उपनिवेशी शासन के विरूद्ध भारत का संघर्ष लम्बा और कठिन था। विदेशी शासन की क्रूरता पर काबू पाने की आवश्यकता के साथ ही साथ हमारे उपमहाद्वीप के गरीब और असंगठित लोगों को इस संघर्ष के लिए तैयार करना भी उस समय के राष्ट्रीय नेताओं के समक्ष भयावह चुनौती थी। विदेशी प्रभुत्व के खिलाफ हमारे संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण पहलु लोगों को अज्ञानता से बाहर निकालने की हमारे नेताओं की योग्यता और इसके परिणामस्वरूप एक भारतीय राष्ट्र के विचार का पुनरूत्थान था।
अब इस बात कई लिखित प्रमाण मौजूद है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया हमारे स्वाधीनता सेनानियों के वास्तविक, शारीरिक संघर्ष से पहले से शुरू हो चुकी थी, यह राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे ज्यादा सक्रिय चरणों के दौरान जारी रही और तो और यह आज़ादी मिलने के दशकों बाद, आज तक जारी है।
राष्ट्र की आत्मा में दोबारा प्राण फूंकने का संघर्ष पहले-पहल शेरे-पंजाब लाला लाजपत राय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और बंगाल के अनेक प्रारंभिक क्रांतिकारियों जैसे शूरवीरों ने प्रारंभ किया। क्रांतिकारियों का बुनियादी विचार देश की आत्मा को झकझोरना, राष्ट्र में संघर्ष की भावना को जगाना और जनता को अतीत के गौरव की याद दिलाना तथा उन्हें यह दर्शाना था कि अब उठ खड़े होने तथा एकजुट होने की घड़ी आन पहुंची है।
भारत के गौरव और आत्मविश्वास को जगाने की इस यात्रा में जोशीले और अति उत्साही युवाओं ने जलियांवाला बाग (1919) और प्रथम गांधीवादी आंदोलन (1922) को मिली असफलता के कारण प्रस्तुत चुनौती को अदम्य वीरता प्रदर्शित करते हुए स्वीकार किया। इस अवधि के दौरान सबसे महत्वपूर्ण घटना अक्टूबर 1924 में कानपुर में एक संगठनात्मक संरचना- हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के अंतर्गत बहुत से प्रतिभाशाली और बहादुर क्रांतिकारियों का एक साथ जुटना रही। इस नए संगठन में राम प्रसाद बिस्मिल, जोगेश चटर्जी, चंद्रशेखर आजाद, योगेंद्र शुक्ला, शचींद्रनाथ सान्याल, अशफाकउल्लाह खान, रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा और सुखदेव जैसे महान क्रांतिकारियों का मुक्त सहचर्य देखा गया। अगले दशक तक, इन नामों में से अधिकांश ने राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचा तथा जनता की आत्मा को झकझोर डाला। वे ब्रिटिश हुकूमत के मन में खौफ और भय पैदा कर सकते थे और इस औपनिवेशिक ताकत की परम शक्ति, जो अपने वैश्विक प्रभाव की दृष्टि से उस समय चरम पर थी, पर विचार किया जाए, तो यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी।
यहां तक कि क्रांतिकारियों के इस उत्कृष्ट समूह में भी चंद्रशेखर आज़ाद का नाम सबसे रोशन है। कुछ मायनों में, भारत के बीच से मूंछों पर ताव देते नौजवान की छवि लोगों के दिल को छूती है। यहां एक नौजवान, जिसकी आयु बीस बरस के आसपास थी और जिसमें इस ताकतवर उपनिवेशी पुलिस को घुटने टेकने पर मजबूर करने की हिम्मत और काबिलियत थी। अपनी बीस वर्ष के आसपास की आयु के दौरान चंद्रशेखर आज़ाद और उनके मित्रों ने कई क्रांतिकारी कार्यों को अंजाम देते हुए खुद को खबरों में बनाए रखा। उस समय जब पुलिस का दमन चरम पर पहुंच जाने के कारण खुलेआम सविनय अवज्ञा कार्यक्रम चलाना संभव न था, तो ऐसे में इन क्रांतिकारियों ने लाखों भारतीयों में संभावित जीत की आशाएं जीवित रखीं।
आज़ाद के कार्य के तीन महत्वपूर्ण पहलु उन्हें विलक्षण बनाते हैं- पकड़े न जाने और मृत्यु तक ‘आज़ाद’ रहने की उनकी योग्यता, संभवत: सबसे महत्वपूर्ण पहलु है। उनका नाम-आज़ाद या मुक्त – स्वाधीनता के पश्चात के भारतीय का आभामंडल दर्शाता है। उनके इस नाम और पुलिस से परे उनके एक सेना होने के उनके कौशल ने उन्हें देश में हरदिल अजीज बना दिया। इलाहाबाद के कंपनी बाग या अल्फ्रेड पार्क- जो अब बिल्कुल उपयुक्त रूप से चंद्र शेखर आजाद पार्क के नाम से जाना जाता है, में पुलिसकर्मियों के दल के खिलाफ उनका मज़बूती से और अकेले डटे रहना- किसी इंसान की निर्भय और आज़ाद आत्मा को दर्शाता है- जो भावी पीढि़यों के लिए प्रेरणादायी है। अपने कुछ साथियों की धोखाधड़ी का शिकार होना उनकी रहस्यमयता को और गहरा देता है- इस तरह का विश्वासघात उन दिनों आम बात थी। उनकी मृत्यु में यह संदेश था : आज़ाद इंसान की तरह जीना और मरना जीवन का विलक्षण लक्ष्य है। उसके बाद से उनका अनुसरण करते हुए अनेक लोगों ने राष्ट्र की खातिर अपने प्राणों की आहूति दी है।
आज़ाद के व्यक्तित्व का दूसरा पहलु यह था कि वे एक प्रतिष्ठित हस्ती थे, जो अपनी जाति या धर्म की पहचान से ऊपर उठ चुके थे। उनका अपने उपनाम को बदलकर आज़ाद रख लेना उस प्रक्रिया का शुरूआती बिंदु था। कहते हैं कि 15 बरस की आयु में जब पुलिस ने उन्हें पहली बार हिरासत में लिया, तो उन्होंने अपना नाम आज़ाद और अपने पिता का नाम स्वतंत्रता बताया था। दरअसल, उनसे जुड़े सभी तथ्यों, किंवदंतियों और लोक कथाओं में कहीं भी उनका धर्म या जाति का उल्लेख नहीं मिलता। वे आदि से अंत तक भारतीय थे। यह उनके व्यक्तित्व का सबसे अनोखा पहलु था और है।
आज़ाद का तीसरा पहलु, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) में उनके मित्रों के समान था, और यह इस बात का स्पष्ट विज़न था कि वे यह क्यों कर रहे थे, वे क्या कर रहे थे तथा वे आज़ाद भारत को किस रूप में देखना चाहते थे। उदाहरण के तौर पर, जब आज़ाद और उनके मित्र पैसा इकट्ठा करने के लिए सरकारी संपत्ति लूटते थे, तो यह इसके पीछे दोहरा विचार होता था- पहला, ब्रिटिश पुलिस के अधिकार को कमजोर बनाना तथा दूसरा, एक ऐसा संगठन बनाना, जो उपनिवेशी शासन के खिलाफ उठ खड़ा हो सके। न्यायसंगत और समान भारत की रचना करने के उनके उत्तम और निस्वार्थ आदर्शों के अनुरूप, इन डकैतियों को जनता ने – अपराध नहीं, बल्कि रॉबिन हुड की गतिविधियों की तरह माना, लेकिन इन्हें अन्याय के खिलाफ विद्रोह के रूप में देखा गया। वह लम्बा समय, जो आज़ाद ने अधिकतर झांसी के समीप गुप्त रूप से बिताया था, उस दौरान उन्होंने शिक्षक की भूमिका निभाते हुए आसपास के गांवों के गरीब बच्चों को पढ़ाया-लिखाया।
चंद्रशेखर आज़ाद का देहांत नहीं हुआ। वे हमारे दिलों में जीवित हैं। उन्हें चंद्र शेखर आज़ाद पार्क में सजीव और विश्वास से भरपूर, अपनी मूंछों पर ताव देते, अपने दौर के बाद लम्बा फासला तय कर आए भारत के बारे में संतोष के साथ विचारमग्न देखा जा सकता है। हालांकि इस बेहद प्रसिद्ध प्रतिमा को बारीकी से देखने पर, उनकी पेशानी पर चिंता की लकीरे भी देखी जा सकती हैं। ऐसा लगता है कि वे मानो सोच रहे हों कि क्या हम कड़े परिश्रम के बाद मिली आज़ादी तथा सशक्त और न्यायसंगत राष्ट्र के निर्माण के स्वपन को साकार करने के लिए जिन कार्यों की आवश्यकता है, उनके प्रति उदासीन हो सकते हैं।
लेखन: अभिषेक दयाल; मीडिया एवं संचार निदेशक
स्रोत: पत्र सूचना कार्यालय
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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