प्राचीन काल से ही भारत में उगाई जाने वाली फसलों में दलहनी फसलों का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ये फसलें सामान्यत: प्रोटीन की प्रमुख स्त्रोत मानी जाती है। दलहनी फसलों के अंतर्गत प्रमुखत: अरहर, मूंग, उड़द की खेती खरीफ मौसम में तथा चना, मसूर, राजमा एवं मटर की खेती रबी मौसम में की जाती है। भारत के कई स्थानों में मूंग एवं उड़द की खेती जायद में भी की जाती है। हमारे देश में दलहनी फसलों की खेती लगभग 260 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है। जिनमें लगभग 140 लाख टन वार्षिक उत्पादन होता है। पोषण विज्ञानिकों के अनुसार हमारे संतुलित आहार में 80 ग्राम दाल प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आवश्यक है, लेकिन वर्तमान में इसकी उपलब्धता केवल 38 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ही है, जिसका प्रमुख कारण प्रति हेक्टेयर उपज का कम होना है।
असिंचित क्षेत्रों में, दलहनी फसलें अपनी प्रारंभिक अवस्था में बहुत ही धीरे-धीरे वृद्धि करती है। इसके अलावा कतारों के बीच की जगह ज्यादा होने से खाली जगह पर पौधों की छाया कम होती है, जिससे खरपतवार इन फसलों से तीव्र प्रतिस्पर्धा करके भूमि में निहित नमी एवं पोषक तत्वों के अधिकांश भाग का शोषण करते है, फलस्वरूप फसल की विकास गति इतनी धीमी और संकुचित हो जाती है कि अंत में पैदावार कम हो जाती है। दलहनी फसलों में उपज कम होने का एक मुख्य कारण खरपतवारों की वृद्धि और समय से उनका नियंत्रण न करना है। कम ऊँचाई एवं जल्दी पकने वाली किस्मों में खरपतवार की समस्या और बढ़ गई है। खरपतवारों की रोकथाम से न केवल दलहनी फसलों की पैदावार बढ़ाई जा सकती है, बल्कि उसमें निहित प्रोटीन की मात्रा में भी वृद्धि की जा सकती है।
दलहनी फसलों की खेती खरीफ एवं रबी दोनों मौसमों में की जाती है। इन फसलों में उगने वाले खरपतवारों को मुख्यत: तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है जिनका वर्णन सारणी-1 में दिया गया है।
क्र. |
खरपतवारों की श्रेणी |
खरीफ मौसम के खरपतवार |
रबी मौसम के खरपतवार |
1. |
सकरी पत्ती वाले खरपतवार |
संवा (इकानोक्लोआ कोलोना) दूब घास (साइनोंडान डेक्टीलोन) कोदों (इल्यूसिन इन्डिका) बनरा (सिटैरिया ग्लाऊका) |
गेहूं के मामा (फेलोरिस माइनर), जंगली जई (ऐवेना फेच्वा), (ए. लुडाविसियाना) दूब घास (साइनोंडोन डेक्टीलोन) |
2. |
चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार |
पत्थरचटा (ट्रायन्थमा पोस्टलाकैस्ट्रम) कनकवा (कामेलिना बेघालेनसिस) महकुआ (एजीरेटम कोनीज्वाडिस) वन मकोय (फाइजेलिस मिनीमा) सफेद मुर्ग (सिलोसिया अर्जेन्सिया) हजारदाना (फाइलेन्थस निरुरी) |
प्याजी (एस्कोडिलस टेन्यूफोलियस) बथुआ (चिनोपोडियम एल्बम) सेंजी (मेलीलोटस प्रजाति) कृष्णनील (एनागोलिस अरवेंसिस) हिरनखुरी (कानवोलवुलस आरवेनसिस) पोहली (कार्थमस आक्सीकैन्था) सत्यानाशी (आर्जेमोन मैक्सीकाना) अकरी (विसिया सटाइवा), जंगली मटर (लेथाइरस सेटाईवा)
|
3. |
मोथाकुल परिवार के खरपतवार |
मोथा (साइपेरस रोटन्ड्स, सा. इरिया आदि) |
मोथा (साइपेरस रोटन्ड्स) |
खरपतवार फसल के साथ-साथ उगकर मृदा में उपलब्ध पौधों के पोषक तत्वों एवं नमी को तेजी से ग्रहण कर लेते हैं। खरीफ मौसम में उच्च तापमान एवं अधिक नमी के कारण रबी मौसम की अपेक्षा अधिक खरपतवार उगते हैं, जिसके कारण फसलों को समुचित मात्रा में पोषक तत्व एवं नमी प्राप्त नहीं हो पाती, साथ ही फसल को आवश्यक प्रकाश एवं स्थान से भी ये खरपतवार वंचित रखते है और समय पर यदि इनकी रोकथाम न की गई तो उत्पादन में भारी कमी हो जाती है। इसके अतिरिक्त खरपतवार, फसलों में लगने वाले रोगों के जीवाणुओं एवं कीट व्याधियों को भी आश्रय देते हैं। कुछ खरपतवारों के बीज फसल के बीज के साथ मिलकर उसकी गुणवत्ता एवं बाजार मूल्य को कम कर देते है। जैसे – अंकरी एवं जंगली मटर के बीज मसूर के बीज के साथ मिलकर उसकी गुणवत्ता को कम कर देते हैं।
विभिन्न दलहनी फसलों की पैदावार में खरपतवारों द्वारा आंकी गई कमी का विवरण सारणी 2 में दिया गया है।
दलहनी फसलें |
खरपतवार प्रतिस्पर्धा का क्रांतिक समय (बुवाई के बाद दिन) |
खरपतवारों द्वारा पोषक तत्वों का शोषण (किग्रा./हें.) |
उपज में कमी (प्रतिशत) |
||
नाइट्रोजन |
फास्फोरस |
पोटाश |
|||
अरहर |
15-60 |
28 |
24 |
14 |
24-40 |
चना |
30-60 |
29-55 |
3-8 |
15-72 |
15-25 |
मूंग |
15-30 |
80-132 |
17-20 |
80-130 |
30-50 |
उड़द |
15-30 |
80-132 |
17-20 |
80-130 |
30-50 |
मसूर |
30-60 |
39 |
5 |
21 |
20-30 |
मटर |
30-45 |
61-72 |
7-14 |
21-105 |
20-30 |
यदि हम फसल उत्पादन हेतु उन्नत बीजों तथा रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं, तो समय पर सिंचाई एवं कीड़े-मकोड़े रोग इत्यादि लगने पर इनकी रोकथाम की ओर तुरंत ध्यान दें। खरपतवारों का यदि उचित समय पर प्रभावी, नियंत्रण नहीं करते हैं तो अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करने के लक्ष्य के लिए किये गये उपाय निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं। सामान्यत: किसान भाई खरपतवारों को तब तक बढ़ने देते हैं, जब तक कि वह हाथ से पकड़कर उखाड़ने योग्य न हो जाए, लेकिन उस समय तक खरपतवार फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा करके काफी नुकसान कर चुके होते हैं। फसल के पौधें अपनी प्रारंभिक अवस्था में खरपतवारों से मुकाबला नहीं कर पाते हैं। अत: फसलों को शुरू से ही खरपतवार रहित रखना आवश्यक हो जाता है ताकि खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण पाकर फसल को होने वाली क्षति से बचाया जा सके। दलहनी फसलों में खरपतवारों की रोकथाम निम्नलिखित तरीकों से की जा सकती है:
बुवाई के समय शुद्ध और साफ़ बीज का प्रयोग करके खरपतवारों में हो रही वृद्धि को रोका जा सकता है।
यह खरपतवारों पर नियंत्रण पाने की सरल, प्रभावपूर्ण तथा उत्तम विधि है। फसलों की आरंभिक अवस्था बुवाई के 15-45 दिन के मध्य का समय खरपतवारों से प्रतियोगिता की दृष्टि से क्रांतिक समय है। परिणामस्वरूप, आरंभिक अवस्था में ही फसलों को खरपतवार से मुक्त करना फसल के लिए अधिक लाभदायक होता है। बुवाई के 20 दिनों के बाद ही खुरपी से पहली निंदाई करके खेत को खरपतवार रहित करना आवश्यक होता है, जिससे खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण किया जा सके।
हाथ से खरपतवार निकालने की विधि तभी अपनाई जानी चाहिए जब क्षेत्रफल थोड़ा हो तथा श्रमिक आसानी से कम मूल्य पर उपलब्ध हो।
यदि गर्मी के दिनों में खेतों को गहरी जुताई करके छोड़ दिया जाए तो खरपतवारों के बीज व कंद जमीन के ऊपर आ जाते हैं तथा तेज धूप में अपनी अंकुरण क्षमता खोकर निष्क्रिय हो जाते हैं। इस विधि से कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप भी काफी कम हो जाता है। खरपतवारों को नष्ट करने की यह पद्धति वहां अपनाई जा सकती है, जहां गर्मी में कोई पद्धति वहां अपनाई जा सकती है, जहां गर्मी में कोई भी फसल न ली जाती हो।
हाथ से चलने वाले गुड़ाई यंत्र से खरपतवारों को काफी सीमा तक नियंत्रित किया जा सकता हैं। लेकिन यह विधि वहीं अपनाई जा सकती हैं, जहां फसलों को पंक्तियों में बोया गया हो। निदाई के लिए बनाया गया एक प्रकार का यंत्र जैसे – ट्वीन व्हील हो को उपयोग करने से पंक्तियों के बीच उगे खरपतवारों को नष्ट किया जा सकता है।
एक ही फसल को बार-बार एक खेत में लेने से उस फसल में खरपतवारों का प्रकोप बढ़ जाता है। उदाहरणार्थ एक ही खेत में बार-बार चने के बोने से बथुआ तथा गेहूं के मामा का प्रकोप बढ़ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ समय बाद इनकी संख्या इतनी अधिक हो जाती है कि उस खेत में चने की पैदावार ले पाना आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं रहता। अत: यह आवश्यक है कि एक फसल को बार-बार एक ही खेत में न बोया जाए एवं उचित फसल चक्र अपनाया जाए।
दलहनी फसलों में खरपतवारनाशी रसायनों को प्रयोग करके भी खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है। जहां समय एवं श्रमिक कम तथा पारिश्रमिक ज्यादा हो वहां इस विधि को अपनाने से प्रति हेक्टेयर लागत कम आती है तथा समय की बचत होती है। इस विधि को अपनाने से श्रम शक्ति भी कम लगती है तथा मुख्य फसल को भी हानि नही पहुंचती। मुख्य दलहनी व मिलवा फसलों में उगने वाले खरपतवारों को नष्ट करने हेतु कुछ खरपतवारनाशी रसायनों को उनकी मात्रा के साथ क्रमश: (सारणी 3 व 4) में वर्णित किया गया है।
मिलवां फसलें |
खरपतवारनाशी रसायन |
मात्रा (ग्राम सक्रिय तत्व/ हें.) |
प्रयोग का समय |
प्रयोग विधि |
अरहर+ मूंगफली |
पेंडीमिथलिन (स्टाम्प) |
1000-1250 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व |
खरपतवारनाशी की आवश्यक मात्रा को 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से छिड़काव करें। तथा ध्यान रखे की छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी हो। |
मक्का+उर्द/मूंग/ लोबिया |
एलाक्लोर (लासो) |
1500 |
तदैव |
|
अरहर+सोयाबीन/तिल |
फ्लूक्लोरेलिन (बासालिन) |
1000-1500 |
बुवाई के पहले छिड़ककर भूमि में अच्छी तरह मिला दें। |
|
|
पेंडीमिथलिन (स्टाम्प) |
1000-1500 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व |
|
|
एलाकलोर (लासो) |
1000-1500 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व |
|
असली+मसूर चना+ अलसी |
पेंडीमिथलिन (स्टाम्प) |
1000 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्वं |
|
चना+गेहूं+सरसों |
आसोप्रोटूरान (ऐरीलाना) |
1000-1250 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्वं |
|
|
पेंडीमिथलिन (स्टाम्प) |
750-1000 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व |
दलहनी फसलें |
खरपतवारनाशी रसायन |
मात्रा (ग्राम सक्रिय तत्व/हें.) |
प्रयोग का समय |
प्रयोग विधि |
अरहर, मूंग, उर्द |
एलाक्लोर (लासो) |
1000 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्वं |
खरपतवारनाशी की आवश्यक मात्रा को 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से छिड़काव करें |
|
फ्लूक्लोरेलिन (बासालिन) |
1500 |
बुवाई के पहले छिड़काव भूमि में मिला दें |
|
|
पेंडीमिथलिन (स्टाम्प) |
1500 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्वं |
|
|
इमेजेधापायर (परस्यूट) |
100 |
बोने के 20 दिन पश्चात |
|
चना, मसूर, मटर |
फ्लूक्लोरेलिन (बासालिन) |
1000 |
बुवाई से पहले छिड़ककर भूमि में मिला दें |
|
|
पेंडीमिथलिन (स्टाम्प) |
1000-1250 |
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व |
|
|
मेट्रीब्यूजीन (सेनकॉर) केवल मटर में |
500 |
बुवाई के तुरंत बाद अथवा बोने के 15-20 दिन पश्चात |
|
|
क्लोडिनोफाप (टापिक) |
60 |
बुवाई के 25-30 दिन बाद |
जंगली जई एवं गेहूं के मामा की रोकथाम हेतु विशेष रूप से कारगर |
|
क्यूजालोफाप (टरगासुपर) |
50 |
बुवाई के 25-30 दिन बाद |
इन खरपतवारनाशी रसायनों को प्रयोग करते समय प्रत्येक खरपतवारनाशी रसायनों के डिब्बे पर लिखे निर्देशों तथा उसके साथ दिए गये पर्चे को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए, उन्हें उचित मात्रा, समय पर तथा समान रूप से छिड़कना चाहिए। इन रसायनों का छिड़काव सुबह अथवा शाम को करना चाहिए। छिड़काव करते समय छिड़कने वाले को विशेष पोशाक, दस्ताने, चश्मे आदि का प्रयोग करना चाहिए तथा उसके पश्चात साबुन से अच्छी तरह हाथ, मुंह अवश्य धोएं, अच्छा हो यदि स्नान भी कर लें। छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी का ध्यान रखें तथा छिड़काव हेतु नैपसैक स्प्रेयर एवं फ़्लैटफैन नोजल का प्रयोग करें।
इस प्रकार यदि हम उपरोक्त विधियों द्वारा खरपतवारों को समय पर प्रवन्थित करें तो हम अपनी फसल से भरपूर उपज प्राप्त कर सकते हैं।
स्त्रोत: कृषि विभाग, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
इस भाग में अंतर्वर्ती फसलोत्पादन से दोगुना फायदा क...
इस पृष्ठ में अगस्त माह के कृषि कार्य की जानकारी दी...
इस भाग में जनवरी-फरवरी के बागों के कार्य की जानकार...
इस पृष्ठ में केंद्रीय सरकार की उस योजना का उल्लेख ...