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शिक्षा का प्रत्यय

शिक्षा की आवश्यकता

नवजात शिशु असहाय तथा असामाजिक होता है। वह न बोलना जनता है न चलना-फिरना। उसका न कोई मित्र होता है और न शत्रु। यही नहीं, उसे समाज के रीती-रिवाजों तथा परम्पराओं का ज्ञान भी नहीं होता है और न ही उसमें किसी आदर्श तथा मूल्य को प्राप्त करने की जिज्ञासा पाई जाती है। परन्तु जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे उस पैर शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों का प्रभाव पड़ता जाता है। इस प्रभाव के कारण उसका जहाँ एक ओर शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक विकास होता जाता है वहाँ दूसरी ओर उसमें सामाजिक भावना भी विकसित होती जाती है। परिणामस्वरुप वह शैने-शैने: प्रौढ़ व्यक्तिओं के उतर्दयित्वों को सफलतापूर्वक निभाने के करने के योग्य बन जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक के व्यव्हार में वांछनीय परिवर्तन करने के लिए व्यवस्थित शिक्षा की परम आवश्यकता है। सच तो यह है कि शिक्षा से इतने लाभ हैं कि उनका वर्णन करना कठिन है। इस संदर्भ में यहाँ केवल इतना कह देना ही पर्याप्त होगा की शिक्षा माता के सामान पालन-पोषण करती है, पिता के समान उचित मार्ग-दर्शन द्वारा अपने कार्यों में लगाती है तथा पत्नी की भांति सांसारिक चिन्ताओं को दूर करके प्रसन्नता प्रदान करती है। शिक्षा के ही द्वारा हमारी कीर्ति का प्रकाश चारों ओर फैलता है तथा शिक्षा ही हमारी समस्याओं को सुलझाती है एवं हमारे जीवन को सुसंस्कृत करती है। हम देश में रहें अथवा विदेश में शिक्षा हमारे लिए क्या-क्या नहीं करती। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश पाकर कमल का फूल खिल उठता है तथा सूर्य अस्त होने पर कुम्हला जाता है, ठीक उसी प्रकार शिक्षा के प्रकाश को पाकर प्रत्येक व्यक्ति कमल के फूल की भांति खिल उठता है तथा अशिक्षित रहने पर दरिद्रता, शोक एवं कष्ट के अंधकार में डूबा रहता है। संक्षेप में, शिक्षा वह प्रकाश है जिसके द्वारा बालक की समस्त शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा अध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। इससे वह समाज का एक उतरदायी घटक एवं राष्ट्र का प्रखर चरित्र-संपन्न नागरिक बनकर समाज की सर्वांगीण उन्नति में अपनी शक्ति का उतरोतर प्रयोग करने की भावना से ओत-प्रोत होकर संस्कृति तथा सभ्यता को पुनर्जीवित एवं पुर्नस्थापित करने के लिए प्रेरित हो जाता है। जिस प्रकार एक ओर शिक्षा बालक का सर्वांगीण विकास करके उसे तेजस्वी, बुद्धिमान, चरित्रवान, विद्वान्, तथा वीर बनती है, उसी प्रकार दूसरी ओर शिक्षा समाज की उन्नति के लिए भी एक आवश्यक तथा शक्तिशाली साधन है। दुसरे शब्दों में, व्यक्ति की भांति समाज भी शिक्षा के चमत्कार से लाभान्वित होता है। शिक्षा के द्वारा समाज भावी पीढ़ी के बालकों को उच्च आदर्शों, आशाओं, आकांक्षाओं, विश्वासों तथा परमपराओं आदि सांस्कृतिक सम्पत्ति को इस प्रकार से हस्तांतरित करता है कि उनके ह्रदय में देश-प्रेम तथा त्याग की भावना प्रज्वलित हो जाती है। जब ऐसी भावनाओं तथा आदर्शों से भरे हुए बालक तैयार होकर समाज अथवा देश की सेवा का व्रत धारण करके मैदान में निकलेंगे तथा अपने शिखर पर चढ़ता ही रहेगा। इस प्रकार व्यक्ति तथा समाज दोनों ही के विकास में शिक्षा परम आवश्यक है।

शिक्षा का अर्थ

शिक्षा शब्द का प्रयोग अनके अर्थों में किया जाता है। निम्नलिखित पंक्तियों में हम शिक्षा के विभिन्न अर्थों पर प्रकाश डाल रहे हैं –

शिक्षा का शाब्दिक अर्थ

शिक्षा को आंग्ल भाषा में “एजुकेशन’ कहते हैं। शिक्षा शास्त्रियों का मत है कि ‘एजुकेशन’ शब्द इ व्युत्पति लैटिन भाषा के निम्नलिखित शब्दों से हुई है –

शब्द

अर्थ

  1. एडुकेटम
  2. एडूसीयर
  3. एडूकेयर

शिक्षित करना

विकसित करना अथवा निकालना

आगे बढ़ाना, बाहर निकलना अथवा विकसित करना

लैटिन भाषा के ‘एडूकेटम’ शब्द का अर्थ है शिक्षित करना ‘ए’ का अर्थ है अन्दर से तथा ‘डूको’ का अर्थ है आगे बढ़ना अथवा विकास अर्थात अन्दर से विकास अब प्रश्न यह उठता है कि अन्दर से विकास का अर्थ क्या है ? इस प्रश्न का सरल उत्तर यह है कि प्रत्येक बालक के अन्दर जन्म से ही कुछ जन्मजात प्रवृतियां होती है जैसे-जैसे बालक वातावरण के संपर्क में आता जाता है, वैसे-वैसे उसकी जन्मजात शक्तियों को अन्दर से बाहर की और विकसित करना, अन्दर को ठूंसना नहीं एडुकेटम का अतिरिक्त उक्त दोनों शब्दों - एडूसीयर तथा एडूकेयर का अर्थ भी यही है एडूसीयर का अर्थ है – निकालना तथा एडूकेयर का अर्थ है- आगे बढ़ना, बाहर निकालना अथवा विकसित करना इस प्रकार शिक्षा शब्द का अर्थ है जन्मजात शक्तियों का सर्वांगीण विकास है

शिक्षा की सामग्री

शिक्षा सामग्री के अंतर्गत निम्नलिखित चार घटक आते हैं –

  1. बालक - शिक्षा की सर्वोतम तथा सबसे महत्वपूर्ण सामग्री बालक है। प्रत्येक बालक की कुछ जन्मजात शक्तियाँ होती है। उसका शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास एन जन्मजात शक्तियों को ही ध्यान में रखते हुए किया जा सकता है। अत: बालक की पूर्णरूप से विकसित करने के लिए उसकी प्रकृति का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
  2. वंशानुक्रम- शिक्षा की दूसरी सामग्री वंशानुक्रम है। वंशानुक्रमवादियों का अटल विश्वास है कि शिक्षा प्रारंभ होने से पूर्व ही वंशानुक्रम संस्कार बालक के उपर अपना प्रभाव डाल चुकते हैं इस प्रभाव को मिटना असम्भव है। अत: उसके अनुसार बालक की शिक्षा में केवल वंशानुक्रम है ही प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रम वादियों की धारणा है कि बीजकोष में संक्रमित शारीररिक तथा मानसिक गुण वंशानुक्रम की देन हैं। ये सारे गुण बालक की शिक्षा के आधार हैं। इन गुणों में किसी प्रकार का कोई भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। ऐसी दशा में बालक की शिक्षा केवल उतनी ही हो सकती है जितनी उसकी जनजात शक्तियां या पैतृक संस्कार ,इससे अधिक नहीं। जिस बालक को वंशानुक्रम द्वारा संगीत अथवा कला के गुण संक्रमित न हुए हो उसे महान संगीतज्ञ अथवा कलाकार किसी दशा में नहीं बनाया जा सकता है। इस प्रकार वंशानुक्रम वादियों के अनुसार शिक्षा एक वंशानुक्रम संबंधी प्रक्रिया है, जिसके अनुसार बालक की शिक्षा उसके वंशानुक्रम द्वारा पूर्व निश्चित हो जाती है
  3. वातावरण -शिक्षा की तीसरी सामग्री वातावरण है। प्रत्येक बालक का जन्म एक निश्चित वातावरण में होता है वातावरण दो प्रकार के होते हैं – (1) नियंत्रित तथा (2) अनियंत्रित। बालक के विकास में वातावरण के दोनों प्रकारों का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है। नियंत्रित में नियंत्रित तथा अनियंत्रित में अनियंत्रित। वातावरण वादियों के अनुसार वंशानुक्रम केवल भ्रम है। उनका दावा है कि बालक का वंशानुक्रम कितना ही उच्च क्यों न हो यदि उसे अपनी शक्तियों को विकसित करने के लिए उचित वातावरण नहीं मिलेगा तो वह किसी भी दशा में उच्च कोटि का व्यक्ति नहीं बन सकता। उसके अनुसार वातावरण एक महान शक्ति है। इस शक्ति का बालक के विकास चेतन अथवा अचेतन रूप से निरन्तर प्रभाव पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप बालक कुछ का कुछ बन जाता है। वातावरणवादियों का विश्वास है कि नवराज शिशु जैसे-जैसे भौतिक एवं सामाजिक वातावरण के संपर्क में आता है, वैसे-वैसे उसकी जन्मजात शक्तियां विकसित होती रहती है तथा उसके व्यव्हार में परिवर्तन होता रहता है। इस द्रष्टि से कोई भी बालक संगीतज्ञ बनता है की वह एक महान संगीतज्ञ का बेटा है तथा उसने संगीत के गुण को वंशानुक्रम द्वारा अर्जित किया है अपितु वह संगीतज्ञ इसलिए बनता है कि उसने शैवकाल से ही अपने माता पिता अथवा संगीतज्ञों के संपर्क में रहकर संगीत के विषय में शिक्षा प्राप्त की है। अत: वातावरणवादियों  के अनुसार शिक्षा एक वातावरण संबंधी प्रक्रिया है
  4. समय - बाल विकास में विशिष्ट क्रियाओं का समय निश्चित होता है। अत: बालक के विकास को अच्छी तरह से समझने के लिए विकास की शैशव, बाल्य, किशोर तथा प्रौढ़ अवस्थाओं की विशेषताओं का ज्ञान होना परम आवश्यक है। यदि बालक को उसके विकास की अवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए निश्चित समय पर शिक्षा प्रदान की जाएगी तो वह उसे सरलता एवं सफलतापूर्वक प्राप्त करता रहेगा, अन्यथा नहीं। दुसरे शब्दों में समय से पूर्व शिक्षा प्रदान करना उसके विकास को कुण्ठित करता है। अत: व्यवस्थित शिक्षा प्रदान करते समय यह देखना आवश्यक है कि बालक का मानसिक विकास इंतना हुआ है अथवा नहीं जितना उस स्तर अथवा के बालक का होना चाहिये
  5. उपर्युक्त पंक्तियों में शिक्षा की सामग्री पर प्रकाश डालने से स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ एक ओर वंशानुक्रमवादियों के अनुसार बालक की शिक्षा वंशानुक्रम के ही अनुसार होती है तो दूसरी ओर वंशानुक्रमवादियों के अनुसार बालक की शिक्षा पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि बालक का व्यक्तित्व वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों का गुणनफल होता है। दुसरे, शब्दों में, उसकी शिक्षा पर वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है। फिर भी, यदि हम वंशानुक्रमवादियों की ही बात को स्वीकार कर लें कि बालक के वंशानुक्रम में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है तो इस बात में दो मत नहीं हो सकते कि उसके वातावरण को नियंत्रित अथवा अनियंत्रित अवश्य किया जा सकता है। निम्नलिखित  पंक्तिओं में हम इसे तथ्य को दृष्टि में रखते हुए शिक्षा के विभिन्न अर्थों पर प्रकाश डाल रहें हैं –

शिक्षा का संकुचित अर्थ

संकुचित रूप से स्कूली शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं इस रूप में व्यस्क वर्ग एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार बालक के सामने एक विशेष प्रकार के नियंत्रित वातावरण को प्रस्त्तुत करके एक निश्चित ज्ञान को एक निश्चित विधि द्वारा निश्चित काल में समाप्त कनरे का प्रयास करता है जिससे उसका मानसिक विकास हो जाये शिक्षा के इस अर्थ में शिक्षक का स्थान मुख्य होता है तथा बालक का गौण शिक्षक से यह आशा की जाती है कि वह बालक को मानसिक दृष्टि से विकसित करने के लिए अधिक से अधिक ज्ञान दे ऐसे ज्ञान को प्राप्त करके बालक तोता तो आवश्य बन जाता है, परन्तु उसका सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता परिणामस्वरूप वह अपने भावी जीवन में चारों ओर भटकता ही फिरता है संक्षेप में, संकुचित अर्थ के अनुसार शिक्षा बालक की स्वतंत्रता का गला घोंट कर उसके स्वाभाविक विकास को एक चुनौती है ध्यान देने की बात है कि जहाँ इस रूप में स्कूली शिक्षा के कुछ दोष हैं वहाँ अपना निजी महत्त्व भी है मिल के शब्दों में – शिक्षा द्वारा एक पीढ़ी के लोग दूसरी पीढ़ी के लोगों में संस्कृति का संक्रमण करते हैं ताकि वे उसका संरक्षण कर सकें और यदि सम्भव हो तो उसमें उन्नति भी कर सकें

शिक्षा के संकुचित अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम निम्नलिखित पंक्तियों में सब कुछ अन्य विद्वानों के विचारों पर प्रकाश डाल रहे हैं –

(1) एस०एस०मैकेन्जी- “संकुचित अर्थ में शिक्षा का अर्थ हमारी शक्तियों के विकास तथा सुधार के लिए चेतनापूर्वक किये गये

(2) प्रोफेसर ड्रिवर- “ शिक्षा एक प्रक्रिया है, जिसमें तथा जिसके द्वारा बालक के ज्ञान, चरित्र, तथा व्यवहार को एक विशेष सांचे में ढाला जाता है “

(3) जी०एच०थामसन- शिक्षा एक विशेष प्रकार का वातावरण है जिसका प्रभाव बालक के चिंतन, दृष्टिकोण तथा व्यवहार करने की आदतों पर स्थायी रूप से परिवर्तन के लये डाला जाता है।

शिक्षा का व्यापक अर्थ

व्यापक दृष्टि में शिक्षा का अर्थ बालक के उन सभी अनुभवों से है जिनका प्रभाव इसके उपर जन्म से लेकर मृत्यु तक पड़ता है अर्थात शिक्षा वह अनियंत्रित वातावरण है जिसमें रहते हुए बालक अपनी प्राकृति के अनुसार स्वतंत्रतापूर्वक नाना प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है तथा विकसित होता है किसी विशेष व्यक्ति, समय, स्थान अथवा देश तक ही सिमित नहीं रहती अपितु जिन व्यक्तियों के संपर्क में आकार बालक जो कुछ भी सीखता है, वे सब उसके लिए शिक्षक हैं, जिन्हें वह सिखाता है वे सब उसके शिष्य हैं तथा जिस स्थान सीखने अथवा सिखाने का कार्य चलता है, वह स्कुल है इस प्रकार बालक का समस्त जीवन स्कूल भी है तथा शिक्षा का काल भी संक्षेप में, शिक्षा बालक के प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया है रूसो ने भी शिक्षा के इसी अर्थ को दृष्टि में रखते हुए प्रकृतिवाद नारा लगया था

शिक्षा के व्यापक अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम कुछ अन्य विद्वानों के विचारों पर निम्नलिखित पंक्तियों में प्रकाश डाल रहे हैं –

(1) एस०इस०मैकेन्जी – “ व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जीवन-पर्यन्त चलती है तथा जीवन के प्रत्येक अनुभव से उसमें वृधि होती है “

(2) एम०के०गाँधी- “शिक्षा का अर्थ , मै बालक अथवा मनुष्य में आत्मा, शारीर और बुद्धि के सर्वांगीण और सबसे अच्छे विकास से समझता हूँ।

(3) डम्बिल- “शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे सभी प्रभाव आ जाते हैं, जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं। “

शिक्षा के विश्लेषणात्मक अर्थ

उपर्युक्त पंक्तियों में हमने शिक्षा के शाब्दिक, संकुचित तथा व्यापक अर्थों पर प्रकाश डाला है अब हम शिक्षा के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए इस अर्थ संबंधी विभिन्न तत्वों पर निम्नलिखित पंक्तियों में प्रकाश डाल रहे हैं –

  1. I. शिक्षा का अर्थ – केवल स्कूल में दिये जाने वाले ज्ञान तक ही सिमित नहीं -हमने शिक्षा के संकुचित अर्थ को स्पष्ट करते हुए इस बात पर प्रकाश डाला की शिक्षा को केवल स्कूल की सीमा तक नहीं बंधा जा सकता। इसका कार्यक्रम तो जन्म से लेकर मृत्यु तक चलता रहता है। दुसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन की लम्बी यात्रा मनी किसी न किसी से सदैव कुछ न कुछ सिखाता ही रहता है।
  2. II.शिक्षा का अर्थ – बालक की जन्मजात शक्तियों के विकास के रूप में - शिक्षा का शाब्दिक अर्थ स्पष्ट करते हुए इस बात को बता चुके हैं कि शिक्षा का अर्थ बालक की जन्मजात शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना है , ज्ञान को बलपूर्वक ठूसना नहीं। एडिसन का मत है – शिक्षा के द्वारा मानव के अन्तर में निहित उन सभी शक्तियों तथा गुणों का दिम्द्दर्शन होता है, जिनकी शिक्षा की सहायता के बिना अन्दर से बाहर निकालना नितन्त असम्भव है।
  3. III. शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में– शिक्षा जड़ नहीं अपितु एक गतिशील प्रक्रिया है जो बालक को सदैव देश काल तथा परिस्थिति के अनुसार प्रगति की ओर अग्रसर करती रहती है। कुछ विद्वानों ने शिक्षा को एक सविचार तथा सौउदेश्य प्रक्रियाकी संज्ञा भी दी है। इसका एक मात्र कारण यह है कि शिक्षा का कोई न कोई उद्देश्य आवश्य होता है जिसको प्राप्त करने के लिए व्यक्ति सोच-विचार कर क्रियाशील होता है।
  4. IV. शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया के रूप में प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री एडम्स ने अपनी पुस्तक “Evolution of Education Theory” में शिक्षा को एक द्विमुखी प्रक्रिया मानते हुए इसका निम्न ढंग से विश्लेषण किया है –

(क) शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्तित्व दुसरे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन हो जाये।

(ख)यह प्रक्रिया केवल सचेतन ही नहीं है अपितु सौउदेश्य अथवा विचारपूर्ण भी है। इसमे शिक्षक का एक स्पष्ट प्रयोजन होता है और वह उसी के अनुसार बालक के व्यवहार में परिवर्तन करता है।

(ग)  वे साधन जिनके द्वारा बालक के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है  दो हैं –(अ) शिक्षक के व्यक्तित्व का बालक के व्यक्तित्व पर प्रभाव, तथा (ब) ज्ञान के विभिन्न अंगों का प्रयोग।

एडम्स द्वारा शिक्षा की प्रक्रिया के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा रूपी द्विमुखी प्रक्रिया की दो घुरियां हैं। एक धुरी शिक्षक है तथा दूसरी धुरी बालक। शिक्षा में शिक्षक तथा बालक सीखता है। यदि शिक्षक निर्देशन देता है तो बालक उसको ग्रहण करता है तथा यदि शिक्षक मार्ग दर्शन करता है तो बालक उसका अनुगमन करता है। इसी प्रकार शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक तथा बालक दोनों के बीच परस्पर आदान-प्रदान होता है। शिक्षक अपने व्यक्तित्व तथा ज्ञान के विभिन्न अंगों के प्रभाव से बालक के व्यवहार में परिवर्तन तथा सुधार करता है जिससे बालक सम्यक विकास की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार शिक्षक विकास की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार शिक्षक तथा बालक दोनों के सक्रिय सहयोग से शिक्षा की प्रक्रिया चलती रहती है।

(v) शिक्षा-त्रिमुखी प्रक्रिया के रूप में  – प्रसिध्द शिक्षा शास्त्री जॉन डीवी ने भी एडम्स की भांति शिक्षा को एक प्रक्रिया माना है। परन्तु दोनों शिक्षाशास्त्रियों के विचारों में अंतर केवल इतना ही है कि जहाँ एक ओर एडम्स ने शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक तथा बालक को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए केवल मनोवैज्ञानिक पक्ष को स्वीकार करते हुए सामाजिक पक्ष पर अधिक बल दिया है वहाँ दूसरी ओर जॉन डीवी ने शिक्षा के मनोवैज्ञानिक पक्ष को स्वीकार करते हुए इसके सामाजिक पक्ष पर अधिक बल दिया है संक्षेप में, जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया के दो पक्ष है – (1) मनोवैज्ञानिक तथा (2) सामाजिक। डीवी ने बताया है की यधपि यह बात निर्विवाद सत्य है कि बालक को शिक्षित करने के लिए उसकी जन्मजात शक्तियों का ज्ञान होना परम आवश्यक है, पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए की समाज से अलग रहकर बालक की शिक्षा हो ही नहीं सकती, दुसरे शब्दों में, सामाज के सहयोग बिना बालक के मनोवैज्ञानिक पक्ष का विकास उचित दिशा में नहीं हो सकता। अत: शिक्षा बालक के सामाजिक विकास की प्रक्रिया है। हमको चाहिए कि हम बालक को उस समाज के लिए शिक्षित करें जिसका आगे चल कर उसको सदस्य बनना है इस दृष्टि से बालक की शिक्षा समाज के ही माध्यम से होनी चाहिये। समाज ही यह निश्चित करेगा कि बालक को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार कौन-कौन से विषय, किस-किस शिक्षण-पद्धति के द्वारा पढाये जायें जिससे उसमें कार्य कुशलता तथा समाज-स्वीकृति आचरण विकसित होते रहें और वह अपने जीवन को आनंदपूर्वक व्यतीत कर सके। इस दृष्टि से शिक्षा की प्रक्रिया पाठ्यक्रम का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यदि पाठ्यक्रम नहीं होगा तो शिक्षक क्या पढ़ायेगा और बालक क्या पढ़ेगा ? पाठ्यक्रम ऐसी धुरी है जो शिक्षक तथा बालक रुपी दोनों धुरियों को मिलाती है। ऐसी स्थिति में यदि शिक्षा की प्रक्रिया में पाठ्यक्रम को सम्मिलित कर लिया जाये, तो हम शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया न कहकर त्रिमुखी प्रक्रिया मानेंगे जिसके तीन अंग हैं –(1) शिक्षक, (2) बालक तथा (3) पाठ्यक्रम। इन्ही तीन अंगों की पारस्परिक क्रिया में ही शिक्षा निहित है।

शिक्षा का वास्तविक अर्थ

उपर्युक्त शीर्षकों में हमने शिक्षा के शाब्दिक, संकुचित, व्यापक तथा विश्लेषणात्मक अर्थों पर प्रकाश डाला है इनमें से किसी भी अर्थ को शिक्षा का वास्तविक अर्थ नहीं कहा जा सकता जहाँ तक शाब्दिक अर्थ का सम्बन्ध है सो यह आवश्यक नहीं है कि शाब्दिक अर्थ वास्तविक अर्थ भी हो अब बचते है शिक्षा के संकुचित, व्यापक तथा विश्लेषणात्मक अर्थ संकुचित अर्थ में शिक्षा परिवर्तन विरोधी तथा सिमित है इस अर्थ के अनुसार बालक को ऐसे नियंत्रित वातावरण में रखते हुए एक विशेष प्रकार के जीवन को व्यतीत करने वाली बलपूर्वक ठुंसी हुई स्कूली शिक्षा को ही शिक्षा समझा जाता है इससे बालकों को रुचियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं की अवहेलना हो जाती है ऐसे ही व्यापक अर्थ में शिक्षा आवश्यकता से अधिक उदार बन जाती हैइस अर्थ के अनुसार बालक को अनियंत्रित वातावरण में रखते हुए उसके स्वाभाविक विकास पर बल दिया जाता है यदि शिक्षा के व्यापक अर्थ को स्वीकार कर लिया जाये तो बालक का सामाजिक तथा आध्यातिमिक विकास होना असम्भव नहीं तो कठिन आवश्य हो जायेगा इस दृष्टि से शिक्षा के संकुचित तथा व्यापक दोनों ही अर्थों में कमियाँ हैं वस्तु स्थिति यह है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा जीवन द्वारा जीवन का सच्चा आनन्द लिया जा सकता है अत: यदि बालक को एक सुखी, सम्पन्न, तथा प्रसन्न जीवन का आनन्द लेने योग्य बनाता है तो शिक्षा के संकुचित तथा व्यापक दोनों ही अर्थों का समन्वय करना होगा दोनों अर्थों के प्रगतिशील समन्वय स्थापित हो जाने से शिक्षा ऐसी परक्रिया के रूप में उपस्थित हो जाती है जो चेतन अथवा अचेतन रूप बालक की व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं तथा सामाजिक आदर्शों को ध्यान में रखते हुए आवश्यकतानुसार स्वतंत्रता प्रदान करके उसका बौधिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक विश्वास करती है एवं उसके व्यवहार में इस प्रकार से परिवर्तन करती है कि व्यक्ति तथा समाज दोनों ही उन्नति के शिखर पर चढ़ते रहें

शिक्षा की परिभाषा

शिक्षा के वास्तविक अर्थ पर प्रकाश डालने के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा विकास की प्रक्रिया है फिर भी हम इसके अर्थ को और आर्थिक स्पष्ट करने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्तुत की हुई निम्नलिखित परिभाषाओं पर प्रकास डाल रहें हैं –

(अ)  शिक्षा जन्मजात शक्तियों को व्यक्त करने की प्रक्रिया के रूप में

निम्नलिखित परिभाषाओं की रचना उन विद्वानों ने कि है जिन्होंने शिक्षा को जन्मजात शक्तियों के व्यक्त करने की प्रक्रिया माना है-

(1) सुकरात- “शिक्षा का अर्थ है-प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में अद्रश्य रूप से विधमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाश में लाना।“

(2) फ्रोबिल- शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियां बाहर प्रकट होती है।”

(3) विवेकानन्द- “शिक्षा मनुष्य के अन्दर सन्निहित पूर्णता का प्रदर्शन है।“

(ब) शिक्षा वैयक्तिकता के विकास की प्रक्रिया के रूप में निम्नलिखित परिभषाओं की रचना उन विद्वानों ने की जिन्होनें बालक मनोवैज्ञानिक तत्वों को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए शिक्षा को विकास स्वयं विकास प्रगति विकास तथा पूर्ण विकास की प्रक्रिया माना है –

(1.) टैगोरे- “शिक्षा का अर्थ मष्तिष्क को इस योग्य बनाना है कि वह सत्य की खोज कर सके........तथा अपना बनाते हुए उसको व्यक्त कर सके।”

(2.) पेस्टालॉजी- “शिक्षा मुनष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, समरूप तथा प्रगतिशील विकास है।“

(3) टी०पी०नन- “ शिक्षा बालक की वैयक्तिकता का पूर्ण विकास है जिससे वह अपनी पूर्ण योग्यता के अनुसार मानव जीवन को मौलिक योगदान दे सके।”

(4.) काण्ट- “शिक्षा व्यक्ति की उस पूर्णता का विकास है जिसकी उसमें क्षमता है।”

(स) शिक्षा समूह में परिवर्तन करने की प्रक्रिया के रूप में निम्नलिखित परिभाषाओं की रचना उन विद्वानों ने की है, जिन्होंने शिक्षा को व्यतिगत हित अथवा समाज हित को प्राप्त करने की प्रक्रिया माना है।

(1) ब्राउन- शिक्षा चैतन्य रूप में एक नियंत्रित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किये जाते हैं तथा व्यक्ति के द्वारा समाज में।

(2) रिआर्गेनिजेशन ऑफ सेकेण्डरी स्कूल रिपोर्ट – “ शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान, रुचिओं, आदर्शों, आदतों तथा शक्तियों का विकास करना है, जिसके द्वारा उसे अपना उचित स्थान प्राप्त हो सके तथा वह इस स्थान का सदुपयोग कर स्वयं तथा समाज को उच्च एवं पवित्र उदेश्यों की ओर ले जाये।”

(द) शिक्षा वातावरण से अनुकूल करने की प्रक्रिया के रूप में ((स) शिक्षा समूह में परिवर्तन करने की प्रक्रिया के रूप में निम्नलिखित परिभाषाओं की रचना उन विद्वानों ने की है, जिनके अनुसार शिक्षा वातावरण से अनुकूल करने की प्रक्रिया है –

(1) बासिंग “ शिक्षा का कार्य व्यक्ति को वातावरण के साथ उस सीमा तक अनुकूल करना है, जिससे व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए स्थयी सन्तोष प्राप्त हो सके।

(2) वटलर- शिक्षा प्रजाति की अध्यात्मिक सम्पति के साथ व्यक्ति का क्रमिक सामंजस्य है।

(3) जेम्स- शिक्षा कार्य सम्बन्धी अर्जित आदतों का संगठन है, जो व्यक्ति को उसके भौतिक और सामाजिक वातावरण में उचित स्थान देती है।

उपर्युक्त परिभषाओं की आलोचना

उपर्युक्त परिभाषाओं से सपष्ट हो जाता है कि प्लेटो के युग से लेकर जॉन डीवी तथा महात्मा गाँधी के युग तक विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा की ऐसी परिभाषायें प्रस्तुत की है, परन्तु क्योंकि शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है, इसलिए शिक्षा की ऐसी परिभाषा देना जिस पर सभी शिक्षाशास्त्री सहमत हो जायें कठिन सा लगता है उपर्युक्त परिभाषाओं में कुछ परिभाषायें तो ऐसी है जो शिक्षा के रूप को ही व्यक्त करती है तथा कुछ ऐसी है जो शिक्षा, के दुसरे रूप का वर्णन करती है इसका मुख्य कारण यह है कि संसार के प्रत्येक शिक्षाविद् का जीवन के लक्ष्यों के प्रति अपना-अपना अलग-अलग दृष्टिकोण होता है आदर्शवादी दार्शनिक के अनुसार जीवन का लक्ष्य आध्यातिमिक विकास है अत: उनके अनुसार शिक्षा एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसको आत्मा और परमात्मा के मिलन अथवा मोक्ष प्राप्ति का साधना माना जाता है यथार्थवादी तथा प्रकृतिवादी दार्शनिक शिक्षा को एक भौतिक प्रक्रिया मानते हैं अत: उनके अनुसार शिक्षा भौतिक विकास का साधन है ऐसे ही प्रयोजनवादियों के अनुसार शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है अत: उनके अनुसार शिक्षा मानव के सामाजिक विकास का साधन है जीवन दर्शन सम्बन्धी इस विभिन्नता के कारण शिक्षा की परिभाषा में विभिनाता का आ जाना स्वाभाविक ही है विद्वानों का मत है कि शिक्षा को न तो केवल अध्यात्मिक प्रक्रिया ही माना जा सकता है और न उसे केवल वैक्तिकता के विकास की ही प्रक्रिया स्वीकार किया जा सकता है ऐसे ही शिक्षा का कार्य केवल समूह में परिवर्तन करना अथवा बालक को किसी अमुक वातावरण के साथ अनुकूल करना ही नहीं है शिक्षा का कार्य तो इससे कहीं अधिक और व्यापक है इस दृष्टि से शिक्षा की उपर्युत्क सभी परिभाषायें एकांगी तथा अधूरी है शिक्षा के अंतर्गत व्यक्ति समाज, वातावरण, तथा सामाजिक सम्पति आदि सभी का महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिये अत: शिक्षा की परिभाषा के अंतर्गत इन सभी को उचित स्थान मिलना चाहिये

सच्ची शिक्षा की परिभाषा

शिक्षा के विभिन्न अर्थों, अधरों तथा परिभाषा पर प्रकाश डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा एक सापेक्ष, चेतन अथवा अचेतन, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, एवं दार्शनिक वातावरण सम्बन्धी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व सम्बन्धी सभी अंगों का विकास इस प्रकार से होना चाहिये कि वह परिवर्तन विरोधी तथा रचनात्मक साधनों के द्वारा सच्चा सुख और आनन्द प्राप्त कर सके संक्षेप में, शिक्षा वातावरण सम्बन्धी सविचार प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव का विकास तथा समाज का कल्याण होना चाहिये Remont ने भी शिक्षा को विकास की सचेतन तथा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया माना है जिसके द्वारा मनुष्य अध्यात्मिक, भौतिक तथा सामाजिक आदि सभी प्रकार के विभिन्न वातावरणों से समायोजन प्राप्त करना सीख जाये अत: शिक्षा को परिभाषित करते हुए remont ने ठीक ही लिखा है – शिक्षा उस विकास का नाम हिया जो शैशव अवस्था से प्रौढ़ अवस्था तक होता ही रहता है अर्थात शिक्षा वह क्रम है, जिससे  मानव अपने को आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है

शिक्षा तथा निर्देशन का अन्तर

निम्नलिखित पक्तियों में हम शिक्षा तथा निर्देशन के अन्तर पर प्रकाश डाल रहें हैं –

शिक्षा

निर्देशन

  1. शिक्षा का अर्थ है बालक की जन्मजात शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना, ज्ञान को बल-पूर्वक ठूंसना नहीं। इस प्रकार शिक्षा बालक का शारीरिक मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास करती है। अत: निर्देशन की अपेक्षा शिक्षा का क्षेत्र अधिक व्यापक है।
  2. शिक्षा में बालक का स्थान मुख्य होता है तथा शिक्षक का गौण
  3. शिक्षा में बालक की रूचि तथा मानसिक स्थिति का विशेष ध्यान रखा जाता है।
  4. शिक्षा का उद्देश्य बालक को वास्तविक जीवन के लिए तैयार करना है जिससे वह एक सुखी सम्पन्न तथा प्रसन्न जीवन व्यतीत कर सके। इस महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षक एक मित्र पथ-प्रदर्शक तथा सलाहकार के रूप में बालक के साथ सहानभूतिपूर्ण व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करके इस प्रकार से मार्ग-दर्शन करता है कि वह विकसित करके ज्ञान की स्वयं ही खोज करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
  5. शिक्षा द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान अपना निजी ज्ञान होता है, किसी का दिया हुआ नहीं। ऐसे ज्ञान में स्थिरता होती है तथा इसे आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग भी किया जा सकता है।
  6. निर्देशन का अर्थ है अध्यापन द्वारा पूर्व निश्चित योजना के अनुसार बालक के मष्तिस्क में निश्चित विषयों का ज्ञान थोंपना। इस प्रकार निर्देशन का संबंध केवल मानसिक विकास से है जो विकास का केवल एक ही पहलू है। अत: शिक्षा की अपेक्षा निर्देशन का क्षेत्र संकुचित है।
  7. निर्देशन में शिक्षक का स्थान बड़े गौरव एवं महत्त्व का होता है तथा बालक का गौण।
  8. निर्देशन में बालक की रूचि तथा मानसिक स्थिति की अवहेलना करके ज्ञान को बलपूर्वक ठुंसा जाता है।
  9. निर्देशन का उदेश्य बालक को स्कूल तथा कॉलेज की परीक्षा में पास करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु शिक्षक किसी न किसी शिक्षण-पद्धति के द्वारा बालक को पाठ्यक्रम के विषय को रटाने का प्रयत्न करता है, चाहे वे उसकी समझ में आवे या न आवे। इस प्रकार निर्देशन द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान बोझ मात्र बन जाता है, वास्तविक शिक्षा नहीं। ऐसा ज्ञान बालक को स्कूली शिक्षा में तो पास करा सकता है, परन्तु वास्तविक जीवन में नहीं।
  10. निर्देशन द्वारा ज्ञान को बलपूर्वक रटाया जाता है। ऐसे ज्ञान में स्थिरता नहीं होती तथा इसे आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग भी नहीं किया जा सकता है।

शिक्षा के रूप

शिक्षा पाठ्यक्रम तथा शिक्षण-पद्धतियों की दृष्टि से शिक्षा के निम्नलिखित रूप हैं –

(अ) औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा – औपचारिक शिक्षा का जन्म अनौपचारिक शिक्षा की अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए हुआ। अत: औपचारिक शिक्षा उस शिक्षा को कहते हैं जिसको बालक किसी कार्यक्रम के अनुसार नियंत्रित वातावरण में रहते हुए किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लये निश्चित पाठ्यक्रम (ज्ञान) को निश्चित शिक्षण-पद्धति के द्वारा निश्चित समय में समाप्त करके परीक्षा देकर उपाधि ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार औपचारिक शिक्षा कृत्रिम होती है तथा इसके समस्त साधन सिमित होते हैं। ऐसी शिक्षा को प्रदान करने का प्रमुख साधन तो स्कूल है, परन्तु पुस्तकालय, अजायबघर, चित्रभवन, तथा पुस्तकें आदि भी औपचारिक शिक्षा के ही साधन माने जाते हैं।

औपचारिक शिक्षा उस शिक्षा को कहते हैं जो आकस्मिक तथा स्वाभाविक होती है  । ऐसी शिक्षा में औपचारिक शिक्षा की भांति किसी निश्चित योजना तथा उदेश्य के अनुसार पाठ्यक्रम, शिक्षण-पद्धति, स्थान, समय तथा शिक्षक आदि पूर्व निश्चित नहीं होते। अनौपचारिक शिक्षा के साधन भी पूर्व निश्चित नहीं होते अपितु उन्हें शिक्षा के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य को प्राप्त करने के बनाया  जाता है। यही नहीं अनौपचारिक शिक्षा में औपचारिक शिक्षा की भांति पहले से की हुई तैयारी की भी आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी तो सीखने और सिखाने वाले को यह भी पता नहीं चलता कि वह क्या सिख रहा है तथा उसे क्या सिखाया जा रहा है। वस्तु-स्थिति यह है कि अनौपचारिक शिक्षा का सम्बन्ध बालक के विकास से होता है। ऐसी शिक्षा को बालक परिवार, समाज धर्म तथा खेल के मैदानों आदि अनेक साधनों के द्वारा स्वतंत्र वातावरण में रहते हुए स्वाभाविक रूप से ग्रहण करके विकसित होता रहता है।

(ब) प्रत्येक्ष या अप्रत्येक्ष शिक्षा – प्रत्येक्ष शिक्षा उस शिक्षा को कहते है जिसमें शिक्षक और बालक एक-दुसरे के आमने-सामने हों तथा शिक्षक जानबूझ कर पूर्व-योजना के अनुसार किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किसी निश्चित शिक्षण-पद्धति का अनुसरण करके बालक को निश्चित प्रकार का ज्ञान दें। ऐसी शिक्षा में शिक्षा के औपचारिक साधनों का भी प्रयोग किया जाता है। संक्षेप में जब बालक के समक्ष इस प्रकार का नियंत्रित वातावरण प्रस्तुत करे, जिसमें रहते हुए उसके व्यक्तित्व का बालक के उपर सीधा प्रभाव पड़े तो ऐसी शिक्षा को प्रत्यक्ष संज्ञा दी जाती है।

अप्रत्येक्ष शिक्षा उस शिक्षा को कहते हैं जिसमें शिक्षा किसी विशेष उद्देश्य की  प्राप्ति हेतु किसी निश्चित शिक्षण-पद्धति द्वारा नहीं दी जाती अपितु स्वतंत्र वातावरण  में अप्रत्यक्ष साधनों के द्वारा स्वयं से ही संचालित होती रहती है। ऐसी शिक्षा को जिन साधनों द्वारा ग्रहण किया जाता है उनकी रचना किसी अन्य प्रयोजन से ही होती है, भले ही लोग उनसे कुछ शिक्षा ग्रहण कर लें।

(स) सामान्य तथा विशिष्ट शिक्षा – सामान्य शिक्षा को उदार शिक्षा भी कहते हैं। ऐसी शिक्षा का लक्ष्य सामान्य होता है तथा यह प्रत्येक बालक के लिए निश्चित स्तर तक सामान्य रूप से अनिवार्य होता है। सामान्य शिक्षा केवल बुद्धि को तीव्र करने के लिए दी जाती है जिससे बालक सामान्य जीवन के लिए तैयार हो सके।

विशिष्ट शिक्षा का लक्ष्य विशिष्ट होता है। ऐसी शिक्षा विशिष्ट रूचि तथा योग्यता एवं क्षमता वाले बालक के लिए ही होती है। विशिष्ट शिक्षा का उदेश्य बालक को किसी विशिष्ट प्रकार के फिवन अथवा व्यवसाय के लिए तैयार करना है। प्रत्येक दशा में कुछ निश्चित अवस्था तथा निश्चित स्तर तक के बालकों को सामान्य शिक्षा देने के पश्चात उनकी रुचियों, योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार विशिष्ट शिक्षा प्रदान की जाती है। ऐसी शिक्षा के प्राप्त करने के पश्चात बालक से यह आशा की जाती है कि वह एक विशिष्ट क्षेत्र में कुशलतापूर्वक कार्य करके अपनी तथा अपने देश की आवश्यकताओं को पूरा कर सके। डाक्टरी तथा इंजीनियरिंग की शिक्षा विशिष्ट शिक्षा के उधाहरण हैं।

(द) व्यक्तिगत तथा सामूहिक शिक्षा – व्व्यतिगत शिक्षा उस शिक्षा को कहते हिं जो किसी बालक को दुसरे बालकों से अलग रखकर उसकी रुचियों, योग्यताओं, क्षमताओं तथा आवश्यकताओं के अनुसार प्रदान की जाये। व्यक्तिगत शिक्षा प्राप्त करते समय बालक स्वतंत्रता का अनुभव करता है। इससे उसे ज्ञान को प्राप्त करने में सुविधा होती है। चूँकि व्यतिगत शिक्षा के अन्तर्गत बालक की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है, इसलिए मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसी शिक्षा अत्यन्त लाभप्रद है।

सामूहिक शिक्षा उस शिक्षा को कहते हैं जिसके द्वारा बहुत से बालकों को एक ही स्थान पर कुछ निश्चित विषयों का ज्ञान दिया जाये। ऐसी शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें प्रत्येक बालक की व्यक्तिगत आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखा जा सकता। सामूहिक शिक्षा प्रदान करते समय शिक्षक को प्रखर तथा मन्द बुद्धि वाले बालकों की अवहेलना करके सामान्य बुद्धि के बालकों को साथ चलना पड़ता है। परन्तु चूँकि सामूहिक शिक्षा में व्यय कम होता है, इसलिए आधुनिक स्कूलों तथा कॉलिजों में शिक्षा के इसी रूप को अपनाया जाता है।

शिक्षा के अंग

जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है अर्थात शिक्षा के तीन अंग है – (1) शिक्षक, (2) बालक तथा (3) पाठ्यक्रम। निम्नलिखित पंक्तिओं में हम शिक्षा के उत्क तीनो अंगों पर अलग-अलग प्रकाश डाल रहे हैं –

(1) शिक्षक – प्राचीन युग में शिक्षक को मुख्य स्थान प्राप्त था तथा बालक को गौण। वर्तमान युग की शिक्षा में इसका बिल्कुल उल्टा हो गया है। इसमें सन्देह नहीं की आधुनिक शिक्षा में शिक्षक का स्थान यधपि गौण हो गया है तथा बालक का मुख्य, फिर भी शिक्षक का उतरदायित्व पहले से और भी अधिक हो गया है। इसका कारण यह है कि आधुनिक युग में शिक्षक केवल बालक के वातावरण का निर्माता भी है। शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक के दो कार्य है – (1) वातावरण का महत्वपूर्ण अंग होने के नाते वह अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है तथा (2) वातावरण का निर्माता होने के नाते उसे ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना पड़ता है जिनमें रहते हुए बालक उन क्रियाशीलनों तथा अनुभवों का ज्ञान प्राप्त कर सके जिनके द्वारा उसकी समस्त आवश्यकतायें पूरी होती रहें तथा वह एक सुखी एवं सम्पन्न जीवन व्यतीत करके उस समाज के कल्याण हेतु अपना यथाशक्ति योगदान देता रहे, जिसका वह एक महत्वपूर्ण अंग है। इसके अतिरिक्त शिक्षा के उदेश्यों में से एक मुख्य उद्देश्य बालक के चरित्र का निर्माण करना भी है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव विशेष महत्त्व रखता है। यदि शिक्षक का चरित्र उच्च कोटि का होगा तो उसके व्यक्तित्व के प्रभाव से बालक में भी चारित्रिक गुण अवश्य विकसित हो जायेंगे अन्यथा वह निक्कमा बन जायेगा। इस दृष्टि से शिक्षक को चरित्रवान, प्रसन्नचित तथा धर्यशील होना परम आवश्यक है। यही नहीं, शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण तथा अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान भी अवश्य होना चाहिये। इसमें उसे अपने कार्य में सफलता मिलेगी और कक्षा में अनुशाशन भी बना रहेगा। वर्तमान युग में शिक्षक के लिए सच्चरित्र तथा पांडित्य के साथ-साथ आधुनिक शिक्षण-पद्धतियों का भी ज्ञान होना भी परम आवश्यक है जिससे वह उचित शिक्षण-पद्धतियों के प्रयोग द्वारा बालक का अधिक से अधिक विकास कर सके। संक्षेप में, शिक्षक राष्ट्र का महत्वपूर्ण अंग भी है और निर्माता भी।

(2) बालक – मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों तथा जनतांत्रिक भावनाओं के परिणामस्वरूप वर्तमान शिक्षा का श्रीगणेश बालक से होता है। दुसरे शब्दों में, अब शिक्षा बालकेन्द्रित हो गई है। एडम्स से इस मत का सबसे पहले प्रतिपादन करते हुए इस वाक्य द्वारा बताया था – शिक्षक जॉन को लैटिन पढ़ता है। इस वाक्य में लैटिन पढ़ना इतना आवश्यक नहीं है जितना कि जॉन। एडम्स के इस स्पष्टीकरण से इस बात का संकेत मिलता है कि शिक्षा के क्षेत्र में बालक का स्थान मुख्य है। यही कारण है कि वर्तमान युग के सभी शिक्षाशास्त्री बलाक को सच्चे अर्थ में शिक्षित करने के लिए अब इस बात पर बल देते हैं कि शिक्षा का समस्त कार्य बालक की रुचियों, योग्यताओं, क्षमताओं तथा आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिये। वस्तुस्थिति यह कि आधुनिक युग में पाठ्यक्रम, पाठ्य-विषय तथा पाठ्य-पुस्तकें सब बालकेन्द्रित हो गई हैं आब कोई भी शिक्षक अपने कार्य में उस समय तक सफल नहीं हो सकता जब तक उस बालक के स्वभाव का पूरा-पूरा ज्ञान न हो। दुसरे शब्दों में, आज उसी व्यक्ति को योग्य शिक्षक कहा जा सकता है जिसे अपने विषय के ज्ञान के साथ-साथ मनोविज्ञान का भी ज्ञान हो।

(3) पाठ्यक्रम – शिक्षा की प्रक्रिया में पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण स्थान है। यह बालक तथा शिक्षक के बीच कड़ी का काम करता है तथा दोनों की सीमाओं को निश्चित करके शिक्षा की समस्त योजना को शिक्षा के उदेश्यों के अनुसार संचालित करता है। संकुचित अर्थ में पाठ्यक्रम का तात्पर्य कुछ विषयों व सीमित तथ्यों का अध्ययन करना है। पर व्यापक अर्थ में पाठ्यक्रम समस्त अनुभवों का वह योग है जिसको बालक स्कूल के प्रागण में प्राप्त करता है। अत: इसके अन्तर्गत वे सभी क्रियाओं आ जाती है जिन्हें बालक तथा शिक्षक दोनों मिलकर करते हैं। ध्यान देने की बात है कि पाठ्यक्रम का निर्माण देश काल, तथा समाज की आवश्यकताओं एवं प्रचलित विचारधाराओं के अनुसार होता है। यही कारण है कि एकतंत्रवादी समाज का पाठ्यक्रम का निर्माण व्यक्ति की अपेक्षा समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाता है यह कठोर तथा सबके लिए समान होता है। इसके विपरीत जनतंत्र मिने व्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वीकार किया जाता है। अत: जनतंत्रीय समाज के पाठ्यक्रम में कठोरता, व्यवस्था तथा नियंत्रण की अपेक्षा लचीलापन, अनुकूल तथा स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया जाता है।

शिक्षा की आधुनिक धारणा

शिक्षा की आधुनिक धारणा को समझने के लिए हमें शिक्षा की आधुनिक तथा प्राचीन दोनों धारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक है। अत: निम्नलिखित पंक्तिओं में हम शिक्षा के विभिन्न अंगों पर तुलनात्मक दृष्टि डाल रहे हैं जिससे हमारे सामने आधुनिक शिक्षा का सच्चा चित्र खिंच जाये –

(1) शिक्षा का अर्थ – शिक्षा शब्द की व्युत्पति लैटिन भाषा के एडूकेटम शब्द से हुई है। एडूकेटम का अर्थ है शिक्षण की कला। ए का अर्थ है अन्दर से तथा डूको का अर्थ है – आगे बढ़ाना या विकास करना। इस प्रकार आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षा बालक के अन्दर छिपी हुई समस्त शक्तिओं को समाजीक वातावरण में विकसित करने की कला है प्राचीन शिक्षा के अन्तर्गत निर्देशन पर बल दिय जाता था। अत: शिक्षा का कार्य था – बालक के मस्तिष्क में पके पकाए ज्ञान को बलपूर्वक ठूंसना। आजकल मस्तिष्क “ एक खाली बर्तन”  तथा “एक कोरी प्लेट” आदि प्राचीन धारणाओं का खण्डन करते हुए इस बात पर बल दिया जाता है कि न तो मस्तिष्क एक खाली बर्तन के सामान है जिसको भरने के लिए निर्देशन द्वारा ज्ञान को बाहर से भरना अथवा बलपूर्वक ठूंसना आवश्यक है तथा न ही कोरी प्लेट है जिस पर विषय-वस्तु को अंकित किया जाये। वस्तुस्थिति यह है कि मस्तिष्क जन्म से ही सक्रिय होता है तथा इसमें वातावरण से सम्बन्ध स्थापित करने की शक्ति होती है। यही नहीं, मस्तिष्क की विशेषता उस शक्ति से भी है जो बालक को वातावरण में क्रिया द्वारा सीखने के लिए प्रेरित करती है। अत: आधुनिक शिक्षा, शिक्षण की उपेक्षा सीखने पर बल देती हुई मार्गदर्शन, अभिवृधि तथा सामाजिक विकास के रूप में उपस्थित होती है।

(2)शिक्षा के उद्देश्य – प्राचीन शिक्षा बालक के मानसिक विकास पर बल देती थी जिसके अनुसार केवल ज्ञानार्जन को ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य माना जाता था। आधुनिक शिक्षाशास्त्री व्यक्ति की प्रकृति का अध्ययन करते हुए मानसिक विकास साथ-साथ उसके शारीरिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास पर भी बल देते हैं। इस दृष्टि से आधुनिक शिक्षा का उदेश्य है – बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास तथा उसमें सामाजिक कुशलता के गुणों का विकास करना।

(3) पाठ्यक्रम – प्राचीन धारणा के अनुसार पाठ्यक्रम में केवल उन विषयों को ही सम्मिलित किया जाता था जिनके अध्ययन से बालक का मानसिक विकास हो जाये। इससे पाठ्यक्रम पूर्व निश्चित तथा स्थिर बन गया था। आधुनिक युग में बालक के सर्वांगीण विकास हेतु पाठ्यक्रम सम्बन्धी तथा सहगामी दोनों प्रकार की क्रियाओं एवं अनुभवों को सम्मिलित करके पाठ्यक्रम को लचीला तथा प्रगतिशील बनाने पर बल दिया जाता है जिससे प्रत्येक बालक अपनी-अपनी रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार विकसित होकर समाज की यथाशक्ति सेवा करता रहे। संक्षेप में, आधुनिक पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ज्ञानाजर्न सम्बन्धी विषयों की अपेक्षा सामाजिक अध्ययन पर बल दिया जाता है।

(4) शिक्षण-पद्धतियाँ – शिक्षा की प्राचीन धारणा पाठ्यक्रम के सभी विषयों को कंठस्थ करने पर बल देती है। इस रटन-पद्धति के कारण शिक्षा निर्जीव तथा नीरस हो गयी थी। आधुनिक धारणा के अनुसार अब बालक के सर्वांगीण विकास हेतु रटन-पद्धति की अपेक्षा खेल विधि, करके सीखने की विधि तथा योजना आदि शिक्षण-पद्धतिओं का प्रयोग किया जाता है जिससे प्रत्येक बालक अपनी-अपनी रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार वास्तविक जीवन के अनुभव प्राप्त करके स्वयं विकसित होता रहे।

(5)अनुशासन – प्राचीन धारणा के अनुसार के लिए कठोर दण्ड अथवा केवल डंडे को ही शिक्षक की सहायक सामग्री समझ जाता था। पर आधुनिक धारणा दमन की अपेक्षा शिक्षक के प्रभाव तथा नियंत्रित स्वतंत्रता पर बल देती है जिससे बालक में आत्म-अनुशासन की भावना विकसित हो जाये।

(6) परीक्षा – शिक्षक को बालक की शैक्षणिक प्रगति का पता लगाने के लिए परीक्षा का प्रयोग करना पड़ता है। अत: परीक्षा के सम्बन्ध में प्राचीन धारणा ने निबंधात्मक परीक्षाओं को जन्म दिया जिससे बालक की रटन शक्ति का पता लग जाये। चूँकि उक्त परीक्षाओं में अनेक त्रुटियाँ हैं, इसलिए आधुनिक धारणा वस्तुनिष्ट परीक्षाओं, प्रगति पत्रों तथा वर्धनशील लिखिक विवरण पर बल देती है जिससे बालक की विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली प्रगति का ठीक-ठीक पता चल जाये।

(7) शिक्षा के साधन – प्राचीन धारणा के अनुसार शिक्षा का उत्तरदायित्व केवल स्कूल पर ही समझ जाता था। परन्तु आधुनिक धारणा के अनुसार यह उतरदायित्व स्कूल के साथ-साथ परिवार, समुदाय, धर्म तथा राज्य आदि सभी अनौपचारिक साधनों को स्कूल रूपी औपचारिक साधन के साथ पूर्ण सहयोग प्रदान करना चाहिये।

(8) शिक्षक – प्राचीन धारणा के अनुसार शिक्षा शिक्षक-प्रधान थी। अत: शिक्षक का स्थान एक निर्देशक अथवा तानाशाह की भांति समझा जाता था। आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षक एक मित्र, दार्शनिक तथा पथ-प्रदर्शक समझा जाता है। उससे यह आशा की जाती है कि वह बालकों के साथ सहानभूतिपूर्ण तथा व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करके उनमें सामाजिक रुचियाँ, आदतों तथा दृष्टिकोण का विकास करे।

(9) बालक – प्राचीन धारणा के अनुसार बालक को निष्क्रिय श्रोता के रूप में एक ही आसन से बैठकर शिक्षक के अनुदेशन को सुनने की आदत डाली जाती थी। आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षा बालकेन्द्रित हो गई है। अत: अब इस बात पर बल दिया जाता है कि बालक अधिक से अधिक सक्रिय रहकर पाठ के विकास में रूचि ले तथा शिक्षक और बालकों के बीच अधिक से अधिक अन्त: प्रक्रिया हो जिससे प्रत्येक बालक का अधिक से अधिक विकास हो।

(10) स्कूल – प्राचीन धारणा के अनुसार स्कूल को ऐसी दुकान समझा जाता था जहाँ पर ज्ञान के विक्रेता बालकों को डंडे के भय से विभिन्न विषयों को रटते थे। भले ही रटा हुआ ज्ञान उनके भावी जीवन में कम काम आये अथवा नहीं। दुसरे शब्दों में प्राचीन धारणा के अनुसार इस बात को आवश्यक नहीं समझा जाता था कि शिक्षा में लगाई गई पूँजी अथवा आदा के अनुपात से उत्पादन अथवा प्रदा भी हो। आधुनिक धारणा के अनुसार स्कूल को समाज का लघू रूप माना जाता है। साथ ही शिक्षा को एक उधोग तथा शिक्षक को इस शिक्षा रूपी उधोग का व्यवस्थापक समझा जाता है जो बालकों के लये सीखने की व्यवस्था करता है और यह देखता है बालकों की शिक्षा में लगाई गई पूंजी अथवा आदा के अनुपात में प्रक्रिया द्वारा योग्यता अथवा प्रदा बढ़ी अथवा नहीं।

(11)शिक्षा एक अनुशासन के रूप में – प्राचीन धारणा के अनुसार शिक्षा को एक प्रक्रिया तथा प्रशिक्षण के अर्थ में प्रयोग किया जाता था। आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षा को एक प्रक्रिया तथा प्रशिक्षण के अतिरिक्त दुसरे विषयों की भांति अध्ययन का एक स्वतंत्र विषय अथवा अनुशासन माना जाता है। इसका कारण यह है कि अन्य विषयों की भांति शिक्षा में भी वे सभी विशेषतायें हैं जो प्रत्येक विषय अथवा अनुशासन होती हैं। वे विशेषतायें हैं – (1) निजी पाठ्यवस्तु (2) पाठ्यवस्तु का क्रिया से सम्बन्ध, (3) निजी विधियाँ, (4) शोध की निजी विधियाँ, (5) चिन्नत क्षेत्र तथा (6) प्रथक संकाय।

उपर्युत्क  विवेचन के आधार पर शिक्षा की आधुनिक धारणा के सम्बन्ध  ज्ञान प्राप्त करने के लिए निम्न चार्ट प्रस्तुत किया जा रहा है –

शिक्षा के विभिन्न पक्ष

शिक्षा की प्राचीन धारणा

शिक्षा क आधुनिक धारणा

  1. अर्थ

सूचना, निर्देशक

विकास, (अनुशासन के रूप में)

  1. उदेश्य

ज्ञानार्जन

व्यक्ति का विकास, सामाजिक कुशलता

  1. पाठ्यक्रम

विषय-प्रधान, ज्ञानार्जन के विषय

बाल केन्द्रित, क्रिया-प्रधान तथा सामाजिक अध्ययन

  1. शिक्षण-पद्धति

रटन-पद्धति

खेल, करके सीखना तथा योजना आदि

  1. अनुशासन

कठोर दमनात्मक अनुशासन

आत्म-अनुशासन

  1. परीक्षा

निबन्धात्मक

वस्तुनिष्ट, प्रगति-पत्र तथा वर्धनशील लिखित विवरण आदि

  1. साधन

औपचारिक स्कूल

औपचारिक-परिवार, समुदाय, धर्म तथा राज्य

  1. शिक्षक

निर्देशक

मित्र, दार्शनिक तथा पथ-प्रदर्शक

  1. बालक

निष्क्रिय

सक्रिय

स्कूल

ज्ञान बेचने की दुकान

समाज का लघुरूप

शिक्षा का महत्त्व

शिक्षा का महत्त्व अनेक दृष्टियों से है। इसका कार्यक्षेत्र इतना व्यापक है कि इसके अन्तर्गत वे सभी कार्य आ जाते हैं जिनको पूरा करने से व्यक्ति अपने जीवन को सुखी तथा सफल बनाते हुए सामाजिक कार्यों को उचित समय पर पूरा करने के योग्य बन जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सामान्य रूप से शिक्षा व्यक्ति की मूल प्रवृतियों का नियंत्रण, मर्गान्तिकरण तथा शोधन करते हुए उसकी जन्मजात शक्तियों के विकास में इस प्रकार सहायता प्रदान करती है कि उसका सर्वांगीण विकास हो जाये। यही नहीं शिक्षा व्यक्ति में चारित्रिक तथा नैतिक गुणों एवं समाजिक भावनाओं को विकसित करके उसे प्रौढ़ जीवन के लिए इस प्रकार तैयार करती है कि वह अपनी सांस्कृति तथा सभ्यता का संरक्षण करते हुए उत्तम नागरिक के रूप में सामाजिक सुधार करके राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। संक्षिप्त रूप से शिक्षा मानवीय जीवन में व्यक्ति को जहाँ एक ओर वातावरण से अनुकूल करने तथा उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करते हुए भौतिक सम्पन्नता को प्राप्त करके चरित्रवान,  बुद्धिमान, वीर तथा साहसी उत्तम नागरिक के रूप में आत्मनिर्भर बनाकर उसका सर्वांगीण विकास करती है वहाँ दूसरी ओर शिक्षा राष्ट्रीय जीवन में व्यक्ति के अन्दर राष्ट्रीय एकता, भावनातमक एकता, सामाजिक कुशलता तथा राष्ट्रीय अनुशासन आदि भावनाओं को विकसित करके उसे इस योग्य बना देती है कि वह सामाजिक कर्त्तव्यों को पूरा करते हुए राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देने के लिए ओत-प्रोत हो जाता है। संक्षेप में, शिक्षा सामान्य तथा राष्ट्रीय जीवन में इतने कार्य करती है जिससे व्यक्ति तथा समाज निरन्तर उन्नति के शिखर पर चढ़ते रहते हैं।

शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए हम भारतीय दशाओं की दृष्टि में रखते हुए इसके में  कार्यों पर अगले अध्याय में प्रकाश डाल रहें हैं। पाठकों से अनुरोध है कि वे महत्त्व को भली प्रकार समझने के लिए “ मानवीय एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्य “ नामक अध्याय का अध्ययन अवश्य करें।

मानवीय एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्य

शिक्षा के अर्थ, कार्य तथा उद्देश्यों में इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि इन तीनो के बीच में विभाजन रेखा खींचना सरल कार्य नहीं है फिर भी इन तीनों को अच्छी तरह समझने के लिए हम कह सकते हैं कि शिक्षा का अर्थ है – ‘शिक्षा क्या है ?’ शिक्षा के कार्यों का अर्थ है – ‘शिक्षा क्या करती है ?’ तथा शिक्षा के उद्देश्यों का अर्थ है –‘शिक्षा को क्या करना चाहिये?’ पिछले अध्याय में हम शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट कर चुके हैं अगले अध्यायों में हम शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा करेंगे अब हम शिक्षा के कार्यों पर प्रकाश डाल रहें हैं

वास्तविकता यह हैं कि शिक्षा का कार्यक्षेत्र अत्यंत: व्यापक है। इसके अन्तर्गत वे सभी बातें आ जाती है जो व्यक्ति को प्रभावित करते हुए उसे इस योग्य बनाती हैं कि वह अपने जीवन तथा समाज के लिए उचित कार्यों को उचित समय पर कर सकें। ये उचित कार्य देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। इनको सैदव के लिए स्थायी रूप से निश्चित नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि शिक्षा के कार्यों के विषय में भी विद्वानों में मतभेद रहा है। उदाहरण के लिए डेनियल वेबस्टर के अनुसार – “ शिक्षा का कार्य भावनाओं को अनुशासित आवेगों को नियंत्रित प्रेरणाओं को उत्तेजित तथा धार्मिक भावनाओं को विकसित करना है “ इसी प्रकार जॉन डीवी के अनुसार –“शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहुंचना है, जिससे वह सुखी, नैतिक तथा कुशल मानव बन सके।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा के अनके कार्य हैं। निम्नलिखित पक्तियों में हम भारतीय दशाओं को दृष्टि में रखते हुए शिक्षा के सामान्य कार्यों पर प्रकाश डाल रहे हैं।

शिक्षा का सामान्य अर्थ

शिक्षा का सामान्य कार्य निम्नलिखित है –

(1) जन्मजात शक्तियों का प्रगतीशील विकास- मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रत्येक बालक में प्रेम, जिज्ञासा, कल्पना तर्क तथा आत्मसम्मान आदि जन्मजात शक्तियां होती है। लगभग सभी शिक्षाशास्त्रियों का मत है की बालक की इन सभी जन्मजात शक्तियों को विकसित करना शिक्षा का प्रथम कार्य है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी ने शिक्षा के इसी महत्वपूर्ण कार्य पर प्रकाश डालते हुए शिक्षा को इन शब्दों में परिभाषित किया है – “ शिक्षा मनुष्य जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है “

(2)व्यक्ति सर्वांगीण विकास – शिक्षा का दूसरा कार्य व्यक्ति का सम्पूर्ण तथा सर्वांगीण विकास करना है। जिससे बालक को ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाये तथा वह एक सफल नागरिक के रूप में सत्यम, शिवम् एवं सुन्दरम का अनुभव करके आत्म-साक्षात्कार कर सके। व्यक्ति के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा आध्यातिमिक आदि सभी पहलू सम्मिलित है। यदि इनमें से किसी एक पहलू का भी विकास न किया गया तो बालक अपने भावी जीवन के अनेक क्षेत्रों में भटकता फिरेगा।

(3) मूल-प्रवृतियों का नियंत्रण, मर्गान्तिकरण तथा शोधन –इंग्लैंड के प्रशिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकडूगल के अनुसार प्रत्येक प्राणी शिशु के रूप में कुछ मूल-प्रवृतियों को लेकर जन्म लेता है। उसके समस्त कार्य इन मूल-प्रवृतियों के आधिन होते हैं। पधुओं की मूल-प्रवृतियों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इसका एक मात्र कारण यह है कि पशुओं में चिन्तन तथा तर्क का आभाव होता है। इसके विपरीत मानव शिशु में चिन्तन तर्क, विवेक तथा निर्णय आदि सभी मानसिक शक्तियां पूर्णरूपेण पायी जाती है। इन मानसिक शक्तियों के द्वारा उसकी मूल-प्रवृतियों का नियंत्रण, मर्गान्तिकरण तथा शोधन करके उसके व्यवहार में आवश्यकता अनुसार इतना परिवर्तन अवश्य किया जा सकता है कि वह दानव से मानव अथवा सामाजिक बन जाये। अत: शिक्षा का तीसरा कार्य यह है कि वह बालक को उसकी मूल-प्रवृतियों पर नियंत्रण रखना, उसका मर्गान्तिकरण करते हुए उचित दिशा में शोधन करके उच्च कोटि के कार्य में लगाना सिखया जिससे व्यक्ति तथा समाज दोनों निरन्तर विकसित होते रहें

(4)चरित्र-निर्माण तथा नैतिक विकास- शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य बालक के चरित्र का निर्माण तथा नैतिक विकास करना है। वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य के चरित्र-निर्माण का आधार उसकी मूल-प्रवृतियों की होती है। यह मूल-प्रवृतियों  जन्म से न अच्छी होती है और न बुरी। इनकी अच्छाई अथवा बुराई इनके शोधन पर निर्भर करती है। यदि बालक की मूल-प्रवृतियों को अनियंत्रित स्वतन्त्रता प्रदान कर दी गई तो वह अन्य पशुओं कई भांति बर्बरतापूर्ण वयवहार करने लगेगा। इसके विपरीत यदि उसकी मूल-प्रवृतियों पर नियंत्रण रखते हुए उचित दिशा में मोड़ दिया जाये तो बालक का व्यवहार स्वयं उसके तथा समाज के अन्य सभी व्यक्तियों के लिए प्रशंसनीय एवं लाभप्रद होगा। यदि बालक को चरित्रवान बनता है तो उसकी मूल-प्रवृतियों को नियंत्रित करते हुए उचित दिशा में मोड़ना होगा। यह कार्य केवल शिक्षा ही कर सकती है। अत: शिक्षा का चौथा कार्य यह है कि बालक को अपनी मूल-प्रवृतियों पर नियंत्रण रखन सिखाये तथा मर्गान्तिकरण और शोधन द्वारा उसे उच्च कार्यों में लगाकर ससचित्र बनायें एवं उसमें सत्य, प्रेम , भक्ति, त्याग तथा उत्तरदायित्व की भावना को विकसित करके उसका नैतिक विकास करें। हरबार्ट के अनुसार भी – शिक्षा के सम्पूर्ण कार्य को एक ही शब्द में प्रकट किया है और वह शब्द है –नैतिकता।

(5)प्रौढ़ जीवन के लिए तैयारी – आज का बालक कल का नागरिक है। इसका अर्थ यह है कि जो बालक जन्म के समय असहाय होता है वह कल को अर्थात भविष्य में प्रौढ़ बनकर समाज का उतरदायी नागरिक बनेगा। अत: शिक्षा का पांचवां कार्य यह है कि वह बालक को प्रौढ़ जीवन के लिए तैयार करे। दुसरे शब्दों में शिक्षा बालक के अन्दर ऐसी क्षमता तथा योग्यता पैदा करे कि वह भावी जीवन में प्रौढ़ नागरिक बनकर अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों का पालन करते हुए पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक हर प्रकार की समस्या को सुलझाकर सफल जीवन व्यतीत कर सके। प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने भी आशय की पुष्टि करते हुए लिखा है “ मै उसको पूर्ण शिक्षा कहता हूँ जो मनुष्य को शांति तथा युद्ध के समय व्यक्तिगत तथा सार्वजानिक दोनों प्रकार के सभी कार्यों को उचित रूप में करने योग्य बनती है।

(6)सामाजिक भावना का विकास – व्यक्ति का समाज से गहरा सम्बन्ध है। इसका कारण यह है कि वह समाज में ही रहते हुए अपनी भी उन्नति कर सकता है तथा अन्य व्यक्तियों की भलाई भी। बिना समाज के उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। इस दृष्टि से व्यक्ति में सामाजिक भावना का विकसित होना परम आवश्यक है। इस महान कार्य को शिक्षा के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। इस कार्य को शिक्षा स्कूल की सहायता से सरलतापूर्वक पूरा कर सकती है। स्कूल के सामाजिक वातावरण से रहते हुए बालक नाना प्रकार की समाजिक क्रियाओं में भाग लेता है जससे उसमें समाजिक भावना की जागृति के साथ-साथ प्रेम, दया, सहनशीलता, सहानभूति, सहयोग तथा परोपकार आदि ऐसे अनेक सामाजिक गुण सहज में ही विकसित हो जाते हैं जिनसे सुसज्जित होकर वह अपने भावी जिमान में समाज हित के कार्यों को करते हुए समाज की भलाई को ही अपना भलाई समझने लगता है।

(7)उत्तम नागरिकों का निर्माण – किसी भी राज्य को उत्तम राज्य उसी समय कहा जा सकता है जब वहाँ के नागरिक भी उत्तम हो। इसीलिये प्रत्येक शासक सदैव इस बात का प्रयास करता है कि उसके सभी नागरिक उत्तम बनें। इस सम्बन्ध में यह प्रश्न उठ सकता है कि उत्तम नागरिक का क्या अर्थ है ? उत्तर में सरलतापूर्वक कहा जा सकता है कि किसी भी नागरिक को उत्तम नागरिक उसी समय कहा जा सकता है जब उसमें सत्यता, देश-भक्ति, ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता तथा नेतृत्व आदि गुणों पाये जाते हों। इन गुणों के केवल शिक्षा के द्वारा ही विकसित किया जा सकता है। अत: शिक्षा का सातवाँ कार्य है कि वह बालकों में उत्तम गुण का विकास करे।

(8) संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण – प्रत्येक समाज के रीती-रिवाज, परम्परायें, नैतिक तथा धर्म अदि सब अलग-अलग होते हैं। इन सबको प्रत्येक समाज के अति प्राचीन काल से लेकर आज तक अर्जित किया है । वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक समाज को अपनी-अपनी संस्कृति तथा सभ्यता पर इतना गर्व होता है कि वह इसको किसी भी मूल्य पर नष्ट नहीं होने देता। अत: शिक्षा का आठवाँ कार्य यह है कि वह प्रत्येक समाज की संस्कृति तथा सभ्यता को विभिन्न साधनों के द्वारा सुरक्षित रखे, प्रगति करे तथा उसमें नवीनता लाये।

(9) सामाजिक सुधार – शिक्षा का नवां कार्य सामाजिक सुधार एवं उन्नति करना भी है। अनुभव की बात है कि कोई भी समाज शिक्षा की व्यवस्था केवल इसलिए ही नहीं करता कि बालक समाज के प्रचलित नियमों, सिद्धांतों तथा रूढ़ियों से केवल अनुकूल ही प्राप्त कर सके अपितु वह यह भी चाहता है कि शिक्षित होकर वह (बालक) उसमें आवश्यकतानुसार सुधार भी कर सके जिससे समाज उचित दिशा की ओर विकसित होता रहे।

(10) राष्ट्रीय सुरक्षा- किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा को ज्यों का त्यों बनाये रखने की दायित्व वहाँ की शिक्षा के उपर ही निर्भर होता है। इसलिए शिक्षा का दसवां महत्वपूर्ण कार्य प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र की रक्षा करने के लिए तैयार करना है। भारतवर्ष अब स्वतंत्र अवश्य है, पर इसका यह अर्थ नहीं हिया कि यहाँ के नागरिक अब आँख मींच कर बैठ जायें। चूँकि चीन और पाकिस्तान से भारत को निरन्तर भय बना रहता है, इसलिए हम सब के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का कार्य और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसी स्तिथि में जहाँ शिक्षा का कार्य उत्तम गुणों से सुसज्जित नागरिकों का निर्माण करना है वहाँ उनमें ऐसी भावनाओं को भी विकसित करना है कि वे अपने देश की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में भी न हिचकिचायें। एच० मैन ने ठीक लिखा है – “ केवल शिक्षा से ही हमारी राजनितिक सुरक्षा सम्भव है “।

मानवीय जीवन में शिक्षा के कार्य

अंग्रेजो ने अपने शासन काल में अंग्रेजी के अध्ययन पर बल देकर भारत के अन्दर दो वर्ग उत्पन कर दिये थे। पहले वर्ग के अन्तर्गत वे मुठ्ठी भर लोग आ गये जिन्होंने अंग्रेगी पढ़ ली तथा जो अंग्रेज भारतीय कहलाने लगे। दुसरे वर्ग के अन्तरगत जनसाधारण का वह विशाल समूह था जो अंग्रेगी पढ़ न सके। पहले वर्ग के लोगों में अंग्रेगी पढ़कर अहम् की भावना विकसित हो गई। परिणामस्वरूप उन्होंने अपने आप को दुसरे वर्ग के लोगों से प्राय: अलग ही रखा। 15 अगस्त सन 1947 ई० को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सर्वप्रथम इस बात हो आवश्यक समझा गया कि अंग्रेजो ने भारत में उक्त दो वर्गों को पैदा करके जिस सामाजिक क्षेत्रे के साथ-साथ राजनीतिक तथा आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में परिवर्तन करने के लिए शिक्षा का सहारा लिया तथा स्वतंत्र भारत के सभी नागरिकों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए मानवीय जीवन के कल्याण हेतु शिक्षा को निम्नलिखित कार्य सौंपे-

(1) वातावरण के अनुकूल – प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए वातावरण से संघर्ष करना पड़ता है। उसे सदैव गर्मी, सर्दी, वर्षा , ओले, तूफान तथा भूचाल आदि से निरन्तर टक्कर लेनी पड़ती है। जो प्राणी अपने आप को वातावरण के अनुकूल बना लेते हैं वह जीवित रह जाता है, अन्यता नष्ट हो जाता है। शिक्षा मानव को वातावरण के साथ अनुकूल करना सिखाती है। अत: मानवीय जीवन में शिक्षा का प्रथम कार्य व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वह अपने वातावरण से अनुकूल कर सके।

(2) वातावरण के रूप में परिवर्तन – शिक्षा मानव में अच्छी आदतों का निर्माण करती है। इन आदतों की सहायता से मानव वातावरण में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी कर सकता है अत: शिक्षा का कार्य व्यक्ति को केवल वातावरण से अनुकूल करना ही सीखना नहीं, अपितु उसे इस योग्य भी बनाना है कि वह आवश्यकता पढ़ने पर इसके रूप में भी परिवर्तन कर सके। आज के संघर्षपूर्ण  संसार में शिक्षा के इस कार्य का विशेष महत्त्व है। हमारे देश में भी विभिन्न जातियों, प्रजातियों धर्मों तथा भाषाओं ने जिस दूषित वातावरण का निर्माण कर रखा है, वह किसी से छिपा नहीं है। इस दूषित वातावरण में केवल शिक्षा के ही द्वारा सुधार किया जा सतकता है।

(3) मानव को सभ्य बनाना – प्रारंभिक अवस्था में मानव शिशु भी अन्य पधुओं की भांति बिल्कुल असभ्य होता है। उसकी आदिकालीन बर्बरता अथवा असभ्यता को केवल शिक्षा के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। अत: स्वतंत्र भारत में शिक्षा का कार्य मानव को सभ्य बनाना भी है। शिक्षा के द्वारा मां लिखना-पढना सीखता है, जिससे उसे अनके विषयों का ज्ञान होता है। ज्ञान से उसकी रुचिओं में सुधार होता है। रुचियों के सुधरने से उसके आचरण भी सुधर जाते हैं  और वह सभ्य बन जाता है। इस प्रकार शिक्षा के द्वारा मानव के ज्ञान में निरन्तर वृधि होती है जिससे वह सुसंस्कृत एवं सभ्य बन जाता है। प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति वहाँ के शिक्षित व्यक्तियों केक अनुपात में ही आंकी जाति है। जिस राष्ट्र में जितने अधिक व्यक्ति शिक्षित होंगे वह राष्ट्र उतना ही महान तथा सभ्य कहलायेगा।

(4)आवश्यकताओं की पूर्ति – प्रत्येक मानव की व्यक्तिगत, सामाजिक , मनोवैज्ञानिक तथा अवकाश काल सम्बन्धी अनेक आवश्यकतायें होती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति केवल शिक्षा के ही द्वारा हो सकती है। अत:  भारतीय समाज में शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य व्यक्ति की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। स्वामी विवेकानंद ने ठीक लिखा है –“ शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि समस्याओं को कैसे सुलझाया जाये, और इसी बात की ओर संसार के सभ्य समाज का गम्भीर ध्यान पूर्णतया लगा हुआ है।

(5) व्यवसायिक कुशलता की पूर्ति – शिक्षा का कार्य मानव को व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने में सहायता देना है। शिक्षा मानव को विभिन्न व्यवसायों का ज्ञान देती है, जिसके अआधार पर वह अपनी योग्यता के अनुसार किसी व्यवसाय को चुनकर अपनी जीविका कमाने लगता है। इससे वह दूसरों पर भार न बनकर अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं ही कर लेता है। अत: डॉ० राधाकृष्ण के शब्दों में- “ विद्यार्थियों को जीविकोपार्जन में सहायता देने शिक्षा के अनके कार्यों में एक महत्वपूर्ण कार्य है।

(6)भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति – शिक्षा का कार्य मानव को भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में सहयता देना है। आज के भौतिकवादी युग में प्रत्येक व्यक्ति की यह धारणा है कि ऐसी शिक्षा व्यर्थ है जो मानव को भौतिक सम्पन्नता प्राप्त करने में सहायता नहीं करती। प्राय: सभी माता पिता अपने बालकों को स्कूल में पढ़ने के लिए इसी दृष्टि से भेजते हैं की पढ़ने-लिखने के बाद वे समाज में उच्च स्थान प्राप्त कर सकें।

(7) आत्मनिर्भरता की प्राप्ति – शिक्षा का सातवाँ कार्य व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना है \ जो व्यक्ति अपने कार्य को बिना किसी सहायता के स्वयं ही कर लेता है, उसे आत्मनिर्भर की संज्ञा दी जाती है। ऐसे व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न हो जाता है। इससे वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सरलतापूर्वक आगे बढ़ता चला जाता है। भारत को इस समय ऐसे ही व्यक्तियों की आवश्यकता है न की निक्क्मों की ओर जो सदैव दूसरों का सहारा dhudete हों। अत: स्वामी विवेकानंद के शब्दों में – केवल पुस्तकीय ज्ञान से कम नहीं चलेगा। हमें उस दिशा की आवश्यकता है , जिससे व्यक्ति अपने पैरों पर स्वयं खड़ा हो जाये।

(8)चरित्र का विकास – शिक्षा का मुख्य कार्य बालक के चरित्र का विकास कारण है। आज के भौतिकवादी  युग में छल, फरेब, घ्रणा, झूठ, स्वार्थ तथा धोखेबाजी आदि प्रवृतियों का साम्राज्य दिखाई पड़ता है। इन बुराईयों के कारण मानव को स्थायी सुख तथा शांति प्राप्त नहीं हो पाती है । आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी बुराईयों से बचकर जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जाये। शिक्षा मानव को इन सभी बुराईयों से बचाने के लिए उसमें सत्य, सद्भावना, त्याग तथा अहिंसा आदि अनके गुणों को विकसित करती है, उसे अपने आदर्शों को निश्चित करने तथा उनको प्राप्त करने में सहयोग प्रदान करती है एवं सत्यम, शिवम् और सुन्दरम् जैसे चिन्तन मूल्यों की प्राप्ति के लिए उचित पथ-प्रदर्शन करके नैतिक चरित्र का निर्माण करती है। इस प्रकार हरबार्ट के शब्दों में – “शिक्षा का अर्थ उत्तम नैतिक चरित्र का विकास करना है।”

(9)व्यक्तित्व का विकास – शिक्षा प्राप्त करके बालक को योग्यता का विकास होता है जिसके परिणामस्वरूप वह अच्छी बातें सीखता है तथा बुरी बातों का परित्याग कर देता है। शिक्षा ही बालक की सम्भावनाओं को पूरा करती है तथा उसकी आन्तरिक शक्तियों को जागृत करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि सच्ची शिक्षा बालक का उचित दिशा में विकास करती है तथा उसके जीवन को सुखी तथा सफल बनती है। अत: प्रत्येक शिक्षा शास्त्री का मत है कि शिक्षा का प्रमुख कार्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है।

(10) भावी जीवन की तैयारी – मानवीय जीवन में शिक्षा का दसवां कार्य बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करना है। वस्तुस्थिति यह है कि जीवन एक संघर्ष है। मानव को अपने जीवन में आने वाली अनके समस्याओं से संघर्ष करना पड़ता है। शिक्षा इन सभी समस्याओं को सुलझाने के लिए बालक की विभिन्न व्यक्तिगत, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है एवं उसे इस योग्य बनती है कि वह बड़ा होकर अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों का समुचित प्रयोग करके अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। स्वामी विवेकानंद का मत है – “ क्या वह शिक्षा-शिक्षा कहलाने के योग्य है जो सामान्य जन समूह को जीवन संघर्ष के लिए अपने आपको तैयार करने में सहायता नहीं देती तथा उसमें शेर का सा साहस उत्पन्न नहीं करती। “

(11) अनुभवों का पुनसंगठन एवं पुर्रचना- मानव अपने वातावरण तथा अन्य वय्क्तियों के सम्पर्क में रहते हुए विभिन्न प्रकार के अनुभव करता है। इन अनुभवों को वह शिक्षा के द्वारा संगठित कर लेता है तथा अपनी भावी उन्नति के लिए इसका प्रयोग करता है। इस प्रकार मानव-जीवन में अनुभवों की प्राप्ति, इनका पुर्नसंगठन तथा पुनर्रचना की क्रिया सदैव चलती ही रहती है। अत: शिक्षा इस कार्य को पूरा करे।

(12)उत्तम नागरिकों का निर्माण – शिक्षा उत्तम नागरिकों का निर्माण कराती है। भारत एक धर्म निरपेक्ष जनतंत्र है। इसको सफल बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को देश का सच्चा तथा सुयोग्य नागरिक बनाना है। सच्चा तथा सुयोग्य नागरिक बनाने के लिए शिक्षा बालकों  में सचरित्र, स्वतंत्र तथा स्पष्ट चिन्तन, देश-भक्ति, सहयोग, सहानभूति, सहनशीलता तथा अनुशासन आदि गुणों का विकास करके उन्हें कर्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति जागरूक करती है। यदि शिक्षा सच्चे देश भक्त तथा सुयोग्य नागरिकों का निर्माण कर देती है तो देश का कल्याण ही कल्याण है।

(13)कार्यक्षेत्रों का व्यावहारिक ज्ञान – शिक्षा बालक को विभिन्न प्रकार के कार्यक्षेत्र का ज्ञान भी देती है। संसार के सभी प्रगितशील देशों में बालकों क विभिन्न क्षेत्रों का व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता है। खेद की बात है हमारे देश में बालक को किसी भी क्षेत्र का व्यावहारिक ज्ञान देकर केवल सैधान्तिक ज्ञान को रटने के लिए भी बाध्य किया जाता है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने भारतियों को सचेत करते हुए परामर्श दिया –“ तुमको कार्य के सब क्षेत्रों का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कारण आवश्यक है। सिधान्तों के ढेरों से देश का नाश हो गया है। “

राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्य

राष्ट्र तथा उसके नागरिकों का एक-दुसरे से घनिष्ट सम्बन्ध होता है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति केवल उसी समय हो सकती है जब उसके नागरिक उत्तम सचरित्र तथा उतरदायित्वपूर्ण हों। यदि नागरिक अयोग्य, चरित्रहीन तथा निर्बल होंगे तो राष्ट्र-निश्चित रूप से रसातल को चला जायेगा। इस दृष्टि से राष्ट्र की उन्नति के लिए सचरित्र एवं श्रेष्ट नागरिकों का होना परम आवश्यक है। ऐसे नागरिकों का निर्माण करना ही राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य है। भारतीय समाज के जनतंत्रीय समाजवादी आदर्शों को दृष्टि में रखते हुए शिक्षा नागरिकों को निम्नलिखित बातों में प्रशिक्षित करके इस महान कार्य को पूरा कर सकती है –

(1)नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण-जनतंत्र और नेतृत्व का घनिष्ट सम्बन्ध होता है इस दृष्टी से जनतंत्र में योग्य, अनुभवी, तथा कुशल नेताओं का होना परम आवश्यक है। दुसरे शब्दों में, जनतंत्र की सफलता के लिए राजनितिक, सामाजिक, औधोगिक तथा सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों के लिए प्राईमरी, माध्यमिक तथा उच्च तीनों स्तरों पर उतरदायित्व नेताओं की आवश्यकता होती है। प्रत्येक क्षेत्र में उच्चस्तरीय नेता नीति का निर्माण करते हैं। इस नीति को माध्यमिक तथा प्राईमरी स्तरों के नेता कार्य रूप में परिणत करते हैं। अत: जनतंत्रीय समाज के प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न स्तरों के लिए अधिक से अधिक नेतृत्व का प्रशिक्षण आवश्यक है। भारत भी एक सर्वसत्ता सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है। हमें भी राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सभी स्तरों के लिए योग्य, अनुभवी तथा कुशल नेताओं की आवश्यकता है। शिक्षा इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करे।

(2) राष्ट्रीय विकास – शिक्षा राष्ट्रीय विकास की आधारशिला होती हिया। अत: शिक्षा का कार्य प्रत्येक नागरिक को एक निश्चित स्तर तक अनिवार्य रूप में शिक्षित करना है। यदि शिक्षा इस महान कार्य को पूरा करने में सफल हो गई तो राष्ट्र के सभी नागरिक मतदान द्वारा योग्य, सचरित्र तथा कुशल नेताओं का चुनाव करके  ऐसी सुव्यवस्थित सरकार का निर्माण कर सकेंगे जिसके द्वारा राष्ट्र का विकास होना निश्चित है। अत: भारतीय शिक्षा इस ओर विशेष ध्यान दे।

(3) राष्ट्रीय विकास के लिए राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है। अत: राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य राष्ट्रीय एकता की स्थापना करना है। खेद का विषय है कि भारत जैसे महान राष्ट्र में शिक्षा इस कार्य के प्रति अभी तक उदासीन है। परिणामस्वरूप हमारे अन्दर विचरों की संकीर्णता, स्वार्थतता तथा कटुता आदि दोष उत्पन्न हो गये हैं। इन दोषों के कारण हम जातीयता, प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता तथा क्षेत्रीयता में विश्वास करने कभी भाषा के प्रश्न पर लड़ पड़ते हैं तो कभी जनसंख्या के आधार पर राष्ट्र का बंटवारा करना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि इन दोषों ने अपनी शत्रुता को इतना बढ़ा दिया है कि राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गई है। यदि राष्ट्र को खतरे से बचाना है तो व्यक्ति से इन भयंकर दोषों को दूर हटाना होगा। ऐसी दशा में केवल शिक्षा ही ऐसा साधन है जिसके द्वारा संकीर्णता को दूर करके विशाल ह्रदयता की भावना को विकसित करके शत्रुता के स्थान पर प्रेम का पाठ पढ़ाया जा सकता है। स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरु का मत है – “ राष्ट्रीय एकता के प्रश्न में जीवन की प्रत्येक वस्तु आ जाती है। शिक्षा का स्थान इन सबसे उपर है और यही आधार है। “

(4) भावनात्मक एकता – जिस प्रकार राष्ट्रीय विकास के लिए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता है, उसी प्रकार राष्ट्रीय एकता के लिए भावनात्मक एकता की आवश्यकता है। भारत विभिन्नताओं का देश है। यहाँ पर विभिन्न भाषायें परम्परायें, धर्म, तथा रहन-सहन पाये जाते हैं। हम में से प्राय: प्रत्येक व्यक्ति दूसरों को तुलना में केवल अपनी भाषा तथा रीति-रिवाज एवं धर्म को सबसे अच्छा समझता है। इस संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण हम सब में इतना मन-मुटाव हो जाता है कि कभी-कभी लडाई-झगडे भी हो जाते हैं। ऐसे समय पर शिक्षा हमें उस राष्ट्रीय-सम्पति का ध्यान दिलाती है जिसके विषय में हम सब एक मत हैं तथा जो हम सब को एकता के सूत्र में बांधती है। यही राष्ट्रीय सम्पति का आदर्श राष्ट्र में भावनात्मक एकता को विकसित में सहायता देता है। स्पष्ट है भावनात्मक शिक्षा केवल शिक्षा के द्वारा ही विकसित किया जा सकता है। अत: शिक्षा का कार्य राष्ट्रीय जीवन में भावनात्मक एकता को विकसित करना है।

(5) राष्ट्रीय अनुशासन – किसी भी राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधकर उसे पूर्णरूपेण विकसित करने के लिए राष्ट्रीय अनुशासन परम आवश्यक है। अत: शिक्षा का कार्य राष्ट्रीय अनुशासन को विकसित करना है। भारत अब स्वतंत्र है। इस महान राष्ट्र की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लये परिश्रम तथा सतर्कता के साथ-साथ संगठन, कुशलता, एवं बलिदान आदि गुणों की भी आवश्यकता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि उक्त गुणों के विकसित होने से ही राष्ट्रीय अनुशासन का जन्म होता है। अत: भारतीय शिक्षा को रष्ट्रीय अनुशासन के कार्य में सहयोग देना चाहिये। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है –“ जनतंत्र सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता जब तक सभी आदमी, केवल एक विशेष वर्ग के ही नहीं अपने-अपने उत्तरदायीत्व को निभाने के लिए प्रशिक्षित नहीं किये जाते और इसके लिए अनुशासन प्रशिक्षण की आवश्यकता है।”

(6) नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों की भावना का समावेश – भारत एक धर्म-निरपेक्ष गणराज्य है इसको सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति नागरिक के रूप में राष्ट्र के प्रति तथा व्यक्ति के रूप में समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे। अत: शिक्षा का कार्य बालक में नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों की भावनाओं को विकसित करना है जिससे आज का बालक कल के नागरिक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करके राष्ट्रीय विकास में यथाशक्ति योगदान दे सके।

(7) नैतिकता का प्रशिक्षण – नैतिकता प्रत्येक राष्ट्र की बहुमूल्य सम्म्पति है। अत: शिक्षा का कार्य बालक को नैतिकता का प्रशिक्षण देना है प्रसन्नता की बात है की हमारा देश नैतिकता की दौड़ में विश्व के सभी देशों से सदैव आगे ही रहा है, परन्तु खेद की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अब राष्ट्रीय जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अनैतिकता का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है। ऐसी दशा में राष्ट्र के विकास को दृष्टी में रखते हुए भारत के नागरिकों के लिए नैतिक प्रशिक्षण और भी आवश्यक हो जाता है। शिक्षा बालक के अन्दर सत्य, प्रेम , त्याग आदि अनेक वांछनीय गुणों को विकसित करके नैतिक विकास करती है। अत: भारतीय शिक्षा को चाहिये कि वह राष्ट्र को विकसित करने के लिए पहले सबका नैतिक विकास करे।

(8) कुशल श्रमिकों की पूर्ति – आज के भौतिकवादी युग में प्रत्येक राष्ट्र की श्रेष्ठता का मुल्यांकन उसकी राष्ट्रीय सम्म्पति से किया जाता है। आदि राष्ट्रीय सम्म्पति संतोषजनक है तो वहाँ के नागरिकों का रहन-सहन भी संतोषजनक होगा, अन्यथा नहीं। इसीलिए प्रत्येक राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय सम्म्पति बढ़ाने के लिए अपने व्यापारों तथा उद्योगों को बढ़ाने का प्रयास करता है। इस महान कार्य को पूरा करने के लिए कुशल श्रमिकों का होना परम आवश्यक है। अत: हमारी शिक्षा का आठवाँ कार्य कुशल श्रमिकों की पूर्ति करना है जिससे राष्ट्रीय सम्पति में वृधि होती रहे तथा राष्ट्र समृधिशाली बन जाये।

(9) राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता – प्रत्येक राष्ट्र को जीवित रहने के लिए यह आवशयक है कि वहाँ के नागरिक अपने हितों की अपेक्षा राष्ट्र हित को प्राथमिकता दें। अत: राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य नागरिकों को इस प्रकार से प्रशिक्षित करना है कि वे अपने निजी हितों की अपेक्षा राष्ट्रहित को प्राथमिकता देते रहें। अन्य राष्ट्रों अपेक्षा भारत में शिक्षा को इस ओर विशेष ध्यान देना है। इसका कारण यह है कि भारतीय समाज ऐसे अनके वर्गों तथा राजनीतिक दलों में बंटा हुआ है जो राष्ट्रीय की आड़ में सदैव अपने-अपने हितो को पूरा कनरे के लिए एक-दुसरे से टकराते रहते हैं। केवल शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा इन सभी वर्गों तथा दलों को राष्ट्र कल्याण के लिए तैयार किया जा सकता है।

(10) सामाजिक कुशलता की उन्नति – प्रत्येक राष्ट्र का कल्याण इस बात में हिया की वहाँ के नागरिक सामाजिक दृष्टि से कुशल एवं उन्नतिशील हों। अमरिका के प्रोफेसर बागले के अनुसार सामाजिक दृष्टि से कुशल वह व्यक्ति होता है जो राष्ट्र के लिए भार न हो, दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप न करे तथा जो समाज की उन्नति में यथाशक्ति योग देता रहे। इस दृष्टी से भारत में राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य बालकों में सामाजिक कुशलता की उन्नति करना है। इस महान कार्य को शिक्षा उन व्यापारों तथा  उधोगों में बालक को प्रशिक्षित करके पूरा कर सकती है जो समाज अथवा राष्ट्र के लिए उपयोगी हों।  

स्त्रोत: शिक्षा के सिद्धान्त,ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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