हमारे देश की बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्य साम्रगी की मांग में भी काफी वृद्धि हो रही है जिससे हमारे प्राकृतिक संसाधनों का भी लगातार दोहन होता जा रहा है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत में चार दशक पहले हरित क्रान्ति में उवर्रको, अधिक उपज देने वाली फसलों की किस्मों और पानी का बहुत बड़ा योगदान रहा था लेकिन समय के साथ हरित क्रान्ति का रंग फीका होता जा रहा है इससे देश की सरकार, कृषि वैज्ञानिको, किसानों के लिए एक चिन्ता का विषय बना हुआ है क्योंकि वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन की मांग लगभग 259 मिलियन टन से बढ़कर वर्ष 2025 में लगभग 300 मिलियन टन हो जायेगी और साथ ही कृषि का क्षेत्रफल भी दिनो दिन घटता जा रहा है। अतः यह स्वाभाविक हैं कि प्रति इकाई क्षेत्र से अधिक से अधिक उत्पादन लिया जाता है। जिससे मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की मात्रा में भी अत्यधिक कमी हो रही है। इन परिस्थितियों में मृदा उर्वरता में होने वाली गिरावट को रोकने के लिए उचित प्रबंधन करना अति आवश्यक है। इसमें दो राय नहीं है कि दम-तोड़ती मृदा की उर्वरता में सुधार करके टिकाऊ खेती करने की मुहिम चलानी होगी।
मृदा खेती का आधार है और मृदा उर्वरता व मृदा उत्पादकता में आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है। मृदा की उर्वरता घटती है तो मृदा के द्वारा फसल का उत्पादन बढ़ाने की क्षमता भी कम होती है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि फसल उत्पादन के लिए मृदा की उर्वरता हमेशा अच्छी रहे। फसलों के उत्पादन के परिणामस्वरुप जितना पोषक तत्व फसलें जमीन से उपयोग कर रही है उस मात्रा को हम किसी प्रकार पुनः धरती में लौटाने का का ताजा उ समें । ईमानदारी से प्रयास करें ऐसा न करने पर भूमि के पौषक तत्व भंडार का दोहन होगा और मृदा की उर्वरता में गिरावट होती जायेगी। हम गत 4 दशकों से मृदा के साथ अनैतिक व्यवहार करते आये हैं जिससे फलस्वरुप शुरुआत में मृदा में केवल नाइट्रोजन की कमी थी, वहीं आज कई आवश्यक तत्वों की कमी हो जाने के कारण मृदा की सेहत एवं उर्वरता खराब हो गयी और उसकी फसलों की टिकाऊ खेती करने के लिए पौषक तत्वों की आपूर्ति करने की क्षमता भी घट गयी। ईमानदारी से प्रयास करें ऐसा न करने पर भूमि के पौषक तत्व भंडार का दोहन होगा और मृदा की उर्वरता में गिरावट होती जायेगी। हम गत 4 दशकों से मृदा के साथ अनैतिक व्यवहार करते आये हैं जिससे फलस्वरुप शुरुआत में मृदा में केवल नाइट्रोजन की कमी थी, वहीं आज कई आवश्यक तत्वों की कमी हो जाने के कारण मृदा की सेहत एवं उर्वरता खराब हो गयी और उसकी फसलों की टिकाऊ खेती करने के लिए पौषक तत्वों की आपूर्ति करने की क्षमता भी घट गयी
तालिका-1. हमारे देश में पोषक तत्वों का घटता संतुलन पोषक तत्व
कुल संतुलन (000 टन) शुद्ध संतुलन (000 टन) |
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तत्वों में एक भी कमी हो गयी तो फसल उत्पादन सार्थक रुप से घट जायेगा। पौधों को तीन आवश्यक तत्व कार्बन, हाइड्रोजन और आक्सीजन हवा व जल से प्राप्त होते रहते हैं। और इनकी मृदा में अलग से डालने की जरुरत नहीं होती है अन्य 14 में से 6 पोषक तत्त्व नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, गंधक, जिंक एवं आयरन की कमी मृदा में देखने को मिल रही है। देश के अनेक क्षेत्रों में इनकी अत्यधिक कमी हो चुकी है। शेष 8 पोषक तत्व (कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर, क्लोरीन, मैंगनीज, बोरोन, मोलिब्डेनम एवं निकिल) की उपलब्धता की कोई खास समस्या नहीं पायी गयी। जब मृदा में आवश्यक पोषक तत्व की कमी होने से फसल में इन तत्वों की कमी के लक्षण प्रत्यक्ष रुप से बड़े पैमाने पर दिखाई देने लगते है और फसल उत्पादन में गिरावट अथवा ठहराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः हमें टिकाऊ खेती करने से पहले मृदा उर्वरता में हो रही गिरावट के निम्नलिखित कारणों को संक्षित रूप में जानने की जरूरत है। मृदा उर्वरता में हो रही गिरावट के कारण(1) पोषक तत्वों का दोहनः हमारे देश में किसानों द्वारा फसल सघनीकरण से फसलें मृदा से पोषक तत्वों की बहुत बड़ी मात्रा का दोहन करती हैं जब किसान इनकी आपूर्ति रासायनिक उर्वरको के द्वारा करता है लेकिन किसान बिना मृदा परीक्षण के ही उर्वरकों का अपर्याप्त एवं असंतुलित प्रयोग करता है जिसके परिणामस्वरुप मृदा की उर्वरता तथा उर्वरको-उपयोग क्षमता दिनों-दिन घट रही है। (2) मृदा में पोषक तत्वों का बिगड़ता संतुलनः हमारे देश में प्रमुख पोषक तत्वों की स्थिति के बारे में जानकारी तालिका-1 में दी गई है। इससे स्पष्ट है कि भारतीय कृषि 97 लाख टन नाइट्रोजन+फास्फोरस+ पोटेशियम की कमी के नकारात्मक संतुलन की मार झेल रही है। इस 97 लाख टन की पोषक तत्वों की मात्रा में 59 लाख टन हिस्सा केवल पोटेशियम का है। नाइट्रोजन की कमी 22 लाख टन और फास्फोरस की 19 लाख टन है। इस तालिका से साफ है कि जितनी मात्रा में नाइट्रोजन और । फास्फोरस का प्रयोग किया जाना चाहिए उतनी मात्रा में नाइट्रोजन और फास्फोरस की पूर्ति करने में भी असमर्थ रहे है। साथ हीं गौण एवं सूक्ष्म पोषक तत्वें प्रयोग न के बराबर है। इन्हीं कारणों से ही मृदा में पौषक तत्वों का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। (3) मृदा क्षरणः मृदा की उपरी सतह में जैव पदार्थ एवं पोषक तत्वों से भरपूर होती है और अधिकांश पौधे पोषक तत्वों की आवश्यकता भी इस सतह से करते है। वनों की कटाई, अत्यधिक पशु-चराई एवं अवैज्ञानिकमृदा प्रबर्धन आदि से उपरी सतह से जल एवं वायु द्वारा मृदा क्षरण होने से जैव पदार्थ एवं पोषक तत्वों की एक बड़ी मात्रा का नुकसान हो जाता है। जिससे मृदा की उर्वरता में सार्थक कमी आ गयी। (4) मृदा की खराब भौतिक दृशाः धान की फसल में पड़लिगं करने से मृदा की संरचना बिगड़ती है जिससे मृदा उर्वरता एवं फसल उत्पादन में कमी आती है। (5) जैविक क्रियाशीलता में कमीः वर्तमान में किये जा रहे एकल पद्धति फसल चक सघनी करण तथा फसल अवशेषों को खेतों में जलाने से मृदा में जैव पदार्थों कमीअनुभव की जा रही है जिससे मृदा की गुणवत्ता में कमी आयी है। घटते जैव पदार्थों के कारण मृदा में मौजूद लाभकारी सूक्ष्मजीवों की क्रियाशीलता में भी कमी आ जाती है। ये सूक्ष्मजीव मृदा की सेहत में सुधार करते है | (6) समस्याग्रस्त मुदाः इन मृदाओं में अम्लीकरण,क्षारीयकरण और लवणीकरण के कारण विभन्न पोषक तत्वों की उपलब्धता प्रभावित होती है। अम्लीय मृदा में लौह तत्व की विषक्ता हो जाती है जबकि क्षारीय मृदा में इसकी कमी आ जाती है इसी प्रकार क्षारीय मृदा मेंफास्फोरस तत्व की उपलब्धता में कमी आ जाती है। साथ ही मृदा उर्वरता में गिरावट आती है। (7) कृषि विविधता का मृदा स्वास्थ्य पर प्रभाव : मौजूदा समय में की जा रही धान ओर गेहूँ की अधिक उपज देने वाली किस्मों के प्रचलन के बाद भारतीय कृषि की विविधता गायब होती जा रही । कृषि-विविधता दो स्तरों पर कम हुई हैं एक तो मोटे अनाज, दालों और तिलहन के फसल-चक की जगह गेहूँ और धान के मोनोकल्चर आ गए है। दूसरा गेहूं और धान की फसलें भी बहुत संकीर्ण आधार पर ली गई है जिससे पोषक तत्वो का दोहन बहुत अधिक मात्रा में होता है। हरित क्रान्ति की शुरुआत से आज तक मिट्टी की उर्वरता में निश्चित रुप से काफी कमी हुयी है। तालिका-2: सूक्ष्म-पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के लिए मृदा अनुप्रयोग और पर्णीय छिड़काव
मृदा उर्वरता कैसे बढ़ाएंउपरोक्त बिदुओ से स्पष्ट हो जाता है कि मृदा उर्वरता में गिरावट के अनेक कारण हैं। मृदा उर्वरता में सुधार लाने के लिए निम्न बिंदुओ के तहत चर्चा की जा रही है। खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के। लिए मृदा की उर्वरता में सुधार लाना परम् आवश्यक है। 1. संतुलित पोषक तत्व पोषक तत्वों की मात्रा मृदा परीक्षण के अधार पर प्रयोग करनी चाहिए। पोषक तत्वों की संतुलित मात्रा न केवल कम व निम्न गुणवत्ता का उत्पादन देती है, बल्कि मृदा मैं उपस्थित पोषक तत्वों के भंडार का भी अत्यधिक दोहन करती है। जिन तत्वों को मॉग से अधिक मात्रा में डाला जाता है उनकी सम्पूर्ण मात्रा पौधे द्वारा अवशोषित नहीं हो पाती है। साथ ही कुछ पोषक तत्वों (लौह,जिंक, कापर) की अधिक मात्रा के प्रयोग से पौधों में विशेषता हो सकती है। इस प्रकार असंतुलित पोषण प्रबंधन सीमित संसाधनों का दुरुपयोग है। भारत में हुए अनेक दीर्घकालीन प्रयोगों से यह सिद्ध होता है कि मृदा की उर्वरता को बनाए रखने के लिए संतुलित पोषण श्रेष्तम विकल्प है। एक पौषक तत्व की अत्यधिक मात्रा में उपस्थित अन्य तत्त्व के अवशोषण को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए फलस्फोरस व पोटेशियम उर्वरक की अनुपस्थिति में पौधों की नाइट्रोजन के प्रति अनुक्रिया कम होती रहती है। नाइट्रोजन के साथ यदि फलस्फोरस एवं पोटेशियम की उपयुक्त मात्रा का प्रयोग किया जाए तो फसल के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है तथा पोटाश डालने से उसे और अधिकतम स्तर तक पहुंचाया जा सकता है। साथ ही गंधक एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाए। गंधक प्रबंधन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। तालिका-३, दलहनी हरी खाद फसलों को नाइट्रोजन स्थिरीकरण (यौगिकीकरण) में योगदान फसल
भारत में गहन खेती के प्रचलित होने के साथ एक तत्व की अधिक मात्रा वाले उर्वरक को अधिक उपयोग में लिया जाता है जिनमें गंधक का स्तर या तो बहुत निम्न होता है अथवा शून्य होता है। इसी कारणवश भारत को अधिकांश उपजाऊ भूमियों में इसकी कमी देखी गई है। गंधक के साथ अन्य सूक्ष्म तत्वों को भी कमी स्पष्ट दिखाई देनी लगी है। पौधों में वृद्धि तथा उत्पादन को कम करने के लिए जिम्मेदार सूक्ष्म तत्वों में वर्तमान समय में जस्ता अत्यधिक महत्वपूर्ण है जो विस्तृत रूप से सभी गहून कृषि वाले क्षेत्रों में आवश्यक स्तर से कम है। भारत के सभी धान-गेहूं वाले क्षेत्रों में जस्ते की उपयुक्त मात्रा डालने से उत्पादन में दर्शनीय वृद्धि देखी गई है । सूक्ष्म-पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के लिए सूक्ष्म-पोषक तत्वों को मिट्टी में डालकर अथवा पर्णीय छिड़काव द्वारा दूर किया जा सकता है। (सारणी-3)। संतुलित पोषण प्रबंधन से न केवल उत्पादन में वृद्धि होती है, अपितु पोषक तत्व उपयोग क्षमता व जल उपयोग क्षमता को भी बढ़ाया जा सकता है जो अंततः कृषि के लाभ को बढ़ाता है। इसलिए फसलोत्पादन से अधिकतम लाभ लेने के लिए सभी 17 आवश्यक पोषक तत्व पौधों को संतुलित मात्रा में । उपलब्ध होने चाहिए। अतः स्पष्ट हो जाता है कि टिकाऊ खेती के लिए पौधों की उचित वृद्धि के लिए । सभी आवश्यक तत्वों का पर्याप्त मात्रा एवं सही अनुपात में होना अनिवार्य है। 2. समेकित पोषक तत्व प्रबंधन इस पादप पौषण तकनीकी के तहत कें जैविक स्रोतो का रासायनिक उर्वरकों के साथ संयोजित कर उपयोग कर मृदा की उर्वरता को सुधारा जाता है। समेकित पोषक तत्व प्रबंधन में उपयोग होने मुख्य घटकों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जा रहा है। जैविक खादः जैविक खाद का उपयोग किसान प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं परन्तु अधिक पैदावार देने वाली फसल की किस्म के लिए अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होने के कारण जैविक खाद पर निर्भर न रहकर रसायनिक उर्वरकों को मुख्य रूप से प्रयोग में लाते हैं। उर्वरको के लगातार प्रयोग मृदा व पर्यावरण के लिए हानिकारक है। जैविक खाद न केवल पौषक तत्वों की पूर्ति करती है अपितु मृदा की भौतिक, जैविक तथा रासायनिक गुणवता को भी बढ़ाती है भारत में गोबर की खाद,विभिन्न प्रकार की कम्पोसट, वर्मी कम्पोसट, बायोगैस स्लरी, खालियां, मुर्गी, भेड़ अथवा बकरी से प्राप्त खाद एवं हरी खाद मुख्य रुप से प्रयोग में आने वाले जैविक खाद के स्त्रोत हैं। खेत में हरी खाद के लिए मुख्य रूप से दलहनी फसलें उगाकर मृदा की उर्वरता में सुधार लाया जाना चाहिए। हरी खाद की फसलों में टैंचा, सन, लोबिया तथा ज्वार इत्यादि मुख्य हैं कुछ महत्वपूर्ण हरी खाद फसलों से प्राप्त हरे पदार्थ की मात्रा एवं नाइट्रोजन की उपलब्धता को सारणी 3 में प्रस्तुत किया गया है। फसल अवशेषः गेहूं के अवशेष कपास के डण्ठल, गन्ने की सूखी पत्तियों तथा धान का भूसा इत्यादि की बड़ी मात्रा उपलब्ध है। अनुसंधानो से यह सिद्ध हुआ कि गेहूँ व धान का भूसा के साथ 25 किग्रा. नाइट्रोजन/हेक्टेयर या फली वाली फसल का भूसा डालने से मृदा की उर्वरता पर अवश्य धनात्मक प्रभाव होता है। प्रेसमड व फ्लाई एशः भारत में वर्ष भर में भारी मात्रा में प्रेसमड, शीरा एवं बैगस (खोई) का चीनी मिलें से उत्पादित होता है जो कि लोहा, जिंक, कैल्शियम तथा मैंग्नीज उपस्थित होता है। प्रेसमड का सूक्ष्म जीव से विघटन करने के पश्चात् खेत में प्रयोग करने से मृदा के रासायनिक, भौतिक व जैविक गुर्गों में सुधार होता है प्रेसमड व फ्लाई एश को भूमि सुधारक के रुप में प्रयोग करके समस्याग्रस्त एवं सामान्य मृदाओं की उर्वरता में भी सुधार लाया जा सकता है। जैव-उर्वरकः यह उर्वरको वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण, मृदा में उपस्थित फास्फोरस व अन्य पोषक तत्वों को पौधों के लिए उपलब्धता बढ़ाकर मृदा की उर्वरता एवं स्वास्थ्य को ठीक रखते है उदाहरण के लिए फली वाली फसलों में राइजोबियम का सबसे अधिक प्रयोग हुआ। रासायनिक उर्वरकः आधुनिक कृषि में खाद्यन्न उत्पादन के लिए रासायनिक उर्वरक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । रसायनिक उर्वरकों को मृदा उर्वरता पर धनात्मक प्रभाव इस संदर्भ में लिया जा सकता हैकि इनके प्रयोग सेमरुस्थलीकरण कम हुआ जैव विविद्यता बढ़ी, पोषक तत्वों के दोहन में कमी और वनों की कटाई में कमी हुयी है। फसलें में रासायनिक उवर्रकों का प्रयोग वैज्ञानिक तरीके से करना चाहिए। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के लिए क्रमशः यरिया, डीएपी और म्यरेट आफ पोटाश उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। गंधक के प्रमुख स्रोत गंधक तत्व, जिप्सम एवं आयरन पाइराइटस है जिंक व आयरन की कमी को दूर करने के लिए क्रमशः जिंक सल्फेट आयरन सल्फेट का प्रयोग किया जाता है। फास्फोरस एवं पोटाशधारी उर्वरकों का प्रयोग प्राय: बुआई के समय तथा नाइट्रोजनधारी उर्वरको (यूरिया/अमोनियम सल्फेट) खाद्यान्न फसलों में, एक बार की बजाय दो या तीन बार करना अधिक उपयोगी रहता है। उपसंहारकृषि से जुड़े सभी संस्थानों का कर्तव्य बनता है कि किसानों को टिकाऊ खेती के लिए उपयुक्त सभी संसाधनो के प्रति जागरुक करके और मृदा उर्वरता को बनाये रखना आज के समय की जरुरत है क्योंकि इस मृदा से अधिक से अधिक खाद्यान्न उत्पादन भी लेना। यदि इस और प्याप्त ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में खाद्य सुरक्षा को संधारित करना असान नहीं होगा। लेखन: बाबू लाल मीना, प्रेशनजीत रे एवं दिनेश कुमार शर्मा स्त्रोत: पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय |
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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