सोयाबीन विश्व की एक प्रमुख फसल है। हमारे देश में यह विगत वर्षो में न केवल उच्च प्रोटीन वरन खाद्य तेल युक्त महत्वपूर्ण फसल के रूप में उभरी है। सोयाबीन उगाने वाले राज्यों में मध्यप्रदेश क्षेत्रफल (5.2 मिलियन हेक्टेयर) एवं उत्पादन (5.1 मिलियन टन) की दृष्टि से अग्रणी है तथा देश के सोयाबीन उत्पादन में 80 प्रतिशत का भागीदार है। इसके बीजों में तेल (20 प्रतिशत) तथा प्रोटीन (40-45 प्रतिशत) प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। इसकी बहुआयामी घरेलू एवं प्रायोगिक उपयोगिता के कारण यह अत्यधिक लोकप्रिय हो रही है। इसकी उत्पादन क्षमता अन्य दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक है तथा साथ ही साथ भूमि की उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाती है। इससे विभिन्न प्रकार के व्यंजन जैसे सोयादूध, दही, पनीर, बिस्किट आदि बनाए जाते है। हमारे देश में शाकाहारी एवं निर्धन लोगों के लिए या प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। तिलहनी फसलों में मूंगफली, तोरिया एवं सरसों के बाद क्षेत्रफल तथा उत्पादन के आधार पर हमारे देश में इसका तीसरा स्थान है। यद्यपि पिछले दशक में सोयाबीन के क्षेत्रफल में असाधारण रूप से वृद्धि हुई है, किन्तु इसकी उत्पादकता में कमी बनी हुई है। जिसका एक प्रमुख कारण खरपतवारों का सही समय पर समुचित नियंत्रण न कर पाना है।
सोयाबीन की फसल में उगने वाले खरपतवारों को मुख्यत: तीन श्रेणी में विभाजित किया जा सकता है:
(क) चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार – इस प्रकार के खरपतवारों की पत्तियाँ प्राय: चौड़ी होती हैं तथा यह मुख्यत: दो बीजपत्रीय पौधे होते हैं जैसे महकुंआ (अजेरेटम कोनीजाइडस), जंगली चौलाई (अमरेन्थस बिरिडिस), सफेद मुर्ग (सिलोसिया अजरेन्सिया), जंगली जूट (कोरकोरस एकुटैंन्गुलस), बन मकोय (फाइ जेलिस मिनिगा), ह्जारदाना (फाइलेन्थस निरुरी) तथा कालादाना (आइपोमिया स्पीसीज) इत्यादि।
(ख) सकरी पत्ती वाले खरपतवार – घास कुल के खरपतवारों की पत्तियाँ पतली एवं लम्बी होती हैं तथा इन पत्तियों के अंदर समांतर धारियां पाई जाती हैं। यह एक बीज पत्री पौधे होते हैं जैसे सांवक (इकाईनोक्लोआ कोलोना) तथा कोदों (इल्यूसिन इंडिका) इत्यादि।
(ग) मोथा परिवार के खरपतवार – इस परिवार के खरपतवारों की पत्तियाँ लंबी तथा तना तीन किनारे वाला ठोस होता है। जड़ों में गांठे (ट्यूबर) पाए जाते हैं जो भोजन इकट्ठा करके नए पौधों को जन्म देने में सहायक होते हैं जैसे मोथा (साइपेरस रोटन्ड्स, साइपेरस) इत्यादि।
सोयाबीन खरीफ मौसम में उगाई जाती है। वर्षा ऋतु में उच्च तापमान एवं अधिक नमी खरपतवार की बढ़ोतरी में सहायक है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि उनकी बढ़ोतरी रोकी जाए जिससे फसल को बढ़ने के लिए अधिक से अधिक जगह, नमी, प्रकाश एवं उपलब्ध पोषक तत्व मिल सके। प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि सोयाबीन के खरपतवारों को नष्ट न करने से उत्पादन में लगभग 25 से 70 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। इसके अलावा खरपतवार फसल के लिए भूमि में निहित खाद एवं उर्वरक द्वारा दिए गए पोषक तत्वों में से 30-60 किग्रा. नाइट्रोजन, 8-10 किग्रा. फास्फोरस एवं 40-100 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से शोषित कर लेते हैं। इसके फलस्वरूप पौधे की विकास गति धीमी पड जाती है और उत्पादन स्तर गिर जाता है। इसके अतिरिक्त खरपतवार फसल को नुकसान पहुँचाने वाले अनेक प्रकार के कीड़े मकोड़े एवं बीमारियों के रोगाणुओं को भी आश्रय देते हैं।
प्राय: यह देखा गया है कि कीड़े मकोड़े, रोग व्याधि लगने पर उसके निदान की ओर तुरंत ध्यान दिया जाता है लेकिन किसान खरपतवारों को तब तक बढ़ने देते है जब तक की वः हाथ से पकड़कर उखाड़ने योग्य न हो जाए। उस समय तक खरपतवार फसल को ढंककर काफी नुकसान कर चुके होते हैं। सोयाबीन के पौधे प्रारंभिक अवस्था में खरपतवारों से मुकाबला नहीं कर सकते। अत: खेत को उस वक्त खरपतवार रहित रखना आवश्यक होता है। यहाँ पर यह भी बात ध्यान देने योग्य है किफसल को हमेशा न तो खरपतवार मुक्त रखा जा सकता है और न ही ऐसा करना आर्थिक दृष्टि से लाभकारी है। अत: क्रांन्तिक (नाजुक) अवस्था विशेष पर निदाई करके खरपतवार मुक्त रखा जाए तो फसल का उत्पादन अधिक प्रभावित नहीं होता है। सोयाबीन में यह नाजुक अवस्था प्रारंभिक बढ़वार के 20-45 दिनों तक रहती है।
खरपतवारों की रोकथाम में ध्यान देने योग्य बात यह है कि खरपतवारों का सही समय पर नियंत्रण करें चाहे किसी भी प्रकार से करें। सोयाबीन की फसल में खरपतवारों की रोकथाम निम्नलिखित तरीकों से की जा सकती है।
खरपतवारनाशी रसायन का नाम |
मात्रा (ग्राम सक्रिय पदार्थ/हें.) |
प्रयोग का समय |
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नियंत्रित खरपतवार |
फ्लूक्लोरोलिन (बासालिन) |
1000-1500 |
बुवाई से पहले छिड़ककर भूमि में मिला दें। |
खरपतवारनाशी रसायनों की आवश्यक मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव हेतु नैपसैक स्प्रेयर एवं फ़्लैट फेन नोजल का प्रयोग करें। |
चौड़ी व सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का कारगर नियंत्रण होता है। |
पेंडीमेंथलिन (स्टाम्प) |
1000 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व। |
मुख्यत: सकरी पत्ती वाले खरपतवारों एवं कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण में प्रभावी है। |
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एलाक्लोर (लासो) |
1000 |
तदैव |
केवल सकरी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण में प्रभावी है। |
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मेट्रीब्यूजिन (सेन्कोर) |
500 |
तदैव |
चौड़ी व् सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का कारगर नियंत्रण होता है। |
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क्लोरीम्यूरॉन (क्लोवेन 25 डब्लू.पी.) |
6-9 |
बुवाई के 15-20 दिन बाद |
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मुख्यत: चौड़ी पत्ती वाले एवं कुछ घासकुल और मोथाकुल के खरपतवारों के नियंत्रण में प्रभावी है। |
फेनाक्जाप्राप (व्हिप सुपर 10 ई.सी.) |
80-100 |
बुवाई से 20-25 दिन बाद |
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वार्षिक घासकुल के खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण, लेकिन अन्य खरपतवारों पर बहुत कम असर करता है। |
इमेजेथापायर (परस्यूट 10 एस.एल. अथवा लगाम) |
80-100 |
बुवाई के 15-20 दिन बाद |
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चौड़ी पत्ती वाले एवं कुछ घासकुल के खरपतवारों के नियंत्रण में प्रभावी है। |
क्यूजालोफाप इथाईल (टरगासुपर 10 ई.सी.) |
40-60 |
बुवाई के 15-20 दिन बाद |
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घासकुल के खरपतवारों के नियंत्रण में प्रभावी है। |
खरपतवारनाशी रसायनों के प्रयोग में सावधानियाँ
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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