मनु संहिता हिंदुओं का प्राचीन ग्रंथ है। उसमें एक श्लोक है। उसमें झारखंड की पौराणिक एवं सांस्कृतिक पहचान की झलक मिलती है।
श्लोक इस प्रकार है -
'अयस्क: पात्रे पय: पानम
शाल पत्रे च भोजनम्
शयनम खर्जूरी पात्रे
झारखंडे विधिवते।'
'झारखंड में रहनेवाले धातु के बर्तन में पानी पीते हैं। शाल के पत्तों पर भोजन करते हैं। खजूर की चटाई पर सोते हैं।'
झारखंड का शाब्दिक अर्थ है - जंगल झाड़ वाला क्षेत्र। मुगल काल में इस क्षेत्र को 'कुकरा' नाम से जाना जाता था। ब्रिटिश काल में यह झारखंड नाम से जाना जाने लगा। पुराण कथाओं को भी इतिहास का हिस्सा मानने वाले इतिहासकारों के अनुसार वायु पुराण में छोटानागपुर को मुरण्ड तथा विष्णु पुराण में मुंड कहा गया।
महाभारत काल में छोटानागपुर का नाम पुंडरीक देश था। चीनी यात्री फाह्यान के 399 ई.में बौद्ध ग्रंथों की खोज में भारत अनेक विवरण मिलता है। वह 411 ई. तक भारत में रहा। वह चंद्रगुप्त द्वितीय का शासन काल था। फाह्यान ने छोटानागपुर क्षेत्र को कुक्कुटलाड कहा। पूर्व मधयकालीन संस्कृत साहित्य में छोटानागपुर को कलिंद देश कहा जाता था। चीनी यात्री युआन च्यांग (630-644), ईरानी यात्री अब्दुल लतीफ (1600 ई.), ईरानी धर्माचार्य मुल्ला बहबहानी(19वीं सदी), बिशप हीबर (1824 ई.) के यात्रा-वृत्तांतों में भी छोटानागपुर और राजमहल का जिक्र है। मध्यकाल के इतिहास में यह चर्चा खास तौर से दर्ज है कि खोखरा देश में हीरे और सोना पाये जाते हैं।
बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (हजारीबाग, अध्याय चार, पेज 65) में उल्लेख है कि असुरों का राजा जरासंध अपने शत्रुओं को पराजित कर झारखंड के जंगलों में छोड़ देता था। यह मानकर कि वे खूंखार जानवरों का शिकार हो जायेंगे।
मुगलकाल के दस्तावेजों में झारखंड की ऐतिहासिक पहचान के प्रमाण मिलते हैं। इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया में झारखंड की भौगोलिक पहचान इस प्रकार की गयी है- 'छोटानागपुर इन्क्लूडिंग द ट्रिब्यूटरी स्टेट्स आफ छोटानागपुर एंड उड़ीसा ईज काल्ड झारखंड इन द अकबरनामा।'
झारखंड ऐतिहासिक क्षेत्र के रूप में मध्य युग में उभर कर सामने आया। झारखंड का पहला उल्लेख 12वीं शताब्दी के नरसिंह देव (गंगराज के राजा) के शिलालेख में मिलता है। यह दक्षिण उड़ीसा में पाया गया है। उसमें दक्षिण झारखंड का उल्लेख है। यानी उस वक्त उत्तर झारखंड की भी पहचान थी, जो उड़ीसा के पश्चिम पहाड़ी जंगल क्षेत्रों से लेकर आज के छोटानागपुर, संतालपरगना, मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के पूर्वी भागों तक फैला हुआ था।
उड़ीसा के पश्चिम क्षेत्रों के राजाओं को झारखंडी राजा कहा जाता था। 15वीं सदी के अंत में एक बहमनी सुलतान ने झारखंड सुलतान या झारखंडी शाह की पदवी ग्रहण की थी। उसका अर्थ यह है कि उस वक्त मधय प्रदेश के जंगल क्षेत्रों को भी झारखंड के नाम से जाना जाता था।
झारखंड से होकर अनेक रास्ते उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश जाते थे। उन मार्गों से सेना, व्यापारी और तीर्थ यात्री गुजरते थे। 'चैतन्य चरितामृत' में उसका वर्णन मिलता है। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि शेरशाह की चेरों से जो लड़ाई हुई थी, वह झारखंड के मार्ग को लेकर थी, जो पूर्वी भारत को पश्चिम भारत से जोड़ता था।
मध्य काल के बाद का इतिहास बताता है कि उस दौरान ही झारखंड की अवधारणा एक क्षेत्र विशेष के रूप में सिकुड़ने लगी। पंचेत से लेकर राजमहल तक का क्षेत्र झारखंड के नाम से जाना जाने लगा। उसमें रोहतास के किले से राजमहल के गंगा किनारे तक का क्षेत्रा भी शामिल था।
हिंदू धर्म के प्रचार के दौरान वैद्यनाथ धाम के 'बाबा' भी झारखंडी महादेव कहलाये। बिहार विभाजन से बने अलग झारखंड के संदर्भ में तो देवघर का बाबा धाम अब दो राज्यों की दो विशिष्ट संस्कृतियों के संगम स्थल के रूप में अपनी पहचान बना सकेगा। लाखों शिव भक्तों द्वारा हर साल सावन में सुलतानगंज (भागलपुर, बिहार) में कांवर में गंगा का पानी लेकर देवघर (झारखंड) में शिव पर जल चढ़ाये जाने का नया अर्थ रेखांकित होगा। बंटने के बावजूद दो राज्यों के अन्योन्याश्रित सम्बंधों के सबसे बड़े प्रतीक 'शिव' होंगे ।
कुल मिलाकर 'झारखंड' क्षेत्र विशेष की सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक पहचान का शब्द अब स्पष्ट भूगोल के जरिये परिभाषित हो रहा है।
स्रोत व सामग्रीदाता: संवाद, झारखण्ड
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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