मौर्य-शुंग
तीसरी-दूसरी शती ईसवी पूर्व
मथुरा, उत्तर प्रदेश
प्रस्तर, व्यास : 10 से.मी.
पंजीयन संख्या : 2471
इस चक्राकार प्रस्तर पर सजावटी चिह्नों का अंकन किया गया है, जिसे कलाकार ने बहुत खूबसूरती से केन्द्र बिन्दु से निकालकर चारों ओर फैलती हुई पत्तियों को वृत्ताकार कृति के रूप में प्रदर्शित किया है तथा इसके सिरे अर्द्ध-वलयाकार हैं। इस प्रकार के चिह्न भारत में प्राचीन सिक्कों पर भी देखने को मिलते हैं जिन्हें आहत मुद्रा कहा जाता है।
तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक के क्षेत्र से इस प्रकार की प्रस्तर निर्मित अंगूठियां (प्रस्तर के गोल टुकड़े जिसके केन्द्र में एक बड़ा छिद्र होता है ) एवं चक्राकार प्रस्तर प्रायः प्राप्त होते है। ये आकार में छोटे हैं किन्तु वास्तविक सुन्दरता के उदाहरण प्रस्तुत करते है। ये प्रस्तर-निम्न-उद्भूत कला में कारीगरों की उत्कृष्ट कारीगरी को भी प्रदर्शित करते है। बड़ी मात्रा में इन कलाकृतियों पर अनेक प्रतीकात्मक चिह्न देखने को मिलते हैं, जिन पर पुष्प, पशु एवं वस्त्रहीन मातृदेवियों को अंकित किया गया है। इन कलाकृतियों के प्रयोग के संबंध में विवाद रहा है। किन्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग हेतु इनको बनाया जाता रहा होगा।
रेशम, ज़री, चमड़ा
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, 19वीं सदी
माप : परिधि 57; ऊंचाई 13 से.मी.
अवाप्ति संख्या : 63.401
टोपी, सिली हुई, शिरोवस्त्र है जिसका प्रचलन 19वीं सदी के मध्य में दक्षिण एशियाई देशों में काफी लोकप्रिय हुआ, यद्पि इसका इतिहास प्राचीन है। लंबे कपड़े को मोड़कर और लपेटकर प्राचीन काल में लोग अपने सिर को ढ़कते थे जिसे पगड़ी कहा जाता था। दक्षिण एशिया के कई समुदायों में पुरुष वर्ग धार्मिक, आनुष्ठानिक, सौंदर्यपरक अथवा दैनिक जीवन में इस प्रकार की पगड़ी का प्रयोग करते रहे हैं। प्राचीन प्रतिमाओं में पगड़ी बांधने के तरीके एवं साहित्य में पगड़ी के लिए उपयुक्त होने वाले विभिन्न प्रकार के कपड़ें का प्रसंग मिलता है।
यह दोपल्ली टोपी बनी है जो तहदार टुकड़े, जिसे ऊपर की तरफ से गोलाकार टुकड़े से जोड़ा गया है। पुष्पीय पैटर्नों को चांदी के तारों से कढ़ाई द्वारा इसे सजाया गया है। कढ़ाई के लिए 'चेन टांका' एवं 'जालीदार काम' का प्रयोग किया गया है। महीन सुन्दर फूलदार पैटर्नों के काम को देखकर लगता है कि इसका प्रयोग 19वीं सदी में उत्तरी भारत के किसी प्रांतीय दरबार, सम्भवत: अवध, में रहा होगा। प्राय: लोगों के समुदाय, जाति धर्म को भी पहचानने में ये टोपियां सहायक होती है।
भरतपुर, राजस्थान
4थी−5वीं शती ई.
ताम्र
23.5 x 17.5 से. मी.
51.51
यह ताम्र पात्र बयाना निधि के ताम्बे के कलश के नाम से प्रचलित है। बयाना निधि के इस ताम्बे के कलश में गुप्त काल केस्वर्ण सिक्के निहित थे। भारतीय ऐतिहासिक सिक्कों का यह कलश संयोगवश 1946 में भरतपुर राज्य में बयाना के हुलनपुर नामक ग्राम के चरवाहों के हाथ लगा था। इस ताम्र कलश और उसमें निहित सिक्कों के महत्त्व को समझकर भरतपुर के महाराजा ने इसे तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के माध्यम से राष्ट्रीय संग्रहालय को 1951 मे भेंट किया था। यह महत्वपूर्ण खोज देश के गौरवपूर्ण इतिहास के हित में प्रत्येक नागरिक की सजग भागेदारी, कर्तव्य परायणता पुरावशेषों और देश के इतिहास की रक्षा के प्रति निष्ठा का एक आदर्श उदाहरण है। बयाना निधि से प्राप्त इन मुद्राओं ने भारत के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं को उजागर कर भारत की महिमा में एक नया अध्याय जोड़ दिया है।
बयाना निधि के इस कलश में से कुछ राजवंशों के साथ-साथ प्रमुखत: गुप्त काल में सिक्कों के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण सामने आये जिनके अध्ययन द्वारा कालक्रम, वंशावली, लाक्षणिक निर्धारीकरण आदि प्रश्नों का समाधान सम्भव हो पाया है। गुप्तवंश के सिक्कों की विभिन्नता को कई प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। सिंहासनारूढ चन्द्रगुप्त द्वितीय, सिंहनिहन्ता, गजारूढ, वीणावादक आदि इनके कुछ प्रकार हैं। ताम्र कलश के साथ लगी स्वर्ण सिक्कों की प्रतिछवि गुप्तवंश के सिक्कों में अलंकरण, संरचना, अभिलेख, प्रतीक एवं चिन्ह के साथ-साथ सिक्कों के अद्वितीय सौन्दर्य का भी परिचय देती है। इनसे गुप्त काल के सिक्कों की तकनीक एवं प्रतीकात्मकता स्पष्ट होती है।
ताम्र कलश की इस महत्त्वपूर्ण खोज के लिए हुलनपूर के चरवाहों और भरतपुर के महाराजा दोनों का ही योगदान तो स्मरणीय है ही साथ ही डा. ए. एस. आल्तेकर और डा. बी. सी. एच. छाबडा के इस कलश से प्राप्त सिक्कों को सूचीबद्ध कर गहन अध्ययन, और अनुसंधान कार्य द्वारा ही गुप्त राजवंश के इतिहास का विस्तृतीकरण हो पाया है।
हिमाचल प्रदेश
20 वी शती
मिश्रित धातु
लम्बाई 22.5 से.मी., चौड़ाई 13.5 से.मी.
अवाप्ति संख्या 94.102
मोहरा धार्मिक पट्टिका होती है और ग्रामीण श्रद्धालुओं मे धार्मिक विश्वास को बढ़ाने में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। मन्दिर से विशाल एवं भारी मूर्तियों को लेजाना आसान नहीं है। इसलिए मुख्य धार्मिक समारोहों पर इन पट्टिकाओं को सजे-धजे रथों पर आदर के साथ भक्तों द्वारा जुलूस मे ले जाया जाता है।
पूर्वकाल में इन प्रतिमाओं को अष्ठधातु में ढाला जाता था यद्यपि पीतल और तांबे का भी सामायन्तः प्रयोग किया जाता था। प्रायः इन्हें परिवार एवं व्यक्तियों द्वारा मृत्युस्मरणोत्सव आदि पर स्थानीय मन्दिरों में भेंट किया जाता है।
मोहरों में प्रायः शिव एवं देवी की विभिन्न मुद्राओं में आकृतियां अंकित होती हैं। इस धार्मिक पट्टिका पर शिव एवं उनकी पत्नी पार्वती की संमामेलित प्रतिमा "अर्द्धनारीश्वर" का अंकन किया गया हैं।
कोंडापल्ली, आंध्रप्रदेश, परवर्ती 19वीं शती
काष्ठ, उत्कीर्णित, चि़त्रित
मापः 16 x 13.7 x 6 से.मी.
अवाप्ति सं. 58.25/20
साहित्यिक संदर्भ में बुर्राक़ का अर्थ हैः- ‘बिजली’। यह एक लौकिक पशु है। बिजली की गति से उड़ने के कारण इसका यहतथाकथित नाम पड़ा। इस्लामिक स्रोतों के अनुसार यह लम्बा, सफेद तथा सुन्दर मुख वाला पशु है। इसका आकार घोड़े की तरह होता है, इसके पंख होते हैं तथा इसका एक पैर यदि यहां है तो दूसरा पैर उस जगह होता है जहां तक हमारी नज़र जाती है। मुसलमानों का मानना है कि मैराज के दौरान बुर्राक़ ने पैग़म्बर मोहम्मद साहब को मक्का से येरूशलम स्थित अल-अक़्सा मस्जिद तथा सातों स्वर्ग की यात्रा करायी थी तथा उन्हें वहां से वापस मक्का पहुंचाया था।
पूर्वी और पारसी कला में बुर्राक़ को लगभग हमेशा मानवीय मुख के साथ चित्रित किया जाता है। 15वीं शती से इसका चित्रण भारतीय और पारसी इस्लामिक कला में किया जाने लगा। हालांकि पूर्व इस्लामिक स्रोतों में कहीं भी इसके मानवीय स्वरूपों का वर्णन नहीं किया गया है। प्रायः दक्कन के कलाकार इस तरह के विषय को न केवल काग़ज़ पर अपितु काष्ठ, धातु तथा वस्त्र जैसे अन्य माध्यमों पर भी चित्रित करते थे।
इस चित्रित बुर्राक़ का सिर महिला स्वरूप है, धड़ अश्व स्वरूप है, पैर व पंख पक्षी स्वरूप हैं तथा पूंछ ऊंट शीर्ष युक्त है। इस तरह के सुसज्जात्मक काष्ठ खिलौने आंध्र प्रदेश के कोंडापल्ली में निर्मित किए जाते थे। कोंडापल्ली और निर्मल, खिलौने व अन्य काष्ठ निर्मित कलाकृतियों के उत्पादन के प्रसिद्ध केन्द्र थे। ये हल्के काष्ठ (पुंकी) से निर्मित होते थे तथा इस पर जीवंत रंगों से चित्रण किया जाता था। इस तरह के खिलौने परंपरा के रूप में पर्व-त्यौहारों में सजाने के लिए बनाए जाते थे।
पाल काल, 10वीं शताब्दी
नालंदा, बिहार
कांसा, 20.7x11 x 9.5 से.मी.
अवाप्ति सं. 47.39
बौद्ध परंपरा में मैत्रेय को भावी बुद्ध के नाम से जाना जाता है। ये मूल ऊर्जा, जीवन शक्ति और सौहार्द को विकीर्णित करते हैं।मैत्रेय को तुषित स्वर्ग में निवास करने वाले बोधिसत्व भी कहा जाता है जो अपने अगले जन्म की प्रतीक्षा में हैं। ये स्वतंत्र देवता भी हैं जिनकी उपासना हीनयान और महायान, दोनों ही मतावलंबियों द्वारा की जाती है।
यहां बोधिसत्व मैत्रेय दोहरे कमल की पीठिका पर ललितासन में बैठे हैं। इस पीठिका का ऊपरी भाग मोतियों वाले किनारे से सज्जित है और निचला भाग साधारण है। प्रतिमा का दाहिना पैर पीठिका से निकलते हुए छोटे कमल पुष्प पर टिका हुआ है। बोधिसत्व मैत्रेय के हाथ में नागकेशर पुष्प है और दाहिना हाथ वरद मुद्रा में है। इनके चेहरे पर हलकी-सी मुस्कान है। बोधिसत्व मैत्रेय की सौम्य मुखाकृति है। इन्होंने धोती धारण की हुई है जिसे कटिसूत्र से बांधा गया है। प्रतिमा ने अनेक प्रकार के आभूषण जैसे मोतियों से युक्त कंठहार, कंगन और बाजूबंद धारण किए हुए हैं। इनकी लंबी केशराशि कंधों तक लटक रही हैं। जटामुकुट के सामने छोटा-सा स्तूप उत्कीर्ण है। मोतियों से युक्त किनारे वाले प्रभामंडल पर नुकीले छोरों वाला एक छत्र भी है। ये प्रकाश की किरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
असम
20वीं शताब्दी का मध्य काल
सूती वस्त्र ; बुना हुआ
लं. 110 ; चौ. 25.5 से.मी.
अवाप्ति सं. 59.216/4
हथकरघे पर बुने गए सूती वस्त्र से निर्मित इस कमरबंद को स्थानीय रूप से टोंगाली कहा जाता है। इस टोंगाली के मुख्य भाग पर ज्यादा सजावट नहीं की गई है लेकिन किनारे तक आते-आते इसे काले और लाल रंग की सुंदर बूटियों से सजाया गया है। इसका किनारा लाल रंग से बुना गया है। इसके छोर पीले रंग की पृष्ठभूमि में लाल रंग के ज्यामितीय डिजाइनों से युक्त हैं। दोनों किनारों के छोर पर ‘दोही-बोटा’ हैं।
टोंगाली पुरुषों द्वारा पहनी जाती है। पहले के समय में असम के योद्धा कमर में टोंगाली कसकर युद्ध के लिए निकलते थे। इस टोंगाली का एक साधारण रूप भी है जिसे खेतों में काम, नृत्य, आदि करते समय पहना जाता है। आज टोंगाली बांधने या कमर कसने को किसी काम के लिए तैयार होने के अर्थ में कहावत के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
परवर्ती पांचवीं शताब्दी, गुप्त-वाकाटक काल
फोफनार, मध्य प्रदेश
कांसा, आकार : 45.5x17x13.8 से.मी.
अवाप्ति सं. एल. 658
राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली
बुद्ध की यह कांस्य प्रतिमा 1964 में फोफनार गांव (मध्य प्रदेश में बुरहानपुर के समीप) से प्राप्त सात सुन्दर कांस्य प्रतिमाओं में से एक है। बुद्ध की यह प्रतिमा कमल पुष्प (जो अब विद्यमान नहीं है) पर खड़ी हुई है। इसकी आयताकार पीठिका पर फूलों के पैटर्न हैं। बुद्ध का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और बायें हाथ से उन्होंने एकांशिक संघाटी का किनारा पकड़ा हुआ है। इस प्रतिमा के नैन-नक्श विशिष्टत: गुप्तकाल के हैं – अंडाकार मुखाकृति, चांदी से खचित अर्धनिमीलित चक्षु, काले रंग से रंगी गई नेत्रों की पुतलियां, दीर्घीकृत कान, घुंघराले बाल और लहराती हुई संघाटी।
इस प्रतिमा की पीठिका पर तीन पंक्तियों का लेख भी है जिसका अनुवाद वेंकटरमैया (1964) ने इस प्रकार किया है: यह शाक्य भिक्षुकाचार्य भदंत बुद्धदास द्वारा दिया गया उपहार है। इस उपहार का श्रेय संभी संवेदनशील जनों तक पहुंचे।
तीसरी-चौथी शताब्दी
गंधार
गच, आकार : 24.5x16x15 से.मी.
अवाप्ति सं. 49.20/25
राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली
यह ध्यानमग्न बोधिसत्व शीर्ष गंधार शैली की गच प्रतिमा का उत्कृष्ट उदाहरण है। गंधार-स्वात-कपिश क्षेत्र उत्तरी भारत मेंहिंदुकुश पर्वत और सिंधु नदी के बीच पड़ता है। यह क्षेत्र शिस्ट प्रस्तर के अलावा गच निर्मित प्रतिमाओं के लिए भी प्रसिद्ध है। कलाकृतियों के निर्माण में गच का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया गया। गच की इन कलाकृतियों को बहुधा चमकीले लाल और काले रंग से सजाया जाता था।
इस बोधिसत्व प्रतिमा के तीखे नैन-नक्श, अर्धनिमीलित नेत्र, चापाकार भवें, लंबी नुकीली नाक, स्थूल अधरोष्ठ और गोलाकार ठोड़ी है। बोधिसत्व के केश बड़े ही कलात्मक ढंग से संवारे गए हैं – पत्ते के आकार की लटें जो पूरे ललाट पर फैली हैं और पट्टिका से बंधी हुई हैं। इसका उष्णीष मत्स्य शल्क प्रतीक से सज्जित है।
इस बोधिसत्व शीर्ष में यूनानी-रोमन कला तत्वों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। इसमें बड़े ही सजीव और प्रभावपूर्ण ढंग से मानवाभिव्यक्ति का चित्रण है।
मौर्य काल, तीसरी शताब्दी ई.पू.
उत्तरी भारत
ऊं. 22.5 से.मी.
मृण्मूर्ति, प्रतिरूपित और एप्लीक तकनीक
अवाप्ति सं. 83.127
भारत में प्राचीन काल से ही मातृदेवी की उपासना की जाती रही है। यह मातृत्व, उर्वरता और समृद्धि की देवी हैं। इस देवी कोसामान्यत: फैली हुई भुजाओं से युक्त दिखलाया जाता है। इसकी अनेक रूपों में उपासना की जाती है।
मातृदेवी की इस प्रतिमा ने कुंडल, हार और अलंकृत मेखला धारण की हुई है। इसके शिरोवस्त्र पर मौर्य-शुंग शैली में पुष्प प्रतीकों से युक्त गोलाकार फलक बने हुए हैं। ये सभी एप्लीक तकनीक से बनाए गए हैं। प्रतिमा के टखने के नीचे का भाग विद्यमान नहीं है। मौर्य काल में मथुरा और कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश), पाटलिपुत्र (बिहार) और गंगा घाटी के अनेक स्थलों पर प्रचुर मात्रा में मातृदेवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया गया।
हड़प्पा, 2700-2100 ई.पू.
आकार : 5.0x4.0x2.0 से.मी.
मृण्मूर्ति, अवाप्ति सं. 3072/388
योग, संस्कृत का शब्द है जो परमात्मा से आत्मा के मिलन और इसकी प्राप्ति का मार्ग बताता है। योग का पहला उद्देश्य आत्मा को इस लौकिक जगत से मुक्त करना है। भारतीय दर्शन के सभी संप्रदायों (बौद्ध और जैन सहित) द्वारा योग को स्वीकार किया गया है। हड़प्पा (अब पाकिस्तान में) से योगासन (योग या शारीरिक व्यायाम) करती हुई कुछ पुरुष लघुप्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जो इस बात की पुष्टि करती हैं कि हड़प्पा वासियों को योग की जानकारी थी।
दूधिया रंग की यह हस्तप्रतिरूपित पुरुष लघुप्रतिमा पुराविद् श्री एम.एस. वत्स को उत्खनन में प्राप्त हुई थी। योग मुद्रा में बैठी हुई इस पुरुष आकृति के पैर फैले हुए हैं और घुटने थोड़े-से ऊपर को उठे हुए हैं। इसका सिर और नमस्कार मुद्रा में जुड़े हुए हाथ, उपासना या योग मुद्रा में हैं। प्रतिमा के पैरों का कुछ भाग विद्यमान नहीं है। इसका सिर, मुख और नाक चिकोटी से दबाकर बनाए गए हैं और दोनों आंखों को गोलाकार गुटिकाओं द्वारा दर्शाया गया है। इसके हाथों की अंगुलियां स्पष्टत: नहीं दिखाई देतीं। यह पुरुष आकृति दुबली-पतली और सपाट है। इसका त्रिभुजाकार माथा चिकोटी से दबाकर बनाया गया है। आकृति के चेहरे के भाव स्पष्ट नहीं हैं। आरंभिक भारतीय कला में योग मुद्रा में पुरुष आकृतियों के उदाहरण दुर्लभ हैं। हड़प्पा की मृण्मय लघुप्रतिमाओं में परिधान, आभूषण और शिरोवस्त्र जैसी पारंपरिक सजावट का अभाव है।
योग के महत्व को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 21 जून को विश्व योग दिवस घोषित किया गया है।
रेशम, ज्ररी का धागा, चांदी
उत्तरी भारत, परवर्ती 20वीं शताब्दी
आकार : लं. 37 ; चौ. 23 से.मी.
अवाप्ति सं. 87.697
पंखा भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है जिसका उपयोग गर्मी और उमस से राहत पहुंचाने के लिए किया जाता है। ताड़ के पत्ते, कपड़े, हाथी दांत, कांसे, चांदी या कांच के मनकों से लोगों को पंखे बनाने के लिए प्रेरणा मिली। विभिन्न आकारों में बने ये पंखे बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाए और सजाए जाते रहे हैं।
ऐसा माना जाता है कि हाथ से झलने वाले पंखों की परंपरा चीन में दूसरी शताब्दी ई.पू. में शुरु हुई थी। लेकिन भारत में इसका प्रचलन कब शुरु हुआ इसके कोई निश्चित प्रमाण नहीं हैं। तथापि, मौर्यकाल (तीसरी शताब्दी ई.पू.) में चंवर के रूप में इस तरह की परंपरा प्रचलन में थी। ये चंवर, सूती धागों, चांदी के तारों अथवा याक के बालों से बनाए जाते थे और धार्मिक अनुष्ठानों और राजसी समारोहों के दौरान प्रयोग में लाए जाते थे। भारतीय कला में पंखे का आरंभिक रूप पत्तीनुमा पंखे में देखने को मिलता है। 18वीं-19वीं शताब्दी के लघुचित्रों में अर्धचंद्राकार पंखे देखने को मिलते हैं। पंखे से संबंधित अनेक रीति-रिवाज भी हैं।
यह अर्धचंद्राकार पंखा दो भागों में बना हुआ है। पहला भाग रेशमी कपड़े से निर्मित है और दूसरा भाग चांदी का हत्था है। पंखे वाले भाग के दोनों तरफ हरे और बैंगनी रंगों पर जरी के धागों, कटोरी और सितारों का काम किया गया है। पंखे के बीच में अर्धचंद्र और सितारे हैं जिनके चारों ओर बेलबूटे हैं। इसका किनारा चांदी के तारों से सजा हुआ है और हत्था संभवत: सरकंडे से बना है। इसका निचला भाग चांदी से आवृत्त है। पूरे पंखे पर तिरछी पट्टियां हैं। 18वीं-19वीं शताब्दी के राजस्थानी, मुगल या दकनी शैली के लघुचित्रों में इस प्रकार के पंखे देखने को मिलते हैं।
400-500 ई.
ऊं. 19.5 से.मी.
नज्का संस्कृति, पेरु का दक्षिणी तट, दक्षिण अमेरिका
अवाप्ति सं. 67.335
सिरामिक का यह पात्र पेरु के तटीय क्षेत्र के निवासियों द्वारा विकसित की गई तकनीक का उदाहरण है। इस गोलाकार पात्र पर दो घुंडियां हैं और बीच में एक हत्था लगा हुआ है। पराकास संस्कृति (लगभग 400ई.) के लोगों ने सबसे पहले इस प्रकार के पात्रों का निर्माण किया और बाद में नज्का लोगों ने इस तकनीक को अपनाया।
यह पात्र दक्षिणी पेरु के सिरामिक पात्रों का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के पात्र कुंडली पद्धति से बनाए जाते थे फिर उन पर अनेक रंग का लेप चढ़ाया जाता था जिससे कि पात्र को भट्टी में पकाने से पूर्व उस पर बहुरंगी प्रभाव उत्पन्न हो सके। पराकास और नज्का, दोनों ने ही आनुष्ठानिक प्रयोजनों के लिए इस प्रकार के पात्रों का प्रयोग किया। शवाधानों से इस प्रकार के पात्र मिले हैं।
इस पात्र के ऊपरी भाग पर लयात्मक पैटर्न में काल्पनिक पशु आकृतियां अंकित हैं। इस पर अंकित प्राणी के अंग आपस में गुंथे हुए हैं। पात्र के निचले भाग पर स्त्री मुखाकृतियां अंकित हैं जो नज्का के पात्रों पर मिलने वाला सामान्य अभिप्राय है। ये संभवत: आनुष्ठानिक मुखौटे थे।
नज्का के सिरामिक कलाकार यूरोपीय लोगों से संपर्क में आने से पूर्व ही अमेरिकाज की किसी अन्य संस्कृति के मुकाबले अधिक रंगों का प्रयोग करने लगे थे।
नाथद्वारा, राजस्थान, 19वीं शताब्दी
काष्ठ, उत्कीर्णित
अवाप्ति सं. 85.16
जयदेव की कृति गीत गोविंद में राधा-कृष्ण की अमरप्रेम गाथा का चित्रण है। गीत गोविंद ने अनेक कलाकारों को इस दैवी प्रेम के अंकन के लिए प्रेरित किया है। इस विषय-वस्तु को भिन्न-भिन्न कलाकारों द्वारा प्रस्तर और काष्ठ पर उत्कीर्णित एवं कागज और काष्ठ पर अनेक शैलियों में चित्रित किया गया है।
राधा के केश संवारते हुए कृष्ण इसी प्रकार का एक दृश्य है जिसका राजस्थानी अथवा पहाड़ी लघुचित्रकारों द्वारा 18वीं-19वीं शताब्दी में बहुधा अंकन किया गया है। गीत गोविन्द में उल्लिखित है कि एक बार कृष्ण को राधा की सखि से यह पता चलता है कि अन्य गोपियों के साथ कृष्ण की घनिष्ठता से दु:खी होकर राधा ने अन्न-जल त्याग दिया है। उन्होंने आभूषण पहनने भी छोड़ दिए हैं और वन्य प्रदेश में चली गई हैं। कृष्ण राधा को वन में तालाब के किनारे ढूंढ लेते हैं। राधा को प्रसन्न करने के लिए कृष्ण उनके केश, आदि संवार कर उन्हें सजाने-संवारने लगते हैं।
राजस्थान से प्राप्त इस लघु काष्ठ फलक पर इसी विषय-वस्तु का सुन्दर ढंग से अंकन किया गया है। कृष्ण कुंज में मंडप के नीचे बैठे हुए हैं। यहां कछुआ और अन्य जलचर भी दिखाई दे रहे हैं। कृष्ण चौकी पर बैठी हुई राधा के केश संवार रहे हैं। कृष्ण और राधा दोनों ने ही नाथद्वारा शैली के परिधान और अनेक आभूषण धारण किए हुए हैं। फलक का ऊपरी भाग केले और पुष्पित वृक्षों से सज्जित है। इन पर तोता, गिलहरी और अन्य पक्षियों का अंकन बड़े ही कलात्मक ढंग से किया गया है। इससे पूरा दृश्य जैसे जीवंत हो उठा है।
फलक के दोनों तरफ के छोटे किनारे और छोटी कीलें यह संकेत करते हैं कि यह किसी बड़े फलक का भाग अथवा संभवत: किसी प्रसाधन पेटिका का पार्श्व फलक रहा होगा।
20वीं शताब्दी
लद्दाख
कपाल की हड्डी, धातु, अल्पमूल्य रत्न
ऊं.13.5 सें.मी.
अवाप्ति सं. 96.559
यह कपाल निर्मित डमरु है जिसे कमर पर बांधा जाता है। यह दो अर्धगोलीय कपाल अस्थियों का प्रयोग कर प्रवीणता से बनाया गया है। इसके दोनों सिरों पर पतली चमड़ी की सतह बनी हुई है जिससे तार में पिरोए हुए मोती आपस में टकराएं और उनसे ध्वनि उत्पन्न हो। मध्य भाग, जहां दोनों कपाल अस्थियां जुड़ी हुई हैं, पर मूंगे और फिरोज़े जैसे अल्पमूल्य रत्नों से जटित धातु की पट्टिका है। डमरु के एक सिरे पर कपड़े के लंबे रिबनों के लिए धातु का लूप लगाया गया है जो अतिरिक्त सजावटी वस्तु मात्र नहीं है अपितु डमरु को कमर पर बांधने का काम भी करता है। इस प्रकार के डमरु साधारणत: आनुष्ठानिक प्रयोजनों और तीर्थयात्राओं के दौरान प्रयोग में लाए जाते थे।
परवर्ती 18वीं शताब्दी
पंजाब
स्टील, सोना, मखमल ; दमिश्की काम
व्यास : 17.5 से.मी.
अवाप्ति सं. 59.71
यह ऊपर को मुड़े हुए मोतियों वाले बॉर्डर से युक्त स्टील निर्मित छोटी ढाल है। इसकी बाहरी सतह सोने के दमिश्की काम(कोफ्तगरी तकनीक) से युक्त बेलबूटेदार डिजाइनों से सुसज्जित है। तलवार के मध्य भाग में अपनी किरणें बिखेरते हुए सूर्य की आकृति अंकित है जो अब विरूपित हो चुकी है। ढाल के अग्रभाग पर दांतेदार किनारों से युक्त गुंबद के आकार के धातुनिर्मित चार उभार हैं। इन्हें भी कोफ्तगरी तकनीक से बनाया गया है। इसके आंतरिक भाग पर रुई से भरा हुआ पीले रंग का मखमली कुशन है। इसे चार गोल पेंचों से कसा गया है। कोफ्तगरी का काम कई जगहों पर खराब हो गया है। अंदर का अधिकतर भाग साधारण है। राजकुमारों द्वारा अभ्यास के समय इस प्रकार की ढालों का इस्तेमाल किया जाता था। यह ढाल शिल्पकारिता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
तिब्बत
20वीं शताब्दी
चांदी, अल्पमूल्य रत्न; ढाला हुआ, जड़ित
आकार : ऊं. 19.5; चौ. 18 से.मी.
अवाप्ति सं. 94.115/1,2
यह एक आनुष्ठानिक पात्र है। इसके ढक्कन को अलग किया जा सकता है। पात्र के दोनों तरफ़ दो हत्थे हैं। इसे चांदी में ढालागया है और इस पर उत्कीर्णन और उच्च उभार में प्रतीक अंकित हैं। पात्र की गर्दन पर उच्च उभार में पत्तियों के पैटर्न हैं और उनके बीच में प्रतीक हैं। पात्र की गर्दन के ठीक नीचे उच्च उभार में मंगल प्रतीकों की पंक्ति और एक छोड़कर एक पत्तियों वाले पैटर्न हैं। इस आनुष्ठानिक पात्र की सबसे अनुपम विशेषता है – फिरोज़े, लैपिस लाजुली और मूंगे का जड़ाऊ काम। पात्र के मुख्य भाग पर (पृष्ठ और अग्रभाग, दोनों पर) उच्च उभार में ड्रेगन अंकित हैं। पात्र का ढक्क्न भी अल्पूल्य रत्नों से जड़ित है। ढक्कन के ऊपर बारीक काम से युक्त घु्ंडी है। पात्र का हत्था भी बहुत आकर्षक है।
इस पात्र का उपयोग संभवत: गिरजाघरों और मठों में पवित्र जल रखने के लिए किया जाता रहा होगा।
890 ई., तुनहुआंग
काग़ज़ आकार : 13.7 x 12.7 से.मी.
अवाप्ति सं. सी.एच viii.002 (2003/17/241)
बौद्ध दर्शन में चार लोकपालों का उल्लेख मिलता है। ये हैं – पूर्व दिशा में धृतराष्ट्र, पश्चिम में विरुपाक्ष, उत्तर में वैश्रवण औरदक्षिण दिशा में विरुद्धक। ये सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में अपने-अपने राज्यों की रक्षा करते हैं जबकि इन्द्र इस पर्वत की चोटी के रक्षक हैं। बुद्ध इन चारों लोकपालों को बुलाते हैं और बुराई के समय धर्म की रक्षा करने के लिए कहते हैं। ये लोकपाल कलारूपों में भी दिखलाई देते हैं। दूसरी शताब्दीं ई.पू. में भरहुत की वेदिका पर इनका सर्वप्रथम अंकन देखने को मिलता है। पहली शताब्दीप ई.पू. के समापन काल से सांची के द्वार पर भी इनकी उभारदार आकृतियां देखी जा सकती हैं। तुनहुआंग, चीन के चित्रों में भी इनकी आकृतियां देखने को मिलती हैं।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक, प्रज्ञापारमिता हृदय सू्त्र के इस सचित्र पन्ने पर लोकपाल विरुपाक्ष का चित्रांकन है। इसका पाठ चीनी लिपि में है। विरुपाक्ष को दानव पर बैठे हुए दर्शाया गया है। उसका दाहिना हाथ जंघा पर है जबकि दाहिने हाथ में अनावृत्त तलवार है। चित्रांकन में लंबी सफ़ेद दाढ़ी और मुकुट भी देखा जा सकता है। विरुपाक्ष की यह आकृति पूरी तरह से अस्त्र -शस्त्र से लैस और बूट पहने हुए है। एक परिचर को विरुपाक्ष के पीछे खड़े हुए दर्शाया गया है। इस पांडुलिपि में सुन्दर चित्र ही नहीं हैं अपितु यह दिनांकित भी है। प्रथम तल पर मध्य एशियाई पुरावशेष वीथिका में इसी पांडुलिपि का एक अन्य पन्ना भी प्रदर्शित है जिसमें लोकपाल वैश्रवण को दर्शाया गया है। यह स्पष्ट रूप से पड़ोसी देशों में भारतीय कला और दर्शन की पैठ को दर्शाता है जिसकी व्यापकता सुदूर पूर्व में जापान तक थी।
यहां प्रदर्शित आहत—सिक्का भारत के प्राचीनतम सिक्कों में से एक है। ई्.पू. छठी शताब्दी के बाद प्राचीन भारतीय जनपदों में इस प्रकार के सिक्के लगभग 400 वर्षों तक चलते रहे।
यहां प्रदर्शित सिक्के पर फूलों की आकृतियां अंकित हैं। इस प्रकार की विभिन्न आकृतियों का चांदी के टुकड़ों पर अंकन कर उन्हें अलग—अलग रूप एवं आकार प्रदान कर सिक्कों के रूप में जारी किया जाता था। भारत में प्रचलित विभिन्न प्रकार के प्राचीन और आधुनिक सिक्कों का संकलन संग्रहालय की पहली मंजिल पर मुद्रा—वीथी में देखा जा सकता है।
18वीं शताब्दी, मैसूर
हाथीदांत, नक्काशीयुक्त और चित्रित
ऊं. 16.7 से.मी. और 16 से.मी.; चौ. (आधार) 4.7 से.मी.
अवाप्ति सं. 56.149/1-2
कलात्मक ढंग से नक्काशीयुक्त और सुन्दरता से रंगी हुई दम्पति की यह कलाकृति 18वीं शताब्दी में मैूसर की हाथीदांत परनक्काशी की परंपरा का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती है। सौम्य मुखाकृति वाले इस दम्पति ने पारंपरिक परिधान और आभूषण धारण किए हुए हैं। आठ कोणों वाली पीठिकाओं पर गरिमामय मुद्रा में खड़ी हुई इन आकृतियों को देखकर लगता है कि संभवत: इनका संबंध किसी कुलीन परिवार से रहा होगा।
मूंछधारी पुरुष ने विशेष प्रकार की पगड़ी, धोती, आभूषण और जूते पहने हुए हैं। उसके दाहिने हाथ में एक पुष्प है। उसकी धोती गहरे मैरून रंग की है जिसे सुनहरी बूटियों वाले पटके से बांधा गया है। पुरुष आकृति ने अनेक मालाएं, बाजूबंद, तोड़े और यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है।
स्त्री आकृति ने भी दाहिने हाथ में फल/फूल पकड़ा हुआ है। उसने सुनहरी किनारे वाली मैरून रंग की साड़ी पहनी हुई है जिसे मेखला से बांधा गया है। स्त्री आकृति भी कुंडलों, सुन्दर शीर्षाभूषण, अलंकृत चोटी, अनेक मालाओं, बाजूबंद और तोड़ों से सुसज्जित है।
मैसूर के हाथीदांत पर नक्काशी करने वाले शिल्पकारों को देवी-देवताओं, राजपरिवार के व्यक्तियों, पशु आकृतियों आदि की आकृतियां तराशने में महारत हासिल थी। 18-19वीं शताब्दी में जब हाथीदांत पर रंगाई का प्रचलन हुआ तो मैसूर के शिल्पकारों ने भी इसे अपनाया और इस प्रकार की सुन्दर कलाकृतियों का निर्माण किया जिन्हें आज विश्वभर के अनेक संग्रहालयों में संजोकर रखा गया है।
19वीं शताब्दी का मध्य काल
फिरोज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
अपारदर्शी सफेद कांच, चित्रित
ऊं. 19.5 से.मी. ; चौ. 5.8 से.मी.
अवाप्ति सं. 57.31/17
‘गुलाबपाश’, ‘गुलाब’ एवं ‘पाश’ (पात्र) इन दो शब्दों से मिलकर बना है। राजा-महाराजाओं एवं कुलीन व्यक्तियों को गुलाब कीसुगन्ध बहुत भाती थी और वे इसका प्रयोग अनेक प्रकार से करते थे। गुलाब के सत्व का उपयोग भोजन बनाने, प्रसाधन सामग्री तैयार करने एवं दरबारी कार्यकलापों में प्रचुर मात्रा में किया जाता था। उत्तरी भारत के दरबारी शिष्टाचारों में सामाजिक कार्यक्रमों, अनुष्ठानों और त्योहारों के अवसर पर गुलाब जल छिड़का जाता था।
गुलाब जल की सुगन्ध को उसके उपयोक्ता की अभिरुचि और सामाजिक स्तर के अनुसार कांच, चांदी, सोना अथवा सोने का मुलम्मा चढ़े हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के गुलाबपाशों में परिरक्षित किया जाता था। कलाकारों ने अपनी कल्पना से विभिन्न आकार-प्रकार के गुलाबपाश बनाए जिनमें से अधिकतर का मुख्य भाग गोलाकार और छिद्रित नोकयुक्त लंबी गर्दन होती थी।
अपारदर्शी कांच से निर्मित यह गुलाबपाश पक्षी की आकृति में बनाया गया है। इसका दीर्घीकृत मुख्य भाग, सपाट और गोलाकार पूंछ, संकरे और टेढ़े-मेढ़े पंख हैं। पात्र का आधार तीन पैरों पर टिका है। गुलाबपाश का मुख्य भाग खोखला है जिस पर बोतल को गुलाब जल से भरने के लिए छोटी-सी उभारदार टोंटी और मुंह पर, गुलाबजल छिड़कने के लिए छोटा-सा छिद्र है। पक्षी की चोंच के ठीक नीचे छोटा-सा गड्ढा है जो संभवत: गुलाबपाश को मजबूती से पकड़ने के लिए बनाया गया है। सफेद अपारदर्शी आधार के ऊपर छोटी-छोटी बूटियां इसे और आकर्षक बना देती हैं। पात्र की पृष्ठभूमि में छोटे फूलदार डिजाइन इसकी सुन्दरता को और बढ़ा देते हैं। यह गुलाबपाश कांच निर्मित भारतीय कलाकृतियों का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है।
रागमाला पर आधारित
उणियारा, राजस्थान, 1770 ई.
काग़ज़, 35x24 से.मी.
अवाप्ति सं. 51.67/2
भारतीय शास्त्रीय संगीत के छह मुख्य रागों में से एक, राग हिंडोल का संबंध फाल्गुन मास के झूला उत्सव से है। हिंडोला कोझूला भी कहा जाता है। इसका संबंध श्रावण मास के तीज उत्सव से भी है जिसे समस्त उत्तर भारत में और विशेष रूप से राजस्थान में बड़े उत्साह से मनाया जाता है।
रागों के राजा हिंडोल को अति सुन्दर माना जाता है। वे पीतवर्णी परिधान धारण करते हैं। उनका श्वेत वर्ण पूर्ण चन्द्र की किरणों जैसा दीप्तिमान है। चित्रकार ने राग हिंडोल को सुनहरी झूले पर एक बड़ी मसनद से टेक लगाकर बैठे हुए दर्शाया है। उनके हाथ में वीणा और पुष्प हैं। उनकी पगड़ी सरपेच और अन्य अलंकरणों से सुसज्जित है। दाढ़ी-मूंछ और मोती के बड़े-बड़े कुंडल उनकी छवि को और मनोहारी बनाते हैं। हिंडोल का कामदेव के रूप में भी मानवीकरण किया गया है। श्रावण मास को प्रेम और संयोग की ऋतु भी माना जाता है।
गुप्त-वाकाटक
परवर्ती पांचवीं शताब्दी
फोफनार, मध्य प्रदेश
पीतल, आकार : 37 x15 x 12 से.मी.
अवाप्ति सं. एल 659
बुद्ध की यह पीतल की प्रतिमा मध्य प्रदेश के बुरहानपुर तालुक, जिला पूर्वी निमाड़ के फोफनार कला गांव के एक खेत से प्राप्त इस प्रकार की सात बहुरंगी प्रतिमाओं में से एक है। विभिन्न आकार की ये प्रतिमाएं सांचे में ढाली गई आयताकार पीठिका से युक्त हैं।
सूक्ष्म प्रतिरूपित स्थानक बुद्ध की यह खोखली प्रतिमा अंडाकार शीर्ष (जो गुप्तकालीन प्रतिमाओं की सामान्य विशेषता है) के अतिरिक्त अन्य विशिष्टताओं से युक्त है जैसे एकांशिक संघाटी (जो एक कंधे को आवृत्त करती है), गोलाकार चिबुक, मुड़े हुए होंठ, धन्वाकार भवें, अवनत नेत्र और उष्णीष, आदि। बुद्ध का दायां हाथ अभय मुद्रा में है और बायें हाथ से वे अपनी संघाटी का सिरा पकड़े हुए हैं। प्रतिमा के नेत्र चांदी से खचित हैं और पुतलियों को काले रंग से रंगा गया है। प्रतिमा की पीठिका पर निम्न लेख अंकित है –
देयधर्म्मो = यम कान्हस्य
शैली (अजंता की गुफाओं की बुद्ध आकृतियों के समान) और पुरालिपि-शास्त्र (‘पिटक शीर्ष’) के आधार पर पीतल की यह प्रतिमा वाकाटक काल की मानी जाती है। वाकाटक गुप्त राजाओं के समकालीन ही नहीं थे अपितु उन्होंने उनके साथ वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए थे। इसी कारण पीतल की इस प्रतिमा में गुप्त काल की विशेषताएं परिलक्षित होती हैं।
स्त्रोत: राष्ट्रीय संग्रहालय
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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