प्रकृति से अतिरिक्त लगाव और स्वाधीनता के रक्षा की व्याकुलता जनजातीय स्वभाव व संस्कार की मूल्य विशेषता है। बिहार के छोटानागपुर व संथाल परगना में रह रही जनजातियाँ भी इन्हीं को अपने स्वभावगत गुणों में समेटे हुए हैं। स्वाधीन रहने की छटपटाहट ने ही अनेक बार अनेक जनजातियों को अंग्रेजी शासन एवं सांमती व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह का शंखनाद फूंकने को बाध्य किया था। जिसमें वीर बुधू भगत, बिरसा भगवान एवं जतरा भगत का नाम सर्वोपरि हैं।
जतरा (उराँव) भगत ने वैष्णव विचाराचारा के तहत समाज सुधार का आन्दोलन को चलाते हुए अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में छोटानागपुर के पठारों में एक व्यक्ति – बिरसा मुंडा पूरी शक्ति के साथ अंग्रेजी सत्ता के विरोध एवं जनजातीय जीवन में सामंती कुतीरियों के नाजायज हस्तक्षेप को उखाड़ फेंकने के लिए सार्थक पहल कर रहा था। बिरसा का आंदोलन जनजातीय समाज एवं संस्कृति के अस्मिता की रक्षा हेतु दृढ़ संकल्पित था। इस आन्दोलन में इनके साथ न केवल मुंडा जनजाति बल्कि उराँव जनजाति भी साथ थे। 9 जून 1900 को रांची जेल में संदेहजनक परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद छोटानागपुर की घाटियों में जगह - जगह आन्दोलन समाप्त तो नहीं हुआ लेकिन थोड़ा शिथिल पड़ता जा रहा था।
इधर अंग्रेजों के द्वारा धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक शोषण उत्पीड़न के कारण उराँव जनजातियों के बीच असंतोष गहराया जा रहा था। अंग्रेजों के इस व्यवहार से उराँव जन त्रस्त थे। अपने तरफ से विद्रोह भी करते थे लेकिन सं गठित रूप से प्रयास नहीं होने के कारण सफल नहीं हो पाते थे। इसी बीच उराँव जनजातियों के बीच जतरा उराँव एक नवयुवक धार्मिक, सामाजिक पुर्नरचना का संकल्प लिए टाना भगत आन्दोलन का महामंत्र लेकर सामने आया वही युवक बाद में जतरा भगत के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
बिहार के गुमला जिलान्तर्गत विशुनपुर प्रखंड के चिंगरी (नवाटोली) में सितम्बर (आश्विन) महीने के अष्टमी तिथि का 1888 में जतरा का जन्म हुआ था। उनकी माता तथा पिता का नाम क्रमश: लिबरी तथा कोडल उराँव था। जतरा भगत की पत्नी का नाम बंधनी था। जतरा भगत के चार बेटा बुधे, बंधू, सूधू, देशा तथा दो बेटियों बिरसें और बुधनी थी। देशा का विवाह पंडरी से हुआ उनको एक बेटा बिसुवा और दो बेटियां थी। बिसुवा की पत्नी का नाम भुधनिया है उनके तीन बेटा एक बेटी बिसुवा भगत सपरिवार चिंगारी नवाटोली में रहते हैं।
उतरा भगत का बचपन साधारण ढंग से बीता लेकिन छोटी उम्र से ही अपने हम उम्र से ही अपने हम उम्र के मित्रों से इनका स्वभाव अलग था। जब जतरा भगत बचपने से किशोरावस्था में पहुँचे तो उस समय उन्होंने स्कूल पढ़ाई के बजाय मति झाड़ – फूंक (तंत्र – मंत्र) की विद्या सीखने के लिए निकट में हेसराग ग्राम आया जाया करते थे। इसी क्रम में एक दिन वह एक पेड़ पर पक्षी का अंडा उतारने के लिए चढ़े तो वह अंडा नीचे गिर कर फूट गया। जिसमें भ्रूण दिखायी दिया जिसको देखकर जतरा के मन में आया यह तो जीवहत्या है उस दिन से उन्होंने जीव हत्या न करने का संकल्प लिया। इसी प्रकार सन 1914 ई. के अप्रैल माह में एक दिन जब जतरा मति सीखने के क्रम में गुरदा कोना पोस्टर से स्नान करने गये वहीं स्नान के कर्म में उन्हें आत्मज्ञान हुआ जैसे तमसा नदी के तट पर श्री वाल्मिकी का स्वर फूटा और संस्कृत भाषा का जन्म हुआ। उसी तरह जतरा भगत के के मुंह से जो उद्घोष हुआ वह आगे चलकर टाना पंथ बना।
जतरा भगत ने लोगों के बीच मांस के खाने, मदिरा पान न करने, पशु बलि रोकने, परोपकारी बनने, यज्ञोपवीत धारण करने, भूत प्रेत के अस्तित्व न माने आँगन में तुलसी चौरा स्थापित करने, गो सेवा करने, जीव हत्या न करने, अंग्रेजों का बीमारी न करने तथा सभी सर प्रेम करने का उपदेश देना शुरू किया। यह सभी स्मरणीय है कि जनजातीय लोगों में मांस भोजन का सामान्य भाग है और टोन टोटकों में अधिक विश्वासी उराँव जनजातियों ने उनकी बात सरलता से माननी शुरू कर दी और देखते – देखते उनके समर्थकों की अच्छी संख्या हो गई। जतरा भगत के इस पंथ का नाम टाना पड़ा और इन्हें मानने वाले लोग टाना भगत कहलाये। मूलत: टाना मंत्र अहिंसा और असहयोग का ही था।
जतरा भगत का प्रवचन सुनने के लिए दूर दराज से उराँव जनजाति के लोग आने लगे।
वृहस्पतिवार को सामूहिक प्रार्थना का दिन निश्चित तथा उस दिन हल जोतने की मनाही थी। टाना भगतों ने अंग्रेजों की मालगुजारी, चौकीदार टैक्स भी देना बंद कर दी। इस तरह गाँधी अहिंसा और असहयोग आन्दोलन प्रारंभ कर दिया था। ब्रिटिश सरकार टाना आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव से थर्रा उठी। सरकार ने 1916 के प्रारंभ में जतरा भगत पर नियोजित ढंग से उत्तेजक विचारों के प्रचार का अभियोग लगाकर उनके साथ अनुयायियों को गिरफ्तार कर लिया था कोर्ट द्वारा उनको वर्ष भर पर की कड़ी सजा देते हुए जेल में बंद कर खूब प्रताड़ित किया। फलस्वरूप जेल से बाहर आने के 2 – 3 माह बाद ही 28 वर्षीय जतरा भगत का देहावासन हो गया।
जतरा भगत के नहीं रहने पर उनके समर्थकों ने अंग्रेजों से संघर्ष का दायित्व संभाला। टाना भगत आंदोलन को ठप नहीं होने दिया बल्कि यह आंदोलन जो धार्मिक, सांस्कृतिक रूप में था कालान्तर में बिहार के जनजातीय क्षेत्र में प्रखर एवं आदर्श सम्पूर्ण गांधीवादी जनान्दोलन साबित हुआ। टाना भगत अंग्रेजी शासन का शांतिपूर्ण एवं अहिंसक तरीके से विरोध करते रहे यथा जमीन की मालगुजारी नही देना तथा अंग्रेजों से जनजातीय क्षेत्र को छोड़कर चले जाने को कहना शामिल रहा। सन 1917 तक जतरा भगत से प्रेरित टाना भगत अहिंसक तरीके का आन्दोलन पाने ढंग से चलाते रहे।
सन 1918 में महात्मा गाँधी रांची आये। उस समय के उत्साही कांग्रेसी कायकर्ताओं ने टाना भगतों का गाँधी से मिलवाया। इस पहली ही भेंट से अभिभूत होकर ये टाना भगत उनके समर्थक हो गये। गाँधीजी का आन्दोलन और टाना भगत अन्दोलन अपने चारित्रिक विशेषताओं के बीच आश्चर्यजनक समानता के कारण दोनों ही आन्दोलन समरस भाव से अंग्रेजी शासन के विरूद्ध संघर्षरत हो गये। 1920 के बाद भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में टाना भगतों का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि टाना भगत आन्दोलन कहीं गाँधी जी से भी अधिक गांधीवादी था। वह मूलत: जनजातियों की देशज संस्कृति उपज थी। टाना भगत आन्दोलन छोटानागपुर की भूमि पर मौलिक अहिंसात्मक असहयोगात्मक आन्दोलन के रूपरेखा उनके दिमाग में पल रही है, उसे इन जनजातियों टानाओं ने उस स्वरूप को पहले ही दे रखा है, तो उन्हें आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ था।
टाना भगत आन्दोलन जब शिबू, माया, सूखरा अदि नेताओं के हाथ में था। यह आन्दोलन लोहरदगा कूडु, बूड़ो, मांडर, विशुनपुर, पलामू के अन्य जिलों में विशेषकर लातेहार में फ़ैल चुका था। दिसंबर 1919 में लगभग 400 टाना भगत टिका टाड़ जहाँ वीर बुधू भगत 1831 - 32 में अंग्रेजों के विरूद्ध अहिंसक तरीके से संघर्ष करते रहते हुए मालगुजारी नहीं देने, बेगारी नहीं करने, चौकीदारी कर, नहीं देने का संकल्प लिया। टाना भगत अब खादी का ही कपड़ा पहनना, अपने ही सूत काटने, सर पर गाँधी टोपी लगाने कंधे पर छोटे डंडे में तिरंगा झंडा रखना शुरू कर दिये। ये आन्दोलन पूर्णत: गांधीमय हो गया। अभी भी प्रत्येक टाना भगत के घर में तुलसी चौरा टार उसी चौरा से सटे बांस के डंडे में टंगा हुआ तिरंगा मिलता है। इस तिरंगा को ये पर्व – त्यौहार के अवसर पर बदलते रहते हैं।
12 फरवरी 1921 को कूडु में लगभग 8000 टाना भगत एकत्रित होकर सभा किए। अब उनका अहिंसक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं स्वतंत्रता आन्दोलन अब परवान चढ़ने लगा था। उस समय अंग्रेज पुलिस सुपरिन्टेन्डन्ट ने अपनी रिपोर्ट में इनके आन्दोलन पर तत्काल रोक लगाने पर बल दिया था। 19 मार्च 1921 को अंग्रेज उपायुक्त ने छोटानागपुर के आयुक्त को अपनी रिपोर्ट में लिया कि टाना भगत आन्दोलन और गाँधी का आन्दोलन के मिल जाने से समस्याएँ बढ़ती जा रही है।
जूलाई 1921 में जब कांग्रेसी ने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करने का आह्वान किया तब गटाना भगत सबसे आगे थे। दिसंबर 1921 में गया में कांग्रेस की राष्ट्रीय बैठक हुई उसमें गाँधी सहित कांग्रेस के सभी उच्च स्तरीय नेता उपस्थित थे। उसमें टाना भगतों ने भाग लिया, कुछ ने तो रांची से पैदल ही गया तक यात्रा की। इस बैठक में भाग लेने के बाद ये टाना भगत पूर्ण रूपों से भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ गये। ये टाना भगत रामगढ़ कांग्रेस, गया कांग्रेस में भाग लिए तथा समय पर कांग्रेस ने जो भी रणनीति अंग्रेजों के विरूद्ध बनायी उसके क्रियान्वयन में टाना भगतों ने पूर्ण सहयोग दिया। कांग्रेस के विदेशी कपड़ों के बहिष्कार तथा खादी कपड़ा पहनने के आह्वान स्वरुप इन लोगों ने अपने हाथों चरखे पर सूत काटकर स्वनिर्मित खादी का उपयोग शुरू कर दिया था। 1927 में साइमन कमीशन के विरोध में भी भाग लिया।
सरदार बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारडोली (गुजरात) में किसानों द्वारा मालगुजारी ने देने के सत्याग्रही से प्रभावित होकर इन टाना भगतों ने भी अंग्रेज सरकार को मालगुजारी नहीं देने का अपने माटी में भी सफल प्रयोग किया। हालाँकि उनको इस आन्दोलन की बड़ी महंगी कीमत चुकानी पड़ी। इनकी जमीन की मालगुजारी ने देने के कारण अंग्रेजों ने नीलाम कर दी तब भी इनका अहिंसक आन्दोलन जारी रहा। ये कहते थे कि गाँधी बाबा का राज होगा तब हम अपनी जमीन वापस लेंगे। टाना भगत गांधीजी के पक्के समर्थक हो गये। टाना भगत गांधीजी के पक्के समर्थक हो गये खादी का कपड़ा पहन सिर पर गाँधी टोपी और कंधे पर तिरंगा झंडा रखकर कांग्रेस के लिए काम करना उनका मूल उद्देश्य था।
19 – 20 मार्च 1940 को रामगढ़ कांग्रेस की बैठक में बहुत अधिक संख्या में लालू भगत, एतवा भगत, विश्वामित्र भगत के नेतृत्व में विशुनपुर, कूडु, मांडर, घाघरा के टाना भगतों ने सक्रिय भाग लिया था। उस समय इन लोगों ने गाँधी जी को आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपने तरफ से सौ रूपये की थैली भेंट दिया था। गांधीजी ने इनलोगों से कहा कि आपलोग स्वाधीनता आन्दोलन में साथ दीजिए जब अपना स्वराज्य हो जाएगा तब सभी कष्ट दूर हो जाएगा।
(1941) गाँधी जी द्वारा 1941 में अवज्ञा आन्दोलन का आह्वान किया गया। जगह –जगह पूरे देश के यह आन्दोलन व्यक्तिगत सत्याग्रह द्वारा चलाया जा रहा था। इस कार्य में भी टाना भगत आगे रहे। रती टाना भगत ने कहा था कि भाईयों एवं बहनों यह समय केवल पैसा से सहयोग करने की नहीं है बल्कि सभी आदमी दुगुने उत्साह से व्यक्तिगत रूप से सत्याग्रह में साथ दें।
17 अगस्त 1942 को श्रद्धानंद रांची में अधिक संख्या में टाना भगतों ने प्रदर्शन में भाग लिया बहुत से लोग गिरफ्तार हुए। 19 अगस्त 1942 को चैनपुर और विशुनपुर के टाना भगतों ने विशुनपुर ठाणे में आग लगा दी। 21 अगस्त 1942 को मांडर के नजदीक सोनचिपी आश्रम जो उस समय टाना भगतों का मुख्य केंद्र था उसका ताला तोड़ कर टाना भगतों ने पुन: अधिकार जमा लिया। इसके पहले इसमें पुलिस ने तालाबंदी कर दिया था। भारत छोड़ो आंदोलन में सभी टाना भगतों ने खुलकर भाग लिया और हजारों की संख्या में जेल गये।
टाना भगतों का जेल जीवन भी बहुत ही बहादूरी पूर्ण रहा। पटना के पास फूलवारी शरीफ शिविर जेल में ये टाना भगत अंदर में गाँधी शिविर लगा दिया था। इस शिविर में वहां भी अंग्रेज पुलिस ने गलत अत्याचार किया। एक लंबे संघर्ष के बाद जब अपना देश 1947 में स्वतंत्र हुआ तो टाना भगतों ने सोचा कि अब सुराज आ या। इनका जीवन में खुशहाली आएगी। सरकार ने इनकी भूमि वापसी के लिए टाना भगत कृषि भूमि वापसी अधिनियम 1947 बनाया। कुछ लोगों की भूमि वापस भी हुई सरकार द्वारा उनके लिए पेंशन, बच्चों के लिए विद्यालय मुफ्त शिक्षा आदि का प्रावधान किया है। स्वतंत्रता की 25वीं वर्षगांठ पर 1972 में काई टाना भगतों को तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर ताम्रपत्र प्रदान किया गया था। सन 1947 में सरकार द्वारा बनाया गया भूमि वापसी अधिनियम बहूत अधिक कारगर नहीं पाया तो सरकार द्वारा इसमें 1989 में संशोधन किया गया इससे कई टाना भगतों को राहत मिली लेकिन अभी भी यह कार्य पूरा होना बाकी है।
भारतवर्ष के स्वतंत्रता आंदोलन ने ऐसा कोई जनजातीय समुदाय नहीं मिलेगा जो इस आंदोलन में गांधीजी के साथ कंधा से कंधा मिलाकर अपना सर्वस्व त्याग कर संघर्ष किया हो ऐसे में पूरे देश में जनजातीय उदाहरण में टाना भगत ही सामने आते हैं। वास्तव में टाना भगतों का जो आदर्श और सिद्धांत था जैसे – शुद्ध, सात्विक, त्यागपूर्ण जीवन जीना, अहिंसा का प्रयोग आदि सभी गाँधी जी के सामाजिक, राजनैतिक दर्शन में ठीक बैठे इसलिए गांधीजी टाना भगतों के बीच लोकप्रिय हुए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। सरकार द्वारा बहुत सी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के बावजूद उनकी दशा चिंतनीय है। सरकार द्वारा इनके तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है।
स्त्रोत: जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 3/1/2020
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