परहिया शब्द से यह भ्रम नहीं होना चाहिये की ये पहाड़िया, माल पहाड़िया या सौरिया पहाड़िया जैसे ही हैं। परहिया एक अलग जाति है।
1931 की जनगणना की मुताबिक परहिया जाति की आबादी 9671 थी लेकिन 1981 की जनगणना आंकड़ों से यह पता चलता है इनकी संख्या में स्थिर विकास हुआ तथा इनकी आबादी बढ़ कर 24012 तक पहुँच गई है।
परहिया जाति का मुख्य निवास पालमू की पहाड़िया और उसके आस - पास का स्थान है जहाँ यह पीढ़ियों से रहते चले आ रहे हैं इसकी अलावा रांची, हजारीबाग, संथाल परगना और गया में इनकी आबादी बहुत नगण्य है जिसे पर समाज विज्ञानियों और योजनाकारों की नजर नहीं जाती है।
1872 में ई. टी. डाल्टन इस जाति के विषय में बहुत संक्षिप्त आंकड़ा प्रस्तुत किया। यह कथन शायद सही है कि तूरानी आकृति वाली यह जाति किसी महान जाति की एक शाखा है जिसमें विभिन्न प्रकार के रीति रिवाजों का समावेश हो गया है। इनकी अपनी आदिम बोली विरूपित (अपभ्रष्ट) हो चुकी है तथा इन्होनें बोलचाल में हिंदी भाषा को अपना लिया है। हालांकि परहिया जाति हिन्दू रीति रिवाजों से प्रभावित है तथा उसी मुताबिक ये आचार - विचार करते हैं बावजूद इसके यह लोग हिन्दूओं की नजर में भ्रष्ट तथा घृणा करने योग्य माने जाते हैं। इनके विवाह और मृतक संस्कार हिन्दूओं के सदृश्य हैं। डाल्टन के आंकड़ों से स्पष्ट है कि परहिया 1872 में हिन्दूओं के संपर्क में थी। उनसे प्रभावित थे तथा उन्हीं की तरह अपनी जीवन शैली विकसित कर ली थी। 1891 में एच. एच. रिस्ले ने इस जाति को कुछ गोत्रों की चर्चा की थी हो आज भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान समय में परहिया जाति अपने गोत्र व्यवस्था को पूरी तरह से भूल चुकी है।
1898 में डी. एच. जी. सुन्दर ने परहिया जाति के बारे में संक्षिप्त में ही लेकिन बहुत भरोसेमंद आंकड़े पेश किए। उन्हेंने इनके विवाह, तलाक, जन्म, निवास, औषधि, मृतक संस्कार, गहने, गोदना तथा धर्म के बारे में जानकारी दी। रिस्ले की खोज से भी इस पर कुछ प्रकाश पड़ता है की परहिया हिन्दूओं से कैसे जुड़े और प्रभावित होकर उनके कुछ सांस्कृतिक रीति रिवाजों को अपना लिया इन सभी बातों से यह स्पष्ट होता है की अब से सौ साल पहले भी परहिया जाति एकाकी जीवन व्यतीत करने वाली नहीं थी, साथ ही यह भी स्पष्ट है की यह अपने मूल रूप में एक घूमक्कड़ जाति थी जो यहाँ वहां भोजन की तलाश में घुमा करती थी।
1961 में परहिया जाति ने शोध कर्ताओं प्रसाद और चौधरी का ध्यान अपनी ओर खींचा। इनके द्वारा दी गई जानकारियां भी संक्षिप्त है लेकिन काफी भरोसेमंद है क्योंकि दोनों खोज कर्ताओं ने इस जाति की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को छुआ है।
1975 में एच. मोहन ने इस जाति की संस्कृति के बारे में सर्वाधिक सुव्यस्थित ढंग से एक लेखा – जोखा पेश किया। इसी दौरान आर. के. प्रसाद का इस जाति पर एक शोध ग्रन्थ प्रकाशित हुआ जिससे काफी जानकारियां उपलब्ध हो सकी।
उपरोक्त वर्णनों से यह साफ है की परहिया जाति 1872 से ही विभिन्न शोधकर्ताओं और विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती रही है जिसके परिणाम स्वरुप इस जाति के सांस्कृतिक के विकास के बारे में समझ पाने में सहूलियत हुई है।
यह पहले ही चर्चा की चुकी है कि परहिया जाति अधिसंख्य पलामू जिले में पाई जाती है जहाँ यह कई पीढ़ियों से पहाड़ियों और इसके आस पास रहती चली आ रही है। चूंकि यह स्वभाव से ही घुमक्कड़ थे अत: इनके पूर्वज इसी क्रम में आये जिन्हों ने इन्हें आज से सौ वर्ष पहले अपने यहाँ कृषि मजदूरों के रूप में रोजगार दिया। यह प्रचलन इस क्षेत्र में आज भी चला आ रहा है। परहिया आज भी कृषि मजदूर का पेशा अपनाये हुए हैं। लेकिन ऐसा कोई गाँव नहीं है जहाँ सिर्फ परहिया की आबादी हो। ये लोग अन्य जातियों के साथ मिलकर विभिन्न गांवों में निवास करते हैं। इनकी इस प्रवृति से इनकी परम्परागत संस्कृति प्रभावित हुई। यह देखा जाता है कि इन्होंने अपने हिन्दू पड़ोसियों के बहुत से सांस्कृतिक रिवाज अपना लिए जिसकी पुष्टि 1872 में डाल्टन ने भी की थी।
एक समय की घूमंतू जाति परहिया धीरे – धीरे व्यवस्थित जीवन जीने की आदि हो गई तथा यह खास गाँव या स्थान पर काफी लंबे समय निवास करती आ रही है। उनकी घुमक्कड़ प्रकृति अब भूतकाल की बात हो चुकी है। उन्हें यह याद नहीं है कि वह कितने वर्षों से पलामू में रह रहे हैं। उनके पूर्वज संभवत: नीचे लिखे और कारकों और तथ्यों से प्रभावित होकर वर्तमान गांवों का चयन कर वहां स्थायी से निवास का निर्णय किया होगा।
कारक |
प्रतिशत |
क. कंद मूल, फल – फूल तथा अन्य जंगली उत्पादों की आसानी से उपलब्धता |
70.00 |
ख. स्थान बदल - बदल कर कृषि करने के लिए पर्याप्त भूमि की उपलब्धता |
30.00 |
कुल |
100.00 प्रतिशत |
उपरोक्त आंकड़ों से पता चलता है कि गांवों के आस – पास जंगलों से उन्हें जीवन अस्तित्व बनाये रखने के लिए जरूरी चीजें सहज ही उपलब्ध हो जाती थी। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर परहियों को पूर्वजों ने वर्तमान गांवों को अपना निवास स्थान बनाया। डी. एच. जी. सुन्दर के मुताबिक परहिया जाति मान्यता है कि वे आरंभ से ही पलामू में निवास करते आये हैं। इनकी अपनी परम्परा और कथन के मुताबिक यह लोग वास्तव में जिले के महाराजाओं के पुजारी या पुरोहित थे। इस आंकड़े से संकेत मिलता है कि परहिया जाति के पूर्वजों को यहां के महाराजाओं (शासकों) का संरक्षण प्राप्त था और इन लोगों ने इसलिए पलामू को अपना निवास स्थान बनाया क्योंकि ये उन महाराजाओं के पुरोहित थे।
वर्तमान स्थानों पर कई पीढ़ियों से रहते चले आ रहे परहियों का अपने निवास स्थानों से भावात्मक लगाव हो गया है। एच. मोहन कहते हैं वास्तव में परहिया बहुत गरीब हैं इनमें से अधिकतर के पास घर गृहस्थी के वैसे सामान ही है जिनके दैनिक जीवन में बहुत आवश्यकता है। ऐसे संपन्न परहियों की संख्या नगण्य है जिनके पास क्षेत्र के अन्य ग्रामीणों की तरह कुछ बहुत सामान है। जब तक ये लोग बाहरी जगत के संपर्क में नहीं आये थे इनकी जरूरतें सीमित थी इनकी आकांक्षाएं सीमित थी लेकिन जब इनका संपर्क क्षेत्र के संपन्न लोगों के साथ हुआ तो इन लोगों में भी औरों की बेहतर जीवन शैली अपनाने, उनका अनुकरण करने की चाह पैदा हुई। उनकी भौतिक आवश्यकताओं में गुणात्म्क वृद्धि हुई लेकिन अपने पड़ोसियों की तरह गहनें, जेवर, कपड़े तथा गृहस्थी के सामान जुटाने के लिए इनके पास धन नहीं था। उनकी इच्छाओं की पूर्ती के मार्ग में धन बाधक बन कर सामने आया फलस्वरूप इनमें एक हीन भावना घर कर गई।
इनके घरेलू उपयोग की सामग्रियों में अधिकतर मिट्टी के बर्तन है जिन्हें ये बाजार से खरीदते हैं। पानी जमा करने के लिए ये मिट्टी के घड़े थिल्ली का इस्तेमाल करते हैं। खाना पकाने तथा खाद्यानों को रखने के लिए भी मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होता है। बहुत संपन्न परहिया के पास ही पानी जमा करने या खाना पकाने के लिए धातु के बर्तन देखे जाते हैं।
एक समय में प्राय: पूरी परहिया जाति विभिन्न आकार की थैलियों का निर्माण कर पास के सप्ताहिक बाजारों में बेचा करती थी लेकिन अब यह उद्योग भी कुछ परहियों में सीमित रह गया है।
दयनीय आर्थिक दशा के कारण परहिया स्त्री – पुरूषों के तन पर अधिकतर एक ऊपरी और दूसरा अधोवस्त्र ही दिखाई देता है। परहिया जब एकाकी निवास करते थे तो उनकी स्त्रियाँ शरीर के उपरी भाग पर वस्त्र धारण नहीं करती थी लेकिन अब जबकि उनका संपर्क दूसरी जातियों और लोगों से भी हो गया है स्त्रियाँ शरीर का ऊपरी हिस्सा भी कपड़े से ढकती हैं।
यह पाया गया है कि क्षेत्र की अन्य जातियों की महिलाओं की तरह परहिया अपनी स्त्रियों के लिए चांदी के आभूषण खरीदने का सामर्थ्य नहीं रखते हैं। लेकिन उनकी स्त्रियाँ उन्हें बाध्य करती है कि कम से कम उनके लिए तांबा, गिलट या मनकों के गहने ही खरीद दें। अपनी सुन्दरता बढ़ाने के लिए परहिया स्त्रियाँ गोदना गोदवाना बहुत पसंद करती हैं। गोदना हाथों में, सीने पर तथा टखने से लेकर एड़ी तक गोदा जाता है। गोदने में तारे, फूल, हाथी तथा अन्य प्रकार आकृतियाँ शरीर पर उकेरी जाती है।
इनका परंपरागत पेय इली या हड़िया (चावल की शराब) है। इसमें नशे की हल्की मात्रा होती है तथा जन्म, विवाह और अन्य उत्सवों के अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता है। लेकिन अब इली या हड़िया का स्थान महुआ की शराब या दारू ने ले लिया है। कुछ परहिया स्वयं यह शराब बनाते हैं तथा आबकारी विभाग से बचने के लिए सभी तरह के कदम उठाते हैं। इस शराब के लिए उनके पास नियमित ग्राहक होते हैं। शराब के व्यापार से उनकी आय बढ़ी है। शराब की लत ने परहिया जाति की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डाला है। यह देखा गया है कि परहिया पैसे से शराब खरीदने को प्राथमिकता देते हैं। दैनिक मजदूरी पाने वालों की मजदूरी शराब की भेंट चढ़ जाती है। इस आदत के परिणामस्वरूप परिवार की अन्य सदस्यों को कई दफे भोजन नसीब नहीं होता है।
कुछेक संपन्न परहिया जिनकी संख्या नगण्य है गाय, भैंस तथा बकरियां पालते हैं। दूध का अधिक इस्तेमाल घी बनाने में किया जाता है। यह घी बाजार मैं बिक्री की जाती है। गायों के मालिक का कहना कि दूध से घी निकालकर बेचने का धंधा फायदे का नहीं है क्योंकि गायों का नस्ल निम्न है और वह पर्याप्त मात्रा में दूध नहीं देती है। गाय के मालिकों द्वारा दूध का सेवन नहीं किया जाता है।
परहियों के खान पान की आदतों पर प्रकाश डालते हुए 1898 में डी. एच. जी. सुन्दर ने लिखा खाने योग्य सभी जंगली उत्पाद इनके काम आते हैं तथा परहिया और बिरजिया जातियों को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है जो इनमें से सभी को प्राप्त करने का तरीका जानती हो। ये लोग सभी प्रकार की मछलियाँ, युवा सूअर तथा बधिया किया हुआ सूअर जिसे मीडा कहते हैं, बकरे के मांस, हिरण, मुर्गी, मोर तथा अन्य प्रकार के पशु पक्षियों का भोजन करते हैं। लेकिन ये लोग गोमांस नहीं खाते हैं। (यह विश्वास किया जाता है कि पहले ये लोग मक्खन निकाला हुआ तथा कच्चा दूध का प्रयोग करते थे) लेकिन इन दिनों जबकि दूध से घी निकाल कर बेचने का का व्यवसाय आरंभ हुआ गायों के मालिकों ने दूध का प्रयोग बंद कर दिया। परहियों की आज से जो सौ वर्ष पहले खान – पान की प्रवृति थी उसमें अब मूल परिवर्तन आ गया है। हालाँकि ये अभी भी खाद्य पदार्थ इकट्ठा करने वाली जाति हैं। जंगली कंद – मूल, फल, खाने योग्य फूल पत्ते स्त्री पुरूषों द्वारा अभी भी जमा किए जाते हैं तथा सालों भर के लिए यही एकत्र जंगली उत्पाद इनका मुख्य आहार होता है।
कृषि में संबंध में आंकड़े उपलब्ध कराते हुए टालेंट लिखते हैं पहाड़ी प्रदेश में इनकी कृषि अभी अपने शैशव काल में है। यहाँ जनजातियाँ कृषि की उन्हीं पुरातन विधियों का इस्तेमाल करती हैं जो उनके हाथ पीढ़ी – दर – पीढ़ी लगी है। ये लोग खेती के लिए न तो हल और ना ही कुदाल फावड़े का प्रयोग करते हैं। ये लोग आज भी बांस द्वारा गड्ढा बना आकर उसमें बीज डालकर कृषि करने की तकनीक से संतुष्ट हैं। खेती की यह विधि वियोडा कहलाती है हालाँकि यह विधि अब धीरे – धीरे समाप्त होने की ओर है। सरकारी कानून बनाकर अब जंगलों को नष्ट करने पर कड़ी रोग लगा दी गई है।
आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि जब परहियों को जंगल की भूमि का इस्तेमाल की छूट थी तो उनमें वियोडा या स्थान बदल - बदल कर खेती करने का प्रचलन था। लेकिन जंगलों से संबंधित नियम कानून के प्रावधान के तहत उन्हें अब वियोडा खेती की अनुमति नहीं है। हालाँकि संताल परगना के कुछ जिलों में सरकार द्वारा निर्धारित भूमि पर सौरिया पहाड़िया जाति को आज भी स्थान बदल – बदल कर खेती करने की अनुमति प्राप्त है। राज्य में यह एकमात्र ऐसी आदिम जाति है जो जंगल कानून के प्रावधानों के तहत स्थान बदल – बदल कर कृषि करने पर आश्रित है।
परहिया सदस्यों का कहना है कि परंपरागत व्यवस्था में उनके पास बहुत कम भूमि हैं। 45 प्रतिशत परहिया भूमिहीन हैं और बाद बाकी जिनके पास भूमि है वह 10 एकड़ या उससे कम है। हल – बैल, बीज, खाद तथा अन्य सुविधाओं के अभाव में इस भूमि पर भी खेती नहीं हो पाती है। इन सभी बातों के अलावा जो जमीन परहिया के अधिकार में है उसकी गुणवत्ता बहुत निम्न स्तर की है इसमें सुधार के लिए धन की आवश्यकता है। गरीबी के चलते इनकी जमीन परती ही पड़ी रही जाती है। अधिकतर परहिया का कहना है कि सालाना उनकी फसल 3 से 15 मन तक की होती है लेकिन इसे भी महाजन और सूदखोर उठा ले जाते हैं। परहिया ऋणग्रस्तता के आंकड़े नहीं देते हैं। वह यह नहीं बताना चाहते कि उनके बीच कानूनी पकड़ से बचाने के लिए अपनाते हैं। पैसों के लिए समय – समय पर मजदूरी करना अभी भी इनकी आजीविका का एक साधन है। आस – पास के जंगलों में इन्हें कृषि मजदूर के रूप में रोजगार उपलब्ध हो जाता है। इस क्षेत्र के गैर जनजातीय किसान श्रम निरीक्षकों की कमी की वजह से श्रम विभाग न्यूनतम मजदूरी कानून को सफलतापूर्वक लागू नहीं कर सका है।
परहियों की गिरती हुई आर्थिक दशा ने सरकार को इनकी सुध लेने पर मजबूर किया है। अत: परहिया जाति की सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए प्रयोग के तौर पर सरकार द्वारा इनके पुनर्वास की एक योजना आरंभ की गई। पलामू जिले के विभिन्न भागों में परहियों के लिए कालोनियां बनाई गई जिसका विवरण इस प्रकार है –
क्र. सं |
प्रखंड का नाम |
वर्ष |
स्थान जहाँ बसाया गया |
परहिया परिवारों की संख्या जिन्हें बसाया गया |
1. |
चंदवा |
1956 – 57 |
दामोदर 16 |
|
2. |
चंदवा |
1956 – 57 |
नगर |
08 |
3. |
चंदवा |
1957 – 58 |
लतदाग |
21 |
4. |
चंदवा |
1957 – 58 |
चटांग |
10 |
5. |
चंदवा |
1958 – 59 |
चीरो |
15 |
6. |
चंदवा |
1961 – 62 |
अंकिता 23 |
|
7. |
चंदवा |
1959 – 60 |
पकरी ओल्हेपाल |
23 |
पुनर्वास के समय प्रत्येक परहिया परिवार को निम्नलिखित वस्तुयें उपलब्ध कराई गई।
इस योजना का उद्देश्य परहिया जाति की सामाजिक और आर्थिक दशा को उन्नत बनाना था, लेकिन निम्नलिखित कारणों से यह योजना अपना उद्देश्य करने में सफल नहीं हो सकी –
क. पहाड़ियों पर पीढ़ी निवास करती चली आ रही इस जाति के अपने परिवेश से गहरा लगाव हो गया है। इनकी धारणा भी है कि इन्हीं पहाड़ियों में इनकी देवी देवताओं का वास है। पुनर्वास के क्रम में नयी जगह और नए पड़ोसियों के बीच ये असामान्य सा महसूस करने लगे। इसके अलावा इनके दिमाग में यह बात घर कर गई कि इनका अपने परंपरागत देवी देवताओं से संपर्क टूट गया है जिसके बहुत बुरे परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
ख. आरंभ में तो सरकारी अधिकारी इनके प्रति काफी तत्पर रहे। लेकिन समय बीतने के साथ इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया। परिणामस्वरूप इनमें से अधिकतर परिवारों ने कालोनियां छोड़ दी।
ग. इस क्षेत्र में जब कभी कोई अपराध हुआ पुलिस इन्हें गिरफ्तार कर ले गई। ऐसे गिरफ्तार परहियों की प्रतिष्ठा अपने समाज में गिर गई। जब ये पहाड़ी पर निवास करते थे पुलिस इन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाती थी।
परहिया अधिकतर एकल परिवार वाले होते हैं जिसमें पति – पत्नी और उसके अविवाहित बच्चे रहते हैं। जैसे ही किसी परहिया युवक की शादी होती है। वह अपने और अपनी पत्नी के लिए नये घर का निर्माण कर लेता है। इनमें संयुक्त परिवार की प्रथा धीरे – धीरे समाप्ति की ओर है। परहिया पितृवांशिक होते हैं तथा विवाह के बाद परहिया स्त्री को अपने पति के घर रहना पड़ता है। इनके समाज में स्त्री का स्थान महत्वपूर्ण है। सामाजिक, आर्थिक तथा घर गृहस्थी के मामले में स्त्रियों की बात को महत्व दिया जाता है।
गोत्र का नाम और इसके सांस्कृतिक महत्व को परहिया जाति भूल चूकी है। गोत्र प्रथा के लुप्त हो जाने की वजह से इनके समाज के मजबूती और एकता प्रदान करने में रिश्तेदारी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। इन्हें सजातीय तथा रक्त संबंधों की पूर्ण जानकारी है। ऐसे खून के संबंध वालों के साथ विवाह प्रतिबंधित है, अत: विवाह तय कराने की बातचीत में ये बातें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बड़े भाई की मौत के बाद उसकी पत्नी से तथा पत्नी की मौत के आड़ उसकी छोटी बहन से विवाह का इनमें प्रचलन है।
परहिया जाति के विवाह के पूर्व यौन संबंध प्रतिबंधित है अत: सामजिक रीति - रिवाज के मुताबिक लड़के – लड़कियों के तरूण होते ही इनका विवाह कर दिया जाता है ताकि विवाह पूर्व शारीरिक संबंधों पर अंकुश रखा जा सके। ये एक पत्नी रखने वाले होते हैं तथा इनमें विधवा विवाह प्रचलित है। इसके अलावा कोई परहिया पुरूष दूसरी पत्नी भी ला सकता है जब उसके पत्नी संतान उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होती है।
इनमें दुल्हन दहेज़ की प्रथा प्रचलित है। दहेज़ की रकम परंपरागत रूप से 5 से 7 रूपये के बीच होती है। नकद रकम के अलावा कन्या की माता और उसके भाई को वस्त्र देने की प्रथा है। इनके वैवाहिक विधि विधान बहुत हद तक हिन्दूओं की तरह हैं। हिन्दूओं की तरह विवाह में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात वर द्वारा कन्या की मांग में सिन्दूर भरना होता है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि इनकी सामाजिक मान्यता के मुताबिक विवाह का मुख्य उद्देश्य संतानोत्पत्ति होता है। बगैर विवाह के माता – पिता बने स्त्री – पुरूष का कोई प्रतिष्ठा नहीं होती है तथा समाज के बड़े बूढ़े ऐसे माता – पिता को विवाह कर लेने के लिए बाध्य करते हैं।
किसी गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा आरंभ होते ही चमार जाति कि स्त्री चमईन को बुलाया जाता है। यदि चमईन नहीं हो तो परिवार की बुजुर्ग महिला प्रसव करवाती है। बच्चे के जन्म के साथ ही चाकू या हसिया उसकी नाभि काट कर उसे घर के बाहर किसी एकांत स्थान पर गाड़ दिया जाता है। जन्म के बाद पांच से छह दिनों तक छूत माना जाता है।
इनमें शव को दफनाया जाता है लेकिन इन दिनों कुछ परहिया शव को जलाते भी हैं। मृत्यु के बाद दस दिनों तक छूत माना जाता है। दसवें दिन नाई परिवार के पुरूषों का बाल - दाढ़ी बनाता है तथा बारहवें दिन ब्राह्मणों और रिश्तेदारों को भोजन कराने की रस्म अदा की जाती है।
परहियों का धर्म विश्वास, पूजा पाठ तथा प्रतिभोगों से संबंद्ध है। इनका विश्वास है कि ये पहाडियों से घिरे जिस परिवेश में रहते हैं वहां बहुत सी अलौकिक शक्तियों का निवास है जो इनकी तमाम सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करती हैं। इनका मानना है कि यदि समय पर इन अलौकिक शक्तियों को पूजा उपासना आदि से प्रसन्न नहीं किया गया तो गांव तथा परिवार पर दैवी प्रकोप और आपदा आ सकती है। इनके द्वारा पूजे जाने वाले विभिन्न देवी – देवताओं के नाम से इस प्रकार हैं –
इनके अलावा परहिया देवी, गोनहल, धरती, सतबहिनी, दरहा, गोरिया, रखसल चनरी, सोखा, ब्रह्म तथा अपने पूर्वजों की पूजा भी करते है। समझा जाता है कि इनकी पूजा नहीं की गई तो वे बीमारी और मृत्यु ला देंगे।
क्षेत्र की दूसरी जनजातियों की तरह इनका भी जादू टोने और जादूगरी की विद्या पर विश्वास है। ये समझते हैं कि इसके माद्यम से बुरी आत्माओं द्वारा दूसरों को हानि पहुँचायी जा सकती है। जादू टोना जानने वाले को समाज में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है।
परहियों की कोई संगठित और परंपरागत पंचायत नहीं है। हालाँकि जब ये एकांकी जीवन बिताते थे तो इनकी पंचायत संस्था काफी प्रभावशाली थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकारी पंचायतों ने इनके परम्परागत पंचायतों का प्रभाव धीरे – धीरे समाप्त प्राय: कर दिया।
परहियों का कोई लिखित परम्परागत रीति – रिवाजों का संकलन नहीं है। यह बोल का प्रयोग द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाये जाते हैं। पारस्परिक कानून को तोड़ने की इनमें इजाजत नहीं होती है। जब कभी कोई ऐसी घटना होती है तो दोषी और शिकायतकर्ता दोनों को गाँव के बुजुर्गों के सामने उपस्थित होना पड़ता है। पंचायत अदालत में सुनवाई के लिए दिन, समय और स्थान का निर्धारण गाँव का प्रधान करता है। निश्चित दिन और समय पर गांव के सभी बड़े बुजुर्ग पंचायत में जमा होते हैं। गवाह भगवान का नाम लेकर सिर्फ सच्चाई बोलने की शपथ लेता है। गाँव के बुजुर्ग पूछताछ करते हैं। सुनवाई समाप्त होने पर उसी दिन फैसला भी सुना दिया जाता है।
परहिया संक्रान्तिक या परिवर्तन के दौर में हैं। ये लोग अपनी सामाजिक, आर्थिक स्थिति को उन्नत बनाने को इच्छुक हैं। ये चाहते हैं कि उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए इनके विकास की योजनाओं को तय किया जाये तथा विकास के नाम पर इन्हें इनके अपने हाल पर नहीं छोड़ दिया जाए। कृषि, शिक्षा तथा स्वास्थ्य योजनाओं के प्रति इन्हें निर्देशित करने तथा इन्हें प्रशिक्षित करने के प्रभावशाली सरकारी एजेंसी की जरूरत है।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 9/18/2019
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