झारखंड के विभिन्न जिलों में पुरातात्विक अन्वेषण किया गया है। उससे मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास की 'जंगल-गाथा' सामने आयी है। पुरातात्विक उत्खनन में पूर्व, मध्य एवं उत्तर पाषाणकालीन पत्थर के औजार और उपकरण बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। उनसे यह तो साबित होता ही है कि झारखंड में आदिमानव रहते थे। पुरातात्विक सामग्रियों के अध्ययन-विश्लेषण से उससे बड़ा यह तथ्य उभरता है कि झारखंड क्षेत्र में जनजीवन को मुख्यत: 'जंगल' ही सदियों से सभ्यता और संस्कृति की राह दिखाता आ रहा है। आम तौर पर मानव सभ्यता के विकास और उसकी रफ्तार के लिए 'जल' को मुख्य आधार माना जाता है। यानी माना जाता है कि नदियों की धाराओं ने मानव सभ्यता को दिशा दी। नदियों की अलग-अलग 'प्रकृति' ने मानवीय 'संस्कृति' को विविधता प्रदान की। झारखंड क्षेत्र में पुरातात्विक अन्वेषण से जो औजार और उपकरण मिले हैं, वे मैदानी या नदी-घाटी क्षेत्रों में प्राप्त सामग्रियों जैसे ही हैं लेकिन उनसे मानव सभ्यता-संस्कृति की 'जल-यात्रा' और 'जंगल-यात्रा' के बीच के फर्क को पहचाना जा सकता है। उससे खुद को प्रकृति का जेता मानने वाली आधुनिक संस्कृति और खुद को प्रकृति का सहयोगी मानने वाली आदिवासी संस्कृति के विभेद का विश्लेषण भी संभव है।
सन् 1991 में हजारीबाग जिला के इस्को, सतपहाड़, सरैया, रहम देहांगी आदि स्थलों की खुदाई हुई। इस्को में एक समतल शिलाखंड पर प्रागैतिहासिक मानव द्वारा की गयी चित्रकारी का नमूना प्राप्त हुआ। दो प्राकृतिक गुफाओं का पता चला। गोला, कुसुमगढ़, बड़कागांव, बांसगढ़, मांडू, देसगार, करसो, पाराडीह, बरागुंडा, राजरप्पा एवं अन्य गांवों से पुरातात्विक अन्वेषण में पाषाणकालीन मानव द्वारा निर्मित पत्थर के औजार मिले। ये पूर्व पाषाणकाल, मध्य पाषाणकाल और उत्तर पाषाणकाल के हैं। इनमें कुल्हाड़ी, फलक, बंधनी, खुरचनी, बेंधक, तक्षणी आदि मुख्य हैं।
पलामू जिला के शाहपुर, अमानत पुल, रंकाकलां, दुर्गावती पुल, बजना, वीरबंध, मैलापुल, चंदरपुर, झाबर, रांची रोड(लातेहार से 18 किलो मीटर रांची की ओर) में हाथीगारा एवं बालूगारा, नाकगढ़ पहाड़ी आदि स्थलों पर खुदाई में पूर्व, मध्य और उत्तर पाषाणकाल के साथ नव पाषाणकाल के पत्थर के औजार भी प्राप्त हुए। इनमें कुल्हाड़ी, स्क्रेपर, ब्लेड, बोरर और ब्यूरिम मुख्य हैं। भवनाथपुर के निकट प्रागैतिहासिक काल के दुर्लभ शैलचित्र प्राप्त हुए हैं। कई प्राकृतिक गुफाएं भी मिली हैं। उनके अंदर आखेट के चित्र हैं। उनमें हिरण, भैंसा आदि पशुओं के चित्र भी उकेरे हुए हैं।
सिंहभूम जिला
सिंहभूम जिला के लोटा पहाड़ नामक स्थल का उत्खनन पुरातत्व निदेशालय ने किया है। वहां भी पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। सिंहभूम में चक्रध्रपुर, वेबो, इसाडीह, बारूडीह, पूर्णपानी, डुगडुंगी, सेरेंगा, उलपाह, पफुलडुंगरी, तातीबे, चटकमर, कालिकापुर, आदि स्थलों पर भी पुरातत्व अन्वेषण कार्य हुआ है। इन स्थलों पर प्राप्त क्रोड, शल्क, खंडक, दोधरी खंडक, अर्धचंद्राकार, विदरायी, तक्षणी आदि पत्थर के हथियार प्रमुख हैं। बारूडीह के संजय एवं सोननाला के संगम स्थल पर पुरातात्विक उत्खनन से नव पाषाणकालीन मृद भांड के टुकड़े, पकी मिट्टी के मटके, पत्थर की हथौड़ी, वलय आदि प्राप्त हुए हैं। ईसा से एक हजार साल पूर्व की अवधि को नवपाषाण काल माना जाता है। बारूडीह से करीब तीन किलो मीटर पूरब डुगनी और डोर, चांडिल के निकट नीमडीह, नीमडीह रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर पूरब बोनगरा स्थल पर हाथ से बने मृद भांडों के टुकड़े, वलय प्रस्तर (रिंग स्टोन), पत्थर के मनके, कुल्हाड़ी आदि मिले हैं। बोनगरा के निकट बानाघाट स्थल पर नव पाषाणकालीन पांच पत्थर की कुल्हाड़ियां, चार वलय और पत्थर की थापी, पकी मिट्टी की थापी और काले रंग के मृद भांड के टुकड़े आदि मिले हैं।
भारतीय पुरातत्व में असुर शब्द का प्रयोग झारखंड के रांची, गुमला और लोहरदगा जिलों के कई स्थलों की ऐतिहासिक पहचान के लिए प्रयुक्त होता है। आज भी लोहरदगा , चैनपुर, आदि इलाकों में असुर नामक जनजाति रहती है। वह लोहा गलानेवाली और लोहे के सामान तैयार करने वाली जाति के रूप में मशहूर है। उस जाति के पुरखे यहां बसते थे, उन स्थानों से ईंट से निर्मित प्राचीन भवन, अस्थि कलश, प्राचीन पोखर आदि प्राप्त हुए हैं। लोहरदगा में कांसे का एक प्याला प्राप्त हुआ है। उसे असुर से संबंध माना जाता है। पांडु में ईंट की दीवार और मिट्टी के कलश सहित तांबे के औजार मिले हैं। जमीन के नीचे से पत्थर की एक पट्टिका भी मिली है। यहां से एक चारपाये की 'पत्थर की चौकी' मिली है, जो पटना संग्रहालय में है। नामकुम में तांबे के कंगन, लोहे के औजार और बाण के फलक मिले हैं। मुरद से तांबे की सिकड़ी और कांसे की अंगूठी मिली है। लुपंगड़ी में प्राचीन कब्रगाह के प्रमाण मिले हैं। कब्रगाह के अंदर से तांबे के आभूषण और पत्थर के मनके भी प्राप्त हुए हैं। बिंदा, बुरहातू, चेनेगुटू, चाचोनवा टोली, जनुमपीड़ी, कक्रा आदि प्रागैतिहासिक स्थल हैं। इन स्थानों से पत्थर की रखानी और कुल्हाड़ी आदि मिली हैं। जुरदाग, परसधिक, जोजड़ा, हाड़दगा, चिपड़ी (विष्णुपुर से करीब तीन किलोमीटर नेतरहाट) आदि स्थलों से पुरापाषाण और उच्च पुरापाषाण काल के उपकरण मिले हैं। कोनोलको, सरदकेल, भल्लाउफंगरी आदि स्थलों से लघु पाषाणकालीन उपकरण मिले हैं। परसधिक में उच्च पुरापाषाण और लघु पाषाणकालीन उपकरणों के साथ-साथ मध्य पाषाणकालीन उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।
पाषाणकाल के उपरोक्त पुरातत्व स्थलों के अतिरिक्त झारखंड में ऐतिहासिक काल के कई महत्वपूर्ण स्थल हैं।
हजारीबाग में बाराकर नदी के पास दूधपानी नाम की जगह है। वहां से 1894 में कुछ अभिलेख मिले थे। लिपि के आधर पर अभिलेख का काल 8वीं शताब्दी माना गया है। दूधपानी के पास ही दुमदुमा है। वहां पालकालीन (8वीं से 12वीं शताब्दी) मूर्त्तियां, पत्थर के अवशेष और शिवलिंग प्राप्त हुआ है। चतरा के प्रतापपुर प्रखंड से करीब 12 किलोमीटर दक्षिण में कुंपा का किला है। इस किले का निर्माण मुगलकाल में किया गया। चतरा के हंटरगंज प्रखंड से करीब दस किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में कोलुआ पहाड़ है। यहां मध्यकालीन दुर्ग की एक चारदीवारी है। दुर्ग की लम्बाई 600 मीटर और चौड़ाई 450 मीटर है। दीवारों की मोटाई 5 मीटर और चौड़ाई 3 मीटर है। इसी कोलुआ पहाड़ यानी कोलेश्वरी पहाड़ के शिखर पर हिंदू देवी-देवताओं के साथ जैन तीर्थंकरों और बुद्ध की मूर्त्तियां हैं। चोटी पर पत्थरों को काट कर जैन तीर्थंकरों की मूर्त्तियां बनायी गयी हैं। स्थानीय लोग उन्हें हिंदू मान्यताओं के आधार पर दसावतार मानते हैं। उस पहाड़ी की तलहटी में स्थानीय लोगों के साथ सदियों से बसे हैं सिख समुदाय के लोग। वे बताते हैं कि यहां सिखों के प्रथम गुरु नानकदेव और बाद के गुरु भी पधारे थे। उनका निर्देश और आशीर्वाद पाकर ही उनके पुरखे यहां बसे और स्थानीय संस्कृति के अनुरूप अपने को ढाल लिया। आज भी कौलेश्वरी मंदिर और अन्यर् मूर्त्तियों के संरक्षक स्थानीय सिख परिवार के सदस्य हैं। हजारीबाग की पारसनाथ पहाड़ी तो जैन धर्मावलम्बियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। जैन मतानुसार जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को यहीं निर्वाण प्राप्त हुआ था। पहाड़ी की तलहटी मधुबन से लेकर पहाड़ी की चोटी तक कई जैन मंदिर हैं। उनका निर्माण 18वीं और 19वीं शताब्दी में किया गया।
औरंगा नदी के तट पर बसे पलामू पर 17वीं शताब्दी से चेरो वंश के राजाओं का राज था। इस वंश के प्रथम शासक भागवत राय थे। उनका शासन 1613 ई. में शुरू हुआ था। इस वंश के सबसे प्रतापी राजा थे मेदिनी राय। गढ़वा से 16 किलो मीटर उत्तर-पूर्व में विश्रामपुर में एक गढ़ है। इसे पलामू के राजा जयकिशन राय के भाई नरपत राय ने बनवाया था। डालटनगंज के पास भी एक अधूरे किले के अवशेष हैं। इसे 18वीं शताब्दी में पलामू के ही राजा गोपाल राय ने बनवाना शुरू किया था लेकिन किला अधूरा रह गया। पलामू में पुराना किला और नया किला हैं। इतिहास की किताबों में दर्ज तथ्य के अनुसार पुराना किला से 12वीं शताब्दी की बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा में एकर् मूर्त्ति मिली थी। चंदवा से 9 कि. मी. पर उग्रतारा मंदिर और हुसैनाबाद से 8 कि. मी. पूरब में अली नगर का किला या रोहिल्ला का किला भी पलामू क्षेत्र में राजनीतिक स्तर पर हुए उथल-पुथल का सबूत है।
सिंहभूम जिला के दक्षिण पूर्व में बेनुसागर में हिंदू और जैन देवी-देवताओं की मूर्त्तियां बिखरी पड़ी हुई हैं। दो जैन तीर्थंकरों की मूर्त्तियां भी हैं। उनर् मूर्त्तियों का काल 7-8वीं शताब्दी माना जाता है। वहां एक तालाब है और उसके किनारे एक गढ़ का अवशेष भी। पूर्वी सिंहभूम जिला के बहरागोड़ा प्रखंड़ के गुहियापाल गांव में 10वीं-11वीं शताब्दी की मूर्त्तियां पायी गयी हैं। यहां प्राचीन काल में लोहा गलाया जाता था। पटमदा, सुपफरन, दालभूम गढ़, सारंडागढ़ , महुलिया, रौम आदि स्थलों पर प्राचीन दुर्ग और मंदिरों के भग्नावशेष हैं। रांची के पास चुरिया गांव में एक मंदिर है। उसकी चारदीवारी पर सन् 1727 का अभिलेख है। रांची शहर से ही करीब दस किलोमीटर पर फंची पहाड़ी पर स्थित जगन्नाथ मंदिर आज भी मशहूर है। उसकी ऐतिहासिक पहचान भी है। उसे सन् 1692 में छोटानागपुर के नागवंशी राजा ऐनीशाह ने बनवाया था।
पूरे झारखंड में इस तरह बिखरे ऐतिहासिक अवशेषों, सांस्कृतिक साक्ष्यों और स्थापत्य कला की दृष्टि से उल्लेखनीय कृतियों से यहां के अतीत और लोकजीवन के विविध पक्षों को जाना जा सकता है। अगाध पुरातात्विक संभावनाओं वाले झारखंड राज्य के इतिहास, सामाजिक जीवन और सांस्कृतिक परम्पराओं को समझने के लिए व्यापक व गहन सर्वेक्षण, अन्वेषण और उत्खनन जरूरी है। अब तक जो हुआ है, उससे झारखंड के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास क्रम को जान पाना संभव नहीं है। इतिहास के काल की कई कड़ियां अभी भी गुम हैं। इससे दीगर तथ्य यह है कि आम तौर पर इतिहास में राजाओं और राजव्यवस्था से जुड़ी घटनाओं और तारीखों का संकलन-आकलन होता है। इस दृष्टि से झारखंडी इतिहास में जो कुछ उपलब्ध है, उससे झारखंड के अतीत की मुकम्मिल पहचान नहीं बनती। जो सामग्री उपलब्ध है, उससे यह संकेत मिलता है कि झारखंड का इतिहास वहां के राजाओं से ज्यादा वहां की जनता ने बनाया। उपलब्ध तथ्यों और प्रमाणों से यह जान पाना भी मुश्किल है कि वहां के राजाओं और जनता के बीच क्या फर्क था? देश-दुनिया के इतिहास में वर्णित राजतंत्र के उत्थान-पतन की कहानियों और राजा-प्रजा के बीच के फर्क पर टिकी शासनिक अवधारणाओं से झारखंड के अतीत को पहचानना अब तक मुश्किल साबित हुआ है। उसे जानने-समझने के लिए नयी दृष्टि और पैमाने बनाने होंगे। राजा और प्रजा के बीच के फर्क से ज्यादा लोकजीवन ही झारखंड के इतिहास की पहचान का कारगर आधार बन सकता है।
स्रोत व सामग्रीदाता: संवाद, झारखण्ड
अंतिम बार संशोधित : 3/14/2023
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