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पपीते की वैज्ञानिक खेती

पपीते की वैज्ञानिक खेती

परिचय

पपीता एक प्रमुख उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धीय फल है। भारत का विश्व में पपीता उत्पादक देशों में ब्राजील,मैक्सिको एवं नाइजिरिया के बाद चौथा स्थान है। भारत में पपीता की खेती 73.7 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में होती है तथा उत्पादन 25.90 लाख टन है (वर्ष 2003) । आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र, असम, बिहार, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश प्रमुख उत्पादक राज्य है। बिहार में इसका क्षेत्रफल अनुमानत: 2000 हेक्टेयर तथा उत्पादन 64 हजार टन है। वैसे पपीता की खेती पूरे बिहार में होती है किन्तु व्यावसायिक स्तर पर इसकी खेती समस्तीपुर, बेगुसराय, मुगेर, वैशाली एवं भागलपुर जिलों में होती है। इसके औषधीय गुणों एवं आर्थिक रूप से लाभकारी होने के कारण पूर्व के कुछ वर्षो में लोगों ने इसकी खेती की ओर अधिक ध्यान देना शुरू किया जिससे पिछले एक दशक में पपीता के उत्पादन में तीन गुना वृद्धि हुई।

इसके फलों में विटामिन ‘ए’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो कि आम के बाद दूसरे स्थान पर है। इसके अतिरिक्त विटामिन ‘सी’ एवं खनिज लवण भी पाये जाते हैं। ताजा उपयोग के अतिरिक्त पपीता के फलों से अनेक परिरक्षित पदार्थ बनाये जाते हैं। कच्चे फल का उपयोग पेठा, बर्फी, खीर, रायता इत्यादि के लिए किया जाता है जबकि पके फलों से जैम, जेली, नेक्टर तथा कैन्डी आदि बनाये जाते हैं। इसके साथ-साथ इसमें एक विशिष्ट प्रकार की एन्जाइम होती है जिसे पपेन कहते हैं जो कि पपीते के कच्चे फलों का सुखाया हुआ दूध है। पपीता का औषधीय गुण इसी पपेन के कारण होता है।

भूमि एवं जलवायु

पपीते की सफल बागवानी हेतु गहरी और उपजाऊ, सामान्य पी.एच. मान वाली बलुई दोमट मिट्टी अत्यधिक उपयुक्त मानी गयी है। इसकी बागवानी के लिए भूमि में जल निकास का होना बहुत जरूरी है क्योंकि यह जल भराव के प्रति काफी सुग्राह्य है।

पपीता एक उष्ण कटिबन्धीय फल है किन्तु इसकी खेती बिहार की समशीतोष्ण जलवायु में सफलतापूर्वक की जा रही है। इसकी बागवानी समुद्र तल से 1000 मीटर की ऊँचाई तक की जा सकती है। वायुमण्डल का तापमान 10 सें. से कम होने पर पपीता की वृद्धि, फलों का लगना तथा फलों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। पपीता की अच्छी वृद्धि के लिए 22 सें. से 26सें. तापमान उपयुक्त पाया गया है। औसत वार्षिक वर्षा 1200-1500 मिमी. पर्याप्त होती है। पपीता के पकने के समय शुष्क एवं गर्म मौसम होने से फलों की मिठास बढ़ जाती है।

किस्में

पपीता एक परपरागण वाली फसल है तथा इसका व्यावसायिक प्रवर्धन बीज के द्वारा होने के कारण एक ही प्रजाति में बहुत अधिक भिन्नता पायी जाती है। वर्तमान में भारत में पपीता की कई किस्में विभिन्न प्रदेशों में उगायी जा रही हैं। जिनमें प्रमुख रूप से 20 उन्नत किस्में हैं तथा कुछ स्थानीय एवं विदेशी किस्में हैं। स्थानीय किस्मों में राँची, बारवानी तथा मधु विन्दू प्रमुख हैं। विदेशी किस्मों में वाशिंगटन, सोलो, सनराइज सोलो एवं रेड लेडी प्रमुख हैं। पपीता की कुछ प्रमुख किस्मों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय स्टेशन, पूसा (बिहार) द्वारा विकसित किस्में

पूसा डेलिसियस

यह एक गायनोडायोसियस प्रजाति है जिसमें मादा और उभयलिंगी पौधे निकलते हैं तथा उभयलिंगी पौधे भी फल देते हैं। यह 80 सेमी. की ऊँचाई से फल देता है। इसका फल अत्यंत स्वादिष्ट एवं सुगंधित होता है। फल का आकार मध्यम से लेकर साधारण बड़ा होता है। जिसका वजन 1-2 किग्रा. तक होता है। पकने पर फल के गूदे का रंग गहरा होता है तथा गूदा ठोस होता है। गूदे की मोटाई 4.0 सेमी. तथा कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 10 से 13 ब्रिक्स होता है। फलों की पैदावार 45 किग्रा. प्रति पेड़ होती है।

पूसा मजेस्टी

इस प्रजाति में भी पूसा डेलिसियस की भांति मादा एवं उभयलिंगी पौधे निकलते हैं। यह 50 सें.मी. की ऊँचाई से फल देता है तथा एक फल का वजन 1.0-2.5 किग्रा. तक होता है। यह किस्म पैदावार में उत्तम है तथा फल में पपेन की मात्रा अधिक पायी जाती है। इसके फल अधिक टिकाऊ होते हैं तथा इसमें विषाणु रोग का प्रकोप कम होता है। पकने पर गूदा ठोस एवं पीले रंग का होता है तथा कुल घुलनशील ठोस 9 से 10 ब्रिक्स होता है। एक पेड़ से 40 किग्रा. फल प्राप्त होता है। इसके गूदे की मोटाई 3.5 सेमी. होती है। यह प्रजाति सूत्रकृमि अवरोधी है।

पूसा ड्वार्फ

यह एक डायोसियस प्रजाति है जिसमें नर एवं मादा पौधे निकलते हैं। इस किस्म के पौधे बौने होते हैं। तथा इसमें फलन जमीन से 40 सें.मी. की ऊँचाई से होती है तथा एक फल का वजन 0.5 से 1.5 किग्रा. होता है। इसकी पैदावार 40-50 किग्रा. प्रति पौध है। फल के पकने पर गूदे का रंग पीला होता है। गूदे के मोटाई 3.5 सेंमी. होती है तथा कुल घुलनशील ठोस की मात्रा ९ ब्रिक्स होता है। पौधा बौना होने के कारण इसे आंधी या तूफ़ान से कम नुकसान होता है।

पूसा जायंट

यह भी एक डायोसियस प्रजाति है। इस किस्म के पौधे विशालकाय होते हैं जिसमें फलन जमीन से 80 सें.मी. की ऊँचाई से होती है। इसके फल बड़े होते है तथा एक फल का वजन 1.5 से 3.5 किग्रा. तक होता है। इसके गूदे का रंग पीला तथा मोटाई 5 सेंमी. होती है। इसमें कुल घुलनशील ठोस की मात्रा ८ ब्रिक्स होती है। प्रति पेड़ औसत उपज 30-35 किग्रा. है। यह किस्म पेठा और सब्जी बनाने के लिए काफी उपयुक्त है।

पूसा नन्हा

यह पपीता की सबसे बौनी प्रजाति है जो गामा किरण द्वारा विकसित की गयी है। यह भी एक डायोसियस प्रजाति है। यह 30 सेंमी. की ऊँचाई से फलना प्रारम्भ करता है। इसमें प्रति पेड़ 25 किग्रा. फल प्राप्त होता है। इसके गूदे का रंग पीला तथा मोटाई 3 सेमी. होती है। इसमें कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 9 ब्रिक्स होती है। यह प्रजाति सघन बागवानी तथा गृह वाटिका के लिए काफी उपयुक्त पायी गयी है।

भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान बंगलौर द्वारा विकसित किस्में

कुर्ग हनी ड्यू

यह किस्म भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंगलौर के केन्द्रीय बागवानी प्रयोग केंद्र चेट्टाली द्वारा चयनित किस्म है जिसका चयन हनी ड्यू नामक प्रजाति से किया गया है। यह एक गायनोडायोसियस प्रजाति है। इसके पौधे मध्यम आकार के होते हैं। इसके फल लम्बे, अंडाकार आकार के एवं मोटे गूदेदार होते हैं। फल का वजन 1.5 से 2.0 किग्रा. होता है। गूदे का रंग पीला होता है। इसमें कुल घुलनशील ठोस 13.50 ब्रिक्स होती है। प्रति पौध औसत उपज 70 किग्रा. तक होती है।

सूर्या

यह सनराइज सोलो एवं पिंक फलेश स्वीट के संकरण द्वारा विकसित गायनोडायोसियस प्रजाति है। इसके फल मध्यम आकार के होते हैं जिनका औसत वजन 600-800 ग्राम तक होता है तथा बीज की कैविटी कम होती है। फल का गूदा गहरा लाल रंग का होता है जिसकी मोटाई 3-3.5 सें.मी. तथा कुल घुलनशील ठोस 13.5-150 ब्रिक्स होता है। फल की भंडारण क्षमता भी अच्छी है। प्रति पौध औसत उपज 55-65 किग्रा. तक होती है।

तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्वटूर द्वारा विकसित किस्में

को0 1

यह प्रजाति 1972 में राँची प्रजाति से चयनित की गयी है। यह एक डायोसियस किस्म है जिसके पौधे छोटे होते हैं। फल मध्यम आकार के गोल होते है जिनका गूदा पीले रंग का होता है। फल में कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 10 से 120 ब्रिक्स होती है। प्रति पौध औसत उपज 40 किग्रा. तक होती है।

को0 2

इस किस्म का चयन 1979 में स्थानीय किस्म से किया गया है। यह एक डायोसियस प्रजाति है जिसमें पपेन प्रचुर मात्रा (4 से 6 ग्राम प्रति फल) में पायी जाती है। फल का औसत वजन 1.5 से 2.0 किग्रा. होता है। फल में 75 प्रतिशत गूदा होता है जिसकी मोटाई 3.8 सेंमी. तथा रंग नारंगी होता है। फल का आकार बड़ा होता है जिसमें कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 11.4 से 13.50 ब्रिक्स होती है। प्रति पौध औसत उपज 80-90 फल प्रति वर्ष होती है। पपेन की औसत उपज 250 से 300 किग्रा. प्रति हेक्टेयर होती है।

को0 3

यह को0 2 एवं सनराइज सोलो के संकरण द्वारा वर्ष 1983 में विकसित गायनोडायोसियस प्रजाति है। यह ताजे फल के रूप में खाने हेतु सर्वोत्तम किस्म है। इसके फल मध्यम आकार के होते है जिनका औसत वजन 500 से 800 ग्राम तक होता है। फल में गूदे का रंग लाल होता है। जिसमें कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 14.6 ब्रिक्स होती है। प्रति पौध औसत उपज 90 से 120 फल होती है।

को0 4

यह किस्म भी वर्ष 1983 में को0 1 एवं वाशिंगटन के संकरण से विकसित की गयी है। यह एक डायोसियस प्रजाति है। पौधे के तने तथा पत्ती के डंठल का रंग वैगनी होता है। फल मध्यम आकार का होता है जिसका औसत वजन 1.2 से 1.5 किग्रा. तक होता है। फल में गूदे का रंग पीला होता है जिसमें कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 13.2 ब्रिक्स होती है। औसत उपज प्रति रश 80 से 90 फल प्रति पौधा होती है।

को0 5

इस प्रजाति का चयन वर्ष 1985 में वाशिंगटन प्रजाति से किया गया है। यह एक डायोसियस प्रजाति है जो पपेन उत्पादन हेतु सर्वोत्तम पायी गयी है। प्रति फल 14.45 ग्राम शुष्क पपेन पाया जाता है। पत्ती के डंठल का रंग गुलाबी होता है। फल का औसत वजन 1.5 से 2.0 किग्रा. होता है। फल में कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 13 ब्रिक्स  होती है। 2 वर्ष के फसल चक्र में औसत उपज 75-80 फल प्रति पौध होती है। शुष्क पपेन की औसत उपज 1500-1600 किग्रा. प्रति हेक्टेयर होती है जिसमें 72 प्रतिशत प्रोटीन पायी जाती है।

को0 6

इस प्रजाति का चयन वर्ष 1986 में जायंट प्रजाति से किया गया है। यह एक डायोसियस प्रजाति है जो पपेन उत्पादन तथा ताजा खाने के लिए उपयोगी पायी गयी है। इसके पौधे छोटे होते हैं तथा फल की तुड़ाई पौध रोपण के आठवें माह से शुरू हो जाती है। फल का औसत वजन 2 किग्रा. तक होता है। फल के गूदे का रंग पीला होता है जिसमें कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 13.60 ब्रिक्स होती है। प्रति पौध औसत उपज 80-100 फल है। प्रति फल शुष्क पपेन की मात्रा 7.5 से 8.0 ग्राम तक होती है।

को0 7

यह पूसा डेलिसियस, को0 3, सी.पी.-75 एवं कुर्ग हनी ड्यू के बहुसंकरण द्वारा वर्ष 1997 में विकसित संकर किस्म है। यह एक गायनोडायोसियस प्रजाति है जिसमें फल जमीन से 52.2 सेंमी. की ऊँचाई से लगते हैं। इसके फल लम्बे, अंडाकार होते हैं जिसमें गूदे का रंग लाल होता है। फल में कुल घुलनशील ठोस की मात्रा 16.7 ब्रिक्स होती है। यह प्रजाति 112.7 फल प्रति पौध उपज देती है जो कि 340.9 टन प्रति हेक्टेयर है।

अन्य किस्में

राँची

यह प्रजाति राँची (झारखंड) के आस पास छोटानागपुर क्षेत्र में पायी जाती है। इसमें नर, मादा तथा उभयलिंगी तीनों प्रकार के पेड़ मिलते हैं। इसके फल काफी बड़े होते है तथा उभयलिंगी फल का वजन 15 किग्रा. तक पाया गया है। मादा पेड़ से एक फल का वजन 5 से 8 किग्रा. तक पाया गया है जो दूर से देखने पर कद्दू जैसा दिखाई देते हैं। लेकिन इसका बीज बाहर कही भी ले जाकर बोने से फल का वजन घट जाता है।

पौध प्रवर्धन

पपीता का व्यवसायिक प्रवर्धन बीज द्वारा होता है। किन्तु पपीता को बड़े पैमाने पर उगाने में सबसे बड़ी बाधा शुद्ध बीज का उपलब्ध न होना है। अत: पपीता का शुद्ध बीज ही बुवाई हेतु उपयोग करना चाहिए जो कि किसी शोध संस्थान या प्रमाणित बीज भंडार से क्रय करना चाहिए।

बीज की मात्रा: 300-500 ग्राम प्रति हेक्टेयर।

पौध तैयार करना

पौधशाला में बीज बोने के लिए 3 मीटर लम्बी, 1 मी. चौड़ी तथा 15 सेंमी. ऊँची क्यारियाँ बनाना चाहिए। मिट्टी में गोबर की खाद मिलाकर बारीक बना लेना चाहिए। बीज को क्यारी में कतार में लगाना चाहिए। कतार से कतार की दूरी 10 सेंमी. तथा बीज को 1 सेंमी. गहरा बोना चाहिए। इसके बाद बीज को गोबर की खाद या कम्पोस्ट को भुरभुरी बनाकर ढक देना चाहिए। वर्षा या तेज धूप से बीज को बचाने के लिए खर या पुआल से ढक देना चाहिए। इसके उपरांत पौधशाला में सुबह फव्वारे से पानी प्रतिदिन देना चाहिए जब तक बीज का अंकुरण न हो जाय। पौधे को गलका रोग से बचाने के लिए बीज को थायरम, केप्टान या सिरेसान (2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज) नामक दवाओं से उपचारित करना चाहिए। पौधशाला में जब भी गलका रोग दिखाई पड़े बोर्डो मिश्रण (5:5:50) या मैंकोजेब या रिडोमिल या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (2 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का तुरन्त छिड़काव करना चाहिए। पपीते का बीज 7 से 15 दिन के भीतर जम जाते हैं तथा जमने के बाद पुआल हटा देना चाहिए। पुआल हटाने के बाद फब्बारा द्वारा हल्की सिंचाई कर देना चाहिए।

पौधों को पॉलिथीन के थैलियों में उगना

पौधों को पॉलिथीन की थैलियों में उगाने हेतु छेद किये गये 150 से 200 गेज वाले पॉलिथीन के थैलों जिनकी लम्बाई 22 सेंमी. तथा चौड़ाई 15 सेंमी. हो काम में लाया जा सकता है। थैलों को एक तिहाई बालू, एक तिहाई कम्पोस्ट तथा एक तिहाई मिट्टी मिलाकर भर लेना चाहिए। प्रति थैले में 3-4 बीज एक सेंमी. की गहराई पर बोने के बाद पानी से सिंचाई कर देना चाहिए। पौधे जमें के बाद उचित देखभाल करनी चाहिए।

पौध तैयार करने का समय

साधारणतया पपीते का बीज नर्सरी में रोपने की निर्धारित तिथि से दो महीने पहले बोना चाहिए। इस प्रकार पौधे मुख्य क्षेत्र में रोपाई के समय करीब 15-20 सेंमी. की ऊँचाई के हो जाते हैं। बिहार में जहाँ पानी जमाव की समस्या है तथा वर्षा के दिनों में विषाणु रोग अधिक तेजी से फैलते हैं वहाँ अगस्त के अंत में या सितम्बर के शुरू में नर्सरी में बीज बोना चाहिए।

पौध रोपण एवं देखभाल

पपीता की खेती हेतु ऐसी जगह का चुनाव करना चाहिए जहाँ बरसात में पानी नही ठहरता हो। भूमि का चुनाव करने के बाद गर्मी के दिनों में भूमि को अच्छी तरह 2-3 बार जुताई करके तैयार करना चाहिए। प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक उपज प्राप्त करने के लिए पपीता को 1.8 x 1.8 मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। पौध लगाने हेतु निर्धारित दूरी पर गर्मी के दिनों में 60 x 60 x 60 सेंमी. के आकार के गड्ढे तैयार कर लेना चाहिए। गड्ढे को 15 दिन तक खुला छोड़ दें। वर्षा शुरू होने के पूर्व गड्ढे के ऊपर की भुरभुरी मिट्टी में 20 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद, 1 किग्रा. नीम की खली तथा 1 किग्रा. हड्डी का चूर्ण तथा 5 से 10 ग्राम फ्यूराडान या थीमेंट 10 जी का मिश्रण मिलाकर गड्ढे को अच्छी तरह भर दें।

जब पौधे नर्सरी में 15-20 सेंमी. की ऊँचाई के हो जायें तब अक्टूबर माह में पौधों को गड्ढे के बीचों बीच लगाये। डायोसियस किस्म का तीन पौधे तथा गायनोडायोसियस किस्म का ए पौधा प्रति गड्ढा लगाना चाहिए। इसके बाद प्रत्येक पौधे को हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

पौधों को खेत में लग जाने के बाद समुचित देखभाल करने की आवश्यकता पड़ती है। कभी-कभी अधिक वर्षा के कारण भी पौधे नष्ट हो जाते हैं। अत: उन्हें उचित देखरेख द्वारा बचाना चाहिए। जाड़े के दिनों में जहाँ ठंड अधिक पड़ती है, कोमल पौधों को पॉलिथीन या ज्वार की पट्टी द्वारा ढक देना चाहिए। कुछ कीड़े कोमल पौधों को काटकर शुरू में नष्ट कर देते हैं उनसे पौधों को बचाना चाहिए। वर्षा के कारण नष्ट हुए पौधों को बसंत ऋतु में दूसरा पौधा लगाकर भर देना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक

पपीते को बहुत अधिक खाद की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्रीय स्टेशन पर किये गये प्रयोगों द्वारा साबित हुआ है कि प्रत्येक फलने वाले पेड़ों को 200-250 ग्रा. नाइट्रोजन, 200-250 ग्रा. फ़ॉस्फोरस तथा 250 से 500 ग्रा. पोटाश देने से अच्छी उपज प्राप्त होती है। साधारणतया उपरोक्त खाद तत्वों के लिए यूरिया 450 से 550 ग्रा. सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट 1200 से 1500 ग्रा. तथा म्यूरियेट ऑफ़ पोटाश 450-850 ग्रा. लेकर उन्हें मिश्रित कर लेना चाहिए तथा चार भागों में बाँट कर प्रत्येक माह के शुरू में जुलाई से अक्टूबर तक वृक्ष के छाँव के नीचे पौधे से 30 सेंमी. की गोलाई में देकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। खाद देने के बाद हल्की सिंचाई कर देना चाहिए। इसके अतिरिक्त सूक्ष्म तत्व बोरॉन (1 ग्रा. प्रति लीटर पानी में) तथा जिंक सल्फेट (5 ग्रा. प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव पौध रोपण के चौथे एवं आठवें महीने में करना चाहिए।

सिंचाई

पपीता के सफल उत्पादन के लिए बगीचे में जलो प्रबंध बहुत ही आवश्यक है। जब तक पौधा फलन में नहीं आता तब तक हल्की सिंचाई करनी चाहिए जिससे पौधे जीवित रह सके। अधिक पानी देने से पौधे काफी लम्बे हो जाते है तथा विषाणु रोग का प्रकोप भी ज्यादा होता है। फल लगने से लेकर पकने तक पौधों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। ऐसा देखा गया है कि पानी की कमी के कारण फल झड़ने लगते है। गर्मी के दिनों में एक सप्ताह के अंतराल पर तथा जाड़े के दिनों में 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए। पपीता में टपकन सिंचाई प्रणाली (ड्रिप) के अंतर्गत 8-10 लीटर पानी प्रति दिन देने से पौधे की वृद्धि एवं उपज अच्छी पायी गयी है। इस प्रकार 40-50 प्रतिशत पानी की भी बचत होती है। मृदा नमी को संरक्षित करने के लिए पौधे के तने चारों तरफ सूखे खर पतवार या काली पॉलिथीन की पलवार विछाना चाहिए।

फूलन एवं फलन

पौधे लगाने के लगभग 6 माह बाद मार्च-अप्रैल माह से पौधों में फूल आने लगते है। पपीता में मुख्य रूप से तीन प्रकार के लिंग नर, मादा एवं उभयलिंगी पाये जाते हैं। नर एवं उभयलिंगी पौधे वातावरण के अनुसार लिंग परिवर्तन कर सकते हैं किन्तु मादा पौधे स्थायी होते हैं। नर एवं मादा पौधों की पहचान फूल का आधार पर कर सकते है। ज्योंही नर पौधे दिखाई पड़े तुरन्त काटकर खेत से निकाल देना चाहिए। किन्तु परागण हेतु खेत में 10 प्रतिशत नर पौधे अवश्य छोड़ देना चाहिए।

रोग एवं कीट नियंत्रण

कवक जनित रोग

आर्द्रगलन रोग

यह बीमारी पौधशाला में पीथियम एफैनिडरमेटम नामक कवक के कारण होती है। इसका प्रभाव नये अंकुरित पौधों पर होता है तथा पौधे का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और पौधा मुरझाकर गिर जाता है। अत: इससे बचाव के लिए नर्सरी की मिट्टी को बोने से पहले फारमेल्डिहाइड के 2.5 प्रतिशत घोल से उपचारित कर पॉलिथीन से 48 घंटों के लिए ढक देना चाहिए तथा बीज को थायरम, एग्रोसान जी.एन. या केप्टान (2 ग्रा. प्रति किग्रा. बीज) नामक दवाओं से उपचारित कर बोना चाहिए। पौधशाला में इस रोग से बचाव के लिए बोर्डो मिश्रण (5:5:50) या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या मैंकोजेब (2 ग्रा. प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव एक सप्ताह के अंतराल पर 3-4 बार करना चाहिए।

जड़ एवं तनों का सड़ना

यह रोग पीथियम एफैनिडरमेटम एवं फाइटोफ्थोरा पामीवोरा नामक कवक के कारण होता है। इस रोग में जड़ तथा तना सड़ने से पेड़ सूख जाता है। इसका तने पर प्रथम लक्षण जलीय धब्बे के रूप होता है। जो बाद में बढ़कर तने के चारों तरफ फ़ैल जाता है। पौधे के ऊपर की पत्तियाँ मुरझाकर पीली पद जाती है तथा पेड़ सूखकर गिर जाते हैं।

इसकी रोकथाम के लिए पपीता को जल जमाव क्षेत्र में नही लगाना चाहिए तथा पपीता के बगीचे में जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए। यदि तने में धब्बे दिखाई देते हो तो रिडोमिल (मेटालाक्सिल) या मैंकोजेब (2 ग्रा. प्रति लीटर पानी में) का घोल बनाकर पौधों के तने के पास मिट्टी में छिड़काव करना चाहिए।

फलों का सड़ना (एंथ्रेक्नोंज)

यह पपीता के फल की प्रमुख बीमारी है। यह कोलिटोट्राईकम ग्लीयोस्पोरायडस नामक कवक के द्वारा होती है। इस रोग में फलों के ऊपर छोटा जलीय धब्बा बन जाता है जो बाद में बढ़कर पीले या काले रंग का हो जाता है। यह रोग फल लगने से लेकर पकने तक लगता है जिसके कारण फल पकने के पूर्व ही गिर जाते है। इसकी रोकथाम के लिए ब्लाइटाक्स 50 या मैंकोजेब (2.5 ग्रा. प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए।

कली एवं फल के तनों का सड़ना

यह पपीता में लगने वाली एक नई बीमारी है जो फ्यूजेरियम सोलनाई नामक कवक के द्वारा लगती है। शुरू में इस रोग के कारण फल तथा कलिका के पास का तना पीला हो जाता है जो बाद में फल के पूरे तना पर फ़ैल जाता है। जिसके कारण फल सिकुड़ जाते हैं तथा बाद में झड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए बोर्डो मिश्रण (5:5:50) का 1-5 प्रतिशत या ब्लाइटाक्स 50 (3 ग्रा. प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए।

चूर्णी फफूंद

यह रोग ओडियम यूडिकम कैरिकी नामक कवक से होता है। इससे प्रभावित पत्तियों पर सफेद चूर्ण जमाव हो जाता है जो बाद में सूख जाती हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए सल्फेक्स (2 ग्रा. प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए।

विषाणु जनित रोग

पर्ण कुंचन रोग

यह पपीते का एक गंभीर विषाणु रोग है। इस रोग के कारण शुरू में पौधों का विकास रुक जाता है और पत्तियाँ गुच्छा नुमा हो जाती है तथा पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है। पत्तियों का ऊपरी सिरा अंदर की ओर मुड़ जाता है। प्रभावित पौधों में फूल एवं फल नही लगते हैं।

पपीते का रिंग स्पॉट रोग

पर्ण कुंचन की तरह यह भी एक विषाणु रोग है। इस रोग में पपीते की पत्तियाँ कटी-फटी सी हो जाती है तथा हर गाँठ पर कटे-फटे पत्ते निकलने लगते है। पत्तियों के तनों एवं फलों पर छोटे गोलाकार धब्बे पद जाते है। प्रभावित फल का आकार अच्छा नही होता है तथा फलत बहुत ही कम हो जाती है। फल की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।

उपरोक्त दोनों विषाणु रोगों का पूरी तरह रोकथाम संभव नही है। विषाणु रोग वर्षा के दिनों में काफी तेजी से फैलता है। अत: वर्षा के समाप्त होने पर (अक्टूबर माह) खेत में पपीता लगाने से विषाणु रोगों का प्रभाव कम होता है। यह विषाणु रोग कीटों जैसे सफेद मक्खी और माहू से फैलते हैं। अत: इनकी रोकथाम हेतु डाइमेंथोऐट (2 मिली. प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव प्रति माह करना चाहिए। प्रयोगों द्वारा ऐसा देखा गया है कि नीम की खली या अत्यधिक कम्पोस्ट खाद के उपयोग करने पर विषाणु रोग का प्रकोप कम होता है। इस रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए।

पपीते में कीट बहुत कम लगते हैं। इसमें मुख्य रूप से माहू है जो पत्तियों के निचले भाग में छेद कर रस चूसता है तथा विषाणु रोगों के फैलाने में वाहक के रूप में कार्य करता है। इसके नियंत्रण के लिए डाइमेथोऐट (2 मिली. प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए।

स्त्रोत: कृषि विभाग,बिहार सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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