हमारे देश में पपीते को मुख्य रूप से इसके फलों को खाने के लिए उगाया जा रहा है। भारत में अधिकांश लोग यह तो मानते हैं कि पपीता एक स्वादिष्ट, स्वास्थ्यवर्धक एवं पाचक फल है, परन्तु संभवतया यह नहीं जानते है यह इतना पाचक क्यों है? पपीते के पाचक होने का सबसे महत्वपूर्ण कारक है- उसमें पपेन नामक एंजाइम का उपस्थित होना। पपीते में विटामिन ए प्रचुन मात्रा में (2050 आई० यू०) उपस्थित होता है। प्रति 100 ग्राम पपीते में लगभग 60 मि० ग्रा० विटामिन सी भी होता है। इसके अतिरिक्त इमसें 0.80% प्रोटीन, वसा 0.1% वसा एवं कुछ मात्रा में विटामिन बी कार्बोहाइड्रेट एवं खनिज लवण जैसे लोहा, फास्फोरस तथा कैल्शियम भी पाये जाते हैं।
अन्य परम्परागत फसलों की तुलना में पपीते की खेती से काफी अधिक लाभ कमाया जा सकता है, बशर्ते इसकी खेती आधुनिक ढंग से तथा अच्छी तरह से की जाए। अच्छे बीजों का चयन, समय पर सिंचाई समय पर खाद एवं समय पर निराई-गुड़ाई करने पर पपीते की फसल से काफी अधिक लाभ कमाया सकता है।
व्यवसायिक स्तर पर पपीते की खेती ठंडे प्रदेशों (जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश आदि) को छोड़कर सम्पूर्ण भारत वर्ष में की जा सकती है। समस्त दक्षिणी राज्यों के साथ-साथ सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र,पश्चिम बंगाल एवं राजस्थान के कुछ हिस्सों में पपीते की खेती के लिए काफी उपयुक्त जलवायु पाई गयी हैं। वैसे इन राज्यों में छोटे पैमाने पर खेती कुछ विशेष सावधानियों के साथ की जा सकती ही।
पपीते के खेती लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में की जा सकती है, जमीन से पानी की निकासी काफी सुगम हो एवं जल भराव की स्थिति उत्पादन न होती हों अधिक अम्लीय एवं अधिक क्षारीय मिट्टी में पपीते को खेती नहीं करना चाहिए। प्रायः 3.5 पी० एच० से 7.5 पी० एच० वाली मिट्टी इसकी खेती के लिए उपर्युक्त होती है। ऊसर जमीनों में पपीते की खेती नहीं की जानी चाहिए।
पपीते को लगाने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर एवं नवम्बर का महीना होता है। फरवरी व मार्च के महीने भी पपीते के रोपण के लिए अच्छे होते है। इसके लिए अक्टूबर में बीज बोया जाता है।
पौध का रोपण प्रायः तीन प्रकार से किया जाता है-
पौध रोपण के 30 दिन पहले खेत की तयारी प्रारंभ कर देनी चाहिए। खेत में 5 फीटX 5 फीट की दूरी पर 1.5 फीट X 15 फीस के आकार के गड्ढे में 10 किलो गोबर की खाद, 10 किलो पत्ती की खाद, 50 ग्राम बी० एच० सी० पाउडर एवं ग्राम सुपर फास्फेट को मिट्टी के साथ अच्छी तरह मिलाकर गड्ढे को थाले बनाकर नालियों से एक-दूसरे को जोड़ देना चाहिए जिसमें पानी देने में आसानी रहें। फिर प्रत्येक गड्ढे में नर्सरी से पौधे लाकर प्रत्येक गड्ढे में दो पौधे लगा देने चाहिए। गड्ढे में दोनों के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर होनी चाहिए। पौध लगाने के पहले पौलिथिन को फाड़कर अलग कर देना चाहिए एवं मिट्टी समेत पौधे को गड्ढा एक ही पौध रोपित करना चाहिए। प्रायः शाम के समय पौध रोपित करनी चाहिए। यदि दिन में बादल छाये हए तो दिन में भी रोपण किया जा सकता है। पौध रोपण के तुरंत बाद सिंचाई का देनी चाहिए।
लगभग 3-4 माह जब पौधों पर फूल आने लगें तो सम्पूर्ण खेत में केवल 8% नर पौधे छोड़कर शेष समस्त नर पौधे काट देने चाहिए। नर पौधों में लम्बे टहनियों के समान झूलते हुए फूल आते तथा उनमें फल नहीं लगते हैं। एक गड्ढे में केवल एक सही स्वस्थ पौधा होना की स्थिति में केवल एक पौधा प्रति गड्ढा ही लगाया जाता है।
यदि खेती बड़े पैमाने पर की जा रही हो तो 1.5 फीट चौड़ी एवं 1.5 गहरी नालियाँ कतार से कतार 5-5 फीट तक गोबर की खाद भर देनी चाहिए। फिट बी० एच० सी० पाउडर या फ्यूराडान मिट्टी में छिड़कर नाली को मिट्टी से भर देना चाहिए तथा प्रत्येक लाईन में 2-2 फीट की दूरी पर नर्सरी से पौधे लाकर लगा देने चाहिए। 3-4 माह के बाद 8% नर पौधे छोड़कर शेष समस्त नर पौधे काट देने चाहिए। उभयलिंगी पपीता पौधे छोड़कर शेष समस्त नर पौधे काट देने चाहिए। यदि उभयलिंगी पपीता लगाया गया हो तो पौधे का प्रत्येक नाली में 5-5 फीट की दूरी पर लगाया चाहिए।
इस विधि में प्रति एकड़ 12 से 12 ट्राली गोबर की खाद एवं 50 किलो बी० एच० सी० पाउडर पूरे खेत में डालकर दो तीन बार अच्छी तरह से खेत की जुताई कर देना चाहिए। फिर 5 फीट चौड़ी क्यारियां बनाकर इन क्यारियों में 2-2 फीट की दूरी पर पपीते की पौधा का रोपण कर देना चाहिए। 3-4 माह बाद 8% नर पौधे छोड़कर समस्त नर पौधा काट देने चाहिए। यदि उभयलिंगी पपीता लगाया गया हो तो पौध को 5-5 फीट की दूरी पर रोपित किया जाना चाहिए ।
पपीता नहीं खेती में अधिक मात्रा में सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। सर्दियों में प्रत्येक 10 दिन में एवं गर्मियों में 4 दिन में हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए। सिंचाई खेत में थाले बनाकर करनी चाहिए। पानी कम मात्रा में एवं समय पर देना चाहिए। पपीते की जड़ों एवं तने के आस-पास पानी अधिक समय तक नहीं ठहरना चाहिए, नहीं तो जड़ एवं तने को गलन रोग होने की संभावना रहती है।
पपीते के बगीचे को साफ सुथरा रखना चाहिए बगीचे से घास एवं खरपतवार निरंतर निकालते रहना चाहिए वर्षाऋतु आने से पहले पपीते के तने पर एक फीट तक मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। यदि समय पर खरपतवार निकलती रहे तो फसल में काफी वृद्धि हो जाती है तथा रोगों एवं कीटों का प्रकोप भी काफी कम रहता है।
पपीते की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए सही समय पर उर्वरकों की पर्याप्त मात्रा देनी चाहिए। रोपण के बाद प्रत्येक दो माह में प्रति पौधा 50 ग्राम यूरिया 200 ग्राम सुपर फास्फेट एन 100 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश देने से पपीते की अच्छी फसल प्राप्त होती है। उर्वरकों तने से 1.5 फीट की दूरी पर 2-3 इंच गहरी मिट्टी खोदकर अच्छी तरह मिलाकर देनी चाहिए। नर पौधों में खाद देने की आवश्यकता नहीं होती।
पपीते के पत्ते यदि पीले पड़ रहे हो तो यह देखना चाहिए कि कहीं वह जड़ व तना गलन रोग से ग्रसित तो नहीं है। यदि तना एवं जड़ जमीन से 3-4 इंच की गहराई पर सड़ कर गल रहे हो तो गले हुए भाग पर 0.%3 (१ लीटर पानी में ३ ग्राम) ब्लाईटोक्स का घोल बनाकर कुचों से लगाना चाहिए। तूतिया, चूना व पानी का 1:1:10 (1 किलो तूतिया, 1 किलो चूना व 10 लीटर पानी) घोल बनाकर भी लगाया जा सकता है।या प्रक्रिया प्रत्येक 10 दिन में दो-तीन बार करने से गलन रोग दूर हो जाता है। पौधा रोपण के प्रत्येक ढाई महीने में ब्लाईटोक्स का 0.1% या तूतिया, चूना एवं पानी का 1:1:5 का घोल तने को भिंगोकर जड़ तक डाला जाए तो इस रोग के आने की संभावनाएं बहुत कम हो जाती है।पौधा शाला में यदि पौधे सड़कर गिरने लगें तो ब्लाईटोक्स का 0.2% या तूतिया, चूना एवं पानी का 1:1:50 का घोल मशीन से छिड़कना चाहिए।
यदि पपीतों पर लाल रंग वाले या अन्य कीटों का प्रकोप हो रहा हो तो नुवाक्रोन 0.1% (1 ग्राम प्रति लीटर) के घोल का छिड़काव करना चाहिए।थायोडान एवं डायथेन एम-45 का भी छिड़काव करके कीट किया जा सकता है।
इस रोग में पत्ते सिकुड़कर गोल होने लगते हैं। इस रोग से ग्रसित पौधे को उखाड़कर दूर ले जाकर जला देना चाहिए अथवा गाड़ देना चाहिए ।
2. जब पाला पड़ने की संभावना हो तो शाम से ही खेत में सिंचाई कर देनी चाहिए एवं समस्त खेत में धुधुंदा करते रहना चाहिए। नर्सरी के पौधों को सींचकर टाट आदि से ढक देना चाहिए ।
3. उर्वरक को निश्चित समय पर देते रहना चाहिए एवं उर्वरक देने के तुरंत बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।
4. खेत साफ-सुथरा होना चाहिए एवं इसमें खरपतवार बिलकुल नहीं होनी चाहिए।
5. रोगों का असर दिखते ही तुरंत दवाइयां आदि देना शुरू कर देना चाहिए।
पौधा रोपण के लगभग 8 वें महीने से फल पकना आरंभ हो जात्ते हैं। फलों के पकने से एक माह पहले से दूध निकलना भी प्रारंभ हो जाता है। अधपके पपीतों को कागज एवं पुआल में लपेट कर टोकरियों में भरकर मंडी तक पहुंचाते रहना चाहिए। सामान्यतः प्रति एकड़ 300 क्विंटल से 400 क्विंटल फलों उत्पादन होता है। उन्नतशील प्रजातियों में यह 700 क्विंटल तक पाया गया है।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 1/23/2023
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