छोटानागपुर की धरती ने एक बढ़कर एक स्वतंत्रता प्रेमी सेनानियों को जन्म दिया है। यहाँ के ग्राम्य निवासी प्रकृति प्रेमी रहें हैं उससे कहीं बढ़कर स्वतंत्रता के दिवाने भी, यहाँ का सुमधुर बांसुरी, मांदर और नगाड़े के स्वरों के साथ गीत नृत्य में रंगे रहते हैं, तो वहीँ अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए वन के राजा शेर की भांति दहाड़ मारकर शत्रुओं की छाती में तीर बेधने को भी तत्पर रहते हैं। पिछड़ा कहा जाने वाला यह क्षेत्र अपनी आजादी के लिए सदैव जागरूक रहा है। यहाँ की धरती में प्राकृतिक संपदाओं का बहुमूल्य भंडार है, यहाँ के निवासी स्वतंत्रता प्रेमी थे, वे स्वच्छंद हो वन पर्वतों पर निवास करते थे, वे प्राकृतिक संपदाओं का उपयोग कर पूर्णतया सुखी सम्पन्न जीवन व्यतीत करते थे, यहाँ के वनांचल क्षेत्र जहाँ सदान और आदिवासी समाज की बहुलता है जो अपनी गरिमा और स्वतंत्र प्रियता के लिए मशहूर है, स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने से लेकर गणतंत्र की रक्षा करने में यहाँ के शूरवीरों ने अपना नाम रौशन किया है, हर वर्ग और धर्म के मानने वालों में अपनी अखंडता के लिए पेशकश की है।
मुगलों की आन्तरिक लड़ाई तथा अंग्रेजों की चालाकी से सारा देश गुलामी की जंजीर से जकड़ गया।
बहुत प्रारंभ से छोटानागपुर में कृषि योग्य भूमि की कमी थी। अधिकांश भूभाग जंगलों से भरा था। आबादी की कमी थी, घुमंतु लोग आते - जाते रहते थे, थोड़ी बहुत खेती होती थी, जमीन पर किसी का अधिपत्य नहीं था, द्रविड़ जातियों का खेती बारी का साधारण ज्ञान था पर मुंडाओं के आने पर जंगल काटकर खेती लायक भूमि बनाया जाना लगा जिसे खूंटकटी दार या भूईंहर कहते तथा उसका मालिक स्वयं होते। उस समय लोग काबिले में रहते थे। अपने सरदार को राजा या मानकी कहते थे, काबिले के लोग उन्हें विशेष अवसरों पर शादी, जन्मोत्सव, श्राद्ध, पर्व त्यौहार आदि अवसरों पर कुछ सामग्रियों तथा शारीरक श्रम और सहयोग देते थे। धीरे – धीरे सामंती रीति नीति का सूत्रपात हुआ, मुगल कालीन भू - व्यवस्था पहली बार आहत हुई, बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा और कर की उगाही के उद्देश्य से जागीरदारी प्रथा चली, अन्य सहायतार्थ बड़ाईकों, घटवारों, परगनइतों और हल्कादार को जागीर दे जाने लगी। जमीनदारी व्यवस्था पनपी। मूल्य चुकाने का एक मात्र साधन जमीन ही थी जिसकी मालगुजारी जमीनदारी वसूलकर राजा महाराजाओं के यहाँ जमा करते थे। यहाँ का झारखण्ड क्षेत्र जहाँ सदान और आदिवासी समाज की बहुलता है जो अपनी गरिमा और स्वतंत्रता के लिए मशहूर हैं, स्वाधीनता की लड़ाई से लेकर गणतन्त्र की रक्षा करने में यहाँ के शूरवीरों ने अपना नाम रोशन किया है। भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम लड़ाई में अनेक महापुरूषों ने अपनी जीवन की आहूति दी, उन महापुरूषों की बलिदान का परिणाम है की आज हम स्वतंत्र हैं जिनकी गौरव गाथाएं गाँव – गाँव में सूनी और सुनाई जाती हैं और ऐसे ही वीर अमर विश्वनाथ शाहदेव थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी। इस वीर सपूत का अतीत गौरवशाली गाथाओं से भरा पड़ा है।
छोटानागपुर के ठाकुर एनिनाथ शाहदेव जिन्होंने जगरन्नाथ में (बड़का गढ़) मंदिर बनवाए जहाँ रथ मेला लगता है उन्हीं के सातवीं पीढ़ी में ठाकुर विश्वानाथ शाहदेव का जन्म हुआ। इनके पिता का नाम रघुनाथ शाहदेव था और माताश्री का नाम चानेश्वरी कुँवर था। इनका जन्म 12 अगस्त 1917 को सतरंजी गढ़ में हुआ जो अभी एच. ई. सी. के एफ. एफ. पी. के गर्भ में निहित हैं। इनका लालन – पालन एवं शिक्षा – दीक्षा शाही शान – शौकत से हुआ। इनके पिता रघुनाथ शाही उदयपुर पलानी और कुंडू परगना के स्वामी थे। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव सन 1840 ई. में अपने पिता ठाकुर रघुनाथ शाही की मृत्यु के उपरांत राज सिहासन में विराजमान हुए तब तक इनकी शादी उड़ीसा के राजगंगापुर महराजा की बहन बानेश्वर कुँवर से हो चुकी थी।
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव हटिया में अपनी राजधानी बनाई। राज सिहांसन पर बैठने की साथ ही इन्हें यह अनुभूति होने लगी की हम नाममात्र के राजा हैं, सारी शक्ति तो अंग्रेजों के हाथों में हैं। यहीं से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की अग्नि धधकने लगी। अपने गढ़ में सैन्य संचालन की योजना बनाने लगे। पहले इनका राजधानी शतरंजी गढ़ में था, शतरंजी गढ़ से राजधानी हटिया में बदलने का श्रेय ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को है। शासन की दृष्टि से हटिया शतरंजी गढ़ से अधिक सुरक्षित एवं उपयुक्त इन्हें महसूस हुआ। हटिया में इनकी प्रजा ने इनका तन मन धन से साथ दिया। अंग्रेजों के जुल्म से जले हुए ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने सर्वप्रथम 1855 ई. में विद्रोह का पहला विगूल फूंका और अपने राज्य को अंग्रेजों से स्वतंत्र घोषित किया। इस प्रकार डोरंडा छावनी से अंग्रेजी फ़ौज ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को दंड देने हटिया गढ़ पर धावा बोल दिए, घमासान लड़ाई हुई, अंग्रेजी फ़ौज आधे से अधिक ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव की तीक्ष्ण तलवार की ग्रास बन गये, शेष सैनिकों ने जान बचाकर डोरंडा शिविर में शरण ले ली। सन 1957 का समय आया देश के भाग्य ने पलटा खाया, स्वतंत्रता संग्राम की पहली गोली दागी गई। हजारीबाग में आठवीं पैदल सेना ने 30 जूलाई 1857 को विद्रोह का झंडा लहराया। 1 अगस्त 1857 ई. को डोरंडा की सेना भी भड़क उठी। 2 अगस्त 1857 ई. तक संपूर्ण रांची ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के कब्जे में आ गया। छोटानागपुर के कमिश्नर कर्नल डाल्टन अपनी जान बचाते हुए बगोदर की ओर भागे। रामगढ़ की देशी सेना अंग्रेज सिपाहियों का कत्लेआम करते हुए रांची आ पहुंची और उन लोगों ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को इस विद्रोह का नेता मान लिया। अब संपूर्ण रांची पर ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का झंडा लहराने लगा। विभिन्न हथियारों से लैश होकर मुंडा उरांव और क्षत्रियों की संयुक्त विजय वाहिनी अंग्रेजों पर टूट पड़ी। इन्होंने तीन दिनों में अंग्रेजों ने युनियन जैक को उखाड़ कर फेंक दिया।
इस लड़ाई में परगना खुखरा, मौजा भौंरा ग्राम पतिया के निवासी पांडे गणपत राय रामगढ़ बटालियन के माधो सिंह, डोरंडा बटालियन के जय मंगल पांडे, पलामू के चेरो नेता, नीलाम्बर पीताम्बर, पोराहाट के नेता अर्जुन सिंह, विश्रामपुर के चेरो सरदार, भवानी वक्श राय, शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह, नादी अली खान, बाबा तलक मांझी बुधू भगत, सिद्धू कान्हू, लाल बाबा अदि योद्धाओं ने परतंत्रता की बेड़ियाँ तोड़ने हेतु अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इनमें से कुछ लोगों ने गुप्त मंत्रणा की और सुनियोजित ढंग से अपने – अपने क्षेत्र में व्यपक विद्रोह का नेतृत्व किया।
जगह – जगह के लोग जी जान से इन्हें मदद करने के लिए आतुर थे ही सिल्ली, झालदा से देशी बंदूकें आ रही थी। योजना यह थी की छोटानागपुर से अंग्रेजों का नेस्तनाबूत कर यहाँ के सारे विद्रोही रोहतास में कुँवर सिंह से जा मिलेंगे। इस भयानक विद्रोह में छोटानागपुर के जनता ने भरपूर सहयोग दिया एवं इसे सफल बनायें। अंग्रेजों को इस पावन भूमि से खदेड़ देने का एक तरह से सम्पूर्ण भारत ने प्राण ही क र लिया था जहाँ एक ओर बाबू कुँवर सिंह अंग्रेजों का सिर दर्द बन चुके थे वहीँ दूसरी ओर छोटानागपुर में विश्वनाथ शाहदेव ने अंग्रेजों की नींद हराम कर रखी थी।
कमिश्नर डाल्टन के अनुसार जब हजारीबाग छावनी पर अंग्रेजों ने आक्रमण किया उस समय ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और गणपत राय तथा उनेक साथी वहां से अन्यत्र निकल चुके थे। अंग्रेजों के ढूँढने पर भी ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव उनके गिरफ्तार में नहीं लगे। उस समय लोहरदगा रांची जिला का मुख्यालय तथा पलामू जिले का शासन क्षेत्र लोहरदगा के ही अधीन था जब ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को पता चला की लोहरदगा के अधिकारी गण हजारीबाग चले गये हैं और वहां कोई नहीं है ठाकुर विश्वनाथ ने इस अवसर का लाभ उठाने का निश्चय किया और लोहरदगा स्थित सरकारी खजाने को लूटने के लिए अपने 1100 सैनिकों के साथ कूडु होकर लोहरदगा के लिए चल पड़े मगर जोश में होश की कमी रहगयी और बात किसी तरह फूट गयी। महेश नारायण शाही और विश्वनाथ दूबे ने अंग्रेजों सहायता की और विश्वनाथ शाहदेव पाण्डेय गणपत राय के साथ लोहरदगा के पास कूदा गढ़ा ग्राम में अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गये।
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव तथा पाण्डेय गणपत राय को रांची जिले (वर्तमान पुरानी बकरी बाजार के पास) में रखा गया, वहां भी वे शांत बैठे नहीं रहे और मातृभूमि की आजादी के लिए संघर्ष करते रहे, जेल में एक वार्डर को मिलाया और विद्रोह को चालू रखने के लिए अपने साथियों के पास पात्र लिखा, कहा जाता है कि दतवन करते समय कोयले को चबाकर उसे स्याही के रोप में व्यवहार कर पत्र लिखा तहत, हालाँकि उनका अंतिम प्रयास कामयाब नहीं हो सका और वह पत्र भी पकड़ा गया। उन्हें 16 अप्रैल 1858 ई. को कमिश्नर ने फांसी की सजा सुनायी, तत्पश्चात उसी दिन उन्हें जेल से लाकर रांची जिला स्कूल के निकट जो अभी शहीद स्मारक बना है उसी जगह कदम के एक मोटी डाली में लटका कर फांसी दी गयी, यह डाली अभी रांची के संग्रहालय में सुरक्षित है जिसे देखा जा सकता है। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का तलवार जिसने अनेक फिरंगियों को रक्त स्नान कराया था। यह तलवार उनकी फांसी के बाद उनके किसी स्वामी भक्त सेवक ने प्राप्त कर उसे गुप्त रूप से उनकी पत्नी के पास पहुंचाया था। अब यह तलवार रांची के शहीद संग्रहालय का गौरव बढ़ा रही है। इतना सजा देने के बाद भी अंग्रेजों को संतोष नहीं हुआ उनके शतरंजीगढ़ तथा हटियागढ़ के किला को ध्वस्त कर लिया गया। जिसके चलते मातृभूमि की आजादी के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने वाले शहीद का परिवार बेघर होकर दर – दर भटकने को मजबूर हो गया। इतना होने पर भी ही ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव की पत्नी वानेश्वरी देवी ने हार नहीं मानी और अपने पति के एकमात्र निशानी अपने पुत्र कपिलनाथ शाहदेव को लेकर गुमला की पहाड़ियों की ओर चली गयी ।
वानेश्वरी कुँवर इस दौरान पालकोट स्थित खोरा गाँव में लगभग 11 वर्षों तक अंग्रेजों के नजर से छिपी रही जब ठाकुर कपिल नाथ शाहदेव कुछ बड़े हुए तब ठाकुरानी वानेश्वर कुँवर ने कलकत्ता हाईकोर्ट में 1872 में बड़कागढ़ स्टेट लौटाने के लिए एक याचिका दायर की, किन्तु अदालत में बड़कागांव स्टेट लौटाने के लिए एक याचिका दायर की, किन्तु अदालत में बड़कागढ़ स्टेट लौटाने के उनके आग्रह को ठुकरा दिया। अदालत से आग्रह किया कि बड़कागढ़ स्टेट का उत्तराधिकारी कपिलनाथ शाहदेव जीवित हैं इसलिए सरकार द्वारा जब्त की गयी उसके पति की सम्पति को लौटा दिया जाय। अदालत ने फैसला दिया चूंकि ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बगावत की थी इसलिए उनकी सम्पति को वापस नहीं किया जायेगा। लेकिन अदालत ने वानेश्वरी कुँवर एवं उनके पुत्र की परवरिश के लिए जगन्नाथपुर मंदिर के पास एक मकान बनाकर उन्हें 30 (तीस) रूपये प्रतिमाह गुजारिश भत्ता देने की व्यवस्था कर दी।
उस समय स्थिति अत्यंत विकट थी इसलिए ठाकुरानी वानेश्वरी कुँवर अपने पुत्र अस्तित्व की रक्षा के लिए अंग्रेजों द्वारा दी गयी गुजारिश भत्ता (पेंशन) और आवास की व्यवस्था को किसी तरह बर्दास्त कर लिया, क्योंकि उस समय उनके समक्ष कोई विकल्प नहीं था। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को फांसी दिए जाने के बाद उसका पूरा परिवार अस्त व्यस्त हो गया है, इनका घर अभी भी हटिया स्थित जगरन्नाथपुर मंदिर के बगल में कुछ परिवारों का थीं जो गिरता नजर आ रहा है, कुछ लटमा बस्ती में विस्थापित हैं। लेकिन बदहाली की जीवन जी रहे हैं।
एक संक्षिप्त वंशवृक्ष और दूसरा विस्तृत वंशवृक्ष जो निम्नलिखित –
1. ठाकुर ऐनीनाथ शाहदेव (जगरन्नाथ मंदिर के निर्माण)
2. ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव (सातवीं पीढ़ी)
3. ठाकुर कपिलनाथ शाहदेव
4. ठाकुर जगन्नाथ शाहदेव
स्त्रोत: जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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