भारत में रबी फसल का सबसे भंयकर खरपतवार मंडूसी है जिसे गुल्ली डंडा या कनकी भी कहा जाता हैं यह मुख्यत: धान-गेहूँ फसल चक्र का खरपतवार है इसका जन्म स्थान मेडीटरेनियन माना जाता है।
यह आम धारणा है कि मंडूसी का बीज भारत में उस समय पर आया जब हमने साठ के दशक में बड़े पैमाने पर मैक्सिको से बौनी किस्म की गेहूँ का बीज आयात किया। लेकिन इससे पहले चालीस के दशक में मंडूसी को दिल्ली के आसपास पशुचारे में उपयोगिता के तजुर्बे किये गये थे। बाद में इसे पानी की नालियों तथा मंढ़ों पर खरपतवार के रूप में उगते हुए पाया गया है। गेहूँ की ज्यादा पैदावार देने वाली बौनी किस्मों के साथ-साथ अधिक खाद व पानी के उपयोग के फलस्वरूप खरपतवारों, विशेषत: मंडूसी, को भी वृद्धि का अनुकूल वातावरण मिला।
आइसोप्रोटयूरान नामक खरपतवारनाशी को सत्तर के दशक के अंत में मंडूसी के नियंत्रण के लिए प्रमाणित किया गया। यह लगभग एक दशक तक बहुत प्रभावशाली भी रहा। लेकिन पूरी तरह से इसी खरपतवारनाशी पर हमारी निर्भरता का परिणाम यह हुआ कि इस दवाई का मंडूसी पर असर न होने की खबरें उत्तर पश्चिम भारत से नब्बे के दशक के आरंभ में मिलनी शुरू हुई। शुरू में निराशाजनक नियंत्रण के कारण मुख्यत: घटिया दवाई, ठीक से स्प्रे न करना आदि समझे गये। लेकिन निरंतर निराशाजनक परिणाम के फलस्वरूप यह शक होने लगा कि कहीं मंडूसी में इस दवाई के प्रति प्रतिरोधी क्षमता तो उत्पन्न नहीं हो गई है। अब यह सर्वमान्य है कि मंडूसी में इस दवाई के प्रति प्रतिरोधी तथा डाईक्लोफोप जैसे कुछ खरपतवारनाशियों के प्रति करास प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न हो गई है।
इस खरपतवार से 10 से 100 प्रतिशत तक का नुकसान पाया गया है। ऐसी स्थितियाँ भी सामने आई हैं जब हरियाणा तथा पंजाब के कुछ भागों में किसानों को गेहूँ की हरी फसल को, जिसमें मंडूसी के पौधों की संख्या 2000 से 3000 तक थी, पशुओं के चारे के रूप में काटना पड़ा।
आइसोप्रोटयूरान के असरदार न रहने से पिछले चार पाँच सालों से गेहूँ उत्पादन में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। मंडूसी का नियंत्रण आज गेहूँ की उत्पादकता वृद्धि के रास्ते में एक प्रश्न चिन्ह बन कर रह गया है।
गेहूँ के खेत में मंडूसी के पौधों की पहचान काफी मुश्किल होती है। लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि मंडूसी के पौधे सामान्यत: गेहूँ के मुकाबले हल्के रंग के होते हैं। मंडूसी में लैग्यूल तथा गेहूँ में आरिकल्ज ज्यादा विकसित होते है। इसके अतिरिक्त मंडूसी का तना जमीन के पास से लाल रंग का होता है। तना तोड़ने या काटने पर इसके पत्तों, तने और जड़ों से भी लाल रंग का रस निकलता है जबकि गेहूँ के पौधे से निकलने वाला रस रंगविहीन होता है।
खरपतवार नियंत्रण विधियों को मुख्यत: तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। यह है सस्य एवं बचाव विधि, यांत्रिक विधि तथा दवाईयों का प्रयोग। इन विधियों के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।
मंडूसी का पौधा शुरू में बिलकुल गेहूँ के पौधे जैसा होता है इसलिए इसे पहचान पाना आसान नहीं होता। अत: इसे निराई-गुड़ाई करके निकालना बहुत कठिन है। बीजाई के 30 से 45 दिन बाद लाईनों में बीजे गेहूँ में खुरपे या क्सौले आदि से गुड़ाई की जा सकती है। क्योंकि ज्यादातर किसान, मुख्यत: हरियाणा में, छिटटा देकर बीजाई करते हैं इसलिए यांत्रिक विधि से खरपतवार नियंत्रण सम्भव नहीं हो पाता अत: दवाई से ही नियंत्रण करना जरूरी हो जाता है।
प्राय: दवाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि इससे मजदूरी कम लगती है तथा दूसरे पौधे टूटते नहीं हैं जैसा कि यांत्रिक विधि में होता है। दवाई से नियंत्रण भी ज्यादा प्रभावी होता है क्योंकि दवाई से लाईनों के बीच के खरपतवार भी आसानी से नियंत्रित हो जाते है जोकि गेहूँ से मंडूसी की समानता होने के कारण निराई-गुड़ाई के समय छुट जाते हैं। आइसोप्रोटयूरॉन प्रतिरोधी क्षमता वाली मंडूसी के नियंत्रण के लिए खरपतवार नाशियों को निम्नलिखित तरीके से उपयोग में लाना चाहिए।
गेहूँ उगने से पहले प्रयोग में लाने वाला खरपतवारनाशी सिर्फ स्टाम्प 30 ई. सी. (पैंडीमैथालिन) है। जिसे 3.3 लीटर (1000 ग्रा. ए. आई.) प्रति हेक्टेयर की दर से 700-750 लीटर पानी में घोल कर बीजाई के 0 से 3 दिन बाद स्प्रे करना चाहिए।
पिछले 3-4 वर्षो में कई खरपतवारनाशी ऐसे पाए गये हैं जो मंडूसी की उन प्रजातियों पर भी असरदार है जिन पर आइसोप्रोटयूरॉन का कोइ असर नहीं होता। निम्नलिखित खरपतवारनाशियों को गेहूँ बुवाई के 30 से 35 दिन बाद या मंडूसी जब 2 से 3 पत्तों वाली हो तब प्रयोग में लाना चाहिए।
स्त्रोत: कृषि विभाग, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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