मध्यकाल इतिहास बताता है कि मुगल साम्राज्य तक छोटानागपुर का पठारी क्षेत्र दिल्ली या बाहरी सल्तनत के सीधे कब्जे से मुक्त था। वैसे, झारखंड के जनजातीय क्षेत्र के राजाओं का चरित्र और शासन-चिंतन भी मगध से लेकर दिल्ली तक के सम्राटों और शासन व्यवस्था से अलग था। इतना अलग कि बाहर के लोगों को आश्चर्य होता था कि जनजातीय राज में राजा और प्रजा को अलग-अलग कैसे पहचाना जाये। छोटानागपुर-संताल परगना से लेकर उड़ीसा-मध्यप्रदेश तक फैले जनजातीय क्षेत्र के लिए झारखंड शब्द का प्रयोग संभवत: मध्यकाल से ही शुरू हुआ। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्रियों में 13वीं शताब्दी के एक ताम्रपत्र में इस क्षेत्र के लिए झारखंड शब्द का पहली बार प्रयोग मिलता है। झारखंड यानी वन प्रदेश। शासकों का इतिहास बताता है कि 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जनजातीय बहुल झारखंड क्षेत्र को छोड़ कर पूरे उत्तर भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुर्क शासन की नींव रख दी थी।
छोटानागपुर पठार के मूल निवासी कौन थे, यह मालूम करना आसान नहीं है। यह संभावना भी व्यक्त की जाती है कि आज जिस आबादी को छोटानागपुर की मूल जाति के रूप में पहचाना जाता है, वह गंगा व सोन घाटी से बरास्ते पलामू पहुंची और वहां के मूल आदिवासियों को हटाकर खुद बस गयी। उन पुराने आदिवासियों का अब कोई नामोनिशान नहीं रहा। इस संभावना से जुड़े तथ्य भी हैं कि प्राचीन काल में उरांव और मुंडा जाति पश्चिमी भारत के नर्मदा तट से दक्षिण तक जाने के बाद उत्तरी और पूर्वी छोर से सोन घाटी आये और अंतत: छोटानागपुर पहुंच कर बस गये।
इतिहास में आरंभिक आर्य जातियों के छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र में आकर बसने की जानकारी नहीं मिलती। माना जाता है कि मगध साम्राज्य के उदय काल में आर्य बड़े पैमाने पर यहां बसने के ख्याल से नहीं आये। वे छोटे-छोटे जत्थों में व्यापारिक या धार्मिक मार्गों पर बसे थे। मानभूम के इलाके में इसके प्रमाण मिलते हैं।
मध्यकाल के कई इतिहासकारों के अनुसार उस काल में छोटानागपुर जिस दायरे में था, उसे झारखंड यानी जंगल के देश के रूप में जाना जाता था। कहा जाता है कि उस जंगल में सफेद हाथी पाये जाते थे। किस्सा है कि शेरशाह ने सफेद हाथी लाने के लिए झारखंड राज के पास अपनी सेना की टुकड़ी भेजी थी। 1585 में अकबर की सेना ने झारखंड राजा पर आक्रमण किया था। उसके बाद से राजा ने अकबर को कर देना स्वीकार किया था। वैसे, उसके बाद भी झारखंड क्षेत्र पर कई हमले हुए लेकिन उन हमलों का असली मकसद वहां उपलब्ध हीरों पर कब्जा करना होता था। उस वक्त यह चर्चा भी दूर-दूर तक फैली हुई थी कि झारखंड राजा असली हीरों का सबसे बड़ा पारखी है। इस सिलसिले में जहांगीर के जमाने का 'असली हीरे की पहचान के लिए भेड़ों की भिंड़त' वाला किस्सा तो बेहद मशहूर है। 1616 में जहांगीर के शासन काल में हमला कर झारखंड राजा को गिरफ्तार कर लिया गया। उसे बंदी बना कर दिल्ली और ग्वालियर में रखा गया। मूल किस्सा यह है कि सम्राट जहांगीर एक बड़ा हीरा खरीदना चाहता था लेकिन अपनी जानकारी के आधार पर झारखंड राजा ने सूचना भेजी कि उस हीरे में कुछ खामी है। अपनी बात साबित करने के लिए उसने लड़ाकू भेड़ों की भिड़ंत का आयोजन किया। जिस हीरे को जहांगीर खरीदना चाहता था, उसे एक भेड़ के सिर में बांध गया और दूसरे भेड़ के सिर में दूसरा हीरा बांध गया, जो असली था। दोनो भेड़ों के बीच भिड़ंत हुई तो वह हीरा दो फांक हो गया, जिस पर झारखंड राजा ने उंगली उठाई थी। हीरा की असलियत जानने के लिए उसे हथौड़े से नहीं तोड़ा-फोड़ा जाता। हीरा जितना कड़ा होता है, उतना ही भुरभुरा होता है। फिर भी किस्सा तो कुछ ऐसा ही है। कहा जाता है कि जहांगीर इतना खुश हुआ कि उसने झारखंड राजा को रिहा कर दिया।
झारखंड क्षेत्र के इतिहासकारों का मानना है कि मुगल सम्राट जहांगीर की सेना द्वारा झारखंड के तत्कालीन राजा दुर्जनशाल को हिरासत में लिया जाना झारखंड के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। उसके बाद से ही यानी मुगल शासन के आखिरी दिनों में मुसलमान बड़े पैमाने पर छोटानागपुर में आकर बसे। यहां के राजाओं ने कई हिंदुओं को भी बसाया। उन्हें कुछ गांव दान में दिये। उनमें से कुछ लोगों को सेना में भी लिया जाता था। डा. रामदयाल मुंडा के अनुसार मुगल सम्राट जहांगीर की सेना ने झारखंड के तत्कालीन राजा दुर्जनशाल को हिरासत में लिया और उन्हें ग्वालियर जेल भेज दिया। करीब 12 साल जेल में रहकर दुर्जनशाल निकले तो उनके दरबार में पश्चिमी राजाओं की नकल में झारखंड में भी राजसी ठाटबाट की स्थापना के लिए बाहरी लोगों का प्रवेश हुआ। पंडित-पुरोहित, सेना-सिपाही, व्यापारी और अनेक प्रकार के लोग राज-व्यवस्था के पोषक और आश्रित के रूप में आये। वैसे, 16वीं शताब्दी तक झारखंड में बाहरी आबादी के आने की गति धीमी रही। यहां के विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व का सम्बंध कायम रहा। यहां तक कि बाहर के लोगों के यहां आने और बसने के क्रम में उनका 'आदिवासीकरण' भी होता रहा। वे स्थानीय 'सहिया' और 'मितान' जैसी पद्धतियों के माध्यम से आदिवासी समाज के अंग बन गये। 1765 में झारखंड क्षेत्र में अंगरेजों के आने के बाद बाहर के लोगों के आने की प्रक्रिया तेज हुई। बाहरी लोगों के आदिवासीकरण की प्रक्रिया खत्म होने लगी।
1765 में बिहार, बंगाल और उड़ीसा जब ईस्ट इंडिया कम्पनी की दीवानी में शामिल कर लिये गये, तब छोटानागपुर अंग्रेजों के अधीन आ गया। हालांकि उसके छ: साल बाद तक भी अंग्रेजी हुकूमत यहां अपनी कोई सीधी प्रशासनिक व्यवस्था नहीं कायम कर सकी। उसके बाद भी 18वीं सदी के अंत तक इस क्षेत्र में राजस्व वसूली और कानून व्यवस्था लागू करने में अंग्रेजों को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। खास तौर से दक्षिणी मानभूम का क्षेत्र अंग्रेजों को लगातार चुनौती देता रहा। 19वीं शताब्दी के पूवार्ध में ही 1831 में प्रथम आदिवासी आंदोलन 'कोल विद्रोह' के रूप में फूट पड़ा और तबसे छोटानागपुर का इतिहास तेजी से बदलने लगा।
झारखंड के संताल परगना क्षेत्र के मध्य व ब्रिटिश काल का इतिहास भी कम महत्वपूर्ण नहीं। यह पहाड़ियों से घिरा ऊँची पहाड़ियों वाला क्षेत्र है। इसकी मुख्य पहाड़ी शृंखला है राजमहल की पहाड़ियां। इसके उत्तरी छोर पर गंगा की घाटी है। गंगा समुद्र की ओर दक्षिण मुड़ने के पहले यहां पूरब की ओर मुड़ती है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण संताल परगना के उत्तरी क्षेत्र का इतिहास में विशेष महत्व रहा है। पहाड़ और नदी के बीच छोटा-सा गलियारा सामरिक दृष्टि से सेना की आवाजाही के लिए सबसे अनुकूल मार्ग था। यह सबसे संकीर्ण मार्ग 'तेलियागढ़ी मार्ग' के नाम से मशहूर था। यहां की प्रकृति ही ऐसी थी कि सेना को मोर्चा बनाने में आसानी होती थी। इस क्षेत्र पर जिस का कब्जा रहता था, वह खुद को अजेय समझता था। किलेबंदी के बाद तो यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से और मजबूत व सुरक्षित हो गया। भारतीय इतिहास के आंरभ से मुगल काल तक इस क्षेत्र का बहुत बड़ा भू-भाग वनों से आच्छादित था। मुगल शासकों के जमाने में यहां कई लड़ाइयां लड़ी गयीं। यहां तक कि शाहजहां अपने पिता जहांगीर के बागियों को दबाने के लिए यहां आया था। उसने बागियों को हरा कर बंगाल के नवाब इब्राहिम खान को मार डाला था। 1592 में अकबर के सेनापति और मंत्री मान सिंह ने राजमहल को बंगाल की राजधानी बनाया था। लेकिन दस साल बाद नवाब इस्लाम खान यहां से राजधानी को उठाकर ढाका ले गया। 1639 से 1660 तक राजमहल दोबारा राजधनी बना रहा। प्रारम्भ से इस क्षेत्र के मूल निवासी पहाड़िया रहे हैं। उन्हें 'मालेर' या 'सौरिया पहाड़िया' कहा जाता है। यह लड़ाकू और बहादुर जनजाति रही है। मुगल काल के शासकों के लिए पहाड़िया जनजाति सबसे बड़ा सिरदर्द थी। ब्रिटिश हुकूमत को भी इस क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए नाकों चने चबाने पड़े थे। राजमहल से दक्षिण उधवानाला के पास 1763 में मेजर ऐडम्स की ब्रिटिश सेना और मीरकासिम की सेना के बीच भिड़ंत हुई। मीरकासिम की सेना मजबूत किलाबंदी कर मोर्चा संभाले हुए थी। उसकी सेना पहाड़ी और गंगा नदी के किनारे स्थित दर्रे को पार कर चुकी थी। प्रकृति ने किला को अजेय बना रखा था। दक्षिण के हिस्से को छोड़ कर किला बाकी सब ओर से पहाड़ी से घिरा था। एडम्स की सेना पस्त थी। उसने अंतत: रात को पहाड़ी के दक्षिण से हमला किया। हमलावर दस्ते ने अस्त्र-शस्त्र और बारूद को सिर पर रखकर दलदल को पार किया। रात और अधूरी तैयारी के बावजूद मीरकासिम की सेना ने अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। हालांकि उसकी जबर्दस्त हार हुई। आलम यह था कि पीछे से हमले से किला फतह के बावजूद अंग्रेजी सेना की मुख्य टुकड़ी देर तक सीढ़ी की मदद से दीवार तोड़ने के काम में मशगूल थी। अपनी जीत पर अंग्रेजी सेना खुद चकित थी। संताल परगना के पहाड़ी क्षेत्र और नीचे के दामिन-इ-कोह (वन ) क्षेत्र में संतालों ने बसना शुरू कर दिया था। अंग्रेज हुकूमत अपनी राजनीति व रणनीति के अनुरूप संतालों के आगमन को विशेष प्रोत्साहन और सहयोग देती थी। उन्हें जंगल साफ करने और जंगली पशुओं से छुटकारा दिलाने के लिए पड़ोसी जिलों से लाकर बसाया जाता था। पहाड़िया जनजाति ने अपने गांवों में संतालियों के आगमन का जरा भी विरोध नहीं किया। लेकिन बाद में अंग्रेजी हुकूमत की फूट डालो और राज करो की नीति ने संताल परगना के पूरे इतिहास को ही नया मोड़ दे दिया। अंग्रेज हुकूमत ने क्षेत्र के मूल निवासी पहाड़िया प्रजाति को लुटेरा समुदाय घोषित किया और जंगल काट कर खेत बनाने और जंगली पशुओं से छुटकारा पाने के लिए संतालों को उस क्षेत्र में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। पहाड़िया और संतालों के बीच द्वेष और तनाव पैदा कर अंग्रेजों ने क्षेत्र में अपना राज पक्का किया। हालांकि 1885 में संताल विद्रोह हुआ, तो अंग्रेजी हुकूमत की पोल खुल गयी।
अंग्रेजों के आगमन के साथ झारखंड क्षेत्र में सत्ता और शासन के साथ शोषण का नया और क्रूरतम रूप प्रगट होने लगा। बाहर आने वाले लोग यहां के व्यापार, शिक्षा सामाजिक शासन, प्रशासन, न्याय प्रणाली और धर्म-कर्म तक पर काबिज होने लगे। उनके आदिवासीकरण की प्रक्रिया भंग हुई और वे 'दिक्कू' के रूप में पहचाने जाने लगे। 1793 में अंग्रेजों ने परमानेंट सेटलमेंट का कानून लागू किया। इसके साथ ही ब्रिटिश शासन के शोषण-दमन का चक्र तेजी से चलने लगा और उसके खिलाफ आदिवासी संघर्ष का नया इतिहास बनने लगा। वैसे, उसके दस साल पहले ही आदिविद्रोही तिलका मांझी ने 1783 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ भीषण विद्रोह कर यह दिखा दिया कि शांत आदिवासी के अंदर आजादी के लिए मर मिटने का कैसा हौसला होता है?
स्रोत व सामग्रीदाता: संवाद, झारखण्ड
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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