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डायालिसिस

डायालिसिस

भूमिका

जब दोनों किडनी कार्य नहीं कर रही हों, उस स्थिति में किडनी का कार्य कृत्रिम विधि से करने की पध्दति को डायालिसिस कहते हैं। डायलिसिस एक प्रक्रिया है जो किडनी की खराबी के कारण शरीर में एकत्रित अपशिष्ट उत्पादों और अतिरिक्त पानी को कृत्रिम रूप से बाहर निकालता है। संपूर्ण किडनी फेल्योर या एण्ड स्टेज किडनी डिजीज या एक्यूट किडनी इंज्यूरी के मरीजों के लिए डायलिसिस एक जीवन रक्षक तकनीक है।

डायालिसिस के क्या कार्य हैं?

डायालिसिस के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं :

  • खून में अनावश्यक उत्सर्जी पदार्थ जैसे की क्रीएटिनिन, यूरिया को दूर करके खून का शुद्धीकरण करना।
  • शरीर में जमा हुए ज्यादा पानी को निकालकर द्रवों को शरीर में योग्य मात्रा में बनाये रखना।
  • शरीर के क्षारों जैसे सोडियम, पोटैशियम इत्यादि को उचित मात्रा में प्रस्थापित करना।
  • शरीर में जमा हुई एसिड (अम्ल) की अधिक मात्रा को कम करते हुए उचित मात्रा बनाए रखना।
  • डायलिसिस, एक सामान्य किडनी के सभी कार्यों की जगह नहीं लें सकता है। जैसे एरिथ्रोपाइटिन होर्मोन (erythropoietin hormone) का उत्पादन जो हीमोग्लोबिन के स्तर को बनाए रखने में आवश्यक होता है।

डायालिसिस की जरूरत कब पडती है ?

जब किडनी की कार्य क्षमता 80-90 % तक घट जाती है तो यह स्थिति एण्ड स्टेज किडनी डिजीज (ESKD) की होती है। इसमें अपशिष्ट उत्पाद और द्रव शरीर से बाहर नहीं निकल पाते हैं। विषाक्त पदार्थ जैसे - क्रीएटिनिन और अन्य नाइट्रोजन अपशिष्ट उत्पादों के रूप में शरीर में जमा होने से मतली उल्टी, थकान सूजन और सांस फूलने जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से यूरीमिया कहते हैं। ऐसे समय में सामान्य चिकित्सा प्रबंधन अपर्याप्त हो जाता है और मरीज को डायलिसिस शुरू करने की आवश्यकता होती है। डायालिसिस किडनी के कार्य का कृतिम विकल्प है।

क्या डायालिसिस करने से किडनी फिर से काम करने लगाती है?

नहीं। क्रोनिक किडनी फेल्योर के मरीजों में डायालिसिस करने के बाद भी, किडनी फिर से काम नहीं करती है। ऐसे मरीजों में डायालिसिस किडनी के कार्य का विकल्प है और तबियत ठीक रखने के लिए नियमित रूप से हमेंशा के लिऐ डायालिसिस कराना जरूरी होता है।

लेकिन एक्यूट किडनी फेल्योर के मरीजों में थोडे समय के लिए ही डायालिसिस कराने की जरूरत होती है। ऐसे मरीजों की किडनी कुछ दिन बाद फिर से पूरी तरह काम करने लगती है और बाद में उन्हें डायालिसिस की या दवाई लेने की जरूरत नहीं रहती है ।

डायालिसिस के कितने प्रकार है ?

डायालिसिस के दो प्रकार है :

1. हीमोडायालिसिस

इस प्रकार के डायालिसिस में हीमोडायालिसिस मशीन, विशेष प्रकार के क्षारयुक्त द्रव (Dialyser) की मदद से कृत्रिम किडनी (Dialyser) में खून को शुद्ध करता है।

2. पेरीटोनियल डायालिसिस

इस प्रकार के डायालिसिस में पेट में एक खास प्रकार का केथेटर नली (P.D. catheter) दाल कर, विशेष प्रकार के क्षारयुक्त द्रव (P.D. Fluild) की मदद से, शरीर में जमा हुए अनावश्यक पदार्थ दूर कर शुद्धीकरण किया जाता है। इस प्रकार के डायालिसिस में मशीन की आवश्यकता नहीं होती है।

डायालिसिस में खून का शुद्धीकरण किस सिद्धांत पर आधारित है?

  • हीमोडायालिसिस में कृत्रिम किडनी की कृत्रिम झिल्ली और पेरीटोनियल डायालिसिस में पेट का पेरीटोनियम अर्धपारगम्य झिल्ली (सेमीपरमिएबल मेम्ब्रेन) जैसा काम करती है।
  • झिल्ली के बारीक छिद्रों से छोटे पदार्थ जैसे पानी, क्षार तथा अनावश्यक यूरिया, क्रीएटिनिन जैसे उत्सर्जी पदार्थ निकल सकते हैं। परन्तु शरीर के लिए आवश्यक बड़े पदार्थ जैसे के खून के कण नही निकल सकते हैं।
  • दोनों किडनी खराब होने के बावजूद मरीज डायालिसिस की मदद से लम्बे समय तक आसानी से जी सकता है।
  • डायालिसिस की क्रिया मे अर्धपारगम्य झिल्ली (सेमीपरमिएबल मेम्ब्रेन) के एक तरफ डायालिसिस का द्रव होता है और दूसरी तरफ शरीर का खून होता है।
  • ऑस्मोसिस और डिफ्यूजन के सिद्धांत के अनुसार खून के अनावश्यक पदार्थ और अतिरिक्त पानी, खून से डायालिसिस द्रव मे होते हुए शरीर से बहार निकलता है। किडनी फेल्योर की वजह से सोडियम, पोटैशियम तथा एसिड की मात्रा मे हुए परिवर्तन को ठीक करने का महत्वपूर्ण कार्य भी इस प्रक्रिया के दौरान होता है।

किस मरीज को हीमोडायालिसिस और किस मरीज को पेरीटोनियल डायालिसिस से उपचार किया जाना चाहिए?

क्रोनिक किडनी फेल्योर के उपचार में दोनों प्रकार के डायालिसिस असरकारक होते हैं। मरीज को दोनों प्रकार के लाभ-हानि की जानकारी देने के बाद मरीज की आर्थिक स्थिति, तबियत के विभिन्न पहेलु, घर से हीमोडायालिसिस यूनिट की दुरी इत्यादि मसलों पर विचार करने के बाद, किस प्रकार का डायालिसिस करना है यह तय किया जाता है। भारत में अधिकतर जगहों पर हीमोडायालिसिस कम खर्च मे सरलता से तथा सुगमता से उपलब्ध है। इसी कारण हीमोडायालिसिस द्वारा उपचार करानेवाले मरीजों की संख्या भारत मे ज्यादा है।

डायालिसिस शुरू करने के बाद, मरीज को आहार मेँ परहेज रखना क्या जरूरी है?

हाँ, मरीज को डायालिसिस शुरू करने के बाद भी आहार मेँ संतुलित मात्रा मे पानी एवं पेय पदार्थ लेना, कम नमक खाना एवं पोटैशियम और फॉस्फोरस न बढ़ने देने की हिदायतें दि जाती है। लेकिन सिर्फ दवाई से उपचार करानेवाले मरीजों की तुलना मेँ डायालिसिस से उपचार करानेवाले मरीजों को आहार मेँ ज्यादा छूट दि जाती है और ज्यादा प्रोटीन और विटामिनयुक्त आहार लेने की सलाह दि जाती है।

डायालिसिस कराने वाले मरीजों को भी आहार मे परहेज रखना जरूरी होता है।

"ड्राई वेट" क्या है?

डायालिसिस के दौरान सभी अतिरिक्त तरल पदार्थ निकलने के बाद रोगी का जो वजन होता है उसे ड्राई वेट कहते हैं। समय-समय पर ड्राई वजन को पुर्ननिरीक्षण एवं समायोजित करने की आवश्यकता होती है क्योंकि वासस्तविक वजन (ड्राई वेट) में बदलाव हो सकता है।

हीमोडायालिसिस (खून का डायालिसिस)

दुनियाभर मेँ डायालिसिस करानेवाले मरीजों का बड़ा समूह इस प्रकार का डायालिसिस कराते हैं। इस प्रकार के डायालिसिस मेँ हीमोडायालिसिस मशीन द्वारा खून को शुद्ध किया जाता है।

हीमोडायालिसिस किस प्रकार किया जाता है?

  • हीमोडायालिसिस, अस्पतालों में या डायालिसिस सेंटर में डॉक्टर, नर्स और डायालिसिस तकनीशियन की देखरेख में किया जाता है।
  • हीमोडायालिसिस मशीन के अंदर स्थित पम्प की मदद से शरीर मेँ से 250-300 मि.लि. खून प्रति मिनट शुद्ध करने के लिए कृत्रिम किडनी मेँ भेजा जाता है। खून का थक्का न बने , इसके लिए हीपेरिन नामक दवा का प्रयोग किया जाता है।
  • कृत्रिम किडनी मरीज और हीमोडायालिसिस मशीन के बीच मेँ रहकर खून का शुद्धिकरण का कार्य करती है। खून शुद्धिकरण के लिए हीमोडायालिसिस मशीन के अंदर नहीं जाता है।
  • कृत्रिम किडनी मेँ खून का शुद्धिकरण डायालिसिस मशीन द्वारा पहुँचाए गए खास प्रकार के द्रव (Dialysate) की मदद से होता है।
  • शुद्ध किया गया खून फिर से शरीर मेँ पहुँचाया जाता है।
  • सामान्यतः हीमोडायालिसिस की प्रक्रिया चार घंटे तक चलती है इस बीच शरीर का सारा खून करीब 12 बार शुद्ध होता है।
  • हीमोडायालिसिस, डायालिसिस मशीन की मदद से की जानेवाली खून शुद्ध करने की एक प्रक्रिया है।
  • हीमोडायालिसिस की प्रक्रिया मेँ हमेंशा खून चढ़ाने (blood transfusion) की जरुरत पड़ती है , यह धारणा गलत है। हाँ, खून मेँ यदि हीमोग्लोबिन की मात्रा कम हो गई हो, तो ऐसी स्थिति मेँ यदि डॉक्टर को आवशयक लगे तभी खून दिया जाता है।
  • प्रायः हफ्ते में तीन दिन हीमोडायालिसिस होते है और प्रत्येक सत्र लगभग चार घंटे का होता है।

शुद्धीकरण के लिए खून को कैसे शरीर से बहार निकाला जाता है ?

खून प्राप्त करने (vascular access) के लिए निम्नलिखित मुख्य पध्दतियां इस्तेमाल की जाती है।

1. डबल ल्यूमेन केथेटर

2. ए.वी. फिस्च्यूला

3. ग्राफ्ट

1. डबल ल्यूमेन केथेटर (नली):

आकस्मिक परिस्थितियों में पहली बार तत्काल हीमोडायालिसिस करने के लिए यह सबसे अधिक प्रचलित पध्दति है, जिसमें केथेटर मोटी शिरा (नस) में डालकर तुरंत हीमोडायालिसिस किया जा सकता है।

  • डायालिसिस करने के लिए शरीर के बाहर से डाली गयी नली द्वारा डायालिसिस की यह पध्दति लघु अवधि के उपयोग के लिए अभी तक आदर्श मानी गई है।
  • यह केथेटर गले में, कंधे में या जांघ में स्थित मोटी नस (internal jugular subclavian or femoral vein) में रखा जाता है, जिसकी मदद से प्रत्येक मिनट में 300 से 400 मि. लि. खून शुद्धीकरण के लिए निकाला जाता है।
  • यह केथेटर (नली) बाहर के भाग में दो हिस्सों में अलग - अलग नलियों में विभाजित होता है। नली का एक हिस्सा खून को शरीर से बाहर निकालने के लिए और दूसरा खून को वापस भेजने के लिए होता है। शरीर के अंदर जाने से पहले नली के दोनों हिस्से एक हो जाते है, जो अंदर से दो भाग में विभाजित होते हैं।
  • केथेटर में संक्रमण होने के खतरे की वजह से अल्प अवधि (3 -6 हप्ते) के लिए हीमोडायालिसिस करने के लिए यह पध्दति पसंद की जाती है।

डायालिसिस के लिए दो प्रकार के वीनस कैथेटर होते है नलिका और गैर नलिका। नलिका वाला कैथेटर एक महीने के लिए प्रयोग करने योग्य होता है और गैर नलिका का प्रयोग कुछ हफ्ते तक किया जा सकता है।

2. ए.वी. फिस्च्यूला (Arterio Venous (AV) Fistula) :

लंबी अवधि महीनों-सालों तक हीमोडायालिसिस करने के लिए सबसे ज्यादा उपयोग की जानेवाली यह पध्दति सुरक्षित होने के कारण उत्तम है।

  • इस पध्दति में कलाई पर धमनी और शिरा को ऑपरेशन द्वारा जोड़ दिया जाता है।
  • धमनी (Artery) में से अधिक मात्रा में दबाव के साथ आता हुआ खून शिरा (Vein) में जाता है, जिसके कारण हाथ की नसें (शिराएं) फूल जाती हैं।
  • इस तरह नसों के फूलने में तीन से चार सप्ताह का समय लगता है। उसके बाद ही नसों का उपयोग हीमोडायालिसिस के लिए किया जा सकता है।
  • इसलिए पहली बार तुरंत हीमोडायालिसिस करने के लिए तुरंत फिस्च्युला बना कर उसका उपयोग नहीं किया जा सकता है।
  • इन फूली हुई नसों में दो अलग- अलग जगहों पर विशेष प्रकार की दो मोटी सुई-फिस्च्युला नीडल (Fistula Needle) डाली जाती है।
  • इन फिस्च्युला नीडल की मदद से हीमोडायालिसिस के लिए खून बाहर निकाला जाता है और उसे शुद्ध करने के बाद शरीर में अंदर पहुँचाया जाता है।
  • फिस्च्युला की मदद से महीनों या सालों तक हीमोडायालिसिस किया जा सकता है।
  • फिस्च्युला किए गए हाथ से सभी हल्के दैनिक कार्य किए जा सकते हैं।

ए.वी. फिस्च्यूला की विशेष देखभाल क्यों जरुरी है?

क्रोनिक किडनी फेल्योर की अंतिम अवस्था के उपचार में मरीज को हीमोडायालिसिस कराना पडता है। ऐसे मरीजों का जीवन नियमित डायालिसिस पर ही आधारित होता है। ए.वी. फिस्च्यूला यदि ठीक से काम करे तो ही हीमोडायालिसिस के लिए उससे पर्याप्त खून लिया जा सकता है। संक्षेप में, डायालिसिस करानेवाले मरीजों का जीवन ए.वी. फिस्च्यूला की योग्य कार्यक्षमता पर आधारित होता है।

ए.वी. फिस्च्यूला से हमेंशा पर्याप्त मात्रा में यदि खून मिलता रहे, तभी उचित तरीके से हीमोडायालिसिस हो सकता है।

  • ए.वी. फिस्च्यूला की फूली हुई नसों में अधिक दबाव के साथ बड़ी मात्रा में खून प्रवाहित होता है। यदि ए.वी. फिस्च्यूला में अचानक चोट लग जाए तो फूली हुई नसों से अत्यधिक मात्रा में खून निकलने की संभावना भी रहती है। यदि ऐसी स्थिति में खून के बहाव पर तुरंत नियंत्रण नहीं किया जा सके तो थोड़े समय में मरीज की मौत भी हो सकती है।

ए. वी. फिस्च्युला का लम्बे समय तक संतोषजनक उपयोग करने के लिए क्या सावधानी जरुरी होती है

ए. वी. फिस्च्युला की मदद से लम्बे समय (सालों) तक पर्याप्त मात्रा में डायालिसिस के लिए खून मिल सके इसके लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है:

  1. नियमित कसरत करना। फिस्च्युला बनाने के बाद नस फूली रहे और पर्याप्त मात्रा में उससे खून मिल सके इसके लिए हाथ की कसरत नियमित करना आवश्यक है। फिस्च्युला की मदद से हीमोडायालिसिस शुरू करने के बाद भी हाथ की कसरत नियमित करना अत्यंत जरुरी है।
  2. खून के दबाव में कमी होने के कारण फिस्च्युला की कार्यक्षमता पर गंभीर असर पड़ सकता है, जिसके कारण फिस्च्युला बंद होने का डर रहता है। इसलिए खून के दबाव में ज्यादा कमी न हो इसका ध्यान रखना चाहिए।
  3. फिस्च्युला कराने के बाद प्रत्येक मरीज को नियमित रूप से दिन में तीन बार (सुबह, दोपहर, और रात) यह जाँच लेना चाहिए की फिस्च्युला ठीक से काम कर रही है या नहीं। ऐसी सावधानी रखने से यदि फिस्च्युला अचानक काम करना बंद कर दे तो उसका निदान तुरंत हो सकता है। शीघ्र निदान और योग्य उपचार से फिस्च्युला फिर से काम करने लगती है।
  4. हीमोडायालिसिस के मरीजों में ए.वी. फिस्च्यूला जीवनडोर समान होने के कारण देखभाल करना जरुरी है।
  5. फिस्च्युला कराये हुई हाथ की नस में कभी भी इंजेक्शन नहीं लेना चाहिए। उस नस में ग्लूकोज या खून नहीं चढ़वाना चाहिए या परीक्षण के लिए खून नहीं देना चाहिए।
  6. फिस्च्युला कराये हाथ पर ब्लडप्रेशर नहीं मापना चाहिए।
  7. फिस्च्युला कराये हाथ से वजनदार चीजें नहीं उठानी चाहिए। साथ ही, ध्यान रखना चाहिए की उस हाथ पर ज्यादा दबाव नहीं पड़े। खासकर सोते समय फिस्च्युला कराये हाथ पर दबाव न आए उसका ध्यान रखना जरुरी है।
  8. फिस्च्युला को किसी प्रकार की चोट न लगे, यह ध्यान रखना जरुरी है। उस हाथ में धड़ी, जेवर (कड़ा, धातु, चूड़ियाँ) इत्यादि जो हाथ पर दबाव डाल सके उन्हें नहीं पहनना चाहिए। यदि किसी कारण अकस्मात् फिस्च्युला में चोट लग जाए और खून बहने लगे तो बिना घबराए, दूसरे हाथ से भारी दबाव डालकर खून को बहने से रोकना चाहिए। हीमोडायालिसिस के पश्चात् इस्तेमाल की जानेवाली पट्टी को कसकर बाँधने से खून का बहना असरकारक रूप से रोका जा सकता है। उसके बाद तुरंत डॉक्टर से सम्पर्क करना चाहिए। बहते खून को रोके बिना डॉक्टर के पास जाना जानलेवा भी हो सकता है।
  9. फिस्च्युला वाले हाथ को साफ रखना चाहिए और हीमोडायालिसिस कराने से पहले हाथ को जीवाणुनाशक साबुन से साफ करना चाहिए।
  10. हीमोडायालिसिस के बाद फिस्चुला से खून को निकलने से रोकने के लिए हाथ पर खास पट्टी (Tourniquet) कस के बाँधी जाती है। यदि यह पट्टी लम्बे समय तक बंधी रह जाए, तो फिस्च्युला बंद होने का भय रहता है।
  11. हीमोडायालिसिस मशीन कृत्रिम किडनी की मदद से खून को शुद्ध करती है और पानी, क्षार, एसिड की उचित मात्रा बनाए रखती है।

3. ग्राफ्ट (Graft) :

जिन मरीजों के हाथ की नसों की स्थिति फिस्च्युला के लिए योग्य नहीं हो, उनके लिए ग्राफ्ट (Graft) का उपयोग किया जाता है।

इस पध्दति में खास प्रकार के प्लास्टिक जैसे पदार्थ की बनी कृत्रिम नस की मदद से ऑपरेशन कर हाथ या पैरों की मोटी धमनी और शिरा को जोड़ दिया जाता है।

फिस्च्युला नीडल को ग्राफट में डालकर हीमोडायालिसिस के लिए खून लेने और वापस भेजने की क्रिया की जाती है।

बहुत महंगी होने के कारण इस पध्दति का उपयोग बहुत कम मरीजों में किया जाता है।

ए. वी. फिस्च्युला की तुलना में ग्राफ्ट में थक्का जमने और संक्रमण होने का जोखिम ज्यादा है एवं ए. वी. ग्राफ्ट लंबे समय तक कार्य नहीं कर सकता है।

हीमोडायालिसिस मशीन के क्या कार्य हैं?

हीमोडायालिसिस मशीन के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं:

  1. हीमोडायालिसिस मशीन का पम्प खून के शुद्धीकरण के लिए शरीर से खून लेकर और आवश्यकतानुसार उसकी मात्रा कम या ज्यादा करने का कार्य करती है।
  2. मशीन विशेष प्रकार का द्रव (डायालाइजेट) बनाकर कृत्रिम किडनी (डायालाइजर) में भेजती है। मशीन डायालाइजेट का तापमान, उसमें क्षार, बाइकार्बोनेट इत्यादि को उचित मात्रा में बनाए रखती है। मशीन इस डायालाइजेट को उचित मात्रा में दबाव से कृत्रिम किडनी में भेजती है और खून से अनावश्यक कचरा दूर करने के बाद डायालाइजेट को बाहर निकाल देती है।
  3. हीमोडायालिसिस में कोई दर्द नहीं होता है और मरीज बिस्तर में लेटे या कुर्सी पर बैठे हुई सामान्य काम कर सकता है ।
  4. किडनी फेल्योर में शरीर में आई सूजन, अतिरिक्त पानी के जमा होने के कारण होती है। डायालिसिस क्रिया में मशीन शरीर के ज्यादा पानी को निकाल देती है।
  5. मरीजों की सुरक्षा के लिए डायालिसिस मशीन में विभिन्न प्रकार के सुरक्षा उपकरण और अलार्म रहते हैं। जैसे डायालाइजर से रक्त स्त्राव का पता लगाने या खून के सर्किट में हवा की उपस्थिति की जानकारी के लिए हीमोडायालिसिस मशीन पर कम्यूटरीकृत स्क्रीन पर विभिन्न मापदण्डों का और विभिन्न अलार्मों का प्रदर्शन होता रहता है।
  6. डायालिसिस की निगरानी के अलावा मशीन के कार्य प्रदर्शन को विभिन्न प्रकार के अलार्म सुविधा, सटिकता और सुरक्षा प्रदान करते हैं।

डायालाइजर (कृत्रिम किडनी) की रचना कैसी होती है?

हीमोडायालिसिस की प्रक्रिया में, डायालाइजर (कृत्रिम किडनी) एक फिल्टर है जहाँ रक्त की शुद्धि होती है। डायालाइजर लगभग 8 इंच लम्बा और 1.5 इंच व्यास का पारदर्शक प्लास्टिक पाइप का बना होता है, जिसमें 10,000 बाल जैसी पतली नलियां होती हैं। यह नलियां पतली परन्तु अंदर से खोखली होती है। यह नलियां खास तरह के प्लास्टिक के पारदर्शक झिल्ली (Semi Permeable Membrane) की बनी होती है। इन्हीं पतली नलियों के अंदर से खून प्रवाहित होकर शुद्ध होता है।

डायालाइजर के उपर तथा नीचे के भागों में यह पतली नलियां इकट्ठी होकर बड़ी नली बन जाती है, जिससे शरीर से खून लानेवाली और लेजानेवाली मोटी नलियां (Blood Tubings) जुड़ जाती हैं।

डायालाइजर के उपरी और नीचे के हिस्सों के किनारों में बगल में मोटी नालियाँ जुडी हुई होती हैं, जिस से मशीन में से शुद्धीकरण के लिए प्रवाहित डायालाइजेट द्रव (Dialysate) अंदर जाकर बाहर निकलता हैं।

डायालाइजर (कृत्रिम किडनी) में खून का शुद्धीकरण

  • शरीर से शुद्धीकरण के लिए आनेवाला खून कृत्रिम किडनी में एक सिरे से अंदर जाकर हजारों पतली नलिकाओं में बंट जाता है। कृत्रिम किडनी में दूसरी तरफ से दबाव के साथ आनेवाला डायालाइजेट द्रव खून के शुद्धीकरण के लिए पतली नलियों के आसपास चारों ओर बंट जाता है।
  • डायालाइजर में खून उपर से नीचे और डायालाइजेट द्रव नीचे से उपर एक साथ विपरीतदिशा में प्रवाहित होते हैं।
  • हर मिनट लगभग 300 मि. लि. खून और 600 मि. लि. डायालिसिस घोल, डायालाइजर में लगातार विपरीत दिशा में बहता रहता है। खोखले फाइबर की पारदर्शक झिल्ली जो रक्त और डायालाइजेट द्रव (dialysate) को अलग करती है, वह अपशिष्ट उत्पादों और अतिरिक्त तरल पदार्थ को रक्त से हटाकर डायालाइजेट कम्पार्टमेन्ट में डालकार उसे बाहर निकलती है।
  • इस क्रिया में अर्धपारगम्य झिल्ली (Semi Permeable Membrane) की बनी पतली नलियों से खून में उपस्थित क्रीएटिनिन, यूरिया जैसे उत्सर्जी पदार्थ डायालाइजेट में मिल कर बाहर निकल जाते हैं। इस तरह कृत्रिम किडनी में एक सिरे आनेवाले अशुद्ध खून दूसरे सिरे से निकलता है, तब वह साफ हुआ, शुद्ध खून होता है।
  • डायालिसिस की प्रक्रिया में, शरीर का पूरा खून लगभग बारह बार शुद्ध होता है।
  • चार घंटे की डायालिसिस क्रिया के बाद खून में क्रीएटिनिन तथा यूरिया की मात्रा में उल्लेखनीय कमी होने से शरीर का खून शुद्ध हो जाता है।

हीमोडायालिसिस में जिस विशेष प्रकार के द्रव से खून का शुद्धीकरण होता है, वह डायालाइजेट क्या है?

  • हीमोडायालिसिस के लिए विशेष प्रकार का अत्यधिक क्षारयुक्त द्रव (हीमोकॉन्सेन्ट्रेट) दस लीटर के प्लास्टिक के जार में मिलता है।
  • डायालाइजेट द्रव की संरचना सामान्य बाह्य तरल पदार्थ से मिलती जुलती है। लेकिन मरीज की जरूरत के आधार पर इसकी संरचना में संशोधन किया जा सकता है।
  • हीमोडायालिसिस मशीन इस हीमोकॉन्सेन्ट्रेट का एक भाग और 34 भाग शुद्ध पानी को मिलाकर डायालाइजेट बनाता है।
  • हीमोडायालिसिस मशीन डायालाइजेट के क्षार तथा बाइकार्बोनेट की मात्रा शरीर के लिए आवश्यक मात्रा के बराबर रखती है।
  • डायालाइजेट (dialysate) एक विशेष तरल घोल है जो की व्यावसायिक रूप में उपलब्ध होता है। इसमें इलेक्ट्रोलाइट्स, खनिज और बाइकार्बोनेट शामिल होते हैं।
  • डायालाइजेट बनाने के लिए उपयोग में लिए जानेवाला पानी क्षाररहित लवणमुक्त एवं शुद्ध होता है, जिसे विशेष तरह आर. ओ प्लान्ट (Reverse Osmosis Plant जल शुद्धीकरण यंत्र) के उपयोग से बनाया जाता है।
  • इस आर. ओ प्लान्ट में पानी रेत की छन्नी, कोयले की छन्नी, माइक्रो फिल्टर डिआयोनाइजर, आर. ओ मेम्ब्रेन और यु. वी. (Ultra Violet) फिल्टर से होते हुए लवणमुक्त, शुद्ध और पूरी तरह से जीवाणुरहित बनता है।
  • मरीजों को पानी में उपस्थित प्रदूषणों के जोखिम से बचाने के लिए पानी का शुद्धिकरण और साथ ही इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देना अती आवश्यक है। प्रत्येक हीमोडायालिसिस सत्र के दौरान करीब 150 लीटर पानी का उपयोग होता है।

हीमोडायालिसिस किस जगह किया जाता है?

  • सामान्य तौर पर हीमोडायालिसिस अस्पताल के विशेषज्ञ स्टॉफ द्वारा नेफ्रोलॉजिस्ट की सलाह के अनुसार और उसकी देखरेख में किया जाता है।

खून का शुद्धीकरण और अतिरिक्त पानी को दूर करने का काम डायालाइजर में होता है।

बहुत ही कम तादाद में मरीज हीमोडायालिसिस मशीन को खरीदकर, प्रशिक्षण प्राप्त करके पारिवारिक सदस्यों की मदद से घर ही हीमोडायालिसिस करते हैं। इस प्रकार के डायालिसिस को होम हीमोडायालिसिस कहते हैं। इसके लिए धनराशि, प्रशिक्षण और समय की जरूरत पड़ती है।

क्या हीमोडायालिसिस पीडादायक और जटिल उपचार है?

नहीं, हीमोडायालिसिस एक सरल और पीड़ारहित क्रिया है। डायालिसिस के शुरू में जब प्लास्टिक की रक्त नलियाँ मरीज के शरीर की नसों में सुई द्वारा प्रविष्ट होती हैं तो मामूली दर्द का अनुभव हो सकता है। जिन मरीजों को लम्बे अरसे तक डायालिसिस की जरूरत होती है, वे सिर्फ हीमोडायालिसिस कराने अस्पताल आते हैं और हीमोडायालिसिस की प्रक्रिया पूरी होते ही वे अपने घर चले जाते हैं। अधिकांश मरीज इस प्रक्रिया के दौरान चार घण्टे का समय सोने, आराम करने, टी. वी. देखने, संगीत सुनने अथवा अपनी मनपसंद पुस्तक पढ़ने में बिताते हैं। बहुत से मरीज इस प्रक्रिया के दौरान हल्का नास्ता, चाय अथवा ठंडा पेय लेना पसंद करते हैं।

सामान्यतः डायालिसिस के दौरान कौन-कौन सी तकलीफें हो सकती हैं?

डायालिसिस के दौरान होनेवाली तकलीफें में खून का दबाव कम होना, पैर में दर्द होना. कमजोरी महसूस होना, उल्टी आना, उबकाई आना, जी मिचलना इत्यादि शामिल हैं। डायालिसिस शुरू करने के पहले शरीर में वाल्यूम की स्थिति को पहले से जांच लें ताकि प्रतिकूल घटनाओं से बचा जा सके। एक से दूसरे डायालिसिस सत्र के बीच में वजन की वृद्धि, सीरम इलेक्ट्रोलाइट्स और हीमोग्लोबिन के सत्र पर निगरानी रखनी चाहिए।

हीमोडायालिसिस के मुख्य फायदे और नुकसान क्या हैं?

हीमोडायालिसिस के मुख्य फायदे :

  1. कम खर्चे में डायालिसिस का उपचार।
  2. अस्पताल में विशेषज्ञ स्टॉफ एवं डॉक्टरों द्वारा की जाने के कारण हीमोडायालिसिस सुरक्षित है।
  3. कम समय में ज्यादा असरकारक उपचार है।
  4. हीमोडायालिसिस सरल, पीड़ारहित और कारगर उपचार है।
  5. संक्रमण की संभावना बहुत ही कम होती है।
  6. रोज कराने की आवश्तकता नहीं पड़ती है।
  7. कुछ मामलों में दर्द कम करने के लिए कुछ उपाय है जैसे सुई लगाने की जगह निश्चेतना का उपयोग करना आदि।
  8. अन्य मरीजों के साथ होनेवाली मुलाकात और चर्चाओं से मानसिक तनाव कम होता है।

हीमोडायालिसिस के मुख्य नुकसान:

  • यह सुविधा हर शहर/गाँव में उपलब्ध नहीं होने के कारण बार-बार बाहर जाने की तकलीफ उठानी पड़ती है।
  • उपचार के लिए अस्पताल जाना और समय मर्यादा का पालन करना पडता है।
  • हर बार फिस्चुला नीडल को लगाना पीड़ादायक होता है।
  • हेपेटाईटिस के संक्रमण की संभावना रहती है।
  • खाने में परहेज रखना पड़ता है।
  • हीमोडायालिसिस यूनिट शुरू करना बहुत खर्चीला होता है और उसे चलाने के लिए विशेषज्ञ स्टॉफ एवं डॉक्टरों की जरूरत पडती है।

हीमोडायालिसिस के मरीजों के लिए जरूरी सूचनाएँ:

  1. नियमित हीमोडायालिसिस कराना लम्बे समय तक स्वस्थ जीवन के लिए जरुरी है। उसमें अनियमित रहना या परिवर्तन करना शरीर के लिए हानिकारक है।
  2. हीमोडायालिसिस के उपचार के साथ-साथ मरीज को नियमित रूप से दवा लेना और खून के दबाव तथा डायबिटीज का नियंत्रण रखना जरुरी होता है।
  3. हीमोडायालिसिस के मरीजों को अपने आहार पर उचित प्रतिबंधों का पालन करना चाहिए। तरल पदार्थ, नमक, पोटैशियम और फॉस्फोरस की मात्रा पर प्रतिबंध रहता है।प्रोटीन की मात्रा, चिकित्सक या किडनी के विशेषज्ञ की सलाह पर तय किया जाना चाहिए। आर्दश रूप से दो डायालिसिस के बीच वजन की बढ़त 2 - 3 किलोग्रम तक ही होनी चाहिए।
  4. कुपोषण, हीमोडायालिसिस के रोगियों में सामान्यतः पाया जाता है जिसका असर चिकित्सा के परिणाम पर पड़ता है। चिकित्सक के आलावा एक आहार विशेषज्ञ की मदद लेनी चाहिए जो पर्याप्त कैलोरी और प्रोटीन की मात्रा को बनाए रखने में सहायक हो।
  5. हीमोडायालिसिस का मुख्य लाभ सुरक्षा, ज्यादा प्रभावकारी तथा कम खर्च है।
  6. हीमोडायालिसिस के रोगियों को पानी में घुलनशील विटामिन बी. और सी. की अतिरिक्त मात्रा लेनी पड़ सकती है। स्वयं मेडिकल स्टोर से मल्टीविटामिन गोलियाँ खाने से बचना चाहिए, हो सकता है उसमें पर्याप्त मात्रा में कुछ आवश्यक विटामिन न हो। उनमें वो विटामिन्स भी हो सकते हैं, जो सी. के. डी. के रोगियों के लिए नुकसानदायक हो जैसे - विटामिन ए इ और के.

कैल्शियम और विटामिन डी., एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं और यह कैल्शियम, फॉस्फोरस और पराथायराइड होर्मोन के खून के सत्र पर निर्भर करता है। जीवन शैली में परिवर्तन अनिवार्य है। सामान्य उपायों में शमिल है, धूम्रपान बंद करना, आदर्श वजन बनाये रखना, नियमित रूप से व्यायाम करना और सीमा में शराब का सेवन न करना।

हीमोडायालिसिस के मरीज को किस समय डॉक्टर से संपर्क करना पड़ता है?

हीमोडायालिसिस के मरीजों को डायालिसिस करने वाले टेक्नीशियन या डॉक्टर से संपर्क तुरंत करना चाहिए अगर -

  • ए. वी. फिस्च्युला या कैथेटर की जगह से खून बहता दिखे।
  • ए. वी. फिस्च्युला में कंपन महसूस न हो।
  • अप्रत्याशित वजन बढ़ना, शरीर में सूजन या सांस लेने में तकलीफ हो।
  • छाती में दर्द, बहुत धीमी या तेज दिल की धड़कन हो।
  • रक्तचाप अनियंत्रित तरीके से उच्च या निम्न स्तर पर आ जाये।
  • भ्रम की स्थिति, उनींदापन, बेहोशी या बेहोशी से शरीर में ऐंठन होने लगे।
  • बुखार, ठंड लगना, बहुत उलटी होना, खून की उलटी या बहुत कमजोरी लगना आदि लक्षण दिखाई पड़े।

पेरीटोनियल डायालिसिस (पेट का डायालिसिस)

किडनी फेल्योर के मरीजों को जब डायालिसिस की जरूरत पडती है, तो हीमोडायालिसिस के सिवाय दूसरा विकल्प पेरीटोनियल डायालिसिस है।

पेरीटोनियल डायालिसिस (P.D.) क्या है?

  1. पेट के अंदर आँतों तथा अंगों को उनके स्थान पर जकड़कर रखनेवाली झिल्ली को पेरीटोनियम कहा जाता है।
  2. यह झिल्ली सेमीपरमीएबल यानी चलनी की तरह होती है।
  3. इस झिल्ली की मदद से होनेवाले खून के शुद्धीकरण की क्रिया को पेरीटोनियल डायालिसिस कहते है।
  4. सी. ए. पी. डी. मरीज द्वारा घर में, बिना मशीन के खास प्रकार के द्रव की मदद से किया जानेवाला डायालिसिस है।

आगे की चर्चा में पेरीटोनियल डायालिसिस को हम संक्षिप्त नाम पी. डी से जानेंगे। यह व्यापक रूप से प्रभावी और स्वीकृत उपचार है। घर पर डायालिसिस करने का यह सबसे आम तरीका है।

पेरीटोनियल डायालिसिस (P.D.) के कितने प्रकार हैं?

पेरीटोनियल डायालिसिस के मुख्यतः तीन प्रकार हैं :

आई. पी. डी. - इन्टरमीटेन्ट पेरीटोनियल डायालिसिस

सी. ए. पी. डी. कन्टीन्युअस एम्ब्युलेटरी पेरीटोनियल डायालिसिस

सी. सी. पी. डी. कन्टीन्युअस साइक्लिक पेरीटोनियल डायालिसिस

1. आई. पी. डी. - इन्टरमीटेन्ट पेरीटोनियल डायालिसिस

  • अस्पताल में भर्ती हुए मरीज को जब कम समय के लिए डायालिसिस की जरूरत पडे तब यह डायालिसिस किया जाता है।
  • आई. पी. डी. में मरीज को बिना बेहोश किए, नाभि के नीचे पेट के भाग को खास दवाई से सुन्न किया जाता है। इस जगह से एक कई छेदवाली मोटी नली को पेट में डाल कर, खास प्रकार के द्रव (Peritoneal Dailysis) की मदद से खून के कचरे को दूर किया जाता है। सी. ए. पी. डी. की प्रक्रिया के दौरान मरीज के पेट में डाला गया डायालाइजेट, रोगी के रक्त से अपशिष्ट उत्पादों और अतिरिक्त तरल पदार्थ को सोख लेता है। कुछ समय बाद डायालाइजेट, तरल पदार्थ और अपशिष्ट पदार्थों को पेट से बाहर निकाल दिया जाता है। इस प्रक्रिया को एक दिन में कई बार दोहराया जाता है।
  • सामान्य तौर पर यह डायालिसिस की प्रक्रिया 36 घंटों तक चलती है और इस दौरान 30 से 40 लिटर प्रवाही का उपयोग शुद्धीकरण के लिये किया जाता है।
  • इस प्रकार का डायालिसिस हर तीन से पांच दिनमें कराना पड़ता है।
  • इस डायालिसिस में मरीज को बिस्तर पर बिना करवट लिये सीधा सोना पड़ता है। इस वजह से यह डायालिसिस लम्बे समय के लिये अनुकूल नहीं है।

2. कन्टीन्युअस एम्ब्युलेटरी पेरीटोनियल डायालिसिस (CAPD) सी. ए. पी. डी. कन्टीन्युअस एम्ब्युलेटरी पेरीटोनियल डायालिसिस क्या है?

सी. ए. पी. डी. का मतलब :

सी. - कन्टीन्युअस, जिसमें डायालिसिस की क्रिया निरंतर चालू रहती है।

ए. - एम्ब्युलेटरी, इस क्रिया के दौरान मरीज घूम फिर सकता है और साधारण काम भी कर सकता है।

पी. डी. - पेरीटोनियल डायालिसिस की यह प्रक्रिया है।

सी. ए. पी. डी. में मरीज अपने आप घर में रहकर स्वयं बिना मशीन के डायालिसिस कर सकता है। दुनिया के विकसित देशों में क्रोनिक किडनी फेल्योर के मरीज ज्यादातर इस प्रकार का डायालिसिस अपनाते हैं।

सी. ए. पी. डी. हर रोज, नियमित ढंग से करना जरूरी है।

सी. ए. पी. डी. की प्रक्रिया :

इस प्रकार के डायालिसिस में अनेक छेदोंवाली नली (CAPD Catheter) को पेट में नाभि के नीचे छोटा चीरा लगाकर रखा जाता है। सी. ए. पी. डी. कैथेटर इस प्रक्रिया के शुरू करने से 10 से 14 दिन पहले पेट के अंदर डाला जाता है। सी. ए. पी. डी. के मरीजों के लिए पी. डी. कैथेटर जीवन रेखा है जैसे - ए. वी. फिस्च्युला हीमोडायालिसिस के मरीजों के लिए है।

यह नली सिलिकॉन जैसे विशेष पदार्थ की बनी होती है। यह नरम और लचीली होती है एवं पेट अथवा आँतों के अंगों को नुकसान पहुँचाए बिना पेट में आराम से स्थित रहती है।

  • इस नली द्वारा दिन में तीन से चार बार दो लिटर डायालिसिस द्रव पेट में डाला जाता है और निश्चित घंटों के बाद उस द्रव को बाहर निकाला जाता है।
  • डायालिसिस के लिए प्लास्टिक की नरम थैली में रखा दो लिटर द्रव पेट में डालने के बाद खाली थैली कमर में पटटे के साथ बांधकर आराम से घूमा फिरा जा सकता है।
  • डवेल टाईम - वह अवधि जिसमें सी. ए. पी. डी. द्रव, पेट के अंदर रहता है उस अवधि को डवेल टाईम कहते हैं। प्रति विनमय के दौरान यह अवधि दिन के समय 4 - 6 घंटे की होती है और रात में 6 - 8 घंटे की होती है। रक्त की सफाई की प्रक्रिया इसी समय होती है। पेरिटोनियम झिल्ली एक फिल्टर की तरह काम करती है। यह अपशिष्ट उत्पादों, अवांछित तत्वों और अतिरिक्त तरल पदार्थों को खून से पारित कर पी. डी. तरल पदार्थ में लेने का कार्य करती है। मरीज इस दौरान सभी कार्य कर सकता है, इसलिए सी. ए. पी. डी. को चलित डायालिसिस भी कहते है।
  • निकासी- जब डवेल टाईम पूरा हो जाता है तब पी. डी. द्रव को उसी खाली संग्रह बैग में निकाल दिया जाता है जिसे लपेटकर मरीज के भीतरी कपड़ों के अंदर दबाया गया था। निकाले गए द्रव के साथ बैग का वजन कर के फेंक दिया जाता है। इस वजन का रेकार्ड रखा जाता है। यह ध्यान दें की निकाला गया द्रव साफ होना चाहिए। ताजे घोल के साथ निकासी और प्रतिस्थापना में 30 - 40 मिनट का समय लगता है। यह विनमय दिन के दौरान 3 - 5 बार और रात में एक बार किया जा सकता है। सी. ए. पी. डी. के लिए मशीन का उपयोग भी किया जा सकता है। स्वचलित मशीन स्वचलित रूप से सी. ए. पी. डी. द्रव को पेट से निकालती और भरती है।

आदान प्रदान के लिए द्रव/तरल पदार्थ पेट में रात भर के लिए छोड़ दिया जाता है और सुबह बहा दिया जाता है। सी. ए. पी. डी. के दौरान विशुद्ध कीटाणुनाशक सावधानियाँ ध्यान में रखनी चाहिए।

सी. ए. पी. डी. के मरीज को ज्यादा प्रोटिनयुक्त आहार लेना जरुरी है।

ए. पी. डी. या सी. सी. पी. डी.

ओटोमेंटेड पेरीटोनियल डायालिसिस या सी. सी. पी. डी. (कन्टीन्युअस साइक्लिक पेरीटोनियल डायालिसिस) एक प्रकार का पेरीटोनियल डायालिसिस है जो घर में किया जाता है। इसमें एक स्वचलित साइक्लर मशीन का उपयोग किया जाता है।

हर चक्र 1-2 घंटे का होता है और हर इलाज में 4-5 बार पी. डी. द्रव का आदान-प्रदान किया जाता है। यह इलाज कुल 8-10 घंटे का होता है और उस दौरान किया जाता है जब मरीज सोता है। सुबह मशीन को निकाल दिया जाता है। 2-3 लीटर पी. डी. द्रव को पेट के अंदर छोड़ किया जाता है जिसे दूसरे इलाज के पहले बाहर निकाला जाता है।

सी. सी. पी. डी./ए. पी. डी. रोगियों के लिए फायदेमंद इलाज है क्योंकि यह रोगियों को दिन के दौरान नियमित गतिविधियों को करने की अनुमति देता है। चूंकि पी. डी. बैग को दिन में सिर्फ एक बार ही कैथेटर से लगाया और निकाला जाता है, इसलिए यह प्रक्रिया काफी हद तक सुविधाजनक है। इस प्रक्रिया में पेरिटोनाइटिस (पेट में मवाद का होना) होने का खतरा कम होता है। हालांकि ए. पी. डी. को महंगा इलाज कहा जा सकता है और कुछ रोगियों के लिए एक जटिल प्रक्रिया हो सकती है।

सी. ए. पी. डी. में पी. डी. द्रव क्या है?

पी. डी. द्रव (dialysate) एक जीवाणु रहित घोल है।जिसमें खनिज और ग्लूकोज (डेक्सट्रोज) होता है।

डायालाइजेट का ग्लूकोज शरीर से तरल पदार्थ को हटाने में सहायता करता है। ग्लूकोज की मात्रा के आधार पर भारत में तीन प्रकार के डायालाइजेट उपब्लध होते हैं (1.5%, 2.5% और 4.5%)। हर मरीज के लिए ग्लूकोज का प्रतिशत अलग होता है। यह निर्भर करता है की मरीज के शरीर से कितनी मात्रा में तरल पदार्थ निकालने की आवश्यकता है। कुछ देशों में अलग तरह का पी. डी. द्रव मिलता है। जिसमें ग्लूकोज के बदले आइकोडेक्सट्रिन होती है। वो घोल जिसमें आइकोडेक्सट्रिन होती है वह शरीर के तरल पदार्थ को और धीमे तरीके से बाहर निकालता है। ऐसे द्रव मधुमेह और अधिक वजन वाले मरीजों के लिए उपयोग में लाया जाता है। सी. ए. पी. डी. के बैग विभिन्न प्रकार की द्रव की मात्राओं में उपलब्ध है (1000-2500ml)।

संक्रमण न हो इसके लिये सावधानी सी. ए. पी. डी. की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण होती है।

सी. ए. पी. डी. के मरीज को आहार में क्या मुख्य परिवर्तन करने की सलाह दी जाती है?

सी. ए. पी. डी. की इस क्रिया में पेट से बाहर निकलते द्रव के साथ शरीर का प्रोटीन भी निकल जाता है। इसलिए नियमित रूप से ज्यादा प्रोटिनवाला आहार लेना स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है।

मरीज कितना नमक, पौटेशियम युक्त पदार्थ एवं पानी ले सकता है उसकी मात्रा डॉक्टर खून का दबाव, शरीर में सूजन की मात्रा और लेबोरेटरी परीक्षण के रिपोर्ट को देखकर बताते हैं।

सी. ए. पी. डी. के मरीज को पर्याप्त पोषण की आवश्यकता होती है। इनकी आहार तालिका हीमोडायालिसिस के मरीजों की आहार तालिका से भिन्न होती है।

  • चिकित्सक या आहार विशेषझ पेरीटोनियल डायालिसिस में निरंतर प्रोटीन की हानि के कारण प्रोटीन कुपोषण से बचने के लिए आहार में प्रोटीन का बढ़ाने की सिफारिश कर सकते हैं।
  • कुपोषण से बचने के लिए अधिक कैलोरी के सेवन के साथ वजन की बढ़ोत्तरी पर अंकुश लगाना चाहिए। पी. डी. घोल में ग्लूकोज होती है जो सी. ए. पी. डी. के मरीजों में लगातार अतिरिक्त कार्बोहाइड्रट बढ़ाती है।
  • हालांकि इसमें भी मरीज में नमक और द्रव प्रतिबंधित किया गया है पर हीमोडायालिसिस के मरीजों की तुलना में पानी और खाने में कम परहेज होता है।
  • आहार में पौटेशियम और फोस्फेट प्रतिबंधित रहता है।

सी. ए. पी. डी. के उपचार के समय मरीजों में होनेवाले मुख्य खतरे क्या हैं?

  • सी. ए. पी. डी. के सभावित मुख्य खतरों में पेरीटोनाइटिस (पेट में मवाद का होना), सी. ए. पी. डी. केथेटर जहाँ से बाहर निकलता है वहाँ संक्रमण (Exit Site Infection) होना, दस्त का होना इत्यादि है।
  • पेट में दर्द होना, बुखार आना और पेट से बाहर निकलनेवाला द्रव यदि गंदा हो, तो यह पेरीटोनाइटिस का संकेत है। पेरिटोनाइटिस (पेट में मवाद का होना) से बचने के लिए, सी. ए. पी. डी. को कड़ी कीटाणुनाशक सावधानियों के तहत किया जाना चाहिए। कब्ज से बचना चाहिए। पेरिटोनाइटिस के इलाज में व्यापक स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक चयन करने के लिए बाहर निकलने वाले पी. डी. द्रव (effluent) का कल्चर कराना चाहिए और कुछ मरीजों में पी. डी. कैथेटर को हटा देना चाहिए।
  • सी. ए. पी. डी. का मुख्य लाभ समय और स्थल की आजादी है।
  • इसके अलावा दूसरी समस्या जैसे पेट फूलना एवं द्रव अधिभार के कारण पेट की मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती है। हर्निया, द्रव अधिभार, अंडकोष में सूजन, कब्ज, पीठ दर्द, वजन में वृद्धि और पेट से तरल पदार्थ का रिसाव जैसी अनेक समस्याएँ सी. ए. पी. डी. में हो सकती है।

सी. ए. पी. डी. के मुख्य फायदे और नुकसान क्या हैं?

सी. ए. पी. डी. के मुख्य फायदे :

डायालिसिस के लिये मरीज को अस्पताल जाने की जरूरत नहीं रहती। मरीज खुद ही यह डायालिसिस घर में कर सकता है। पी. डी. की यह प्रक्रिया मरीज द्वारा कार्यस्थल और यात्रा के दौरान भी की जा सकती है। मरीज स्वयं सी. ए. पी. डी. (CAPD) कर सकता है। इसके लिए उसे हीमोडायालिसिस मशीन, हीमोडायालिसिस करने में सक्षम नर्स या तकनीशियन या परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता नहीं होती है। डायालिसिस के दौरान मरीज दूसरे कार्य भी कर सकता है।

  1. पानी और खाने में कम परहेज करना पड़ता है।
  2. यह क्रिया बिना मशीन के होती है। सुई लगने की पीड़ा से मरीज को मुक्ति मिलती है।
  3. उच्च रक्तचाप, सूजन, खून का फीकापन (रक्ताल्पता) इत्यादि का उपचार सरलता से कराया जा सकता है।

सी. ए. पी. डी. के मुख्य नुकसान:

  1. वर्तमान समय में यह इलाज ज्यादा महँगा है।
  2. इसमें पेरीटोनाइटिस होने का खतरा है।
  3. हर दिन (बगैर चूक किए) तीन से चार बार सावधानी से द्रव बदलना पडता है। जिसकी जिम्मेदारी मरीज के परिवारवालों की होती है। इस प्रकार हर दिन, सही समय पर, सावधानी से सी. ए. पी. डी. करना एक मानसिक तनाव उत्पन्न करता है।
  4. पी. डी. घोल शर्करा (ग्लूकोज) के अवशोषण के कारण वजन में वृद्धि और रक्त में शक्कर की मात्रा बढ़ सकती है।
  5. पेट में हमेंशा के लिये केथेटर और द्रव रहना साधारण समस्या है।
  6. सी. ए. पी. डी. के लिये द्रव की वजनदार थैली को संभालना और उसके साथ परिचालन अनुकूल नहीं होता है।

सी. ए. पी. डी. के मरीज को कब डायालिसिस नर्स/चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए?

निम्नलिखित किसी भी लक्षण के दिखने पर सी. ए. पी. डी. के मरीज को डायालिसिस नर्स या डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए।

  1. पेट में दर्द, बुखार या ठंड लगना।
  2. सी. ए. पी. डी. कैथेटर जहाँ से बाहर निकलता है वहां दर्द, मवाद, लाली और सूजन होना।
  3. पी. डी. के तरल पदार्थ या जल निकासी में कठिनाई पैदा होने पर।
  4. कब्ज होने पर।
  5. दर्द, शरीर में ऐंठन और चक्र आने पर।
  6. वजन में अप्रत्याशित वृद्धि, अत्यधिक सूजन, हाँफना और उच्च रक्त्चाप के होने पर। इसका कारण तरल पदार्थ का अत्यधिक होना हो सकता है।

स्त्रोत: किडनी एजुकेशन

 

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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