलापूर्ति की परेशानियाँ मुख्य रूप से गंदी बस्तियों की ऐसी समस्याएं हैं जिसके कारण इन बस्तियों में रहने वाली आबादी निरन्तर बदहाली एवं बिमारी की जिंदगी बसर करने को मजबूर रहती है ।इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत अध्याय में पटना शहर की गंदी बस्तियों में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता एवं समस्याओं पर प्रकाश डालने की चेष्टा की गयी है ।
सबसे पहले इन गंदी बस्तियों में होने वाली बीमारियों के विषय में जानकारी प्राप्त की गयी और यह पाया गया कि कुल परिवारों में मात्र 15.0 प्रतिशत ही ऐसे परिवार थे जिनके घर पिछले तीन महीनों के दौरान कोई भी व्यक्ति बीमार नहीं पड़ा ।
तालिका 4.11
पिछले तिमाही के दौरान परिवार में होने वाली बीमारियाँ
कार्य |
संख्या |
प्रतिशत |
बुखार |
40 |
20.0 |
सर्दी-खांसी |
48 |
24.0 |
दस्त/ डायरिया |
23 |
11.3 |
खसरा |
5 |
2.5 |
आँख / कान की बीमारी |
10 |
5.0 |
दुर्घटना/ चोट |
18 |
9.0 |
यक्ष्मा |
3 |
1.5 |
अन्य |
10 |
5.0 |
कोई नहीं |
30 |
15.0 |
योग |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से यह स्पष्ट होता है कि सर्वेक्षण के लिए चुने गये परिवारों में अधिकांशत: 24 प्रतिशत सर्दी-खांसी, 20 प्रतिशत बुखार तथा 11.5 प्रतिशत परिवारों में दस्त या डायरिया का प्रकोप रहा है। इसके अतिरिक्त चोट लग जाना (9 प्रतिशत), आँख –कान की बिमारी (5 प्रतिशत) खसरा (2.5 प्रतिशत) तथा यक्ष्मा (1.5 प्रतिशत) आदि बीमारियों का प्रकोप रहा है ।
डायरिया एक ऐसी बीमारी है जिसका मुक्य कारण दूषित जल तथा भोजन है तथा ख़ास तौर पर बच्चों के लिए यह जान लेवा हो सकता है ।एक सर्वेक्षण के अनुसार 5 वर्षों से कम आयु के बच्चों में होने वाली मौतों का सबे बड़ा कारण है तथा इसके कारण प्रतिदिन 300 बच्चे मौत के शिकार होते हैं ।दस्त होने पर शरीर से अत्यधिक तरल पदार्थ बाहर निकल जाता है और यदि इसका उपचार तुरंत न किया जाए तो रोगी की मृत्यु हो जाती है ।
बीमारी की अवस्था में यह आवश्यक होता है कि रोगी को किसी योग्य चिकित्सक के इलाज के लिए दिखाया जाय ।वैसे तो परिवार की ओर से एक चिकत्सा के लिए कई कारगर कदम उठाये गये हैं परन्तु सरकारी चिकित्सा सेवाओं का लाभ आप व्यक्ति के पहुंच से परे है ।काई कारणों से सरकारी अस्पतालों में होने वाली परेशानियों के कारण आम तौर पर लोगों की यही कोशिश होती है कि वह अपनी सुविधा एवं सामर्थ्य के अनुरूप इलाज कराता है।गंदी बस्तियों में रहने वालों की अपनी आर्थिक मजबूरियां हैं जिसके कारण आम तौर पर देखा जाता है कि वे अंग्रेगी दवाओं के अतिरिक्त साधारण बीमारियों में होमियोपैथी, हाकिम या घरेलू उपचार पर अधिक निर्भर रहते हैं। उत्तरदाताओं से जब इस संबंध में जानकारी प्राप्त की गई कि साधारणत: बीमारी की अवस्था में वे उपचार के लिए कहां जाते हैं तो यह पाया गया कि सामर्थ्य के अनुरूप अधिकांश (36.5 प्रतिशत) उत्तरदाता अंग्रेजी डाक्टर पर निर्भर कह सकते हैं या फिर घरेलू उपचार (20.6 प्रतिशत) से ही तब तक काम चलाते हैं जब तक बात बहुत गंभीर न हो जाए ।
तालिका 4.12
बीमारी के दौरान इलाज के लिए कहां जाते हैं
परामर्शदाता |
संख्या |
प्रतिशत |
अंग्रेजी डॉक्टर |
62 |
36.5 |
होमियोपैथी |
25 |
14.7 |
सरकारी अस्पताल |
12 |
7.0 |
घरेलू अस्पताल |
35 |
20.6 |
हाकिम वैध |
3 |
1.8 |
योग |
170 |
|
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि गंदी बस्तियों में बीमारी के समय इलाज के लिए यूँ तो सबसे अधिक संख्या में लोग अंग्रेजी डोक्टरों पर ही निर्भर करते हैं लेकिन इसके साथ ही उत्तरदाताओं का एक अच्छा ख़ासा समूह (14.7 प्रतिशत ) होमियोपैथी दवाओं पर भी विश्वास करत है। वैसे यह कहा जा सकता है कि होमियोपैथी की दवाएं धीमी गति से पुराने रोगों को समूल नष्ट करने में ज्यादा कारगर होता है परन्तु यह भी सत्य है कि होमियोपैथी दवाएं अंग्रेजी की अपेक्षा सस्ती होती है ।बहरहाल इन गंदी बस्तियों के निवासी इसका ज्यादा उपयोग सरकारी अस्पतालों में तथा लगभग 2.0 प्रतिशत परिवार हाकिम या वैध से इलाज कराते हैं जो सभी कम खर्चीली साधन हैं ।
अत: उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गंदी बस्तियों में रहने वाले परिवार बीमारी के इलाज जैसे कठिन एवं आवश्यक जरूरतों में भी अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण मितव्ययता बरतने को मजबूर होते हैं ।
जैसे कि पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि डायरिया 5 वर्ष कम आयु के बच्चों में होने वाली मौतों का सबसे बड़ा कारण है ।यहां यह स्पष्ट कर देना भी उचित होगा कि डायरिया का प्रकोप मुख्यत: दूषित जल एवं गंदगी के कारण होता है तथा बच्चों के अतिरिक्त वयस्क भी इसके शिकार हो सकते हैं यदि समय पर देख-भाल एवं उचित कीमत उपलब्ध न करायी जाय ।डायरिया इन गंदी बस्तियों में होने वाली एक आम बीमारी है जो बरसात के मौसम में आस-पास फैली गंदगी के सड़ने से फैलती है तथा मच्छरों एवं मक्खियां इसके प्रसार में बहुत अधिक सहायक होती हैं ।डायरिया में शरीर का बहुत अधिक मात्रा में जल निकल जाता है जो मौत का करण बनता है ।अत: इसमें मुख्य रूप से शरीर में जल की मात्रा नियमित करने से मृत्यु की अंदेशा कम हो जाती है ।इसके लिए ओ०आर०एस० जसे जीवन रक्षक घोल के नाम से भी जाना जाता है तथा यह शरीर में जल की मात्रा सन्तुलित करने में सहायक है, का उपयोग बहुत लाभकारी माना जाता है ।अत: हमने उत्तरदाताओं से इस संबंध में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया कि उन्हें डायरिया के लिए की जाने वाली सावधानियों की जानकारी कहां तक है ।अध्ययन से यह ज्ञात कि इन गंदी बस्तियों में रहने वाले 44 प्रतिशत परिवारों को डायरिया से बचाव की कोई भी जानकारी नहीं है ।इसका विस्तृत विवरण निम्नलिखित तालिका में प्रस्तुत किया गया है :
तालिका 4.13
डायरिया से बचाव की जानकारी
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
हाँ |
112 |
56.0 |
नहीं |
88 |
44.0 |
योग |
200 |
100.0 |
तालिका 4.14
डायरिया से बचाव के उपाय
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
पानी उबाल कर पीना |
45 |
40.2 |
खाना गर्म खाना |
25 |
22.3 |
भोजन को ढंक कर रखना |
56 |
50.0 |
जीवन रक्षक घोल देना |
36 |
32.1 |
आस-पास के स्थान की सफाई |
68 |
60.7 |
योग |
112 |
|
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि जिन 56.0 प्रतिशत परिवारों को डायरिया से बचाव की जो थोड़ी-बहुत जानकारी है उसमें अधिकांश (60.7 प्रतिशत), आस-पास के स्थानों की सफाई, भोजन की सुरक्षा (50 प्रतिशत ) तथा गर्म भोजन करने (22.3 प्रतिशत) जैसे सामान्य बातों की ही जानकारी रखते हैं ।जहां तक डायरिया में जीवन रक्षक घोल के उपयोग का प्रश्न है तालिका इस बात को भी स्पष्ट करता है कि इसकी जानकारी मात्र 32 प्रतिशत परिवारों को ही है तथा डायरिया में इसके प्रयोग की उपयोगिता से भलीभांति परिचित हैं और जरुरत पड़ने पर इसका प्रयोग करते भी हैं, इसके अतिरिक्त जब उत्तरदाताओं से यह जानने की कोशिश की गई कि क्या वे जीवन रक्षक घोल के विषय में जानकारी रखते हैं तो यह ज्ञात हुआ है कि कुल परिवारों में 39.5 प्रतिशत परिवार इसकी जानकारी रखते हैं या इसके गुणों से परिचित हैं :
तालिका 4.15
ओ०आर०एस० घोल की जानकारी
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
हाँ |
79 |
39.0 |
नहीं |
121 |
60.5 |
योग |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका के आधार पर एक ओर हम यह पाते हैं कि गंदी बस्तियों के 60.5 प्रतिशत परिवार जीवन रक्षक घोल के विषय में जानकारी नहीं रखते हैं ।अत: उपरोक्त विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक ओर 52.1 प्रतिशत जीवन रक्षक घोल की जानकारी और प्रयोग दोनों करते हैं वहीँ दूसरी ओर 39.5 प्रतिशत परिवार इसकी जानकारी रखते हैं इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि लगभग 7.4 प्रतिशत उत्तरदाता ऐसे हैं जो डायरिया से बचाव के लिए जीवन रक्षक घोल का प्रयोग नहीं करते हालांकि वे इसके विषय में जानकरी रखते हैं ।
उपर्युक्त सारणी से यह भी स्पष्ट होता है कि छोटे बच्चों को डायरिया के दौरान स्तनपान कराने संबंधी जानकारी मात्र 31.5 प्रतिशत परिवारों को ही है तथा अधिकांश परिवार (68.5 प्रतिशत) न तो ऐसा करते हैं और न ही उन्हें इसकी जानकारी ही है कि डायरिया के दौरान छोटे बच्चों को स्तनपान कराना लाभदायक होता है ।इससे उनके शरीर में पानी की कमी होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है ।
बच्चों की आवश्यकता और उनके प्रति हमारे दायित्वों को संविधान में अभिव्यक्त किया गया है ।अत: बच्चों के लिए भारत सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रिय नीति इस बात पर बल देता है कि बच्चे राष्ट्र की सबसे महत्वपूर्ण सम्पत्ति है और उनका ध्यान रखना हमारा प्रथम दायित्व है ।हमारे राष्ट्रिय कार्यक्रमों में बच्चों के कार्यक्रमों को सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है जिससे हमारे बच्चे एक दृढ और समर्थ नागरिक के रूप में विकसित हो सकें इसके लिए उनका शारीरिक रूप से दुरुस्त, मानसिक रूप से सतर्क तथा नैतिक रूप से स्वस्थ होना आवश्यक है जिससे एक बेहतर और सुघड़ समाज के निर्माण में कारगर भूमिका का निर्वाह हो सके ।उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के टीकाकरण पर विशेष बल देते हुए कई योजनाएं चलाई जा रही है ।
बच्चों के स्वस्थ जीवन के लिए टीकाकरण एक व्यापक कार्यक्रम एवं आवश्यक शर्त है ।टीकाकरण की यह प्रकिया उनके जन्म के समय से लेकर 10-12 वर्ष की आयु तक पूर्ण कर दी जाती है जिसके द्वारा उन्हें कई जानलेवा बीमारियों एवं भविष्य में होने वाली सम्भावित विकलांगता से मुक्ति मिल जाती है ।इसके लिए मुख्य रूप से डी०पी०टी० के तीन टिके, पोलियो की दवा, खसरा से बचाव की दवा तथा अंधापन रोकने के लिए विटामिन “ए” की दवा डी जाती है ।वैसे तो संचार माध्यमों, पोस्टरों, दीवाल लेखन आदि से इस संबंध में जानकारियाँ दी जाती रहती है परन्तु कई बार ऐसा देखा गया है कि अज्ञानता एवं अशिक्षा के कारण आम व्यक्ति इस पर ध्यान नहीं देता और इसकी महत्ता को स्वीकार नहीं करता ।अत: प्रस्तुत अध्ययन के दौरान गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को इन बातों की कहां तक जानकारी है इसका आकलन करने की चेष्टा की गयी है ।
तालिका 4.16
बच्चों की टीकाकरण की जानकारी
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
डी०पी०टी० |
|
|
एक |
76 |
38.0 |
दो |
45 |
11.5 |
तीन |
31 |
15.5 |
नहीं कह सकते |
48 |
24.0 |
पोलियो |
|
|
एक |
20 |
40.0 |
दो |
10 |
20.0 |
तीन |
5 |
10.0 |
नहीं कह सकते |
15 |
30.0 |
खसरा |
|
|
हाँ |
96 |
48.0 |
नहीं |
25 |
12.5 |
नहीं कह सकते |
79 |
39.5 |
विटामिन “ए” |
|
|
हाँ |
25 |
12.5 |
नहीं |
77 |
38.5 |
नहीं कह सकते |
98 |
49.0 |
कुल उत्तरदाता |
200 |
100.0 |
डी०पी०टी० के तीन टिके बच्चों को तीन जानलेवा बीमारियों टेटनस, डिप्थीरिया तथा काली खांसी से सुरक्षा प्रदान करता है ।ये दवाएं सरकारी अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों, आंगनबाड़ियों में मुफ्त उपलब्ध हैं परन्तु उपरोक्त तालिका से यह ज्ञात होता है कि कुल उत्तरदाताओं में 24 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिन्हें इसके विषय में कोई भी जानकारी है ही नहीं तथा मात्र 15.5 प्रतिशत परिवार ही ऐसे हैं जिन्हें यह जानकारी है कि इसके तीन टिके लगाये जाते हैं ।
पोलियो विशेष रूप से छोटे बच्चों में शरीरिक विकलांगता को जन्म देता है तथा इससे बचाव के लिए पोलियो की दवा जिसकी तीन खुराक डी०पी०टी० के टिके से समय ही आम तौर पर दे दी जाती है ।उपरोक्त तालिका इस बात की ओर भी स्पष्ट संकेत करती है कि इन गंदी बस्तियों के 30 प्रतिशत परिवारों को इसकी जानकारी नहीं है तथा मात्र 10 प्रतिशत परिवार ही इसकी जानकारी रखते हैं तथा 40 एवं 20 प्रतिशत परिवार क्रमश: एक या दो खुराकों की ही बात करते हैं ।
राज्य में पोलियो से बचाव के लिए योग्य जनसंख्या का टीकाकरण अच्छादन पिछले तीन वर्षों में 60.5 प्रतिशत से 96.4 प्रतिशत के बीच रहा है ।सन 1995 तक राज्य के 5 जिलों में पोलियो का बिलोपन तथा 20000 तक समूचे राज्य में इसका उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित किया गया ।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार खसरे का टीकाकरण के आच्छादन की दर मात्र 71 प्रतिशत है तथा विभिन्न स्थानों पर इसके फैलने की ख़बरें प्राप्त होती हैं ।हालांकि 1985 की तुलना में 1995 तक खसरे से होने वाली मौतों की संख्या 95 प्रतिशत तथा इसके प्रसार की घटनाएं 90 प्रतिशत तक की कमी लाने का लक्ष्य रखा गया है ।
अज्ञानता एवं अधविश्वास के कारण आज भी शिक्षित या अशिक्षित जैसे दैवी शक्ति का प्रकोप ही मानते हैं ।फिर भी यह सत्य है कि यह विषाणुओं से फैलाने वाला एक भयंकर रोग है जिससे कई बार छोटे बच्चों की मौत हो जाती है या फिर कई बार यह श्वास संबंधी रोगों को जन्म देता है ।उपरोक्त तालिका के आधार पर हम देखते हैं कि गंदी बस्तियों में खसरा की रोकथाम के लिए दिये जाने वाली दवा की जानकारी लगभग 40 प्रतिशत परिवारों को नहीं है ।
कम उम्र के बच्चों में कुपोषण विशेष रूप से विटामिन “ए” की कमी कच्ची उम्र में ही अंधेपन का शिकार बना लेता है जिसे रोकने के लिए विटामिन “ए” की दवा व्यवहार में लायी जाती है ।हालांकि बिहार के लिए अलग से कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, फिर भी ऐसा अनुमान है कि पोषाहार की कमी के कारण भारत में हर वर्ष 40 हजार व्यक्ति अँधा हो जाते हैं उनमें लगभग 10 प्रतिशत बिहार में होंगे ।अत: देश में विटामिन “ए” के अभाव के ग्रसित जो लगभग 10 लाख बच्चे है उनमें करीब एक लाख बच्चे बिहार के होंगे ।इसे रोकने के लिए राष्ट्रिय नीति के अनुरूप खसरे के टीकाकरण के साथ-साथ विटामिन “ए” की खुराक देने पर विशेष ध्यान दिया गया है ।साथ ही लोगों में हरी पत्तेदार सब्जियां खाने की आदतों में बढ़ावा देना भी सम्मिलित है ।
अत : उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहाँ तक बच्चों का टीकाकरण का प्रश्न है गंदी बस्तियों में रहने वाले परिवारों को टीकाकरण की महत्ता एवं उपयोगिता की बहुत ही कम जानकारी है ।यदि इन बस्तियों में रहने वाली आबादी के विषय में गंभीर रूप से मनन करे तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐसी स्थिति के लिए मुख्य रूप से उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति एवं अशिक्षा ही जिम्मेदार है ।
बच्चों में टीकाकरण के साथ-साथ सुरक्षित प्रसव के लिए गर्भवती महिलाओं की प्रसव पूर्व जाँच एवं अन्य सावधानियों के अतिरिक्त टेटनस की प्रतिरोधक टिके भी अतिआवश्यक हैं ।बिहार में ऐसा अनुमान है कि प्रति एक लाख जीवित बच्चों को जन्म देने वाली माताओं में से 500 की प्रसव के तुरंत बाद मृत्यु हो जाती है ।हालांकि इसके कई कारण है जैसे कम उम्र में शादी एवं बच्चे तथा अधिक संख्या में गैर-प्रशिक्षित दाईयों द्वारा प्रसव कराया जाना है ।वैसे तो गर्भवती महिलाओं का काफी बड़ा भाग गर्भावस्था के दौरन टेटनेस प्रतिरोधक प्रतिरोधक टिके लेती है तथा साथ ही सेवन कर रक्त अल्पता से अपने को सुरक्षित करने का प्रयास करती है ।रक्त अप्लता गर्भ के दौरान एक आम शिकयत होती है ।
तालिका 4.17
गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण
उपरोक्त तालिका से ज्ञात होता है कि कुल उत्तरदाताओं में अधिकांश (76.5 प्रतिशत) इस बात की जानकारी नहीं रखते कि गर्भवती महिलाओं को टेटनेस की सुई लेना मां-बच्चे के लिए एक सुरक्षित साधन है ।तालिका यह भी दर्शाता है कि 82 प्रतिशत परिवार आयरन की गोली के विषय में भी जानकरी नहीं रखते ।उनकी इस अनभिज्ञता का भी एक प्रमुख कारण उनमें अशिक्षा एवं गरीबी का अधिक होना पाय गया है ।
सुरक्षित पेयजल आपूर्ति तथा मूलभूत स्वच्छता स्वास्थ्य तथा दक्षता के लिए अनिवार्य मानव जरूरतें हैं ।प्रत्येक वर्ष रोग तथा मृत्यु विशेषत: बच्चों को तथा महिलाओं का कठिन काम करना इन आवश्यताओं के अभाव के कारण पैदा हुई है ।शहरी तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में स्वच्छता की उपेक्षा की जाती है ।पेयजल आपूर्ति राज्य सरकार का उत्तरदायित्व है ।शहरों में सरकार द्वारा पाइप लाइनों द्वारा स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति की जाती है फिर भी ऐसे इलाके हैं, जहां इसका स्वार्थी असर रहा है ।अभावग्रस्त क्षेत्रों में गंदी बस्तियों का स्थान प्रथम होता है ।व्यवस्थित मकानों का अभाव, तंग गलियां, बढ़ेंगे तौर पर बसे होने के कारण या तो इन गंदी बस्तियों में रहने वाली जनसंख्या या हर मकानों तक सरकारी नलों का न पहुंच पाना पेयजल संकट पैदा करता है ।वैसी स्थिति में कुछ परिवार सामूहिक नलों, कुओं या चापाकल जैसे स्रोतों पर ही पूर्णत: निर्भर करते हैं ।
आपने इस अध्ययन के दौरान ऐसे ही कुछ मूलभूत नागरिक सुविधाओं जैसे पेयजल आपूर्ति के साधन, जल निकास की सुविधा तथा रास्ते पर जलने वाली रोशनी के विषय पर प्रकाश डालने की चेष्टा की गयी है जिसका विस्तृत विवरण आगे की तालिका में दिया जा रहा है :
तालिका 4.18
नागरिक सुविधाओं की उपलब्धता
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
पेयजल |
|
|
निजी भवन |
133 |
66.5 |
सामूहिक नल |
40 |
20.0 |
कुआं |
12 |
6.0 |
चापाकल |
15 |
7.5 |
जलनिकास (घर) |
|
|
हाँ |
52 |
26.0 |
नहीं |
148 |
74.0 |
जलनिकास (मुहल्ला) |
|
|
हाँ |
85 |
42.0 |
नहीं |
115 |
57.5 |
रस्ते की रोशनी |
|
|
हाँ |
65 |
32.5 |
नहीं |
135 |
67.5 |
कुछ उत्तरदाता |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से ज्ञात होता है कि प्रस्तुत अध्ययन के लिए चुने गए गंदी बस्तियों में रहने वाले कुछ उत्तरदाताओं के मात्र 66.5 प्रतिशत परिवार ही ऐसे हैं जिनके घर में निजी तौर पर स्वच्छ पेयजल आपूर्ति सरकारी पाइप लाइनों द्वारा होती है ।इसके साथ ही हमें यह भी देखने को मिलता है कि 20.5 प्रतिशत परिवारों को पयेजल के लिए सामूहिक नलों में कुछ हड तक वैसे परिवारों को सम्मिलित किया गया है जो किसी ऐसे मकानों में रहते हैं, जिनके कई परिवार एक ही नल का उपयोग करते हैं ।इसके अतिरिक्त 6.0 तथा 7.5 प्रतिशत परिवार पयेजल के लिए कुआं या चापाकलों का प्रयोग करते हैं जो स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से पूर्णत: सुरक्षति नहीं माना जाता है क्योंकि इसके नल उपरी या सतही ही होते हैं तथा साधारणत: वर्षा के दिनों में बहुत जल्द प्रदूषित हो जाते हैं ।
आम तौर पर गंदी बस्तियों में जैसा कि इनके नाम से ही विदित होता है, घरों तथा मुहल्लों में जल निकास का उचित प्रबन्ध नहीं होता जिससे घरों तथा मोहल्लों का गंदा पानी आस-पास ही जमा होता रहता है जो कुछ दिनों बाद सड़क बदबू ततः मच्छरों को जन्म देता है ।उपरोक्त तालिका इस बात की ओर भी संकेत करता है इन गंदी बस्तियों में मात्र 26.0 प्रतिशत घरों में ही जल निकास का उचित प्रबंध है तथा 42.5 प्रतिशत परिवार ऐसा मानते हैं कि उनके मुहल्ले में जल निकास की सुविधा उपलब्ध तो है परंतु वर्षा के दिनों में यह कारगर ढंग से काम नहीं करता है और आस-पास की सड़कों तथा गलियों में कई-कई दिनों तक जल-जमाव की स्थिति बनी रहती है जिससे गंदगी फैलती रहती है ।
तालिका इस बात की ओर भी संकेत करती है कि इन बस्तियों में सड़कों पर रोशनी की व्यवथा भी उचित नहीं है जिसके कारण उन्हें रात में कई प्रकार की परेशानियाँ उठानी पड़ती है ।हालांकि इन बस्तियों में सर्वेक्षण के दौरान आते-जाते ऐसा देखने में आया है कि बहुत से बिजली के खम्भों पर बत्तियां लगी हैं परंतु वर्षों से उनके ख़राब बल्ब बदले नहीं गये हैं ।कई बार ऐसा भी सुनने को मिला है कि चोर उचक्के कभी –कभी इनके बल्ब तोड़ देते हैं ताकि रात के अंधेरे का फायदा उठा सकें ।
अंत में प्रस्तुत विश्लेषण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि पटना शहर की गंदी बस्तियों में रहने वाले परिवारों में अधिकांश सदस्य अपनी स्वास्थ्य की देख-भाल उचित रूप से करने में असमर्थ हैं, जिसके कई कारण हैं ।उनमें मुख्य रूप से गरीबी, अज्ञानता और अशिक्षा का होना है ।इसके साथ ही जहाँ तक राज्य सरकार तथा पटना नगर निगम के दायित्वों का प्रश्न है हम यह भी पाते हैं कि वे इनका निर्वाह करने में असमर्थ हैं ।परिणामस्वरूप इन गंदी बस्तियों में रहने वाली जनसंख्या एक बहुत ही कठिन परिस्थितियों में किसी प्रकार अपना गुजर-बसर करने को मजबूर है और वही अस्वास्थ्यकर स्थिति में, ऐसे में अगर इन बस्तियों में महामारी फैल जाए तो कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं होनी चाहिए ।
गंदी बस्तियों में पोषाहार एवं कुपोषण – पोषण राष्ट्रीय विकास का मूल घटक है ।कुपोषण पर ध्यान देना एक नैतिक आवश्यकता है ।कुपोषण समाज में अस्वीकार्य है क्योंकि वह व्यक्ति के उपयुक्त पोषण के अधिकार का हनन करता है ।यह पोषण के लिए निवेश का एक और ठोस आर्थिक आधार है ।आर्थिक विकास की प्रक्रिया और प्रगति मानव संसाधनों की गुणवत्ता पर आधारित होता है जो कि आबादी के स्वास्थ्य तथा पोषण स्तर द्वारा निर्धारित होता है ।
मानव-कल्याण के अलावा गरीबी को कम करने तथा आर्थिक उत्पादनशीलता को बढ़ावा ही पोषण-संबंधी सुधार में निवेश के मुख्य कारण हैं ।पोषण में निवेश तथा आर्थिक उत्पादकता के विकास के बीच विश्वास जगाने वाले अनुबंध स्थापित करने के काम को बढ़ावा मिल रहा है, बल्कि वह उस निवेश के अन्य क्षेत्र जैसे – कृषि, स्वास्थ तथा शिक्षा आदि के प्रभाव में वृधि ला रहा है ।जहां-कहीं भी कुपोषण वृहद् रूप से फैला होगा वहां के सामाजिक क्षेत्र की नीतियों तथा कार्यकर्मों का असर अनुवैकल्पिक होगा ।
60 के दशक के उत्तरार्ध में कई देशों में अन्न के उत्पादन में प्रभावशाली बढ़ोतरी ने यह दर्शाया है कि सिर्फ अन्न आपूर्ति ही कुपोषण का प्रयाप्त उत्तर नहीं है ।भारत के अन्न उत्पादन के अधिक्य के बावजूद यहां कुपोषण बुरी तरह फैला है ।पाकिस्तान, इंडोनेशिया, फिलिपीन्स तथा बांग्लादेश आदि देश इस बात के उदाहरण हैं कि खाधान की अधिकता के बावजूद वहां कुपोषण फैला है ।
कृषि उत्पादन तथा ज्यादा किस्मों की पैदावार के साथ उच्च तकनीकी मांगे जैसे खाद, कीटनाशक और सिंचाई ने तत्वों को बर्बाद किया है तथा समाज के विशेषकर असुरक्षित वनों तक अन्न के सहज पहुँच पर प्रभाव डाला है ।सिर्फ जीवन उपलब्धता होना ही जैसा कि आम तौर पर माना जाता है – आबादी द्वारा की गई खपत को सुनिश्चित नहीं करता है ।
कुपोषण तथा लघू पोषण अपूर्णता, कार्य के परिणाम तथा गुणात्मक उत्पदात्कता के संदर्भ में, निम्न श्रम उताप्दाकता का कारण होता है ।इसके कारण बच्चों में शैक्षणिक उपलब्धियां निम्नतर होती जाती है, स्कूलों में नामांकन तथा उपस्थिति की दर कम होती जाती है, तथा बच्चों में स्वास्थ्य तथा मृत्युदर में बढ़ोतरी होती जाती है ।जिसे प्रकार उच्च उत्पादकता ज्यादा मुनाफा देती है उसी प्रकार उन्नत पोषण, उत्पादकता में वृधि के साथ-साथ शर्म आय में भी वृधि करेगा ।इस प्रकार उन्नत पोषण दो महत्वूर्ण लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करता है- उत्पादकता में वृधि तथा उससे उत्पन्न लाभों का विवरण ।
कुपोषण नियंत्रण नीतियों को मूलतः दो विचारधाराएं हैं ।पहले सिद्धांत के अनुसार कुपोषण मूलतः गरीबी का परिणाम है, अत: इसे दूर करना गरीबी की उत्पादकता में वृधि, आय के स्तर को ऊँचा करने एवं खाद्य प्रणाली के वितरण पर निर्भर करता है ।दूसरा सिद्धांत इस आवधारण पर आधारित है कि लोग कुपोषण के शिकार इसलिए होते हैं क्योंकि वे समुचित पोषण स्तर तथा स्वस्थ वातावरण को सुनिश्चित करने वाले संसाधनों के उपयोग, निरक्षरता के समापन, पोषण-संबंधी जानकारियों में वृधि तथा सही आदतों के विकास पर ही निर्भर करत है ।
नया विकास प्रतिमान गरीबों द्वारा पोषण संबंधी समस्याओं के समाधान पर जोर देता है ।उनकी सामना करने की रणनीतियों को पहचानकर सशक्त बनाया जा रहा है ।सबों की भागीदारी मुख्यत: महिलाओं की भागीदारी सशक्तिकरण की रो ले जाएगा जिससे स्थानीय संसाधनों को कायम तथा संघटित रखा जायेगा ।ज्ञान और जानकारी जो कि सशक्तिकरण का मुख्य घटक है, समस्याओं की जड़ों के विश्लेषण में मदद करता है तथा संशाधनों द्वारा उपयुक्त कार्यवाही में मदद करता है ।
छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों में शारीरक विकास का अभाव देखा गया है जो कुपोषण के शिकार पुरे देश में व्याप्त है ।नवजात शिशुओं और बच्चों में मृत्यु का कारण यह है कि करीबन तीस प्रतिशत बच्चे 2.5 किलोग्राम से भी कम वजन के जन्म लेते हैं ।अधिकांशत: स्कूल जाने से पूर्व की उम्र के बच्चों में करीब 69 प्रतिशत कम वजन के, जिसमें 9 प्रतिशत गंभीर कुपोषण से ग्रस्त रहते हैं तथा 65 प्रतिशत अविकसित तथा 20 प्रतिशत अत्यंत दुर्बल होते हैं ।
मामूली, मध्यम तथा गंभीर शब्दों का प्रयोग कुपोषण की गंभीर अवस्था को दर्शाने के लिए किया गया है ।1988-90 का एन०एस०जी० सर्वेक्षण यह दर्शाता है कि 90 प्रतिशत के मानदंड में सिर्फ 10 प्रतिशत बच्चों का ही औसत शिशु भार है ।अधिकांश बच्चे मामूली या मध्यम कुपोषण से ग्रस्त हैं ।
छ: महीने की उम्र वह नाजुक समय है जब शिशु प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण से ग्रस्त हो सकता है ।बच्चों के विकास में अवरोध 4-6 महीने से शुरू होता है और 24 महीने की उम्र तक चलता है ।कुपोषण 6 महीने से 2 वर्ष की उम्र के बच्चों को ज्यादा प्रभीवित करता है ।प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण के विकास में अवरोधक, शरीर में वजन की कमी तथा अन्य दुर्बलताएं विशेषतया छोटे बच्चों में मृत्यु के खतरे को बढ़ता है ।
इस बात का प्रमाण अब प्राप्त हैं कि बचपन में विकास के अवरोध के परिणाम भविष्य के लिए अच्छे नहीं होते ।जो बच्चे बचपन से ही कुपोषण के शिकार हो जाते हैं, वे अपने बराबर की उम्र के स्वस्थ बच्चों की अपेक्षा न तो स्कूल में अच्छा कर पाते हैं, न भविष्य में अपने कार्य क्षेत्र में ही सफल हो पाते हैं ।
यह बात भी प्रमाणित हुई है कि कुपोषण से ग्रस्त बच्चों को भविष्य में अनेक आकर्षक बीमारियों जैसे उच्च रक्त चाप तथा मधुमेह होने की संभावना रहती है ।बच्चों के विकास को कायम रखने में परिवारों की अक्षमता के ये कारण हो सकते हैं :
बच्चों को जीवन में अच्छी शुरुआत को बढ़ावा देने के लिए 6 से 24 महीने के बीच के बच्चों को कुपोषण का शिकार होने से बचना होगा ।
कुपोषण को कम करने के लिए उसके कारणों पर ध्यान देना होगा, वैसे अपर्याप्त आहार और संक्रमण/बीमारी तथा खाने-पीने की सही आदतों को डालने में तेजी लानी होगी ।कुपोषण की स्थिति में सुधार लाना एक चुनौती है ।यह परिवार के सदस्यों, समुदायों तथा इस क्षेत्र में काम करने वालों पर निर्भर करता है ।कुपोषण की रोकथाम या उसको नियंत्रण में लाने के लिए जागृत होना पड़ेगा ।बड़े पैमाने पर किए गए प्रयास तभी सफल होंगे जब अभिभावकों, समुदायों तथा अन्य कार्यकर्त्ता सक्रियता के सह योगदान करेंगे ।
वर्त्तमान आर्थिक स्तर पर भारत में कुपोषण की समस्या को कुछ कारगर तथा उपयुक्त योजनाओं के द्वारा 50 प्रतिशत तक खत्म कर सकता है ।बच्चों में समुचित पोषण को सुनिश्चित करने के काम में महिलाएं ही महत्वूर्ण कदम उठा सकती है ।बच्चों तथा परिवार के पोषण स्तर में सुधार लाने के लिए महिलाओं तथा बच्चों के विकास संबंधी कार्यक्रमों पर जोर देना होगा तथा महिलाओं को पोषण संबंधी जानकारी अच्छी तरह देनी होगी जिसे वे उन्हें अपनी रोजमर्रा की आदतों में शामिल कर सकें ।
भारतीय संविधान अनुच्छेद 4-7 के अंतर्गत पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने को राज्य का कर्तव्य माना गया है ।इसके अनुसार राज्य अपने लोगों को पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपनी प्राथमिकि कर्तव्यों में मानेगा और राज्य की विशिष्टतया मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के औषधि, प्रयोजनों से भिन्न उपयोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा ।
राष्ट्रिय पोषण नीति के अंतर्गत स्कूल जाने के पूर्व के उम्र के बच्चों में मध्यम तथा गंभीर कुपोषण की मात्रा को 50 प्रतिशत कम करना, नवजात शिशुओं में कम वजन की संख्या को 10 प्रतिशत कम करना तथा विटामिन “ए” की कमी होने वाले अंधेपन को समाप्त करना, गर्भवती महिलाओं में लौह तत्वों के अभाव हो 25 प्रतिशत कम करना, घरों में उपयोग किए जाने वाले सम्पूर्ण नमक को आयोडीन युक्त करना तथा इससे उत्पन्न होने वाले विकारों को 5 प्रतिशत कम करना तथा 250 करोड़ टन खाद्यान का उत्पादन करने का लक्ष्य निर्धीरित किया गया ।
वर्त्तमान स्थिति – राष्ट्रिय औसत से विकास संबंधी लगभग सभी सूचकांक निम्न होने के साथ बिहार की आबादी का 40.8 प्रतिशत अंश गरीबी रेखा के नीचे जी रहा है ।हालांकि समूचे राज्य के लिए कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, फिर भी राष्ट्रिय पोषण संस्थान द्वारा नमूने के तौर पर किये गये अध्ययन से ज्ञात होता है कि राज्य में लगभग 11 प्रतिशत बच्चे ही समान्य श्रेणी और श्रेणी 4 के कुपोषण से ग्रसित हैं ।सिर्फ 12 प्रतिशत बच्चे ही समान्य श्रेणी में हैं ।इस प्रकार यह लगता है कि बिहार में लगभग 79 प्रतिशत बच्चे किसी-न-किसी श्रेणी के कुपोषण के शिकार हैं ।
एक अन्य विश्लेषण से जीवन के दुसरे वर्ग के निर्णायक महत्त्व के बारे में बताया है कि 1-2 वर्ष के आयु वाले 86 प्रतिशत बच्चे कुपोषित पाये गये हैं, जिनमें से 18 प्रतिशत गंभीर कुपोषण के शिकार हैं ।यधपि 1 वर्ष की आयु वाले लगभग 36 प्रतिशत बच्चे पोषण के मामले में समान्य स्तर के हैं यह आंकड़ा 1-2 वर्ष के बच्चों के मामलों में 14 प्रतिशत तक कम हो जाता है ।
यह स्पष्ट होता है कि 1-2 वर्ष की आयु के बच्चों में कुपोषण गंभीर मात्रा में और गंभीरता में सर्वोच्च है ।
साथ-ही-साथ यह भी पाया गया कि आइ०सी०डी०एस० के क्षेत्रों में बच्चों का पोषाहार स्तर गैर आइ०सी०डी०एस० क्षेत्रों के इस स्तर से कुछ बेहतर है ।आइ०सी०डी०एस० क्षेत्रों में जबकि श्रेणी-3 और श्रेणी-4 में लगभग 9 प्रतिशत बच्चे थे गैर- आइ०सी०डी०एस० क्षेत्रों में यह आंकड़ा बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया है ।
कम उम्र के विवाह और कम उम्र के गर्भाधान, अपनी “काफी पूर्व”, काफी नजदीक, काफी अधिक काफी विलम्ब” के परिणामस्वरूप ही राज्य में माताओं के पोषण का स्तर अत्यंत ख़राब है ।जैसा कि ऊपर अंकित है राज्य की लगभग तीन चौथाई गर्भवती महिलाएं रक्ताल्पता से ग्रसित हैं और उसमें सुधार के कोई असर नजर नहीं आते हैं ।
सूक्ष्म पोषक पदार्थों का अभाव :
विटामिन “ए” हालांकि बिहार के लिए अगल से कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है, फिर भी ऐसा अनुमान लगाना वास्तविकता से बहुत भिन्न नहीं होगा कि पोषाहार की कमी के कारण भारत में हर वर्ष जो 40000 लोग अंधे हो जाया करते हैं, उनमें से 10 प्रतिशत बिहार के ही होंगे ।इसी प्रकार देश में विटामिन “ए” के अभाव से ग्रसित जो लगभग 10 लाख बच्चे हैं, उनमें से निश्चित तौर पर 100000 बिहार में ही होंगे ।रांची में किए एक छोटे अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि बच्चों में अधिकतर बालिकाएं ही विटामिन “ए” की कमी से ग्रसित होती हैं ।
आयोडीन की कमी से होने वाले विकार – यह अनुमान किया जाता है कि लगभग समूचा राज्य ही आयोडीन की कमी से होने वाले विकारों के दायरे में हैं ।राज्य के 25 जिले में घेघा के बारे में कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि घेघा के प्रभाव की स्थानिकता 1 प्रतिशत से लेकर 5 प्रतिशत से भी अधिक है ।बिहार राज्य ने सर्वप्रथम अपने यहां बगैर आयोडीन का नमक बेचने को पुरे तौर पर निषिद्ध कर दिया था ।यह निषेधाज्ञा 1988 में पुरे राज्य में लागू की गयी थी ।राज्य सरकार को यह एहसास है कि आयोडीन से राज्य के लोगों को किस हद तक गंभीर नुकसान होता है और उसने इस बात को उच्च प्राथमिकता दे रखी है कि समूचे राज्य में आयोडीन नमक का ही उपयोग किया जाय ।
बाल बंधुत्व पूर्व चिकित्सालय संबंधी पहल(बी०एफ०एच०आई०) – राज्य में चिकित्सालयों के मुल्यांकन करने की दिशा में अभी तक कोई योजनाबद्ध प्रयास नहीं किया गया है ।बी०एफ०एच०आई० बढ़ावा देने के लिए एक अभियान छोड़ने की आवश्यकता की तीव्रता से महसूस किया जा रहा है और इसे इस राज्य में प्रारंभ किया जायेगा ।
रणनीतियाँ – रष्ट्रीय पोषण नीति, 1993 ने उल्लेख किया है कि पोषण खाद्य और स्वास्थ्य के अतिरिक्त कई प्रभागों का कुल परिणाम है ।इसके अनुसार “सिर्फ आर्थिक विकास या घरेलू स्तर पर खाद्य पदार्थों की पर्याप्तता ही एक स्थिर और संतोषजनक पोषण स्तर गारंटी नहीं है ।इसके साथ ही साथ एक राष्ट्र के समग्र विकास की रणनीति में यह सम्मिलित होना चाहिए कि जनता के लिए किस प्रकार की सदृढ़ पोषण नीति बनायी गयी है ।अत: उदेश्य यह नहीं है कि एक राष्ट्रिय पोषण नीति बना दी जाए बल्कि मूल दायित्व यह है कि देश का समग्र विकास करने के लिए पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पहचान कर इस नीति को पूरी एकाग्रता के साथ व्यवहारिक धरातल पर लागू किया जाय ।” इस प्रकार जहां तक लक्ष्यों को प्राप्त करने का सवाल है, राज्य सरकार का मत है कि सिर्फ अंतर प्रभागीय पहल जो सुनियोजित और संयोजित हो, इस चुनौती का सामना करने की ओर ले जा सकती है ।
इस नीति के अनुसार गरीबी दूर करने और समाज के वंचित वर्गों को समक्ष बनाने से संबंधित विभिन्न तथा खंडीय विभागीय कार्यक्रमों जैसे – स्वास्थ्य, शिक्षा एवं कल्याण संबंधी गतिविधियाँ (आइ०सी०डी०एस०) को ओर सूक्ष्मतापूर्वक लागू करने की आवश्यकता है और इसके लिए समाज के सबसे नाजुक और “खतरे की सीमा में” पड़े हुए वर्गों पर ध्यान केंद्रित करना होगा ।बाढ़ग्रस्त और सूखाग्रस्त हो जाने वाले जिलों पर विशेष ध्यान दिया जायेगा, जहां एक विशेष रणनीतियां विकसित की जायेंगी ।लोगों के जागरूकता पैदा करने और समुदाय की सहभागिता प्राप्त करने, विशेष कर महिलाओं को, पर विशेष रूप से धयान केंद्रित किया जायेगा जिससे समुदाय आधारित सामूहिक क्रियाकलापों द्वारा पोषण एवं स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों से जूझा जा सके ।योजनाएं तैयार करते समय क्षेत्रीय विभाजन, आदिवासी, ग्रामीण, शहरी आदि को ध्यान में रखा जायेगा ।
सरकार निम्नलिखित को प्रमुख क्षेत्र मानती है जहां अविलम्ब ध्यान देने की जरुरत है ताकि कुपोषण के स्तरों को कम किया जा सके :
उपर्युक्त मुद्दों के आलोक में जो रणनीतियां और कार्य नीतियाँ तय की गयी है, वे निम्नलिखित हैं :
(क) दस्त से होने वाली बीमारियों का नियंत्रण :
(ख) खूब स्तनपान कराना – हालांकि अध्ययन से प्राप्त जानकारियाँ यह बताती है कि अधिकतर माताएं अपेक्षाकृत अपने बच्चों के काफी लंबे अर्से तक अपना स्तनपान कराती रहती रहें – यानी औसतन 1 से लेकर दो वर्षों तक, फिर भी जन्म से लेकर 4-6 माह तक शिशुओं को केवल स्तनपान कराते रहने की धारणा को अभी बढ़ावा देने की आवश्यकता है ।खूब स्तनपान कराने को बढ़ावा देने के लिए निम्नलिखित गतिविधियों को प्रारंभ किया जायेगा ।
बाल बंधुत्वपूर्ण चिकित्सालय (बी०एफ०एच०आई०) आरम्भ करना - बी०एफ०एच०आई० को बढ़ावा देने के लिए सुनियोजित योजनाएं प्रारंभ की जाएगी और उन सभी चिकित्सालयों को जहां प्रतिवर्ष 1000 से अधिक बच्चे जन्म लेते हैं, सहयोग देते हुए प्रोत्साहित किया जायेगा कि वे अपना स्तर उन्नत करके गुणवत्ता बी०एफ०एच०आई० को प्रमाण-पत्र लायक बना लें ।
(ग) सूक्ष्म पोषक पदार्थ –
विटामिन “ए” – विटामिन “ए” पर राष्ट्रिय नीति के अनुरूप खसरे के टीकाकरण के साथ-साथ विटामिन “ए” की खुराक देने पर विशेष ध्यान देते हुए रोग रोधी कार्यक्रमों को लागू किया जाना है ।इसके साथ-ही-साथ हरी पत्तेदार सब्जियों को खाने की आदत डालने को बढ़ावा देना होगा ।
आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियाँ –
पोषाहारिय रक्ताल्पता –
बच्चों के विकास का अनुश्रवण करना और उसे बढ़ावा देना – आई०सी०डी०एस० क्षेत्रों में और उस योजना के बाहर के विकास का अनुश्रवण करने और विकास को बढ़ावा देने के कार्य को सघन रूप से करने का कार्य आरंभ किया जायेगा ।बच्चों के वजन को उनके विकास को बढ़ावा देने के एक साधन के रूप में इस्तेमाल करने पर विशेष ध्यान दिया जायेगा ।निम्नलिखित विशिष्ट गरिविधियाँ प्रारंभ की जायेंगी :
सुरक्षित पेयजल – कुपोषण के बचाव के मामले में साफ़ पानी की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण निवेश है ।अध्ययनों से पता चलता है कि गाँवों में 25 प्रतिशत से 30 प्रतिशत परिवार नलकूपों के बजाय खुले कुँओं, नदियों, झरनों, तालाबों आदि का पानी इस्तेमाल करना पसंद करते हैं ।कुछ मामलों में ऐसा इसलिए होता है कि नलकूपों का पानी अधिक लौह तत्व युक्त होता है, परन्तु शेष में यह महज अभ्यासवश ही होता है ।राज्य सरकार इस बात को भी सुनिश्चित करेगी कि प्रत्येक 150 लोगों की आबादी के लिए पेयजल के एक स्त्रोत की व्यवस्था की जाय और वह भी परिवार से आधा किलोमीटर की दुरी के अंदर ही ।
बच्चों के कुपोषण के कई दुष्परिणाम होते हैं जिसकी जानकारी गंदी बस्ती में रहने वाले अधिकांश लोगों को नहीं होती है तथा कई बार ऐसा भी पाया गया है कि कुछ ऐसी बातें जिन पर ध्यान देने से बच्चों को कुपोषण से बचाया जा सकता है उनकी भी जानकारी न होने या अज्ञानतावश गंदी बस्ती के बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं ।साधारणत: दो वर्ष की उम्र के बच्चे भोजन के लिए दूसरों पर आश्रित रहते हैं ।अत: यह आवशयक हो जाता है कि उनके माता पिता को बच्चों के देखभाल की आवश्यक जानकारी हो, जिसके लिए कोई विशेष खर्च करने की भी आवश्यकता नहीं होती है ।जैसे – जन्म से 4-6 महीने तक बच्चे को स्तनपान जिसे जन्मे के एक घंटे के अंदर प्रारंभ कर देना चाहिए ।स्वीस जरूर पिलाना चाहिए तथा बीमारी की अवस्था में स्तनपान जारी रखना आदि मुख्य बातें हैं ।
इस प्रकार गर्भाती महिलाओं का प्रसवपूर्व 3 जाँच, टेटनस टॉकसाइड की दो खुराक, आयरन फालिक एसिड की 100 गोलियां तथा अतिरिक्त आहार देना भी बच्चों के एवं गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक होता है ।
उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए हमने गंदी बस्तीवासियों से कुछ ऐसे प्रश्न पूछे जिनका सीधा संबंध गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों के कुपोषण दूर के लिए आवशयक माना जाता है ।
तालिका 4.19
गर्भवस्था के दौरान स्वास्थ्य परिक्षण
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
हाँ |
75 |
37.5 |
नहीं |
125 |
62.0 |
कुल |
200 |
100.0 |
यदि हाँ तो किसके |
|
|
निजी डॉक्टर |
13 |
30.7 |
सरकारी अस्पताल |
35 |
46.7 |
दाई |
12 |
16.0 |
अन्य |
5 |
6.7 |
कुल उत्तरदाताओं |
65 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से ज्ञात होता है कि गंदी बस्तियों में रहने वाले अधिकांश (62.0 प्रतिशत) गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर जाँच को अधिक महत्त्व नहीं देते तथा बहुत थोड़े ही ऐसे परिवार हैं जो इसके प्रति जागरूक रहते हैं ।तालिका से यह स्पष्ट होता है कि जिन्होंने डॉक्टरी जाँच करायी थी उनके अधिकांश (46.7) ऐसे परिवार थे जो सरकारी अस्पतालों में मुफ्त सेवा के ख्याल से परिक्षण कराने तथा 30.7 प्रतिशत परिवार ही निजी डाक्टरों के पास जाने के योग्य थे ।इससे यह स्पष्ट होता है कि ऐसी भावना का मात्र कारण उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति ही रही थी ।
तालिका 4.19 से यह स्पष्ट होता है कि कुल 62 प्रतिशत महिलाएं गर्भावस्था के दौरान स्वास्थ्य परीक्षण नहीं करवाई ।इसलिए स्वास्थ्य परीक्षण नहीं करवाने के कारणों को जानने के लिए प्रश्न पूछे जिसके निम्नलिखित नतीजे सामने आए :
तालिका 4.20
गर्भावस्था के दौरान स्वाथ्य परिक्षण नहीं करवाने का कारण
कारण |
बारंबारता |
प्रतिशत |
स्वास्थ्य परिक्षण में विश्वास नहीं |
---- |
---- |
स्वास्थ्य परिक्षण की सुविधा नहीं |
22 |
17.6 |
स्वास्थ्य परीक्षण के महत्व की जानकारी नहीं |
103 |
82.4 |
कुल |
125 |
100.0 |
उपरोक्त तालिकाओं से ज्ञात होता है कि चिकित्सा सुविधा के विस्तार के बावजूद करीब 82 प्रतिशत महिलाओं को इस बात की जानकारी नहीं है कि गर्भावस्था के दौरान स्वास्थ्य परिक्षण करवाना अतिआवश्यक है ।यह भी स्पष्ट कि करीब 18 प्रतिशत महिलाएं स्वास्थ्य परिक्षण के महत्त्व को समझते हुए भी स्वास्थ्य परिक्षण की सुविधा के अभाव में स्वास्थ्य परिक्षण नहीं करवा सकीं ।
प्रसव के बाद स्वास्थ्य परिक्षण- प्रसव के बाद स्वास्थ्य परिक्षण का अपना एक विशेष महत्व है ।प्रसव के तुरंत बाद स्वास्थ्य परिक्षण से माता के स्वास्थ्य की स्थिति की जानकारी मिलती है ।साधारणत: प्रसव के बाद माताएं बहुत ही कमजोर हो जाती हैं इसलिए उन्हें पौष्टिक आहार के साथ ही स्वास्थ्य परिक्षण अतिआवशयक होती है ।
तालिका 4.21
प्रसव के बाद स्वास्थ्य परिक्षण
स्वास्थ्य परिक्षण हुआ |
माताओं की सं० |
प्रतिशत |
हाँ |
54 |
27 |
नहीं |
146 |
73 |
कुल |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से प्राप्त नतीजों से स्थिति बहुत ही भयावह प्रतीत होता है क्योंकि प्रसव के बाद स्वास्थ्य परिक्षण नहीं करवाने वाली माताओं की संख्या करीब 73 प्रतिशत है ।
तालिका 4.22
प्रसव के बाद स्वास्थ्य परिक्षण नहीं करवाने का कारण
कारण |
बारंबारता |
प्रतिशत |
स्वास्थ्य परिक्षण में विश्वास नहीं |
-- |
-- |
स्वास्थ्य परिक्षण की सुविधा नहीं |
26 |
17.8 |
स्वास्थ्य परिक्षण के महत्त्व की जानकारी नहीं |
120 |
82.2 |
कुल |
200 |
100.0 |
स्पष्ट है कि अधिकांश (82 प्रतिशत) माताएं प्रसव के बाद स्वास्थ्य परिक्षण के महत्त्व से अनभिज्ञ हैं ।
रोग निरोधक टीकाकरण – बच्चे का स्वास्थ्य जीवन रोग-निरोधक टीका लेने पर भी निर्भर करता है ।समय पर टीका लेने से घातक बीमारियों से बचा जा सकता है ।
तालिका 4.23
बच्चों को रोग निरोधक टीकाकरण
टीका का कारण |
बच्चों का जन्म क्रम से (1) |
बच्चों का जन्म क्रम से (2) |
बच्चों का जन्म क्रम से (3) |
बच्चों का जन्म क्रम से (4) |
बच्चों का जन्म क्रम से (5) |
बच्चों का जन्म क्रम से (6) |
कुल |
प्रारंभिक चेचक |
--- |
---- |
---- |
--- |
--- |
---- |
-- |
खसरा |
16 |
10 |
8 |
2 |
-- |
-- |
36 |
बी०सी०जी० |
-- |
---- |
--- |
--- |
--- |
--- |
-- |
पोलियो डी०पी०टी०-I |
18 |
11 |
--- |
--- |
-- |
--- |
29 |
पोलियो डी०पी०टी०-II |
10 |
6 |
--- |
--- |
-- |
---- |
16 |
पोलियो डी०पी०टी०-III |
---- |
----- |
----- |
----- |
--- |
---- |
--- |
बूस्टर प्रथम |
---- |
-- |
---- |
--- |
-- |
--- |
--- |
बूस्टर द्वितीय |
---- |
---- |
---- |
----- |
--- |
--- |
--- |
कुल |
44 |
27 |
8 |
2 |
-- |
-- |
81 |
उपरोक्त आंकड़ों से यह स्पष्ट कि गंदी बस्तियों के बच्चों को रोग निरोधक टीकाकरण नहीं हो पाता जिससे वे विभिन्न रोग के शिकार हो जाते हैं ।साथ ही इससे यह भी स्पष्ट होता है कि माता-पिता बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति अज्ञान एवं उदासीन है ।
बच्चों का घताक बीमारियों से शिकार होना – सर्वेक्षण के दौरान यह पता चला कि गंदी बस्तियों में रहने वाले कई बच्चे घातक बीमारियों के शिकार हैं ।
तालिका 4.24
बच्चों को घातक बीमारियाँ
बीमारी का नाम |
जन्म क्रम में बच्चे का स्थान (1) |
जन्म क्रम में बच्चे का स्थान (2) |
जन्म क्रम में बच्चे का स्थान (3) |
जन्म क्रम में बच्चे का स्थान (4) |
जन्म क्रम में बच्चे का स्थान (5) |
जन्म क्रम में बच्चे का स्थान (6) |
कुल |
पोलियो |
2 |
9 |
3 |
4 |
2 |
20 |
25 |
नोमोनिया |
6 |
4 |
2 |
5 |
1 |
18 |
23 |
टाईफाईड |
-- |
2 |
3 |
-- |
3 |
8 |
10 |
टी०बी० |
1 |
2 |
1 |
2 |
-- |
6 |
8 |
हैजा |
8 |
6 |
7 |
2 |
4 |
27 |
34 |
कुल |
27 |
23 |
16 |
13 |
10 |
79 |
100 |
स्पष्ट है कि गंदी बस्तियों में रहने वाली जिन 200 महिलाओं का अध्ययन किया गया उनके 79 बच्चे किसी-न-किसी घातक बीमारी के शिकार हो चुके हैं ।यह उनके स्वास्थ्य एवं पोषण की ख़राब स्थिति को दर्शाता है ।
अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि कई माताओं के बच्चे घातक बीमारी से मर चुके हैं ।इनमें, हैजा, टी०बी० एवं टाईफाईड से मरने वालों की संख्या सबसे अधिक है ।
जहां तक गर्भावस्था के दौरान पूरक पोषाहार का प्रश्न है तालिका से ज्ञात होता है कि अधिकांश परिवारों (76.0 प्रतिशत) ने इसके ऊपर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है ।
तालिका 4.25
गर्भावस्था के दौरान पूरक पोषाहार
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
हाँ |
48 |
24.0 |
नहीं |
152 |
76.0 |
कुल |
200 |
100.0 |
जब उत्तरदाताओं से पूरक पोषाहार में दिये जाने वाले पदार्थों के विषय में जानकरी ली गयी थी तो इसे जानकारी मिली की बहुत परिवार ही ऐसे थे जो फल या हलुआ आदि का प्रयोग किया करते थे ।
तालिका 4.26
पूरक पोषाहार में दिये जाने वाले पदार्थ
पदार्थ |
बारंबारता |
प्रतिशत |
हलुआ |
14 |
29.2 |
खिचड़ी |
28 |
58.3 |
दही |
4 |
12.5 |
दूध |
12 |
25.0 |
फल |
8 |
16.7 |
हॉर्लिक्स |
2 |
4.2 |
कुल उत्तरदाता |
48 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से ज्ञात होता है कि जिन परिवारों में गर्भवती महिलाओं को पूरक पोषाहार देने की आदत का चलन है उनमें आम तौर पर अधिकांश 58 प्रतिशत महिलाओं को खिचड़ी दिया जाता है तथा 29.2 प्रतिशत हलुआ और मात्र 16.7 तथा 12.5 प्रतिशत लोग क्रमश: फल और दही का प्रयोग करते हैं ।ऐसे मात्र 4.2 प्रतिशत ही पाये गये जहां गर्भवती महिलाओं को हॉर्लिक्स जैसे कीमती पूरक पोषाहार दिये जाते हैं ।उपरोक्त तालिका में दर्शाये गए पूरक पोषाहार में दूध, फल या हॉर्लिक्स को छोड़ हलुआ या खिचड़ी कोई बहुत अधिक खर्चीला पदार्थ नहीं है जो वास्तविकता तौर पर गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत ही लाभदायक होता है ।अत: बहुँत बड़ी संख्या में इन पदाथों का सेवन न होना मात्र इसी बात का प्रतिक है कि अज्ञानतावश या गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति उदसीनता ही इसके प्रमुख कारण नजर आते हैं ।
स्तनपान कराने की प्रक्रिया बच्चे के जन्म से लेकर एक वर्ष की आयु तक आवश्यक होता है तथा 4-6 माह के बाद बच्चों को अतिरिक्त आहार की आवश्यकता होती है अत: इन विषयों की भी जानकारी लेना आवश्यक माना गया ।
जहाँ गंदी बस्तीवासियों में स्तनपान कराने की अवधि का प्रश्न है हमने यह पाया कि आमतौर पर बच्चों को तब तक स्तनपान कराया जाता है जब तक की बच्चा स्वयं दूध पीना बंद न कर दे ।
तालिका 4.27
स्तनपान बंद करने की अवधि
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
6 महीने के उम्र में |
5 |
2.5 |
9 महीने के उम्र में |
9 |
4.5 |
1 वर्ष की उम्र में |
28 |
14.5 |
1-2 वर्ष की उम्र में |
38 |
19.0 |
जब बच्चा पीना बंद कर दे |
52 |
26.0 |
जब दूध आना बंद हो जाय |
42 |
21.0 |
या मां पूर्ण गर्भवती हो जाय |
--- |
--- |
नहीं कह सकते |
25 |
12.5 |
कुल उत्तरदाता |
200 |
100.0 |
तालिका से यह ज्ञात होता है कि कुल परिवारों में अधिकांश परिवार ऐसे हैं जहाँ बच्चों को स्तनपान करने बंद करने की कोई समय सीमा नहीं है क्योंकि देखते हैं कि 26 प्रतिशत 21.0 प्रतिशत परिवारों में अर्थात 46 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जहां तब तक स्तनपान जारी रखा जाता है जब तक या तो बच्चा स्वयं दूध पीना बंद न कर दे या मां का दूध आना ही बंद हो जाय ।धन की आवश्यकता नहीं होती ।इन दिनों प्रचार माध्यमों द्वारा की इससे होने वाले लाभों की जानकारी दी जाती है ।परन्तु ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश महिलाएं अज्ञानतावश स्तनपान के संबंध में कई गलत धारणाएं प्रारंभ करना या अपने बच्चों को प्रथम दूध (श्वीस) न पिलाना आदि की कालान्तर में बच्चों में स्वाथ्य पर बुरा प्रभाव डालता है ।
तालिका 4.28
जन्मे के बाद स्तनपान प्रारंभ करने की अवधि
अवधि (घंटा में) |
बारंबारता |
प्रतिशत |
1-5 |
48 |
14.0 |
4-6 |
36 |
18.0 |
7-12 |
38 |
19.0 |
13-24 |
28 |
14.0 |
24 से ऊपर |
50 |
25.0 |
औसत |
|
12.3 |
कुल उत्तरदाता |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से यह स्पष्ट होता है कि बस्तियों में लगभग 25 प्रतिशत परिवारों में प्रसव में 24 घंटे बाद बच्चों को मां के दूध से वंचित रखा जाता है जबकि लगभग इतने ही परिवारों में जन्म से 1-3 घंटे के अंदर स्तन प्रारंभ कर दिया जाता है ।जन्म के तुरंत बाद स्तनपान कराना बच्चों के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है कि जिसकी जानकारी परिवारों को नहीं है ।
बच्चों के लिए मां का दूध (श्वीस) कई रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है तथा प्रतिरोधक शक्ति में विकास करता है, परन्तु अज्ञानतावश कई बार माताएं इसे फेंक देती हैं ।
तालिका 4.29
बच्चे को प्रथम दूध देना
|
बारंबारता |
प्रतिशत |
हाँ |
86 |
43.0 |
नहीं |
114 |
57.0 |
कुल |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से ज्ञात होता है कि गंदी बस्तियों के मात्र 43 प्रतिशत परिवारों में ही बच्चों को ही प्रथम दूध (श्वीस) दिया जाता है ।हालांकि वैसे परिवार जहां श्वीश पिलायी जाती है उनसे बात करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसे परिवार श्वीस पिलाये हैं उनमें अधिकांश इसलिए नहीं प्रथम दूध पिलाते हैं कि इससे होने वाले लाभों की जानकारी है बल्कि इसके लिए कि उनकी आर्थिक स्थिति अथिक जिम्मेवार पायी गयी ।
साथ ही जब ऐसे परिवारों से जो श्वीस नहीं देते और उनसे नहीं पिलाने का जब कारण पूछा गया तो इसके कई कारण बताए जिन्हें निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है ।
तालिका 4.30
श्वीस नहीं पिलाने के कारण
कारण |
बारंबारता |
प्रतिशत |
बच्चा नहीं पचा सकता |
43 |
30.4 |
बच्चे के लिए हानिकारक |
36 |
26.1 |
बच्चे को स्वयं पीने में कठिनाई |
32 |
23.2 |
बुजुर्गों की सलाह पर |
28 |
20.3 |
कुल उत्तरदाता |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से यह ज्ञात होता है कि वैसे परिवार जिनमें बच्चों के जन्म के बाद श्वीस नहीं दिया जाता है उसका मुख्य करण उनमें यह धारणा है कि उसे नहीं पचा सकते थे ।समस्या लगभग 30 प्रतिशत परिवारों में है तथा 24 प्रतिशत परिवार बच्चों के लिए हानिकारक मानते हैं ।लगभग 23 प्रतिशत परिवार में इसे पीने में बच्चे की कठिनाई माना जाता है तथा 20 प्रतिशत परिवारों में बुजुर्गों की सलाह पर इसे नहीं दिया जाता है ।
यदि उपरोक्त बातों पर गंभीरता से विचार किया जाता है तो यह भी स्पष्ट होता है कि ये सभी कारण अज्ञानता या अंधविश्वास की देन है जिसका सीधा सम्बन्ध अशिक्षा से है जिसकी गंदी बस्तियों में बहुलता है, दूध बंद होने का एक कारण हुआ करता है ।
तालिका से यह भी स्पष्ट होता है कि ऐसे बहुत ही कम परिवार हैं जो बच्चे की उम्र 6 माह होने पर (2.5 प्रतिशत) या 9 माह (4.5 प्रतिशत) होने पर स्तनपान बंद कर देते हैं तथा ढोस आहार पर रखा जाता है ।हालांकि कुल उत्तरदाताओं में 12.5 प्रतिशत ऐसे भी परिवार मिले जिन्हें इसकी या तो जानकारी नहीं है कि उनके परिवार में बच्चों को कब स्तनपान बंद किया जाता है या उनके बच्चे बड़े हो चुके हैं कि उन्हें ठीक याद ही नहीं रहा कि ऐसा उनके साथ परिवार में कब हुआ या होता रहा है ।
बच्चे के अच्छे स्वाथ्य के लिए यह आवशयक है कि 3-4 माह की आयु होते ही उसे पूर्णत: दूध पर रख कर धीरे-धीरे अर्ध ठोस आहार देना प्रारंभ कर दिया जाय ।हमने अपने उत्तरदाताओं से जब इस बात की जानकारी लेनी चाहिए तो यह ज्ञात हुआ कि आम तौर पर ऐसा नहीं किया जाता है ।
तालिका 4.31
बच्चों को पूरक पोषाहार प्रारंभ करने का समय
अवधि |
बारंबारता |
प्रतिशत |
3-4 माह बाद |
68 |
34.0 |
5-6 माह बाद |
48 |
24.0 |
7-9 माह बाद |
30 |
15.0 |
9-12 माह बाद |
6 |
3.0 |
12 माह से अधिक |
2 |
1.0 |
नहीं कह सकते |
46 |
23.0 |
कुल उत्तरदाता |
200 |
100.0 |
उपरोक्त तालिका से यह ज्ञात होता है कि गंदी बस्ती में रह रहे लगभग 58.0 प्रतिशत परिवारों में 6 माह के अंदर ही बच्चों को पूरक पोषाहार दिया जाना प्रारंभ कर दिया जाता है जबकि 23.0 प्रतिशत उत्तरदाता इस संबंध में कोई जानकारी नही रखते तथा बहुत ही थोड़े ऐसे परिवार भी पाये गये जहां बच्चों को दूध के अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ 9 माह से लेकर 12 माह या उससे अधिक दिनों बाद भोजन दिया जाना शुरू कर दिया जाता है ।उत्तरदाताओं से पुछ –ताछ करने पर यह भी ज्ञात हुआ कि वैसे परिवार जहां 3-4 माह बाद बच्चों को अतिरिक्त पोषाहार दिया जाता है उसका कारण उनकी इस बात के प्रति चेतना न होकर कई अन्य कारण रहा है जिनमें मुख्यत: दूध पिलाने में आर्थिक कारणों से अभाव जान पड़ा ।अत: वे अपनी मजबूरियांवश दूध कम करने के बाद धीरे-धीरे चावल का पानी, दाल का पानी या पतली खिचड़ी आदि जैसी चीजें बच्चों को पेट भरने हेतु देना प्रारंभ करते हैं ।अत: इसका अर्थ यह कभी नहीं होता कि वे पूर्णत: पोषाहार संबंधी जानकारी रखते हैं और उससे प्रेरित होकर ऐसा किया जाता है ।बच्चों को ठोस आहार किन चीजों का सेवन कराया जाता है तो इससे यह स्पष्ट हुआ कि साधारणत: इन्हें दाल का पानी या मांड (घुले हुए चावल का पानी) पेट भरने की वजह से ही दी जाती है ।
तालिका 4.32
बच्चों को ठोस आहार में दिये जाने वाले पदार्थ
पदार्थ |
बारंबारता |
प्रतिशत |
दाल का पानी |
35 |
17.5 |
गिला चावल एवं दाल |
45 |
22.5 |
दलिया |
15 |
7.5 |
दूध रोटी का मिश्रण |
65 |
32.5 |
खिचड़ी |
25 |
12.5 |
अन्य |
10 |
5.0 |
उपरोक्त तालिका से यह ज्ञात होता है कि कुल उत्तरदाताओं में अधिकांश (32.5 प्रतिशत) बच्चों को ठोस आहारस्वरुप दूध और रोटी का मिश्रण दिया करते हैं तथा आम तौर पर गिला चावल एवं दाल (22.5 प्रतिशत) , खिचड़ी (12.5 प्रतिशत) या दाल का पानी दिया करते हैं ।इसके अतिरिक्त 5.0 प्रतिशत परिवार ऐसे पाये गये जो अपने बच्चों को हॉर्लिक्स या अन्य डब्बा बंद आहार दिया करते हैं ।
यदि हम बच्चों को ठोस आहार में दिए जाने वाली वस्तुओं पर गौर करने तो इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इनमें अधिकांश ऐसे ही पदार्थ हैं जिनके लिए कोई विशेष या अतिरिक्त खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती तथा कुल मिलाकर ये बहुत हद तक बच्चों की जरूरत को भी पूरा करने में समर्थ हैं ।परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि इन बस्तियों में रहने वाले परिवारों को पोषाहार के विषय में कोई विशेष जानकारी या प्रशिक्षण प्राप्त है, जैसे की हमने अपने की विश्लेषणों में पाया है ।
अत: उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गरीबी की संस्कृति में पल रहे गंदी बस्तीवासी हालांकि कुछ माने में अपनी अज्ञानता, गरीबी या शिक्षा के आभाव में पोषाहार से सम्बंधित बहुत-सी-छोटी मोटी बातों की जानकारी नहीं रखते जिसके फलस्वरूप आगे चला कर उन्हें कुपोषण के दुष्परिणाम झेलने पड़ते हैं ।फिर भी यह निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि कुछ हद तक हमारे समाजिक मूल्य या परम्पराएँ इन्हे कुछ ऐसा करने को बाध्य करीत है जिसके कारण ये बहुत हद तक अपने बच्चों को एक स्वस्थ जीवन देने को मजबूर होते हैं ।परन्तु उनकी आर्थिक स्थिति की अपनी सीमाएं उन्हें ऐसा करने को मजबूर करती है और चूँकि उनके अपने समाज में यही कभी सभी परिवारों की होती है जो उनके अपने सामाजिक परिवेश के अनुरूप, सामजिक मूल्यों में बदलाव को प्रभावित करती रहती है और समाजिक परिवर्तन का यह चक्र गंदी बस्तियों में रहने वाले परिवारों को अपने दायरे से नहीं निकलने देती है ।
औधोगिकीकरण और नगरीकरण व्यक्ति की शिक्षा, विज्ञान, तकनीकी ज्ञान के विकास में सहायक सिद्ध हुआ है, परन्तु इनके साथ-साथ इतने करोड़ों व्यक्तियों को एक कठिन जीवन जीने के लिए मजबूर भी किया गया है । औधोगिकीकरण एवं नगरीकरण के फलस्वरूप लोग अपनी आर्थिक उन्नति के लिए गांवों से आकार शहरों में बसने लगे। आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण अधिकांश व्यक्ति शहर आने के बाद गंदी बस्तियों में रहने को विवश हो गए हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि शहरों पर जनसंख्या के बढ़ते दबाव ने गंदी बस्तियों को जन्म दिया है।
साधारणत: गंदी बस्ती कठिनाइयों एवं अस्वच्छ वातावरण एवं पर्यावरण से घिरा हुआ होता है। विस्तृत अर्थ में गंदी बस्ती निर्धन व्यक्तियों के रहने का वह स्थान होता है जहां वे स्वयं झोपड़ियों, केशविन अथवा लकड़ी, बांस के छोटे-छोटे मकान में रहते हैं। ये मकान इनके अपने भी हो सकते हैं या फिर किराये के भी ।
गंदी बस्तियों का जन्म अचानक ही नहीं हुआ करता, वरन इसके विकास की पृष्ठभूमि में अनेक पोषक तत्व हैं जैसे – निर्धनता, आवास का अभाव, नगरीय जनसंख्या का दबाव, औद्योगिक क्रांति, गाँव में व्याप्त शोषण की प्रवृति, अशिक्षा एवं जागरूकता का अभाव, जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि, ग्रामीण बेरोजगारी, गतिशीलता में वृद्धि आदि गंदी बस्तियों के जन्म के मुख्य करका है ।
वर्तमान अध्ययन में गंदी बस्तियों में रहने वाले व्यक्तियों के जीवन के कुछ पहलू पर प्रकाश डालने की चेष्टा की गयी है। उसकी जीवन शैली, रहन-सहन, आवास की समस्या, स्वास्थ्य समस्याएं तथा गतिशीलता आदि वर्तमान अध्ययन का विषय है ।
प्रस्तुत अध्ययन गंदी बस्तियों के सर्वेक्षण पर आधारित है। अध्ययन के लिए गया शहर के कुछ गंदी बस्तियों का चयन किया गया है। वैसे तो गया शहर में अनेकों गंदी बस्तियां हैं जिसमें हजारों परिवार निवास करते हैं। इन बस्तियों में नागरिक सुविधाओं को घोर अभाव है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ये बस्तियाँ गया शहर के सभी गंदी बस्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं ।
प्रस्तुत अध्ययन में 200 परिवारों का चयन किया गया। इतनी बड़ी बस्तियों में से केवल 200 परिवारों का चयन करना कठिन काम था ।यहां रहने वाले परिवारों के विषय में पहले से कोई विशेष जानकारी नहीं थी ।वोटर लिस्ट या होल्डिंग टैक्स के सहारे भी परिवारों का चयन उचित नहीं जान पड़ा क्योंकि इन बस्तिओं में रहनेवाले बहुत से लोगों का नाम वोटर लिस्ट में नहीं होता है तथा झोपड़-पट्टि के किरायदारों के पास होल्डिंग टैक्स जैसे कोई सुविधा प्राप्त नहीं होती ।अत: इन कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए गुच्छा प्रतिदर्शन पद्धति का प्रयोग किया गया ।इस विधि के अनुसार एक बस्ती को पाँच गुच्छों में बांटा गया है तथा प्रत्येक गुच्छा से 20 परिवारों का चयन किया गया ।इन परिवारों के चयन में “उदेश्यपूर्ण” निर्देशन विधि को अपनाया गया ।इनमें उन परिवारों को ही चुना गया जिसमें कम से कम एक बच्चा 5 वर्ष से काम आयु का था ।परिवार नियोजन तथा स्वास्थ्य सेवाएं आदि के संबंध में अध्ययन के लिए इस प्रकार का चयन उचित समझा गया ।चयन किये गये परिवारों से तथ्य आकलन के लिए एक अनुसूची तैयार की गयी तथा इसकी सहायता से चुने गये परिवारों के मुखिया का साक्षात्कार किया गया ।संकलित तथ्यों का वर्गीकरण तथा सारणीयन कर प्रस्तुत किया गया।
बिहार में नगरीकरण- गया शहर की आबादी के साथ-साथ बिहार राज्य की कुल आबादी में भी काफी वृधि हुई है ।वर्त्तमान आंकड़ों के अनुसार बिहार की कुल आबादी का 13.17 प्रतिशत शहरों में निवास करती है ।यधपि यह प्रतिशत ग्रामीण आबादी की तुलना में बहुत कम प्रतीत होता है परन्तु शहरीकरण की प्रक्रिया ने बिहार के शहरों में तरह-तरह की समस्याओं को जन्म दिया है ।इन समस्याओं ने समाजवैज्ञानिकों एवं योजनाकर्मियों को एक चुनौती दी है ।बिहार के कुल क्षेत्रफल का केवल 1.84 प्रतिशत क्षेत्र ही शहरी भाग है ।फलस्वरूप बिहार के शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व निरंतर बढ़ता जा रहा है ।1961 में शहरी क्षेत्रों का घनत्व 1915 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था जो 1971 में बढ़कर 2039 एवं 1981 में यह बढ़कर 2276 हो गया ।अत: 1961-81 के बीच शहरी जनसंख्या के घनत्व में करीब 1.4 गुणा वृधि हुई थी ।
समान्यत: नगरों का वर्गीकरण शहरी जनसंख्या के आधार पर किया जाता है ।एक लाख या उससे अधिक आबादी वाले शहरों को प्रथम श्रेणी में रखा गया है ।1991 की जनगणना के अनुसार कुल 211 शहर हैं ।प्रथम श्रेणी के शहरों में अधिकांश (52.6 प्रतिशत) शहरी आबादी रहती है ।आशीष बोस ने अपने एक अधययन में सभी शहरों को दो श्रेणियों में बांटा है – 20,000 या उससे अधिक पूर्ण शहरी क्षेत्र तथा इससे कम को अर्ध-शहरी क्षेत्र माना है ।यदि इस आधार पर हम बिहार के 211 शहरों को दो भागों में बांटे तो यह पाते हैं पूर्ण शहरी क्षेत्रों में बिहार की कुल जनसंख्या का 91.0 प्रतिशत भाग निवास करता है तथा मात्र 9.0 प्रतिशत अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रहती है ।
शहरीकरण एवं औधोगिकीकरण एक ओर जहाँ व्यक्ति की आर्थिक दशा में सुधार लाता है, वहीँ दूसरी ओर बढ़े पैमाने पर इसने बेरोजगारी की समस्या को जन्म दिया है ।बेरोजगारी आपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कई बार समाजिक व्यवस्था तथा मूल्यों की अवहेलना करने को बाध्य हुए हैं , जिससे सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आया है तथा सामाजिक बंधन कमजोर पड़ने लगे हैं ।शहरों में सामाजिक बंधनों के टूटने पर परिवार असंगठित एवं विघटित होने लगा ।अत: बिहार के शहरीकरण तथा उसे उत्पन्न समाजिक समस्याओं ने योजनाकर्ताओं एवं प्रशासकों के समक्ष एक चुनौती प्रस्तुत की है ।
अंतिम बार संशोधित : 10/16/2023
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