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झारखण्ड में आम की वैज्ञानिक खेती

झारखण्ड में आम की वैज्ञानिक खेती

परिचय

आम भारत वर्ष का एक प्रमुख फल है। विश्व के कुल आम उत्पादन का लगभग 43.4% भाग भारत में उत्पन्न होता है। सन 1998-99 में देश में 14.01 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में आम की खेती से 97.82 लाख मि.टन आम का उत्पादन हुआ। देश के प्रायः सभी क्षेत्रों में आम की खेती की जाती है, परन्तु व्यवसायिक स्तर पर उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, प. बंगाल, आध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश में इसकी खेती की जाती है। भारत वर्ष में आम का सर्वाधिक क्षेत्रफल उत्तरप्रदेश (37.5%), आध्रप्रदेश (19.9%) एवं अविभाजित बिहार(14.7%) में है। आम के पके हुए फल अत्यधिक पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं गुणकारी होते हैं। इसके फलों में विटामिन ‘ए’ व कैरोटीन प्रचुर मात्रा में पाया जात है। ताजा उपयोग के अतिरिक्त आम के फलों से अनेक परिरक्षित  पदार्थ बनाये जाते हैं। कच्चे फलों का उपयोग के अचार, अमचुर इत्यादि के लिए किया जाता है जबकि पके फलोंसे जूस, शर्बत, स्क्वैश, पेय पदार्थ एवं अमावट (मैंगोलेदर) आदि बनाये जाते हैं।

भूमि एवं जलवायु

आम के सफल बागवानी के लिए आची जलधारण क्षमता वाली गहरी बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। झारखण्ड प्रदेश की आर्द्र एवं उपोष्ण जलवायु आम के सफल बागवानी के लिए उपयुक्त है। ऐसा देखा गया है कि पठारी भू-भाग में जनवरी-फरवरी में आसमान साफ रहने, तापमान में वृद्धि एवं शुष्क जलवायु होने से आम में फल पहले आते हैं जो अन्य स्थानों से 10-25 दिन पहले पककर तैयार हो जाते हैं। केंद्र के विगत 20 वर्षों के शोध कार्य एवं अनुभवों से यह देखा गया है कि छोटानागपुर क्षेत्र के टांड़ जमीन में आम कि सफल बागवानी की जा सकती है। प्रायः ऐसी जमीन या तो परती  पड़ी रहती है या केवल मानसून के मौसम में कम उत्पादकता वाली फसलें जैसे महुआ, कैनी एवं अन्य लघु खाद्यान तथा गोड़ा धान इत्यादि ही उगाई जाती है। ऐसी जमीन में आम की खेती के साथ-साथ इन फसलों को अंतरशस्य के रूप में उगाकर अतिरिक्त एवं सतत आया प्राप्त किया जा सकता है।

किस्में

देश में आम कि 1000 से अधिक किस्में प्रचलित हैं परन्तु व्यापरिक दृष्टि से 40-45 किस्में ही विभिन्न क्षेत्रों में उगाई जाती हैं। बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, तत्कालीन केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केंद्र, प्लांडू, रांची के पिछले दो दशकों के परीक्षण एवं तुलनात्मक अध्ययन  के आधार पर छोटानागपुर क्षेत्र के लिए आम की विभिन्न समय में परिपक्व होने वाली किस्मों की संस्तुति नीचे तालिका में कि गई है-

जरदालू

झारखण्ड एवं बिहार क्षेत्र की या एक व्यावसायिक एवं अगेती किस्म है। इसका वृक्ष फैलावदार एवं पत्तियां हल्के रंग की होती है। इसके फलों का आकार बड़ा एवं आकर्षकगहरा  पीला होता है। पूर्ण  विकसित वृक्ष से 140 -160  कि.ग्रा. फल प्राप्त हो सकता है।

बाम्बे ग्रीन

यह एक जल्दी पकने वाली किस्म है जिसके फल मई के तीसरे सप्ताह में पककर तैयार हो जाते हैं। इस किस्म के वृक्ष अधिक शाखायुक्त एवं पत्तियां पतली होती है। फलों का आकार मध्यम, पकने पर रंग हरा से हल्का पीला, फलों में गुदे कि मात्रा अधिक तथा स्वाद एवं मिठास बहुत अच्छा होता है। इसके पूरा पूर्ण विकसित वृक्ष से फलन के वर्ष में 150-175 कि. ग्रा. फल प्राप्त हो सकता है।

परिपक्वता वर्ग

पकने का समय

किस्में

 

अगेती किस्में

20-30 मई

बाम्बे ग्रीन, रानी पसंद, जरदालू, जर्दा (गौरजीत), गुलाब खास

 

मध्य-अगेती किस्में

30 मई से 10 जून

हिमसागर, कृष्णभोग, वजीर पसंद

 

मध्य समय की किस्में

10-25 जून

मालदह (लंगड़ा) दशहरी, मनकुराद, प्रभाशंकर

 

मध्य देर वाली किस्में

20 जून-5 जुलाई

मल्लिका, नायाब

 

देर से पकने वाली किस्में

25 जून -25 जुलाई

आम्रपाली, चौसा, सीपिया, फजली।

 

अति देर वाली किस्में

15 जुलाई-10 जुलाई

कतकी, लतरा

 

चूसने वाली किस्में

 

लखनऊ सफेदा एवं मलिहाबाड़ी सफेदा

 

 

हिम सागर

जून के मध्य तक पकने वाली इस किस्म के पौधे अधिक औजपूर्ण एवं मध्यम शाखीय होते हिं। पौधों का क्षत्रक विकास मध्यम तथा फलत का सामंजस्य बहुत ही अच्छा होता है। फलों का रंग हरा एवं आकार लगभग अंडाकार होता है। इस किस्म के फल मीठे, स्वादिष्ट एवं अधिक गूदेदार होते हैं। हिमसागर किस्म के एक वृक्ष से 140-180 कि.ग्रा. फल प्राप्त हो सकता है।

दशहरी

उत्तर भारत की यह एक व्यवसायिक किस्म है जो छोटानागपुर क्षेत्र के लिए भी उपयुक्त पाई गयी है। इस क्षेत्र में लखनऊ के अपेक्षाकृत इसके फलों का आकार मध्यम छोटा, आकृति अंडाकार और पकने पर रंग पीला होता है। फलों की भण्डारण क्षमता अच्छी होती है।

सफेद मालदह

इस किस्म को लंगड़ा के नाम से भी जाना जाता है। यह मध्य समय पर पकने वाली किस्म है जिसके फल मध्य जून तक तैयार हो जाते हैं। इस किस्म के पौधे फैलावदार एवं छत्रक विकास का घना होता है। फलों का आकार मध्यम बड़ा, पकने पर रंग हल्का पीला एवं उनमें गुदे की मात्रा अधिक होती है। पूर्ण विकसित पेड़ से लगभग 150-200 कि.ग्रा. फल प्राप्त हो सकता है।

मल्लिका

यह एक संकर किस्म है जिसके फल बहुत बड़े (औसतन वजन 600 ग्रा.), गुठली पतली एवं अधिक गूदेदार, मीठे एवं स्वादिष्ट होते हैं। पकने पर इसके फल आकर्षक पीले रंग के हो जाते हैं। इसके फलों की भण्डारण क्षमता भी अधिक है। इस क्षेत्र के लिए यह एक देर से पकने वाली बहुत ही अच्छी किस्म पाई गई है। यह किस्म खाने एवं प्रसंस्करण के लिए अत्यधिक उपयुक्त मानी जा रही है। एक पूर्ण विकसित वृक्ष से 150-200 कि. ग्रा. फल प्राप्त हो सकता है।

आम्रपाली

यह एक संकर किस्म है जिसके पेड़ बौने होते हैं। आम्रपाली  के पेड़ों से फलत अपेक्षाकृत जल्दी एवं नियमित रूप से होती है परन्तु फलों का आकार छोटा-बड़ा होता है। यह देर से पकने वाली किस्म है जिसके फल जून के अंत में पककर तैयार होते हैं। यह किस्म सघन उत्पादन पद्धति के लिए बहुत उपयुक्त है जिससे लगभग 200-250 क्वि./हे. उपज प्राप्त किया जा सकता है।

चौसा

यह एक देर से पकने वाली प्रजाति है जिसके फल जून-जुलाई माह में पककर तैयार होते हैं। वृक्ष आकार में बड़ा एवं मध्यम शाखीय होता है। इसके मध्यम आकार के फल लगभग अंडाकार एवं स्वादिष्ट होते हैं पूर्ण विकसित वृक्ष से 140-180 कि.ग्रा. फल प्राप्त किया जा सकता है।

पौध प्रवर्धन

आम कि व्यावसायिक खेती के लिए पौध प्रवर्धन वानस्पतिक विधि से करना चाहिए। इसके पौधे पैतृक गुणों वाले होते हैं एवं फलत में जल्दी आ जाते हैं। आम के पौधे भेंट-कलम, विनियर, स्टोन, कोमल शाखा एवं शूट-टिप ग्राफ्टिंग विधि द्वारा तैयार किए जाते हैं।

विनियर ग्राफ्टिंग

इस विधि में मूलवृंत पर जमीन से 20 सेंटीमीटर ऊंचाई पर 30-40 मि.मि. एक  तिरछा चीरा अंदर कि तरफ लगा करके मूलवृंत का टुकड़ा निकाल लिया जाता है। अब इसी चारे के बराबर एक कलम सांकुर डाली पर उलटी दिशा में बनाते अहिं और दोनों चीरों को मिलाते हुए 200 गेज वाली पोलीथिन की पट्टी से अच्छी तरह बाँध देते हैं। मुल्वृन्त को ऊपर से काट दिया जाता है। इस प्रकार 20-25 दिनों में सांकुर डाली मुल्वृन्त से जुड़ जाती है। विनियर ग्राफ्टिंग के लिए सांकुर डाली को एक सफ्ताह पहले मातृ वृक्ष में ही पत्ती रहित कर दिया जाता है।

स्टोन ग्राफ्टिंग

इस विधि में 15 दिन पुराने आम के अमोलों पर जिन से 8-10 सेंटीमीटर ऊंचाई पर ग्राफ्टिंग किया जाता है। इमसें अमोलों (मुल्वृन्त) को नई पत्ती के नीचे से काटकर उसके बीचोबीच 3-5 सेंटीमीटर लम्बा लम्बवत चीरा लगाते हैं तथा सांकुर डाली को दोनों तरफ से कलम बनाकर अंदर घुसा कर पोलीथिन की पट्टी से बाँध दिया जाता हैं। यदि नवजात पौधों की मोटाई पर्याप्त न हो तो दो अमोलों को जोड़कर स्टोन ग्राफ्टिंग कि जा सकती है।

शूट टिप ग्राफ्टिंग

बागवानी एवं कृषि वानिकी शोध कार्यक्रम, रांची में आम के वानस्पतिक प्रसारण के लिए शूट टिप ग्राफ्टिंग तकनीक का विकास किया है। यह त्किनिक अधिक आसन है एवं इससे पौधे अच्छे एवं स्वस्थ बनते हैं। इस तकनीक में आम के नवजात पौधों या गुठली को 25x12x12  सेंटीमीटर आकार के 400 गेज मोटी काली पोलीथिन कि थैलियों में मिट्टी एवं खाद के मिश्रण से भरकर जुलाई में लगा दिया जाता है। जब पौधे 40-45 दिन के हो जाते हैं तब उनमें पर्याप्त मोटाई आ जाती है। ऐसी अवस्था में पौधों को 8-10 सेंटीमीटर ऊंचाई पर सीधा काट देते हैं। अब स्टोन ग्राफ्टिंग की ही भांति उनमें बीचोबीच में चीरा लगाकर तथा सांकुर डाली को दोनों तरफ से कलम बनाकर ग्राफ्टिंग करके पौधों को आंशिक छायादार स्थान पर रखकर पौधा तैयार किया जाता है।

पौध रोपण एवं देखरेख

आम के पौधों को 10x10 मी. कि दूरी पर लगाना चाहिए। पौधा लगाने से पहले खेत में रेखांकन करके पौध लगाने का स्थान सुनिश्चित कर लेते हैं। तत्पश्चात 90x90x90 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद कर मिट्टी फैला देते हैं। वर्षा प्रारंभ होते ही, जून के महीने में 2-3 टोकरीगोबर की सड़ी खाद  (कम्पोस्ट), 2 कि.ग्रा. करंज/नीम की  खली. 1 कि.ग्रा. हड्डी का चुरा अथवा सिंगल सुपर फास्फेट एवं 100 ग्रा. डूर्सबान/रडार (10% धुल), या 20 ग्रा. फ्यूराडान ३ जी/थीमेट 10 जी. को खेत की ऊपरी सतह कि मिट्टी में अच्छी तरह मिलकर गड्ढा भर देना चाहिए। दो-तीन वर्षा के बाद जब मिट्टी दब जाए तब पूर्व चिन्हित स्थान पर खुरपी की सहायता से पौधे के पिंडी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगा देना चाहिए। पौधा लगाने के बाद आस-पास कि मिट्टी को अच्छी तरह दबा कर एक थाला बना दें एवं उनमें 2-3 बाल्टी(25-30 ली.) पानी डाल दें। वर्षा न होने की दशा में पौधे के पूर्ण स्थापना होने तक पानी देते रहना चाहिए।

आम के पौधे लगाने के पश्चात प्रथम के 3-4 वर्षों तक समुचित देख-रेख करने कि आवश्यकता पड़ती है। खासतौर से जाड़े एवं ग्रीष्म ऋतू में पाले से बचाव के लिए उचित सिंचाई का प्रबंध करना चाहिए। प्रारंभ के 3-4 वर्षों में पौधों की अवांछित शाखाओं को निकालर उसको निश्चित आकार देना चाहिए। जमीन से लगभग 80 सेंटीमीटर ऊंचाई तक कि शाखाओं को निकाल देना चाहिए। जिससे मुख्य तने का उचित विकास हो सके। तत्पश्चात 3-4 शाखाओं को विकसित होने देना चाहिए। इन शाखाओं पर द्वितीय एवं तृतीय शाखाएं आती हैं जिससे वृक्ष का आकार सुडौल, ढांचा मजूबत एवं फलन अच्छी आती है। बड़े पौधों में विशेषकर जिमसें क्षत्रक घना होता है बीच की शाखाओं लो जिसमें फल नहीं आता, काटकर निकाल देना चाहिए। सुखी, रोगग्रसित अथवा कैंची शाखाओं को समय-समय पर काटते रहना चाहिए। फलों को तोड़ने के बाद मंजर के साथ 2-3 सेंटीमीटर टहनी को काट देने से स्वस्थ में पौधों की समुचित देखरेख, निकाई-गुड़ाई तथा कीड़े एवं बीमारियों से रक्षा करने से पौधों का विकास अच्छा होता है।

खाद एवं उर्वरक

प्रारंभ के 2-3 वर्षों तक आम के पौधों को 30 कि. ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 कि. ग्रा. करंज की खली, 200 ग्रा. यूरिया, 150 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 150 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा/वर्ष की  दर से देना चाहिए। तत्पश्चात पौधे कि बढ़वार के साथ-साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते जाना चाहिए। इस प्रकार 10 कि. ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद की मात्रा, 150 ग्रा. करंज की खली, 150 ग्रा. यूरिया, 100 ग्रा. सिं.सु.फा., 50 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष के हिसाब से वृद्धि करना चाहिए। लगभग 15 वर्ष बाद पूर्ण विकसित वृक्ष  में 80-100 कि.ग्रा. सिं.सु.फा. एवं 0.8 कि. ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। पूरी खाद एवं आधे उर्वरकों को जून तथा शेष उर्वरकों को सितम्बर में वृक्ष के क्षत्रक के नीचे गोलाई में देकर अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। खाद देने के बाद यदि वर्षा नहीं होती है तो सिंचाई करना आवश्यक है। छोटानागपुर क्षेत्र की मृदा में 10-15 कि. ग्रा. चुना प्रति वृक्ष 3 वर्ष के अंतराल पर देने से उपज में वृद्धि देखी गई है। जिन बगीचों में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दें उनमें 150-200 ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में अन्य उर्वरकों के साथ देना लाभकारी पाया गया है।

सिंचाई एवं जल संरक्षण

आम के सफल उत्पादन के लिए बागीचे में जल प्रबंध बहुत ही आवश्यक होता है। जब तक पौधा फलन में नहीं आता तबतक पौधे के उचित बढ़वार एवं विकास के लिए सर्दी के मौसम में 15-20 दिनों के अंतराल पर एवं गर्मी में 10 दिनों के अंतराल पर हल्की सिंचाई करनी चाहिए। अध्ययन से यह पता चला है कि पौधों में मंजर आने में लगभग 3 माह पहले से फल बनने के समय तक पानी नहीं देना चाहिए। यदि अंतरशस्य की फसल ली जा रही है तो उसमें भी इस समय पानी रोक दें या ऐसी फसल का चुनाव करें जिसमें इस समय सिंचाई की आवश्यकता न हो। इस समय मृदा में मौजूद नमी को संरक्षित रखने के लिए पौधे के तने के चारों तरफ सूखे खरपतवार या काली पोलीथिन की मल्चिंग बिछाना लाभदायक पाया गया है। पौधों में फलत के समय पानी की अधिक आवश्यकता होती है।  मटर आकार के फल होने से लेकर तोड़ाई तक सिंचाई करने से फलत एवं गुणवत्ता में वृद्धि देखी गई है। सिंचाई के लिए रूपांतरित थाला विधि अति ऊतम पायी गई है। इमसें पानी का बचत व् खाद का संचय होता है एवं मृदा जनित बीमारियाँ  एक पौधे से दूसरे पौधे में नहीं फैलती है।

पूरक पौधे एवं अंतरशस्य

आम के वृक्ष के पूर्ण रूप से तैयार होने में लगभग 15-16 वर्ष का समय लगता है। अतः प्रारंभिक अवस्था में आम के पौधों के बीच की खाली पड़ी जमीन का सदुपयोग अन्य फलदार पौधों अन्य फलदार पौधों एवं दलहनी फसलें/सब्जियों को लगाकर किया जा सकता है। इससे किसान भाइयों को अतिरिक्त लाभ के साथ-साथ मृदा की उर्वराशक्ति का भी विकास होता है। केंद्र पर किये गए शोध कार्यों से पता चला है कि आम में पूरक पौधे के उर्प में अमरुद, नींबू, शरीफा एवं पपीता जैसे फल वृक्ष लगाए जा सकते हैं। ये पौधे आम के दो पौधों  के बीच में रेखांकित करके लगाने चाहिए। इस प्रकार एक हेक्टेयर जमीन में आम के 100 पौधे तथा 300 पूरक पौधे लगाए जा सकते हैं। अंतरशस्य के रूप में दलहनी एवं अन्य फसलों जैसे बोदी, फ्रेंचबीन, भिन्डी, मुंग, कुल्थी, मडुआ आदि की खेती की जा सकती है। जब पौधे के क्षत्रक पूर्ण रूप से विकसति हो जाएं तो छाये में होने वाली फसलें जैसे अदरक, हल्दी एवं ओल की खेती अंतरशस्य के रूप लाभकारी पायी गई है।

पुष्पण एवं फलन

वानस्पतिक विधि से तैयार आम के पौधों में 3-4 वर्षों के बाद फूल आना प्रारंभ हो जाता है। आम में परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है। अतः फूल आने के समय कीटनाशक दवाओं का प्रयोग न करें अन्यथा फलत प्रभावित होती है। आम में मुख्य रूप से नर, मादा एवं उभयलिंगी पुष्प के ही मंजर में पाए जाते है जिसमें से केवल मादा एवं उभयलिंगी फूलों में ही फल बनते हैं। अतः अधिक फलन के लिए मादा पुष्पों का परागण आवश्यक होता है। पौधों के आयु के साथ-साथ फलत एवं वृद्धि होती रहती है तथा 15-20 वर्ष के पौधे से अधिकतम  फल प्राप्त होते हैं।

कीट, रोग एवं नियंत्रण

सिल्ला कीट

सिल्ल्ला कीट पत्तियों के निचले सतह पर मध्य शिरा के पास अंडे देती है जिनसे अगस्त महीने में सूक्ष्मदर्शी नवजात निकल कर पत्तियों के अक्ष की और बढ़ते हैं। यहाँ इनके रस चूसने से नुकीले गाँठ आरंभ हो जाते हैं जो कीट के लिए सुरक्षित आश्रय बनाते है। गाँठ आरंभ में पत्तियों या मंजर निकलने कि भ्रांति पैदा करते है परन्तु इसमें कीट रस चूसकर पौधे को क्षति पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए 5-10 अगस्त के बीच क्वीनॉलफॉस (0.04%) का 10-15 दिनों के अतंराल पर 3 छिड़काव् करना चाहिए। कीट प्रभावित टहनियों या नुकीले गांठों की छंटाई लाभप्रद पाई गई है। 2-3 वर्षों के नियमित प्रबन्धन से इस कीट से होने वाली क्षति से बचा जा सकता है।

फुदका या मधुआ

छालों के अंदर छुपा रहने वाली यह कीट मंजर तथा नर्स टहनियों के रस चूसकर वृक्ष को सर्वाधिक क्षति पहुंचाता है। इनकी उग्रता की स्थिति में मधुस्राव होता है जो पत्तों एवं फलों पर काली फुफंद को बढ़ावा देता है। मंजर सूखने से फूल-फल कम लगते हैं झड़ जाते हैं। इसके प्रबन्धन के लिए सायपरमेथ्रिन (2 मि.ली./ली.) या मोनोक्रोटोफास (1.5 मि.ली./ली.) दवा को पानी में मिलकर कर एक बार फूल खिलने के पहले तथा दो बार मटर आकार के फल लगने के बाद छिड़काव् करना चाहिए।

गुजिया (मिलिवग)

फलों की निचली सतह, टहनियों तथा फलों पर रस वाली सफेद कीट समूह, कपासनुमा शरीर के कारण जल्दी ही दिख जाती है। उग्रता कि स्थिति में टहनियां सूखने लगती हैं। इनके प्रबन्धन के लिए  क्वीनॉलफॉस 2 मि.ली./ली. या मोनोक्रोटोफास 1.5 मि.ली./ली. का मार्च-अप्रैल में छिड़काव् करना चाहिए। जनवरी माह में तने के चारों और गुड़ाई एवं क्लोरोपायरिफॉस या मिथाइल पैराथियान  के 200 ग्रा. धुल का भुरकाव अथवा पोलीथिन के चादर  से तने पर 30 सेंटीमीटर की पट्टी एवं ग्रीस लगाने से इसके नवजात को फांस कर कीट का निराकरण किया जा सकता है।

फल मक्खी

फल मक्खी परिपक्वता के पहले फलों पर अंडे देकर क्षति पहुंचाती है। परिपक्व फलों में इनके पिल्लुओं की उपस्थिति से सड़न आरंभ हो जाती है। देर से पकने वाली किस्मों पर इनका प्रकोप सर्वाधिक होता है। इसके प्रबन्धन के लिए अप्रैल-मई में वयस्क कीटों को फांसने के लिए ट्रैप का इस्तेमाल उपयोगी पाया गया है। इसमें गुड़ का शिरा या ताड़ी में 0.2% कार्बोरिल मिलाकर खुले डिब्बों में पेड़ पर टांग देते हैं जो वयस्कों को अपनी और आकर्षित करता है तथा कीटनाशक के कारण कीट मरते जाते हैं। उग्रता की अवस्था में मोनोक्रोटोफास दवा का (1.25 मि.ली./ली. पानी की  दर से) 2-3 छिड़काव् दोपहर के समय में करना चाहिए।

तना वेधक

कभी-कभी मोटी टहनियों या तने में इसका प्रकोप देखा जाता है। बड़े आकार के पिल्लू तने के अंदर घुसकर भीतरी भाग को खाते हैं और उसी में अपना विष्टा भी निकालते हैं जिससे उनके पेड़ पर होने का संकेत मिलता है। इसके प्रकोप से या तो  टहनियां सुख जाती हैं या टूट जाती हैं। नियंत्रण के लिए नुवाक्रान के घोल (10 मि.ली./ लीटर पानी) या पेट्रोल कि 2-3 बूंद  जीवित छिद्र में डालकर टहनियों के सभी छिद्रों को गीली चिकनी मिट्टी से बंद कर दें। इस प्रकार वाष्पीकरण गंध एक प्रभाव से पिल्लू को खत्म किया जा सकता है और तने को बचाया जा सकता है।

चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू)

चूर्णिल आसिता आम के पत्तों पर जीवित रहते हैं मंजर निकलने तथा फूल खिलने की अवस्था में सक्रिय होकर पौधे को क्षति पहुंचाते हैं। अनुकूल वातावरण में फुफुन्द मंजर पर सफेद-धूसर  रंग की मखमली सतह की तरह दिखते हैं जिनके कारण मंजरों का सुखना, फूल एवं फलों का झड़ना प्रारंभ हो जाता है। इसके प्रबन्धन के लिए दिसम्बर-जनवरी माह में या मंजर निकलने के साथ ही बाविस्टिन (0.1%) या सल्फेक्स (0.2%) का तीन छिड़काव् 10-15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए। ।

श्यामव्रण (एन्थ्रेक्नोज)

इस रोग के कारण नये पत्तों, टहनियों एवं फलों पर काली धंसी चित्तियाँ बनती हैं जिनपर सूई की नोक के आकार के काले-काले कोयला के बुरादेनुमा धब्बे देखे जा सकते हैं। उग्रता की स्थिति में पत्तों या फलों का झड़ना तथा टहनियों का सुखना देखा जा सकता है। इसकी रोकथाम के लिए नये पत्तों एवं बढ़ते फलों पर कवच या इंडोफिल एम्.45 नामक फुफुन्द्नाशी (0.2%) का छिड़काव् करना चाहिए। रोग ग्रसित टहनियों तथा इसके प्रभाव से झड़े पत्तों को जलाना या गाड़ देना लाभकारी होता है।

कज्जली फफूंद (शुटी मोल्ड)

इस रोग के प्रभाव से पत्ते, टहनियाँ या फल काले फफूंद से ढँक जाते हैं। मधुआ या अन्य स्रायी कीटों में मधुस्राव पर इन फुफुन्दों  कि बढ़वार होती है। उग्रता की स्थिति में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया वाधित होती है तथा फलों कि गुणवत्ता में गिरावट के कारण आर्थिक क्षति होती है।  इसकी रोकथाम के लिए स्रायी कीटों का नियंत्रण करना चाहिए। रोग की उग्रता कि स्थिति में व्यवसायिक स्टार्च या माँड़ या गोंद  के 3% के घोल में 1.25 मि.ली./ली.  मोनोक्रोटोफास या रोगर मिलाकर 15 दिनों के अंतराल पर 3 बार छिड़काव् करें।

टहनियों का सूखना (पिंक रोग)

फुफुन्द जनित पिंक रोग के कारण पूर्ण विकसित पेड़ों की टहनियां एक-एक करके सूखने लगती हैं। इसके नियंत्रण के लिए सुखी टहनियों को 15 सेंटीमीटर नीचे से छांट कर उसके कटे भाग पर कॉपर अक्सिक्लोराइड का लेप लगाना चाहिए तथा इसी फुफुन्द्नाशी का 2-3 छिड़काव् करना चाहिए।

जीवाणु कैंकर

पत्तों, टहनियों एवं फलों पर धब्बों का बनना तथा उनपर छोटे-छोटे चमकीले कणों का दिखना इसका प्रारंभिक लक्षण है। उग्रता की स्थिति में फलों का झड़ना, टहनियों का सुखना तथा फलों का सड़ना देखा जा सकता है। इसके बचाव के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन के 200 पी.पी.एम्. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड के 0.2% घोल का 7 दिनों के अंतर पर 3-4 छिड़काव् आवश्यकता होता है।

स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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