जहाँ तक स्मृति जाती है असुर जाति छोटानागपुर की पहाड़ियों और इसके आस – पास निवास करती आई है। इस राज्य में की आदिम जनजातियों में से एक असुर के विषय में आम लोगों को जानकारी अपेक्षाकृत कम है। वह जाती अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए आवश्यक खाद्य और शरण स्थली की समस्या से लगातार जूझती यह आदिम जाति या तो विभिन्न शिल्पकृतियों को अपना चुकी है या फिर ऐसी तकनीकी विधायें और कलाओं को अपना रही है जिसे इन्होंने इस क्षेत्र में रहने वाली अन्य जातियों के साथ लंबे संपर्क के दौरान सीखा है।
हरि मोहन के मतानुसार असुर प्रोटो - अस्ट्रोलायड हैं तथा इनकी असुरी भाषा आस्टोएशियाटिक भाषा परिवार से संबंध रखती है। इन्हें तीन सगोत्रों में विभाजित किया गया है इन उप समूहों के नाम है – वीर असुर, अगोरिया असुर और विरजिया असुर। विरजिया का अर्थ है घूम – घूम कर कृषि करने वाला, जब की अगोरिया का अर्थ है ऐसे लोग जो आग का काम करते हैं जैसे - लोहा आदि गलाना। इसी प्रकार वीर असुर वे लोग हैं जो जंगलों में निवास करते हैं या वनवासी हैं। विरजिया को इस राज्य में अलग – अलग अनुसूची का दर्जा दिया गया है अत: इसे अन्य असुर जातियों के साथ नहीं मिलाया जा सकता है।
1871 से शुरू की जनगणना से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न जनगणना वर्षों में असुरों की आबादी में उतार – चढ़ाव आता रहा है। 1871 में जहाँ इनकी आबादी (2,567) थी वह 1881 में घटकर (2,206) हो गई, इसी तरह 1891 में (2,303), 1901 में इनकी आबादी में हल्की वृद्धि नजर आती है (2,784), 1911 में (3,716) लेकिन 1921 में फिर एक बार इनकी आबादी गिरती हुई नजर आई (2,245) 1931 में (2,024) लेकिन 1941 बाद इन जनसंख्या विकास में स्थिरता नजर आती है।
1971 में असुरों का मुख्य निवास पुराना रांची जिला जिसमें गुमला और लोहरदगा शामिल थे, रहा। इन्हें अब नए जिले का दर्जा प्राप्त है। असुरों की छिटपुट आबादी पलामू (415), धनबाद (16) तथा हजारीबाग (21) में भी पाई गई है। 1981 की जनगणना के मुताबिक इस जाति की कुल आबादी 7,783 थी।
असुरों के गाँव आम तौर पर नेतरहाट की ऊँची और चौरस पठारी भूमि पर पाए गये हैं इन क्षेत्रों को पाट क्षेत्रों के नाम से जाना जाता है। कई पीढ़ियों से लोहरदगा और गुमला के पाट क्षेत्रों में निवास कर रही है असुर जाति का अपने आस पास के परिवेश से बेहद भावनात्मक लगाव सा बन गया है। दस वर्ष और उसके ऊपर के आयु वर्ग वाले असुरों से सम्पर्क करने पर 70 प्रतिशत लोगों ने स्वीकार किया कि उनके पूर्वज आज से 100 वर्ष पहले एकाकी जीवन बसर करते थे। संचार सुविधा के अभाव में उनके गांवों का एक दुसरे के साथ संपर्क नहीं था। वन अधिकारी उनके निवास के आस – पास नहीं नजर आते थे तथा उनके पूर्वजों को आज की तरह जंगल में लगे प्रतिबंधों का सामना नहीं करना पड़ता था, इसके परिणामस्वरुप उनके पूर्वज जंगली संसाधनों का उपभोग करने के लिए स्वतंत्र थे। उनके जरूरतें और उनके आकांक्षाएं वस्तुत: बहुत सीमित थी क्योंकि वास्तव में बाहरी जगत से उनका संपर्क नाम मात्र को था। आज की तुलना में असुरों की पूर्वजों की आर्थिक स्थिति अधिक बेहतर थी। आज असुरों के जंगल के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है तथा बाहरी जगत से अधिकाधिक संपर्क ने उनकी जरूरतों और आकांक्षाओं को तुलनात्मक रूप से बहुत बढ़ा दिया है। लेकिन आर्थिक बदहाली की वजह से उनकी जरूरतें और उनके आकांक्षाओं की पूर्ती उनके लिए स्वप्न मात्र रह गई है। असुर अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं।
उपरोक्त आंकड़ों पर प्रकाश डालने और उनका विश्लेषण करने से यह पता चलता है कि भूतकाल में असुरों के पूर्वज कहीं बेहतर जीवन - यापन कर रहे थे। उनका एकाकी जीवन कहीं बेहतर था लेकिन उस एकाकीपन के टूटने तथा बाह्य जगत से अधिकाधिक संपर्क ने उनकी तकलीफों को कई गुणा बढ़ा दिया है। उक्त आंकड़ों पर 20 से 50 आयु वर्ग के असुरों की प्रतिक्रिया भी ली गई है। ये लोग एक बात से सहमत हैं कि किसी भी समुदाय के विकास के लिए उसका बाहरी जगत से संपर्क अनिवार्य है। यदि कोई व्यक्ति एकाकी रहता है तो या तो वह जानवर है या फिर भगवान। असुरों के सम्पूर्ण विकास के लिए दूसरी जातियों और जनजातियों के साथ उनका समाजिक और आर्थिक जुडाव जरूरी है। यह आंकड़े इस लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है जो की यह स्पष्ट करते हैं कि वर्तमान पीढ़ी के असुर अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार के इच्छुक हैं। इसके लिए ये लोग सरकार द्वारा चलाई जा रही ऐसी योजनाओं को स्वीकार करने लगे हैं जो इनकी प्रकृति और इनकी संस्कृति के अनुकूल है।
अब तक जिन आंकड़ों पर चर्चा हो चुकी उनसे स्पष्ट है कि असुर अब एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर रहे है साथ ही क्षेत्र के दूसरी जातियों और जनजातियों के साथ संपर्क ने उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को कई गुणा बढ़ा दिया है। परिणाम स्वरुप असुर आज उन सभी विकास योजनाओं का लाभ उठाने को इच्छुक है जो उनकी जरूरतों और उनकी संस्कृतिक पृष्ठभूमि के अनुरूप हैं। 75 प्रतिशत असुर इस बात से सहमत है कि उनकी सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सरकार को सबसे पहले चार बिंदूओं पर मुख्य रूप से ध्यान देना होगा। ये है – कृषि, उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य। लेकिन बाकी बचे हुए 25 प्रतिशत असुरों की धारणा है कि भविष्य में भी उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी क्योंकि वे लोग अपने – अपने गांवों के आस – पास बसने वाले देवी देवताओं को प्रसन्न कर पाने में असफल रहे हैं।
असुरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर हम यहाँ उनकी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए चर्चा करेंगे।
1971 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक 76.3 प्रतिशत असुर कृषक है जबकि 21.1 प्रतिशत कृषक मजदूर। इससे स्पष्ट होता है कि कृषि उनका आजीविका का मुख्य साधन है। असुर परिवारों से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 50 प्रतिशत असुर परिवारों के पास 5 एकड़ से नीचे, 30 प्रतिशत के पास 5 से 10 एकड़ के करीब जबकि 20 प्रतिशत असुर परिवारों के पास 10 एकड़ से अधिक जमीन है लेकिन ऐसा कोई परिवार नहीं है जिसके पास 15 एकड़ से अधिक भूमि हो। शत प्रतिशत परिवारों ने यह सूचना दी कि भूमि निम्नस्तर की है तथा उसे उपजाऊ बनाने के लिए उनके पास धन नहीं है। प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक कृषि आदान की अनुपल्ब्धता के कारण उनकी अधिकांश जमीन परती पड़ी रह जाती है। ऐसे में सरकार से उनकी उपेक्षा है कि अपनी कृषि उपज बढ़ाने के लिए उन्हें निम्नलिखित मदद मिलनी चाहिए।
आदान जिनकी असुरों को आश्यकता है |
प्रतिशत |
ए. विशेषज्ञों द्वारा भूमी की गुणवत्ता में सुधार |
30 |
बी. समय पर खाद, बीज तथा अन्य जरूरी चीजों की आपूर्ति |
60 |
सी. सूदखोरों से फसल की सुरक्षा |
10 |
कुल योग |
100 प्रतिशत |
ऊपर दिए आंकड़ों से स्पष्ट है कि अधिकतर असुर समय पर खाद और बीज की अपेक्षा रखते हैं। प्राप्त आंकड़े यह बताते हैं कि सरकार योजना के तहत समय – समय पर उन्हें खाद और बीज की आपूर्ति की जाती है लेकिन इससे असुरों को कोई लाभ नहीं पंहुच सका है क्योंकि योजना सही ढंग से निचले स्तर पर लागू नहीं की जाती है। ब्लॉक स्तर पर अधिकारीयों द्वारा खाद और बीजों की आपूर्ति की जिम्मेदारी होती है लेकिन प्राय: अधिकारी अपने कर्तव्य का उचित निर्वाह नहीं करते हैं या इनमें कई अनियमितताएं देखी जाती है।
इन सभी बातों के अलावा असुर अपनी भूमि की गुणवत्ता बढ़ाने की लालसा रखते हैं लेकिन सरकारी धन के अभाव में यह काम भी नहीं हो पाता है। शत प्रतिशत असुरों की मान्यता है कि खेती के सीजन में उन्हें कम से कम अगले पांच वर्षों तक सरकारी एजेंसियों के पूर्ण सहयोग और ध्यान की जरूरत है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है असुर ऐसी सभी विकास योजनाओं में सहयोग देने को तैयार हैं जो उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप है। वर्तमान समय में आर्थिक गतिविधियों के लिए धन की जरूरत पड़ती है लेकिन उनके पास इतना धन नहीं है कि वे कृषि कार्यों तथा शादी – विवाह, जन्म मरण के अवसर पर उस खर्च कर सकें। इन सब मौकों पर उन पर भारी खर्च पड़ता है। हालाँकि उत्पादन कार्यों के लिए सरकार की ओर से उन्हें ऋण की सुविधा उपलब्ध है लेकिन असुर फ़िलहाल सरकारी ऋण हासिल करने के लिए सरकारी कागजी कारवाईयों के अभ्यस्त नहीं हैं। उन्हें प्राय: सालों भर ऋण की आवश्यकता पड़ती है जो उन्हें सिर्फ सूद का धंधा करने वालों से ही उपलब्ध है। ऐसे सूद का धंधा करने वालो लोग इन क्षेत्रों में असुरों के साथ काफी समय से रहते चले आ रहे हैं। ये लोग असुरों के उनके नाते – रिश्तेदारों की तरह लगे हैं। सूद खोरों के दरवाजे कर्ज देने के लिए सालों भर चौबीसों घंटे खुले हैं, असुरों को सरकारी एजेंसियों की ओर से ऐसी व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। स्थलीय अध्ययन के दौरान एक बार सामने आई है कि असुर किसी अपरिचित व्यक्ति को सूद का धंधा करने वाले व्यापारियों का नाम बताना पसंद नहीं करते हैं। ज्ञातव्य है कि सरकार मनीलैंडर एक्ट के तहत सूदखोरों के धंधे को नियंत्रित करने के सभी संभव उपाय कर रही है। शत प्रतिशत असुरों ने बताया कि उन्होंने किसी भी सूद खोर से कोई ऋण नहीं लिया है। असुरों के इस उत्तर से यह स्पष्ट है कि वे सूद खोरों के बारे में कोई जानकारी नहीं देना चाहते हैं क्योंकि वे उन्हें कानूनी कार्रवाई से बचाना चाहते हैं।
उपरोक्त चर्चा से यह साफ हो जाता है कि असुरों की कृषि तथा अन्य गतिविधियों समय पर धन उपलब्ध नहीं होने से वजह से बाधित होती है। धन की अनुपलब्धता से उनका कृषि उत्पादन प्रभावित होता है। ऐसे में उन्हें क्षेत्र के बड़े कृषकों पर आश्रित होना पड़ता है जिसके यहाँ असुर कृषक मजदूर के रूप में जीवन व्यतीत करते हैं। 30 प्रतिशत असुरों का कहना था कि कृषक मजदूर के रूप में तीन माह के लिए वे बंगाल और असम चले जाते हैं। इससे पता चलता है कि उनमें अस्थायी अप्रवास की भी प्रवृति है।
एक समय में लोहा पिघलने का कार्य ही असुरों की मुख्य आजीविका थी। शत प्रतिशत असुरों ने जानकारी दी है कि एक सौ वर्ष उनके पूर्वजों द्वारा लोहा पिघलाने का पेशा ही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन था। लेकिन समय बीतने के साथ जंगल पर लगे प्रतिबन्ध के कारण लौह अयस्क और उसे पिघलाने के लिए जरूरी चारकोल उपलब्ध होना कठिन होता गया। वर्तमान समय में यह उद्योग इनके लिए अतीत की बात बनकर रह गया है। अब कुछ गिने – चुने परिवार हैं जो लोहा पिघलाने का काम करते हैं। असुर चाहते हैं कि यदि उनके लुप्त होते इस उद्योग को फिर एक बार प्रश्रय मिलता है तो उनकी आय बढ़ सकती है। चूंकि जंगलों के कानून वजह से चारकोल और लौह - अयस्क आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकते है अत: असुर चाहते हैं कि इसकी उपलब्धता के लिए लोहरदगा और गुमला मेसो क्षेत्र में सरकारी देख – रेख में सहकारी समितियां के लिए क्षेत्र निर्धारित कर दिए जाने चाहिए ताकि इन समितियों को चारकोल और लौह अयस्क आसानी से उपलब्ध हो सके। असुरों का कहना हैं कि यह उनके आवश्यकता है। इसके अलावा वे चाहते हैं कि सरकारी देख – रेख के तहत उनके लिए प्रशिक्षण सह – उत्पादन केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए ताकि जिन असुरों ने अपना यह पारंपरिक पेशा और तकनीक भुल दिया है वे विशेषज्ञों की देख – रेख में पुन: इसे सीख सके।
अपने संपन्न पड़ोसियों के संपर्क में आकर असुरों ने भी यह महसूस किया है उनका आर्थिक और सामाजिक उत्थान केवल शिक्षा के माध्यम से ही संभव है। 1971 और 1981 की जनगणना आंकड़ों के मुताबिक असुरों में शिक्षा का प्रसार क्रमश: 5.41 और 10.37 था। लेकिन इससे एक बात फिर भी तय है कि उनमें शिक्षा की जो दर है उससे उनका कोई भला नहीं होने जा रहा है। उनके उत्थान के लिए जरूरी है कि उन्हें भी उस क्षेत्र की दूसरी संपन्न जातियों और लोगों की तरह शिक्षा मिले जिनके बच्चे स्कूलों और कॉलेजों में अच्छी शिक्षा पा रहे हैं और इनमें से अनेक सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी पाकर अपने परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को ऊँचा कर रहे हैं। 1954 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग की रिपोर्ट के आधार पर बहुत पहले असुर गांवों में स्कूल खोले जा चुके हैं। राज्य चालू की गई। इन स्कूलों में नारमा गाँव के जोभिपाट और विशुनपुर पुलिस थाना के गुरदारी ग्राम में सखूआपानी में दो आवासीय जूनियर स्कूलों की स्थापना शामिल है।
आंकड़ों से स्पष्ट है कि असुरों के लिए आवासीय विद्यालय की शुरूआत 1955 – 56 में ही की गई। कोई भी असर बालक या बालिका 15 वर्षों में स्नातक बन सकता था। लेकिन आज स्थिति भिन्न है। असुरों में आज भी कोई स्नातक दुर्लभ है। असुरों में मैट्रिक या स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त लोगों की संख्या नगण्य है। इसका प्रमुख कारण है उनके बीच कोई ऐसी एजेंसी नहीं है जो उन्हें दिशा निर्देश दे सके। किसी सरकारी या स्वयंसेवी संस्था ने असुरों के बच्चों को प्राथमिक से लेकर स्नातक शिक्षा तक निर्देश देने तथा उनकी समस्याओं में समाधान का बीड़ा नहीं उठाया। इनके बीच कोई ऐसी संस्था नहीं है जो इन्हें काम के अवसर तथा रिक्तियों के बारे में सही सूचना दे सके। इसका परिणाम यह होता है कि अन्य जाति और जनजातियों के बच्चों की तरह रोजगार की तलाश में मैट्रिक या इंटरमीडियट तक की पढ़ाई पूरी कर चुके असुरों के बच्चे भी यहाँ से वहां की दौड़ लगाते रह जाते हैं। इसके अलावा सरकार के किसी विभाग के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जिसके आधार पर पढ़े – लिखे असुरों की एक सही सूची उपलब्ध हो सके।
शत प्रतिशत असुर जाति के लोग स्वास्थ्य की समस्याओं को लेकर चिंतित हैं। उनका मानना है कि यदि यह समस्या नहीं सुलझती है तो कोई भी विकास कार्य का कुछ अर्थ नहीं है। रंगअंधता और घेघा रोग असुरों में मुख्य रूप से पाये जाते हैं। इसका कारण देते हुए श्री गुप्ता ने सर्वेक्षण रिपोर्ट में दर्ज किया है। विटमिन ए की कमी से होने वाला रंग अंधता का रोग आयोडीन की कमी से होने वाल घेंघा रोग सर्वेक्षण के दौरान असुरों में आमतौर पर पाए गये। इन दो प्रमुख रोगों के अलावा असुर मलेरिया, बुखार, पेट की गड़बड़ियों और दस्त की बीमारी आदि से पीडित रहते हैं। दूसरों के सम्पर्क में आकर असुर आधुनिक दवाओं का सेवन की इच्छा रखने लगे हैं लेकिन पास में किसी अस्पताल में जाकर इनके द्वारा इलाज करवाने जैसी बात शायद ही कभी देखी जाती है। इस तथ्य के बारे में हरिमोहन कहते हैं जब वह असुरों के बीच काम कर रहे थे वे एक आँख के डाक्टर के साथ असुरों के गाँव में सप्ताह भर रुके। इसी अवधि के दौरान वह डाक्टर असुरों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गया। आँखों की बीमारी से पीड़ित करीब 130 असुर स्त्री – पुरुष डाक्टर के पास जांच कराने, दवा लेने के लिए पहुंचे। यह आंकड़ा इस बात का संकेत है कि असुर अपने परम्परागत उपचार करने वालों पर से विश्वास खोते जा रहे हैं। यदि अस्पतालों के डाक्टर असुरों के गाँव में लगातार पहुंचते रहे तो असुर आधुनिक दवाओं और इलाज को बहुत सहजता से स्वीकार करने लग जाएंगे।
अब तक हमलोगों ने असुरों की भौतिकवादी संस्कृति के बारे में चर्चा की। यहां उनके गैर भौतिक संस्कृति के विषय में चर्चा करना भी समीचीन होगा।
असुरों की यह धारणा है बच्चे भगवान की देन हैं। यदि कोई स्त्री भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाती हैं तो वह कभी माँ नहीं बन सकेगी। इस तरह की बाँझ औरतों को असुर समाज में काफी हेय दृष्टि से देखा जाता है। इनके सामाजिक रीति – रिवाज के मुताबिक किसी बाँझ औरत को उसका पति तलाक दे सकता है या बच्चे के लिए वह दुसरी शादी कर सकता है। असुर यह जानते हैं कि नौ माह के गर्भ के बाद स्त्री बच्चे को जन्म देती है लेकिन वह महीनों की गिनती नहीं जानते हैं अतः समाज की बड़ी – बूढ़ी महिलायें गर्भवती स्त्री के शारीरिक विकास के आधार पर गर्भकाल का आमतौर पर अन्दाज लगाती हैं। गर्भवती स्त्री को जब प्रसव पीड़ा होती है तो उसे एक कमरे में बंद कर दिया जाता है जिसे असुरों की भाषा में सौरीघर कहा जाता है। आमतौर पर बच्चे के जन्म के समय चमइन (चमार जाति की महिला) मौजूद रहती है लेकिन यदि चमाईन उपलब्ध नहीं हो तो समाज की कोई बड़ी – बूढ़ी स्त्री की देख - रेखा में प्रसव कराया जाता है। बच्चे के जन्म के तुरंत बाद वहां मौजूद किसी स्त्री द्वारा उसकी नाभि नाल छुरी या हंसिया से काट कर उसी किसी एकांत स्थल पर गाड़ दिया जाता है। आमतौर पर बच्चे के जन्म के पांच से छह दिनों तक असुर इसे छूआ – छूत की बात मानते हैं।
असुर सजातीय विवाह करने वाले हैं। इनमें एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है चूंकि अब यह लोग अपने गोत्रों के नाम भूल चुके हैं इसलिए सामान्यत: विवाह के समय गोत्र निर्धारण कर दिया जाता है। असुरों में खून के रिश्ते में विवाह वर्जित है।
असुरों में आरंभिक काल से ही दहेज़ की प्रथा है। दहेज़ की रकम 5 से 7 रूपये के बीच तय होती है। इसके अलावा वधु के कपड़ों के साथ माता और भाई के कपड़े देने का भाई रिवाज है। इन सभी बातों के अलावा वर – वधु दोनों पक्ष अपने नाते – रिश्तेदारों को विवाह के उपलक्ष्य में दावत देते हैं। जिसकी वजह से इनपर भारी खर्च आ पड़ता है। असुरों में यह भी देख गया है कि जोड़े शादी – विवाह की रीति – रिवाजों को अदा किए बगैर भी पति – पत्नी के रूप में रह रहे हैं। लेकिन ऐसे जोड़े जब कभी अपने बच्चों का विवाह करवाते हैं उन्हें विवाह के सभी रस्म – रिवाज निभाने होते हैं। यह सामाजिक प्रावधानों के तहत किया जाता है।
एक असुर एक से अधिक पत्नी रख सकता है। लेकिन दूसरी पत्नी आमतौर तर तभी लायी जाती है जब पहली पत्नी से कोई संतान नहीं होती है। एक असुर अपने बड़े भाई की मृत्यु पर उसकी पत्नी से विवाह कर सकता है। यदि असुर पुरूष की पत्नी का निधन हो गया हो तो ऐसी स्थिति में वह पत्नी की छोटी विवाह से विवाह कर सकता है। ठीक इसी तरह का बात असुर स्त्री के साथ भी लागू होती है। पति की मृत्यु के बाद कोई असुर स्त्री विवाह कर सकती है। सामान्य तौर पर शादी – विवाह परिवार मुखिया द्वारा तय किये जाते हैं लेकिन कुछ मामले ऐसे भी देखे गए जिसमें लड़का लड़की भाग कर विवाह कर लेते हैं।
जहाँ तक बुढ़ापे की बात है अधिक उम्र के असुरो पुरूषों का परिवार ऊँचा स्थान होता है। चूंकि असुरों का कोई लिखित रीति – रिवाज नहीं अत: बूढ़े – बुजुर्ग सामाजिक रीति रिवाजों के संरक्षक माने जाते हैं तथा रीति - रिवाज उनके द्वारा एक ही पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते हैं।
असुरों में विश्वास है कि असुर स्त्री या पुरूष को एक निश्चित अवधि के लिए पृथ्वी पर भेजा गया है और यह अवधि जैसे पूरी होती है भगवान उन्हें वापस बुला लेता है। इस प्रक्रिया को असुर मृत्यु कहते हैं। मृत्यु बाद असुरों में शव को दफनाने की प्रथा है लेकिन इन दिनों इनमें शव दह संस्कार का भी प्रचलन देखा जाता है। मृत्यु के दस दिन बाद न असुर पुरूषों की हजामत बनाता है इसके बाद नाते – रिश्तेदार के लिए भोज आयोजन की प्रथा है।
असुरों में यह विश्वास है कि उनके आवास के आस – पास पहाड़ियों और वृक्षों पर अनेक देवी – देवता निवास करते हैं और यदि समय पर बैगा (पुजारी) द्वारा उन्हें प्रसन्न नहीं किया गया तो उनके परिवार और गाँव पर दैवी प्रकोप छुट पड़ेगा। सिगबोंगा (सूर्य) इनका सर्वप्रथम देवता है। ये लोग अपने पूर्वजों की भी पूजा उपासना करते हैं। सरहुल और करमा इनके मुख्य त्यौहार हैं। इस क्षेत्र की अन्य जातियों और जनजातियों की तरह असुरों का भी जादू और डायन विद्या पर गहरा विश्वास है।
इस क्षेत्र की अन्य जनजातियों के विपरीत असुरों की कोई परम्परागत पंचायत प्रणाली नहीं है। परम्परागत पंचायत प्रणाली नहीं है। सामाजिक कानून भंग के मामले अक्सर वृद्ध असुरों के समक्ष लाए जाते हैं। इस तरह के मामलों की सुनवाई के लिए दिन, समय और स्थान का निर्धारण बुजुर्ग असुरों की जिम्मेदारी होती है। मामले की सुनवाई के लिए उस दिन, समय और स्थान का निर्धारण बुजुर्ग असुरों की जिम्मेदारी होती है। मामले की सुनवाई के लिए उस दिन, समय और स्थान पर दोषी और शिकायतकर्ता तथा अन्य लोग जमा होते हैं। शपथ के आधार पर गवाहियों की जाँच होती है। सुनवाई समाप्त होने के बाद फैसला दिया जाता है। वैसे अब असुरों का भी इस परम्परागत पंचायत से विश्वास उठता जा रहा है तथा न्याय पाने के लिए वे सरकारी पंचायत की ओर रूख कर रहे हैं।
हरिमोहन लिखते हैं इन आदिम जनजातियों का शोषण करने के लिए पूर्व जमींदार, सूदखोर तथा भूमि हड़पने वाले लोग इनके बीच काफी सक्रिय हैं। पूर्व जमींदार इन लोगों को अपने चंगुल में फंसाये रखने के लिए आज भी सक्रिय हैं। चालू व्यवस्था के कारण विकास कार्यक्रम निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। असुर और कोरवा जातियों में आत्म विश्वास की भारी कमी है। उनकी भावनाओं की कद्र नहीं की जा रही है। उनकी दबी कुचली आकांक्षाएं फ़िलहाल उनके अस्तित्व की राख के नीचे – नीचे सुलग रही है लेकिन जब कभी उनका धैर्य टूट जाएगा राख के तले दबी चिंगारियां शोलों की तरह लपकने लगेंगी।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 11/25/2019
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