दो-तीन बार खेत की अच्छी तरह जुताई करके पाटा चला दें । जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में अच्छी तरह मिला दें। अरहर के खेत में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए।
मौसम |
उन्नत प्रभेद |
परिपक्वता अवधि (दिन) |
औसत उपज (क्वि0/हे0) |
अभ्युक्ति |
खरीफ (1 से 31 जुलाई) |
बहार |
265-275 |
25-30 |
मिश्रित खेती हेतू तथा उतरी बिहार एवं भागलपुर क्षेत्रों के लिए उपयुक्त |
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पूसा 9 |
250-260 |
20-25 |
मिश्रित खेती हेतू तथा उतरी बिहार एवं भागलपुर क्षेत्रों के लिए उपयुक्त |
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नरेन्द्र अरहर 1 |
260-270 |
20-25 |
रोग रोधी किस्म, मिश्रित खेती हेतु तथा उतरी बिहार के लिए उपयुक्त |
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मालवीय चमत्कार (एम.ए.एल. 13) |
235-240 |
20-25 |
मुंगेर एवं भागलपुर क्षेत्रों के लिये उपयुक्त |
सितम्बर अरहर (25 अगस्त से 15 सितम्बर) |
पूसा 9 |
200-220 |
15-16 |
आकस्मिक फसल के रूप में तथा दियारा क्षेत्रों के लिये उपयुक्त |
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शरद |
200-220 |
15-16 |
आकस्मिक फसल के रूप में तथा दियारा क्षेत्रों के लिये उपयुक्त |
20 किलोग्राम/हे0, सितम्बर अरहर हेतु 45 - 50 कि0/हे0
1. बुआई के 24 घंटे पूर्व 2-2.5 ग्राम फफूंदनाशी दवा (जैसे डाईफोल्टान अथवा थीरम अथवा कैप्टान) से प्रति किलोग्राम बीज का उपचार करें ।
2. बुआई के ठीक पहले फफूंदनाशक दवा से उपचारित बीज को उचित राइजोबियम कल्चर एवं पी.एस.बी. से उपचारित कर बुआई करनी चाहिए। राइजोबियम कल्चर से बीज उपचार फफूंदनाशी दवा से उपचारित करने के बाद करना चाहिए।
खरीफ में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 20 से.मी.।
सितम्बर अरहर में पंक्ति से पंक्ति 30 सें मी. पर तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सें.मी.
20 कि0ग्रा0 नेत्रजन , 40 से 50 कि0ग्रा0 स्फुर (100 कि0ग्रा0 डी.ए.पी.)/हे0। सितम्बर अरहर हेतु उपरोक्त उर्वरक के अतिरिक्त बोआई के 25-30 दिनों बाद 10 कि0ग्रा0 नेत्रजन (22 कि0ग्रा0 यूरिया)/हे0 का उपरिवेशन कर निकाई-गुडाई करें। भूमि में यदि जिंक, सल्फर की कमी हो तो बोआई के समय 25 कि0ग्रा0/हे0 जिंक सल्फेट का प्रयोग करें।
अरहर में दो बार निकाई-गुडाई की आवश्यकता है। पहली निकाई-गुडाई बोआई के 25-30 दिनों बाद एवं दूसरी 40-45 दिनों बाद करें।
जब 80 प्रतिशत छीमी पक जाय तो फसल काट लें और एक सप्ताह सुखाने के बाद डंडें से झाड़ कर दाना अलग कर लें। भंडारण से पूर्व बीजों को भली भाँति सूखा लें। अच्छी तरह सूखे बीजों को ऐसे बरतनों (सीडबिन) में रखे जिसमें हवा का प्रवेश न हो सके। भंडारण के समय प्रति क्वि0 बीज में 1 ई0डी0बी0 एम्पूल डाल कर बीज वाले बर्तन के मुँह को अच्छी तरह बंद कर दें।
आईसीएआर-आईएआरआई, नई दिल्ली ने और अधिक जल्दी पकने वाली (120 दिन), कम ऊंचाई वाली (95 सेमी से 120 सेमी तक लंबी) परिमित, अधिक उपज देने वाली नई पादप प्रकार की आनुवंशिक सामग्री अर्थात पूसा अरहर-16 विकसित की है, जो अर्द्ध रूप से सीधा खड़ा होने वाला मजबूत किस्म का पौधा है। अगर इसकी बुआई 30 सेमी की दूरी रखकर और एक पौधे से दूसरे पौधे के मध्य 10 सेमी का अंतर रख कर की जाए तो एक हेक्टेयर भूमि में इस किस्म की अरहर के 3,30,000 पौधों की सघन आबादी हो सकती है। फसल की अधिक उपज प्राप्त करने के लिए अधिक घनत्व वाली रोपाई और मशीनीकरण बहुत महत्वपूर्ण है। अरहर की पारंपरिक किस्मों में उच्च घनत्व की रोपाई संभव नहीं होती क्योंकि उनके पौधे अपरिमित प्रकार के होते हैं और बहुत फैलाव करने वाले होते हैं। इस प्रकार अधिक जनसंख्या घनत्व की उपयुक्तता से पौधों का एक समान घनत्व हो जाता है और जिसके कारण एक समान ही पौधे खड़े होते हैं। इसलिए अंकुर नष्ट होने के कारण होने वाली हानियां कम होती हैं।
पूसा अरहर 16 के रूप में आईसीएआर-आईएआरआई ने गेहूं और चावल के कम ऊंचाई वाले पौधों की तरह ही अरहर की यह नई किस्म विकसित की है। एनपीटी अरहर के लिए उत्पादकता को खेती की कम लागत के साथ मिश्रित करने के लिए संशोधित कृषि विज्ञान की आवश्यकता है, जिसे विकसित कर लिया गया है। गेहूं की बुवाई से लेकर उसकी कटाई तक प्रयुक्त होने वाली कृषि मशीनरी का एनपीटी अरहर की खेती में पूरी तरह उपयोग किया जा सकता है। पूसा अरहर 16 में पौधों की सघनता और कम ऊंचाई के कारण कीटों के प्रभावी नियंत्रण के लिए नैप्सैक स्पेयर का कीट नाशकों के साथ भी प्रभावी रूप से छिड़काव किया जा सकता है। तुल्यकालिक परिपक्वता वाला यह नई किस्म का पौधा मिश्रित खेती के लिए भी उपयुक्त है इसलिए कटाई और खलिहान कार्य के लिए मानव श्रम की जरूरत नहीं पड़ती। परंपरागत किस्मों की कटाई और खलिहान कार्य के लिए अधिक मानव श्रम और समय की आवश्यकता पड़ती है इसलिए खेती की लागत बढ़ने के साथ-साथ बेमौसम की बारिश के कारण फसल को हानि पहुंचने की संभावना रहती है। अरहर की फसल की सफल कटाई के बाद रबी सीजन में सरसों/आलू/गेहूं पैदा किया जा सकता है। इसके अलावा यह किस्म चूंकि जल्दी पकने वाली (120 दिन) है इसलिए मानसून की शुरुआत (5 जून) से लेकर जुलाई के पहले सप्ताह तक इसकी बुवाई की जा सकती है।
प्रमुख कीट |
रोग तथा प्रबंधन |
अरहर के फली छिद्रक(हेलीकॉवेर्पा अर्मीगेरा )
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कीट का व्यस्क पीले-भूरे रंग का होता है एवं सफेद पंख के किनारे काले रंग की पट्टी बनी होती है। इसके पिल्लू हरे रंग के होते हैं, जिसके पीठ पर गहरी भूरी रेखाएं होती है। इस कीट के पिल्लू प्रारम्भ में पत्तियों को खाती है तथा बाद में फलियों में छेद कर उसके दाने को भी खा जाती है। प्रबंधन 1. खेत में ग्रीष्म कालीन जुताई करें। 2. खेत को खरपतवार से मुक्त रखें। 3. 10 फेरोमोन फंदा जिसमें हेलीकॉवेर्पा अर्मीजेरा का ल्योर लगा हो प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाएं। 4. प्रकाश फंदा का उपयोग करें। 5. 15-20 टी0 आकार का बर्ड पर्चर प्रति हेक्टेयर खेत में लगाएं। 6. खड़ी फसल में इनमें से किसी एक का छिड़काव करें - जैविक दवा एन0पी0भी0 250 एल0ई0 प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करें या क्वीनलफास 25 ई0सी0 1 मिलीलीटर प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें या नोवालयूरोन 10 प्रतिशत ई0सी0 1 मिलीलीटर प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें I |
पाड फ्लाई
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कीट का वयस्क काले रंग के होते हैं तथा शिशु छोटे एवं उजले होते हैं और रस चूसते है जिसके कारण फल नहीं बन पाते हैं। प्रबंधन 1. खेत में ग्रीष्म कालीन जुताई करें। 2. खेत को खरपतवार से मुक्त रखें। 3. मोनोक्रोटोफ़ॉस 36 प्रतिशत तरल का 1मिलीलीटर प्रति लीटर या ऑक्सीडेमेटान मिथाइल 25 ई0सी0 का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
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बांझा रोग स्टरलिटी मोजैक
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इस रोग में पौधे की पत्तियाँ छोटी हो जाती है , जिसपर अनियमित आकार के हल्के हरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। प्रायः पत्तियाँ हल्की पीली हो जाती है। ग्रसित पौधे में फल नहीं लगते हैं। यह एक विषाणुजनित रोग है, जिसका संचार युरियोफीड माइट द्वारा होता है। प्रबंधन 1. पौधे पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर उन्हें उखाड़ कर जला दें। 2. खेत को खर-पत्वार से मुक्त रखें। 3. फसल चक्र अपनाएं। 4. पानी में घोल बना कर छिड़काव करें। |
उक्ठा रोग(विल्ट)
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इसमें पौधे दोपहर में मुरझाये से लगते हैं जो सुबह हरा दिखाई देता है। इस रोग में पौधे की पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और पौधे मुरझा कर सूख जाते हैं। तने का निचला भाग काला पड़ जाता है, जिसे काट कर देखा जाय तो ऊपर पतली-पतली काली धारियां दिखाई पड़ती है। प्रबंधन 1. रोगग्रस्त पौधे को उखाड़कर जला दें। 2. रोगरोधी प्रभेद का चुनाव करें। 3. फसल चक्र अपनाएं। 4. ट्राइकोडरमा 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करें। 5. कारवेन्डाजिम 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित कर बोआई करें। 6. कारवेन्डाजिम तथा मैन्कोजेव कीट नाशक संयुक्त उत्पाद का 1.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर पौधे पर छिड़काव करें। |
स्रोत व सामग्रीदाता: कृषि विभाग, बिहार सरकार , पत्र सूचना कार्यालय
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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